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लघु-प्रतिक्रमण

Author:
Language : Hindi
Rhythm:

Type: Laghu Pratikraman
Particulars: Paath
Created By: Shashank Shaha

चिदानन्दैक रूपाय, जिनाय परमात्मने।
परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नम:॥

अन्वयार्थ: मैं नित्य उन परम सिद्धि को प्राप्त परमात्मा को नमस्कार करता हूँ जो परमात्म पद के प्रकाशन में अग्रसर हुए हैं, जिन्होंने अनेक रूपता में स्थित चिदानन्द प्रभु को सन्मार्ग के आधार स्वयं को परमात्म पद में स्थित कर जिस परमातम पद को दर्शाया है, मुक्ति प्राप्त की है, अनेक गुणों के भंडार हुए हैं।
हे प्रभु मैंने अब तक पांच मिथ्यात्व, बारह अविरति, पन्द्रह योग, पच्चीस कषाय, ये सत्तावन आस्रव के कारण हैं, इन्हीं के अंतर्गत संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ, मन वच काय द्वारा, कृत, कारित, अनुमोदना तथा क्रोध, मान, माया, लोभ से 108 प्रकार नित्य ही तीन दण्ड, त्रिशल्य, तीन वर्ग, राज कथा, चोर कथा, स्त्री कथा, भोजन कथा, में अपने को अनादि मिथ्या, अज्ञान, मोहवश परिणमाया, परिणमाता रहता हूँ, और जब तक सद्बोधि की प्राप्ति नहीं हुई, परिणमाता रहूँगा, ऐसी दशा में मैंने जिनवाणी द्वारा सत-समागम से जो उपलब्धि प्राप्त की है, उसके ऊपर कथित आस्रव में जो पाप लगा हो, वह सब मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
मैंने भूल से मिथ्यात्ववश अज्ञान-दशा में जो, इतर निगोद सात लाख, नित्य निगोद सात लाख, पृथ्वीकायिक सात लाख, जलकायिक सात लाख, अग्निकायिक सात लाख, वायुकायिक सात लाख, वनस्पतिकायिक दस लाख, दो इन्द्रिय दो लाख, तीन इन्द्रिय दो लाख, चार इन्द्रिय दो लाख, पंचेन्द्रिय पशु चार लाख, मनुष्य गति के चौदह लाख, देव गति के चार लाख, नरक गति के चार लाख, ये सब जाति चौरासी लाख योनि हैं, माता पक्ष पिता पक्ष एक सौ साढ़े निन्यानवे कोडा कोडी कुल, सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त लब्धि, अपर्याप्त आदि जीवों की विराधना की हो, तथा इन पर राग-द्वेष द्वारा जो पाप लगा हो, वह सब मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
हे भगवन ! मेरे चार आर्त्त ध्यान, चार रौद्र ध्यान का पाप लगा हो, अनाचार का तथा त्रस जीवों की विराधना की हो, सप्त व्यसन सेवन किये हों, सप्त भयों का, अष्ट मूल गुणव्रत में अतिचार लगे हों, दस प्रकार का बहिरंग परिग्रह, चौदह प्रकार का अंतरंग परिग्रह, सम्बन्धी पाप किया हो, पन्द्रह प्रमाद के वशीभूत होकर बारह व्रतों के पांच-पांच अतिचार, इस प्रकार साठ अतिचारों में, पानी छानने में, जीवानी यथास्थान न पहुँचाने में, जो भी पाप लगा हो, वह सब मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
हे भगवन! मेरे रौद्र परिणाम दुश्चिन्तवन बोलने में, चलने में, हिलने में, सोने में, करवट लेने में, मार्ग में ठहरने में, बिना देखे गमन करने में, मेरे मन, वच, काय द्वारा जो पाप नासमझ से, समझ से, लगा हो, वह सब मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
हे भगवन ! मैंने सूक्ष्म अथवा बादर कोई भी जीव, पैर तले, करवट में, बैठने, उठने, चलने-फिरने इत्यादि आरम्भ के द्वारा, रसोई-व्यापर इत्यादि आरम्भ में सताए हों, भय को पहुंचाए हों, मरण को प्राप्त हुए हों, दुख को अनुभव करते हों, छेदन-भेदन को मन वच काय द्वारा जाने अनजाने में दुख को ज्ञात करते हों, यह सब दोष मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
मैं सर्व जिनेंद्रों की वन्दना करता हूँ। चौबीस जिन भूत, भविष्य, वर्तमान, बीस तीर्थंकर, सिद्ध क्षेत्र, कल्याणक क्षेत्र, अतिशय क्षेत्र, कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालय की, जिन मन्दिरों की, जिन चैत्यालयों की, वन्दना करता हूँ । मैं सर्व मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, ग्यारह प्रतिमाओं में स्थित साधर्मी बन्धुओं की, बिना समझे अनुभवी भव्य जीवों की, जो निंदा की हो, कटु वचन कहें हों, आघात पहुंचाया हो, विनय न की हो, तथा किन्ही जीवों की निंदा की हो, वह सब मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
हे प्रभु मैंने निर्माल्य द्रव्य का उपयोग किया हो, सामायिक के बत्तीस प्रकार के दोष लगाये हों, जिन मन्दिर में पांच इन्द्रियों के विषय व मन के द्वारा, विषयों में प्रवृत्ति की हो, भगवत पूजन में जो प्रमाद किया हो, मैंने राग से, द्वेष से, मान से, माया से, खेल-तमाशे में, नाटक ग्रहों में, नृत्य-गान आदि सभा में, गृहित-अगृहित मिथ्या द्वारा जो कर्म-नोकर्म संग्रहित किये हों, व जो भाव दूसरों के प्रति अहित के हुये हों, वह सब मिथ्या हो, मैं पश्चात्ताप करता हूँ।
मेरा समस्त जीवों के प्रति मैत्री भाव रहे, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें, मेरा क्षमा भाव बने, कर्मक्षय के उपाय का प्रयत्न करूं, मेरा समाधि-मरण हो, चारों गतियों में मेरे भाव निर्मल रहें, यही प्रार्थना है।
मुझे निरंतर शास्त्राभ्यास की प्राप्ति हो, सज्जन समागम का लाभ मिले, दोषों को कहने में मौन रहूँ, अपने दोषों को त्यागने व प्रायश्चित्त के भाव हों, परोपकार, मिष्टवचन, प्रतिज्ञाओं पर दृढ रहूँ, चारों दान के भाव बनें।
हे भगवन ! जब तक मेरा भव-भ्रमण ना छूटे, आपकी शांत मुद्रा व आपके कर्मक्षय के प्रयास, अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का लक्ष्य, आपके हितकारी वचन, वीतराग परिणति, केवलज्ञान द्वारा आत्महित का मनन, मुझे गति-गति में प्राप्त हो, यह अंतिम निवेदन है, मेरा हृदय आपके चरणों में लीन रहे, शीघ्र भव पार होऊँ, यही मेरी आपसे प्रार्थना है।

॥इति लघु प्रतिक्रमण॥

Shashank Shaha added more details to update on 15 November 2024.

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