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#BhattarakVardhaman1St14ThCentury
बद्धमान भट्टारकने वरांगचरितकी रचना की है। ये मूलसंघ बलात्कारगण और भारतीगच्छके आचार्य हैं। 'परवादिषंचानन' इनकी उपाधि पी । कहा जाता है कि बलात्कारगणमें सरस्वतीगच्छ और उसके पर्याय भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नामोंका प्रयोग वि० सं० १४वीं शतोसे प्रारम्भ हुआ है । सरस्वती या भारतीगच्छके सम्बन्धमें यह मान्यता प्रचलित है कि दिगम्बर संघके आचार्य पानन्दिने श्वेताम्बरोंसे विवाद कर पाषाणकी सरस्वतीमूत्तिसे मन्त्रशक्तिद्वारा निर्णय कराया था । यह विवाद गिरिनार पर्वतपर हुआ कहा जाता है । इसी कारण कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित हुआ।
बलात्कारगणका सबसे प्राचीन उल्लेख आचार्य श्रीचन्द्रने किया है । इनके दीक्षामुरु आचार्य श्रीनन्दी बोर विद्यागुरु आचार्य सागरसेन थे । ये महाराज भोजके समयमें धारानगरीमें निवास करते थे। इस गणमें दूसरे आचार्य केशवनन्दि हुए। अनन्तर पक्षोपवासी पद्मप्रभ हुए। इनकी शिष्यपरम्परामें नयनन्दी, श्रीधर, चन्द्रकोति, श्रीधर, वासुपूज्य, नेमिचन्द्र, पद्मप्रभ, कुमुदचन्द्र, वेशनन्दि, श्रवणसेन, बनवासि वसन्तकीति प्रभूति आचार्य हुए हैं। इस परम्परा की २६वीं पीढ़ी में वर्बमान भट्टारबका उल्लेख मिलता है । कविने इस काव्यकी प्रशस्तिमें लिखा है
स्वस्तिश्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलास्कारसंश
श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुणनिषिर्वदमानाभिधानः ।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहरापुरकर, सोलापुर १९५८ ई०, पृ. ४४.४५ ।
आसोट्टारकोऽसौ सुचरितमकरोच्छोवराङ्गस्य राज्ञो
भगवेगाजिदचद धि चरितमिदं वर्ततामार्कतारम् !!
बरांग० १३। ८७
आचार्य बर्द्धमानने अपने गुरुका निर्देश नहीं किया है। जैन साहित्य परम्परामे नन्दिसंघके एक बद्धमान भट्टारक हैं, जिनका दशभक्त्यादि महाशास्त्र है और जो देवेन्द्रकीतिके शिष्य हैं। इनका समय सन १५४ के लगभग है । बलात्कारगणमें दो वर्तमान प्रसिद्ध है। प्रथम वर्तमान वह हैं, जो न्यायदीपिकाके का धर्मभूषणके गुरु हैं और द्वितीय हम्मच शिलालेखके रयिता हैं। विजयनगरके शिलालेखसे अवगत होता है कि वर्तमानके शिष्य धर्मभूषण हुए। इनके समयमें शक संवत् १३०७ (ई० सन् १३८५) को फालान कृष्णा द्वितीयाको राजा हरिहरके मन्त्री चैत्रदण्डनायकके पुत्र इसगप्पने विजयनगरमें कुन्यनाथका मन्दिर बनवाया था।
न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल कोठियाने न्यायदीपिकाकी प्रस्तावनामें लिखा है-"विषयनगरनरेश प्रथम देवराय ही राजाधिराज परमेश्वरकी उपाधिसे विभूषित थे । इनका राज्य सम्भवत: १४१८ ई० तक रहा है और द्वित्तीय देवराय सन १४१५-१४४६ ई. तक माने जाते है। अतः इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि वर्द्धमानके शिष्य धर्मभूषण तृतीय (ग्रन्धकार) ही देवराय प्रथम के द्वारा सम्मानित थे। प्रथम अथवा द्वितीय धर्म भूषण नहीं, क्योंकि वे बड़े मानके शिष्य नहीं थे। प्रथम वर्मभूषण शभकीतिके और द्वितीय धर्मभूषण अमरकीतिके शिष्य थे। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अभि नव धर्मभूषण देवराय प्रथमके समकालीन हैं।" ___इस सन्दर्भ में श्रीकोठियाजीने धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध कर
उनके समयको पूर्व सीमा शक संवत् १२८० (ई० सन् १३५८) मानी है। __इस अध्ययनके प्रकाशमें वर्तमान भट्टारकका समय धर्म भूषणके गुरु होने के कारण ई० सन्की १४वीं शतीका उत्तराब है।
१. स्वस्ति शकवर्षे १३०४ प्रवर्तमाने क्रोधनवरसर फामानमासे कृष्णपक्षे द्वितीयायां तिथी
शुक्रवासरे-जैन सिशान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ९।
२. न्यायदीपिका, वीर सेवा मन्दिर, सरसाबा, वर्तमान दिल्ली, सन् १९४५ ई०, प्रस्ता
बना पृ० ९९।
३. न्यामदीपिकामा बालियाः पद उन्हें सायणफे समकालीन होने की ओर संकेत करता
है। वहीं पृ. ९९।
विन्ध्यगिरिके एक अभिलेखसे यद्धमान भट्टारकका समय शक संवत् १२८५ (ई० सन् १३६३) सिद्ध होता है। श्री डॉ० ए एन उपाध्येने जटा सिंहनन्दी द्वारा विरचित बराङ्गचरिसकी अंग्रेजी प्रस्तावनामें भट्टारक वर्द्ध मानका समय १३वीं शतोके पश्चात् ही अनुमानित किया है। अतएव वराङ्ग चरित महाकाब्यके रचयिता बर्द्धमान भट्टारकका समय ई. सन्की १४वीं शती है।
भट्टारक बर्द्धमानने संस्कृत भाषामें 'बरांगचरित' नामक महाकाव्य लिखा है । इसमें १३ सगे हैं । सगीका नामकरण कथावस्तुके थाधारपर किया गया है। वरांग, २खें तीर्थकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके समकालीन धीरो दात्त नायक हैं। इनको कथावस्तु कवियों को बहुत प्रिय रही है। यही कारण है कि ७वीं गतोसे ही उक्त नायकपर महाकाव्य लिखे जाते रहे हैं। संस्कृत के अतिरिक्त कन्नड़में धरणि पं० का बराङ्गारत एवं हिन्दीमें लालचन्द्र और कमलनयनकृत बराङ्गचरित भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत काव्यका प्रमाण १३८३ श्लोक है।
__ इस काव्य में कथाकी अग्विति, सर्गविभाजन और छन्दोंमें अभिव्यंजन ये तीनों मिलकर प्रबन्धके बाह्य रूपका निर्माण करते हैं । विचारप्रधान होने से इस कायमें प्रकृति-चित्रणकी अल्पता है। फिर भी भावात्मक चित्रोंकी कमी नहीं है। कथावस्तु भी शृंखलाबद्ध है ! दर्शन या धर्मसत्त्व घटनाओंके क्रममें बाधक नहीं हैं। घटनाओं, प्रसंगों और वर्णनोंको इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, जिससे मार्मिक स्थल स्वयं उपस्थित होते गये हैं। राजकुमार वरांग जन्म लेता है। उसका १० सुन्दरियों के साथ विवाह हो जाता है और उसकी योग्यतासे प्रभावित होने के कारण बड़े पुत्रके रहते हुए भी राजा धर्मसेन उसे युवराज बना देता है। विमाताको यह बात खटकती है । उसका सौतेला भाई सुषेण भी राजकुमार वरंगसे ईा करता है । विमाता और भाई दोनों मन्त्री से मिलकर षड्यन्त्र रचते हैं और एक दुष्ट घोड़े द्वारा कुमारका अप हरण करा देते हैं । घोड़ा एक अन्धकूपमें कुमारको लेकर कूद जाता है। उस अन्धकूपसे निकलने में असमर्थ रहनेसे उस दुष्प घोड़ेकी मृत्यु हो जाती है और कुमार किसी प्रकार बचकर निकल आता है। इस घोर अरण्यमें उसे व्यान, अजगर, भिल्ल आदिका सामना करना पड़ता है। वह किसी प्रकार इन संकटोंसे मुक्ति प्राप्त करता है। कविने इन घटनाओंको सप्राण बनानेके
१. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं० १११, पृ. २१४ ।
लिये नाटकीय तत्वोंको योजना भी की है। फलतः आन्तरिक द्वन्दु सहजरूपमें उपस्थित हुए हैं। किसी भी काव्यका प्रबन्ध तभी प्राणवंत होता है, जब उसमें जीवन के समानविरोधी स्वरोंकी योजना की जाये । कविने आत्मनिष्ठ अनुभूतिको बस्तुपरक बिम्बों द्वारा पाठकों तक प्रेषित करनेका प्रयास
किया है।
शृङ्गार, वीर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक सुन्दररूपमें हुआ है। कविने कुमार वराङ्गकी विचारधाराका अंकन करते हुए लिखा है
वियोगवन्तो भवभोगयोगा वायुःस्थिरं नो नवयौवनं च ।
राज्यं महाक्लेशसहस्त्रसाध्य ततो न नित्यं भूचि किचिदस्ति ।। १३। ४
लक्ष्मीरियं वारिसरङ्गलोला, क्षणे क्षणे नाशमुपैति तायुः ।
तारुण्यमेतत्सरिदम्बुपूरोपमं नृणां कोऽत्र सुखाभिलाषः ।।१३।५
कविने इस काव्यमें सम्पूर्ण जीवनमल्योंका उल्लेख किया है ! कवि आध्यात्मिक जीवन के साथ लोकजीवनका भी महत्त्व देता है। वह धर्मबुद्धि, गुरुविनय, मित्र-बन्धुस्नेह, दीन-अनाथकरुणाभाव, शत्रुओंके मध्य प्रताप प्रदर्शनको जीवनके लिए आवश्यक मानता है । जीवनका अन्तिम लक्ष्य भले ही मुक्तिलाभ है, पर संसारके मध्य रहते हा कठोर श्रम द्वारा संयमित आचार ध्यवहारको जीवन में उतारना ही वास्तविक उपलब्धि है। कविने जीवन शोधनके उपकरणोंका विश्लेषण करते हुए लिखा है
सम्यग्ज्ञानं सुचरणयुतं प्राप्तसम्यक्त्वमुच्चे:
पात्रे दानं जिनपत्तिविभोः पूजन भावनं च।
धर्मध्यानं तपसि च मति साधुसङ्ग वितन्वन्
श्रेयोमार्गप्रकटनपरः श्रीवराङ्गो रराज ॥ ३।४२
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रपूर्वक पात्रदान देना, जिनेन्द्रको पूजा-भक्ति करना, धर्मध्यान-शुभध्यान करना, तपश्चरण करना, साधु-सज्जन और सदाचारी व्यक्तियोंकी संगति करना एवं कल्याणकारी मार्गका अनु सरण करना जीवन लक्ष्य है।
कबिने रात्रिभोजनत्याग, शोधित अन्न-जलका ग्रहण, मौनपूर्वक भोजन, नवनीतत्याग, कन्द-भक्षण-त्याग, पंचोदम्बरभक्षणफल-त्याग आदिको भी जीवन के लिए आवश्यक बताया है। यह काव्य धर्म, दर्शन, संस्कृति और लोक जीवनके सिद्धान्तोंसे सम्पुक्त है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक वर्धमान प्रथम |
शिष्य | आचार्य श्री धर्मभूषण तृतीय ( ग्रंथकार ) |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakVardhaman1St14ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक वर्धमान 1वीं 14वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 28-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
बद्धमान भट्टारकने वरांगचरितकी रचना की है। ये मूलसंघ बलात्कारगण और भारतीगच्छके आचार्य हैं। 'परवादिषंचानन' इनकी उपाधि पी । कहा जाता है कि बलात्कारगणमें सरस्वतीगच्छ और उसके पर्याय भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नामोंका प्रयोग वि० सं० १४वीं शतोसे प्रारम्भ हुआ है । सरस्वती या भारतीगच्छके सम्बन्धमें यह मान्यता प्रचलित है कि दिगम्बर संघके आचार्य पानन्दिने श्वेताम्बरोंसे विवाद कर पाषाणकी सरस्वतीमूत्तिसे मन्त्रशक्तिद्वारा निर्णय कराया था । यह विवाद गिरिनार पर्वतपर हुआ कहा जाता है । इसी कारण कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित हुआ।
बलात्कारगणका सबसे प्राचीन उल्लेख आचार्य श्रीचन्द्रने किया है । इनके दीक्षामुरु आचार्य श्रीनन्दी बोर विद्यागुरु आचार्य सागरसेन थे । ये महाराज भोजके समयमें धारानगरीमें निवास करते थे। इस गणमें दूसरे आचार्य केशवनन्दि हुए। अनन्तर पक्षोपवासी पद्मप्रभ हुए। इनकी शिष्यपरम्परामें नयनन्दी, श्रीधर, चन्द्रकोति, श्रीधर, वासुपूज्य, नेमिचन्द्र, पद्मप्रभ, कुमुदचन्द्र, वेशनन्दि, श्रवणसेन, बनवासि वसन्तकीति प्रभूति आचार्य हुए हैं। इस परम्परा की २६वीं पीढ़ी में वर्बमान भट्टारबका उल्लेख मिलता है । कविने इस काव्यकी प्रशस्तिमें लिखा है
स्वस्तिश्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलास्कारसंश
श्रीभारत्याख्यगच्छे सकलगुणनिषिर्वदमानाभिधानः ।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, विद्याधर जोहरापुरकर, सोलापुर १९५८ ई०, पृ. ४४.४५ ।
आसोट्टारकोऽसौ सुचरितमकरोच्छोवराङ्गस्य राज्ञो
भगवेगाजिदचद धि चरितमिदं वर्ततामार्कतारम् !!
बरांग० १३। ८७
आचार्य बर्द्धमानने अपने गुरुका निर्देश नहीं किया है। जैन साहित्य परम्परामे नन्दिसंघके एक बद्धमान भट्टारक हैं, जिनका दशभक्त्यादि महाशास्त्र है और जो देवेन्द्रकीतिके शिष्य हैं। इनका समय सन १५४ के लगभग है । बलात्कारगणमें दो वर्तमान प्रसिद्ध है। प्रथम वर्तमान वह हैं, जो न्यायदीपिकाके का धर्मभूषणके गुरु हैं और द्वितीय हम्मच शिलालेखके रयिता हैं। विजयनगरके शिलालेखसे अवगत होता है कि वर्तमानके शिष्य धर्मभूषण हुए। इनके समयमें शक संवत् १३०७ (ई० सन् १३८५) को फालान कृष्णा द्वितीयाको राजा हरिहरके मन्त्री चैत्रदण्डनायकके पुत्र इसगप्पने विजयनगरमें कुन्यनाथका मन्दिर बनवाया था।
न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल कोठियाने न्यायदीपिकाकी प्रस्तावनामें लिखा है-"विषयनगरनरेश प्रथम देवराय ही राजाधिराज परमेश्वरकी उपाधिसे विभूषित थे । इनका राज्य सम्भवत: १४१८ ई० तक रहा है और द्वित्तीय देवराय सन १४१५-१४४६ ई. तक माने जाते है। अतः इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि वर्द्धमानके शिष्य धर्मभूषण तृतीय (ग्रन्धकार) ही देवराय प्रथम के द्वारा सम्मानित थे। प्रथम अथवा द्वितीय धर्म भूषण नहीं, क्योंकि वे बड़े मानके शिष्य नहीं थे। प्रथम वर्मभूषण शभकीतिके और द्वितीय धर्मभूषण अमरकीतिके शिष्य थे। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अभि नव धर्मभूषण देवराय प्रथमके समकालीन हैं।" ___इस सन्दर्भ में श्रीकोठियाजीने धर्मभूषणको सायणका समकालीन सिद्ध कर
उनके समयको पूर्व सीमा शक संवत् १२८० (ई० सन् १३५८) मानी है। __इस अध्ययनके प्रकाशमें वर्तमान भट्टारकका समय धर्म भूषणके गुरु होने के कारण ई० सन्की १४वीं शतीका उत्तराब है।
१. स्वस्ति शकवर्षे १३०४ प्रवर्तमाने क्रोधनवरसर फामानमासे कृष्णपक्षे द्वितीयायां तिथी
शुक्रवासरे-जैन सिशान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ९।
२. न्यायदीपिका, वीर सेवा मन्दिर, सरसाबा, वर्तमान दिल्ली, सन् १९४५ ई०, प्रस्ता
बना पृ० ९९।
३. न्यामदीपिकामा बालियाः पद उन्हें सायणफे समकालीन होने की ओर संकेत करता
है। वहीं पृ. ९९।
विन्ध्यगिरिके एक अभिलेखसे यद्धमान भट्टारकका समय शक संवत् १२८५ (ई० सन् १३६३) सिद्ध होता है। श्री डॉ० ए एन उपाध्येने जटा सिंहनन्दी द्वारा विरचित बराङ्गचरिसकी अंग्रेजी प्रस्तावनामें भट्टारक वर्द्ध मानका समय १३वीं शतोके पश्चात् ही अनुमानित किया है। अतएव वराङ्ग चरित महाकाब्यके रचयिता बर्द्धमान भट्टारकका समय ई. सन्की १४वीं शती है।
भट्टारक बर्द्धमानने संस्कृत भाषामें 'बरांगचरित' नामक महाकाव्य लिखा है । इसमें १३ सगे हैं । सगीका नामकरण कथावस्तुके थाधारपर किया गया है। वरांग, २खें तीर्थकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके समकालीन धीरो दात्त नायक हैं। इनको कथावस्तु कवियों को बहुत प्रिय रही है। यही कारण है कि ७वीं गतोसे ही उक्त नायकपर महाकाव्य लिखे जाते रहे हैं। संस्कृत के अतिरिक्त कन्नड़में धरणि पं० का बराङ्गारत एवं हिन्दीमें लालचन्द्र और कमलनयनकृत बराङ्गचरित भी उपलब्ध हैं। प्रस्तुत काव्यका प्रमाण १३८३ श्लोक है।
__ इस काव्य में कथाकी अग्विति, सर्गविभाजन और छन्दोंमें अभिव्यंजन ये तीनों मिलकर प्रबन्धके बाह्य रूपका निर्माण करते हैं । विचारप्रधान होने से इस कायमें प्रकृति-चित्रणकी अल्पता है। फिर भी भावात्मक चित्रोंकी कमी नहीं है। कथावस्तु भी शृंखलाबद्ध है ! दर्शन या धर्मसत्त्व घटनाओंके क्रममें बाधक नहीं हैं। घटनाओं, प्रसंगों और वर्णनोंको इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है, जिससे मार्मिक स्थल स्वयं उपस्थित होते गये हैं। राजकुमार वरांग जन्म लेता है। उसका १० सुन्दरियों के साथ विवाह हो जाता है और उसकी योग्यतासे प्रभावित होने के कारण बड़े पुत्रके रहते हुए भी राजा धर्मसेन उसे युवराज बना देता है। विमाताको यह बात खटकती है । उसका सौतेला भाई सुषेण भी राजकुमार वरंगसे ईा करता है । विमाता और भाई दोनों मन्त्री से मिलकर षड्यन्त्र रचते हैं और एक दुष्ट घोड़े द्वारा कुमारका अप हरण करा देते हैं । घोड़ा एक अन्धकूपमें कुमारको लेकर कूद जाता है। उस अन्धकूपसे निकलने में असमर्थ रहनेसे उस दुष्प घोड़ेकी मृत्यु हो जाती है और कुमार किसी प्रकार बचकर निकल आता है। इस घोर अरण्यमें उसे व्यान, अजगर, भिल्ल आदिका सामना करना पड़ता है। वह किसी प्रकार इन संकटोंसे मुक्ति प्राप्त करता है। कविने इन घटनाओंको सप्राण बनानेके
१. जैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख सं० १११, पृ. २१४ ।
लिये नाटकीय तत्वोंको योजना भी की है। फलतः आन्तरिक द्वन्दु सहजरूपमें उपस्थित हुए हैं। किसी भी काव्यका प्रबन्ध तभी प्राणवंत होता है, जब उसमें जीवन के समानविरोधी स्वरोंकी योजना की जाये । कविने आत्मनिष्ठ अनुभूतिको बस्तुपरक बिम्बों द्वारा पाठकों तक प्रेषित करनेका प्रयास
किया है।
शृङ्गार, वीर, करुण और शान्त रसोंका परिपाक सुन्दररूपमें हुआ है। कविने कुमार वराङ्गकी विचारधाराका अंकन करते हुए लिखा है
वियोगवन्तो भवभोगयोगा वायुःस्थिरं नो नवयौवनं च ।
राज्यं महाक्लेशसहस्त्रसाध्य ततो न नित्यं भूचि किचिदस्ति ।। १३। ४
लक्ष्मीरियं वारिसरङ्गलोला, क्षणे क्षणे नाशमुपैति तायुः ।
तारुण्यमेतत्सरिदम्बुपूरोपमं नृणां कोऽत्र सुखाभिलाषः ।।१३।५
कविने इस काव्यमें सम्पूर्ण जीवनमल्योंका उल्लेख किया है ! कवि आध्यात्मिक जीवन के साथ लोकजीवनका भी महत्त्व देता है। वह धर्मबुद्धि, गुरुविनय, मित्र-बन्धुस्नेह, दीन-अनाथकरुणाभाव, शत्रुओंके मध्य प्रताप प्रदर्शनको जीवनके लिए आवश्यक मानता है । जीवनका अन्तिम लक्ष्य भले ही मुक्तिलाभ है, पर संसारके मध्य रहते हा कठोर श्रम द्वारा संयमित आचार ध्यवहारको जीवन में उतारना ही वास्तविक उपलब्धि है। कविने जीवन शोधनके उपकरणोंका विश्लेषण करते हुए लिखा है
सम्यग्ज्ञानं सुचरणयुतं प्राप्तसम्यक्त्वमुच्चे:
पात्रे दानं जिनपत्तिविभोः पूजन भावनं च।
धर्मध्यानं तपसि च मति साधुसङ्ग वितन्वन्
श्रेयोमार्गप्रकटनपरः श्रीवराङ्गो रराज ॥ ३।४२
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रपूर्वक पात्रदान देना, जिनेन्द्रको पूजा-भक्ति करना, धर्मध्यान-शुभध्यान करना, तपश्चरण करना, साधु-सज्जन और सदाचारी व्यक्तियोंकी संगति करना एवं कल्याणकारी मार्गका अनु सरण करना जीवन लक्ष्य है।
कबिने रात्रिभोजनत्याग, शोधित अन्न-जलका ग्रहण, मौनपूर्वक भोजन, नवनीतत्याग, कन्द-भक्षण-त्याग, पंचोदम्बरभक्षणफल-त्याग आदिको भी जीवन के लिए आवश्यक बताया है। यह काव्य धर्म, दर्शन, संस्कृति और लोक जीवनके सिद्धान्तोंसे सम्पुक्त है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक वर्धमान प्रथम |
शिष्य | आचार्य श्री धर्मभूषण तृतीय ( ग्रंथकार ) |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Vardhaman 1 St 14 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 28-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#BhattarakVardhaman1St14ThCentury
15000
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