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#BhattarakAbhinavDharmabhushan13ThCentury
धर्मभूषण नामके कई आचार्य हुए हैं। एक धर्मभूषण वे हैं, जो भट्टारक बर्मचन्द्रके पट्टपर आसीन हुए थे, जिनका उल्लेख बरार प्रान्तके मूर्तिलेखों में पाया जाता है। ये मतिलेख शक संवत् १५२२, १५३५, १५७२ और १५७७ में उत्कीणित है। द्वितीय धर्मभषण के हैं, जिनके आदेशानुसार केशवचर्णी ने अपनी गोम्मटसारकी जीवतत्वप्रदीपिका नामक कन्नड़टीका शक संवत् १२८१ । ई० सन् १३५९) में रची है। तृतीय धर्मभूषण वे हैं, जिनका विजय नगरके शिलालेख नं० में उपर्युक्त दो धर्मभूषणोंसे पहले उल्लेख आया है। सम्भवतः ये अमरकीतिके गुरु थे | चतुर्थ घर्मभूषण अमरकीतिके शिष्य के रूपमें
और पूर्वोक्त धन प्रशिग में निहित है और ये मिहन्दी व्रतीके सधर्मा' हैं।
अभिनव धर्मभूषण उक्त चारों धर्मभूषणोंसे भिन्न व्यक्ति हैं। इसका उल्लेख विजयनगरने शिलालेख नं० में दर्द्धमान भट्टारकक शिष्य के रूपमे आया है । न्यायदोपिकामें तृतीय प्रकाशकी पुष्पिकावाक्यमें तथा ग्रन्थान्तमें आये हुए पद्यमें धर्मभूषणने अपने को बर्द्धमान भट्टारकका शिष्य बतलाया है । लिखा है ___
"इति श्रीमदर्तमानभट्टारकाचार्यगुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदयश्रीमदभिनव
घूर्मभूषणाचार्यविरचितायां न्यायदीपिका परोक्षप्रकाशस्तृतीयः ।।"
मद्गुरोवंद्रमानेशो बर्द्धमानदयानिधेः ।
श्रीपादस्नेहसम्बन्धासिद्धेर्य न्यायदीपिका ।।
विजयनगरके शक संवत् १३०७ ई० सन् १३८५)के अभिलेख में अभिनव धर्मभूषणको गुरुपरम्परा प्राप्त होती है । इस परम्परामें मूलसंघ, बलात्कार गण और सरस्वतीगच्छमें पधनन्दि, धर्मभूषण, अमरकीति, धर्मभूषण भट्टारक द्वितीय, वर्द्धमान मुनीश्वर और धर्मभूषण तृतीयका निर्देश प्राप्त होता है । इसी प्रकार श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं० १९१में भी धर्मभूषणको गुरुपरम्परा निदिष्ट मिलती है। यह अभिलेख शक संवत् १२२५का है। इसमें मूलसंघ बलालारगणके आचार्योंका उल्लेख करते हुए देवेन्द्रकीति, विशालकीति,
१. यो डॉ० दरबारीलाल कोठिया द्वारा लिखित न्यायदीपिकाकी प्रस्तावना, वीरसेवा
मन्दिर, सन् १९४५, पृ. ९१ ।
शुभकोतिदेव मट्टारक, धर्मभूषण प्रथम, अमरकीतिमाचार्य, धर्मभूषण द्वितीय और वर्द्धमानस्वामीके नाम आये हैं। इन दोनों अभिलेखोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे धर्मभूषण, अमरकोति, धर्मभूषण द्वितीय और बर्द्धमान मुनि ये नाम समानरूपसे आते हैं। इस तुलनासे यह भी स्पष्ट है कि शक संवत् १२९५के पश्चात् तृतीय धर्मभूषण जिनका नाम अभिनव धर्मभूषण है हुए होंगे । श्रवण बेलगोलाके अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि शक संवत् १२९५के पश्चात् ही अभिनव धर्मभूषणको भट्टारक पद मिला होगा।
अभिनव धर्मभूषण की निश्चित तिथिका परिज्ञान नहीं है 1 डॉ. प्रो होस लालजीने द्वितीय धर्मभूषणको निषद्याके निर्माणका समय शक संवत् १२९५ बतलाया है । डॉ० दरबारीलाल कोठियाने लिखा है कि 'केशवव को अपनी गोम्मटसारको जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक टोका लिखने की प्रेरणा एवं आदेश जिन धर्मभूषणसे प्राप्त हुआ, वे धर्मभूषण हो द्वितीय धर्मभूषण होंगे । इनके पट्ट का समय यदि २५ वर्ष भी हो, तो पट्टारूढ़ होनेका समय शक संवत् १२७० पहुंच जाता है | केशववर्णीने अपनी उक्त टोका शक संवत् १२८१में पूर्ण की। इतनी विशाल टोकाको लिखने में ११ वर्षका समय लगना सम्भव है । अतएव प्रयम और तृतीय धर्मभूषण केशववर्णीके प्रेरक नहीं हो सकते है। तृतीय धर्मभूषण जीवतस्वप्रदीपिकाके समाप्तिकालसे लगभग १९ वर्ष पश्चात् गरु पट्टके अधिकारी हुए जान पड़ते हैं। अतएष टोकाकी प्रेरणाके समय उनका अस्तित्व ही न रहा होगा। प्रथम धर्मभूषण भी टोकाके प्रेरक नहीं हो सकते, क्योंकि इनका पट्टकाल सम्भवतः शक संवत् १२२०-१२४५ होना चाहिये । अतएव द्वितीय धर्मभूषणको ही केशववर्णीका प्रेरक माना जा सकता है।'
तृतीय धर्मभूषण शक संवत् १२९५-१३०७के मध्यमें किसी भी समय अपने गुरु बर्द्धमान भट्टारकके पदपर आसीन हुए हैं। यदि पट्टपर आसीन होने के समय इनको अवस्था.२० वर्ष भी मानी जाये, तो जन्मतिथि शक संवत् १२८२ (ई० सन् १३५८)के लगभग आती है। इसकी पुष्टि विजयनगर साम्राज्यके अभिलेखोंसे भी होती है। इस साम्राज्य के स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवी वर्धमान गुरुके शिष्य धर्मभूषणके परम भक्त थे तथा उन्हें अपना गुरु मानते थे। पद्मावती बस्तीके एक अभिलेखसे अवगत होता है कि राजाधिराज परमेश्वर देवराम प्रथम व मान मुनिके शिष्य धर्मभूषण गुरुको
१. न्यायबीपिका, प्रस्तावना, पृ० ९२-९७ ।
चरणोंमें नमस्कार किया करते थे | इस कथनकी पुष्टि दशभक्त्यादिमहाशास्त्रसे भी होती है.
राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदंनिसरोजयुग्म: । श्रीवर्तमानमुनिबल्लभमोदयमुख्यः श्रीधर्मभूषणसुखी जयति क्षमादयः' ।।
उपर्युक्त पद्यसे स्पष्ट होता है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही | 'राजाधिराजपरमेश्वर' की उपाधिसे विभूषित थे । इनका राज्यकाल सम्भवतः
ई. सन १४१८ तक रहा है और द्वितीय देवरायका समय ई० सन् १४१९से १४४६ तक माना जाता है । अतः इन उल्लेखोंके आधारसे यह ध्वनित होता है कि बदमानके शिष्य धर्मभूषण ही प्रथम देवरायके द्वारा सम्मानित थे। अतएव अभिनव धर्मभूषण प्रथम देवरायके समकालीन हैं। इस प्रकार इनका अन्तिम समय ई० सन् १४१८ आता है।
उपर्युक्त विवेचनके आधारपर अभिनव धर्मभूषणका समय ई. सन् १३५८ १४१८ है। श्री डॉ० दरबारीलाल कोठियाने बताया है कि 'न्यायदीपिका पृ० २१में 'बालिशाः' शब्दोंके साथ सायणके सर्वदर्शनसंग्रहसे एक पंक्ति उद्धत की है । सायणका समय शक संवत् १३वीं शताब्दिका उत्तरार्द्ध है क्योंकि शक सं० १३१२का एक दानपत्र मिला है, जिससे वे इसी समयके विद्वान सिद्ध होते हैं। न्यायदीपिकामें आया हुआ बालिशाः' पद अभिनव धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध करता है। दोनों ही विद्वान बिजयनगर के रहनेवाले थे। अतएव उनका समकालीन होना भी सिद्ध है।'
अभिनव धर्मभूषण राजाओं द्वारा मान्य एवं लब्धप्रतिष्ठ यशस्वी विद्वान थे। इनके द्वारा रचित न्यायदीपिकानामक एक न्यायग्रन्थ उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में तीन प्रकाश या परिच्छेद है। प्रथम प्रकाशमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, उसकी प्रमाणता, बौद्ध, भाट्ट, प्राभाकर और नैयायिकों द्वारा मान्य प्रमाणलक्षणोंकी समीक्षा की गयी है। द्वितीय प्रकाशमें प्रमाणके भेद और प्रत्यक्ष का लक्षण बणित है । बौद्धों द्वारा अभिमत प्रत्यक्षलक्षणका निराकरण करने के पश्चात् यौगाभिमत सन्निकर्षका निराकरण किया गया है। प्रत्यमके सां व्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्षके स्वरूप और भेदोंका कथन किया है। इस प्रकाशके अन्त में सर्वज्ञसिद्धि एवं अरहन्तको सर्वत्र सिद्ध किया गया है ।
१. प्रशस्तिसंग्रह, जैन सिद्धान्त भवन, आरा, १० १२५ ।
तृतीय प्रकाशमें परोक्षप्रमाणका विस्तारसे वर्णन किया है। परोक्षके भेद और उनमें ज्ञानान्तरसापेक्षताका कयन कर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानका निरूपण किया है। साधन और साध्यके लक्षणकथनके अनन्तर स्वार्थानुमान और परार्थानुमानोंका प्रतिपादन किया गया है। बौद्धाभिमत बेलाय और नयायिकाभिमत पाञ्च्यरूप्यका निराकरण कर विजिगीषकथा और वीतराग कथाका समालोचन किया है। अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुके समर्थनके पश्चात् हेत्वाभास, उदाहरणाभास, उपनयाभास और निगमनाभासके लक्षण बतलाये गये हैं । आत, मेय, अनेकान्त और सप्तभंगीके भेदोंका प्रतिपादन किया है । इस प्रकार इस छोटेसे ग्रन्थ में न्यायशास्त्रसम्बन्धी सिद्धान्तोंका अच्छा समावेश किया गया है।
गुरु | आचार्य श्री वर्धमान भट्टारक |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक अभिनव धर्मभूषण |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakAbhinavDharmabhushan13ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक अभिनव धर्मभूषण 13वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धर्मभूषण नामके कई आचार्य हुए हैं। एक धर्मभूषण वे हैं, जो भट्टारक बर्मचन्द्रके पट्टपर आसीन हुए थे, जिनका उल्लेख बरार प्रान्तके मूर्तिलेखों में पाया जाता है। ये मतिलेख शक संवत् १५२२, १५३५, १५७२ और १५७७ में उत्कीणित है। द्वितीय धर्मभषण के हैं, जिनके आदेशानुसार केशवचर्णी ने अपनी गोम्मटसारकी जीवतत्वप्रदीपिका नामक कन्नड़टीका शक संवत् १२८१ । ई० सन् १३५९) में रची है। तृतीय धर्मभूषण वे हैं, जिनका विजय नगरके शिलालेख नं० में उपर्युक्त दो धर्मभूषणोंसे पहले उल्लेख आया है। सम्भवतः ये अमरकीतिके गुरु थे | चतुर्थ घर्मभूषण अमरकीतिके शिष्य के रूपमें
और पूर्वोक्त धन प्रशिग में निहित है और ये मिहन्दी व्रतीके सधर्मा' हैं।
अभिनव धर्मभूषण उक्त चारों धर्मभूषणोंसे भिन्न व्यक्ति हैं। इसका उल्लेख विजयनगरने शिलालेख नं० में दर्द्धमान भट्टारकक शिष्य के रूपमे आया है । न्यायदोपिकामें तृतीय प्रकाशकी पुष्पिकावाक्यमें तथा ग्रन्थान्तमें आये हुए पद्यमें धर्मभूषणने अपने को बर्द्धमान भट्टारकका शिष्य बतलाया है । लिखा है ___
"इति श्रीमदर्तमानभट्टारकाचार्यगुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदयश्रीमदभिनव
घूर्मभूषणाचार्यविरचितायां न्यायदीपिका परोक्षप्रकाशस्तृतीयः ।।"
मद्गुरोवंद्रमानेशो बर्द्धमानदयानिधेः ।
श्रीपादस्नेहसम्बन्धासिद्धेर्य न्यायदीपिका ।।
विजयनगरके शक संवत् १३०७ ई० सन् १३८५)के अभिलेख में अभिनव धर्मभूषणको गुरुपरम्परा प्राप्त होती है । इस परम्परामें मूलसंघ, बलात्कार गण और सरस्वतीगच्छमें पधनन्दि, धर्मभूषण, अमरकीति, धर्मभूषण भट्टारक द्वितीय, वर्द्धमान मुनीश्वर और धर्मभूषण तृतीयका निर्देश प्राप्त होता है । इसी प्रकार श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं० १९१में भी धर्मभूषणको गुरुपरम्परा निदिष्ट मिलती है। यह अभिलेख शक संवत् १२२५का है। इसमें मूलसंघ बलालारगणके आचार्योंका उल्लेख करते हुए देवेन्द्रकीति, विशालकीति,
१. यो डॉ० दरबारीलाल कोठिया द्वारा लिखित न्यायदीपिकाकी प्रस्तावना, वीरसेवा
मन्दिर, सन् १९४५, पृ. ९१ ।
शुभकोतिदेव मट्टारक, धर्मभूषण प्रथम, अमरकीतिमाचार्य, धर्मभूषण द्वितीय और वर्द्धमानस्वामीके नाम आये हैं। इन दोनों अभिलेखोंका तुलनात्मक अध्ययन करनेसे धर्मभूषण, अमरकोति, धर्मभूषण द्वितीय और बर्द्धमान मुनि ये नाम समानरूपसे आते हैं। इस तुलनासे यह भी स्पष्ट है कि शक संवत् १२९५के पश्चात् तृतीय धर्मभूषण जिनका नाम अभिनव धर्मभूषण है हुए होंगे । श्रवण बेलगोलाके अभिलेखसे यह स्पष्ट है कि शक संवत् १२९५के पश्चात् ही अभिनव धर्मभूषणको भट्टारक पद मिला होगा।
अभिनव धर्मभूषण की निश्चित तिथिका परिज्ञान नहीं है 1 डॉ. प्रो होस लालजीने द्वितीय धर्मभूषणको निषद्याके निर्माणका समय शक संवत् १२९५ बतलाया है । डॉ० दरबारीलाल कोठियाने लिखा है कि 'केशवव को अपनी गोम्मटसारको जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक टोका लिखने की प्रेरणा एवं आदेश जिन धर्मभूषणसे प्राप्त हुआ, वे धर्मभूषण हो द्वितीय धर्मभूषण होंगे । इनके पट्ट का समय यदि २५ वर्ष भी हो, तो पट्टारूढ़ होनेका समय शक संवत् १२७० पहुंच जाता है | केशववर्णीने अपनी उक्त टोका शक संवत् १२८१में पूर्ण की। इतनी विशाल टोकाको लिखने में ११ वर्षका समय लगना सम्भव है । अतएव प्रयम और तृतीय धर्मभूषण केशववर्णीके प्रेरक नहीं हो सकते है। तृतीय धर्मभूषण जीवतस्वप्रदीपिकाके समाप्तिकालसे लगभग १९ वर्ष पश्चात् गरु पट्टके अधिकारी हुए जान पड़ते हैं। अतएष टोकाकी प्रेरणाके समय उनका अस्तित्व ही न रहा होगा। प्रथम धर्मभूषण भी टोकाके प्रेरक नहीं हो सकते, क्योंकि इनका पट्टकाल सम्भवतः शक संवत् १२२०-१२४५ होना चाहिये । अतएव द्वितीय धर्मभूषणको ही केशववर्णीका प्रेरक माना जा सकता है।'
तृतीय धर्मभूषण शक संवत् १२९५-१३०७के मध्यमें किसी भी समय अपने गुरु बर्द्धमान भट्टारकके पदपर आसीन हुए हैं। यदि पट्टपर आसीन होने के समय इनको अवस्था.२० वर्ष भी मानी जाये, तो जन्मतिथि शक संवत् १२८२ (ई० सन् १३५८)के लगभग आती है। इसकी पुष्टि विजयनगर साम्राज्यके अभिलेखोंसे भी होती है। इस साम्राज्य के स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवी वर्धमान गुरुके शिष्य धर्मभूषणके परम भक्त थे तथा उन्हें अपना गुरु मानते थे। पद्मावती बस्तीके एक अभिलेखसे अवगत होता है कि राजाधिराज परमेश्वर देवराम प्रथम व मान मुनिके शिष्य धर्मभूषण गुरुको
१. न्यायबीपिका, प्रस्तावना, पृ० ९२-९७ ।
चरणोंमें नमस्कार किया करते थे | इस कथनकी पुष्टि दशभक्त्यादिमहाशास्त्रसे भी होती है.
राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदंनिसरोजयुग्म: । श्रीवर्तमानमुनिबल्लभमोदयमुख्यः श्रीधर्मभूषणसुखी जयति क्षमादयः' ।।
उपर्युक्त पद्यसे स्पष्ट होता है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही | 'राजाधिराजपरमेश्वर' की उपाधिसे विभूषित थे । इनका राज्यकाल सम्भवतः
ई. सन १४१८ तक रहा है और द्वितीय देवरायका समय ई० सन् १४१९से १४४६ तक माना जाता है । अतः इन उल्लेखोंके आधारसे यह ध्वनित होता है कि बदमानके शिष्य धर्मभूषण ही प्रथम देवरायके द्वारा सम्मानित थे। अतएव अभिनव धर्मभूषण प्रथम देवरायके समकालीन हैं। इस प्रकार इनका अन्तिम समय ई० सन् १४१८ आता है।
उपर्युक्त विवेचनके आधारपर अभिनव धर्मभूषणका समय ई. सन् १३५८ १४१८ है। श्री डॉ० दरबारीलाल कोठियाने बताया है कि 'न्यायदीपिका पृ० २१में 'बालिशाः' शब्दोंके साथ सायणके सर्वदर्शनसंग्रहसे एक पंक्ति उद्धत की है । सायणका समय शक संवत् १३वीं शताब्दिका उत्तरार्द्ध है क्योंकि शक सं० १३१२का एक दानपत्र मिला है, जिससे वे इसी समयके विद्वान सिद्ध होते हैं। न्यायदीपिकामें आया हुआ बालिशाः' पद अभिनव धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध करता है। दोनों ही विद्वान बिजयनगर के रहनेवाले थे। अतएव उनका समकालीन होना भी सिद्ध है।'
अभिनव धर्मभूषण राजाओं द्वारा मान्य एवं लब्धप्रतिष्ठ यशस्वी विद्वान थे। इनके द्वारा रचित न्यायदीपिकानामक एक न्यायग्रन्थ उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में तीन प्रकाश या परिच्छेद है। प्रथम प्रकाशमें प्रमाणका सामान्य लक्षण, उसकी प्रमाणता, बौद्ध, भाट्ट, प्राभाकर और नैयायिकों द्वारा मान्य प्रमाणलक्षणोंकी समीक्षा की गयी है। द्वितीय प्रकाशमें प्रमाणके भेद और प्रत्यक्ष का लक्षण बणित है । बौद्धों द्वारा अभिमत प्रत्यक्षलक्षणका निराकरण करने के पश्चात् यौगाभिमत सन्निकर्षका निराकरण किया गया है। प्रत्यमके सां व्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्षके स्वरूप और भेदोंका कथन किया है। इस प्रकाशके अन्त में सर्वज्ञसिद्धि एवं अरहन्तको सर्वत्र सिद्ध किया गया है ।
१. प्रशस्तिसंग्रह, जैन सिद्धान्त भवन, आरा, १० १२५ ।
तृतीय प्रकाशमें परोक्षप्रमाणका विस्तारसे वर्णन किया है। परोक्षके भेद और उनमें ज्ञानान्तरसापेक्षताका कयन कर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमानका निरूपण किया है। साधन और साध्यके लक्षणकथनके अनन्तर स्वार्थानुमान और परार्थानुमानोंका प्रतिपादन किया गया है। बौद्धाभिमत बेलाय और नयायिकाभिमत पाञ्च्यरूप्यका निराकरण कर विजिगीषकथा और वीतराग कथाका समालोचन किया है। अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुके समर्थनके पश्चात् हेत्वाभास, उदाहरणाभास, उपनयाभास और निगमनाभासके लक्षण बतलाये गये हैं । आत, मेय, अनेकान्त और सप्तभंगीके भेदोंका प्रतिपादन किया है । इस प्रकार इस छोटेसे ग्रन्थ में न्यायशास्त्रसम्बन्धी सिद्धान्तोंका अच्छा समावेश किया गया है।
गुरु | आचार्य श्री वर्धमान भट्टारक |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक अभिनव धर्मभूषण |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Abhinav Dharmabhushan 13 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#BhattarakAbhinavDharmabhushan13ThCentury
15000
#BhattarakAbhinavDharmabhushan13ThCentury
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