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#BhattarakJinchandraPrachin
दिल्लोको भट्टारकगद्दी के आचार्यों में जिनचन्द्रका महत्वपूर्ण स्थान है। यों तो जिनचन्द्र नामके तीन आचार्य हए हैं। प्रथम गणचन्द्र के शिष्य जिन चन्द्र, द्वितीय मेरुचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र और तृतीय शुभचन्द्र के शिष्य जिमचन्द्र पट्टावली में बताया गया है
"सं० १५०७ जेष्ठ बदि ५ भ० जिनचन्द्रजी गृहस्थवर्ष १२ दिक्षावर्ष १५ पट्टबार्ष ६४ मास , दिवस १७ अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ११ मास ८ दिवस २७ बघेरवाल जाति पट्ट दिल्ली !
"इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नि: संवत् १५७७ ज्येष्ठ कृष्णा पंचमीको इनका पट्टाभिषेक बड़ी धूम-धामके साथ हुआ था । १२ वर्षको अवस्थामें इन्होंने घर छोड़कर दीक्षा ग्रहण की और १५ वर्षों तक शास्त्रोंका अध्ययन किया । ६४ वर्ष तक ये भट्टारक पदपर आसीन रहे। इनकी आयु ११ वर्ष आठ माहू, सत्ताईस दिन थी। ये बघेरवाल जाति के थे । जिन चन्द्र ने राज. स्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब एवं दिल्लीके विभिन्न प्रदेशों में पर्याप्त बिहार किया और जनताको धर्मोपदेश दिया। प्राचीन ग्रन्थों की नयो-नबी प्रतियां लिखवाकर मन्दिरों में विराजमान करायों तथा नये-नये ग्रन्थोंका स्वयं निर्माण भी किया । पुरातनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार एवं नये मन्दिरोंकी प्रति
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २४८ ।
ष्ठाएँ कराकर जैनसंस्कृति और धर्मका पर्याप्त प्रचार किया । वि० सं० १५४८ में जीवराज पापड़ीवालने जो प्रतिष्ठा करायी थी, उसका आचार्यत्व आपके तत्त्वाधानमें ही सम्पन्न हुआ। 'पउमरिय'को प्रशस्ति एवं दर्शनयन्त्र पर उत्कोणित अभिलेखसे यह प्रमाणित होता है कि जिनचन्द्रने १६वीं शताब्दीमें जैनधर्म के जागरण के लिये अनेक कार्य किये हैं । अन्धलेखन, प्रतिलिपिसंपादन धर्मोपदेश, मतिप्रतिष्ठापन आदि कार्यों द्वारा इन्होंने धर्म और संस्कृतिका उत्थान किया है। संवत् १५१२की आषादकृष्णा द्वादगीको नेमिनाथचरितकी एक प्रतिलिपि कराया गयी थी, जिसे इन्हें नवन्दिमुनिने घोघा बन्दरगाहमें समर्पित की थी।
वि० सं० १५१७को मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमीमें झुजणपुरमें 'तिलोयपपत्ति' की एक प्रति लिखाया गया। इसी प्रकार वि० सं० १५२१की ज्येष्ठ शुक्ला एकादशीको ग्वालियर में 'पउमरिय'को एक प्रति लिखायी गयो, जो नेत्रि नन्दिमुनिको अर्पण को गयो यो । वि० सं० १५३६५ वैशाख शुक्ला दशमीको जिनचन्द्रको आम्नायमें विद्यान्दिने एक महावीरस्वामीको मूर्ति स्थापित की थी । संवत् १५४३की मार्गशार्षकृष्णा त्रयोदशोको जिनचन्द्रने सम्यग्दर्शनयन्त्र स्थापित किया तथा वि० सं० १५४५को वंशाखशुक्ला दशमोको ऋषभदेवकी एकमूर्ति स्थापित की । निश्चयत: जिनचन्द्र अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान भट्टारक थे।
आचार्य जिनचन्द्रने मौलिक ग्रन्यलेखनके साथ प्राचीन ग्रन्थों को पाण्डुलिपियाँ तैयार करायीं। उन्होंने इन लिपियोंका उपयोग स्वयं किया तथा अन्य मुनियों और त्यागियोंका पठनार्थ प्रतिलिपियाँ अपित की । इनके महत्वके सम्बन्धमें पण्डित मेघाबीने वि० सं० १५४१में लिखित धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें इनको पर्याप्त प्रशंसा की है। लिखा है
सस्मान्नीरनिधेरिवेन्दुरभवच्छोमज्जिनेन्दुर्गणी
स्याद्वादाम्बरमपहले कृतगतिदिग्वाससा मण्डनः ।
यो व्याख्यानमरीचिभिः कुवलये प्रल्हादनं चाक्रवा
न्सद्वृत्तः सकल: कलविकलः षट्कमनिष्णातघी: ।।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २५१ ।
२. वही, लेखांक २५४ ।
३. वही, लेखांक २५५ ।
४, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, प्रकाशक बाबू, सूरजभानु वकील, देवबंद (सहारनपुर) मन्
१९१०, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १२ ।
अर्थात जिसप्रकार जलदसे चन्दमा समुदभूत होता है उसी प्रकार शुम पन्द्रमुनिराजसे जिनचन्द्र उत्पन्न हुए । ये स्यावादरूपी गगनमंडल में विहार करनेवाले मुनिराजोंके अलंकारस्वरूप, सदाचारयुक्त, भव्यजनोंके बांधव रूप एवं समस्त कला और शास्त्रोंके विश हुए। इनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं
१. सिद्धान्तसार
२. जिनचतुर्विशतिस्तोत्र
सिद्धान्तसारमें ७२, गाथाएं हैं। इस ग्रन्थ पर ज्ञान भूषणको संस्कृतटीका भी है। श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिकी भूमिकामें शुभचन्द्राचार्यके शिष्य और पण्डित मेषावीके गुरु जिनचन्द्रको ही इस कृतिका लेखक माना है। यों तो उन्होंने भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्र के भी लेखक होनेको सम्भावना व्यक्त की है, पर उनका अभिमत मेधावीके गुरु जिन चन्द्रभट्टारकको ही इसका रचयिता माननेकी ओर अधिक है। सिद्धान्तशास्त्रके संस्कृतटीकाकार ज्ञानभूषणका समय वि. सं. १५३४-१५६१ है। इस प्रकार टीकाकार और मूलान्य रचयिता समसामयिक सिद्ध होते हैं।
सिद्धान्तसारमें वर्णित विषयोंका अंकन प्रथमगाथामें ही कर दिया गया है। बताया है
जीवगुणस्थानसंशापर्याप्तिप्राणमार्गणानबोनान् ।
सिद्धान्तसारमिदानों भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ॥
अर्थात् जोषसमास, गुणस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, प्राण और मार्गणाओंका इसमें वर्णन किया गया है। १४ गुणस्थानोंमें चतुर्दश मार्गणाओंका सुन्दर विवेचन आया है। इस प्रकार मार्गणाओंमें जीक्समासोंकी संख्या भी दिखलायी गयी है । ७८वीं गाथामें लेखकका नाम अंकित है
पवयणपमाणलक्षणछंदालंकाररहियहियएण ।
जिणईदेण पठत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण ।।
संस्कृत भाषामें २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतियां निबद्ध की गयी हैं। यह स्तोत्र जयपुरके विजयराम पाण्ड्याके शास्त्रभण्डारके एक गुटकेमें संग्रहीत है।
जिनदेवके शिष्यों में रनकोति, सिंहकोति, प्रमाचन्द्र, जगतकीर्ति, चारू कोति, जयकीति, भीमसेन और पण्डित मेघावीके नाम उल्लेखनीय हैं। रल कोतिने वि० सं० १५७२में नागौरमें भट्टारक गद्दीकी स्थापना की। सिंहकीतिने
अटेरमें भट्टारक गद्दी स्थापित की | इस प्रकार भट्टारक जिनचन्द्रने अपने समयमें साहित्य, पुरातत्व एवं धर्मको सेवा को ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक जिनचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakJinchandraPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक जिनचन्द्र (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 01-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 01-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
दिल्लोको भट्टारकगद्दी के आचार्यों में जिनचन्द्रका महत्वपूर्ण स्थान है। यों तो जिनचन्द्र नामके तीन आचार्य हए हैं। प्रथम गणचन्द्र के शिष्य जिन चन्द्र, द्वितीय मेरुचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र और तृतीय शुभचन्द्र के शिष्य जिमचन्द्र पट्टावली में बताया गया है
"सं० १५०७ जेष्ठ बदि ५ भ० जिनचन्द्रजी गृहस्थवर्ष १२ दिक्षावर्ष १५ पट्टबार्ष ६४ मास , दिवस १७ अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ११ मास ८ दिवस २७ बघेरवाल जाति पट्ट दिल्ली !
"इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि नि: संवत् १५७७ ज्येष्ठ कृष्णा पंचमीको इनका पट्टाभिषेक बड़ी धूम-धामके साथ हुआ था । १२ वर्षको अवस्थामें इन्होंने घर छोड़कर दीक्षा ग्रहण की और १५ वर्षों तक शास्त्रोंका अध्ययन किया । ६४ वर्ष तक ये भट्टारक पदपर आसीन रहे। इनकी आयु ११ वर्ष आठ माहू, सत्ताईस दिन थी। ये बघेरवाल जाति के थे । जिन चन्द्र ने राज. स्थान, उत्तरप्रदेश, पंजाब एवं दिल्लीके विभिन्न प्रदेशों में पर्याप्त बिहार किया और जनताको धर्मोपदेश दिया। प्राचीन ग्रन्थों की नयो-नबी प्रतियां लिखवाकर मन्दिरों में विराजमान करायों तथा नये-नये ग्रन्थोंका स्वयं निर्माण भी किया । पुरातनमन्दिरोंका जीर्णोद्धार एवं नये मन्दिरोंकी प्रति
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २४८ ।
ष्ठाएँ कराकर जैनसंस्कृति और धर्मका पर्याप्त प्रचार किया । वि० सं० १५४८ में जीवराज पापड़ीवालने जो प्रतिष्ठा करायी थी, उसका आचार्यत्व आपके तत्त्वाधानमें ही सम्पन्न हुआ। 'पउमरिय'को प्रशस्ति एवं दर्शनयन्त्र पर उत्कोणित अभिलेखसे यह प्रमाणित होता है कि जिनचन्द्रने १६वीं शताब्दीमें जैनधर्म के जागरण के लिये अनेक कार्य किये हैं । अन्धलेखन, प्रतिलिपिसंपादन धर्मोपदेश, मतिप्रतिष्ठापन आदि कार्यों द्वारा इन्होंने धर्म और संस्कृतिका उत्थान किया है। संवत् १५१२की आषादकृष्णा द्वादगीको नेमिनाथचरितकी एक प्रतिलिपि कराया गयी थी, जिसे इन्हें नवन्दिमुनिने घोघा बन्दरगाहमें समर्पित की थी।
वि० सं० १५१७को मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमीमें झुजणपुरमें 'तिलोयपपत्ति' की एक प्रति लिखाया गया। इसी प्रकार वि० सं० १५२१की ज्येष्ठ शुक्ला एकादशीको ग्वालियर में 'पउमरिय'को एक प्रति लिखायी गयो, जो नेत्रि नन्दिमुनिको अर्पण को गयो यो । वि० सं० १५३६५ वैशाख शुक्ला दशमीको जिनचन्द्रको आम्नायमें विद्यान्दिने एक महावीरस्वामीको मूर्ति स्थापित की थी । संवत् १५४३की मार्गशार्षकृष्णा त्रयोदशोको जिनचन्द्रने सम्यग्दर्शनयन्त्र स्थापित किया तथा वि० सं० १५४५को वंशाखशुक्ला दशमोको ऋषभदेवकी एकमूर्ति स्थापित की । निश्चयत: जिनचन्द्र अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान भट्टारक थे।
आचार्य जिनचन्द्रने मौलिक ग्रन्यलेखनके साथ प्राचीन ग्रन्थों को पाण्डुलिपियाँ तैयार करायीं। उन्होंने इन लिपियोंका उपयोग स्वयं किया तथा अन्य मुनियों और त्यागियोंका पठनार्थ प्रतिलिपियाँ अपित की । इनके महत्वके सम्बन्धमें पण्डित मेघाबीने वि० सं० १५४१में लिखित धर्मसंग्रह श्रावकाचारमें इनको पर्याप्त प्रशंसा की है। लिखा है
सस्मान्नीरनिधेरिवेन्दुरभवच्छोमज्जिनेन्दुर्गणी
स्याद्वादाम्बरमपहले कृतगतिदिग्वाससा मण्डनः ।
यो व्याख्यानमरीचिभिः कुवलये प्रल्हादनं चाक्रवा
न्सद्वृत्तः सकल: कलविकलः षट्कमनिष्णातघी: ।।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, शोलापुर, लेखांक २५१ ।
२. वही, लेखांक २५४ ।
३. वही, लेखांक २५५ ।
४, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, प्रकाशक बाबू, सूरजभानु वकील, देवबंद (सहारनपुर) मन्
१९१०, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १२ ।
अर्थात जिसप्रकार जलदसे चन्दमा समुदभूत होता है उसी प्रकार शुम पन्द्रमुनिराजसे जिनचन्द्र उत्पन्न हुए । ये स्यावादरूपी गगनमंडल में विहार करनेवाले मुनिराजोंके अलंकारस्वरूप, सदाचारयुक्त, भव्यजनोंके बांधव रूप एवं समस्त कला और शास्त्रोंके विश हुए। इनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध हैं
१. सिद्धान्तसार
२. जिनचतुर्विशतिस्तोत्र
सिद्धान्तसारमें ७२, गाथाएं हैं। इस ग्रन्थ पर ज्ञान भूषणको संस्कृतटीका भी है। श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिकी भूमिकामें शुभचन्द्राचार्यके शिष्य और पण्डित मेषावीके गुरु जिनचन्द्रको ही इस कृतिका लेखक माना है। यों तो उन्होंने भास्करनन्दिके गुरु जिनचन्द्र के भी लेखक होनेको सम्भावना व्यक्त की है, पर उनका अभिमत मेधावीके गुरु जिन चन्द्रभट्टारकको ही इसका रचयिता माननेकी ओर अधिक है। सिद्धान्तशास्त्रके संस्कृतटीकाकार ज्ञानभूषणका समय वि. सं. १५३४-१५६१ है। इस प्रकार टीकाकार और मूलान्य रचयिता समसामयिक सिद्ध होते हैं।
सिद्धान्तसारमें वर्णित विषयोंका अंकन प्रथमगाथामें ही कर दिया गया है। बताया है
जीवगुणस्थानसंशापर्याप्तिप्राणमार्गणानबोनान् ।
सिद्धान्तसारमिदानों भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ॥
अर्थात् जोषसमास, गुणस्थान, संज्ञा, पर्याप्ति, प्राण और मार्गणाओंका इसमें वर्णन किया गया है। १४ गुणस्थानोंमें चतुर्दश मार्गणाओंका सुन्दर विवेचन आया है। इस प्रकार मार्गणाओंमें जीक्समासोंकी संख्या भी दिखलायी गयी है । ७८वीं गाथामें लेखकका नाम अंकित है
पवयणपमाणलक्षणछंदालंकाररहियहियएण ।
जिणईदेण पठत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण ।।
संस्कृत भाषामें २४ तीर्थंकरोंकी स्तुतियां निबद्ध की गयी हैं। यह स्तोत्र जयपुरके विजयराम पाण्ड्याके शास्त्रभण्डारके एक गुटकेमें संग्रहीत है।
जिनदेवके शिष्यों में रनकोति, सिंहकोति, प्रमाचन्द्र, जगतकीर्ति, चारू कोति, जयकीति, भीमसेन और पण्डित मेघावीके नाम उल्लेखनीय हैं। रल कोतिने वि० सं० १५७२में नागौरमें भट्टारक गद्दीकी स्थापना की। सिंहकीतिने
अटेरमें भट्टारक गद्दी स्थापित की | इस प्रकार भट्टारक जिनचन्द्रने अपने समयमें साहित्य, पुरातत्व एवं धर्मको सेवा को ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक जिनचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Jinchandra (Prachin)
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 01-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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