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#AnantkirtiPrachin
नामके अनेक आचार्योका निर्देश प्राप्त होता है। एक
नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गणकी पट्टाबलीके ३३वें गुरु हैं, जो उज्जयिनीपट्ट के अन्तर्गत देशभूषणके पश्चात् और धर्मनन्दि के पूर्व उल्लिखित हैं। पट्टावलोके अनुसार इनका समय ई० सन् ७०८-२८ हैं।
दूसरेअनन्तकीर्ति
'प्रामाण्यभंग' ग्रंथके अन्यके रचयिताके रूपमें उल्लि खित हैं। इनका निर्देश रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनि श्चयटीकामें किया है।
तीसरे अनन्तकीर्तिवादिराज द्वारा सिद्धिप्रकरणके कर्ताके रूपमें स्मृत हैं।
चतुर्थ अनन्तकीर्ति का उल्लेख बलगाम्बेसे प्राप्त एक नागरी लिपिके कन्नड़ मूर्तिलेखमें निर्दिष्ट हैं। इस लेखका समय अनुमानतः १०७५ ई० है ! मालव् के शान्तिनाथदेवसे सम्बन्धित बलात्कारगणके मुनि चन्द्रसिद्धान्तदेवके शिष्यके रूपमें इनका कथन आया है।
पञ्चम अनन्तकीर्ति माथुरसंघी हैं, जिन्होंने ई० सन् ११४७ ( वि० सं० १२०४ ) में मूर्ति-प्रतिष्ठा की थी।
षष्ट अनन्तकीर्ति दण्डनायक भरतको पत्नी जक्कव्वेकेके गुरुके रूपमें उल्लि खित हैं। इन्होंने होयसल नरेश वीर बल्लालदेव (ई० सन् ११७३-१२३० ई.) के शासनकालके २३ वें वर्ष में समाधिमरण धारण किया था।
सप्तम अनन्तकीर्ति देशीगण पुस्तकगच्छके मेघचन्द्र विद्यदेवके प्रशिष्य (ई सन् १११५ ), आचारसार ( ११५४ ई. के कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य, रामचन्द्र मलधारिके गुरु और शुभचन्द्र के प्रगुरु हैं। इनका समय ई० सन् ११७५-१२२५ ई. के लगभग है।
अष्टम अनन्तकीर्ति काणूरगण तिन्तिणिगच्छके भट्टारक हैं। ये ई० सन् १२०७ में बान्धव नगरको शान्तिनाथ बसत्तिके अध्यक्ष थे । यह अनेक शिला
१. ज्ञानार्णव, ४२।८८ ।
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ ० ७८-७९
३. एपिग्राफी कर्णाटिका, ७, शिकारपुर, अभिलेख १३४ ।
४. बही, अभिलेख संख्या-१९६ ।
५. जैन सन्देश, शोधाइ ३. पृ० १२५ ।
लेखों में उल्लिखित बन्दणिके तीर्थाध्यक्ष भानुकीर्ति ( ई० सन् ११३९-८२ ई०) के प्रशिषय थे और सम्भवत्तया देवकीर्ति के शिष्य और धर्मकीर्ति के गुरु थे ।
काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके प्रतिष्ठाचार्य के रूपमें एक अन्य अनन्त कीर्तिका उल्लेख मिलता है। इनका ई० सन् १३७१ के चन्द्रवाडके कई मूर्ति लेखोंमें उल्लेख आया है। इसी गण-गच्छ भट्टारक कमलकीर्ति के शिष्य भी अनन्तकीर्ति हुए हैं।
एक अनन्तकीर्ति नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके सागवाड़ा पट्टके मण्डलाचार्य रत्नकीर्तिके शिष्य हैं, जिन्होंने १५४५ ई के लगभग एक विशाल चतुर्विध संघ सहित दक्षिण देशको विहार किया था और वहाँ जाकर रत्नकीर्तिपट्ट स्थापित किया था। इसी गणगच्छके मालवापट्टके अभिनव रत्नकीर्तिके शिष्य कुमुदचन्द्रके गुरुभाई और ब्रह्मरायमल्ल तथा भट्टारक प्रतापकीतिके गुरु अनन्तकीर्ति हुए हैं। इनका समय ई० सनकी १६वीं
शताब्दी है। ___ इन अनन्तकीर्तियों के अतिरिक्त बृहत्सर्वसिद्धि और लघुसर्वसिद्धिक कर्ता अनन्तकीर्ति हैं, जिनके शन्तिसूरिने 'जैन तर्कवातिक में उल्लेख एवं उद्धरण पाये जाते हैं तथा अभयदेवसूरि तर्कपञ्चाननकी 'तत्त्वबोधविधायिनी' अपरनाम 'वादमहार्णवसन्मतिटीका में जिनका अनुसरण पाया जाता है। प्रभाचन्द्रने भी अपने न्यायकुमुदचन्द्रमें उनका अनुसरण किया है। प्रमेयकमल मार्तण्डके सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणमें भी अनन्तकोतिको बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका शब्दा नुसरण पाया जाता है। बृहत्सर्वसिद्धिके अन्तिम पृष्ठ तो यत्किञ्चित् परि वर्तनके साथ न्यायकुमुदचन्द्रके केवलि-भुक्तिवादप्रकरणसे अपूर्व सादृश्य रखते हैं।
अनन्तकीर्ति के ग्रन्थोंके देखनेसे ज्ञात होता है कि वे अपने युगके प्रख्यात तार्किक विद्वान थे, इन्होंने स्वप्नज्ञानको मानसप्रत्यक्ष माना है। आचार्य शान्तिसूरिने जैनतर्फवातिकवृत्ति (पृ. ७७)में "स्वप्नविज्ञानं यत्स्पष्टमुत्पद्यते इति अनन्तकीादयः" अनन्तकीर्तिका मत्त उदघृत्त किया है। यह मत बृहत्सर्वसिद्धि में "तथा स्वपनज्ञाने ने चानक्षऽपि वैशधमुपलभ्यते" रूपमें निबद्ध है । शान्तिसूरिका समय ई० सन् ९९३–११४७ ई. के बीच है। न्यायाचार्य श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने सन्मत्तितर्कके टीकाकार अभयदेवसूरि और बृहत्सर्वसिद्धिके साथ तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि अनन्तकीर्तिका
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ११२-११५ ।
२. जैनतर्कवार्तिक , प्रस्तावना, पृ० १४१ ।
समय ई० सन् ९९० के पूर्व है।
आचार्य वादिराजने अपनेपार्श्वनाथचरितमें अनन्तकीर्तिकाका स्मरण निम्न प्रकार किया है
आत्मवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता ।
अनन्तकीतिना मुक्तिरात्रिमार्गव लक्ष्यते ॥
न्यायविनिश्चयविबरणके सर्वसिद्धिप्रकरणमें आचार्य वादिराजने लिखा है
__ "तच्चेदम्- यो यात्रानुपदेशालिङ्गानन्धयन्यतिरेकाविसंवादिवचनोपक्रमः स तत्साक्षात्कारी, यथा सुरभिचन्दनगन्धादौ अस्मदादिः, सथाविधवचनोपक्रमश्च कश्चित् ग्रहनक्षन्नादिगतिविकल्पे मन्त्रतन्त्रादिशक्तिविशेषे च तदागमप्रणेता पुरुष इति ।" ___ वादिराजकी इन पंक्तियोंपर लघुसर्वज्ञसिद्धिकी निम्नलिखित पंक्तियों का प्रभाव स्पष्ट है। साथ ही जिस हेतुका प्रयोग अनन्तकीर्ति ने किया है उसी मूलहेतुका प्रयोग वादिराजने भी ।
"यस्य यज्जातीयाः पदार्था: प्रत्यक्षाः तस्यासत्यावरण तेऽपि प्रत्यक्षाः । यथा घटसमानजातीयभूतलप्रत्यक्षत्वे घटः । प्रत्यक्षाश्च विमत्यधिकरणभावापन्नस्य कस्यचिद्देशादिविप्रकृष्टत्वेन धर्माकाशकालाहिमचन्मदरमकराकरादिसजातीयाः नष्दमुष्टिचिंतालाभालाभजीवितमरणसुखदुःखग्रहनक्षत्रमंत्रौषधिशक्त्यादयो भा वास्तदागमप्रणेतुरिति । न तावदयमसिद्धो हेतुः । तथाहि यो यद्विषयानुपदेशा लिंगानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनानुकमकर्ता स तत्साक्षात्कारी यथा अस्मदा दिर्यथोक्तजलदौत्यादिविषयवचनरचनानुक्रमकारी तद्दष्टानष्टमुष्ट्यादिविषया नुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनरचनानुकमकर्ता च कश्चिद्विमधि करणभावापन्नः पुरुष इति ।"
अतएव स्पष्ट है कि वादिराज लधुसर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति से परिचित थे।
श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीनेअनन्तकीर्ति के सम्बन्ध में विचार करते हुए लिखा है-"वादिराजने आचार्य जिनसेनके बाद अनन्तकीर्ति का स्मरण किया है
१. जैन सन्देश, शोषांक १, पृष्ठ ३६ ।
२. पार्शवनाथचरित्र, श२४ ।
३. न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, द्वितीय भाम, प० २९७ ।
४. लघुसर्वसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाळा, पृ० १०७ (ग्रन्थ का प्रथम पृष्ट ) ।
और ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने पूर्व कवियोंका स्मरण प्रायः समयक्रमसे किया है । इससे अनन्तकीर्ति का समय जिनसेन के बाद और वादिराजसूरिसे
पहले अर्थात् वि० सं० ८४० और १०८२ के बीच मानना चाहिए।"
श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने विद्यानन्दके 'तल्वार्थश्लोकवार्तिक और 'लघु सर्वसिद्धि' ग्रन्थोंकी तुलना करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि विद्या नन्द और अनन्तकीर्तिके हेतु समान हैं। अतएव विद्यानन्दके समकालीन अथवा उनके तत्काल ही अनन्तकीर्ति हुए हैं। 'स्वतः प्रामाण्यभंग' ग्रन्थ भी इन्हीं अनन्तकीर्तिका होना चाहिए।' इस विवेचनके आधारपर न्यायाचार्यजीने ई० सन् ८४० के बाद और ई० सन् ९५० के पूर्व उनका समय सिद्ध किया है। इस मान्यताकी आलोचना श्री डा ज्योतिप्रसादजीने की है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि 'प्रामाण्यभंग'के कर्ता अनन्तकीर्ति अनन्तवीर्यके पूर्ववर्ती हैं तथा सर्वज्ञसिद्धि और जीवांसद्धिटीकाके कर्ता अनन्तकीर्ति उनके उत्तरवर्तीवर्ती हैं। इन दोनों ग्रन्थोंके रचयिता दो भिन्न-भिन्न अनन्तकीर्ति भी हो सकते हैं। इन दोनों ग्रन्थों की रचना ८४०-९९० ई. के मध्य हो सकती है। डा ज्योतिप्रसादजी की सम्भावना है कि सर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति विद्यानन्द भी पूर्ववर्ती हो सकते हैं और इस स्थितिमें उन्हें 'प्रामाण्यभंग के कर्तासे अभिन्न माना जा सकता है। बहुत सम्भव है कि नन्दिसंघकी पट्टावलोके अनन्तकीति 'प्रामाण्य भंग' आदि ग्रंथो के रचयिता हो । श्री महेन्द्रकुमारजी द्वारा की गयी इस सम्भा बनाको डा ज्योतिप्रसादजी भी स्वीकार करते हैं कि सर्वशसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति ही 'प्रामाण्यभंग'के कर्ता हों। इस सम्भावनाके आधारपर अनन्त कीतिका समय ई० सं ० की ८वीं शती माना जा सकता है और यदि पिछले ग्रन्थों के रचयिता इनसे भिन्न है तो यह अनन्तकीर्ति ई० सनकी ९ शतीके उत्तरार्ध में हए होंगे। हमें श्री पं० महेन्द्रकुमारजीके तर्क अधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं । अतएव 'सर्वज्ञसिद्धि के रचयिता ही 'प्रामाण्यभंग के रचयिता हैं और इनका समय ई. सन्की नवम शताब्दीका उत्तरार्ध है।
अनन्तकीतिके चार अन्योंका निर्देश मिलता है। इन चारमें दो ही अन्ध उपलब्ध है और इन दोनोंका प्रकाशन माणिक चन्द्र अन्धमाला बम्बईसे हो चुका है। शेष दो प्रन्थोंके तो निर्देशही मिलते हैं।
१. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. ४५२ ।
२. जैन सन्देश, शोषांक ३, पृष्ठ १२६ ।
अनन्तकीर्ति ने बृहत् और लघु ये दो सर्वसिद्धिनामक ग्रन्थ लिखे हैं । लघु सर्वसिद्धिके अन्त में एक पद्य दिया है, जो निम्न प्रकार है---
समस्तभुवनव्यापियशसानंतकोतिना ।
कृतेयमुज्वला सिद्धिधर्मज्ञस्य निरगला' ।।
ये दोनों ही ग्रन्थ गद्य में लिखे गये हैं, पर उद्धरणके रूपमें कारिकाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं । आरम्भमें बताया है कि जो वस्तु जिस रूपमें है, सर्वज्ञ उसको उसी रूपमें जानता है, किन्तु इससे अवर्तमान वस्तुका ग्राहक होनेसे सर्वज्ञका ज्ञान अप्रत्यक्ष नहीं ठहरता, क्योंकि वह स्पष्टरूपसे अपने विषयको ग्रहण करता है। निकट देश और वर्तमानरूपसे अर्थको जानना प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है। अन्यथा गोदमें स्थित बालकके शरीरमें क्रिया बगैरह देखकर जो उसके जीवके सद्भावका ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष कहा जायगा, पर जीवका शान तो प्रत्यक्ष होता नहीं । अत्तः स्पष्टरूपसे अर्थका प्रतिभासित होना ही प्रत्यक्ष है। अतएव सर्वज्ञको अतीत आदि पदायीका स्पष्ट बाँध होनेमे कोई बाधा नहीं है। जैसे इन्द्रियप्रत्यक्षके द्वारा दूरवर्ती पदार्थका ग्रहण होने पर भी उसके स्पष्टग्राही होनेमें कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार दूरकालवर्ती पदार्थको ग्रहण करनेपर भी अतीन्द्रित्य प्रत्यक्षके स्पष्टग्राही होनेमें कोई विरोध नहीं है। सर्वज्ञ अतीत पदार्थको अतीतरूपसे और वर्तमान पदार्थको वर्तमानरूपसे जानता है। मोमा सकने पूर्व पक्षके रूपमें सर्वज्ञाभाव सिद्ध करनेके लिए अनेक तर्क दिये हैं । उसने तकं उपस्थित किया है कि प्रत्यक्ष द्वारा कोई सर्वज्ञ दिखलाई नहीं पड़ता और न प्रत्यक्षसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका साक्षात्कार ही सम्भव है। यदि इन पदार्थोंका सर्वज्ञको ज्ञान होता है, तो इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा या अती न्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा? प्रथम पक्ष उचित नहीं, क्योंकि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका इन्द्रियोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध नहीं होता । अतः वे किसीके इन्द्रिय शानके विषय नहीं हो सकते । यदि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके द्वारा सूक्ष्मादि पदार्थोंका ज्ञान सिद्ध करते हैं तो अतीन्द्रियप्रत्यक्ष तो अप्रसिद्ध है।
__ आचार्यने मीमांसकका उत्तर देते हुए प्रत्यक्षसामान्यसे सूक्ष्म आदि पदार्थों का प्रत्यक्षज्ञान माना है। सूक्ष्म आदि पदार्थोंके सामान्यरूपसे किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर वह प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे निरपेक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मादि पदाथोंको ग्रहण करता है । जो प्रत्यक्ष इन्द्रियादिसे निरपेक्ष नहीं होता वह सूक्ष्मादि पदार्थोको विषय नहीं करता । जैसे हम लोगोंका प्रत्यक्ष ! किन्तु
१. लघुसर्वसिदि, अन्तिम पछ ।
सर्वज्ञका प्रत्यक्ष सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषय करता है । अत: वह इन्द्रिय और मन की सहायतासे नहीं। ____ अनुमान द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। स्वभावविप्रकृष्ट परमाणु
आदि, कालविप्रकृष्ट रावणादि, देशविप्रकृष्ट हिमवानादि किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमानका विषय होनेसे । यदि यह कहा जाय कि स्वभाविप्रकृष्ट, देशविप्र कृष्ट और कालविप्रकृष्ट पदार्थ अनुमानसे नहीं जाने जा सकते, तो अनुमान प्रमाणका ही मूलोच्छेद हो जायेगा । अनुमानकी उपयोगिता इसा अर्थ में है कि वह उन पदार्थीको ग्रहण करता है जो पदार्थ हमारे प्रत्यक्षगोचर नहीं हैं । अत्त एव अनुमानसे भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। तर्क भी सर्वज्ञको सिद्ध करने में सहायक है । व्याप्तिज्ञानसे तर्ककी उत्पत्ति होती है। अतएव सूक्ष्मादि पदार्थ व्यति रेकव्याप्ति द्वारा तर्कसे सिद्ध होते हैं । आचार्यने लिखा है
यदि षभिः प्रमाणे: स्यात्सर्वज्ञ: केन वार्यते
एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ।।
नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन्प्रतिपद्यते ।।
यज्ञातीयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनं ।।
भवेदिदानी लोकस्य तथा कालांतरेऽप्यभूत।।
सत्राप्यतिशयो दृष्ट: सस्वार्थानत्तिलंघनात् ।।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोतृवृत्तितः ।।
स्पष्ट है कि आचार्यने सर्वज्ञकी सिद्धि षप्रमाण द्वारा की है और आवरणके दूर होने पर निष्कलंक आत्मा सर्वज्ञ हो सकता है। 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमेय होनेसें' इस अनुमानमें किसी दूसरे अनुमानसे बाधा भी नहीं
आती है । इस प्रकार अनन्तकीर्ति ने सप्रमाण सर्वसिद्धि प्रस्तुत की है।
बृहत्सर्वशसिद्धिका विषय भी लघुसर्वज्ञसिद्धिका ही है। आरम्भमें सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंको किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध किया है, अनुमेय होनेसे । बताया है
"सूक्ष्मांतरितद्रार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकपूर्वका विसंवादिनष्टमुष्टिचिंतालाभालाभसुखदुःखग्रहोपरागाशुपदेशकरणान्यथानुपपत्तेः । सथाहि-नष्टं देशांतरित कालांतरितं द्रव्यांतरित वा स्यात् । मुष्टिस्थ वस्तु द्रव्यांतरितम् । चिंता सुक्ष्मस्वभावा | लाभालाभो कालांतरिती । तथा सुख दुःखे । ग्रहोपरागादिः कालांतरितः । मंत्रोषषिशक्तयः सूक्ष्मस्वभावाः । तदेषां
१. लधुसर्वसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पु. ११६-११७ ।
सूक्ष्मांतरितदूरस्वभावानामर्थानां यथोक्तस्योपदेशस्य करणं तत्साक्षात्करणमंत रेणानुपपन्न ।"
इस प्रकार आचार्यने सर्वज्ञको सिद्धि कर अर्हन्तको सर्वज्ञ बतलाया है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री अनंतकिर्ती |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#AnantkirtiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री अनन्तकीर्ति (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
नामके अनेक आचार्योका निर्देश प्राप्त होता है। एक
नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गणकी पट्टाबलीके ३३वें गुरु हैं, जो उज्जयिनीपट्ट के अन्तर्गत देशभूषणके पश्चात् और धर्मनन्दि के पूर्व उल्लिखित हैं। पट्टावलोके अनुसार इनका समय ई० सन् ७०८-२८ हैं।
दूसरेअनन्तकीर्ति
'प्रामाण्यभंग' ग्रंथके अन्यके रचयिताके रूपमें उल्लि खित हैं। इनका निर्देश रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्यने अपनी सिद्धिविनि श्चयटीकामें किया है।
तीसरे अनन्तकीर्तिवादिराज द्वारा सिद्धिप्रकरणके कर्ताके रूपमें स्मृत हैं।
चतुर्थ अनन्तकीर्ति का उल्लेख बलगाम्बेसे प्राप्त एक नागरी लिपिके कन्नड़ मूर्तिलेखमें निर्दिष्ट हैं। इस लेखका समय अनुमानतः १०७५ ई० है ! मालव् के शान्तिनाथदेवसे सम्बन्धित बलात्कारगणके मुनि चन्द्रसिद्धान्तदेवके शिष्यके रूपमें इनका कथन आया है।
पञ्चम अनन्तकीर्ति माथुरसंघी हैं, जिन्होंने ई० सन् ११४७ ( वि० सं० १२०४ ) में मूर्ति-प्रतिष्ठा की थी।
षष्ट अनन्तकीर्ति दण्डनायक भरतको पत्नी जक्कव्वेकेके गुरुके रूपमें उल्लि खित हैं। इन्होंने होयसल नरेश वीर बल्लालदेव (ई० सन् ११७३-१२३० ई.) के शासनकालके २३ वें वर्ष में समाधिमरण धारण किया था।
सप्तम अनन्तकीर्ति देशीगण पुस्तकगच्छके मेघचन्द्र विद्यदेवके प्रशिष्य (ई सन् १११५ ), आचारसार ( ११५४ ई. के कर्ता वीरनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य, रामचन्द्र मलधारिके गुरु और शुभचन्द्र के प्रगुरु हैं। इनका समय ई० सन् ११७५-१२२५ ई. के लगभग है।
अष्टम अनन्तकीर्ति काणूरगण तिन्तिणिगच्छके भट्टारक हैं। ये ई० सन् १२०७ में बान्धव नगरको शान्तिनाथ बसत्तिके अध्यक्ष थे । यह अनेक शिला
१. ज्ञानार्णव, ४२।८८ ।
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ ० ७८-७९
३. एपिग्राफी कर्णाटिका, ७, शिकारपुर, अभिलेख १३४ ।
४. बही, अभिलेख संख्या-१९६ ।
५. जैन सन्देश, शोधाइ ३. पृ० १२५ ।
लेखों में उल्लिखित बन्दणिके तीर्थाध्यक्ष भानुकीर्ति ( ई० सन् ११३९-८२ ई०) के प्रशिषय थे और सम्भवत्तया देवकीर्ति के शिष्य और धर्मकीर्ति के गुरु थे ।
काष्ठासंघ माथुरगच्छ पुष्करगणके प्रतिष्ठाचार्य के रूपमें एक अन्य अनन्त कीर्तिका उल्लेख मिलता है। इनका ई० सन् १३७१ के चन्द्रवाडके कई मूर्ति लेखोंमें उल्लेख आया है। इसी गण-गच्छ भट्टारक कमलकीर्ति के शिष्य भी अनन्तकीर्ति हुए हैं।
एक अनन्तकीर्ति नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगणके सागवाड़ा पट्टके मण्डलाचार्य रत्नकीर्तिके शिष्य हैं, जिन्होंने १५४५ ई के लगभग एक विशाल चतुर्विध संघ सहित दक्षिण देशको विहार किया था और वहाँ जाकर रत्नकीर्तिपट्ट स्थापित किया था। इसी गणगच्छके मालवापट्टके अभिनव रत्नकीर्तिके शिष्य कुमुदचन्द्रके गुरुभाई और ब्रह्मरायमल्ल तथा भट्टारक प्रतापकीतिके गुरु अनन्तकीर्ति हुए हैं। इनका समय ई० सनकी १६वीं
शताब्दी है। ___ इन अनन्तकीर्तियों के अतिरिक्त बृहत्सर्वसिद्धि और लघुसर्वसिद्धिक कर्ता अनन्तकीर्ति हैं, जिनके शन्तिसूरिने 'जैन तर्कवातिक में उल्लेख एवं उद्धरण पाये जाते हैं तथा अभयदेवसूरि तर्कपञ्चाननकी 'तत्त्वबोधविधायिनी' अपरनाम 'वादमहार्णवसन्मतिटीका में जिनका अनुसरण पाया जाता है। प्रभाचन्द्रने भी अपने न्यायकुमुदचन्द्रमें उनका अनुसरण किया है। प्रमेयकमल मार्तण्डके सर्वज्ञसिद्धिप्रकरणमें भी अनन्तकोतिको बृहत् सर्वज्ञसिद्धिका शब्दा नुसरण पाया जाता है। बृहत्सर्वसिद्धिके अन्तिम पृष्ठ तो यत्किञ्चित् परि वर्तनके साथ न्यायकुमुदचन्द्रके केवलि-भुक्तिवादप्रकरणसे अपूर्व सादृश्य रखते हैं।
अनन्तकीर्ति के ग्रन्थोंके देखनेसे ज्ञात होता है कि वे अपने युगके प्रख्यात तार्किक विद्वान थे, इन्होंने स्वप्नज्ञानको मानसप्रत्यक्ष माना है। आचार्य शान्तिसूरिने जैनतर्फवातिकवृत्ति (पृ. ७७)में "स्वप्नविज्ञानं यत्स्पष्टमुत्पद्यते इति अनन्तकीादयः" अनन्तकीर्तिका मत्त उदघृत्त किया है। यह मत बृहत्सर्वसिद्धि में "तथा स्वपनज्ञाने ने चानक्षऽपि वैशधमुपलभ्यते" रूपमें निबद्ध है । शान्तिसूरिका समय ई० सन् ९९३–११४७ ई. के बीच है। न्यायाचार्य श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने सन्मत्तितर्कके टीकाकार अभयदेवसूरि और बृहत्सर्वसिद्धिके साथ तुलना कर यह निष्कर्ष निकाला है कि अनन्तकीर्तिका
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ११२-११५ ।
२. जैनतर्कवार्तिक , प्रस्तावना, पृ० १४१ ।
समय ई० सन् ९९० के पूर्व है।
आचार्य वादिराजने अपनेपार्श्वनाथचरितमें अनन्तकीर्तिकाका स्मरण निम्न प्रकार किया है
आत्मवाद्वितीयेन जीवसिद्धि निबध्नता ।
अनन्तकीतिना मुक्तिरात्रिमार्गव लक्ष्यते ॥
न्यायविनिश्चयविबरणके सर्वसिद्धिप्रकरणमें आचार्य वादिराजने लिखा है
__ "तच्चेदम्- यो यात्रानुपदेशालिङ्गानन्धयन्यतिरेकाविसंवादिवचनोपक्रमः स तत्साक्षात्कारी, यथा सुरभिचन्दनगन्धादौ अस्मदादिः, सथाविधवचनोपक्रमश्च कश्चित् ग्रहनक्षन्नादिगतिविकल्पे मन्त्रतन्त्रादिशक्तिविशेषे च तदागमप्रणेता पुरुष इति ।" ___ वादिराजकी इन पंक्तियोंपर लघुसर्वज्ञसिद्धिकी निम्नलिखित पंक्तियों का प्रभाव स्पष्ट है। साथ ही जिस हेतुका प्रयोग अनन्तकीर्ति ने किया है उसी मूलहेतुका प्रयोग वादिराजने भी ।
"यस्य यज्जातीयाः पदार्था: प्रत्यक्षाः तस्यासत्यावरण तेऽपि प्रत्यक्षाः । यथा घटसमानजातीयभूतलप्रत्यक्षत्वे घटः । प्रत्यक्षाश्च विमत्यधिकरणभावापन्नस्य कस्यचिद्देशादिविप्रकृष्टत्वेन धर्माकाशकालाहिमचन्मदरमकराकरादिसजातीयाः नष्दमुष्टिचिंतालाभालाभजीवितमरणसुखदुःखग्रहनक्षत्रमंत्रौषधिशक्त्यादयो भा वास्तदागमप्रणेतुरिति । न तावदयमसिद्धो हेतुः । तथाहि यो यद्विषयानुपदेशा लिंगानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनानुकमकर्ता स तत्साक्षात्कारी यथा अस्मदा दिर्यथोक्तजलदौत्यादिविषयवचनरचनानुक्रमकारी तद्दष्टानष्टमुष्ट्यादिविषया नुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकाविसंवादिवचनरचनानुकमकर्ता च कश्चिद्विमधि करणभावापन्नः पुरुष इति ।"
अतएव स्पष्ट है कि वादिराज लधुसर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति से परिचित थे।
श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीनेअनन्तकीर्ति के सम्बन्ध में विचार करते हुए लिखा है-"वादिराजने आचार्य जिनसेनके बाद अनन्तकीर्ति का स्मरण किया है
१. जैन सन्देश, शोषांक १, पृष्ठ ३६ ।
२. पार्शवनाथचरित्र, श२४ ।
३. न्यायविनिश्चयविवरण, भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण, द्वितीय भाम, प० २९७ ।
४. लघुसर्वसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाळा, पृ० १०७ (ग्रन्थ का प्रथम पृष्ट ) ।
और ऐसा मालूम होता है कि उन्होंने पूर्व कवियोंका स्मरण प्रायः समयक्रमसे किया है । इससे अनन्तकीर्ति का समय जिनसेन के बाद और वादिराजसूरिसे
पहले अर्थात् वि० सं० ८४० और १०८२ के बीच मानना चाहिए।"
श्री पं० महेन्द्रकुमारजीने विद्यानन्दके 'तल्वार्थश्लोकवार्तिक और 'लघु सर्वसिद्धि' ग्रन्थोंकी तुलना करते हुए यह निष्कर्ष निकाला है कि विद्या नन्द और अनन्तकीर्तिके हेतु समान हैं। अतएव विद्यानन्दके समकालीन अथवा उनके तत्काल ही अनन्तकीर्ति हुए हैं। 'स्वतः प्रामाण्यभंग' ग्रन्थ भी इन्हीं अनन्तकीर्तिका होना चाहिए।' इस विवेचनके आधारपर न्यायाचार्यजीने ई० सन् ८४० के बाद और ई० सन् ९५० के पूर्व उनका समय सिद्ध किया है। इस मान्यताकी आलोचना श्री डा ज्योतिप्रसादजीने की है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि 'प्रामाण्यभंग'के कर्ता अनन्तकीर्ति अनन्तवीर्यके पूर्ववर्ती हैं तथा सर्वज्ञसिद्धि और जीवांसद्धिटीकाके कर्ता अनन्तकीर्ति उनके उत्तरवर्तीवर्ती हैं। इन दोनों ग्रन्थोंके रचयिता दो भिन्न-भिन्न अनन्तकीर्ति भी हो सकते हैं। इन दोनों ग्रन्थों की रचना ८४०-९९० ई. के मध्य हो सकती है। डा ज्योतिप्रसादजी की सम्भावना है कि सर्वज्ञसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति विद्यानन्द भी पूर्ववर्ती हो सकते हैं और इस स्थितिमें उन्हें 'प्रामाण्यभंग के कर्तासे अभिन्न माना जा सकता है। बहुत सम्भव है कि नन्दिसंघकी पट्टावलोके अनन्तकीति 'प्रामाण्य भंग' आदि ग्रंथो के रचयिता हो । श्री महेन्द्रकुमारजी द्वारा की गयी इस सम्भा बनाको डा ज्योतिप्रसादजी भी स्वीकार करते हैं कि सर्वशसिद्धिके कर्ता अनन्तकीर्ति ही 'प्रामाण्यभंग'के कर्ता हों। इस सम्भावनाके आधारपर अनन्त कीतिका समय ई० सं ० की ८वीं शती माना जा सकता है और यदि पिछले ग्रन्थों के रचयिता इनसे भिन्न है तो यह अनन्तकीर्ति ई० सनकी ९ शतीके उत्तरार्ध में हए होंगे। हमें श्री पं० महेन्द्रकुमारजीके तर्क अधिक उपयुक्त प्रतीत होते हैं । अतएव 'सर्वज्ञसिद्धि के रचयिता ही 'प्रामाण्यभंग के रचयिता हैं और इनका समय ई. सन्की नवम शताब्दीका उत्तरार्ध है।
अनन्तकीतिके चार अन्योंका निर्देश मिलता है। इन चारमें दो ही अन्ध उपलब्ध है और इन दोनोंका प्रकाशन माणिक चन्द्र अन्धमाला बम्बईसे हो चुका है। शेष दो प्रन्थोंके तो निर्देशही मिलते हैं।
१. जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, पु. ४५२ ।
२. जैन सन्देश, शोषांक ३, पृष्ठ १२६ ।
अनन्तकीर्ति ने बृहत् और लघु ये दो सर्वसिद्धिनामक ग्रन्थ लिखे हैं । लघु सर्वसिद्धिके अन्त में एक पद्य दिया है, जो निम्न प्रकार है---
समस्तभुवनव्यापियशसानंतकोतिना ।
कृतेयमुज्वला सिद्धिधर्मज्ञस्य निरगला' ।।
ये दोनों ही ग्रन्थ गद्य में लिखे गये हैं, पर उद्धरणके रूपमें कारिकाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं । आरम्भमें बताया है कि जो वस्तु जिस रूपमें है, सर्वज्ञ उसको उसी रूपमें जानता है, किन्तु इससे अवर्तमान वस्तुका ग्राहक होनेसे सर्वज्ञका ज्ञान अप्रत्यक्ष नहीं ठहरता, क्योंकि वह स्पष्टरूपसे अपने विषयको ग्रहण करता है। निकट देश और वर्तमानरूपसे अर्थको जानना प्रत्यक्षका लक्षण नहीं है। अन्यथा गोदमें स्थित बालकके शरीरमें क्रिया बगैरह देखकर जो उसके जीवके सद्भावका ज्ञान होता है, वह भी प्रत्यक्ष कहा जायगा, पर जीवका शान तो प्रत्यक्ष होता नहीं । अत्तः स्पष्टरूपसे अर्थका प्रतिभासित होना ही प्रत्यक्ष है। अतएव सर्वज्ञको अतीत आदि पदायीका स्पष्ट बाँध होनेमे कोई बाधा नहीं है। जैसे इन्द्रियप्रत्यक्षके द्वारा दूरवर्ती पदार्थका ग्रहण होने पर भी उसके स्पष्टग्राही होनेमें कोई विरोध नहीं है उसी प्रकार दूरकालवर्ती पदार्थको ग्रहण करनेपर भी अतीन्द्रित्य प्रत्यक्षके स्पष्टग्राही होनेमें कोई विरोध नहीं है। सर्वज्ञ अतीत पदार्थको अतीतरूपसे और वर्तमान पदार्थको वर्तमानरूपसे जानता है। मोमा सकने पूर्व पक्षके रूपमें सर्वज्ञाभाव सिद्ध करनेके लिए अनेक तर्क दिये हैं । उसने तकं उपस्थित किया है कि प्रत्यक्ष द्वारा कोई सर्वज्ञ दिखलाई नहीं पड़ता और न प्रत्यक्षसे सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका साक्षात्कार ही सम्भव है। यदि इन पदार्थोंका सर्वज्ञको ज्ञान होता है, तो इन्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा या अती न्द्रियप्रत्यक्ष द्वारा? प्रथम पक्ष उचित नहीं, क्योंकि सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका इन्द्रियोंके साथ सर्वथा सम्बन्ध नहीं होता । अतः वे किसीके इन्द्रिय शानके विषय नहीं हो सकते । यदि अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके द्वारा सूक्ष्मादि पदार्थोंका ज्ञान सिद्ध करते हैं तो अतीन्द्रियप्रत्यक्ष तो अप्रसिद्ध है।
__ आचार्यने मीमांसकका उत्तर देते हुए प्रत्यक्षसामान्यसे सूक्ष्म आदि पदार्थों का प्रत्यक्षज्ञान माना है। सूक्ष्म आदि पदार्थोंके सामान्यरूपसे किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर वह प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मनसे निरपेक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मादि पदाथोंको ग्रहण करता है । जो प्रत्यक्ष इन्द्रियादिसे निरपेक्ष नहीं होता वह सूक्ष्मादि पदार्थोको विषय नहीं करता । जैसे हम लोगोंका प्रत्यक्ष ! किन्तु
१. लघुसर्वसिदि, अन्तिम पछ ।
सर्वज्ञका प्रत्यक्ष सूक्ष्मादि पदार्थोंको विषय करता है । अत: वह इन्द्रिय और मन की सहायतासे नहीं। ____ अनुमान द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। स्वभावविप्रकृष्ट परमाणु
आदि, कालविप्रकृष्ट रावणादि, देशविप्रकृष्ट हिमवानादि किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमानका विषय होनेसे । यदि यह कहा जाय कि स्वभाविप्रकृष्ट, देशविप्र कृष्ट और कालविप्रकृष्ट पदार्थ अनुमानसे नहीं जाने जा सकते, तो अनुमान प्रमाणका ही मूलोच्छेद हो जायेगा । अनुमानकी उपयोगिता इसा अर्थ में है कि वह उन पदार्थीको ग्रहण करता है जो पदार्थ हमारे प्रत्यक्षगोचर नहीं हैं । अत्त एव अनुमानसे भी सर्वज्ञकी सिद्धि होती है। तर्क भी सर्वज्ञको सिद्ध करने में सहायक है । व्याप्तिज्ञानसे तर्ककी उत्पत्ति होती है। अतएव सूक्ष्मादि पदार्थ व्यति रेकव्याप्ति द्वारा तर्कसे सिद्ध होते हैं । आचार्यने लिखा है
यदि षभिः प्रमाणे: स्यात्सर्वज्ञ: केन वार्यते
एकेन तु प्रमाणेन सर्वज्ञो येन कल्प्यते ।।
नूनं स चक्षुषा सर्वान् रसादीन्प्रतिपद्यते ।।
यज्ञातीयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनं ।।
भवेदिदानी लोकस्य तथा कालांतरेऽप्यभूत।।
सत्राप्यतिशयो दृष्ट: सस्वार्थानत्तिलंघनात् ।।
दूरसूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोतृवृत्तितः ।।
स्पष्ट है कि आचार्यने सर्वज्ञकी सिद्धि षप्रमाण द्वारा की है और आवरणके दूर होने पर निष्कलंक आत्मा सर्वज्ञ हो सकता है। 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, अनुमेय होनेसें' इस अनुमानमें किसी दूसरे अनुमानसे बाधा भी नहीं
आती है । इस प्रकार अनन्तकीर्ति ने सप्रमाण सर्वसिद्धि प्रस्तुत की है।
बृहत्सर्वशसिद्धिका विषय भी लघुसर्वज्ञसिद्धिका ही है। आरम्भमें सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंको किसीके प्रत्यक्ष सिद्ध किया है, अनुमेय होनेसे । बताया है
"सूक्ष्मांतरितद्रार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः अनुपदेशालिंगानन्वयव्यतिरेकपूर्वका विसंवादिनष्टमुष्टिचिंतालाभालाभसुखदुःखग्रहोपरागाशुपदेशकरणान्यथानुपपत्तेः । सथाहि-नष्टं देशांतरित कालांतरितं द्रव्यांतरित वा स्यात् । मुष्टिस्थ वस्तु द्रव्यांतरितम् । चिंता सुक्ष्मस्वभावा | लाभालाभो कालांतरिती । तथा सुख दुःखे । ग्रहोपरागादिः कालांतरितः । मंत्रोषषिशक्तयः सूक्ष्मस्वभावाः । तदेषां
१. लधुसर्वसिद्धि, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पु. ११६-११७ ।
सूक्ष्मांतरितदूरस्वभावानामर्थानां यथोक्तस्योपदेशस्य करणं तत्साक्षात्करणमंत रेणानुपपन्न ।"
इस प्रकार आचार्यने सर्वज्ञको सिद्धि कर अर्हन्तको सर्वज्ञ बतलाया है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री अनंतकिर्ती |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Anantkirti ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-April- 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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