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#BhattarakPrabhachandraPrachin
प्रभाचन्द्र नामके चार भट्टारकोंका उल्लेख मिलता है। प्रथम प्रभाचन्द्र बासातो शिष्य थे, जी सेनगन नदवारक मालिमका समय १२वीं शताब्दी है । द्वितीय प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकीतिके शिष्य थे, जो गुजरातकी बलात्कारगण उत्तर शाखाके भट्टारक थे। चमत्कारी कार्य करनेके रूपमें इनका यश व्याप्त था । एक बार इन्होंने अमावस्याको पूणिमा बनाकर प्रदर्शित किया था । देहली में राघव चेतनमें जो विवाद हुआ था, उसमें इन्होंने विजय प्राप्त की थी । अपनी मात्रशक्ति के कारण ये पालको साहिल आकाश में उड़ गये थे। इनकी मंत्रशक्तिके प्रभावसे बादशाह फिरोजशाहकी साम्राज्ञी इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें उसको राजमहल में दर्शन देने के लिये आना पड़ा | तृतीय प्रभा चन्द्र भट्टारक जिनचन्द्रक शिष्य थे और चतुर्थ प्रभाचन्द्र भट्टारक झानभूषणके शिष्य थे । यहाँ जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्रके व्यक्तित्वपर प्रकाश डाला जाता है । इनके सम्बन्ध में पट्टावलीम बतलाया है
संवत् १५७१ फालानबदी २ भ प्रभाचंद्रजी गृहस्थवर्ष १५ दिक्षावर्ष ३५ पट्टबर्ष १ मास ४ दिवस २५ अंतरदिवस ८ सर्ववर्ष ५९ मास ५ दिवस २ एक बार गछ दोय हुआ चौतोड अर नागोरका सं० १५७२का अध्वाल'1"
प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जातिके श्रावक थे। ये १५ वर्षों तक गृहस्थ रहे । एक बार भद्रारक जिनचन्द्र विहार कर रहे थे कि उनकी दष्टि प्रभाचन्द्र पर पो ! प्रमाचन्द्रको प्रतिभासे जिनचन्द्र प्रभावित हुए और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। यह घटना वि० सं० १५५१ की होगी। २० वर्ष तक अपने पास रखकर विद्याध्ययन कराया और वाद-विवादमें पटु बना दिया। वि० सं० १५७१ की फाल्गुनकृष्णा द्वितीयाको दिल्ली में धूम-धामसे इनका पट्टाभिषेक हुआ । पट्टावलोके अनुसार ये १५ वर्ष तक भट्टारकपदपर रहे। भट्टारक बननेके
अनन्तर इन्होंने अपनी गद्दीको दिल्लीसे चित्तौड़में स्थानान्तरित कर लिया। स्थानान्तरणका समय वि० सं०१५७२ है। इन्होंने अपने समय में मण्डलाचार्यो की नियुक्ति की | धर्मचन्द्र पहले मण्डलाचार्य है। वि० सं० १५९३ में धर्मचन्द्र मण्डलाचार्य द्वारा कितनी ही मूर्तियों प्रतिष्ठित हुई है। इन्होंने माँवा नगरमें
१. भट्टारक सम्प्रदाय, सालापुर, लेखांक २६५ ।
अपने तीन गुरुओंको निषधिकाएं स्थापित की, जिससे यह ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रका इनके पूर्व ही स्वर्गवास हो चुका था। एक लेखप्रशस्तिमें प्रभा चन्द्र के पूर्वाचालदिनमणि, षटतर्कताकिकचूडामणि, वादिमदकुद्दल, अबुधप्रति बोधक आदि विशेषण पाये जाते हैं, जिससे इनकी विद्वत्ता, तर्कशक्तिका परिचय मिलता है। प्रभाचन्द्रने अपने जीवनकाल में अन्यसंरक्षगका सबसे बड़ा कार्य किया है। इन्होंने प्रमुख ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करायीं और अन्यभण्डारमें विराजमान की। वि० सं० १५५७५ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थीको पार्वतीबाईने पुष्पदन्तकृत 'जमहरचरिउ' की प्रतिलिपि करायो और भट्टारक प्रभाचन्द्रको भेंट दी । वि सं० १५८९ में टोकनगर में विहार हुआ और वहाँ पण्डित नरसेन कृत 'सिद्धचक्रकथा' की प्रतिलिपि करायी और उसे बाई पचनीको स्वाध्याय के लिये भेंट किया । सं० १५८२ में घटयालीपुरमें श्रीचन्द्रकृत रत्नकरण्डकी प्रतिलिपि करायी गयी और उसे ग्रन्थागारमें विराजमान किया गया। संवत् १५८३ की आसाढ़ शुक्ला तृतीयाके दिन इनके प्रमुख शिष्य मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र के उपदेशसे घशःकीति विरचित 'चन्दप्पह चरिड' की प्रतिलिपि को गयी, जो जयपुरके आमेर-शास्त्रभण्डारमें संग्रहीत है । वि.सं. १५८४ में महाकवि धनपालकृत 'बाहुबलि-चरित' की बघेरवालजातिमें उत्पन्न शाह माधोरा प्रतिलिपि रानीभोजमापदः शि प्रह्मचारी रत्नकीति को स्वाध्यायके लिये भेंट में दो गयी। निस्संदेह आचार्य प्रभाचन्द्रने विभिन्न स्थानों में विहार कर अनेक जीर्णग्रन्थोंका उद्धार किया और उनकी प्रतियाँ विभिन्न शास्त्रभण्डारोंमें संग्रहीत की गयीं।
__ प्रभाचन्द्रने ग्रन्थ-जीर्णोद्धारके साथ नबीन मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा कराने में भी भी अपूर्व सहयोग प्रदान किया। वि० सं० १५७१ को ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीयाको षोडशकारणयन्त्र एवं वि० सं० १५७३ को फाल्गुन कृष्णा तृतीयाको दश लक्षणयन्त्र प्रतिष्ठित किया। सं० १५७८ की फालान शुक्ला नवमी के दिन सीन चौबीसी की मूर्ति प्रतिष्ठित करायी और इस तरह संवत् १५८३ में भी चौबीसीकी प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी। _ वि० सं० १५९३ में मण्डलाचार्य धर्मचन्द्रने आंवा नगरमें होनेवाले बड़े प्रतिष्ठामहोत्सवका नेतृत्व किया और उसमें शान्तिनाथस्वामीकी एक विशाल एवं मनोश मूर्ति प्रतिष्ठित की । इस प्रकार प्रभाचन्द्रने साहित्य, पुरातत्त्व, अन्योद्धार एवं जनसाधारणमें धमके प्रति अभिचि उत्पन्न करनेके कार्य सम्पन्न किये।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक जिनचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक प्रभाचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakPrabhachandraPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक प्रभाचन्द्र (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 02-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 02-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
प्रभाचन्द्र नामके चार भट्टारकोंका उल्लेख मिलता है। प्रथम प्रभाचन्द्र बासातो शिष्य थे, जी सेनगन नदवारक मालिमका समय १२वीं शताब्दी है । द्वितीय प्रभाचन्द्र भट्टारक रत्नकीतिके शिष्य थे, जो गुजरातकी बलात्कारगण उत्तर शाखाके भट्टारक थे। चमत्कारी कार्य करनेके रूपमें इनका यश व्याप्त था । एक बार इन्होंने अमावस्याको पूणिमा बनाकर प्रदर्शित किया था । देहली में राघव चेतनमें जो विवाद हुआ था, उसमें इन्होंने विजय प्राप्त की थी । अपनी मात्रशक्ति के कारण ये पालको साहिल आकाश में उड़ गये थे। इनकी मंत्रशक्तिके प्रभावसे बादशाह फिरोजशाहकी साम्राज्ञी इतनी प्रभावित हुई कि उन्हें उसको राजमहल में दर्शन देने के लिये आना पड़ा | तृतीय प्रभा चन्द्र भट्टारक जिनचन्द्रक शिष्य थे और चतुर्थ प्रभाचन्द्र भट्टारक झानभूषणके शिष्य थे । यहाँ जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्रके व्यक्तित्वपर प्रकाश डाला जाता है । इनके सम्बन्ध में पट्टावलीम बतलाया है
संवत् १५७१ फालानबदी २ भ प्रभाचंद्रजी गृहस्थवर्ष १५ दिक्षावर्ष ३५ पट्टबर्ष १ मास ४ दिवस २५ अंतरदिवस ८ सर्ववर्ष ५९ मास ५ दिवस २ एक बार गछ दोय हुआ चौतोड अर नागोरका सं० १५७२का अध्वाल'1"
प्रभाचन्द्र खण्डेलवाल जातिके श्रावक थे। ये १५ वर्षों तक गृहस्थ रहे । एक बार भद्रारक जिनचन्द्र विहार कर रहे थे कि उनकी दष्टि प्रभाचन्द्र पर पो ! प्रमाचन्द्रको प्रतिभासे जिनचन्द्र प्रभावित हुए और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। यह घटना वि० सं० १५५१ की होगी। २० वर्ष तक अपने पास रखकर विद्याध्ययन कराया और वाद-विवादमें पटु बना दिया। वि० सं० १५७१ की फाल्गुनकृष्णा द्वितीयाको दिल्ली में धूम-धामसे इनका पट्टाभिषेक हुआ । पट्टावलोके अनुसार ये १५ वर्ष तक भट्टारकपदपर रहे। भट्टारक बननेके
अनन्तर इन्होंने अपनी गद्दीको दिल्लीसे चित्तौड़में स्थानान्तरित कर लिया। स्थानान्तरणका समय वि० सं०१५७२ है। इन्होंने अपने समय में मण्डलाचार्यो की नियुक्ति की | धर्मचन्द्र पहले मण्डलाचार्य है। वि० सं० १५९३ में धर्मचन्द्र मण्डलाचार्य द्वारा कितनी ही मूर्तियों प्रतिष्ठित हुई है। इन्होंने माँवा नगरमें
१. भट्टारक सम्प्रदाय, सालापुर, लेखांक २६५ ।
अपने तीन गुरुओंको निषधिकाएं स्थापित की, जिससे यह ज्ञात होता है कि प्रभाचन्द्रका इनके पूर्व ही स्वर्गवास हो चुका था। एक लेखप्रशस्तिमें प्रभा चन्द्र के पूर्वाचालदिनमणि, षटतर्कताकिकचूडामणि, वादिमदकुद्दल, अबुधप्रति बोधक आदि विशेषण पाये जाते हैं, जिससे इनकी विद्वत्ता, तर्कशक्तिका परिचय मिलता है। प्रभाचन्द्रने अपने जीवनकाल में अन्यसंरक्षगका सबसे बड़ा कार्य किया है। इन्होंने प्रमुख ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करायीं और अन्यभण्डारमें विराजमान की। वि० सं० १५५७५ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्थीको पार्वतीबाईने पुष्पदन्तकृत 'जमहरचरिउ' की प्रतिलिपि करायो और भट्टारक प्रभाचन्द्रको भेंट दी । वि सं० १५८९ में टोकनगर में विहार हुआ और वहाँ पण्डित नरसेन कृत 'सिद्धचक्रकथा' की प्रतिलिपि करायी और उसे बाई पचनीको स्वाध्याय के लिये भेंट किया । सं० १५८२ में घटयालीपुरमें श्रीचन्द्रकृत रत्नकरण्डकी प्रतिलिपि करायी गयी और उसे ग्रन्थागारमें विराजमान किया गया। संवत् १५८३ की आसाढ़ शुक्ला तृतीयाके दिन इनके प्रमुख शिष्य मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र के उपदेशसे घशःकीति विरचित 'चन्दप्पह चरिड' की प्रतिलिपि को गयी, जो जयपुरके आमेर-शास्त्रभण्डारमें संग्रहीत है । वि.सं. १५८४ में महाकवि धनपालकृत 'बाहुबलि-चरित' की बघेरवालजातिमें उत्पन्न शाह माधोरा प्रतिलिपि रानीभोजमापदः शि प्रह्मचारी रत्नकीति को स्वाध्यायके लिये भेंट में दो गयी। निस्संदेह आचार्य प्रभाचन्द्रने विभिन्न स्थानों में विहार कर अनेक जीर्णग्रन्थोंका उद्धार किया और उनकी प्रतियाँ विभिन्न शास्त्रभण्डारोंमें संग्रहीत की गयीं।
__ प्रभाचन्द्रने ग्रन्थ-जीर्णोद्धारके साथ नबीन मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा कराने में भी भी अपूर्व सहयोग प्रदान किया। वि० सं० १५७१ को ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीयाको षोडशकारणयन्त्र एवं वि० सं० १५७३ को फाल्गुन कृष्णा तृतीयाको दश लक्षणयन्त्र प्रतिष्ठित किया। सं० १५७८ की फालान शुक्ला नवमी के दिन सीन चौबीसी की मूर्ति प्रतिष्ठित करायी और इस तरह संवत् १५८३ में भी चौबीसीकी प्रतिमा प्रतिष्ठित करायी। _ वि० सं० १५९३ में मण्डलाचार्य धर्मचन्द्रने आंवा नगरमें होनेवाले बड़े प्रतिष्ठामहोत्सवका नेतृत्व किया और उसमें शान्तिनाथस्वामीकी एक विशाल एवं मनोश मूर्ति प्रतिष्ठित की । इस प्रकार प्रभाचन्द्रने साहित्य, पुरातत्त्व, अन्योद्धार एवं जनसाधारणमें धमके प्रति अभिचि उत्पन्न करनेके कार्य सम्पन्न किये।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक जिनचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक प्रभाचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Prabhachandra (Prachin)
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 02-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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