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Muni Shri 108 Pujya Sagarji Maharaj – Jeevan Gatha – 3

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मेरी जीवन गाथा ! मोक्ष मार्ग पर आरोहण - अंतर्मुखी मुनी श्री १०८ पूज्य सागरजी महाराज

(अंतर्मुखी मुनि श्री १०८ पूज्य सागर महाराज के ९वें दीक्षा दिवस पर श्रीफल जैन न्यूज में उन्हीं की कलम से उनकी जीवनगाथा प्रस्तुत की जा रही है।)
५. माताजी की प्रेरणा
आर्यिका वर्धितमति माता जी का मौन खुला तो उनसे बात हुई। माता जी ने पूछा था कि नाम क्या है, कहां रहते हो, क्या करते हो तब मैंने अपना परिचय दिया कि मेरा नाम चक्रेश है। मेरे पिताजी का नाम सोमचंद्र और माता का नाम विमला देवी है। मैं विजय भैया की बुआ का लड़का हूं और सनावद के पास पिपलगोन में रहता हूं। अभी १०वीं कक्षा में पढ़ता हूं। मैं तो यहां बस दीक्षा देखने आया हूं।
उसके बाद माता जी ने मुझे संघ में रहने की प्रेरणा दी और कहा कि मेरी बड़ी बहन आर्यिका प्रशांतमति माता जी हैं। दोनों भैया (राजू -विजय) की दीक्षा हो जाएगी तो आचार्य श्री सेवा करने वाला कोई नहीं है। तुम संघ में रहकर संघ की व्यवस्था देखो और और धार्मिक अध्ययन करो। आचार्य श्री का वात्सल्य बहुत है। वह तुम्हें अच्छे से रखेंगे। घर में क्या रखा है, इतने बड़े आचार्य के पास किसे रहने को मिलता है। दोनों भैया की दीक्षा के बाद तुम कुछ दिन तो रुकना फिर तुम्हें जैसा अच्छा लगे, वह करना। मैं आचार्य श्री के पास बैठा था, तभी माता जी वहां आईं।
माता जी ने आचार्य श्री को कहा कि चक्रेश को आशीर्वाद दो कि अब यह संघ में ही रहे। आचार्य श्री ने उत्तर दिया कि हमारा तो आशीर्वाद है लेकिन जैसा उसका मन हो, वैसा ही करे। संघ में रहे तो अच्छा है, अपनी आत्मा का कल्याण करेगा। संघ में किसी चीज की कमी नहीं है, सब कुछ अच्छा ही है। बहुत सारी दीदी या और इनके गांव का मनोज तो संघ में रहने के लिए ही तो आया है। दोनों साथ में अच्छे से रहेंगे। कोई परेशानी हो तो यह बताए। आचार्य श्री ने माता जी को कहा कि अब तुम्हीं इसे समझाना। माता जी ने कहा कि आचार्य श्री कितने प्यार से कह रहे हैं. इतना तो वह कभी किसी को नहीं कहते।
संघ में अच्छे रहो। दो-तीन दिन तक माता जी यही समझाती रहीं, फिर एक दिन मैंने कहा कि दीक्षा के बाद कुछ समय संघ में रहूंगा। अगर अच्छा लगा और धर्म में मन लगा तो फिर आगे की बात करूंगा। माता जी ने पिच्छी लगा कर आशीर्वाद दिया और आचार्य श्री के पास लेकर गईं। आचार्य श्री ने भी मुस्कुराते हुए पिच्छी लगा कर आशीर्वाद दिया।
६. संघ के प्रति नकारात्मकता
१० फरवरी, १९९८ को बिजौलिया क्षेत्र के पंचकल्याणक में दोनों भैया (राजू और विजय) की दीक्षा के बाद संघ ने बिजौलिया शहर की ओर विहार किया और संघ कुछ दिन वहीं पर रुका। पंचकल्याणक में आर्यिका विशुद्ध मति माता जी (एटा) का भी सानिध्य था। बिजौलिया शहर में पहुंचने के बाद मैं आहारचर्या में आचार्य श्री के साथ जाने लगा। मेरा उद्देश्य यह देखना था कि आचार्य श्री को दवाई कैसे देते हैं, आहार कैसे होता है। संघ की दीदियां बारी-बारी से से आचार्य श्री के साथ आहार में जाती थीं। उनके साथ में भी चला जाता था।
एक दिन मैंने आहार के कपड़े वहीं सुखा दिए, जहां दीदियां सुखाती थीं। मुझे नहीं पता था कि कपड़े कहां सुखाने हैं। उसे लेकर संघ में
दीदियों में बहुत बातें हुईं। वे सभी मिलकर मुझ पर कटाक्ष कर रही थीं। उस दिन मेरा मन बहुत खराब हुआ। यह सब इसलिए भी हुआ कि
उस समय दोनों भैया की दीक्षा के बाद कोई और भैया संघ में नहीं थे, जो मुझे यह बताए कि क्या करना और कैसे करना है। यह बात
आर्यिका वर्धित मति माता जी को पता चली तो उन्होंने सभी दीदियों को बहुत डांटा और आचार्य श्री तक जब यह बात पहुंची तो वह भी
बहुत नाराज हुए। आचार्य श्री और माता जी मुझे बहुत समझाया कि यह सब होता रहता है। इन्हें ही किसी को अच्छे से रखना नहीं आता।
तुम अब दीदियों से दूर ही रहा करो। कोई बात हो तो या कुछ चाहिए तो उन्हें या माता जी को कह देना। बहरहाल उस दिन मुझे अच्छा नहीं
लगा और न ही मैंने अच्छे से भोजन किया।
मेरे मन में आया कि यह सब क्या हो रहा है संघ में। यह सब होता है तो फिर घर और संघ में क्या अंतर है। इस प्रकार की कई बातें मन में आ रही थीं। इस कारण दिमाग में बहुत सी नकारात्मक बातें आ रही थीं। इसी बात की लेकर आचार्य श्री और माता जी ने दीदियों से कहा कि यह सब क्या है। दीदियों ने मुझे कहा कि हमने तो इसलिए कहा था कि कहीं तुम कपड़े बदलो और अचानक से कोई दीदी आ जाए तो ठीक नहीं रहता। हो सकता है कि हमारे कहने का तरीका गलत हो। मैं जब उस दिन उदास था। तब आचार्य श्री और माताजी ने बहुत समझाया। तब जाकर दिमाग से नकारात्मक बातें बाहर निकलीं।

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