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#BhattarakJinsen2nd16ThCentury
जिनसेननामके दो भट्टारकोंका निर्देश मिलता है। एक सोमसेनके पट्ट पर आसीन होनेवाले जिनसेन हैं। इन्होंने शक संवत् १५७५ को मार्गशीर्ष शुक्ला दशमीको पाश्वनाथको मूर्ति प्रतिष्टिन की थी और शकसंवत् १५८० में पद्मावतोको मति । यह प्रतिष्ठा कारनामें सम्पन्न हुई थी। शक संवत् १५८१ की फाल्गन शुक्ला त्रयोदशोका चरिया माणिकने रत्नाकर विरचित समवशरणपाठको एक प्रति झापको समर्पित की थी। कहा जाता है कि अचलपुर में आपको एकबार सर्पदंश हुआ और दूसरी बार धोखेसे भोजनमें बचनाग खिला दिया गया, पर दोनों ही बार विषापहार स्तोत्रके पाठसे आप न रोगही गये : नाममा जति रायमलशाहके पुत्र थे। इनकी जन्म भूमि खम्भात थी । इन्होंने विद्याभ्यास पानंदिके पास किया था । और कारज्जा में पट्टाभिषेक हुआ था । गिरनार, सम्मेदशिखर, माणिक्यस्वामी आदिकी यात्राएँ इन्हाने की थीं। इनके द्वारा सोयराशाह, निम्बाशाह, माधवशाह, गनबाशाह ओर कान्हाशाह इन पांच व्यक्तियों को संधपत्तिको उपाधि प्राप्त हुई थी। ये मयूरीपच्छ धारण करते थे । पूरनमलने इनकी स्तुति की है--
मूलसंघ कुलतिलक, गछ पुष्कर मे सोहे !
चारित्र गणमें मुख्य सेनगण्य महिमा मोहे ।।
भट्टारक जिनसेन गुरु मारपीछ हस्ते धरे ।
पूरनमल यों कहे भव्यलोक तारण तरण ।।
द्वितीय जिनसेन भट्टारक यशःकोतिके शिष्य हैं। इनकी एक कृत्ति नेमिनाथ रास उपलब्ध हुई है, जिसकी रचना वि० सं० १५५८ माध शबला पंचमी गुरुवार सिद्धयोगमें जवाच्छ नगरमें सम्पन्न हुई है। प्रन्थके अन्त में अपने गुरु एवं रचनाकालका निर्देश किया है
श्री याकरति सूरीनि सूरीश्वर कहीइ, महीपलि महिमा पार न लही रे ।
तात रूपवर वरसि नित वाणी, सरस सकोमल अमीय सयाणी रे ।।
तास चलणे चित लाइउ रे, गाइन राइ अपरख रास रे।
जिनसेन युगति करौ दे, तेह ना चयण तणाउ बली वास रे ॥९१॥
चंद्र वाण संवच्छर कीजि, पंचाणु पुण्य पासि दीजि |
माघ सुदि पंचमी भणी जि, गुरुवारि सिद्धयोग नीजिरे ॥
जाक्छ नयर जगि जाणोइ रे, तीर्थकर बली कहींइ सार रे ।
शांतिनाथ तिन्हां सोलमु रे। कस्यु राम तेह मवण मझार रे ॥९२॥
स्पष्ट है कि इन जिनसेनका समय वि० सं० की १६वीं शताब्दी है 1 इनका एक मात्र कृति नेमिनाथरास उपलब्ध है। इसमें तीर्थकरनेमिनाथके जीवनका चित्रण किया गया है। जन्म, वरात, विवाहकंकणको तोड़कर वैराग्य ग्रहण करना, तपश्चरण, कैवल्यप्राप्ति एवं गिर्वाणलाभ इन सभी घटनाओंका संक्षेपमें वर्णन है। यह रास प्रबन्धकाव्य है और जीवनको समस्त प्रमुख घटनाएं इसमें चित्रित हैं । समस्त रचनामें २३ पद्य हैं। इसकी प्रति जयपुरके दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर तेरह पंथी शास्त्रमण्डार में संग्रहीत है। प्रतिका लेखनकाल वि० सं० १५१६ पौषा कला पूणिमा दे ! रामको भाषा नाजस्थानी है जिसपर गुजरातीका प्रभाव है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक जिनसेन द्वितीय |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakJinsen2nd16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक जिनसेन द्वितीय 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 02-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 02-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
जिनसेननामके दो भट्टारकोंका निर्देश मिलता है। एक सोमसेनके पट्ट पर आसीन होनेवाले जिनसेन हैं। इन्होंने शक संवत् १५७५ को मार्गशीर्ष शुक्ला दशमीको पाश्वनाथको मूर्ति प्रतिष्टिन की थी और शकसंवत् १५८० में पद्मावतोको मति । यह प्रतिष्ठा कारनामें सम्पन्न हुई थी। शक संवत् १५८१ की फाल्गन शुक्ला त्रयोदशोका चरिया माणिकने रत्नाकर विरचित समवशरणपाठको एक प्रति झापको समर्पित की थी। कहा जाता है कि अचलपुर में आपको एकबार सर्पदंश हुआ और दूसरी बार धोखेसे भोजनमें बचनाग खिला दिया गया, पर दोनों ही बार विषापहार स्तोत्रके पाठसे आप न रोगही गये : नाममा जति रायमलशाहके पुत्र थे। इनकी जन्म भूमि खम्भात थी । इन्होंने विद्याभ्यास पानंदिके पास किया था । और कारज्जा में पट्टाभिषेक हुआ था । गिरनार, सम्मेदशिखर, माणिक्यस्वामी आदिकी यात्राएँ इन्हाने की थीं। इनके द्वारा सोयराशाह, निम्बाशाह, माधवशाह, गनबाशाह ओर कान्हाशाह इन पांच व्यक्तियों को संधपत्तिको उपाधि प्राप्त हुई थी। ये मयूरीपच्छ धारण करते थे । पूरनमलने इनकी स्तुति की है--
मूलसंघ कुलतिलक, गछ पुष्कर मे सोहे !
चारित्र गणमें मुख्य सेनगण्य महिमा मोहे ।।
भट्टारक जिनसेन गुरु मारपीछ हस्ते धरे ।
पूरनमल यों कहे भव्यलोक तारण तरण ।।
द्वितीय जिनसेन भट्टारक यशःकोतिके शिष्य हैं। इनकी एक कृत्ति नेमिनाथ रास उपलब्ध हुई है, जिसकी रचना वि० सं० १५५८ माध शबला पंचमी गुरुवार सिद्धयोगमें जवाच्छ नगरमें सम्पन्न हुई है। प्रन्थके अन्त में अपने गुरु एवं रचनाकालका निर्देश किया है
श्री याकरति सूरीनि सूरीश्वर कहीइ, महीपलि महिमा पार न लही रे ।
तात रूपवर वरसि नित वाणी, सरस सकोमल अमीय सयाणी रे ।।
तास चलणे चित लाइउ रे, गाइन राइ अपरख रास रे।
जिनसेन युगति करौ दे, तेह ना चयण तणाउ बली वास रे ॥९१॥
चंद्र वाण संवच्छर कीजि, पंचाणु पुण्य पासि दीजि |
माघ सुदि पंचमी भणी जि, गुरुवारि सिद्धयोग नीजिरे ॥
जाक्छ नयर जगि जाणोइ रे, तीर्थकर बली कहींइ सार रे ।
शांतिनाथ तिन्हां सोलमु रे। कस्यु राम तेह मवण मझार रे ॥९२॥
स्पष्ट है कि इन जिनसेनका समय वि० सं० की १६वीं शताब्दी है 1 इनका एक मात्र कृति नेमिनाथरास उपलब्ध है। इसमें तीर्थकरनेमिनाथके जीवनका चित्रण किया गया है। जन्म, वरात, विवाहकंकणको तोड़कर वैराग्य ग्रहण करना, तपश्चरण, कैवल्यप्राप्ति एवं गिर्वाणलाभ इन सभी घटनाओंका संक्षेपमें वर्णन है। यह रास प्रबन्धकाव्य है और जीवनको समस्त प्रमुख घटनाएं इसमें चित्रित हैं । समस्त रचनामें २३ पद्य हैं। इसकी प्रति जयपुरके दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर तेरह पंथी शास्त्रमण्डार में संग्रहीत है। प्रतिका लेखनकाल वि० सं० १५१६ पौषा कला पूणिमा दे ! रामको भाषा नाजस्थानी है जिसपर गुजरातीका प्रभाव है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक यशकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक जिनसेन द्वितीय |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Jinsen 2 nd 16 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 02-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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