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#DharmSagarJiMaharaj1914
Lord Dharmanath had attained Kaivalya, so due to the date of Keval Gyan Kalyanaka, the day was auspicious and the day when the moon was filled with its shodakalas and illuminated the world with its auspicious light, on the same Paushi Purnima day Vikram Samvat in 1970 In Gambhira village under the Bundi district, a child was born from the Kukshi of Mrs. Umrao Bai, the wife of Sadgrihstha Shrestha Shrestha Shri Bakhtawarmalji, named Chiranjilal.
Acharya,Muni and Aryika Dikshit by Acharya Shri 108 Dharm Sagar Ji Maharaj
1.Muni Shri Daya Sagar Ji Maharaj
2.Muni Shri Puspdant Sagar Ji Maharaj
3.Muni Shri Nirmal Sagar Ji Maharaj
4.Muni Shri Saiyam Sagar Ji Maharaj
5.Muni Shri Abhinandan Sagar Ji Maharaj
6.Muni Shri Sheetal Sagar Ji Maharaj
7.Muni Shri Sambhav Sagar Ji Maharaj
8.Muni Shri Bodh Sagar Ji Maharaj
9.Muni Shri Mahendra Sagar Ji Maharaj
10.Muni Shri Vardhaman Sagar Ji Maharaj
11.Muni Shri Chaaritra Sagar Ji Maharaj
12.Muni Shri Bhadra Sagar Ji Maharaj
13.Muni Shri Buddhi Sagar Ji Maharaj
14.Muni Shri Bhupendra Sagar Ji Maharaj
15.Muni Shri Vipul Sagar Ji Maharaj
16.Muni Shri Yateendra Sagar Ji Maharaj
17.Muni Shri Purn Sagar Ji Maharaj
18.Muni Shri Kirti Sagar Ji Maharaj
19.Muni Shri Sudarshan Sagar Ji Maharaj
20.Muni Shri Samadhi Sagar Ji Maharaj
21.Muni Shri Anand Sagar Ji Maharaj
22.Muni Shri Samta Sagar Ji Maharaj
23.Muni Shri Uttam Sagar Ji Maharaj
24.Muni Shri Nirvan Sagar Ji Maharaj
25.Muni Shri Malli Sagar Ji Maharaj
26.Muni Shri Ravi Sagar Ji Maharaj
27.Muni Shri Jinendra Sagar Ji Maharaj
28.Muni Shri Gun Sagar Ji Maharaj
29.Aryika Shri Anantmati Mata Ji
30.Aryika Shri Abhaymati Mata Ji
31.Aryika Shri Vidyamati Mata Ji
32.Aryika Shri Saiyammati Mata Ji
33.Aryika Shri Vimalmati Mata Ji
34.Aryika Shri Siddhmati Mata Ji
35.Aryika Shri Jaimati Mata Ji
36.Aryika Shri Shivmati Mata Ji
37.Aryika Shri Niyammati Mata Ji
38.Aryika Shri Samadhimati Mata Ji
39.Aryika Shri Nirmalmati Mata Ji
40.Aryika Shri Samaymati Mata Ji
41.Aryika Shri Gunmati Mata Ji
42.Aryika Shri Pravachanmati Mata Ji
43.Aryika Shri Shrutmati Mata Ji
44.Aryika Shri Suratnmati Mata Ji
45.Aryika Shri Shubhmati Mata Ji
46.Aryika Shri Dhanyamati Mata Ji
47.Aryika Shri Chaitanmati Mata Ji
48.Aryika Shri Vipulmati Mata Ji
49.Aryika Shri Ratnmati Mata Ji
जन्म: पौष शुक्ला १५, वि.सं. १९७०, १ जनवरी, ई. १९१४
जन्मनाम : चिरञ्जीलाल
जन्म-स्थल : गम्भीरा ग्राम, जि. बून्दी, राजस्थान
जाति : खण्डेलवाल, छाबड़ा गोत्र
वर्ण: वैश्य
पिताश्री:श्रेष्ठी बख्तावरमलजी
मातुश्री : श्रीमती उमरावबाई
लौकिकशिक्षा : दुगारी एवं बामणवास ग्राम में।
प्रथमगुरुदर्शन : १४-१५ वर्ष की छोटी अवस्था में परमागमपोषक
आचार्यकल्प १०८ श्री चन्द्रसागरजी महाराजश्री के दर्शन एवं उनसे आजीवन शुद्ध भोजन का नियम।
व्रतीजीवन : प. पू. आचार्यकल्प श्री वीरसागरजी महाराज से
का प्रारम्भमा इन्दौर में 'दूसरी प्रतिमा'।
संयम की ओर : प. पू. आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागरजी महाराज से बढ़ते कदम म बड़नगर में 'सप्तम प्रतिमा।'
क्षुल्लकदीक्षा : चैत्र शुक्ला ७, वि.सं. २००१, शुक्रवार, बालूज नगर में।
क्षुल्लकदीक्षानाम : क्षुल्लक भद्रसागरजी।
ऐलकदीक्षा: प.पू. आचार्यकल्प वीरसागरजी से फुलेरा पंचकल्याणक
में।
संयम का : कार्तिक शुक्ला-१४, वि.सं. २००८, सोमवार, फुलेरा में भगवती श्रमण दीक्षा।
अगला चरण
मुनिदीक्षा नाम : मुनि धर्मसागरजी। तीर्थ-वन्दना : गुरुदेव के साथ तीर्थराज सम्मेदशिखर की यात्रा एवं गिरनार, बुंदेलखण्ड आदि यात्राएँ।
आचार्यत्वप्राप्ति : फाल्गुन शुक्ला-८, वि.सं. २०२५, महावीरजी; उसी दिन नया ११ दीक्षाएँ प्रदान की।
दीक्षित शिष्य:३२ मुनि, २० आर्यिका, १ऐलक, ७ क्षुल्लक, ४ क्षुल्लिका।
कुल वर्षायोग:४३
देहविलय : वैशाख कृष्णा ९, वि.सं. २०४४
वर्तमान पट्टाचार्य आचार्य श्री 108 वर्धमान सागर जी महाराज
कृषि प्रधान भारत का स्वरूप ऋषिप्रधान रहा है। यहाँ सत्ता,वैभव एवं ऐश्वर्य के उन्नत शिखर भी त्याग, वैराग्य एवं आत्मसाधना के चरणों में झुकते रहे हैं। अनादिकाल से जीवन का लक्ष्य सत्ता व ऐश्वर्य नहीं, किन्तु साधना व वैराग्य रहा है। भारतीय मस्तिष्क मूलतः शान्ति का इच्छुक है और शान्ति का उपाय त्याग व साधना है। यही कारण रहा है कि आत्मसाधना के पक्ष पर चलने वाला साधक ही भारतीय जीवन का आदर्श, श्रद्धेय और वन्दनीय माना जाता रहा है।
इस हुण्डावसर्पिणी काल के सर्वप्रथम सर्वोत्कृष्ट आत्मसाधक भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चतुर्विशंति तीर्थकर महापुरुषों की पावन परम्परा में अनेक महर्षियों ने अपनी आत्मसाधना की है और उनका आदर्श अद्यप्रभृति अक्षुण्ण बना हुआ है। भगवान महावीर के पश्चात् गौतमस्वामी से लेकर धरसेनाचार्य तक और उनके पश्चात् भी कुन्दकुन्दाचार्य आदि से लेकर अद्यप्रभृति महान आत्माएं इस पृथ्वी तल पर जन्म लेती रही है और आर्ष परम्परा के अनुकूल आत्मसाधना करते हुए अन्य भव्य प्राणियों को भी आत्मसाधना का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं।
इन्हीं महान् धर्माचार्यों की परम्परा में कुन्दकुन्दान्वय में ईस्वी सन् की 19वीं शताब्दि में एक महान् आत्मा का जन्म हुआ और वह विश्व में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के नाम से जाने गये। आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने इस भारत भू पर अवतरित होकर 19-20 वीं शताब्दि में लुप्तप्रायः आगम विहीत मुनिधर्म को पुनः प्रगट किया एवं दक्षिण से उत्तर भारत की ओर मंगल विहार करके दिगम्बर मुनि का स्वरूप एवं चर्या जो मात्र शास्त्रों में वर्णित थी, को प्रगट किया। उन महर्षि की महती कृपा का ही यह फल है कि आज यत्र-तत्र सर्वत्र दिगम्बर मुनिराजों के दर्शन, उपदेश श्रवण का लाभ समाज को प्राप्त हो रहा है। आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के पश्चात् उन्हीं के प्रधान मुनिशिष्य श्री वीरसागरजी ने आचार्य पद ग्रहण किया एवं उनके पश्चात् उन्हीं के प्रधान मुनिशिष्य श्री शिवसागरजी महाराज ने आचार्य पद को सुशोभित किया। उभय आचार्यों ने अपने समय में चतुर्विधसंघ की अभिवृद्धि के साथ-साथ धर्म की महती प्रभावना में भी अपना अपूर्व योगदान दिया। आचार्य त्रय की इस महान परम्परा में आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के पश्चात् आचार्य श्री शान्तिसागरजी के प्रशिष्य एवं आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के द्वितीय मुनिशिष्य श्री धर्मसागरजी महाराज आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये। उन्हीं आचार्य श्री का जीवनवृत्त प्रस्तुत निबन्ध में लिखा गया है।
एक दिन अवनितल पर आंखें खुलीं, यही जीवन का प्रारम्भ हुआ एक दिन आखिों ने देखना बन्द कर दिया वह जीवन का अन्त हुआ। जीवन किस तरह जीया गया यह जीवन का मध्य है। कौन किस तरह जीवन जी गया यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसी प्रश्न की चर्चा में से जीवन चरित्रों का गठन, लेखन और परिगुम्फन होता है। महान् पुरुषों के जीवन चरित्र प्रेरणादायक होते हैं अतः परम्परागत आचार्य परमेष्ठी श्री धर्मसागरजी महाराज का जीवन चरित्र जो कि अत्यन्त प्रेरणादायक है, उसे इसी उद्देश्य से यहाँ प्रस्तुत किया है कि उनके जीवन से प्रेरणा पाकर हम भी उन महापुरुषों के पद चिन्हों पर चलकर अपने जीवन को उन्नत एवं महान बना सकें।
भगवान धर्मनाथ ने कैवल्य प्राप्ति की थी अतः केवलज्ञान कल्याणक की तिथि होने से जो दिवस काल मंगल रूप था और जिस दिन चन्द्रमा ने अपनी षोडशकलाओं से परिपूर्ण होकर अपनी शुभ्र ज्योत्सना से जगत् को आलोकित किया था उसी पौषी पूर्णिमा के दिन विक्रम सम्वत् 1970 में राजस्थान प्रान्त के बून्दी जिलान्तर्गत गम्भीरा ग्राम में सदगृहस्थ श्रेष्ठी श्री बख्तावरमलजी की धर्मपत्नि श्रीमती उमरावबाई की कुक्षी से एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम चिरञ्जीलाल रखा गया।
खण्डेलवाल जातीय छाबड़ा गोत्रीय श्रेष्ठी बख्तावरमलजी भी अपने को धन्य समझने लगे जब उनके गृहांगण में पुत्ररतन बालसुलभ क्रीड़ाओं से परिवारजनों को आनन्दित करने लगा।
आपके पिता बख्तावरमलजी एवं उनके अग्रज श्री कंवरीलालजी, दोनों सहोदर भ्राता थे। दोनों ही भाइयों के मध्य दो संतानें थीं। अग्रज भ्राता के दाखां बाई नाम की कन्या एवं अनुज भ्राता के आप पुत्र थे। आप से पूर्व जन्म लेने वाली संतानों का सुख माता-पिता नहीं आपकी बड़ी बहिन (बड़े पिता की संतान) दाखाँबाई का विवाह निकटस्थ ग्राम बामणवास में हुआ था। शैशवावस्था की दहलीज पर आपने पैर रखा ही था कि आपके माता-पिता का असामयिक निधन हो गया। उधर दाखाँबाई को भी माता-पिता का वियोगजन्य दुःख आ पड़ा, किन्तु आपकी अपेक्षा उनकी आयु अधिक थी और विवाहित थी अतः उनको पति तथा सासससुर के संरक्षण में रहने का अवसर होने से अधिक चिंता नहीं थी। आपका जीवन तो अल्प समय में ही माता-पिता के लाड़-प्यार भरे संरक्षण से वञ्चित हो गया था। इष्ट वियोगज दुःख में आपको बहिन दाखाँबाई का संरक्षण मिला। आप बामणवास जाकर उन्हीं के पास रहने लगे और जब विद्याध्ययन के योग्य हुए तो आप अपने पिता श्री के पूर्वजों की जन्मस्थली दुगारी ग्राम चले गये। वहाँ आपको मोतीलालजी-सुवालालजी छाबडा का संरक्षण प्राप्त हुआ। इधर दाखाँबाई को अल्पवय में ही एक और इष्ट वियोगज दुःख का झटका लगा जब उनके पति श्री भंवरलालजी का स्वर्गवास हो गया। अब तो मात्र दोनों भाई बहिन के निर्मल स्नेह का ही जीवन में आश्रय शेष था जो कि बहिन के जीवन पर्यन्त रहा।
क्रमशः एक के बाद एक वियोगज दुःख आने से आपके प्रारम्भिक जीवन में भी आप विशेष विद्याध्ययन नहीं कर सके। यद्यपि आपको अपने जीवन में उस समय सामान्य शिक्षा ग्रहण कर ही संतोष प्राप्त करना पड़ा, तथापि शिक्षा के प्रति आपका विशेष अनुरागद अद्यप्रभृति जीवन के अंत तक बना रहा।
बचपन में अनभिज्ञतावश आप प्रायः सभी धर्मों के देवताओं के पास जाते थे। आप शिवालय भी गए, मस्जिद भी गये। आप सभी देवताओं के पास जाकर एक मात्र यही याचना करते थे कि “मुझे बुद्धि दे दो, विद्या दे दो"। उस समय आपको धर्मशास्त्रों का भी विशेष ज्ञान नहीं था और न गांव में कोई सही मार्ग बताने वाला था। एक दिन आप जैन मंदिर में गए, वहां एक शास्त्रों के जानकार व्यक्ति शास्त्र वाचन कर रहे थे, उन्होंने कहा कि जो वीतराग जिनेन्द्र के अतिरिक्त अन्य कुदेवताओं की पूजा करता है वह नरक में जाता है। आपने इस बात को सुना और वह आपके हृदय में अच्छी तरह बैठ गई, उसी समय से आपने अन्य देवताओं को पूजना तो बंद कर दिया, किन्तु मंदिर तब भी जाना पारम्भ नहीं किया।
'दुगारी' में जब आप अधिक दिन विद्याभ्यास नहीं कर सके तो फिर आप अपनी बहिन दाखांबाई के पास ही आकर बामणवास रहने लगे। उन दिनों उत्तर भारत में दिगम्बर मुनिराजों का अत्यंत अभाव था अतः उनका समागम-उपदेश श्रवण दुर्लभ था। यही कारण था कि आपको स्थानकवासी जैन साधुओं के समागम में रहने का अधिकतर अवसर मिलता रहा, क्योंकि उन दिनों कोटा नगर के आसपास उन्हीं साधुओं का विहार होता था। जब आप पर साधुओं के समागम में इतना प्रभाव पड़ा कि आप दिगम्बर वीतराग प्रभु के मंदिर में न जाकर स्थानक में जाते और स्थानकवासी सम्प्रदाय के अनुसार समस्त धार्मिक क्रियाएं करते, तो बहिन दाखांबाई ने आपको प्रेरणा दी कि जिनेंद्र प्रभु के दर्शन करने के लिए जिन मंदिर जाया करो, किन्तु कई बार इस प्रकार की प्रेरणा करने पर भी आप पर कुछ असर नहीं पड़ा तो फिर बहिन ने अनुशासनात्मक कदम उठाया कि “यदि मंदिर दर्शन करने नहीं जाओगे तो रोटी नहीं मिलेगी"। चूंकि आप पर स्थानकवासी संस्कार अधिक पड़ चुके थे अतः आप मंदिर जाने से कतराते रहे, तथापि घर पर आकर जब बहिन ने एक दिन पूछा कि आज मंदिर जाकर आये या नहीं तो झूठ का सहारा लिया और कह दिया कि मंदिर जाकर आया हूँ। भोजन तो मिल गया, किन्तु बहिन ने मंदिर की मालिन से पूछ ही लिया कि “क्या आज चिरंजी मंदिर दर्शन करने आया था” उत्तर नकारात्मक मिला तब घर पहुँचने पर पुनः आपके समक्ष प्रश्न था कि “आज मंदिर नहीं गये थे” मंदिर की मालिन ने तो मना किया कि तुम मंदिर नहीं गये? उत्तर मिला“मालिन झूठ बोलती है"। बात तो आयी गयी हो नहीं सकी, किन्तु उस दिन झूठ बोलने से आपका हृदय आत्मग्लानि से भर गया और मन ही मन निर्णय किया कि “झूठ के सहारे कब तक काम चलेगा, कल से नित्य देवदर्शन के लिए मंदिर जाना ही है।” दूसरे ही दिन से वीतराग प्रभु की शरण में जाने लगे। आप स्वयं भी बहिन की अनुशासनात्मक प्रेरणा से प्रसन्न थे, क्योंकि वह आपके जीवनमोड़ का सर्वप्रथम कारण था और आप इस बात का उल्लेख करते समय गौरव पूर्ण शब्दों से बहिन का उपकार मानते थे। वास्तव में परिजनों का वही यथार्थ वात्सल्य है जो अपने परिवार के सदस्यों को सही मार्ग में आरूढ़ करके उनके जीवन निर्माण में सहायक हो सके। दुर्घटना से बचे:जिस प्रकार स्वर्ण अग्नि में तपकर ही परिशुद्ध होता है, उसी प्रकार महापुरुष भी संघर्षमय जीवन की अग्नि में तपकर ही महान होते हैं। आपका जीवन भी संघर्षमय रहा है। इष्ट वियोगज दुःख तो आपके जीवन में था ही, किन्तु एक प्राणांतकारी दुर्घटना भी आपके जीवन में घटी, तथापि बुद्धिबल से उस दुर्घटना से भी बचे।बात आपके विद्याभ्यास से समय की ही है, आपके मित्रगण अच्छा तैरना जानते थे और प्रतिदिन तालाब पर जाकर उसमें तैरा करते थे। आपको तैरना आता नहीं था अतः मित्रों के अनेक बार आग्रह करने पर भी आप उनके साथ कभी तालाब पर नहीं गए। एक दिन संध्या के समय विद्यालय से अवकाश होने पर आप घर न जाकर सीधे तालाब पर पहुँचे और देखा कि आस-पास ही क्या कहीं दूर तक भी कोई व्यक्ति नहीं दिखाई दे रहा है तो आप कपड़े खोलकर तालाब में कूद पड़े, किन्तु एकदम अकेले में इस प्रकार तैरना सीखने की अभिलाषा बड़ी महंगी पड़ी। ज्योंहि आपने तालाब में छलांग लगायी आप डूबने लगे। जब देखा कि अब तो डूब जावेंगे तो सहसा ही मन में विचार आया कि घबराते क्यों हो? हाथ-पांव तो हिलाओ, विचारानुसार क्रिया भी की, फल यह हुआ कि येन केन प्रकारेण तालाब के किनारे लग गये और किनारे पहुँचकर जब घाट की सीढ़ियों के सहारे से ऊपर चढ़ने लगे तो सीढ़ियों पर 'काई' जम जाने से वह सहारा भी छूठ गया तथा पुनः पानी में डूबने लगे। अब की बार पुनः हाथ पांव चलाने से किनारे पहुंचे और सीढ़ियों का मजबूती से सहारा लेकर तालाब से बाहर आ गये तथा शीघ्र ही दुर्घटना से अपने को मुक्त पाकर प्रसन्न होते हुए घर की ओर चले गये।इस घटना के पश्चात् आपने तालाब में तैरना सीख लिया। तालाब में तैरना तो मात्र औपचारिकता थी, जो संसार समुद्र से पार होने की कला में प्रवीण होने वाले थे, वे तालाब में तैरने की कला में प्रवीणता प्राप्त करना कैसे महत्वपूर्ण समझते? और जिन्हें मोक्षमार्ग में चलकर आत्मकल्याण के पथ में अग्रसर होना था जो महान् पुण्यशाली थे वे कैसे दुर्घटना ग्रस्त हो सकते थे?
14-15 वर्ष की अवस्था में ही आपने आजीविकोपार्जन हेतु व्यापार प्रारम्भ कर दिया। एक छोटी सी दुकान आपने खोल ली, नैनवां जाकर 2-3 दिन में कुछ सामान ले आते और उसे बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे। आपको संतोषवृत्ति से ही गृहस्थ जीवन व्यतीत करना
इष्ट था, फलस्वरूप आप जब यह देख लेते कि आज आजीविका योग्य लाभ प्राप्त हो गया तो उसी समय दुकान बंद कर देते थे।
इस समय तक भी आपको दिगम्बर साधुओं का निकटतम सान्निध्य प्राप्त नहीं हुआ था। अतः बहिन की प्रेरणा से यद्यपि मन्दिर जाना तो प्रारम्भ कर दिया था, किन्तु विशेष रूप से धर्मकार्यों की ओर झुकाव नहीं हो पाया था। इसी मध्य नैनवां नगर में प.पू. सिंहवृत्ति धारक, परमागम पोषक 108 आ.क. श्री चन्द्रसागरजी महाराज के चातुर्मास का सुयोग प्राप्त हुआ। गुरुदेव का समागम प्राप्त कर आपने अपने जीवन को नया मोड़ दिया और शुद्ध भोजन करने का आजीवन नियम धारण किया। साथ-साथ गृहस्थ के षडावश्यक कर्मों का परिपालन भी आपने दृढ़ता पूर्वक प्रारम्भ कर दिया था।
कुछ ही वर्षों के पश्चात् आप अपनी बहिन के साथ इन्दौर चले गये। वहाँ जाकर आपने सेठ कल्याण मलजी की कपड़ा मील में नौकरी कर ली। चूंकि जीवन निर्वाह तो करना ही था अतः आपने नौकरी करना इष्ट न होते हुए भी उसे स्वीकार किया, किन्तु कुछ ही दिन पश्चात् मील में कपड़े की रंगाई आदि कार्यों की देख रेख के प्रसंग में उन कार्यों में होने वाली बड़ी भारी हिंसा को देखकर आत्मग्लानि उत्पन्न हुई और आपने मील में कार्य करने की अस्वीकृति सेठानी सां. के समक्ष प्रगट कर दी, क्योंकि आप जानते थे कि सेठानीजी का मुझ पर वात्सल्यमय स्नेह है। था भी ऐसा ही, सेठ जी तो थे नहीं दोनों सेठानियों की वात्सल्यमयी दृष्टि आप पर सदैव बनी रही थी। आपको मील से दुकान पर बुला लिया गया। इसी प्रकार संतोषवृत्ति पूर्वक दोनों भाई बहिनों का जीवन निर्विघ्नतया व्यतीत हो रहा था कि इसी बीच सेठानीजी ने कई बार आपके समक्ष विवाह करने का प्रस्ताव रखा और यहां तक कहना प्रारम्भ किया कि विवाह का सारा प्रबन्ध हम कर देंगे, तुम विवाह कर लो, किन्तु जो महान आत्मा मोक्षमार्ग में लगकर रत्नमय पालन करते हुए मोक्षलक्ष्मी को वरण करने की मन में भावना को जागृत करने में लगे थे उन्हें सांसारिक विवाह-बन्धन में बंधकर आत्मोन्नति में बाधा उपस्थित करना कैसे इष्ट हो सकता था? अतः सेठानीजी द्वारा कई बार रखे गए विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव को आपने ठुकरा दिया और बालब्रह्मचारी रहने का निर्णय किया।
इन्दौर नगर में प.पू. आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का समागम आपको प्राप्त हुआ, किन्तु आप दूर से ही दर्शन करके आ जाते थे. एक दिन आपके साथी मित्र आपको पूज्य महाराज श्री के निकट ले गए। प्रारम्भिक वार्ता के पश्चात् व्रतों के महत्व को अत्यन्त संक्षेप में बताते हुए आपको महाराज श्री ने व्रती बनने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि “दो प्रतिमा ले लो" आपने मन में सोचा सम्भव है महाराज “मंदिर में विराजमान प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कह रहे होंगे?" उन दिनों भी आप शुद्ध भोजन तो करते ही थे अतः आपने स्वीकृति दी और गुरुदेव ने बारह व्रतों के नाम बताते हुए व्रतों के पालन की अति संक्षिप्त विधि बता दी। यद्यपि आप व्रती बन चुके थे, तथापि व्रतों का निर्दोष पालन किस प्रकार होगा इस बात की चिन्ता मन में थी। उन दिनों आपका विशेष स्वाध्याय भी नहीं था, इसी कारण जब आपको महाराज ने सर्व प्रथम दो प्रतिमा लेने के लिए कहा तो आप उक्त बात ही समझे थे। उन दिनों गुरु के प्रति विनय-श्रद्धा की भावना अधिक थी। गुरुओं के समक्ष अधिक मुखरता और तर्क-वितर्क नहीं था। यही कारण था कि आपने अत्यन्त विनय पूर्वक गुरुवर्य की आज्ञा शिरोधार्य की और व्रतों के पालन सम्बन्धी विशेष जानकारी स्वयं ग्रंथों का स्वाध्याय करके या विद्वानों से सम्पर्क करके प्राप्त की तथा गुरु द्वारा प्रदत्त व्रतों का निर्दोष रीत्या पालन करने लगे। यहीं से आपके व्रतीजीवन का प्रारम्भ हुआ।
चूंकि अब आप व्रती बन चुके थे अतः आपने अपने धर्मध्यान एवं स्वाभिमान पूर्ण जीवन में नौकरी को बाधक समझ कर नौकरी छोड़ दी। आजीविकोपार्जन के लिए आपने स्वतंत्र रूप से कपड़े की फेरी का कार्य प्रारम्भ किया। प्रातःकाल नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर जिनेन्द्र पूजन, स्वाध्यायादि आवश्यक कर्तव्यों को करके भोजनादि से निवृत्ति हो जाने पर मध्यान्हकाल के पश्चात् लगभग 3 बजे आप फेरी पर निकलते थे। कपड़ा बेचते हुए जब 2-3 घंटे में आपको 1 रुपया प्रतिदिन प्राप्त हो जाता था तो आप वापस घर आ जाते थे। आपकी सन्तोषवृत्ति से साथी लोग भी चकित थे। आपकी यह धारणा बन चुकी थी आजीविका चलाने के योग्य मुनाफा प्राप्त हो जाता है फिर दिन-भर व्यापार में क्यों रचा-पचा जावे। दोनों भाईबहिनों के लिए उन दिनों में उतना ही काफी था। परिग्रह का संचय किसके लिये करना था। दोनों ही प्राणी व्रतीजीवन अंगीकार कर चुके थे। 2-3 घंटे के पश्चात् घर आकर आप अपना शेष समय स्वाध्यायादि में लगाते थे।
चूंकि उन दिनों दिगम्बर मुनिराजों का मंगल विहार उत्तर भारत में भी होने लगा था अतः गुरु दर्शन पाकर जनमानस अपना जीवन धन्य मानते थे। उन दिनों में जब कि मुनिराजों के दर्शन दुर्लभ थे तब यदि कोई ब्रह्मचारी भी आ जाते थे तो उनका पूर्ण सम्मान किया जाता था और बड़ी भक्ति पूर्वक उनसे कुछ आत्मोन्नति का मार्ग प्राप्त करने का प्रयास किया जाता था, किन्तु वर्तमान के बुद्धि प्रधान वितर्कणाओं से युक्त वातावरण में पलने वाला मानव साक्षात् दिगम्बर मुद्राधारी गुरुजनों के पास भी आने से भयभीत है, क्योंकि उसके दिमाग में तो अब तर्क-वितर्क की गंदगी बैठी है और वह संयम से कोसों दूर रहता है। उसे भय लगता है कि यदि संयमी मुनिराजों के पास जाऊंगा तो संयम की बात होगी और जीवन को संयमित करने की प्रेरणा दी जावेगी जो उसे इष्ट नहीं है। अस्तु !
जिन्हें आत्मोत्थान के लिए संयम अत्यन्त प्रिय था वे गुरुजनों के समागम में रहकर ही आत्म संतुष्टि करते थे। इसी के फलस्वरूप जब प. पू. आचार्य कल्प श्री चंद्रसागरजी महाराज का ससंघ चातुर्मास बड़नगर में था उस समय आप उनके चरण सान्निध्य में पहुँचे और स्वाध्यायादि के साथ-साथ गुरु सेवा का अवसर प्राप्त कर बड़े आनंदित थे। अब चूंकि बहिन दाखांबाई और आपका निर्मल स्नेह एवं धर्म के प्रति अनुराग ही परिवार था अतः आप दोनों ही सदैव साथ-साथ गुरुजनों के समागम में जाते थे। चातुर्मास के मध्य अपने ब्रह्मचर्य प्रतिमा (सप्तम प्रतिमा) के व्रत अंगीकार कर लिये। आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प तो आप पहले ही ले चुके थे अतः अब कोई दुविधा मन में नहीं थी। यह आपके संयमी जीवन का प्रथम चरण था, और अब चिरंजीलाल से ब्रह्मचारी चिरंजीलाल हो गये थे।
बड़नगर चातुर्मास के पश्चात् आचार्य कल्प श्री चन्द्रसागरजी महाराज इन्दौर नगर में पधारे। आपकी छत्रछाया में ब्र. चिरंजीलालजी अपरनाम कजोड़ीमलजी अपने जीवन को दिनप्रतिदिन उन्नत बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। पू. श्री चन्द्रसागरजी महाराज ने इन्दौर नगर में धर्म प्रभावना करते हुए भी प्रसंगवश अपने आराध्य गुरुदेव परम पूज्य चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज का आदेश प्राप्त करते ही इन्दौर नगर से विहार कर दिया था। उसी समय आप भी गृह त्याग करके संघ के साथ हो गये थे। बावनगजा, मांगीतुंगी आदि क्षेत्रों की वंदना करते हुए नंदगांव-कोपरगांव और कसाबखेड़ा नगरों में प्रभावना पूर्ण चातुर्मास आ. क. श्री चन्द्रसागरजी महाराज ने किये तथा इन नगरों के आस पास के ग्रामों में विहार करके धर्म प्रभावना करते हुए बालूज (महाराष्ट्र) में जब संघ पहुँचा तो महाराष्ट्र प्रान्त की जनता गुरु सान्निध्य प्राप्त कर हर्षित थी।
आपके मन में दीक्षा धारण करने की भावना अवश्य थी और आप अपनी बहिन से इस बात को कह भी चुके थे। आप दीक्षा प्राप्त न होने तक विभिन्न रसों का परित्याग भी करते रहते थे, किन्तु दीक्षा के लिए आपने गुरुदेव के समक्ष कभी प्रार्थना नहीं की। दीक्षा लेने के आपके विचार गुरुदेव के समक्ष अन्य लोगों के द्वारा पहुंच भी गये थे अतः गुरुदेव ने कहा कि कजोड़ीमल जी (चिरंजीलालजी) स्वयं आकर कहे तो मैं उनको दीक्षा दूं और आपके मन में यह भावना थी कि यदि मुझमें योग्यता आ गई है तो स्वयं गुरुदेव दीक्षा लेने के लिए कहें तो मैं दीक्षा लूं। इस प्रकार गुरु-शिष्य के मध्य कुछ दिन वात्सल्यमय मानसिक द्वन्द्व चलता रहा। अन्ततः गुरु के समक्ष शिष्य की हार हुई और उन्होंने गुरुदेव के चरणों में दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। प्रार्थना करते ही शुभ दिवस में आपको दीक्षा प्रदान की गई।
बालूज नगर की जनता के लिए वह अपूर्व आनन्द की मंगल बेला चैत्र शुक्ला सप्तमी वि.सं. 2001 थी, जिस दिन आपने क्षुल्लक दीक्षा प्राप्त की थी। दीक्षित नाम क्षुल्लक भद्रसागरजी रखा गया।
क्षुल्लक दीक्षा होने के पश्चात् आपने गुरुवर्य श्री चन्द्रसागरजी महाराज के साथ अडूल (महाराष्ट्र) में सर्वप्रथम चातुर्मास किया। चातुर्मास के पश्चात् गिरनारजी सिद्धक्षेत्र की वन्दना हेतु गुरुदेव ने ससंघ मंगल विहार किया। मार्ग में पड़ने वाले मुक्तागिरी, सिद्धवर कूट, ऊनपावागिरी आदि क्षेत्रों की वंदना करते हुए बावनगजा सिद्धक्षेत्र पर पहुँचने के पश्चात् फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा वि. सं. 2001 में सिंह वृत्ति धारक गुरुवर्य श्री चन्द्रसागरजी महाराज का सल्लेखना पूर्वक स्वर्गवास हो गया। जन्म लेने के पश्चात् जिस प्रकार अल्पवय में ही आपको माता-पिता के वियोग का दुःख आया उसी प्रकार दीक्षा जीवन के लगभग 11 माह 8 दिन में ही पितृ-तुल्य तरण-तारण गुरुवर्य का वियोग भी सहना पड़ा।
पू. श्री चन्द्रसागरजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आप आ. श्री वीरसागरजी महाराज के चरण सानिध्य में आ गये और गुरुवर्य के साथ क्षुल्लकावस्था में 6 चातुर्मास किये। इन वर्षों में आपने स्वाध्याय के बल पर आगम ज्ञान को वृद्धिगत किया। आपकी सदैव प्रसन्न मुद्रा से समाज में आनन्द रहता था। चूंकि आ.क. श्री चंद्रसागरजी की चरण सन्निधि में षोडश कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान आपका ज्ञान वैराग्योदधि वृद्धि को प्राप्त हुआ था अतः अब आप प्रतिक्षण महाव्रत प्राप्ति के लिए भावना करते रहते थे कि कब इस अल्प वस्त्र रूप परिग्रह को भी शीघ्र ही छोडूं।
प. पू. आ. श्री वीरसागरजी महाराज ने सुजानगढ़ में वि. सं. 2007 में ससंघ वर्षायोग सम्पन्न किया। इसके पश्चात् संघ का मंगल विहार विभिन्न गांवों एवं नगरों में होता हुआ फुलेरा की ओर हुआ। फुलेरा नगर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर तपकल्याणक के दिन
आपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की। इस समय आपके पास एक कौपीन मात्र परिग्रह शेष रह गया था। वि. सं. 2008 के वैशाख मास में होने वाले इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आपने ऐलक दीक्षा रूप उत्कृष्ट श्रावक के पद को भी प्राप्त तो कर लिया था, किन्तु मोक्षमार्ग में इतने से परिग्रह को भी बाधक समझकर निरन्तर आप यही भावना करते रहे कि शीघ्र ही दिगम्बर अवस्था को प्राप्त करूँ। “यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी” के अनुसार 6 माह के पश्चात् ही वह मंगलमय दिवस भी प्राप्त हुआ जिस दिन आपने मुनिदीक्षा ग्रहण की।
फुलेरा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के पश्चात् संघ ने आस-पास के ग्रामों में विहार किया और धर्म प्रभावना करते हुए वर्षायोग का समय निकट आ जाने पर पुनः फुलेरा नगर में वर्षायोग सम्पन्न करने हेतु मंगल प्रवेश किया। आषाढ़ शुक्ला 14 सं. 2008 को संघ ने वर्षायोग की स्थापना की। प. पू. आ. श्री वीरसागरजी महाराज के वात्सल्यामृत से वैराग्य का वह बीजांकुर वृक्ष रूप से पल्लवित हो रहा था जिसे चन्द्रसागरजी महाराज ने लगाया था। कार्तिक की अष्टाहिका महापर्व के उपान्त्य दिवस कार्तिक शुक्ला 14 सं. 2008 के दिन आपको आ.श्री 108 वीरसागरजी द्वारा भगवती श्रमण दीक्षा प्रदान की गई। अब आप रत्नत्रय मार्ग के पूर्ण पथिक दिगम्बर मुनि 108 श्री धर्मसागरजी थे।
____ फुलेरा नगर का यह बड़ा सौभाग्य रहा कि यहाँ की समाज ने संयम की तीनों अवस्थाओं में आपके दर्शन किये। वि. सं. 2005 में क्षुल्लकावस्था में पहले आपके दर्शन प्राप्त किये ही थे और ऐलक एवं मुनि दीक्षा तो आपकी यहीं पर हुई थी।
फुलेरा नगर का वर्षायोग सम्पन्न होने के पश्चात् मार्गशीर्ष माह में प. पू. वीरसागरजी महाराज ने ससंघ तीर्थराज सम्मेदाचल की ओर मंगल विहार किया। पू. श्री वीरसागरजी
महाराज इससे पूर्व भी अपने आराध्य गुरुदेव श्री आचार्य प्रवर शांतिसागरजी महाराज के साथ मुनि अवस्था में ही तीर्थराज की वंदना कर चुके थे। संघ मार्ग में पड़ने वाले ग्रामों तथा नगरों में अपने उपदेशामृत से धर्मप्रभावना करते हुए सम्मेदाचल की ओर बढ़ रहा था। मार्गस्थ राजगृही आदि अन्य सिद्धक्षेत्रों की वंदना भी संघ ने की। इस तीर्थ वंदना में नव दीक्षित मुनिराज धर्मसागरजी भी साथ थे।
__ जब कोई भी व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित करके उस ओर गतिमान रहता है तो गन्तव्य स्थान पर अवश्य पहुँचता है। संघ भी धीरे-धीरे अपने गन्तव्य स्थान तीर्थराज पर पहुँचा। आपने भी संघ के साथ अनन्त तीर्थंकरों की सिद्धभूमि उस अनादिनिधन तीर्थराज की वंदना करके परम आल्हाद का अनुभव किया। चूंकि संघ जब यहाँ पहुँचा था तब वर्षायोग का समय अत्यन्त निकट था अतः मधुवन से ईसरीबाजार आकर इस वर्ष का वर्षायोग संघ ने यहीं स्थापित किया।
इस प्रकार गुरुवर के साथ-साथ ही आपने विहार किया एवं उनके अंतिम समय तक उन्हीं के साथ रहे। वि. सं. 2012 में बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बराचार्य चारित्र चक्रवर्ती परम पूज्य आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने अपनी सल्लेखना के समय कुन्थलगिरी से अपना आचार्य पट्ट अपने प्रथम शिष्य 108 वीरसागरजी मुनिराज को प्रदान किया। तदनुसार वि.सं. 2012 में ही जयपुर खानियां में वर्षायोग के समय विशेष समारोह पूर्वक चतुर्विध संघ ने आ.क. श्री वीरसागरजी महाराज को अपना आचार्य स्वीकार किया। अब वीरसागरजी महाराज के ऊपर दोहरा भार था। और उन्होंने गुरु द्वारा प्रदत्त आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर उसे सफलता पूर्वक निभाया। आचार्य पद के पश्चात् भी 2 वर्ष तक आपने खानियां जयपुर में ही चातुर्मास किये, क्योंकि आप शारीरिक रूप से अस्वस्थ थे और विहार करने की सक्षमता आप में नहीं थी।
वि.सं. 2014 का चातुर्मास जयपुर में ही सानन्द सम्पन्न हो गया था कि इसी बीच आश्विन कृष्णा 15 को आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का सहसा ही सल्लेखना मरण हो गया। आपको अभी दीक्षा लिए 6 वर्ष ही हुए थे कि आपको गुरु वियोगज अनिष्ट प्रसंग प्राप्त हुआ। आचार्य श्री वीरसागरजी का स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् समस्त संघ ने उनके प्रधान शिष्य मुनिराज श्री शिवसागरजी महाराज को संघ का आचार्य बनाया।
अब संघ के आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज थे। आचार्य संघ ने गिरनार यात्रा के लिए मंगल विहार किया। चूंकि अब से 13 वर्ष पूर्व क्षुल्लक दीक्षा होने के पश्चात् आ.क. श्री चन्द्रसागरजी महाराज के साथ आपने गिरनारजी सिद्धक्षेत्र की वन्दना के लिए विहार किया था, किन्तु गुरुदेव का असमय में मध्य यात्रा में ही स्वर्गवास हो जाने से उस समय आप यात्रा नहीं कर पाये थे अतः उस समय का मनोरथ अब पूर्ण होता देख आपको प्रसन्नता थी। आपने भी संघ के साथ विहार करते हुए सिद्धक्षेत्र वंदना की और वहाँ से वापस लौटते समय ब्यावर नगर में संघ ने वर्षायोग का विचार किया। चूंकि वर्षायोग में अभी समय था अतः आपने संघस्थ एक और मुनिराज को साथ लेकर संघ से पृथक विहार कर दिया और निकटस्थ आनन्दपुर कालू जाकर वर्षायोग स्थापित किया।
यहाँ से अगले दो चातुर्मास क्रमशः बीर (अजमेर) और बूंदी करने के पश्चात् बुन्देलखण्ड की यात्रा करने के लिए आपने दो मुनिराजों के साथ मंगल विहार किया। तीर्थक्षेत्रों की वन्दना करते हुए आपने उस प्रांत में ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में अत्यन्त धर्म प्रभावना की। इतना ही नहीं वि. सं 2018, 2019 व 2020 के तीन वर्षायोग भी आपने इसी प्रान्त के क्रमशः शाहगढ़, सागर और खुरई नगर में किए थे। इन तीनों वर्षायोगों में धर्म की महती प्रभावना हुई तथा आपके सरलता आदि अनुपम गुणों के कारण सागर के कई विद्वान आपसे प्रभावित भी हुए तथा आपके चरण सानिध्य में व्रती जीवन भी प्राप्त किया। इन तीनों चातुर्मासों में दीक्षा समारोह (खुरई में) के अतिरिक्त सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि एक अजैन व्यक्ति जो कि । भाटियाजी के नाम से विख्यात है, ने आपके उपदेशों से प्रभावित होकर कई स्थानों पर अपने स्वोपार्जित द्रव्य से सिद्धचक्र विधान भी करवाये एवं जैन तीर्थों की वंदना भी की। उन्होंने महाराज श्री के आदर्श त्यागमय जीवन से प्रभावित होकर धर्मध्यान दीपक नाम पुस्तक के एक संस्करण का प्रकाशन भी करवाया।
खुरई नगर में वर्षा योग सानंद सम्पन्न होने के पश्चात् आप सहित मुनित्रय ने मालवा प्रांत की ओर विहार किया तथा सिद्धवरकूट-ऊन, पावागिरी-बावनगजा आदि तीर्थों की वन्दना की। इस यात्रा के मध्य पड़ने वाले ग्राम-नगरों में भव्य जीवों को उपदेशामृत का पान कराते हुए लेखक की जन्मभूमि (सनावद-म.प्र.) भी पहुँचे। आपके उस प्रवास काल में मेरी (वर्धमानसागर की) आयु लगभग 13 वर्ष की होगी। आपका 15-20 दिवसीय वह प्रवास आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। कल्पना भी नहीं की जा सकती थी उस समय कि इन महान गुरुराज के चरण सान्निध्य में कालांतर में श्रमण दीक्षा प्राप्त करने का मंगलमय सुयोग प्राप्त होगा और मोक्ष मार्ग में रत्नत्रायराधना का मार्गदर्शन प्राप्त होगा। मैं स्वयं विधि के इस विधान पर आश्चर्यान्वित हूँ कि आपसे मेरा गुरु-शिष्य का सम्बन्ध स्थापित हुआ। आप जैसे चारित्र मूर्तिनिस्पृह व्यक्तित्व करुणा सागर गुरुदेव को प्राप्त कर मेरा जीवन सफल हुआ। अस्तु!
बावनगजा सिद्धक्षेत्र की वंदना के पश्चात् आपने इन्दौर नगर की ओर विहार किया और वि.सं. 2021 का वर्षायोग यहीं स्थापित किया। इस वर्षायोग में आपको सर्वप्रथम मुनिशिष्य की प्राप्ति हुई अर्थात् आपने सर्वप्रथम मुनिदीक्षा इसी चातुर्मास में प्रदान की। वर्षायोग के पश्चात् आपने राजस्थान प्रांत की ओर विहार किया तथा क्रमशः झालरापाटन (2022), टोंक (2023), बूंदी (2024) और बिजोलिया (2025) का चातुर्मास किया। झालरापाटन के वि.सं. 2022 के वर्षायोग के सम्पन्न होने पर आप झालरापाटन के आसपास के ग्रामों में विहार करते हुए ‘बासी' ग्राम में आए। आपके सान्निध्य में पंचकल्याण प्रतिष्ठा भी यहाँ सम्पन्न
हुई थी। यहीं आपके चरण सानिध्य में वीतराग प्रभु के प्रति मूल प्रेरणा स्रोत आपके गृहस्थावस्था की बहिन ब्र. दाखांबाई ने सल्लेखना पूर्वक अत्यंत शांत परिणामों से इस नश्वर शरीर का परित्याग कर स्वर्गारोहण किया था। आप प्रारम्भ से ही अति सहनशील एवं शांत परिणामी थीं। स्वयं आचार्य श्री उनके इन गुणों की प्रशंसा करते, किन्तु जिन्होंने भी दाखांबाई को देखा था वे सब उनके गुणों की प्रशंसा करते हुए ही पाये गये। टोंक और बूंदी के चातुर्मासों में क्रमशः क्षुल्लक और मुनि दीक्षाएं हुई। बिजोलिया के चातुर्मास में आप सहित 5 मुनिराज एवं एक ऐलकजी थे। टोंक-बूंदी और उसके पूर्व इन्दौर आदि नगरों में मुनिसंघ के नायक होने से आपको आचार्य पद प्रदान करने की भावना समाज ने व्यक्त की, किन्तु सदैव आपने यही कहा कि “धर्मप्रभावना की दृष्टि से हम पृथक विहार कर रहे हैं, हमें आचार्य पद नहीं लेना है, हमारे संघ के आचार्य शिवसागरजी महाराज विद्यमान हैं तथा दूसरी बात यह भी है कि आचार्य पद जैसे गुरुतर भार को ग्रहण करके मैं अपने धर्मध्यान में बाधा भी नहीं डालना चाहता हूँ।”
वि. स. 2025 का बिजोलिया नगर में चातुर्मास सम्पन्न करके आपने श्री शांतिवीर नगर में होने वाले पंचकल्याणक महोत्सव में सम्मिलित होने के लिए श्री महावीरजी की ओर विहार किया। इसी महोत्सव में भाग लेने के लिए आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज अपने विशाल संघ सहित महावीर जी पहले ही पहुँच चुके थे। जब आप भी वहाँ पहुंचे और आचार्य श्री शिवसागरजी से मिले तो वह उभय संघ सम्मिलित का दृश्य अपूर्व था। वि. सं. 2015 से पृथक विहार के पश्चात् गुरु भाईयों का वह मिलन दूसरी बार था। इससे पूर्व भी आप राजस्थान प्रांत के उनियारा ग्राम में मिल चुके थे। प्रतिष्ठा महोत्सव से पूर्व ही आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज को फाल्गुन कृष्णा 7 सं. 2025 को अचानक ज्वर ने घेर लिया और दिन-प्रतिदिन शारीरिक स्थिति गिरती ही चली गई। फाल्गुन कृष्णा 14 को लोगों ने दीक्षा ग्रहण करने हेतु आचार्य श्री के चरणों में प्रार्थना की थी। पंचकल्याणक के अंतर्गत तपकल्याणक के दिन यह
दीक्षा समारोह होने का निर्णय था। प्रतिष्ठा फाल्गुन शुक्ला 6 से प्रारम्भ होने वाली थी। दीक्षा हेतु प्रार्थना करने वालों में मैं (वर्धमानसागर) भी सम्मिलित था। फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को शिवसागरजी महाराज के स्वास्थ्य की स्थिति और भी गिरती रही। संघस्थ मुनिराज श्री श्रुतसागरजी एवं सुबुद्धिसागर जी महाराज ने आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से पूछा कि “यदि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं हो पाया और पांडाल में नहीं जा सकेंगे तो फाल्गुन शुक्ला 8 को होने वाले तपकल्याणक के अंतर्गत दीक्षा समारोह में दीक्षार्थियों को दीक्षा कौन प्रदान करेगा?" उत्तर स्वरूप आचार्य श्री ने कहा कि "अभी आठ दिन शेष है तब तक तो मैं स्वयं ही स्वस्थ हो जाऊंगा और यदि नहीं हो सका तो मुनि श्री धर्मसागरजी महाराज दीक्षार्थियों को दीक्षा प्रदान करेंगे।” धर्मसागरजी महाराज वहाँ उपस्थित मुनि समुदाय में (आचार्य शिवसागरजी को छोड़कर) सबसे तपोज्येष्ठ थे। अमावस्या की मध्यान्ह 3 बजे आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज का सहसा स्वर्गवास हो गया। समस्त संघ में वातावरण शोकाकुल सा हो गया, क्योंकि संघ ने कुशल अनुशास्ता आचार्य श्री को खो दिया था। स्वयं धर्मसागरजी महाराज ने भी निधि खो जाने जैसा अनुभव किया।
चूंकि आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के स्वर्गवास से प्रतिष्ठा महोत्सव में उत्साह में कमी आ गई थी और दूसरा ज्वलंत प्रश्न यह था कि संघ के आचार्य कौन होंगे? आठ दिनों की विशेष ऊहापोह के पश्चात् फाल्गुन शुक्ला 8 वि.स. 2025 को प्रभातकाल में संघस्थ सभी साधुओं ने एक स्वर से यह निर्णय किया कि अब आचार्य श्री शिवसागरजी के पश्चात् संघ के आचार्य का भार मुनिराज श्री धर्मसागरजी महाराज को प्रदान किया जाये। निर्णयानुसार तपकल्याणक के अवसर पर फाल्गुन शुक्ला 8 के दिन ही आपको विशाल जनसमुदाय के समक्ष चतुर्विध संघ ने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। विधि का विधान ही कुछ ऐसा होता है कि जिस आचार्य पद को ग्रहण करने की आपने पूर्व में भी कई बार अनिच्छा प्रगट की थी वही आचार्य पद आपको स्वीकार करना पड़ा। आचार्य पद प्राप्त होने के पश्चात् उसी दिन आपके
कर कमलों से (6 मुनि, 2 आर्यिका, 2 क्षुल्लक और 1 क्षुल्लिका) 11 दीक्षाएं हुईं। ये वे ही दीक्षार्थी थे जिन्होंने आचार्य श्री शिवसागरजी के समक्ष प्रार्थना की थी।
आचार्य पद प्राप्ति के पश्चात् महावीरजी क्षेत्र से जयपुर की ओर विहार किया और गुरुदेव आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के निषद्यास्थान की वंदना की। वि. सं. 2026 का वर्षायोग आपने जयपुर शहर में किया। एक ओर जहाँ दीक्षा समारोह हुआ वहीं धार्मिक शिक्षा के लिए गुरुकुल की स्थापना एवं शहर में कई स्थानों पर रात्रि पाठशालाओं का संचालन भी हुआ। यहाँ आपके कर-कमलों से 5 दीक्षाएं सम्पन्न हुईं तथा आपके संघस्थ क्षु. योगीन्द्रसागरजी महाराज जिन्हें मुनि दीक्षा प्रदान कर दी गई थी का आपके चरण सान्निध्य में सल्लेखना पूर्वक स्वर्गारोहण हुआ था। वर्षायोग सानंद सम्पन्न होने के पश्चात् आपने ससंघ पद्मपुरा की ओर मंगर विहार किया, पद्मप्रभु भगवान के दर्शन करने के पश्चात् ग्राम-ग्राम मंगल विहार करके धर्मामृत की वर्षा करते हुए वि. सं. 2027 का चातुर्मास टोंक नगर में स्थापित किया। इससे 4 वर्ष पूर्व आप मुनि अवस्था में चातुर्मास कर चुके थे। इस समय आपके साथ 11 मुनि एवं 18-19 आर्यिका थीं। इस प्रकार विशाल संघ के आचार्यत्व का भार आप पर था जो कि अद्यप्रभृति है। टोंक से विहार करते हुए वि. सं. 2028 का वर्षायोग अजमेर नगर में स्थापित किया। इस वर्ष भी धर्म की महती प्रभावना के साथ-साथ आपके करकमलों से 7-8 दीक्षाएं सम्पन्न हुई थीं। इसके पश्चात् क्रमशः वि. सं. 2029 (लाडनूं) और वि. सं. 2030 (सीकर) नगर में आपके ससंघ दो चातुर्मास हुए। सीकर वर्षायोग के पश्चात् आपने दिल्ली महानगर की ओर विहार किया।
वि. सं. 2031 तदनुसार सन् 1974 में सम्पन्न होने वाले निर्वाणोत्सव में आपको विशेषरूप से आमंत्रित किया गया था और दिगम्बर सम्प्रदाय के परम्परागत पट्टाचार्य होने से आपका विशेष अतिथि के रूप में राष्ट्रीय समिति में भी नाम रखा गया था। निर्वाण महोत्सव की प्रत्येक गतिविधि में प्रायः आपसे विचार विमर्श किया जाता था। आपने सम्पूर्ण कार्यक्रमों में इस बात का सदैव ध्यान रखा कि दिगम्बर संस्कृति अक्षुण्ण बनी रहे। इसका कारण यह था कि इस महोत्सव में जैन धर्म के चार सम्प्रदाय सम्मिलित हुये थे। महोत्सव पर समिति की ओर से प्रकाशित होने वाली भगवान महावीर स्वामी की जीवनी, जो कि चारों सम्प्रदाय को मान्य होनी थी, जब आपके पास अवलोकनार्थ आयी तो उस पर आपने अपनी सहमति देने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उसमें दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार कई स्थल अनुचित थे। महोत्सव में होने वाले ऐसे प्रत्येक कार्य में आपने अपनी सहमति देने से इन्कार कर दिया जिसमें वीतराग प्रभु महावीर और उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म की आसादना होने की सम्भावना थी। इसी कारण महोत्सव समिति के प्रधान कार्यकर्ता क्षुब्ध भी हुये और कहा कि आप हमें कुछ भी कार्य नहीं करने देना चाहते तो हम समिति में रहकर ही क्या करेंगे? आपने अत्यंत गम्भीरता से अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करते हुए कहा कि “आपलोगों को क्षुब्ध होने की आवश्यकता नहीं है, मैं यह चाहता हूँ कि दिल्ली, जो कि भारत की राजधानी है, उसमें होने वाले महोत्सव संबंधी प्रत्येक कार्यक्रम पर सारे देश की, समाज की दृष्टि लगी हुई है और सभी प्रमुख धर्माचार्यों के सानिध्य में होने वाले इस महोत्सव संबंधी कार्यक्रमों का अनुकरण सारा जैन समाज करेगा। अतः यहाँ ऐसा कोई भी कार्यक्रम मैं नहीं होने दूंगा जो दिगम्बर संस्कृति के प्रतिकुल हो और उसका सारा प्रभाव देश भर में पड़े। इसके बावजूद भी आप लोग क्षुब्ध होते हैं और कार्य समिति से इस्तीफा देते हैं तो दें, मैं तो संस्कृति के अनुकूल कार्यों में ही अपनी सहमति दे सकता हूँ।"
इस प्रकार अत्यन्त निर्भयता पूर्वक आपने दिगम्बर संस्कृति की रक्षार्थ कार्य किया और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखा। आपकी इस कार्य प्रणाली को देखकर आपके दिल्ली पहुँचने से पूर्व जो लोग आपको दिल्ली नहीं जाने देना चाहते थे उन्होंने भी एक स्वर से यह स्वीकार किया कि आपके रहते हुए परम्परा एवं आगम की महती प्रभावना हुई एवं संस्कृति अक्षुण्ण बनी रही। इस वर्ष भी आपके कर कमलों से दिल्ली महानगरी में 8 दीक्षाएं सम्पन्न हुई। दिगम्बर सम्प्रदाय की ओर से आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज भी अपने संघ सहित इस महोत्सव में सम्मिलित हुए थे। उभय आचार्यों का वात्सल्य देखकर सारा समाज आनंद विभोर हो जाता था। महोत्सव में मुनि श्री विद्यानंदजी महाराज भी उपस्थित थे और आपने भी उभय आचार्यों की भावनाओं के अनुकूल दिगम्बर संस्कृति की अक्षुण्णता के लिए दोनों आचार्यों से सदैव परामर्श प्राप्त करके ही प्रत्येक कार्यक्रम में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान किया था।
दिल्ली महानगर से ससंघ मंगलविहार करके आपने उत्तर प्रदेश की ओर प्रस्थान किया एवं गाजियाबाद, मेरठ, सरधना आदि स्थानों पर धर्मप्रभावना करते हुए उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक तीर्थ हस्तिनापुर के दर्शन करने के लिए पदार्पण किया। हस्तिनापुर भगवान शांतिनाथ-कुंथनाथ-अरहनाथ की गर्म-जन्म-तप और ज्ञान कल्याणक भूमि है। यहीं भगवान ऋषभदेव को सर्वप्रथम आहारदान राजा श्रेयांस ने दिया था। कौरव-पांडव की राज्यभूमि होने का गौरव भी इसी तीर्थक्षेत्र को प्राप्त है। यहीं पर महामुनि विष्णुकुमारजी द्वारा अकम्पनाचार्यादि 700 मुनिराजों का उपसर्ग दूर हुआ था और रक्षाबन्धन पर्व का प्रारम्भ हुआ था। और अब आर्यिका ज्ञानमती जी की दूरदर्शी सूझबूझ से आगम में वर्णित विशाल जम्बूद्वीप की रचना कमल मंदिर आदि अनेक रचनाऐं त्रिलोक शोधसंस्थान के माध्यम से हुई है तथा इस संस्थान के अन्तर्गत अन्य भी कई लोकोपकारी गतिविधियाँ सम्पन्न हो रही है।
वि. सं. 2031 में जब आचार्य श्री यहाँ पधारे थे तभी यहां प्राचीन क्षेत्र कमेटी की ओर से पंच कल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन था। यहीं पर आपके चरण सान्निध्य में संघस्थ मुनिराज श्री वृषभसागरजी ने यम सल्लेखना ग्रहण की थी और संघ सान्निध्य में अत्यंत शांत परिणामों एवं पूर्ण चेतनावस्था में कषाय निग्रह करते हुए इस नश्वर शरीर का परित्याग कर उत्तर भारतीय समाज के समक्ष एक आदर्श उपस्थित किया था।
तीर्थ वंदना एवं सल्लेखना महोत्सव के पश्चात् आपने ससंघ उत्तर प्रदेश के सहारनपुर नगर की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में मुजफ्फरपुर आदि स्थानों पर धर्मप्रभावना करते हुए वर्षायोग के 1-1 12 माह पूर्व आप सहारनपुर पहुंचे। इस वर्ष (2032) का वर्षायोग आपने सहारनपुर में ही स्थापित किया था। वर्षायोग सम्पन्न होने के पश्चात् आपने पुनः मुजफ्फरपुर की ओर विहार किया। यहाँ के शीतकालीन त्रैमासिक प्रवास काल में संघस्थ दो मुनिराजों ने आपके चरणसान्निध्य में सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त किया। यहीं पर आपके कर कमलों से 11 दीक्षाएं सम्पन्न हुई। यहां से शामली कैराना-कांदला आदि ग्रामों में विहार करते हुए बड़ौत नगर में वि. सं. 2033 का वर्षायोग सम्पन्न किया। कांदला में आ.क. श्री श्रुतसागरजी महाराज जो कि आपके गुरु भाई भी थे आपके दर्शनार्थ राजस्थान प्रांत से विहार करते हुए संघ में सम्मिलित हुए। बड़ौत चातुर्मास में भी वे साथ ही थे। बड़ौत चातुर्मास के पश्चात् ससंघ आपने दिल्ली महानगर तथा रोहतक-रेवाड़ी (हरियाणा प्रान्त) आदि की ओर विहार करके राजस्थान प्रान्त में पुनः प्रस्थान किया राजस्थान के प्रसिद्ध नगर मदनगंज-किशनगढ़ में वि. सं. 2034 का वर्षायोग अभूत पूर्व धर्म प्रभावना के साथ सम्पन्न किया एवं वर्षायोग के पश्चात् अजमेर नगर की ओर प्रस्थान किया। अजमेर में शीतकालीन प्रवास व्यतीत कर आपने ससंघ ब्यावर की ओर मंगल विहार किया। साथ में आ.क. श्री श्रुतसागरजी महाराज थे वे अजमेर ही रुक गये, क्योंकि उन्हें अपने संघ में मिलना था जिसे छोड़कर वे आपके दर्शनार्थ उत्तरप्रदेश की ओर पहुँचे थे। ब्यावर के पश्चात् भीलवाड़ा होते हुए संघ भीण्डर (उदयपुर) पहुँचा। आपके ससंघ सान्निध्य में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा अत्यन्त प्रभावना के साथ सम्पन्न हुई। इसी महोत्सव के अवसर पर शांतिवीर दिगम्बर जैन सिद्धांत संरक्षिणी सभा का नैमित्तिक अधिवेशन भी हुआ। सभा ने धर्म रक्षार्थ आपसे मार्गदशन भी प्राप्त किया। संघ ने भीण्डर से उदयपुर के लिए विहार किया। वि. सं. 2035 का वर्षायोग उदयपुर में सम्पन्न किया। इस वर्ष भी दो दीक्षाएं आपके कर कमलों से सम्पन्न हुई। उदयपुर के वर्षायोग के पश्चात् उदयपुर सम्भाग के छोटे-छोटे ग्रामों में आपने मंगल विहार किया और इन ग्रामों में फैली कुरीतियों को दूर करने की प्रेरणा अपने उपदेशों में दी। कहीं-कहीं तो आपके उपदेशामृत से प्रेरणा पाकर जीर्ण-जीर्ण दशा में स्थित मंदिरों को जीर्णोद्धार करने का संकल्प समाज ने किया। विहार मार्ग में ऐसे ग्राम भी आये जहां इतने विशाल संघ को रहने की व्यवस्था भी नहीं बन पाती थी, आपसे लोगों ने निवेदन भी किया कि बड़े संघ के रहते ग्रीष्मकाल में आपको किन्हीं बड़े स्थानों पर विहार करना चाहिए ताकि संघ की व्यवस्था ठीक प्रकार से हो सके। प्राणी मात्र के कल्याण की भावना जो कि सदैव आपके हृदय में विद्यमान थी वह शब्दों में प्रगट हुई, आपने कहा कि “बड़े नगरों व ग्रामों में प्रायः साधु विचरते ही हैं, किन्तु इन छोटे-छोटे ग्रामों में रहने वाले लोगों में व्याप्त अज्ञानान्धकार फिर कब दूर होगा ये लोग कब साधुओं का समागम प्राप्त करके आत्मकल्याण का मार्ग प्राप्त करेंगे? अतः थोड़ा कष्ट पाकर भी इन ग्रामों में विचरण करेंगे तो इन गांवों में निवास करने वाली समाज का भी तो कल्याण होगा।"
इस प्रकार छोटे-छोटे ग्रामों में मंगल विहार करते हुए आप सलुम्बर नगर में पहुंचे और समाजके विशेषाग्रह से आपने वि.सं. 2036 का वर्षायोग यहीं स्थापित किया। उदयपुर सम्भाग में आपका यह द्वितीय चातुर्मास था। पूर्ववर्ती चातुर्मासों के समान ही इस वर्ष भी अत्यन्त धर्मप्रभावना के साथ यह वर्षायोग सम्पन्न हुआ। इसके पश्चात् सलुम्बर तहसील के आसपास के छोटे-छोटे ग्रामों में पुनः धर्मप्रभावना करते हुए वि. सं. 2037 के वर्षायोग के समय आप केशरियाजी (ऋषभदेवजी) पहुंचे और इस वर्ष का चातुर्मास यहीं स्थापित किया। शारीरिक दृष्टि से यह क्षेत्र आपके तथा संघस्थ प्रायः सभी साधुओं के लिये अनुकूल नहीं रहा क्योंकि इस वर्ष इस क्षेत्र में मलेरिया का अत्यधिक प्रकोप रहा और प्रायः सभी साधुओं को ज्वराक्रांत रहना पड़ा। रोग जनित उपसर्ग तुल्य इस अनिष्ट संयोगज दुःख को संघ ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ सहन किया। इस वर्ष भी आपके कर कमलों से चार दीक्षाएं सम्पन्न हुई। वर्षायोग समाप्ति के पश्चात् आप केशरियाजी के आस पास के ग्रामों में विहार करते रहे।
इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करके 42 वर्षीय दीक्षित जीवन काल में आपने भारतवर्ष के राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र आदि प्रमुख-प्रमुख प्रान्तों में, नगर वं ग्रामों में मंगल विहार करते हुए अभूत पूर्व धर्मप्रभावना की एवं प. पू. आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज द्वारा आगम विहीत परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा।
सरलता की प्रतिमूर्ति :
गृहस्थ हो या साधु (अनगार ) आत्मसाधना का प्रमुख आधार सरलता है, निष्कपटता है। आत्मविशुद्धि के लिये सरलता एक अमोघ साधन है । सरल परिणामों से युक्त आत्मा ही निर्मल पवित्र होती है और साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । आचार्यश्री सरल भाव की ज्योतिर्मय मूर्ति हैं । आपके जीवन में कहीं छुपाव या दुराव वाली बात को स्थान नहीं है । इसी सरलता के कारण आप निर्भीक एवं स्पष्टवादी हैं । कथनी और करनी की समानता वाले सद्गुरु इस संसार में अत्यन्त विरल हैं, आचार्यश्री भी कथनी और करनी की समानता से संयुक्त अद्भत योगीराज हैं।
आचार्यश्री इस युग के आदर्श संत हैं । संतजीवन की समग्र विभूतियां उन में केन्द्रित हो गई हैं । शिशु का सा सारल्य, माता का कारुण्य, योगी की असम्पृक्तता से ओतप्रोत उनका जीवन है। हृदय नवनीत सा मृदु, वाणी में सुधा की मधुरता और व्यवहार में अनायास अपनी ओर आक्रमक लेने बाला जादू ही है । आत्मनिष्ठा के साथ अशेष निष्ठा का निर्वाह करने वाले प्राचार्यश्री वास्तव में अनेकांत के मूर्तिमान उदाहरण हैं।
आर्ष परम्परा के प्रतिकूल सिद्धान्त विरोधी प्रवृत्ति को आपने कभी भी सहन नहीं किया है। न तो आप स्वयं सिद्धान्त विरुद्ध आचरण करते हैं और न किसी के सिद्धान्त विरुद्ध आचरण को सहन ही करते हैं। भगवान महावीर के २५०० वें परि निर्वाणोत्सव के प्रसंग में ऐसे अवसर भी आये जब संस्कृति के विरुद्ध भी सभा में कार्यक्रमों के प्रमुख अतिथियों ने अपने वक्तव्य देने का असफल प्रयास किया, किन्तु उस समय भी आपने पूर्ण निर्भीकता से उन सिद्धान्त विरुद्ध बोलने वाले लोगों को अच्छी नसीहत देते हुए स्पष्ट शब्दों में सभा के मध्य ही सिंह गर्जना करते हुए कहा कि इनको हमारे धर्म सिद्धान्त के विरुद्ध बोलने का कोई अधिकार नहीं है । उस समय आपने यह संकोच कभी नहीं किया कि सभा में आने वाला मुख्य अतिथि केन्द्रीय सरकार का मंत्री है या अन्य कोई । आप सदैव ही आर्ष परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में प्रयत्नशील रहते हैं ।
विश्व में तीन प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं । सर्वप्रथम तो ऐसे व्यक्ति हैं जिनका हृदय बहुत सरल, मधुर और निश्छल प्रतीत होता है । किन्तु हृदय की मधुरता वाणी में प्रगट नहीं होती है, मन का माधुर्य कर्म में भी नहीं उतर पाता है । उनके अन्तःकरण की सरलता वाणी में प्रगट नहीं हो पाती है। दसरी कोटि के ऐसे व्यक्ति भी बहुत हैं जिनकी मिश्री के समान वाणी मधुर सरस होती है किन्त हृदय कटुता, विद्वेष, वैमनस्य संयुक्त है । तीसरे प्रकार के व्यक्ति भी विश्व में यत्किचित् संख्या में मणिवत प्रकाशमान हैं, उनकी वाणी मधुर, मन उससे भी मधुर, वाणी सरल, सरस और हृदय उससे भी सरल, सरस और पवित्र होता है । आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज का व्यक्तित्व इसी कोटि का है। महान व्यक्तियों के मन, वचन, क्रिया में सदैव एकरूपता होती है और दुरात्मा इससे विपरीत होता है । प्राचार्यश्री का पावन जीवन मन, वचन, क्रिया और कर्मरूप निर्मल त्रिवेणी का संगम स्थल है अतः वह परम पावन जीवन्त तीर्थ है।
स्नेह सौजन्य की मूर्ति :
आचार्यश्री का हृदय सरोवर स्नेह और सौजन्य से लबालब भरा हया है। जो भी व्यक्ति सामने जाता है, स्नेह और सौजन्य से अभिषिक्त हुए बिना नहीं रहता। राजा हो या रंक, हो या निर्धन, बालक हो या वृद्ध, नर हो या नारी, अनुरागी हो या विरोधी, निन्दक हो या सक सभी पर समान भाव से स्नेह की पीयूष धारा बरसाने वाले आचार्य श्री धर्मसागरजी नाराज अनायास ही सबको अपना बना लेते हैं। प्रायः देखा जाता है कि जब कोई व्यक्ति साधारण स्थिति पर पहुंचता है तो वह साधारण व्यक्तियों से अपने आपको ऊँचा मानते हुए गर्वानुभूति करता है। किन्तु आचार्यश्री में ऐसा नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि श्रद्धा अज्ञान की सहचारिणी है, किन्तु आचार्यश्री ने अपने व्यक्तित्वबल से जहां साधारण जन की श्रद्धा का अर्जन किया है वहीं समाज के विद्वज्जन भी आपके सरल, शांत, सौम्य एवं निस्पृह वृत्ति से प्रभावित हुए हैं । आचार्यश्री की स्मरण शक्ति भी अद्भुत है । आपकी जिह्वा पर जैन दर्शन के संस्कृत प्राकृत भाषा से सम्बद्ध अनेकों श्लोक विद्यमान हैं और आप निरन्तर उठते बैठते उनका पारायण करते रहते हैं।
प्रवचन शैली:
आचार्यश्री की धर्मदेशना प्रणाली अपने ढंग को निराली है, उनके प्रवचनों में न तो दार्शनिक स्तर की सूक्ष्मता है और न ही आध्यात्मवाद की अज्ञेय गहराईयां हैं। लौकिकजनों को अनुरन्जित कर लौकेषणा से अनुप्राणित भाषा का प्रयोग भी उनके प्रवचनों में नहीं होता है । उनके हृदय की निर्मलता सरलता और विरक्तता उनकी वाणी में प्रकट होती है, क्योंकि आगमानुसार संयम से परिपूर्ण उनका प्रवचन तथा उसके अनुरूप ही जीवन भी संयमित है । आपके प्रवचनों में खड़ी हिन्दी में राजस्थानी ( मारवाड़ी) भाषा का पुट अत्यन्त मधुर लगता है । आगम समर्थित वैराग्यो त्पादक आपकी वारणी ने अनेकों भव्यात्माओं को प्रभावित किया है जिसके फलस्वरूप वे अपने आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हैं । कितने ही पापानुगामी जीवों ने पाप पथ का परित्याग करके चममाग को अपनाया है । आप अपने प्रवचनों में सदैव कहा करते हैं कि वास्तविक पानन्द की सिद्धि मान में नहीं है त्याग में है और व्यक्ति का जीवन भी समीचीन त्याग से उन्नति पथ पर अग्रसर होता है । भोग आत्म पतन और त्याग प्रात्मोन्नति का राजपथ है। आचार्यश्री आत्मविद्या के सजग व परमयोगी हैं। उनकी आत्म साधना का प्रत्यक्ष रूप उनके दर्शन मात्र से ही प्रतिबिम्बित होता है।
आचार्यश्री मेरे दीक्षा गुरु हैं अत: मैंने उन्हें असाधारण व्यक्तित्व सम्पन्न निधि आदि विशेषणों से अलंकृत किया हो ऐसी बात नहीं है । जिस प्रकार सूर्य का प्रकार शीतलता और जलधिका गाम्भीर्य प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है उसी प्रकार व्यक्तित्व को निखारने की आवश्यकता नहीं होती वह स्वतः निखरित होता है। महापुरुष चरण बढ़ाते हैं वही मार्ग है, जो कहते हैं वही शास्त्र है और जो कुछ करते हैं वही कर्तव्य बन जा महापुरुष तीन प्रकार के होते हैं। (१) जन्म जात (२) श्रम या योग्यता के बल पर (३) कृत्रिम पर महानता थोपी जाती है । आचार्यश्री जन्म जात महापुरुष तो हैं ही किन्तु योग्यता के बल पर महापुरुष भी उन्हें कहा जावे तो अतियोशक्ति नहीं होगी। आपके विशाल व्यक्तित्व की प्रामाणिकता में सबसे बड़ा कारण है आपका निर्दोष आचार ।
समस्त भारत वर्ष की सभी संस्थाओं एवं जैन समाज की अोर से तथा दि० जैन नवयुवक मण्डल, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित एवं प्राचार्य कल्प श्री श्रुतसागरजी एवं मुनि वर्धमान सागरजी के मार्ग निर्देशन में ब्र० धर्मचन्द शास्त्री के द्वारा सम्पादित अभिवन्दन ग्रन्थ ५० हजार जनसमुदाय की उपस्थिति में आपको समर्पित किया गया, पर आपने ग्रन्थ लिया नहीं तथा प्रकाशक एवं संयोजन करने वाले सभी बन्धुओं को फटकारा । धन्य है आपका त्याग ! जहां पर मानव पद लिप्साओं को छोड़ने में समर्थ नहीं है वहाँ पर आपने समस्त समाज के सामने ग्रन्थ लेने से इंकार कर दिया।
ऐसे स्वपर कल्याणकारी महापुरुष के चरणों में मानव का शीश स्वयं ही झुक जाता है और उसकी हृदतंत्री से स्वतः ही यह भावना मुखर उठती है कि ऐसे युग पुरुष सदियों तक मानव मात्र का पथ प्रदर्शन करते रहें और अपने आध्यात्मिक बल से मूच्छित नैतिकता में प्राण प्रतिष्ठा करते रहें। इन्हीं भावनाओं के साथ करुणा के असीम सागर, आर्ष परम्परा के निर्भीक संरक्षक, अध्यात्म वाद के साक्षात् आचरण कर्ता, अतिसरल, सत्य के तेज:पुन्ज, छल, कपट से अनभिज्ञ, उच्चकोटि के सादगी प्रिय, क्रोध से सहस्रों कोस दूर, स्याद्वाद के प्रबल समर्थक, सरलता के मूतिमान, निस्पृही व्यक्तित्व, जन जन के वंद्य आचार्यश्री के परम पावन चरणों में मुझ अल्पज्ञ शिष्य के शतसहस्र
प्रणाम !
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Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
#DharmSagarJiMaharaj1914
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आचार्य श्री १०८ धर्म सागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
Lord Dharmanath had attained Kaivalya, so due to the date of Keval Gyan Kalyanaka, the day was auspicious and the day when the moon was filled with its shodakalas and illuminated the world with its auspicious light, on the same Paushi Purnima day Vikram Samvat in 1970 In Gambhira village under the Bundi district, a child was born from the Kukshi of Mrs. Umrao Bai, the wife of Sadgrihstha Shrestha Shrestha Shri Bakhtawarmalji, named Chiranjilal.
Acharya,Muni and Aryika Dikshit by Acharya Shri 108 Dharm Sagar Ji Maharaj
1.Muni Shri Daya Sagar Ji Maharaj
2.Muni Shri Puspdant Sagar Ji Maharaj
3.Muni Shri Nirmal Sagar Ji Maharaj
4.Muni Shri Saiyam Sagar Ji Maharaj
5.Muni Shri Abhinandan Sagar Ji Maharaj
6.Muni Shri Sheetal Sagar Ji Maharaj
7.Muni Shri Sambhav Sagar Ji Maharaj
8.Muni Shri Bodh Sagar Ji Maharaj
9.Muni Shri Mahendra Sagar Ji Maharaj
10.Muni Shri Vardhaman Sagar Ji Maharaj
11.Muni Shri Chaaritra Sagar Ji Maharaj
12.Muni Shri Bhadra Sagar Ji Maharaj
13.Muni Shri Buddhi Sagar Ji Maharaj
14.Muni Shri Bhupendra Sagar Ji Maharaj
15.Muni Shri Vipul Sagar Ji Maharaj
16.Muni Shri Yateendra Sagar Ji Maharaj
17.Muni Shri Purn Sagar Ji Maharaj
18.Muni Shri Kirti Sagar Ji Maharaj
19.Muni Shri Sudarshan Sagar Ji Maharaj
20.Muni Shri Samadhi Sagar Ji Maharaj
21.Muni Shri Anand Sagar Ji Maharaj
22.Muni Shri Samta Sagar Ji Maharaj
23.Muni Shri Uttam Sagar Ji Maharaj
24.Muni Shri Nirvan Sagar Ji Maharaj
25.Muni Shri Malli Sagar Ji Maharaj
26.Muni Shri Ravi Sagar Ji Maharaj
27.Muni Shri Jinendra Sagar Ji Maharaj
28.Muni Shri Gun Sagar Ji Maharaj
29.Aryika Shri Anantmati Mata Ji
30.Aryika Shri Abhaymati Mata Ji
31.Aryika Shri Vidyamati Mata Ji
32.Aryika Shri Saiyammati Mata Ji
33.Aryika Shri Vimalmati Mata Ji
34.Aryika Shri Siddhmati Mata Ji
35.Aryika Shri Jaimati Mata Ji
36.Aryika Shri Shivmati Mata Ji
37.Aryika Shri Niyammati Mata Ji
38.Aryika Shri Samadhimati Mata Ji
39.Aryika Shri Nirmalmati Mata Ji
40.Aryika Shri Samaymati Mata Ji
41.Aryika Shri Gunmati Mata Ji
42.Aryika Shri Pravachanmati Mata Ji
43.Aryika Shri Shrutmati Mata Ji
44.Aryika Shri Suratnmati Mata Ji
45.Aryika Shri Shubhmati Mata Ji
46.Aryika Shri Dhanyamati Mata Ji
47.Aryika Shri Chaitanmati Mata Ji
48.Aryika Shri Vipulmati Mata Ji
49.Aryika Shri Ratnmati Mata Ji
Biography
Present Pattacharya Acharya Shri 108 Vardhaman Sagar Ji Maharaj
Rishipradhan has been the form of agrarian India. Here, even the advanced peaks of power, splendor and opulence have been bowing down at the feet of renunciation, disinterest and self-respect. The goal of life from time immemorial is not power and opulence, but sadhana and detachment. The Indian mind is basically desirous of peace and the remedy for peace is sacrifice and practice. This has been the reason that the seeker on the side of self-respect has been considered the ideal, revered and honorable Indian life.
In the sacred tradition of this Hundavasarpini period, from the best self-respecting Lord Rishabhdev to the great Mahavir to the four great Tirthankar Tirthankaras, many Maharishis have committed their self-sacrifice and their ideal admiration has remained intact. After Lord Mahavira, from Gautamswami to Dharsanacharya and after him also from Kundakundacharya etc., great souls have been born on this earth floor and are offering self-respect to the ardent tradition and giving way to self-respect to other grand creatures.
In the tradition of these great devotees, a great soul was born in Kundakundavayya in the 19th century AD and he became known in the world as Charitra Chakravarti Acharya Shri Shantisagarji Maharaj. Acharya Shri Shantisagarji Maharaj, having descended on this land of India, revived the endangered Agnihit Munidharma in the 19th and 20th centuries and by marching from south to north India revealed the form and chariot of Digambar Muni which was mentioned only in the scriptures. did. It is the result of the great grace of those Maharishi that
Today, the society is getting the benefit of hearing and teaching of Digambar Muniraj everywhere. After Acharya Shantisagarji Maharaj, his Principal Municipality Shri Veerasagarji took the position of Acharya and after him, his Principal Municipality Shri Sivasagarji Maharaj adorned the position of Acharya. Along with the growth of Chaturvidha Sangha in his time, the Amayya Acharyas also contributed to the great influence of religion. In this great tradition of Acharya Tria, after Acharya Shri Sivasagarji Maharaj, Acharya Shri Shantasagarji's trespasser and Acharya Shri Veerasagarji Maharaj's second municipality, Shri Dharmasagarji Maharaj, became honored on the post of Acharya. The biography of the same Acharya Shri has been written in the essay.
One day eyes opened on Avanitl, this is the beginning of life, one day the eyes stopped seeing, that was the end of life. How life was lived is the middle of life. Who lives how is this important question. Out of the discussion of this question, life characters are formed, written and circumscribed. Life characters of great men are inspiring, so the life character of the traditional Acharya Parameshtri Shri Dharmasagarji Maharaj, which is very inspiring, has been presented here with the aim that after getting inspiration from his life, we can also follow the footprints of those great men and make their lives To make it better and better. Birth and childhood:
Lord Dharmanath had attained Kaivalya, so due to the date of Keval Gyan Kalyanaka, the day was auspicious and the day when the moon was filled with its shodakalas and illuminated the world with its auspicious light, on the same Paushi Purnima day Vikram Samvat in 1970 Sadgrihstha Shrestha Shrestha in Gambhira village under Bundi district
A child was born from the Kukshi of Mrs. Umrao Bai, the wife of Bakhtawarmalji, named Chiranjilal.
Khandelwal ethnic Chhabra gotra superior Bakhtavarmalji also considered himself blessed when in his hometown, Putratran started rejoicing the family with childlike sports. Family status
Your father Bakhtawarmalji and his elder Mr. Kanwari Lalji were both siblings. There were two children between both the brothers. You were the son of Agraj Bhrata's daughter named Ananda Bai and Anuj Bhrata. The joy of children born to you before birth is not parents
Your elder sister (elder father's child) Dakhanbai was married in the nearby village of Bamnavas. You had set foot on the threshold of infancy that your parents died prematurely. On the other hand, Dakhanbai also suffered from parental separation, but she was older and married than you, so she was not worried about having the opportunity to live under the patronage of husband and father-in-law. In a short time, your life had become familiar with the pampered patronage of parents. In the favored disconnection grief, you got protection of your sister Dakhanbai. You started living near them by going to Bamnavas
And when you were able to study, you went to Dugari village, the birthplace of your father Shri's ancestors. There you got the patronage of Motilalji-Suvalalji Chhabda. Here, Dakhnbai got a shock of grief in another short time when her husband Shri Bhanwarlalji died. Now there was only shelter in the life of the pure affection of the two brothers and sisters, which remained till the life of the sister.
Education:
You could not do special studies even in your early life due to the separation of grief after succession. Although you had to get satisfaction by taking general education at that time in your life, your special affection towards education remained till the end of life.
In childhood, you often went to the gods of all religions. You also went to the pagoda, also to the mosque. You used to go to all the gods and only prayed, "Give me wisdom, give me knowledge". At that time you did not even have special knowledge of the scriptures nor was there any right path to show in the village. Went to, there was a man of scriptures reciting the scriptures, he said that the one who worships other gods other than the Vetraga Jinendra goes to hell. You heard this and she sat well in your heart, From the same time you stopped worshiping other gods, but did not even begin to go to the temple.
In 'Dugari', when you could not practice for a long time, then you started living in Bamnavas near your sister-in-law. In those days, there was an acute shortage of Digambar Munirajas in North India, so listening to their meetings was rare. This was the reason that you continued to get most of the opportunity to stay in the Samagam of the Jain Sadhus of Sthanakvasi, because those days the monks of those same saints used to live around Kota city. When you had so much influence in the congregation of sadhus that you would not go to the temple of Digambar Vitarag Prabhu and go to Sthanka and do all the religious activities according to the Sthanakwasi sect, then sister Sambambai inspired you to visit the temples of Jindendra Prabhu Go, but many times this kind of inspiration has not affected you, then your sister
Took the disciplinary step that "if you do not go to visit the temple, you will not get bread". Since you were overstayed, you kept on going to the temple, however when coming home one day the sister asked that come to the temple today Otherwise, he resorted to falsehood and said that he has come to the temple. Got food, but the sister asked the mistress of the temple, "Did Chiranji come to visit the temple today?" The question before you was that "Today did not go to the temple" The Malin of the temple denied that you did not go to the temple? The answer was "Malin lies". It could not have been talked about, but lying on that day filled your heart with complacency and decided in your mind that "How long will it work with the help of falsehood, you have to go to the temple for daily devadarshan from tomorrow." From the very next day, Veetrag started going to the Lord's shelter. You yourself were also pleased with the disciplinary inspiration of your sister, because that was the first reason for your marriage, and when referring to this, you considered the sister's favor with full words. In fact, it is the true reality of family members who can help their family members by building their lives in the right way. Accident survivors:
Just as the golden is purified only by heating in fire, similarly great men are also great by burning in the fire of conflict life. Your life has also been a struggle. Favored discordant misery was there in your life, but a fatal accident also happened in your life, however the brain also survived that accident.
It is only about time with your education, your friends knew how to swim well and used to swim in the pond every day. You did not know how to swim, so you never went to the pond with them even after urging many times. One day, when you are away from school at dusk, you did not go home and reached the pond directly and saw that there is no one visible to anyone near and far, then you opened your clothes and jumped into the pond, but in private Thus, the desire to learn to swim became very expensive. As soon as you jumped in the pond you started drowning. When I saw that I would be drowned, then suddenly the thought came in my mind, why do you panic? Wave hands and feet, also did action according to thought, as a result, Yen Kane came to the edge of the pond and when he reached the shore and started climbing up the stairs of the ghat, then the support of the 'Kai' froze on the stairs also lied. And started drowning in water again. Now, once again, he reached the shore by walking with his feet and came out of the pond with a strong support of the stairs and soon found himself free from the accident and went towards the house.
After this incident you learned to swim in the pond. Swimming in the pond was just a formality, those who were going to be proficient in the art of crossing the world, how did they consider it important to attain proficiency in the art of swimming in the pond? And those who had to walk in the path of autism in Moksamarg, who were great and virtuous, how could they suffer an accident? First turn of business life:
At the age of 14-15, you started business for livelihood. You opened a small shop, used to go to Nainavan and bring some goods in 2-3 days and sell it and make a living. Living a household life with your satisfaction
Was favored, as a result, when you would see that the livelihood benefit was received today, then you would close the shop at that time.
Even by this time, you had not received the closest connection with the Digambar Sadhus. So, though inspired by the sister, though she had started going to the temple, she was not particularly inclined towards religious activities. In the same central Nainwan city, Lioness Holder, Pergamum Nutrient 108 AW The Chaturmas of Shri Chandrasagarji Maharaj were well received. After receiving the meeting of Gurudev, you changed your life and took the lifelong rule of pure food. At the same time, you also started the implementation of the conspiracy of the householder. Long distance movement
After a few years, he went to Indore with his sister. After going there, you got a job in Seth Kalyan Malji's cloth mill. Since life had to be done, you accepted it even though it was not favorable to do the job, but after a few days, in the context of looking after the work of dyeing clothes, etc., in the mile, due to the heavy violence in those works, self-ignorance generated Hui and you refused to work in the mi. Disclosed to me, because you knew that Seethaniji had a lot of affection for me. It was like that, Seth ji was not there, but the vision of both the Sethanis was always on you. You were called to the store by miles. In the same way, the life of both brothers and sisters was going on smoothly, in the meantime, in the meantime, Sethaniji offered to marry you many times and even started saying that we will make all arrangements of marriage, you get married, but who The great soul was engaged in moksamarga by rearing the jewels and awakening the spirit of salvation to Mokshalakshmi, by binding her in worldly marriages and hindering self-promotion.How could it have been favored? Therefore, you turned down the marriage proposal that was placed by Sethaniji many times and decided to remain a Balabrahmachari. Beginning of Gurusanayog and Vrati life:
P.W. in Indore city You received the meeting of Acharya Shri Veerasagarji Maharaj, but you used to come from far away. One day your fellow friends took you near Pujya Maharaj Shri. After the initial talks, Maharaj Shri inspired you to become a Vrati, in very brief description of the importance of fasts. He said, "Take two idols" You thought in your mind that it is possible Maharaj "must be saying about the idols in the temple?" Even in those days you used to eat pure food, so you gave approval and Gurudev told the very short method of observing the fasts while mentioning the names of the twelve fasts. Although you had become a Vrati, I was worried about how flawless observance of fasts would be. In those days you did not even have a special self-study, that is why when Maharaj asked you to take the first two idols, then you understood the same thing. In those days there was a feeling of humility and reverence for the Guru. The gurus did not have much assertiveness and argument. This was the reason that you very graciously obeyed the Guruvarya and received special information related to the observance of the fasts by self-studying the texts or contacting the scholars and started following the innocent rituals given by the Guru. This is where your fasting started.
Since you had become a fast now, you left the job as a hindrance in your religious and self-respecting life. For the livelihood, you started the work of a cloth cart independently. In the morning, after exiting from daily activities, Jinendra worshiped, after taking self-care and necessary duties, he left the ferry at around 3 pm after mid-day, after retirement. 2-3 when selling cloth In the hour you used to get 1 rupee per day, then you would come back home. The fellow people were also surprised by your satisfaction. Your belief was made that profit is available for livelihood, then why should business be created throughout the day. In those days it was enough for both brothers. For whom was the accumulation of accession? Both the creatures had adopted the fasting life. After coming home after 2-3 hours, you used to spend the rest of your time in health. Steps towards moderation:
Since the Mangal Vihar of Digambar Muniraj was also happening in North India in those days, the people considered their life blessed after getting Guru Darshan. In those days, when the darshan of the monarchs was rare, if any Brahmachari also came, they were respected and tried to get some path of self-devotion from them with great devotion, but with the present wise wisdom The human being in the environment is afraid of coming to the interviewing Digambar Mudraajas as well, because now the dirt of argument is sitting in his mind and he stays away from restraint. He fears that if the Spartan will go to the monks, then there will be a matter of restraint and he will be inspired to restrain the life which he does not like. In reality !
Those who were very dear to the abstinence for self-improvement, they used to remain content only by staying in the confluence of the gurus. As a result of this, when Pt. E Acharya Kalp Shri Chandrasagarji Maharaj's association was in Chaturmas Badnagar, at that time you reached his stage and he was very happy to get the opportunity of Guru Seva along with Swadhyayadi. Now since sister and sister were your only affection for pure and affection and religion, both of you always went to the gathering of the gurus together. In the midst of Chaturmas, he adopted the fast of his Brahmacharya statue (seventh statue). You had already taken the pledge to be a lifelong celibate, so now there was no dilemma in mind. This was the first phase of your sobriety life, and now Chiranjilal became Brahmachari Chiranjilal.
Homicide and arrogance:
__ After Badnagar Chaturmas, Acharya Kalpa visited Shri Chandrasagarji Maharaj in Indore city. Br under your umbrella Chiranjilalji Uparnam Kajodimalji was trying to upgrade his life day by day. E Shri Chandrasagarji Maharaj, while practicing religion in Indore city, had a monastery from Indore city only after receiving the order of his adorable Gurudev Param Pujya Charitra Chakravarti Acharya Shri Shantisagarji Maharaj. At the same time, you too left home and joined the Sangh. While praying in the areas of Bawangaja, Mangitungi etc., Nandgaon-Kopargaon and Kasabkheda cities came to impress. A. Shri Chandrasagarji Maharaj did it and while performing the religious ceremonies by visiting the villages around these cities, when the Sangh reached Balooj (Maharashtra), the people of Maharashtra were happy to receive Guru Sannidhi.
There was definitely a feeling of initiation in your mind and you had already said this to your sister. You used to give up various juices till you did not get initiation, but you never prayed to Gurudev for initiation. Your thoughts of taking initiation had reached Gurudev by other people also, so Gurudev said that if Kajodimal ji (Chiranjilalji) himself came and said, I should initiate him and you had the feeling that if I have merit then I myself If Gurudev asks to take initiation then I will take initiation. In this way, Vatsalyam mental duality continued for a few days between the Guru and the disciple. Finally the disciple was defeated before the Guru and he prayed to be given initiation at the feet of Gurudev. You were given initiation on the auspicious day of praying.
For the people of Baluj Nagar, he is of great joy, Mangal Bela Chaitra Shukla Saptami It was 2001, the day you received Chhulalak initiation. Dixit was named Chhullak Bhadrasagarji. Guru disconnection:
After the initiation, you did the first Chaturmas with Guruvarya Shri Chandrasagarji Maharaj in Adul (Maharashtra). After Chaturmas, Gurudev visited Sangh Mangal Vihar to worship Girnarji Siddhakshetra. Falgun Shukla Poornima after reaching the Bawangaja Siddhakshetra while worshiping the areas of Muktagiri, Siddhawar Koot, Woolpavagiri etc. en route. In 2001, Guruvarya Shri Chandrasagarji Maharaj, the holder of the lion's instinct, died in a famous manner. After taking birth, just as you were saddened by the separation of your parents in a very short time, in the same way, in about 11 months and 8 days of the initiation life, you also had to suffer the disconnection of Pitru-like Taran-Taran Guruvarya.
E After the death of Shri Chandrasagarji Maharaj, you come. Shri Veerasagarji came to Maharaj's feet and performed six chaturmas with Guruvarya in a strange state. In these years, you increased the knowledge on the strength of self-education. There was joy in the society with your always happy posture. Since AW In Sri Chandrasagarji's Charan Sannidhi, your knowledge like the moon with the Shodash arts was attained in Vairayagodhi growth, so now you used to feel for attaining Pratiksha Mahavrata when I leave this little cloth form Parigra too soon. Second stage of abstinence:
P. E come. Shri Veerasagarji Maharaj in V. In 2007, the Sangh Varsha Yoga was completed. After this, the Sangh's Mangal Vihar Phulera takes place in various villages and towns Happened towards On the occasion of the occasion of Panchakalyanaka's reputation in Phulera Nagar
You took the initiation. At this time, you had only one room left. V. No. In this Panchakalyanak Pratishtha Mahotsav to be held in the Vaishakh month of 2008, you had also attained the position of excellent listener as an elk initiation, but considering the many graces in Moksamarg as an obstacle, you continued to feel that soon the Digambar state I will get According to "Random Bhavana Yasya Siddhirbhavati Tadushhi", after 6 months, that day was also attained on the day when you received Munidikaksha. Digestion:
After Phulera Panchakalyanak's prestige, the Sangh marched in the surrounding villages and while effecting religion, when the time of Varsha Yoga came near, he again entered Mars in Phulera town to complete Varsha Yoga. Ashadh Shukla 14 no. On 2008, the association established Varsha Yoga. P. E come. From the Vatsalyamrit of Shri Veerasagarji Maharaj, that Bijankur tree of disinterest was growing from the form which Chandrasagarji Maharaj had planted. Karthik Shukla No. 14 on Kantik's Ashtahika Mahaparva's Day of Independence On the day of 2008, you were given Bhagwati Shramana initiation by Shri 108 Veerasagarji. Now you were the complete pilgrim Digambar Muni 108 Shri Dharmasagarji of the Ratnatraya Marg.
____ It was a great fortune in Phulera Nagar that the society here saw you in all the three stages of moderation. V. No. You had received your darshan earlier in 2005, and alok and muni deeksha was here. Prayer to the Tirtharaj Samamedachal:
In the month of Margashirsha after the completion of the rainfall of Phulera city, Pt. E Veerasagarji Maharaj marched towards Sangeet Tirtha Raj Sammedachal. E Shri Veerasagarji
Maharaj had also done the worship of Tirtha Raj in the earlier stage with his adorable Gurudev Shri Acharya Pravar Shanti Sagarji Maharaj. In the villages and towns falling on the Sangh Marg, he was moving towards Sammedachal, performing religious ceremonies with his sermon. The Sangh also worshiped other Siddhakshetras, such as Marjagri Rajgrihi. New Dixit Muniraj Dharmasagarji was also in this pilgrimage Vandana.
__ When a person sets his goal and keeps moving towards it, he must reach the destination. The Sangh also slowly reached its place of pilgrimage. You too, along with the Sangh, experienced the ultimate blessing by worshiping that Anadinidhan Tirtharaj, the Siddhbhumi of eternal Tirthankaras. Since the time of Varsha Yoga was very near when the Sangh reached here, so after coming from Madhuban to Isaribazar, Varsha Yoga Sangh established this year here.
Thus, along with the Guruvar, you did the Vihara and stayed with them till their last time. V. No. In 2012, the first Digambaracharya Charitra Chakravarti of the twentieth century, Param Pujya Acharya Shri Shantisagarji Maharaj, gave his Acharya Patta from Kunthalgiri to his first disciple 108 Veerasagarji Muniraj at the time of his writing. Accordingly In 2012 itself, the Chaturvidha Sangh organized a special ceremony at the time of rainy season in Jaipur mines. Accepted Shri Veerasagarji Maharaj as his master. Now Veerasagarji Maharaj had a double weight on him. And he successfully held the position of Acharya conferred on him by the Guru. Even after the post of Acharya for 2 years, you did the Chaturmas in the mines in Jaipur, because you were physically unwell and did not have the ability to do vihara.
Another setback from Guru Disconnection:
V.s. The Chaturmas of 2014 were completed in Jaipur itself, in the meantime, Ashwin Krishna 15 was killed by Acharya Shri Veerasagarji Maharaj. It was only 6 years after you were initiated that you received a negative connection with Guru Viogas. After the death of Acharya Shri Veerasagarji, the entire Sangh made his principal disciple Muniraj Shri Sivasagarji Maharaj the Acharya of the Sangh. Vindana of Girinar Siddhakshetra and a separate vihara from the Union
Now the master of the union was Shri Sivasagarji Maharaj. Acharya Sangh visited Mangal Vihar for the Girnar Yatra. Since 13 years ago, A.W. With Shri Chandrasagarji Maharaj, you had prayed for the worship of Girnarji Siddhakshetra, but you could not travel at that time because of Gurudev's untimely journey in mid-journey, so you were happy to see that the desire of that time is now complete. You also performed Siddhakshetra Vandana while staying with the Sangh and while returning from there, the Sangh contemplated Varsha Yoga in Beawar Nagar. Since there was still time in Varsha Yoga, you took another sage of Sanghistha, separate monastery from the Sangh, and went to the nearest Anandpur Kalu and established Varsha Yoga.
From here, after visiting the next two Chaturmas, Bir (Ajmer) and Bundi respectively, you visited Mangal Vihar with two monkeys to travel to Bundelkhand. While worshiping the pilgrimage areas, you practiced a lot of religion in every province, village after town. Not only this, you also did three Varsha Yogas of 2018, 2019 and 2020 in Shahgarh, Sagar and Khurai Nagar respectively. In all these three Varshayogas, the great influence of religion was effected and due to your ingenious qualities etc., many scholars of Sagar were impressed with you and also got a fasting life in your phase. Initiation in these three Chaturmas
Apart from the ceremony (in Khurai), the greatest feature was that of an Ajain person. Famous by the name of Bhatiaji, he was impressed by your teachings and got Siddhachakra Vidhan in many places with his self-imposed wealth and also worshiped Jain pilgrimages. He also got the publication of a version of the book named Dharmadhyan Deepak after being impressed by the ideal living life of Maharaj Shri. Prayers to the Malwa provincial pilgrimage areas:
After the completion of Varsha Yoga Sanand in Khurai city, Munitri along with you marched towards Malwa province and offered prayers at Siddhavrakuta-wool, Pavagiri-Bawangaja etc. The author's birthplace (Sanavad-M.P.) was also reached in the village-cities falling in the midst of this yatra by offering preaching to the grand creatures. In that period of your stay, I (Vardhmanasagar) will be around 13 years old. Your 15-20 day stay is still mentioned on the table of memory. It could not even be imagined at that time that in the phase of these great Gururaj, one would get auspicious time to receive the Shramana initiation in time and the guidance of Ratnatrayaradhana on the path of salvation. I myself am surprised at this law of law, that my relationship with you was established. My life was successful by acquiring a charismatic idol like you Karuna Sagar Gurudev. In reality!
After the worship of Bawangaja Siddhakshetra, you marched towards Indore city and Varsha Yoga of 2021 was established here. In this Varsha Yoga, you got the first Munishishya, that is, you gave the first Munidiksha in this Chaturmas. After Varsha Yoga, you marched towards Rajasthan province and performed the chaturmas of Jhalrapatan (2022), Tonk (2023), Bundi (2024) and Bijolia (2025) respectively. JNV's V.S. After the completion of the Varsha Yoga in 2022, you came to the village of 'Basi', while visiting the villages around Jhalrapatan. Panchakalyan reputation in your relationship is also accomplished here
Had happened. This is the main source of inspiration for Veetrag Prabhu in your phase, the sister of your family. Zambambai had sacrificed this mortal body with utmost calm results in abandonment. You were very tolerant and calm from the beginning. Acharya Shri himself praised these qualities, but whoever had seen the Vibhambi were found praising his qualities. The Chaturmas of Tonk and Bundi underwent Chhoolakka and Muni initiation respectively. In Chaturmas of Bijolia there were 5 Muniraj and one Alakji along with you. Being the hero of Munisingh in Tonk-Bundi and earlier cities like Indore, the society expressed the feeling of granting you the position of Acharya, but always you said that "We are doing separate monasteries in terms of religious influence, we should not take Acharya post It is, our Sangh Acharya Sivasagarji Maharaj is present and the second thing is that I do not even want to obstruct my religion by accepting a Gurutara load like Acharya post. ” Another thunderclap:
V.C. After completing the Chaturmas in Bijolia Nagar of 2025, you marched to Shri Mahavirji to attend the Panchakalyanaka festival to be held in Sri Shantiveer Nagar. Acharya Shri Shivsagarji Maharaj had already reached Mahavir ji with his huge association to participate in this festival. When you too reached there and met Acharya Shri Sivasagarji, the scene of the Umbha Sangh included was unique. V. No. The meeting of the Guru brothers was the second time since 2015, after a separate monastery. Earlier also you had met in Uniyara village of Rajasthan province. Even before the Pratishtha Festival, Acharya Shri Sivasagarji Maharaj got Falgun Krishna 7 no. On 2025, a sudden fever surrounded her and her physical condition continued to decline. On Phalgun Krishna 14, people prayed at the feet of Acharya Sri to receive initiation. On the day of Tapakalyanaka under Panchakalyanak
It was decided to have the initiation ceremony. Pratishtha was to start from Phalgun Shukla 6. I (Vardhamanasagar) was also among those who prayed for initiation. The health condition of Sivasagarji Maharaj continued to fall further on Falgun Krishna Amavasya. Sanghastha Muniraj Shri Shrutasagarji and Subudhisagar Ji Maharaj asked Acharya Shri Sivasagarji Maharaj that "If your health is not well and cannot be able to go to Pandal, then who will provide initiation to the devotees in the initiation ceremony under Tapakalyanaka to be held on Falgun Shukla 8?" "Answer Swaroop Acharya Shri said that" till now eight days are left, I will be healthy myself and if it is not possible then Muni Shri Dharmasagarji Maharaj will give initiation to the devotees. " Dharmasagarji Maharaj was the most ascetic in the Muni community (except Acharya Sivasagar). Acharya Shri Sivasagarji Maharaj died suddenly at 3 am on the new moon. The atmosphere in the entire Sangh became a bit miserable, as the Sangh lost the skilled follower Acharya Sri. Dharmasagarji Maharaj himself felt like losing funds.
Achievement:
Since Acharya Shri Sivasagarji Maharaj's death there was a lack of enthusiasm in the Pratishtha Festival and the second burning question was, who would be the Acharya of the Sangh? After eight days of special experimentation, Phalgun Shukla is 8 years old. In the morning of 2025, all the Sadhus of the Sangha decided with one voice that now after Acharya Shri Sivasagar, the burden of the Acharya of the Sangh should be given to Muniraj Shri Dharmasagarji Maharaj. According to the decision, on the occasion of Tapakalyanaka, on the day of Phalgun Shukla 8, in front of a large crowd, Chaturvidhi Sangh honored him as Acharya. The law of the law is such that you had to accept the position of Acharya which you had expressed reluctance many times in the past. On the same day after attaining the position of Acharya
There were 11 initiations (6 sages, 2 aryika, 2 ahutalka and 1 ashullika) from the tax lotus. These were the deksharthis who prayed before Acharya Shri Sivasagar.
After receiving the position of Acharya, Mahavirji marched from the area to Jaipur and worshiped the shrine of Gurudev Acharya Shri Veerasagarji Maharaj. V. No. You did the 2026 Varsha Yoga in Jaipur city. While the initiation ceremony took place, Gurukul was established for religious education and night schools were also run in many places in the city. Here 5 initiations were completed by your lotus and your associates. Yogindrasagarji Maharaj, who had been granted sage initiation, had a heavenly ascension at his feet. After the completion of Varsha Yoga Sanand, you visited Mangar Vihar towards Sasangh Padmapura, after seeing God of Padmaprabhu, after doing village to village Mangal Vihar, showering Dharmamrit. Chaturmas of 2027 established in Tonk city. You had done Chaturmas 4 years ago in a monk state. At this time there were 11 sages and 18-19 Aryika with you. In this way, the burden of the teacher of the Vishal Sangh was on you, which is an epiphany. V. no. While traveling from Tonk Varsha Yoga of 2028 established in Ajmer city. This year too, along with the great influence of religion, 7-8 deeksha were completed from your people. After this, respectively, V.No. 2029 (Ladnun) and v. No. 2030 (Sikar) In the city, your sister had two Chaturmas. After Sikar Varsha Yoga you marched towards the metropolis of Delhi. 2500th Parinirvanotsav of Lord Mahavira:
V. No. 2031 Accordingly, you were specially invited to the Nirvnotsav held in 1974 and you were also named in the National Committee as a special guest due to the traditional pathacharya of the Digambara sect. You were often consulted in every activity of the Nirvana Festival. You have full programs I always kept in mind that the Digambar culture should remain intact. The reason for this was that four sects of Jainism attended this festival. Committee on Festival
The biography of Lord Mahavir Swami, published on behalf, which was supposed to be valid for the four sects, when you came for perusal, you refused to give your consent to it, because according to the Digambar sect there were many places inappropriate. You refused to give your consent in every such work to be done in the festival, in which there was a possibility of the existence of Vitarag Prabhu Mahavir and the religion propounded by him. For this reason, the chief workers of the Mahotsav Samiti were also angry and said that if you do not want to let us do anything, then what will we do while staying in the committee? He expressed his sentiments with the utmost seriousness and said that "you do not need to get angry, I want that every event related to the festival in Delhi, which is the capital of India, will be done for the whole country, society The vision is on and the entire Jain society will emulate the programs related to this festival to be held by all the prominent religious leaders. Therefore, I will not allow any such program to be held here which is compatible with the Digambar culture and its effect will be spread across the country. Despite this, you people are angry and resign from the Working Committee, if you give, I can only give my consent in culture friendly works. "
In this way, you worked fearlessly for the protection of the Digambar culture and kept the culture intact. Seeing this system of your work, before you reached Delhi, those who did not want to let you go to Delhi, also accepted with a voice that the tradition and legacy of your life was effected and the culture remained intact. This year too, 8 deeksha were completed in the Delhi metropolis due to your taxes. On behalf of the Digambara sect, Acharya Shri Deshabhushanji Maharaj, along with his association, attended this festival. The whole society is happy seeing the importance of the common masters
Used to be Muni Shri Vidyanandji Maharaj was also present in the festival and he also provided full support in each event only after receiving consultation from both Acharyas for the integrity of the Digambara culture in accordance with the feelings of the common masters.
From the metropolis of Delhi, Sangh Mangalvihar, you left for Uttar Pradesh and started to visit the historical shrine Hastinapur of Uttar Pradesh while performing religious ceremonies at Ghaziabad, Meerut, Sardhana etc. Hastinapur is the hot-birth-penance and knowledge of the land of Lord Shantinath-Kunthanath-Arhanath. Here Lord Rishabhdev was first given food by King Shreyans. This pilgrimage area also has the distinction of being the Kaurava-Pandava kingdom. It was here that Akampanacharyadhi, the surname of 700 munirajas, was removed by Mahamuni Vishnukumarji and the Rakshabandhan festival started. And now, with the visionary wisdom of Aryika Gyanmati, the huge Jambudweep described in Agama has been created through the Trilok Shodh Sansthan and many other philanthropic activities are taking place under this institute.
V. No. In 2031, when Acharya Shri visited here, the Panchay Kalyanak Pratishtha was organized by the Committee of Ancient Regions here. It was here that Sanghistha Muniraj Shri Vrishabasagarji took Yama Sallekhna in your phase, and in the Sangh Sannidhi, under extreme calm results and renunciation of the subject in complete state of consciousness, gave up this ideal body to North Indian society.
After the pilgrimage Vandana and Sallekhana festival, he left for Saharanpur city of Sangh Uttar Pradesh. You reached Saharanpur 1-1 12 months before Varsha Yoga while performing religious ceremonies at places like Muzaffarpur. This year (2032) Varsha Yoga was established in Saharanpur itself. After the completion of Varsha Yoga, you again marched towards Muzaffarpur. During the winter quarterly stay here, the two emperors in the confederacy attained a remarkable resolution in your phase. Here only
11 deeksha were completed by your lotus. From here, while commuting in the villages of Shamli, Kairana-Kandla etc., in V.D. Rainfall of 2033 concluded. AW in Kandla Shri Shrutasagarji Maharaj, who was also your Guru Bhai, joined the Sangh while visiting the Rajasthan province for your visit. They were also together in Barot Chaturmas. After Barot Chaturmas, the Sangh rejoined the metropolis of Delhi and Rohtak-Rewari (Haryana province) etc. and re-entered Rajasthan.
In the famous city of Rajasthan, Madanganj-Kishangarh, V. no. The Varsha Yoga of 2034 was completed with unprecedented pre-religious influence and after the Varsha Yoga, proceeded towards Ajmer city. After spending the winter stay in Ajmer, you marched towards Sangha Beawar. Together wk Shri Shrutasagarji Maharaj stayed at Ajmer, because he had to meet in his union, which he left for Uttar Pradesh for your visit. After Beawar, the Union reached Bhinder (Udaipur) via Bhilwara. The Panchakalyanak reputation in your Sangh Sannyadhi was accomplished with great effect. On the occasion of this festival, the annual session of Shantivir Digambar Jain Siddhanta Conservatory was also held. The gathering also received guidance from you for protecting the religion. The Sangh marched from Under to Udaipur. V. No. Varsha Yoga of 2035 concluded in Udaipur. This year too, two initiations were completed by your lotus. After Varsha Yoga of Udaipur, you did Mangal Vihar in small villages of Udaipur division and gave inspiration in your teachings to remove the evil practices spread in these villages. Somewhere, after getting inspiration from your sermon, the society resolved to renovate the temples located in dilapidated condition. Villages also came to the villages where such a large union could not even make a living arrangement, people also requested you to stay in some big places during the summer of the big union so that the organization of the union is properly done. Could. The spirit of mere welfare of the creature which was always present in your heart was revealed in words, you said that "in big cities and villages, sadhus are often
People are still wondering, but when the ignorance prevails among the people living in these small villages, when will these people get away and when will they attain the path of autism by attaining the confluence of the sages? Therefore, even after getting a little trouble, if you visit these villages, then those who live in these villages
The society will also be welfare. "
In this way, while doing Mangal Vihar in small villages, you reached Salumbar Nagar and due to the special purpose of society, Varsha Yoga of 2036 was established here. This was your second chaturmas in Udaipur division. Like previous Chaturmasas, this year, this Varsha Yoga was completed with great religious effect. After this, V.N., while performing religious ceremonies in small villages around Salumbar Tehsil. At the time of Varsha Yoga in 2037, you reached Keshariji (Rishabhdevji) and established this year's Chaturmas here. Physically, this area has not been favorable for you and the Sanstha, almost all the sadhus, because this year there was a severe outbreak of malaria in this area and almost all the sadhus had to remain tidal. The Sangh tolerated this negative accidental sorrow like disease-related prefix with great pleasure. This year also four deeksha were completed by your tax lotus. After the end of Varsha Yoga, you continued to live in the villages around Kesharia.
___ In this way, 42-year-old Dikshit took initiation and during his lifetime, he performed an unprecedented pre-religious ritual in Mangal Vihar in major cities, Rajasthan and Madhya Pradesh, Gujarat, Uttar Pradesh, Maharashtra etc. E Acharya Shri Shanti Sagarji Maharaj kept the tradition of Agit Vhit intact.
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Book written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Acharya Shri 108 Dharma Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
आचार्य श्री १०८ शिव सागर जी महाराज १९०१ Aacharya Shri 108 Shiv Sagar Ji Maharaj 1901
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