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#BhattarakGunchandra17ThCentury
भट्टारक गुणचन्द्र मूलसंघ सरस्वतीगन्छ बलात्कारगणके भट्टारक रत्न कीतिके शिष्य और भट्टारक यश कीतिक शिष्य थे। यशःकीति अपने समय के अच्छे बिद्धान हैं । पट्टावली में यश कीतिका उल्लख निम्न प्रकार आया है
श्रीरत्नकोतिपदपुष्करालिरादेष्टमुल्यो यशकीतिरिः ।
पदी भजामि सुहृचेष्टमूतिर्देदीप्याता को मुनिचक्रवर्ती ।। ३८ ।।
भट्टारक-सम्प्रदायके लखक जोहरापुरकरके अनुसार भानपुर शाखाके भट्टा रकों में रलकीतिका समय वि० सं० १५३५, यशःकीतिका समय १६१३ और गुणचन्द्रका समय वि०सं० १६३०-१६५३ बताया गया है । मुणचन्द्रका पट्टाभिषेक सांबला गाँव में हुआ था। इनका स्वर्गवास सागवाड़ामें वि० सं० १६५३में हुआ है। एक ऐतिहासिक पत्रमें बताया है-"तेणानो पाटे माम साबले. "समस्त संघ मिली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवानी सं० १६५३ वर्षे आचार्यश्री गुणचन्द्रजी सागबाडे काले करयो ।"
गुणचन्द्र के पश्चात् इस पट्टपर सकलचन्द्र भट्टारक पट्टाधीश हुए है। भट्टारक गुणचन्द्र संस्कृत और हिन्दी भाषाके विद्वान् और कति हैं | इनका समय वि० की १५ वीं शताब्दी है। यशःकीर्तिका स्वर्गवास वि० सं० १६१३ में हुआ था और इसके पश्चात् भट्टारक गुणकीर्ति उनके पट्टपर आसीन हुए। ऐतिहासिक
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०१ ।
२. वहीं, लेखांक ४०५ ।
पत्र गुवतिके भट्टारक होक, यही समय दिया है । लिखा है-"पीछे संवत् १६१३ वर्षे जसकीति ये वागड़ माहे गाम भीलोडे काल करयो तेणानेपाटे गाम सावले पछोरी खाता पछोरी छा छादी समस्त संघ मीली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवाने" । अतएव भट्टारक गुणचन्द्रका समय वि० सं० १६१३-१६५३ है ।
भट्टारक गुणचन्द्रकी संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओंमें रचनाएं पायी जाती हैं | इनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं---
१. अनन्तनाथपुजा ( संस्कृत )
२. मौनयतकथा
३. दयारसरास' (हिन्दी)
४. राजमतिरास
५. आदित्यव्रतकथा ,
६. बारहमासा
७. बारहवत
८. विनती
९. स्तुति नेमिजिनेन्द्र ..
१०. ज्ञानचेतनानुप्रेक्षा ,
११. फुटकर पद ॥
कविने इसे वि० सं० १६३० में हुम्मडवंशी सेठ हरग्छु. चन्द्र दुर्गादास नामक वणिककी प्रेरणासे सागवाड़ाके आदिनाथ मन्दिर में रह कर उन्हींके व्रत-उद्यापनार्थ रचना की गयी है। इस रचनामें अनन्तनाथ भगवान की पूजा और विधि अंकित है | इस पूजाके अन्त में कृतिका रचनाकाल एवं कविने अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है। लिखा है
संवत् षोडशत्रिशतैष्यपलके पक्षेत्रदाते तिथी
पक्षत्यां गुरुवासरे पुरजिनेट् श्रीशाकमार्गे पुरे।
श्रीमान्दु बड़वंशपद्मसचिता हर्षास्यदुर्गी वणिक
सोयं कारितधाननंतजिनसत्पूजा बरे वाग्वरे ।।
मौनव्रतकथामें मौनव्रतका महत्त्व बतलानेके लिए कथा
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ११४ ।
२. अनेकान्त, वर्ष १७, किरण ४, पृ १८९ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०४ ।
अंकित की गयी है । यह कृति भात्र, भाषा और शैलीको दष्टि से साधारण है।
हिन्दी रचनाओं में राजमतिरास, दयारसरास ही महत्त्वपूर्ण हैं | शेष रचनाएँ सामान्य हैं। इनकी भाषापर गुजराती प्रभाव स्पष्ट है। राजमतिरासमें २०४ पद्य हैं और दया रसरासमें १५ । राजमतिरासमें रखें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ और राजमतिका जीवन अंकित किया गया है। नेमिनाथकी विरक्ति के पश्चात् राजुलका विरह मार्मिक रूपमें चित्रित हुआ है । राजुल आत्मशक्ति एकत्र कर स्वयं तपस्विनी बनती है। इस रासमें राजुल और सस्तीका संवाद बहुत ही मार्मिक है | सखी कहती है
तव सखि भणइ न जानसि भावा, रुति असाह कामिनि सरु लावा ।
बादर उडि रहे चहुँ देसा, बिरहनि नयन भरइ अलिकेसा ॥
इस प्रकार कविकी रचनाएँ जनसामान्यको तो प्रभावित करती ही हैं, बिद्वानोंक, पी, नेपाली पवि वि सं० १६३२ की मार्गशीर्ष शुक्ला एकमको षडावश्यकको एक प्रति अपने डूगराको दी थी।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक यश:किर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक गुणचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakGunchandra17ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक गुणचन्द्र 17वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Yashkirti
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 07- June - 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 07- June - 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भट्टारक गुणचन्द्र मूलसंघ सरस्वतीगन्छ बलात्कारगणके भट्टारक रत्न कीतिके शिष्य और भट्टारक यश कीतिक शिष्य थे। यशःकीति अपने समय के अच्छे बिद्धान हैं । पट्टावली में यश कीतिका उल्लख निम्न प्रकार आया है
श्रीरत्नकोतिपदपुष्करालिरादेष्टमुल्यो यशकीतिरिः ।
पदी भजामि सुहृचेष्टमूतिर्देदीप्याता को मुनिचक्रवर्ती ।। ३८ ।।
भट्टारक-सम्प्रदायके लखक जोहरापुरकरके अनुसार भानपुर शाखाके भट्टा रकों में रलकीतिका समय वि० सं० १५३५, यशःकीतिका समय १६१३ और गुणचन्द्रका समय वि०सं० १६३०-१६५३ बताया गया है । मुणचन्द्रका पट्टाभिषेक सांबला गाँव में हुआ था। इनका स्वर्गवास सागवाड़ामें वि० सं० १६५३में हुआ है। एक ऐतिहासिक पत्रमें बताया है-"तेणानो पाटे माम साबले. "समस्त संघ मिली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवानी सं० १६५३ वर्षे आचार्यश्री गुणचन्द्रजी सागबाडे काले करयो ।"
गुणचन्द्र के पश्चात् इस पट्टपर सकलचन्द्र भट्टारक पट्टाधीश हुए है। भट्टारक गुणचन्द्र संस्कृत और हिन्दी भाषाके विद्वान् और कति हैं | इनका समय वि० की १५ वीं शताब्दी है। यशःकीर्तिका स्वर्गवास वि० सं० १६१३ में हुआ था और इसके पश्चात् भट्टारक गुणकीर्ति उनके पट्टपर आसीन हुए। ऐतिहासिक
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०१ ।
२. वहीं, लेखांक ४०५ ।
पत्र गुवतिके भट्टारक होक, यही समय दिया है । लिखा है-"पीछे संवत् १६१३ वर्षे जसकीति ये वागड़ माहे गाम भीलोडे काल करयो तेणानेपाटे गाम सावले पछोरी खाता पछोरी छा छादी समस्त संघ मीली आचार्य गुणचन्द्र स्थापना करवाने" । अतएव भट्टारक गुणचन्द्रका समय वि० सं० १६१३-१६५३ है ।
भट्टारक गुणचन्द्रकी संस्कृत और हिन्दी दोनों भाषाओंमें रचनाएं पायी जाती हैं | इनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं---
१. अनन्तनाथपुजा ( संस्कृत )
२. मौनयतकथा
३. दयारसरास' (हिन्दी)
४. राजमतिरास
५. आदित्यव्रतकथा ,
६. बारहमासा
७. बारहवत
८. विनती
९. स्तुति नेमिजिनेन्द्र ..
१०. ज्ञानचेतनानुप्रेक्षा ,
११. फुटकर पद ॥
कविने इसे वि० सं० १६३० में हुम्मडवंशी सेठ हरग्छु. चन्द्र दुर्गादास नामक वणिककी प्रेरणासे सागवाड़ाके आदिनाथ मन्दिर में रह कर उन्हींके व्रत-उद्यापनार्थ रचना की गयी है। इस रचनामें अनन्तनाथ भगवान की पूजा और विधि अंकित है | इस पूजाके अन्त में कृतिका रचनाकाल एवं कविने अपनी गुरुपरम्परा अंकित की है। लिखा है
संवत् षोडशत्रिशतैष्यपलके पक्षेत्रदाते तिथी
पक्षत्यां गुरुवासरे पुरजिनेट् श्रीशाकमार्गे पुरे।
श्रीमान्दु बड़वंशपद्मसचिता हर्षास्यदुर्गी वणिक
सोयं कारितधाननंतजिनसत्पूजा बरे वाग्वरे ।।
मौनव्रतकथामें मौनव्रतका महत्त्व बतलानेके लिए कथा
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, किरण २, पृ० ११४ ।
२. अनेकान्त, वर्ष १७, किरण ४, पृ १८९ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ४०४ ।
अंकित की गयी है । यह कृति भात्र, भाषा और शैलीको दष्टि से साधारण है।
हिन्दी रचनाओं में राजमतिरास, दयारसरास ही महत्त्वपूर्ण हैं | शेष रचनाएँ सामान्य हैं। इनकी भाषापर गुजराती प्रभाव स्पष्ट है। राजमतिरासमें २०४ पद्य हैं और दया रसरासमें १५ । राजमतिरासमें रखें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ और राजमतिका जीवन अंकित किया गया है। नेमिनाथकी विरक्ति के पश्चात् राजुलका विरह मार्मिक रूपमें चित्रित हुआ है । राजुल आत्मशक्ति एकत्र कर स्वयं तपस्विनी बनती है। इस रासमें राजुल और सस्तीका संवाद बहुत ही मार्मिक है | सखी कहती है
तव सखि भणइ न जानसि भावा, रुति असाह कामिनि सरु लावा ।
बादर उडि रहे चहुँ देसा, बिरहनि नयन भरइ अलिकेसा ॥
इस प्रकार कविकी रचनाएँ जनसामान्यको तो प्रभावित करती ही हैं, बिद्वानोंक, पी, नेपाली पवि वि सं० १६३२ की मार्गशीर्ष शुक्ला एकमको षडावश्यकको एक प्रति अपने डूगराको दी थी।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक यश:किर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक गुणचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Gunchandra 17th Century
आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Yashkirti
आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Yashkirti
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 07- June - 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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BhattarakGunchandra17ThCentury
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