नवदेवता पूजन-पण्डित राजमल पवैया-श्री अरहंत सिद्ध आचार्योपाध्याय
Author:Pandit Rajmal Pavaiya ji
Language : Hindi
Rhythm: –
Type: Pooja
Particulars: Navdevata Pooja
श्री अरहंत सिद्ध, आचार्योपाध्याय, मुनि साधु महान।
जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्मदेव नव जान॥
ये नवदेव परम हितकारी रत्नत्रय के दाता हैं।
विध्न विनाशक संकटहर्ता तीन लोक विख्याता हैं॥
जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर हे प्रभु नित्य करूँ पूजन।
मंगलोत्तम शरण प्राप्त कर मैं पाऊँ सम्यक्दर्शन॥
आत्मतत्व का अवलम्बन ले पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाऊ।
नवदेवों की पूजन करके फिर न लौट भव में आऊँ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालये-समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधि करणं
परम भाव जल की धारा से जन्म मरण का नाश करूँ।
मिथ्यातम का गर्व चूर कर रवि सम्यक्त्व प्रकाश करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजन्म-जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा
परमभाव चंदन के बल से भव आतप का नाश करूँ।
अन्धकार अज्ञान मिटाऊँ सम्यक्ज्ञान प्रकाश करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योसंसार-ताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव अक्षत के द्वारा अक्षय पद को प्राप्त करूँ।
मोह-क्षोभ से रहित बनूँ मैं सम्यक्चारित प्राप्त करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव पुष्पों से दुर्धर काम-भाव को नाश करूँ।
तप-संयम की महाशक्ति से निर्मल आत्म प्रकाश करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योकाम-बाण विनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव नैवेद्य प्राप्तकर क्षुधा व्याधि का हास करूँ।
पंचाचार आचरण करके परम तृप्त शिववास करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योक्षुधा-रोग विनाशनाय नैवेध्यं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव मय दिव्य ज्योति से पूर्ण मोह का नाश करूँ।
पाप-पुण्य आस्रव विनाशकर केवलज्ञान प्रकाश करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोह-अन्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव मय शुक्लध्यान से अष्टकर्म का नाश करूँ।
नित्य-निरंजन शिवपदपाऊँ सिद्धस्वरूप विकास करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअष्ट-कर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव संपत्ति प्राप्त कर मोक्ष भवन में वास करूँ।
रत्नत्रय की मुक्ति शिला पर सादि अनंत निवास करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योमहा-मोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामीति स्वाहा
परम भाव के अर्ध्य चढ़ाऊँ उर अनर्घ पद व्याप्त करूँ।
भेदज्ञान रवि हृदय जगाकर शाश्वत जीवन प्राप्त करूँ॥
पंच परम परमेष्ठी, जिनश्रुत, जिनगृह, जिनप्रतिमा, जिनधर्म।
नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योअनर्घ पद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा
जयमाला
नवदेवों को नमन कर, करूँ आत्म कल्याण।
शाश्वत सुख की प्राप्ति हित, करूँ भेद विज्ञान॥
जय जय पंच परम परमेष्ठी, जिनवाणी जिन धर्म महान।
जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, नवदेवों को, नित वन्दूं धर ध्यान॥
श्री अरहंत देव मंगलमय, मोक्ष मार्ग के नेता हैं।
सकल ज्ञेय के ज्ञाता दृष्टा कर्म शिखर के भेत्ता हैं॥
हैं लोकाग्र शिखर पर सुस्थित सिद्धशिला पर सिद्धअनंत।
अष्टकर्म रज से विहीन प्रभु सकल सिद्धदाता भगवंत॥
हैं छत्तीस गुणों से शोभित श्री आचार्य देव भगवान।
चार संघ के नायक ऋषिवर करते सबको शान्ति प्रदान॥
ग्यारह अंग पूर्व चौदह के ज्ञाता उपाध्याय गुणवन्त।
जिन आगम का पठन और पाठन करते हैं महिमावन्त॥
अठ्ठाईस मूलगूण पालक, ऋषिमुनि साधु परम गुणवान।
मोक्षमार्ग के पथिक श्रमण, करते जीवों को करुणादान॥
स्याद्वादमय द्वादशांग, जिनवाणी है जग कल्याणी।
जो भी शरण प्राप्त करता है, हो जाता केवलज्ञानी॥
जिनमंदिर जिन समवशरणसम, इसकी महिमा अपरम्पार I
गंध कुटी में नाथ विराजे, हैं अरहंत देव साकार॥
जिन प्रतिमा अरहंतों की, नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी।
जिन दर्शन से निज दर्शन, हो जाता तत्क्षण ज्ञानमयी॥
श्री जिनधर्म महा मंगलमय, जीव मात्र को सुख दाता।
इसकी छाया में जो आता, हो जाता दृष्टा ज्ञाता॥
ये नवदेव परम उपकारी, वीतरागता के सागर।
सम्यक्दर्शन ज्ञान चरित से, भर देते सबकी गागर॥
मुझको भी रत्नत्रयनिधि दो, मैं कर्मों का भार हरूं।
क्षीणमोह जितराग जितेन्द्रिय, हो भव सागर पार करूँ॥
सदा-सदा नवदेव शरण पा, मैं अपना कल्याण करूँ।
जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ, हे प्रभु पूजन ध्यान करूँ॥
ॐ ह्रीं अरहंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्योजयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
मंगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान।
भाव-पूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान॥
(इत्याशिर्वाद॥पुष्पांजलि क्षिपेत॥)
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