वर्धमान अतिवीर वीर प्रभु सन्मति महावीर स्वामी वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर अन्तिम तीर्थंकर नामी ॥ श्री अरिहंतदेव मंगलमय स्व-पर प्रकाशक गुणधामी
महाभक्ति से पूजा करता, क्षमामयी परमातम की ।अन्तर्मुख हो कर भावना, क्षमा स्वभावी आतम की॥
शुद्धातम- अनुभूति होते, ऐसी तृप्ति प्रगटाती । क्रोधादिक दुर्भावों की सब, सन्तति तत्क्षण विनशाती॥
हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
अन्वयार्थ : हिमवन पर्वत से निकलने वाली धारा के जल (गंगा नदी का जल) मुनिराजों के मन के समान निर्मल शीतल और सुगंधित जल से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की सदा पूजा करता हूँ ।
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : दशो दिशाओं को सुगंधित करने वाले चन्दन और केशर को घिसकर संसार की ताप को नष्ट करने के लिए दश लक्षण धर्म की पूजा करता हूं ।
अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा
अन्वयार्थ : मलरहित अखण्ड, (जो टूटे हुए न हो) उत्कृष्ट चन्द्रमा के समान श्वेत उज्जवल चावलों से भव की ताप को नष्ट करने के लिए दशलक्षण धर्म की हमेशा पूजा करता हूँ ।
अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ॥
उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं, सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं, चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं ॥
केवल-रवि किरणों से जिसका, सम्पूर्ण प्रकाशित है अंतर ।उस श्री जिनवाणी में होता, तत्त्वों का सुंदरतम दर्शन ॥ सद्दर्शन-बोध-चरण पथ पर, अविरल जो बढते हैं मुनि-गण ।उन देव परम आगम गुरु को, शत-शत वंदन शत-शत वंदन ॥
उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं, सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं, चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं ॥
उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं, सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं, चहुँगति-दुखतैं काढ़ि मुकति करतार हैं ॥