हैशटैग
#AbhaychandraSiddhantchakravarti13ThCentury
मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दाम्वयकी इंगलेश्वरी शाखाके श्रीगमुदायमें माधनन्दि भट्टारक हुए हैं। इनके नेमिचन्द्र भट्टारक और अभय चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ये दो शिष्य हुए हैं। अभयचन्द्र बालचन्द्र पण्डितके श्रुतगुरु थे । लिखा है __'स्वस्ति श्रीमूलसंघदेशियगणपुस्तकगच्छकोण्डकुन्दान्वर्यादङ्गालेश्वरदबलिय श्रीसमुदायद-माधनन्दिभट्टारक-देवरप्रियशिण्यसं श्रीमन्नेमिचन्द्र-भट्टारक-देवसं श्रीमदभयचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्तिगल....." शकत्रर्ष ११९७ मेघभावसंवत्सरद भाद्रपद शुद्ध १२ बुधवारद ।''
हेलेबीडके एक संस्कृत और कन्नड़ मिश्रित अभिलेख में अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के समाधिमरणका उल्लेख आया है । यह अभिलेख शक संवत् १२०१ (ई. सन १२४७९)का है। इसी स्थानके एक अन्य अभिलेखम अभयचन्द्रके प्रिय शिष्य बालचन्द्र के समाधिमरणका निर्देश है । यह अभिलेख शक संवत् ११९५७ (ई. सन् १२७४)का है।
ईस्वी सन् १२०५के हलंबाडके एक अन्य कन्नड़ भिलेखमें माघनन्दिकी मुरुपरम्परामें अभयनन्दि भट्टारकका नाम आया है। केलगेरके अभिलेग्न में भी अभयनन्दि उल्लिखित हैं। यह अभिलेख ईस्वी सनकी तेरहवीं शतीके उत्तराद्ध का है।"
उपर्युक्त अभिलेखोंमें अभयचन्द्रका निर्देश आनेसे उनका समय ईस्वी सन् १३वीं शती सिद्ध होता है । बहुत संभव है कि ये १३वीं शतीके प्रारम्भमें हुए हों और ७१ वर्ष तक जीवित रहे हों।
राबन्दूरके संस्कृतमिश्रित कन्नड़ अभिलेखमें अभय चन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य श्रुतिमुनि और उनके शिष्य प्रमेन्दुके नाम आये हैं 1 भारंगीके एक शिलालेखमें बताया गया है कि राय राजगुरु मण्डलाचार्य महाबादवादोश्वर
१. जनशिलालेखसंग्रह भाग ३, अभिलेख ५१४ ।
२-३, वही, अभिलेख ५२४ ।। ४. जनशिलालेखसंग्रह, भाग
४, अभिलेख ३४२ । वही, अभिलेख, ३७६ ।
५. जनशिलालेखसंग्रह, चतुर्थ भाग, अभिः सं० ३७६ ।
६. जनशिलालेखसंग्रह, तृतीय भाग, अभि. सं०५८४ ।
रायवादि पितामह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेवका ज्येष्ठ शिष्य बुल्लगौड़ था, जिसका पुत्र गोपगोड नागरखण्डका शासक था । नागरखण्ड कर्नाटक प्रदेश में था । बुल्लगोके समाधिमरणका उल्लेख भारंगीके एक अन्य अभिलेखमें भी मिलता है, जिसमें बताया गया है कि बुल्ल या बुल्लुपको यह अवसर अभयचन्द्रकी कृपासे प्राप्त हुआ था ! हुम्मचके एक अन्य अभिलेखमें अभय चन्द्र को चैत्यवासी कहा है। ___ अभयचन्द्रके समाधिमरणसे सम्बन्धित अभिलेखमें कहा गया है कि वह छन्द,न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भूचक्र, प्रमाणशास्त्र आदिके विशिष्ट विद्वान थे। इसी तरह श्रुतिसुमी परमार मारके उनमें जयपन्द्रदरि। परिचय देते हुए लिखा है
सद्दागम-परमागम-तफागम-गिरवसेसवेदी ह ।
विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरि-सिद्धती ।।
इससे भी अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीके पाण्डित्यपर प्रकाश पड़ता है । श्रुतमुनिका परमागमसार शक संवत् १२६३में समाप्त हुआ है । अतएव श्रुतमुनि का समय ई० सनकी १३वीं शताब्दी निश्चित है।
अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने कर्मप्रकृतिनामक ग्रन्थकी रचना की है। श्री आचार्य जुगलकिशोर मुस्तारने इनको गोम्मटसार जीवकाण्डकी मन्द प्रबोधिका टीकाका रचयिता भी माना है। कर्मप्रकृतिके आदि और अन्तमें मंगलपध दिये गये हैं, जो निम्नप्रकार हैं
प्रक्षीणावरणद्वैतमोहप्रत्यहकर्मणे
अनन्तानन्तपोष्टिसुखवीर्यात्मने नमः ॥
जयन्ति विधुताशेषपापाजनसमुच्चयाः ।
अनन्तानन्तधोदृष्टिसुखवीर्या जिनेश्वराः ।।
इन दोनों पोंके अतिरिक्त शेष समस्त ग्रन्थ गद्यमें लिखा गया है।
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, अभि० सं०६१. ।
२. वही अभि० सं० १४६ ।
३. बहो- अभि सं० ६६७ ।।
४. अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १२, १.४४१ ।
मंगलाचरणके पश्चात् तीन प्रकारके कर्म बतलाये गये हैं तथा द्रव्यकर्मक
चार भेद है
"आत्मनः प्रदेशेषु बद्ध कर्म द्रव्यकर्म भावकम नोकर्म चेति विविधम् ।"
"तन्न प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन व्यकर्म चतुविधम् ।" आत्मप्रदेशों में बंधा हुआ कर्म द्रव्यकर्म, भावकम और नोकर्म इस तरह तीन प्रकारका होता है । द्रव्यकर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका होता है। अभय चन्द्रने प्रकृतिका स्वरूप ज्ञानप्रच्छदनादि स्व भाव बतलाकर उसने तीन भेद किये हैं—१. मूलप्रकृति, २. उत्तरप्रकृति और ३. उत्तरोत्तरप्रकृति ।
"तत्र ज्ञानप्रच्छादनादिस्वभावः प्रकृति । सा मूलप्रकृतिरुत्तरप्रकृतिरुत्तरी त्तरप्रकृतिरिति विधा।" ___ इसके पश्चात् मूलप्रकृतिको ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप आठ प्रकारको बतलाकर प्रत्येकका पृथक-पृथक स्वरूप निर्दिष्ट किया है। उत्तरप्रकृतियोंके १४८ भेद बतलाये हैं तथा प्रत्येक प्रकृतिका स्वरूप भी बतलाया है। स्वरूपप्रतिपादन बड़ी सरलता. पूर्वक किया गया है, जिससे साधारण पाठक भी कर्मप्रकृतिके स्वरूपको हृदयंगम कर सकता है। ज्ञानावरणीयकर्मको पाँच उत्तरपतियोंके स्वरूप निदर्शनको यहाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है-"तत्र पंचभिरिन्द्रि यमनसा च मननं ज्ञानं मतिज्ञानं तदाबृणोत्तौति मतिज्ञानावरणीयम् । मतिज्ञान गहीतार्थादन्यस्यार्थस्य ज्ञानं श्रुत्तज्ञानं तदातमोतीति श्रुतज्ञानाबरणीयम् । वर्ण गन्धरसस्पर्शयुक्तसामान्यपुद्गलद्रव्यं तत्संबन्धिसंसारीजोबद्रव्याणि च देशान्तर स्थानि कालान्तरस्थानि च द्रव्यक्षेत्रकालभवभावानवधीकृत्य यत्प्रत्यक्ष जाना तोत्यबधिज्ञानं तदावणातीस्थवधिज्ञानाबरणीयम् । परेषां मनसि बर्तमानमर्थ यज्जानाति तन्मनःपर्ययज्ञानं तदाबृणोतीति मनःपर्ययज्ञानाबरणीयम् । इन्द्रि याणि प्रमाशं मनश्चानपेक्ष्य त्रिकालगोचरलोकसकलपदार्थानां युगपदवभासन केबलज्ञान तदानृणोतीसि केवलझानावरणीमम् ।" __इस प्रकार इस ग्रन्यमें समस्त १४८ उत्तरप्रकृत्तियोंका स्वरूपनिर्धारण और भेद बतलाये गये हैं। नोकर्मवर्णन प्रसंगमें संसारी जीव, मुक्त जीव, भव्य, अभय आदिका वर्णन किया है। सम्पक्त्ववर्णनके सन्दर्भ में क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालन्धि, प्रायोग्यतालब्धि और करणलब्धिका वर्णन किया है। १४ गुणस्थानोंके वर्णनके पश्चात् मुक्तावस्थाका चित्रण किया गया है ।
गुरु | आचार्य श्री माघनंदी भट्टारक |
शिष्य | आचार्य श्री अभयचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री वालचंद्र पण्डित |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#AbhaychandraSiddhantchakravarti13ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री अभयचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती 13वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, कोण्डकुन्दाम्वयकी इंगलेश्वरी शाखाके श्रीगमुदायमें माधनन्दि भट्टारक हुए हैं। इनके नेमिचन्द्र भट्टारक और अभय चन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ये दो शिष्य हुए हैं। अभयचन्द्र बालचन्द्र पण्डितके श्रुतगुरु थे । लिखा है __'स्वस्ति श्रीमूलसंघदेशियगणपुस्तकगच्छकोण्डकुन्दान्वर्यादङ्गालेश्वरदबलिय श्रीसमुदायद-माधनन्दिभट्टारक-देवरप्रियशिण्यसं श्रीमन्नेमिचन्द्र-भट्टारक-देवसं श्रीमदभयचन्द्र-सिद्धान्तचक्रवर्तिगल....." शकत्रर्ष ११९७ मेघभावसंवत्सरद भाद्रपद शुद्ध १२ बुधवारद ।''
हेलेबीडके एक संस्कृत और कन्नड़ मिश्रित अभिलेख में अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के समाधिमरणका उल्लेख आया है । यह अभिलेख शक संवत् १२०१ (ई. सन १२४७९)का है। इसी स्थानके एक अन्य अभिलेखम अभयचन्द्रके प्रिय शिष्य बालचन्द्र के समाधिमरणका निर्देश है । यह अभिलेख शक संवत् ११९५७ (ई. सन् १२७४)का है।
ईस्वी सन् १२०५के हलंबाडके एक अन्य कन्नड़ भिलेखमें माघनन्दिकी मुरुपरम्परामें अभयनन्दि भट्टारकका नाम आया है। केलगेरके अभिलेग्न में भी अभयनन्दि उल्लिखित हैं। यह अभिलेख ईस्वी सनकी तेरहवीं शतीके उत्तराद्ध का है।"
उपर्युक्त अभिलेखोंमें अभयचन्द्रका निर्देश आनेसे उनका समय ईस्वी सन् १३वीं शती सिद्ध होता है । बहुत संभव है कि ये १३वीं शतीके प्रारम्भमें हुए हों और ७१ वर्ष तक जीवित रहे हों।
राबन्दूरके संस्कृतमिश्रित कन्नड़ अभिलेखमें अभय चन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य श्रुतिमुनि और उनके शिष्य प्रमेन्दुके नाम आये हैं 1 भारंगीके एक शिलालेखमें बताया गया है कि राय राजगुरु मण्डलाचार्य महाबादवादोश्वर
१. जनशिलालेखसंग्रह भाग ३, अभिलेख ५१४ ।
२-३, वही, अभिलेख ५२४ ।। ४. जनशिलालेखसंग्रह, भाग
४, अभिलेख ३४२ । वही, अभिलेख, ३७६ ।
५. जनशिलालेखसंग्रह, चतुर्थ भाग, अभिः सं० ३७६ ।
६. जनशिलालेखसंग्रह, तृतीय भाग, अभि. सं०५८४ ।
रायवादि पितामह अभयचन्द्र सिद्धान्तदेवका ज्येष्ठ शिष्य बुल्लगौड़ था, जिसका पुत्र गोपगोड नागरखण्डका शासक था । नागरखण्ड कर्नाटक प्रदेश में था । बुल्लगोके समाधिमरणका उल्लेख भारंगीके एक अन्य अभिलेखमें भी मिलता है, जिसमें बताया गया है कि बुल्ल या बुल्लुपको यह अवसर अभयचन्द्रकी कृपासे प्राप्त हुआ था ! हुम्मचके एक अन्य अभिलेखमें अभय चन्द्र को चैत्यवासी कहा है। ___ अभयचन्द्रके समाधिमरणसे सम्बन्धित अभिलेखमें कहा गया है कि वह छन्द,न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भूचक्र, प्रमाणशास्त्र आदिके विशिष्ट विद्वान थे। इसी तरह श्रुतिसुमी परमार मारके उनमें जयपन्द्रदरि। परिचय देते हुए लिखा है
सद्दागम-परमागम-तफागम-गिरवसेसवेदी ह ।
विजिद-सयलण्णवादी जयउ चिरं अभयसूरि-सिद्धती ।।
इससे भी अभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीके पाण्डित्यपर प्रकाश पड़ता है । श्रुतमुनिका परमागमसार शक संवत् १२६३में समाप्त हुआ है । अतएव श्रुतमुनि का समय ई० सनकी १३वीं शताब्दी निश्चित है।
अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने कर्मप्रकृतिनामक ग्रन्थकी रचना की है। श्री आचार्य जुगलकिशोर मुस्तारने इनको गोम्मटसार जीवकाण्डकी मन्द प्रबोधिका टीकाका रचयिता भी माना है। कर्मप्रकृतिके आदि और अन्तमें मंगलपध दिये गये हैं, जो निम्नप्रकार हैं
प्रक्षीणावरणद्वैतमोहप्रत्यहकर्मणे
अनन्तानन्तपोष्टिसुखवीर्यात्मने नमः ॥
जयन्ति विधुताशेषपापाजनसमुच्चयाः ।
अनन्तानन्तधोदृष्टिसुखवीर्या जिनेश्वराः ।।
इन दोनों पोंके अतिरिक्त शेष समस्त ग्रन्थ गद्यमें लिखा गया है।
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, अभि० सं०६१. ।
२. वही अभि० सं० १४६ ।
३. बहो- अभि सं० ६६७ ।।
४. अनेकान्त, वर्ष ८, किरण १२, १.४४१ ।
मंगलाचरणके पश्चात् तीन प्रकारके कर्म बतलाये गये हैं तथा द्रव्यकर्मक
चार भेद है
"आत्मनः प्रदेशेषु बद्ध कर्म द्रव्यकर्म भावकम नोकर्म चेति विविधम् ।"
"तन्न प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदेन व्यकर्म चतुविधम् ।" आत्मप्रदेशों में बंधा हुआ कर्म द्रव्यकर्म, भावकम और नोकर्म इस तरह तीन प्रकारका होता है । द्रव्यकर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारका होता है। अभय चन्द्रने प्रकृतिका स्वरूप ज्ञानप्रच्छदनादि स्व भाव बतलाकर उसने तीन भेद किये हैं—१. मूलप्रकृति, २. उत्तरप्रकृति और ३. उत्तरोत्तरप्रकृति ।
"तत्र ज्ञानप्रच्छादनादिस्वभावः प्रकृति । सा मूलप्रकृतिरुत्तरप्रकृतिरुत्तरी त्तरप्रकृतिरिति विधा।" ___ इसके पश्चात् मूलप्रकृतिको ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायरूप आठ प्रकारको बतलाकर प्रत्येकका पृथक-पृथक स्वरूप निर्दिष्ट किया है। उत्तरप्रकृतियोंके १४८ भेद बतलाये हैं तथा प्रत्येक प्रकृतिका स्वरूप भी बतलाया है। स्वरूपप्रतिपादन बड़ी सरलता. पूर्वक किया गया है, जिससे साधारण पाठक भी कर्मप्रकृतिके स्वरूपको हृदयंगम कर सकता है। ज्ञानावरणीयकर्मको पाँच उत्तरपतियोंके स्वरूप निदर्शनको यहाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है-"तत्र पंचभिरिन्द्रि यमनसा च मननं ज्ञानं मतिज्ञानं तदाबृणोत्तौति मतिज्ञानावरणीयम् । मतिज्ञान गहीतार्थादन्यस्यार्थस्य ज्ञानं श्रुत्तज्ञानं तदातमोतीति श्रुतज्ञानाबरणीयम् । वर्ण गन्धरसस्पर्शयुक्तसामान्यपुद्गलद्रव्यं तत्संबन्धिसंसारीजोबद्रव्याणि च देशान्तर स्थानि कालान्तरस्थानि च द्रव्यक्षेत्रकालभवभावानवधीकृत्य यत्प्रत्यक्ष जाना तोत्यबधिज्ञानं तदावणातीस्थवधिज्ञानाबरणीयम् । परेषां मनसि बर्तमानमर्थ यज्जानाति तन्मनःपर्ययज्ञानं तदाबृणोतीति मनःपर्ययज्ञानाबरणीयम् । इन्द्रि याणि प्रमाशं मनश्चानपेक्ष्य त्रिकालगोचरलोकसकलपदार्थानां युगपदवभासन केबलज्ञान तदानृणोतीसि केवलझानावरणीमम् ।" __इस प्रकार इस ग्रन्यमें समस्त १४८ उत्तरप्रकृत्तियोंका स्वरूपनिर्धारण और भेद बतलाये गये हैं। नोकर्मवर्णन प्रसंगमें संसारी जीव, मुक्त जीव, भव्य, अभय आदिका वर्णन किया है। सम्पक्त्ववर्णनके सन्दर्भ में क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालन्धि, प्रायोग्यतालब्धि और करणलब्धिका वर्णन किया है। १४ गुणस्थानोंके वर्णनके पश्चात् मुक्तावस्थाका चित्रण किया गया है ।
गुरु | आचार्य श्री माघनंदी भट्टारक |
शिष्य | आचार्य श्री अभयचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री वालचंद्र पण्डित |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Abhaychandra Siddhantchakravarti 13 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#AbhaychandraSiddhantchakravarti13ThCentury
15000
#AbhaychandraSiddhantchakravarti13ThCentury
AbhaychandraSiddhantchakravarti13ThCentury
You cannot copy content of this page