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#BhattarakShubhchandraPrachin
भट्टारक शुभचन्द्र विजयकीतिके शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक मानभूषण और विजयकीति इन दोनोंके शासनकालका दर्शन किया था। इनका जन्म वि सं० १५३०- १५४० के मध्य में कभी हुवा होगा। शेशवसे इन्होंने संस्कृत, प्राकृत एवं देशी भाषाका अध्ययन प्रारम्भ किया था । व्याकरण, छन्द, काव्य, न्याय आदि विषयोंका पाण्डित्य सहजमें ही प्राप्त कर लिया था। त्रिविध विद्याधर और षभाषाविचक्रवर्ती ये इनकी उपाधियां थीं। इन्होंने अनेक देशों में बिहार किया था। गौड, कलिंग, कर्नाटक तोलब, पूर्व, गुर्जर, मालव आदि देशोंके वादियोंको पराजित किया था । इनका धर्मोपदेश सुनने के लिए जनता टूट पड़ती थी । इन्होंने अन्य भट्टारकोंके ममान कितने ही प्रतिष्ठा-समा रोहों में भी मम्मिलित होकर धर्मको प्रभावना की थी। उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर, जयपुर आदि स्थानोंके मन्दिरों में इनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां उपलब्ध होती हैं।
आचार्य शुभचन्द्रको शिष्यपरम्परामें सकल भूषण, वर्णी क्षेमचन्द्र, सुमति कौति, श्रीभूषण आदिके नामोल्लेख मिलते हैं। इनकी मृत्युके पश्चात् सुमति कीति इनके पट्टपर आसीन हुए थे।
डॉ० जोहरापुरकरले शुभचन्द्रका भट्टारककाल वि० सं० १५७३-१६१३ माना है । शुभचन्द्रको मृत्यु के पश्चात् सुमतिकोति उनके पदपर आसीन हुए हैं और सुमतिकीतिका समय वि० सं० १६२२ है। अतः भट्टारक शुमचन्द्रका जीवनकाल वि० सं० १५३५-१६२० होना चाहिए। ५० वर्षों तक भट्टारक पदपर आसीन रहकर शुभचन्द्रने साहित्य और संस्कृतिकी सेवा की है। इन्होंने त्रिभुवनकोतिके आग्रहसे वि० सं०१५७३ की आश्निी शुक्ला पञ्चमीको अमृतचन्द्रकृत समयसार कलशोपर अध्यात्मतरंगिणी नामक टीका लिखी है । संवत् १५९० में ईडर नगरके ईषड़जातीय श्रावकोंने ब्रह्मचारी तेजपालके द्वारा पुण्याश्रवकथाकोशकी प्रति लिखवाकर इन्हें भेंट की थी। संवत् १५८१ में इन्हीके उपदेशसे हूंबड़जातीय श्रावक साह, होरा, राजू आदिने प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न किये थे।
"संवत् १५८१ वर्षे पोष वदी १३ शुके घामूलसंधे सरस्वतीगच्छे बला कारगणे पोकून्दकन्दाचार्यान्वये भ. श्री ज्ञानभुषण तपट्टे श्रीम. विजय कीति तत्पदै भ. श्री शुभचन्द्रगुरुपदेशात् हूंबड़जाति साह हीरा मा० राजू
सुस सं• तारा द्वि० भार्या पोई सुत्त सं० माका भार्या हीरा दे..."भा० नारंग दै भ्रा. रत्नपाल भा-विराला दे सुत रखमदास नित्यं प्रणमति ।"
संवत् १५९९में डूंगरपुरके आदिनाथचैत्यालय में इन्हींके उपदेशसे अंगप्राप्ति को प्रतिलिपि करवाकर विराजमान की गयी थी । संवत् १६७की बैशाख कृष्णा तृतीयाको एक पंचपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थी । संवत् १६०८ की भाद्रपद द्वितीयाको सागवाड़ामें 'पाण्डवपुराण' की रचना पूर्ण की थी । संवत् १६११ में करकण्डचरित और संवत् १६१३ में कातिकेयानुप्रेक्षाकी टीका लिखी । इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्रका जीवनकाल १५३५-१६२० तक आता है।
शुभचन्द्र ज्ञानके सागर एवं विद्याओंमें पारंगत थे । अन्ध-परिमाण और मूल्यको दृष्टिसे इनकी रचनाएं उल्लेखनीय हैं। संघ व्यवस्था, धर्मोपदेश एवं आत्मसाधनाके अतिरिक्त जो भी समय इन्हें मिलता था, उसका सदुपयोग इन्होंने ग्रन्थरचनामें किया है। वि० सं० १६०८ में इन्होंने पाण्डव-पुराणको रचना की है। इस प्रन्थको प्रशस्तिसे अवगत होता है कि इस रचनाके पूर्व इनकी २१ कृतियां प्रसिद्ध हो चुकी थीं । संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में इनकी रचनाएं उपलब्ध हैं।
१. चन्द्रप्रभचरित
२. करकारित
३. कीर्तिकेयानुप्रेक्षाटीका
४. चन्दनाधरित
५. जीवन्धरचरित
६. पाण्डवपुराण
७. श्रेणिकचरित
८. सज्जनचित्तवल्लभ
९. पावनायकाव्यपब्जिका
१०. प्राकृतलक्षण
११. अध्यात्मतरंगिणी
१२. अम्बिकाकल्प
१३. अष्टानिकाकथा
१४. कर्मदहन पूजा
१५. चन्दनषष्ठीयतपूजा
१६. गणधरवलयपूजा
१७. चारित्रशुद्धिविधान
२८. तीसचौबीसोपूजा
१९. पञ्चकल्याणकपूजा
२०. पल्लीव्रतोद्यापन
२१. तेरहतीपपूजा
२२. पुष्पाञ्जलियतपूजा
२३. सार्बद्वयद्वीपपूजा
२४. सिनधनपूजा
१. महावीरछन्द
२. विजयकीर्तिछन्द
३. गुरुछन्द
४. नेमिनापछन्द
५. तत्वसारहा
६. अष्टानिकागीत
७. क्षेत्रपालगीत
सन जनाओंमें कातियानमाटीका, मज्जनचित्तबल्लभ, अम्बिका कल्प, गणधरवलयपूजा, चन्दनषष्टीव्रतपूजा, तेरहृदोषपूजा, पंचकल्याणक पूजा, पुष्पाञ्जलिव्रतपूजा, साद'द्वपदोपपूजा एवं सिद्धचक्रपूजा आदि संवत् १६०८ के पश्चात् अर्थात् पाण्डवपुराणके बादको कृतियाँ हैं।
करकण्डुका जीवन इस कान्यकी मुख्य कथावस्तु है और यह १५ सों में विभक्त है। वि० सं० १६११ में जवाच्छपुरके आदिनाथ चैत्यालयमें इस ग्रन्थको रचना पूर्ण हुई है। इस प्रन्यके सहायक शुभचन्द्रके प्रमुख शिष्य सकलभूषण भट्टारक थे। ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है
श्रीमलसंधे कृत्ति नंदिसंघे गच्छे बलात्कार इदं चरित्र ।
पूजाफलेद्धं करकण्डराज्ञो भट्टारकरीशुभचन्द्रसूरिः ॥
न्याष्टे विक्रमत्तः शते समइते चैकादशाब्दाधिके ।
भाद्रे मासि समुज्वले युगतिथी खङ्गे जाबाछपुरे ।
श्रीमच्छीवृषभेश्वरस्य सदने चक्रे चरित्र विदं ।
राज्ञः श्रीशुभचन्द्रसूरियतिपश्चंपाधिपस्याद् नवं ॥
श्रीमस्सकलभूषेण पुराणे पाण्डवे कृतं ।
साहायं येन तेनाऽत्र तदाकारिस्वसिद्धये ।।
इस अन्धका आधार आचार्य अमृतचन्द्रके समयसार. के कलश हैं। इस आध्यात्मिक कृतिमें निश्चय और व्यवहार नयकी अपेक्षा आत्मतत्त्वका वर्णन किया गया है । यह रचना एक प्रकारसे समयसारपर आवृत टीका है । इसका रचनाकाल वि० सं० १५७३ है।
प्राकृत भाषामें लिखित्त स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की यह टीका है । इस ग्रन्थको आचार्य शुभचन्द्रको संस्कृतटीकाने विशेष लोकप्रिय बनाया है। इस प्रन्धकी रचना वि० सं० १६०० माघ शुक्ला एकादशीके दिन हिसार नगरमें हुई है। पन्धकी प्रशस्तिमें बताया है
श्रीमत् विक्रमभूपतेः परमिते वर्षे शते षोडशे,
माघे मासिदशाप्रवलिहिते स्याते दशम्यां तियो ।
श्रीमझीमहीसार-सार नगरे चैत्यालये श्रीपुरोः ।
श्रीमछौशुभचन्द्रदेवविहिता टीका सदा नन्दतु ।।
यह टीका शुभचन्द्रके शिष्य वर्णी श्रीमचन्द्र के आगइसे लिखी गयी है। टोका सरल और ग्रन्थके हादको स्पष्ट करती है।
जीवन्धरवरित---कुमार जीवन्धरका जीवनवृत्त संस्कृप्तके कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। शुभचन्द्रने पुण्यपुरुष जीवन्धरके याख्यानको ग्रहण कर १३ सर्गप्रमाण यह रचना लिखी है। इसकी समाप्ति वि० सं० १६०३ में
अष्ठम तीर्थकर चन्द्रप्रभ के पावन चरितको १२ सगोमें निबद्ध किया गया है। ग्रन्थके अन्त में आचार्य ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हए लिखा है कि न तो छन्द-अलंकारका परिज्ञान है, न काव्यशास्त्रका, न जैनेन्द्रव्याकरणका, न कलापका और न शाकटायनका । त्रिलोकासार एवं गोम्मटसार जैसे महान ग्रन्थोंका भी अध्ययन नहीं किया है। यह रचना में भक्तिवश लिख रहा हूँ।
यह एक कथाकाव्य है । इसमें सती चन्दनाके पावन एवं उज्जवल जीबनका चित्रण किया गया है । काध्यकी कथावस्तु पांच सौ में विभक्त है । इसकी रचना वागड प्रदेशके डूंगरपुर नगरमें हुई है ।
शास्त्राण्यनेकान्यवगाह्य कृत्वा पुराणसल्लक्षणकानि भूयः ।
सच्चंदनाचारुचरित्रमेतत् चकार च श्रीशुभचन्द्रदेवः ।।
जैन साहित्यमें कोरव और पाण्डवोंकी कथाका आरम्भ जिनसेन प्रथमके हरिवंशपुराणसे होता है । स्वतन्त्ररूपमें इस चरितका प्रणयन देवप्रभ सूरिने वि. सं. १२८० में किया है। पश्चात् आचार्य शुभचन्द्रने वि० सं० १६०८ में इस चरितकी रचना की है। कथाके प्रारम्भमें भोगभूमिकालमें होनेवाले १४ कुलकरोंके उत्पत्तिक्रमके कथनके पश्चात बताया है कि ऋषभ देवने इक्ष्वाकु, कौरव, हरि और नाथ नामक चार क्षत्रियगोत्र स्थापित किये। कुरुवंशकी परम्परामें सोमप्रभ, जयकुमार, अनन्तवीर्य, कुरुचन्द्र, शुभंकर और द्युतिकर आदि राजाओंके पश्चात् विश्वसेन राजाके पुत्र शान्तिनाथ तीर्थङ्कर हुए। इसी परम्परामें भगवान् कुन्थ और अईनाथ तीर्थकर उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् इस परम्परामें शान्तनु राजा उत्पन्न हुभा । इसकी पत्नीका नाम सवको था। इन दोनोंके परासर नामक पुत्र उत्पन्न हुवा । परासरका विवाह रनपुरनिबासी जालनामक विद्याधरकी पुत्री गङ्गाके साथ हुआ । इनके पुत्रका नाम गाङ्गेय भीष्म पितामह था । परासर राजाने योग्य समझकर गाङ्गेयको युवराजपदपर प्रतिष्ठित किया । एक दिन परासर यमुनाके तटपर गये और वहां वे धीवरकी कन्याको देखकर मोहित हो गये। कालान्तरमें गाङ्गेयकी
भीष्मप्रतिज्ञाके अनन्तर गुणवती या योजनगंधाके साथ परासरका विवाह सम्पन्न हुआ । इस परनोसे परासरको व्यासनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । व्यासकी पत्नीका नाम सुभद्रा था और इससे धृतराष्ट्र, पाण्ड और विदुर ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें धृतराष्ट्रका विवाह मथुरानिवासी राजा भोजकवृष्टिको कन्या गान्धारीके साथ सम्पन्न हुआ। इससे धुत राष्ट्रको दुर्योधनादि १०० पुत्र उत्पन्न हुए । विदुरका विवाह देवक राजाकी पुत्री कुमुदवतीके साथ सम्पन्न हुआ।
धूतराष्ट्रने पाण्डु के लिए राजा अन्धकवृष्टिसे उनकी पुत्री कुन्तीकी याचना की । परन्तु पाण्डुके पाण्डुरोगसे पीड़ित होने के कारण अन्धकवृष्टिने उसे स्वीकार नहीं किया। पापड, कामरूपणी मुद्रिका द्वारा अपना रूप बदलकर कुन्तीके महल में जाने-आने लगा । फलतः कुन्ती गर्भवती हुई और इस पुत्रका नाम कर्ण रखा गया। विधिवत् विवाह न होनेके कारण, कर्णको एक पेटीमें रखकर यमुनामें प्रवाहित कर दिया गया और वह पेटी चम्पापुरीके राजा भानुको प्राप्त हई। उसने उस तेजस्वी बालकको अपनी पत्नी राधाको दे दिया और राधाने जसका विधिवत् पालन किया । कालान्तरमें अन्धकवृष्टिने कुन्ती और माद्री इन दोनों कन्याओंका विवाह पाण्डके साथ कर दिया । कुन्तीसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीन पुत्र तथा माद्रीसे नकुल और सहदेव ये दो पुत्र हुए । ये पांचों ही पाण्डव कहलाये। कौरव और पाण्डवोंको द्रोणाचार्यने धनुर्वेदकी शिक्षा दो । एक दिन पाण्डु माद्रीफे साथ क्रीड़ार्थ वनमें गये और वहाँ आकाशवाणी सुनकर विरक्त हो गये। उन्होंने अपनी १३ दिन आयु शेष जानकर, दीक्षा ग्रहण की और पांचों पुत्रोंको बुलाकर, उन्हें राज्य देकर धृतराष्ट्र के अधीन कर दिया । कालान्तरमें कौरवों और पाण्डयोंकी या प्रज्वलित हुई। दुर्योधनने लाक्षागृहमें पाण्डवोंको दग्ध करनेका प्रयास किया, पर वे सुरंगके रास्तेसे बच कर निकल गये और प्रामानुग्राम देशाटन करने लगे। हस्तिनापुर लोट आनेके पश्चास् अर्जुनका विवाह द्रौपदी और सुभद्राके साथ सम्पन्न हवा । तदनन्तर युधिष्ठिर यूतक्रीड़ामें समस्त राज्य हार गये और १२ वर्षों सक उन्हें बनवास में रहना पड़ा। अन्तमें राज्यके लिए कौरवों और पाण्डओंका भयंकर युव हुवा ।
यह कथा पच्चीस पळमें विभक्त है । २५३ पर्वमें युद्धके पश्चात् पाणव दीक्षा ग्रहण करते हैं और दुर्धर तपश्चरणके अवसरपर उन्हें उपसर्गादि सहन्द करने पड़ते हैं। वे अनिस्य, अशरण, संसार, एकल मादि १२ भावनाओंका चिन्तन कर कर्माकी निर्जरा करते हैं। फलतः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनको मुक्तिलाम होता है एवं नकुल और सहदेवको सर्वार्थ सिदिलाभ होता है।
आचार्य ने धर्मका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
धर्मावरिजनस्य भेदनमहो धर्माच्छुभं सत्प्रभम्
धर्माबन्धुसमागम; सुमहिमालाभः सुधर्मात्सुखम् ।
धर्मात्कोमलकनकायसुकला धर्मात्सुताः समता:
धर्माच्छी: क्रियतां सदा बुधजना शाल्नेति धर्म: श्रियः ।।
पूजाग्रन्थों में तत्तत् विषयोंको पूत्राएं निबद्ध हैं । हिन्दीरचनाओं में महावीर छन्दमें भगवान महावीरके सम्बन्धमें २७ पद्योंम स्तबन हैं। विजयकोसिछन्द एक ऐतिहासिक कृति है। यह कविके गुरु विजयकोतिकी प्रशंसा में लिखा गया है। इसमें २२ पद्य हैं। यह एक रूपककाव्य है। इसके मायक विजय कीति हैं और प्रतिनायक कामदेव । इस रूपककाध में अध्यात्मशक्तिको विजय दिखलायी गयी है। गरुमा पद्य हैं और मादितगड़ीनिक प्रणानु बाद किया गया है। नेमिनाथछन्दमें तीर्थकर नेमिनाथक पावन जीवनका चित्रण २९ पद्यों में किया है। तत्त्वसारगुहा में ९१ दोहे एवं चौपाइयाँ हैं । सात तत्त्वोंका वर्णन है । इस प्रन्धकी रचना दुलहा नामक श्रावकके अनुरोधसे
की गयी है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक विजयकिर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakShubhchandraPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक शुभचन्द्र (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 30-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भट्टारक शुभचन्द्र विजयकीतिके शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक मानभूषण और विजयकीति इन दोनोंके शासनकालका दर्शन किया था। इनका जन्म वि सं० १५३०- १५४० के मध्य में कभी हुवा होगा। शेशवसे इन्होंने संस्कृत, प्राकृत एवं देशी भाषाका अध्ययन प्रारम्भ किया था । व्याकरण, छन्द, काव्य, न्याय आदि विषयोंका पाण्डित्य सहजमें ही प्राप्त कर लिया था। त्रिविध विद्याधर और षभाषाविचक्रवर्ती ये इनकी उपाधियां थीं। इन्होंने अनेक देशों में बिहार किया था। गौड, कलिंग, कर्नाटक तोलब, पूर्व, गुर्जर, मालव आदि देशोंके वादियोंको पराजित किया था । इनका धर्मोपदेश सुनने के लिए जनता टूट पड़ती थी । इन्होंने अन्य भट्टारकोंके ममान कितने ही प्रतिष्ठा-समा रोहों में भी मम्मिलित होकर धर्मको प्रभावना की थी। उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर, जयपुर आदि स्थानोंके मन्दिरों में इनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेक मूर्तियां उपलब्ध होती हैं।
आचार्य शुभचन्द्रको शिष्यपरम्परामें सकल भूषण, वर्णी क्षेमचन्द्र, सुमति कौति, श्रीभूषण आदिके नामोल्लेख मिलते हैं। इनकी मृत्युके पश्चात् सुमति कीति इनके पट्टपर आसीन हुए थे।
डॉ० जोहरापुरकरले शुभचन्द्रका भट्टारककाल वि० सं० १५७३-१६१३ माना है । शुभचन्द्रको मृत्यु के पश्चात् सुमतिकोति उनके पदपर आसीन हुए हैं और सुमतिकीतिका समय वि० सं० १६२२ है। अतः भट्टारक शुमचन्द्रका जीवनकाल वि० सं० १५३५-१६२० होना चाहिए। ५० वर्षों तक भट्टारक पदपर आसीन रहकर शुभचन्द्रने साहित्य और संस्कृतिकी सेवा की है। इन्होंने त्रिभुवनकोतिके आग्रहसे वि० सं०१५७३ की आश्निी शुक्ला पञ्चमीको अमृतचन्द्रकृत समयसार कलशोपर अध्यात्मतरंगिणी नामक टीका लिखी है । संवत् १५९० में ईडर नगरके ईषड़जातीय श्रावकोंने ब्रह्मचारी तेजपालके द्वारा पुण्याश्रवकथाकोशकी प्रति लिखवाकर इन्हें भेंट की थी। संवत् १५८१ में इन्हीके उपदेशसे हूंबड़जातीय श्रावक साह, होरा, राजू आदिने प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न किये थे।
"संवत् १५८१ वर्षे पोष वदी १३ शुके घामूलसंधे सरस्वतीगच्छे बला कारगणे पोकून्दकन्दाचार्यान्वये भ. श्री ज्ञानभुषण तपट्टे श्रीम. विजय कीति तत्पदै भ. श्री शुभचन्द्रगुरुपदेशात् हूंबड़जाति साह हीरा मा० राजू
सुस सं• तारा द्वि० भार्या पोई सुत्त सं० माका भार्या हीरा दे..."भा० नारंग दै भ्रा. रत्नपाल भा-विराला दे सुत रखमदास नित्यं प्रणमति ।"
संवत् १५९९में डूंगरपुरके आदिनाथचैत्यालय में इन्हींके उपदेशसे अंगप्राप्ति को प्रतिलिपि करवाकर विराजमान की गयी थी । संवत् १६७की बैशाख कृष्णा तृतीयाको एक पंचपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थी । संवत् १६०८ की भाद्रपद द्वितीयाको सागवाड़ामें 'पाण्डवपुराण' की रचना पूर्ण की थी । संवत् १६११ में करकण्डचरित और संवत् १६१३ में कातिकेयानुप्रेक्षाकी टीका लिखी । इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्रका जीवनकाल १५३५-१६२० तक आता है।
शुभचन्द्र ज्ञानके सागर एवं विद्याओंमें पारंगत थे । अन्ध-परिमाण और मूल्यको दृष्टिसे इनकी रचनाएं उल्लेखनीय हैं। संघ व्यवस्था, धर्मोपदेश एवं आत्मसाधनाके अतिरिक्त जो भी समय इन्हें मिलता था, उसका सदुपयोग इन्होंने ग्रन्थरचनामें किया है। वि० सं० १६०८ में इन्होंने पाण्डव-पुराणको रचना की है। इस प्रन्थको प्रशस्तिसे अवगत होता है कि इस रचनाके पूर्व इनकी २१ कृतियां प्रसिद्ध हो चुकी थीं । संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में इनकी रचनाएं उपलब्ध हैं।
१. चन्द्रप्रभचरित
२. करकारित
३. कीर्तिकेयानुप्रेक्षाटीका
४. चन्दनाधरित
५. जीवन्धरचरित
६. पाण्डवपुराण
७. श्रेणिकचरित
८. सज्जनचित्तवल्लभ
९. पावनायकाव्यपब्जिका
१०. प्राकृतलक्षण
११. अध्यात्मतरंगिणी
१२. अम्बिकाकल्प
१३. अष्टानिकाकथा
१४. कर्मदहन पूजा
१५. चन्दनषष्ठीयतपूजा
१६. गणधरवलयपूजा
१७. चारित्रशुद्धिविधान
२८. तीसचौबीसोपूजा
१९. पञ्चकल्याणकपूजा
२०. पल्लीव्रतोद्यापन
२१. तेरहतीपपूजा
२२. पुष्पाञ्जलियतपूजा
२३. सार्बद्वयद्वीपपूजा
२४. सिनधनपूजा
१. महावीरछन्द
२. विजयकीर्तिछन्द
३. गुरुछन्द
४. नेमिनापछन्द
५. तत्वसारहा
६. अष्टानिकागीत
७. क्षेत्रपालगीत
सन जनाओंमें कातियानमाटीका, मज्जनचित्तबल्लभ, अम्बिका कल्प, गणधरवलयपूजा, चन्दनषष्टीव्रतपूजा, तेरहृदोषपूजा, पंचकल्याणक पूजा, पुष्पाञ्जलिव्रतपूजा, साद'द्वपदोपपूजा एवं सिद्धचक्रपूजा आदि संवत् १६०८ के पश्चात् अर्थात् पाण्डवपुराणके बादको कृतियाँ हैं।
करकण्डुका जीवन इस कान्यकी मुख्य कथावस्तु है और यह १५ सों में विभक्त है। वि० सं० १६११ में जवाच्छपुरके आदिनाथ चैत्यालयमें इस ग्रन्थको रचना पूर्ण हुई है। इस प्रन्यके सहायक शुभचन्द्रके प्रमुख शिष्य सकलभूषण भट्टारक थे। ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है
श्रीमलसंधे कृत्ति नंदिसंघे गच्छे बलात्कार इदं चरित्र ।
पूजाफलेद्धं करकण्डराज्ञो भट्टारकरीशुभचन्द्रसूरिः ॥
न्याष्टे विक्रमत्तः शते समइते चैकादशाब्दाधिके ।
भाद्रे मासि समुज्वले युगतिथी खङ्गे जाबाछपुरे ।
श्रीमच्छीवृषभेश्वरस्य सदने चक्रे चरित्र विदं ।
राज्ञः श्रीशुभचन्द्रसूरियतिपश्चंपाधिपस्याद् नवं ॥
श्रीमस्सकलभूषेण पुराणे पाण्डवे कृतं ।
साहायं येन तेनाऽत्र तदाकारिस्वसिद्धये ।।
इस अन्धका आधार आचार्य अमृतचन्द्रके समयसार. के कलश हैं। इस आध्यात्मिक कृतिमें निश्चय और व्यवहार नयकी अपेक्षा आत्मतत्त्वका वर्णन किया गया है । यह रचना एक प्रकारसे समयसारपर आवृत टीका है । इसका रचनाकाल वि० सं० १५७३ है।
प्राकृत भाषामें लिखित्त स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की यह टीका है । इस ग्रन्थको आचार्य शुभचन्द्रको संस्कृतटीकाने विशेष लोकप्रिय बनाया है। इस प्रन्धकी रचना वि० सं० १६०० माघ शुक्ला एकादशीके दिन हिसार नगरमें हुई है। पन्धकी प्रशस्तिमें बताया है
श्रीमत् विक्रमभूपतेः परमिते वर्षे शते षोडशे,
माघे मासिदशाप्रवलिहिते स्याते दशम्यां तियो ।
श्रीमझीमहीसार-सार नगरे चैत्यालये श्रीपुरोः ।
श्रीमछौशुभचन्द्रदेवविहिता टीका सदा नन्दतु ।।
यह टीका शुभचन्द्रके शिष्य वर्णी श्रीमचन्द्र के आगइसे लिखी गयी है। टोका सरल और ग्रन्थके हादको स्पष्ट करती है।
जीवन्धरवरित---कुमार जीवन्धरका जीवनवृत्त संस्कृप्तके कवियोंको विशेष प्रिय रहा है। शुभचन्द्रने पुण्यपुरुष जीवन्धरके याख्यानको ग्रहण कर १३ सर्गप्रमाण यह रचना लिखी है। इसकी समाप्ति वि० सं० १६०३ में
अष्ठम तीर्थकर चन्द्रप्रभ के पावन चरितको १२ सगोमें निबद्ध किया गया है। ग्रन्थके अन्त में आचार्य ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हए लिखा है कि न तो छन्द-अलंकारका परिज्ञान है, न काव्यशास्त्रका, न जैनेन्द्रव्याकरणका, न कलापका और न शाकटायनका । त्रिलोकासार एवं गोम्मटसार जैसे महान ग्रन्थोंका भी अध्ययन नहीं किया है। यह रचना में भक्तिवश लिख रहा हूँ।
यह एक कथाकाव्य है । इसमें सती चन्दनाके पावन एवं उज्जवल जीबनका चित्रण किया गया है । काध्यकी कथावस्तु पांच सौ में विभक्त है । इसकी रचना वागड प्रदेशके डूंगरपुर नगरमें हुई है ।
शास्त्राण्यनेकान्यवगाह्य कृत्वा पुराणसल्लक्षणकानि भूयः ।
सच्चंदनाचारुचरित्रमेतत् चकार च श्रीशुभचन्द्रदेवः ।।
जैन साहित्यमें कोरव और पाण्डवोंकी कथाका आरम्भ जिनसेन प्रथमके हरिवंशपुराणसे होता है । स्वतन्त्ररूपमें इस चरितका प्रणयन देवप्रभ सूरिने वि. सं. १२८० में किया है। पश्चात् आचार्य शुभचन्द्रने वि० सं० १६०८ में इस चरितकी रचना की है। कथाके प्रारम्भमें भोगभूमिकालमें होनेवाले १४ कुलकरोंके उत्पत्तिक्रमके कथनके पश्चात बताया है कि ऋषभ देवने इक्ष्वाकु, कौरव, हरि और नाथ नामक चार क्षत्रियगोत्र स्थापित किये। कुरुवंशकी परम्परामें सोमप्रभ, जयकुमार, अनन्तवीर्य, कुरुचन्द्र, शुभंकर और द्युतिकर आदि राजाओंके पश्चात् विश्वसेन राजाके पुत्र शान्तिनाथ तीर्थङ्कर हुए। इसी परम्परामें भगवान् कुन्थ और अईनाथ तीर्थकर उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् इस परम्परामें शान्तनु राजा उत्पन्न हुभा । इसकी पत्नीका नाम सवको था। इन दोनोंके परासर नामक पुत्र उत्पन्न हुवा । परासरका विवाह रनपुरनिबासी जालनामक विद्याधरकी पुत्री गङ्गाके साथ हुआ । इनके पुत्रका नाम गाङ्गेय भीष्म पितामह था । परासर राजाने योग्य समझकर गाङ्गेयको युवराजपदपर प्रतिष्ठित किया । एक दिन परासर यमुनाके तटपर गये और वहां वे धीवरकी कन्याको देखकर मोहित हो गये। कालान्तरमें गाङ्गेयकी
भीष्मप्रतिज्ञाके अनन्तर गुणवती या योजनगंधाके साथ परासरका विवाह सम्पन्न हुआ । इस परनोसे परासरको व्यासनामक पुत्र उत्पन्न हुआ । व्यासकी पत्नीका नाम सुभद्रा था और इससे धृतराष्ट्र, पाण्ड और विदुर ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। इनमें धृतराष्ट्रका विवाह मथुरानिवासी राजा भोजकवृष्टिको कन्या गान्धारीके साथ सम्पन्न हुआ। इससे धुत राष्ट्रको दुर्योधनादि १०० पुत्र उत्पन्न हुए । विदुरका विवाह देवक राजाकी पुत्री कुमुदवतीके साथ सम्पन्न हुआ।
धूतराष्ट्रने पाण्डु के लिए राजा अन्धकवृष्टिसे उनकी पुत्री कुन्तीकी याचना की । परन्तु पाण्डुके पाण्डुरोगसे पीड़ित होने के कारण अन्धकवृष्टिने उसे स्वीकार नहीं किया। पापड, कामरूपणी मुद्रिका द्वारा अपना रूप बदलकर कुन्तीके महल में जाने-आने लगा । फलतः कुन्ती गर्भवती हुई और इस पुत्रका नाम कर्ण रखा गया। विधिवत् विवाह न होनेके कारण, कर्णको एक पेटीमें रखकर यमुनामें प्रवाहित कर दिया गया और वह पेटी चम्पापुरीके राजा भानुको प्राप्त हई। उसने उस तेजस्वी बालकको अपनी पत्नी राधाको दे दिया और राधाने जसका विधिवत् पालन किया । कालान्तरमें अन्धकवृष्टिने कुन्ती और माद्री इन दोनों कन्याओंका विवाह पाण्डके साथ कर दिया । कुन्तीसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीन पुत्र तथा माद्रीसे नकुल और सहदेव ये दो पुत्र हुए । ये पांचों ही पाण्डव कहलाये। कौरव और पाण्डवोंको द्रोणाचार्यने धनुर्वेदकी शिक्षा दो । एक दिन पाण्डु माद्रीफे साथ क्रीड़ार्थ वनमें गये और वहाँ आकाशवाणी सुनकर विरक्त हो गये। उन्होंने अपनी १३ दिन आयु शेष जानकर, दीक्षा ग्रहण की और पांचों पुत्रोंको बुलाकर, उन्हें राज्य देकर धृतराष्ट्र के अधीन कर दिया । कालान्तरमें कौरवों और पाण्डयोंकी या प्रज्वलित हुई। दुर्योधनने लाक्षागृहमें पाण्डवोंको दग्ध करनेका प्रयास किया, पर वे सुरंगके रास्तेसे बच कर निकल गये और प्रामानुग्राम देशाटन करने लगे। हस्तिनापुर लोट आनेके पश्चास् अर्जुनका विवाह द्रौपदी और सुभद्राके साथ सम्पन्न हवा । तदनन्तर युधिष्ठिर यूतक्रीड़ामें समस्त राज्य हार गये और १२ वर्षों सक उन्हें बनवास में रहना पड़ा। अन्तमें राज्यके लिए कौरवों और पाण्डओंका भयंकर युव हुवा ।
यह कथा पच्चीस पळमें विभक्त है । २५३ पर्वमें युद्धके पश्चात् पाणव दीक्षा ग्रहण करते हैं और दुर्धर तपश्चरणके अवसरपर उन्हें उपसर्गादि सहन्द करने पड़ते हैं। वे अनिस्य, अशरण, संसार, एकल मादि १२ भावनाओंका चिन्तन कर कर्माकी निर्जरा करते हैं। फलतः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुनको मुक्तिलाम होता है एवं नकुल और सहदेवको सर्वार्थ सिदिलाभ होता है।
आचार्य ने धर्मका महत्त्व बतलाते हुए लिखा है
धर्मावरिजनस्य भेदनमहो धर्माच्छुभं सत्प्रभम्
धर्माबन्धुसमागम; सुमहिमालाभः सुधर्मात्सुखम् ।
धर्मात्कोमलकनकायसुकला धर्मात्सुताः समता:
धर्माच्छी: क्रियतां सदा बुधजना शाल्नेति धर्म: श्रियः ।।
पूजाग्रन्थों में तत्तत् विषयोंको पूत्राएं निबद्ध हैं । हिन्दीरचनाओं में महावीर छन्दमें भगवान महावीरके सम्बन्धमें २७ पद्योंम स्तबन हैं। विजयकोसिछन्द एक ऐतिहासिक कृति है। यह कविके गुरु विजयकोतिकी प्रशंसा में लिखा गया है। इसमें २२ पद्य हैं। यह एक रूपककाव्य है। इसके मायक विजय कीति हैं और प्रतिनायक कामदेव । इस रूपककाध में अध्यात्मशक्तिको विजय दिखलायी गयी है। गरुमा पद्य हैं और मादितगड़ीनिक प्रणानु बाद किया गया है। नेमिनाथछन्दमें तीर्थकर नेमिनाथक पावन जीवनका चित्रण २९ पद्यों में किया है। तत्त्वसारगुहा में ९१ दोहे एवं चौपाइयाँ हैं । सात तत्त्वोंका वर्णन है । इस प्रन्धकी रचना दुलहा नामक श्रावकके अनुरोधसे
की गयी है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक विजयकिर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Shubhchandra ( Prachin )
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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