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#BhattarakBramhajivandhar16ThCentury
ब्रह्म जीवन्धर भट्टारक सोमकोसिके प्रशिष्य एवं यानाःकोतिके शिष्य थे। भट्टारक सोमकोति काष्ठासंघकी नन्दितट-शाखाके गुरु थे तथा ये १०वीं शताब्दीके भट्टारक रामसेनकी परम्परामें हुए हैं। सोमकोत्तिके अनेक शिष्योंमें यशःकीति, वीरसेन और यशोवर प्रसिद्ध हुए हैं। इन्हीं यशःकोतिके शिष्य ब्रह्म जीवन्धर हैं। इन्होंने वि० सं० १५९० वैशाख शक्ला प्रयोदशी सोमवारके दिन भट्टारक विनयचन्द्र 'स्वोपज्ञचनडीटीका' की प्रतिलिपि अपने ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयार्थ की थी। अत: इनका समय वि० सं० की बी शताब्दी है। इनकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त हैं
१. गणस्थानवेलि
२. खटोलारास
३. झुळुकगीत
४. श्रुतजयमाला
५. नेमिचरित
६. सतीगीत
७. तीनचौबीसोस्तुति
८. दर्शनस्तोत्र
९. ज्ञानविरागविनती
१०. आलोचना
११. बीसतीर्थंकरजयमाला
१२. चौबीसतीर्थंकरजयमाला
आत्मविकासके १४ सोपान बतलाये गये हैं। ये मुणस्थान मोह और योगके निमित्तसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें दर्शनमोहके उदयसे जीवकी दृष्टि विपरीत होती है । और स्वाद कटुक होता है । वस्तुतत्त्व उसे रुचिकर प्रतीत नहीं होता है। जीव मिथ्यात्वगणस्थानमें अनन्त कालतकः निवास करता है। मिथ्यात्व के पाँच भेद है--१. विपरीत, २. एकान्त, ३. - विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान । मिथ्यात्वके इन भेदोंके कारण जीवके
परिणामों में अस्थिरता बनी रहती है । उसे हितकर मार्ग नहीं सूझता है । इसी कारण वह संसारमें अनेक पर्यायों में परिभ्रमण करता रहता है। कविने आदितीर्थकरके समवशरण में भरतचक्रवर्ती द्वारा गुणस्थानों के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तरस्वरूप, गुणस्थानोंका स्वरूप प्रतिपादित किया है । उत्थानिका में बताया है
सात नाम आलिया भाविया सब परिबारे जी
रिसहेबर पाय बंदीए, पूजीए अटुपयारे जो
भटुपयारीय रचीय पूजा भरत राजा पछाए।
गुणठाण गैद विचार सारा भणहि जिण सुणि बच्छए ।
मिथ्यात नामैं गुणहठाणे वसहि कालु अनंतए ।
मिथ्यात पंचहु नित्य पूरे भहि चिहुगति जंतुए।
दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जो तत्त्वरूचि उत्पन्न होती है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होते ही आत्मामें निर्मलता उत्पन्न होती है और कषायोंका कालुष्य उत्तरोतर क्षीण होने लगता है। आत्मनिरीक्षण करनेसे चारित्र और ज्ञानकी भी वृद्धि होती है। इस प्रकार चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम आदि गुणस्थानोंका क्रमशः आरोहण करता हुआ जीव अपनेको निर्मल बनाता है। इस प्रकार इस कृतिमें स्वात्मोपलब्धि. का चित्रण किया गया है।
इस रासमें १२ पद्य हे और खटोलेका रूपक देकर आत्म तत्वका विश्लेषण किया है। यह आत्मसम्बोधक रूपककाव्य है । खटोलेमें चार पाये होते हैं, दो पाटी धौर दो सेरुचे । आत्मतत्त्वरूपी खटोला रत्ननयरूपी बानसे बुना हुआ है। उसपर शुद्धभावरूपी सेजको संयमश्रीने बिछाया है। उसपर बैठा हुआ आत्माराम परमानन्दकी नींद लेता है। मुक्ति कान्ता पंखा झलती है और सुर-नरका समूह सेवा करता है। वहाँ आत्मप्रभुकी अनन्त चतुष्ट्यरूप स्वात्मसम्पत्ति या सम्पदाका उपभोग करता है।
नेमिचरितरास—इस रासकाध्यमें ११५ पद्य हैं। बसन्तऋतुके वर्णनके
व्याजसे कविने २२ वें तीर्थकर नेमिजिनका चरित अंकित किया है। वसन्त वर्णनमें कविने पुरानी रूढिके अनुसार अनेक वृक्षों, फलों, पृष्पोंके नामोंकी गणना की है । लिखा है
वसंत ऋतु प्रभु आइयउ, फूली फलो बनराइ ।
फुली करणी केतकी फली, मउल सिरि जाइ ॥१६॥
फूलो पालिने बाली, फूली लाल गलाल |
राय चेलि फली भली, जाको बासु रसाल ॥२७॥
फूलित मरुनी मोगरो, अर फूल मचकुंद ।
फूली कणियर सेवती, फुले सार अरविंद ।।२८।।
फुले कदंबक चंपकी, अरु फूली कचनार ।
जुही चमेली फूलसो, फूली बन कल्हार ॥२९॥
वसन्तोत्सव मनाने के लिये द्वारावतीके सभी नर-नारी-जन उल्लाससे भर रहे हैं और वे टोलियोंके रूपमें बनकी ओर जा रहे हैं । सुन्दर गीतोंको बनिसे मार्ग बाचाल बना हुआ है। बनके पशु-पक्षी भी कलरव कर रहे हैं । राजकुलमें बड़ी चहल-पहल है। श्रीकृष्ण की रुक्मिणी, सत्यभामा आदि पटटहिषियाँ सज-धजकर केशर, कपूर, मिश्रित बावनचन्द नवे घोलको तैयारकर साथ में ले जा रही है। भिजिन मी भाभियोग प्रेरणास बसन्तोतापक लिये तैयार हो रहे हैं। बनमें पहुँचकर सभीने वसन्तोत्सव सम्पन्न किया। वसन्तोत्सवसे वापस लौटनेपर कविने प्रसिद्ध घटनाकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है । एक दिन राज सभामें नेमिजिनके बलका कथन हो रहा था । बलदेवने कहा कि नेमिजिनसे बढ़कर कोई शक्तिशाली नहीं है। इस कथनको सुनकर श्रीकण को अभिमान उत्पन्न हो गया और उन्होंने नेमिजिनसे कहा कि यदि आप अधिक बलशाली हैं, तो मल्लयुद्ध कर देख लिजिये। तब नेमिजिनने उत्तर दिया--"योद्धा मल्ल युद्ध करते हैं, सत्य है, पर राजकुमारोंके बीच शक्तिपरीक्षाके लिये मल्लयुद्ध का होना उचित नहीं है । यदि तुम्हें मेरे बलकी परीक्षा करनी है, तो मेरे हाथ या पैरको उमलीको झुकाओ। किन्तु श्रीकृष्ण हाथ या पैरको जंगलीको झुका नहीं सके । नेमिजिनने अपनी उंगलीसे ही श्रीकृष्णको झुला दिया, जिससे उन्हें उनकी शक्तिका परिज्ञान हुबा । जब नेमिजिनके विवाहका उपक्रम किया गया, तो श्रीकृष्णने षड्यन्त्रकर पशुओंको एक बाड़ेमें एकत्र कर दिया। जब बारात जूनागढ़ पहुँचौ, तो नेमिजिन पशुओंका करुण क्रन्दन सुन बिरक्त हो मये । उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण को और उर्जयन्तगिरिपर तपस्या करने चले गये।
जब राजुलको नेमिजिनकी विरक्तका समाचार मिला, तो वह मुर्च्छित
होकर गिर पड़ी । वह सखियों के साथ गिरमारपर जाने के लिये तैयार हो गयी | माता-पिता और परिजनोंने बहुत समझाया, पर वह न मानी और दीक्षा लेकर तपश्चरण करने में संलग्न हो गयो । कविने लिखा है
परम महोछवि आइए, नेमिजिन तोरण द्वार ।
तिच संबुलहि दयान, पशवाह किउ पुकार ॥१०४॥
दोन वयणु सुर्णेवि करि, सारथि पूछिल ताम |
तिस कहणी मैच जाणियो, अवधिहि नेमि जिनु ताम॥१०५॥
नमीसा इम बोलाए धिग् धिग् ग्रह संसार ।
राज्य विबाहे कारणेंको करइ जीउ संसार ॥१०६।।
हर विरागु रथु फेश्यिउ, सिंहा ते करुणाधार |
मश, बंधन छोड़ाविकार, नेमि चढ़े गिरनार ।।१०७।।
राजमती संयमधरी समकित रयण सहाय ।
अच्युत स्वहि सुर भयो मारी लिंगु बिहाय ।।
इसप्रकार नेमिचरित उच्चकोटिका काव्य है। इसमें खण्डकाब्यके सभी गुण पाये जाते हैं।
इस कृति में नवदेवोंका कथन किया है। बताया है कि जो व्यक्ति भक्ति-भावसे नबदेबोंकी आराधना करता है, बह इस कलिकाल में सभी प्रकारको सुख-समद्धियोंको प्राप्त करता है। इस रचनाके उदाहरणरूप दो पद्य प्रस्तुत है
नवमउ झुंबुक शासनहि, पूर्जाह सुरनर भन्छ ।
अक्किट्टिम कट्टिम पडिमा, तेहंउ बंद सत्र ।
जिन मारम नचदेवता, मानै नहि जो लोइ ।
काल अनेतइ परिभमइ, सुक्खु न पावइ सोइ ।।
यह रचना संस्कृत-पद्यबद्ध है। इसमें आचारांगादि द्वादश अगोंका परिचय दिया गया है। आगमके विषय परिचयके साथ कविता में अलंकारिकता भी पायी जाती है।
यह संस्कृत में रचित स्तुतिकाव्य है। २४ तीर्थंकरोंकी संस्कृत भाषा में स्तुति लिखी गयी है । कविता रसात्मक और सरल है । कविने उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक जैसे अलंकारोंका भी प्रयोग किया है।
इसमें २७ पद्य हैं। शीलकी महत्ता अंकित की गयी है । प्रत्येक गौतमें सतोमाहात्म्य बर्णित है।
बीस तीर्थंकरोंकी महत्त्वसूचक स्तुतियाँ अंकित हैं
इस रचनामे २८-२९ पद्य है और त्रिकालवर्ती चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुतियाँ गुम्फित हैं ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्ह जीवन्धर भट्टारक |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakBramhajivandhar16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक ब्रम्हजीवनधर 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 02-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 02-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
ब्रह्म जीवन्धर भट्टारक सोमकोसिके प्रशिष्य एवं यानाःकोतिके शिष्य थे। भट्टारक सोमकोति काष्ठासंघकी नन्दितट-शाखाके गुरु थे तथा ये १०वीं शताब्दीके भट्टारक रामसेनकी परम्परामें हुए हैं। सोमकोत्तिके अनेक शिष्योंमें यशःकीति, वीरसेन और यशोवर प्रसिद्ध हुए हैं। इन्हीं यशःकोतिके शिष्य ब्रह्म जीवन्धर हैं। इन्होंने वि० सं० १५९० वैशाख शक्ला प्रयोदशी सोमवारके दिन भट्टारक विनयचन्द्र 'स्वोपज्ञचनडीटीका' की प्रतिलिपि अपने ज्ञानावरणीयकर्मके क्षयार्थ की थी। अत: इनका समय वि० सं० की बी शताब्दी है। इनकी निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त हैं
१. गणस्थानवेलि
२. खटोलारास
३. झुळुकगीत
४. श्रुतजयमाला
५. नेमिचरित
६. सतीगीत
७. तीनचौबीसोस्तुति
८. दर्शनस्तोत्र
९. ज्ञानविरागविनती
१०. आलोचना
११. बीसतीर्थंकरजयमाला
१२. चौबीसतीर्थंकरजयमाला
आत्मविकासके १४ सोपान बतलाये गये हैं। ये मुणस्थान मोह और योगके निमित्तसे उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्वगुणस्थानमें दर्शनमोहके उदयसे जीवकी दृष्टि विपरीत होती है । और स्वाद कटुक होता है । वस्तुतत्त्व उसे रुचिकर प्रतीत नहीं होता है। जीव मिथ्यात्वगणस्थानमें अनन्त कालतकः निवास करता है। मिथ्यात्व के पाँच भेद है--१. विपरीत, २. एकान्त, ३. - विनय, ४. संशय और ५. अज्ञान । मिथ्यात्वके इन भेदोंके कारण जीवके
परिणामों में अस्थिरता बनी रहती है । उसे हितकर मार्ग नहीं सूझता है । इसी कारण वह संसारमें अनेक पर्यायों में परिभ्रमण करता रहता है। कविने आदितीर्थकरके समवशरण में भरतचक्रवर्ती द्वारा गुणस्थानों के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तरस्वरूप, गुणस्थानोंका स्वरूप प्रतिपादित किया है । उत्थानिका में बताया है
सात नाम आलिया भाविया सब परिबारे जी
रिसहेबर पाय बंदीए, पूजीए अटुपयारे जो
भटुपयारीय रचीय पूजा भरत राजा पछाए।
गुणठाण गैद विचार सारा भणहि जिण सुणि बच्छए ।
मिथ्यात नामैं गुणहठाणे वसहि कालु अनंतए ।
मिथ्यात पंचहु नित्य पूरे भहि चिहुगति जंतुए।
दर्शनमोहनीयकर्मके उपशम, क्षय या क्षयोपशमसे जो तत्त्वरूचि उत्पन्न होती है, उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होते ही आत्मामें निर्मलता उत्पन्न होती है और कषायोंका कालुष्य उत्तरोतर क्षीण होने लगता है। आत्मनिरीक्षण करनेसे चारित्र और ज्ञानकी भी वृद्धि होती है। इस प्रकार चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ, सप्तम आदि गुणस्थानोंका क्रमशः आरोहण करता हुआ जीव अपनेको निर्मल बनाता है। इस प्रकार इस कृतिमें स्वात्मोपलब्धि. का चित्रण किया गया है।
इस रासमें १२ पद्य हे और खटोलेका रूपक देकर आत्म तत्वका विश्लेषण किया है। यह आत्मसम्बोधक रूपककाव्य है । खटोलेमें चार पाये होते हैं, दो पाटी धौर दो सेरुचे । आत्मतत्त्वरूपी खटोला रत्ननयरूपी बानसे बुना हुआ है। उसपर शुद्धभावरूपी सेजको संयमश्रीने बिछाया है। उसपर बैठा हुआ आत्माराम परमानन्दकी नींद लेता है। मुक्ति कान्ता पंखा झलती है और सुर-नरका समूह सेवा करता है। वहाँ आत्मप्रभुकी अनन्त चतुष्ट्यरूप स्वात्मसम्पत्ति या सम्पदाका उपभोग करता है।
नेमिचरितरास—इस रासकाध्यमें ११५ पद्य हैं। बसन्तऋतुके वर्णनके
व्याजसे कविने २२ वें तीर्थकर नेमिजिनका चरित अंकित किया है। वसन्त वर्णनमें कविने पुरानी रूढिके अनुसार अनेक वृक्षों, फलों, पृष्पोंके नामोंकी गणना की है । लिखा है
वसंत ऋतु प्रभु आइयउ, फूली फलो बनराइ ।
फुली करणी केतकी फली, मउल सिरि जाइ ॥१६॥
फूलो पालिने बाली, फूली लाल गलाल |
राय चेलि फली भली, जाको बासु रसाल ॥२७॥
फूलित मरुनी मोगरो, अर फूल मचकुंद ।
फूली कणियर सेवती, फुले सार अरविंद ।।२८।।
फुले कदंबक चंपकी, अरु फूली कचनार ।
जुही चमेली फूलसो, फूली बन कल्हार ॥२९॥
वसन्तोत्सव मनाने के लिये द्वारावतीके सभी नर-नारी-जन उल्लाससे भर रहे हैं और वे टोलियोंके रूपमें बनकी ओर जा रहे हैं । सुन्दर गीतोंको बनिसे मार्ग बाचाल बना हुआ है। बनके पशु-पक्षी भी कलरव कर रहे हैं । राजकुलमें बड़ी चहल-पहल है। श्रीकृष्ण की रुक्मिणी, सत्यभामा आदि पटटहिषियाँ सज-धजकर केशर, कपूर, मिश्रित बावनचन्द नवे घोलको तैयारकर साथ में ले जा रही है। भिजिन मी भाभियोग प्रेरणास बसन्तोतापक लिये तैयार हो रहे हैं। बनमें पहुँचकर सभीने वसन्तोत्सव सम्पन्न किया। वसन्तोत्सवसे वापस लौटनेपर कविने प्रसिद्ध घटनाकी ओर ध्यान आकृष्ट किया है । एक दिन राज सभामें नेमिजिनके बलका कथन हो रहा था । बलदेवने कहा कि नेमिजिनसे बढ़कर कोई शक्तिशाली नहीं है। इस कथनको सुनकर श्रीकण को अभिमान उत्पन्न हो गया और उन्होंने नेमिजिनसे कहा कि यदि आप अधिक बलशाली हैं, तो मल्लयुद्ध कर देख लिजिये। तब नेमिजिनने उत्तर दिया--"योद्धा मल्ल युद्ध करते हैं, सत्य है, पर राजकुमारोंके बीच शक्तिपरीक्षाके लिये मल्लयुद्ध का होना उचित नहीं है । यदि तुम्हें मेरे बलकी परीक्षा करनी है, तो मेरे हाथ या पैरको उमलीको झुकाओ। किन्तु श्रीकृष्ण हाथ या पैरको जंगलीको झुका नहीं सके । नेमिजिनने अपनी उंगलीसे ही श्रीकृष्णको झुला दिया, जिससे उन्हें उनकी शक्तिका परिज्ञान हुबा । जब नेमिजिनके विवाहका उपक्रम किया गया, तो श्रीकृष्णने षड्यन्त्रकर पशुओंको एक बाड़ेमें एकत्र कर दिया। जब बारात जूनागढ़ पहुँचौ, तो नेमिजिन पशुओंका करुण क्रन्दन सुन बिरक्त हो मये । उन्होंने दिगम्बरी दीक्षा धारण को और उर्जयन्तगिरिपर तपस्या करने चले गये।
जब राजुलको नेमिजिनकी विरक्तका समाचार मिला, तो वह मुर्च्छित
होकर गिर पड़ी । वह सखियों के साथ गिरमारपर जाने के लिये तैयार हो गयी | माता-पिता और परिजनोंने बहुत समझाया, पर वह न मानी और दीक्षा लेकर तपश्चरण करने में संलग्न हो गयो । कविने लिखा है
परम महोछवि आइए, नेमिजिन तोरण द्वार ।
तिच संबुलहि दयान, पशवाह किउ पुकार ॥१०४॥
दोन वयणु सुर्णेवि करि, सारथि पूछिल ताम |
तिस कहणी मैच जाणियो, अवधिहि नेमि जिनु ताम॥१०५॥
नमीसा इम बोलाए धिग् धिग् ग्रह संसार ।
राज्य विबाहे कारणेंको करइ जीउ संसार ॥१०६।।
हर विरागु रथु फेश्यिउ, सिंहा ते करुणाधार |
मश, बंधन छोड़ाविकार, नेमि चढ़े गिरनार ।।१०७।।
राजमती संयमधरी समकित रयण सहाय ।
अच्युत स्वहि सुर भयो मारी लिंगु बिहाय ।।
इसप्रकार नेमिचरित उच्चकोटिका काव्य है। इसमें खण्डकाब्यके सभी गुण पाये जाते हैं।
इस कृति में नवदेवोंका कथन किया है। बताया है कि जो व्यक्ति भक्ति-भावसे नबदेबोंकी आराधना करता है, बह इस कलिकाल में सभी प्रकारको सुख-समद्धियोंको प्राप्त करता है। इस रचनाके उदाहरणरूप दो पद्य प्रस्तुत है
नवमउ झुंबुक शासनहि, पूर्जाह सुरनर भन्छ ।
अक्किट्टिम कट्टिम पडिमा, तेहंउ बंद सत्र ।
जिन मारम नचदेवता, मानै नहि जो लोइ ।
काल अनेतइ परिभमइ, सुक्खु न पावइ सोइ ।।
यह रचना संस्कृत-पद्यबद्ध है। इसमें आचारांगादि द्वादश अगोंका परिचय दिया गया है। आगमके विषय परिचयके साथ कविता में अलंकारिकता भी पायी जाती है।
यह संस्कृत में रचित स्तुतिकाव्य है। २४ तीर्थंकरोंकी संस्कृत भाषा में स्तुति लिखी गयी है । कविता रसात्मक और सरल है । कविने उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक जैसे अलंकारोंका भी प्रयोग किया है।
इसमें २७ पद्य हैं। शीलकी महत्ता अंकित की गयी है । प्रत्येक गौतमें सतोमाहात्म्य बर्णित है।
बीस तीर्थंकरोंकी महत्त्वसूचक स्तुतियाँ अंकित हैं
इस रचनामे २८-२९ पद्य है और त्रिकालवर्ती चौबीस तीर्थंकरोंकी स्तुतियाँ गुम्फित हैं ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्ह जीवन्धर भट्टारक |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Bramhajivandhar 16 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 02-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#BhattarakBramhajivandhar16ThCentury
15000
#BhattarakBramhajivandhar16ThCentury
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