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#ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
Embellished by the uninterrupted stream of Digambar Muni dharma, under the sultry of Mata Dagdabai in the home of Shri Nemichandra, in Adgaon village of Aurangabad district, Maharashtra, A son was born in 1901. Which was named Hiralal.
Hiralal ji was a Balabrahmachari through the rite of previous birth. From Acharyashree Shanti Sagar Maharaj, at the age of 24, you took the second statue fast.
Below information from jainencyclopedia
दिगम्बर मुनिधर्म की अविच्छिन्न धारा से सुशोभित, दक्षिण भारत के अन्तर्गत महाराष्ट्र प्रान्त के औरंगाबाद जिले के अड़गाँव ग्राम में रांवका गोत्रीय खण्डेलवाल श्रेष्ठी श्री नेमीचन्द्र जी के गृहांगन में माता दगड़ाबाई की कुक्षि से वि.सं. १९५८ में एक पुत्र का जन्म हुआ। जिसका नाम हीरालाल रखा गया।
हीरालाल जी पूर्व जन्म के संस्कारवश बालब्रह्मचारी रहे। आचार्यश्री शांतिसागर महाराज से आपने २८ वर्ष की उम्र में द्वितीय प्रतिमा के व्रत ग्रहण किए। वि.सं. २००० में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की और शिवसागर नाम प्राप्त किया। वि.सं. २००६ में नागौर (राज.) में आषाढ़ शु. ११ को मुनि दीक्षा प्राप्त कर मुनि श्री शिवसागर महाराज बन गए। ८ वर्ष तक गुरु के सान्निध्य में रहकर कठोर तपस्या की पुन: वि.सं. २०१४ में आचार्यश्री वीरसागर महाराज का जयपुर खानियाँ में समाधिमरण हो गया तब चतुर्विध संघ ने आपको अपना आचार्य स्वीकार किया। ११ वर्षों तक संघ का कुशल संचालन करने के पश्चात् वि.सं. २०२६ (सन् १९६९) में अल्पकालीन ज्वर होने से फाल्गुन कृ. अमावस्या के दिन अकस्मात् आपका समाधिमरण हो गया इस परम्परा के वरिष्ठ तपस्वी आचार्यों में श्री शिवसागर महाराज ने अपना नाम अंकित किया है। ऐसी महान आत्मा के चरणों में कृतिकर्मपूर्वक नमोऽस्तु।
Below information from book-Digambar Jain Sadhu
वर्तमान शताब्दी की दिगम्बर जैना चार्य परम्परा के तृतीय आचार्य प० पू० प्रातःस्मरणीय परम तपस्वी बालब्रह्मचारी आचार्यश्री शिवसागरजी महाराज थे। आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के समय में भारतवर्ष में साधु संघ का आदर्श प्रस्तुत हुआ था। आपने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज द्वारा आर्षमार्गा नुसार प्रस्थापित परम्परा को अक्षुण्ण तो बनाये ही रखा, साथ ही संघ में अभिवृद्धि कर संघानुशासन का आदर्श भी उपस्थित किया। भारतवर्ष का सम्पूर्ण जैनजगत् आपके आदर्श संघ के प्रति नत मस्तक था । साधु समुदाय में ज्ञान-जिज्ञासा एवं उसकी प्राप्ति की सतत् लगन के साथ चारित्र का उच्चादर्श देखकर विद्वद्वर्ग भी संघ के प्रति आकृष्ट था और प्रबुद्ध साधुवर्ग से अपनी शंकाओं के समाधान प्राप्त कर आनन्द प्राप्त करता था।
दिगम्बर मुनि धर्म की अविच्छिन्न धारा से सुशोभित दक्षिण भारत के अन्तर्गत वर्तमान महाराष्ट्र प्रान्तस्थ औरंगाबाद जिले के अड़गांव ग्राम में रांवका गोत्रीय खण्डेलवाल श्रेष्ठि श्री 'नेमीचन्द्रजी के गृहांगण में माता दगडाबाई की कुक्षि से वि० सं० १९५८ में आपका जन्म हुआ था। जन्म नाम हीरालाल रखा गया था । आप दो भाई थे, दो बहिनें भी थीं । प्रतिभावान व कुशाग्रबुद्धि होते हुए भी साधारण आर्थिक स्थिति के कारण आप विशेष शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाये। सम्बर जैन विद्यालय का तीसरी कक्षा तक ही औरंगाबाद जिले के ही ईरगांव वासी ब० हीरालालजी गंगवाल ( स्व. आचार्य सागरजी ) आपके शिक्षागुरु रहे । निकटस्थ अतिशयक्षेत्र कचनेर के पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन में आपका प्राथमिक विद्याध्ययन हुआ । धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ हिन्दी का तीसरी कक्षा आपका अध्ययन हो पाया था कि अचानक महाराष्ट्र प्रान्त में फैली प्लेग की भयंकर बीमारी चपेट में आपके माता-पिता का एक ही दिन स्वर्गवास हो गया । माता-पिता की वात्सल्यपूर्ण का में बालक अपना पूर्ण विकास कर पाता है, किन्तु आपके जीवन के तो प्राथमिक चरण में ही उस अभाव हो गया, इसका प्रभाव आपके विद्याध्ययन पर पड़ा ।आपके बड़े भाई का विवाह हो चका किन्तु विवाह के कुछ समय बाद ही उनका भी देहान्त हो जाने के कारण १३ वर्षीय अल्पवय में ही आप पर गृहस्थ संचालन का भार आ पड़ा। कुशलता पूर्वक आपने इस उत्तरदायित्व को भी निभाया।
. माता-पिता एवं बड़े भाई के आकस्मिक वियोग के कारण संसार की क्षणस्थायी परिस्थितियों ने आपके मन को उद्वलित कर दिया । फलस्वरूप, गृहस्थी बसाने के विचारों को मन ने कभी भी स्वीकार नहीं किया । विवाह के प्रस्ताव प्राप्त होने पर भी आपने सदैव अपनी असहमति ही प्रगट की । आप आजीवन ब्रह्मचारी ही रहे । २८ वर्ष की युवावस्था में असीम पुण्योदय से आपको आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के दर्शन करने का मंगल अवसर मिला तथा उसी समय आपने यज्ञोपवीत धारण कर द्वितीय व्रत-प्रतिमा ग्रहण की। महामनस्वी चा० च० आचार्य श्री के द्वारा बोया गया यह व्रतरूप बीज आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के चरण सान्निध्य में पल्लवित पुष्पित हुआ।
वि० सं० १९६६ की बात है, अब तक आपके आद्य विद्यागुरु ब्र० हीरालालजी गंगवाल आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज से मुनिदीक्षा ग्रहण कर चुके थे और मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र पर विराजमान थे । आपने उनसे सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये तथा ब्रह्मचारी अवस्था में संघ में प्रवेश किया । बाल्यावस्था से ही आपकी स्वाध्याय की रुचि थी। वह अब और तीव्रतर होने लगी अतः आप विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन करने लगे। "ज्ञानं भारः क्रियां विना" की उक्ति आपके मन को आन्दोलित करने लगी । आपके मन में चारित्र ग्रहण करने की उत्कट भावना ने जन्म लिया। आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज का जब सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र पर ससंघ पहुंचना हुआ तब आपने वि० सं० २००० में क्षुल्लकदीक्षा ग्रहण की । आपको क्षु० शिवसागर नाम प्रदान किया । अद्भुत संयोग रहा हीरालाल द्वय का । गुरु और शिष्य दोनों ही हीरालाल थे। यह गुरु-शिष्य संयोग वीरसागरजी महाराज की सल्लेखना तक निर्वाधरूप से बना रहा ।
निरन्तर ज्ञान-वैराग्य शक्तिी के लिये प्रेरित किया । फलस्वरूप वि आपने आचार्य श्री वीरसाद परम विकास था। अब पाप मानि में आपकी योग्यता बढ़ती ही चल यात्रा वि० सं० २००९ में की। मरण पूर्वक स्वर्गवास हो गया तब परिष्कृत हो चुका था । आपने चारों प्रता अनेक स्तोत्र पाठ, समयसार कलश, स्वसय शक्ति की अभिव्यक्ति ने आपको निर्ग्रन्थ-दिगम्बर दीक्षा धारण ।
फलस्वरूप वि० सं० २००६ में नागौर नगर में आषाढ़ णुक्ला ११ को श्री वीरसागरजी के पादमूल में मुनिदीक्षा ग्रहण की। वर्तमान आप मूनि शिवसागरजी थे। मुनिदीक्षा के पश्चात् ८ वर्ष पर्यंत गुरु-सनिधि सोही चली गयी। आपने गुरुदेव के साथ श्री सम्मेदशिखरजी सिद्धक्षेत्र । जब वि० सं० २०१४ में आपके गुरु का जयपुर खानियाँ में समाधि सास हो गया तब आपको आचार्य पद प्रदान किया गया। इस अवधि में आपका ज्ञान था। आपने चारों अनुयोग सम्ब धी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। तथा पाठ, समयसार कलश, स्वयंभू स्तोत्र, समाधितंत्र, इष्टोपदेश आदि संस्कृत रचनाएं कंठस्थ ली थीं। मातृभाषा मराठी होते हुए भी आप हिन्दी अच्छी बोल लेते थे।
सं० २०१४ में ही आचार्य पद ग्रहण के पश्चात् आपने ससंघ गिरिनार क्षेत्र की यात्रा ही। उसके बाद क्रमशः ब्यावर, अजमेर, सुजानगढ़, सीकर, लाडनू, खानियां (जयपुर), पपीरा, रजी. कोटा, उदयपुर और प्रतापगढ़ में चातुर्मास किये । इन वर्षों में आपके द्वारा संघ के साथ-साथ अत्यधिक धर्म प्रभावना हुई ।
११ वर्षीय इसी आचार्यत्वकाल में आपने अनेक जीवों को मुनि-आयिका, ऐलक, क्षुल्लक-क्षुल्लिका पद को दीक्षाएं प्रदान की तथा सैंकड़ों श्रावकों अनेकविध व्रत, प्रतिमा आदि ग्रहण कराकर मोक्षमार्ग में अग्रसर किया । आपके सर्वप्रथम दीक्षित शिष्य मुनि ज्ञानसागरजी महाराज थे। उसके अनन्तर मापने ऋषभसागरजी, भव्य सागरजी, अजित सागरजी, सुपार्श्वसागरजी, श्रेयांससागरजी सुबुद्धिसागरजी को मुनिदीक्षा प्रदान की। आपने सर्वप्रथम आयिका दीक्षा चन्द्रमतीजी को प्रदान की । उसके बाद क्रमशः पद्मावतीजी, नेमामतीजी, विद्यामतीजी, बुद्धिमतीजी, जिनमतीजी, राजुलमतीजी, संभवमतीजो, आदिमतीजी, विशुद्धमतीजी, अरहमतीजी, श्रेयांसमतीजो, कनकमतीजी, भद्रमतीजी, कल्याणमतीजी, सुशोलमतीजी, सन्मतीजी, धन्यमतीजी, विनयमतीजी एवं श्रीष्ठमतीजी सबको आयिका दीक्षा दी। आपके द्वारा दीक्षित सर्वप्रथम क्षुल्लक शिष्य सम्भवसागरजी थे, साथ ही आपने शीतलसागरजी, यतीन्द्रसागरजी, धर्मेन्द्रसागरजी, भूपेन्द्र सागरजी व योगीन्द्रसागरजी को भी क्षुल्लक के व्रत दिए । क्षुल्लक धर्मेन्द्रसागरजी को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपने मुनिदीक्षा दी थी। ऐलक अभिनन्दनसागरजी आपके द्वारा अन्तिम दीक्षित भव्यप्राणी हैं। आपके अन्तिम शिष्य हैं । सुव्रतमती क्षुल्लिका भी आपसे ही दीक्षित थीं, इसके अतिरिक्त तीन भव्य प्राणियों को उनकी सल्लेखना के अवसर पर आपसे मुनिदीक्षा ग्रहण करने का सामाग्य मिला था। वे थे आनन्दसागरजी, ज्ञानानन्दसागरजी तथा समाधिसागरजी। इन तीनों ही साधुओं की सल्लेखना आपकी सन्निधि में ही हुई थी।
आपके आचार्यत्वकाल में संघ विशालता को प्राप्त हो चुका था। उसकी व्यवस्था सम्बर सारा संचालन आप अत्यन्त कुशलता पूर्वक करते थे । कृशकाय, आचार्य श्री का आत्मबल बहुत था। तपश्चर्या की अग्नि में तपकर आपके जीवन का निखार वृद्धिंगत होता जाता था । आपके कुशल नेतृत्व से सभी साधुजन संतुष्ट थे । न तो आपको छोड़कर कोई जाना ही चाहता था और न आपने आत्मकल्याणार्थी किसी साधु या श्रावक को भी कभी संघ से जाने के लिए कहा । आपका अनुशासन अतीव कठोर था। संघ में कोई भी त्यागी आपकी दृष्टि में लाये बिना श्रावकों से अल्प से अल्प वस्तु की भी याचना नहीं कर सकता था । संघव्यवस्था सुचारु रीत्या चले, इसके लिये प्रायः आयिका वर्ग में एक या दो प्रधान आर्यिकानों की नियुक्ति आप कर दिया करते थे। साधुओं के लिये आपके सहयोगी थे संघस्थ मुनि श्री श्रुतसागरजी महाराज । अनुशासन की कठोरता के बावजूद आपका वात्सल्य इतना अधिक था कि कोई शिष्य आपके जीवनकाल में आपसे पृथक् नहीं हुआ। संघ का विभाजन आपकी सल्लेखना के पश्चात् ही हुआ । आपने एक विशाल संघ का संचालन करते हुए भी कभी आकुलता का अनुभव नहीं किया।
आपके आचार्यत्व काल में सबसे महत्वपूर्ण एवं सफल कार्य हुआ 'खानियां तत्त्व चर्चा' । पिछले दो दशकों से चले आ रहे सैद्धान्तिक द्वन्द्व से आपके मन में सदैव खटक रहती थी। उसे दूर करने का प्रयत्न किया आपने सोनगढ़ पक्षीय व आगमपक्षीय विद्वानों के मध्य तत्त्वचर्चा का आयोजन करवा कर । आपकी मध्यस्थता में होनेवाली इस तत्त्वचर्चा का फल तो विशेष सामने नहीं पाया, किन्तु आपकी निष्पक्षता के कारण उभयपक्षीय बिद्वान् आमने-सामने एक मंच पर एकत्र हुए और उन्होंने अपने-अपने विचारों का आदान-प्रदान अत्यन्त सौम्य वातावरण में किया। इस तत्त्वचर्चा यज्ञ में सम्मिलित आमन्तुकों में प्राय: सभी उच्चकोटि के विद्वान् थे । पंडित कैलाशचून्द्रजी सिद्धान्ताचार्य वाराणसी, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री, पं० मक्खनलालजी शास्त्री, पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, पं० रतनचन्दजी मुख्तार आदि विद्वानों ने परस्पर बैठकर संघ-सान्निध्य में चर्चा की थी। इस चर्चा को खानियां तत्त्वचर्चा नाम से २ भागों में सोनगढ़ पक्ष की ओर से टोडरमल स्मारक वालों ने प्रकाशित भी किया है।
चर्चा के सम्बन्ध में पं० कैलाशचन्द्रजी ने अपना अभिमत जैन सन्देश ( अंक ७ नवम्बर, १९६७ ) के सम्पादकीय लेख में लिखा था कि “इस ( खानियातत्त्वचर्चा ) के मुख्य आयोजक तथा वहां उपस्थित मुनिसंघ को हम एकदम तटस्थ कह सकते हैं, उनकी ओर से हमने ऐसा कोई संकेत नहीं पाया कि जिससे हम कह सकें कि उन्हें अमुक पक्ष का पक्ष है । इस तटस्थवृत्ति का चर्चा के वातावरण पर अनुकूल प्रभाव रहा है।"
आचार्य स्वयं पंचाचार का परिपालन करते हैं और शिष्यों से भी उसका पालन करवात है। शिष्यों पर अनुग्रह और निग्रह आचार्य परमेष्ठी की अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता है । अत: आचार्य पद के नाते आप अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हए इस बात का सदैव ध्यान रखतय कि संघस्थ साधु समुदाय आगमोक्त चर्या में रत है या नहीं । आपकी पारखी दृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म था, आत्मकल्याणेच्छक कोई नवीन व्यक्ति संघ में आता और दीक्षा की याचना करता तो यदि वह आपकी पारखी दृष्टि में दीक्षा का पात्र सिद्ध हो जाता तो ही वह दीक्षा प्राप्त कर सकता था। जिस व्यक्ति को जनसाधारण शीघ्र दीक्षा का पात्र नहीं समझता वह व्यक्ति आचार्यश्री की दृष्टि से बच नहीं पाता था। उसकी क्षमता परीक्षण के पश्चात् ही उसे योग्यतानुसार क्षुल्लक, मुनि आदि दक्षिा आपने प्रदान की। विद्वानों का आकर्षण भी आपके एवं संघस्थ गहनतम स्वाध्यायी साधुओं के प्रति था इसीलिए प्रायः प्रत्येक चातुर्मास में संघ में कई-कई दिनों तक विद्वद्वर्ग पाकर रहता था और सभी अनुयोगों की सूक्ष्म चर्चाओं का आनन्द लेता था। बातचीत के बीच सूत्ररूप वाक्यों के प्रयोग द्वारा बड़ी गहन बात कह जाना आचार्य श्री की प्रकृति का अभिन्न अंग था। कुल मिलाकर आचार्य श्री अपूर्व गुणों के भण्डार थे ।
वि० सं० २०२५ का अन्तिम वर्षायोग आपने प्रतापगढ़ में किया था । वहां से फाल्गुन माह में होने वाली शांतिवीर नगर महावीरजी की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में सम्मिलित होने के लिए आप ससंघ श्री महावीरजी आये थे। यहां आने के कुछ ही दिन बाद आपको ज्वर आया और ६-७ दिन के अल्पकालीन ज्वर में ही आपका समस्त संघ की उपस्थिति में फाल्गुन कृष्णा अमावस्या को दिन में ३ बजे लगभग समाधिमरण हो गया । आपके इस आकस्मिक बियोग से साधु संघ ने वज्रपात का सा अनुभव किया। ऐसा लगने लगा कि जिस कल्पतरु की छत्रछाया में विश्राम करते हुए भवताप से शान्ति का अनुभव होता था, उनके इस प्रकार अचानक स्वर्गवास हो जाने से अब ऐसी आत्मानुशासनात्मक शान्ति कहां मिलेगी?
वस्तुतः आचार्यश्री ने अपने गुरु के परम्परागत इस संघ को चारित्र व ज्ञान की दृष्टि से परिष्कृत, परिवधित और संचालित किया था। उन जैसे महान् व्यक्तित्व का अभाव आज भी खटकता है । आपके स्वर्गारोहण के पश्चात् वहां उपस्थित आपके गुरुभ्राता [ आचार्य श्री वीरसागरजी के द्वितीय मुनिशिष्य ] श्री १०८ धर्मसागरजी महाराज को समस्त संघ ने संघ का नायकत्व सौंपकर अपना आचार्य स्वीकार किया। वे भी इस संघ का संचालन अपने प्रयत्न भर कुशलता पूर्वक कर रहे हैं। प० पू० महान् तपस्वी १०८ आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के पाक्न चरणों में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए अपनी विनम्र भावाञ्जलि समर्पित करता हूं।
Source 1-http://hi.encyclopediaofjainism.com/index.php/
Source 2-Book Name written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
#ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
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Source 2-Book Name written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
आचार्य श्री १०८ शिव सागरजी महाराज
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
Embellished by the uninterrupted stream of Digambar Muni dharma, under the sultry of Mata Dagdabai in the home of Shri Nemichandra, in Adgaon village of Aurangabad district, Maharashtra, A son was born in 1901. Which was named Hiralal.
Hiralal ji was a Balabrahmachari through the rite of previous birth. From Acharyashree Shanti Sagar Maharaj, at the age of 24, you took the second statue fast.
Hiralal Ji was a Balabrahmachari through the rite of previous birth. From Acharyashree Shanti Sagar Maharaj, at the age of 24, you took the second statue fast.
In 1943 , he took initiation from Acharyashree Veerasagar Ji Maharaj and received the name Sivasagar.On 6th July in 1949, He becomes Muni. Staying in close proximity to the Guru for 6 years, led to severe penance again. In 1958, Acharyashree Veerasagar Maharaj was assimilated in the Jaipur, then Chaturvidhi Sangh accepted you as his Acharya. After the efficient operation of the association for 11 years Falgun Krishi due to short-term fever in 1969. On the day of Amavasya, suddenly your eclipse happened, Shri Sivasagar Maharaj has inscribed his name among the senior ascetic masters of this tradition. Gratefully at the feet of such a great soul.
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Book Name written by Pandit Dharmchandra Ji Shashtri -Digambar Jain Sadhu
Acharya Shri 108 Shiv Sagarji Maharaj
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
आचार्य श्री १०८ वीर सागरजी महाराज १८७६ Acharya Shri 108 Veer Sagarji Maharaj 1876
#ShivSagarJiMaharaj1901VeersagarJi
VeerSagarJiMaharaj1876AcharyaShantiSagarji
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