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#BhattarakVidyanandiPrachin
आचार्य विद्यानन्दि बलात्कारगणकी सूरत शाखाके भट्टारक थे। इस शाखाका आरम्भ भट्टारक देवेन्द्रकीति से हुआ है । ये भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य थे। पदमन्दिके तीन शिष्योंने तीन भट्टारक-परम्पराएँ श्रारम्भ की हैं। शुभचन्द्र ने दिल्ली-जयपुरशाखा, सकलकीतिने ईडर-शाखा और देवेन्द्रकी तिने सूरत-शाखाको समद्ध किया है । बलात्कारगण उसर शाखामें वि. स. १२६४ में वसन्तकीति, वि. सं. १२६६ में विशालकोति, तत्पश्चात् शुभकीति, वि० संवत् १२७१-१२९६ में धर्मचन्द्र, धि सं०१२२६-१३१. में रत्नकीति, वि० सं० १३१०-१३८४ में प्रभाचन्द्र और वि० सं० १३८५-१४५० में पद्मनन्दि भट्टारक हुए ! इन पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीति वि.सं. १४९३ में पट्ट पर आसीन हुए। देवेन्द्रकीसिके शिष्य विद्यानन्दि हुए । इन्होंने वि० सं० १४९९ की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको एक चौबीसो मूर्ति, विसं १५१३ की बैशाख शुक्ला दशमीको एक मेरू तथा चौबीसो मति, विसं १५१८ को माघ शुक्ला पंचमीको दो मतियाँ, वि. सं. १५२१ को मैशाख कृष्णा द्वितीयाको एक चौबीसी मूर्ति एवं वि० सं० १५३७ की वैशाख शुक्ला द्वादशीको एक अन्य
१. पाण्डवपुराण, १८।२०१।
मूर्ति स्थापित की है। वि० सं० १५१३ को चौबीसी मति आपिका संयमश्रीके लिये घोघामें प्रतिष्ठित को गयी थी। विद्यानन्दिके सम्बन्धमें निम्नलिखित अभिलेख उपलब्ध हैं
"सं० १५३७ वर्ष वैशाख सुदि १० गुरौ श्रोमलसंघे भ० जिनचन्द्राम्नाये मंडलाचार्य विद्यानन्दि तदुपदेशं गोलारारान्वये पियू पुत्र"......"।।"
"संवत् १५४४ बर्षे बैसाख सुदि ३ सोमे श्रीमूलसंघे भ० श्रीविद्यानन्दि भट्टारक श्रीभुवनकोति भ० श्रीज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हूंबड साह चांदा, भार्या रेमाई......२" ।
इन अभिलेखोंस स्पष्ट है कि विद्यानन्दिने मन्दिर-प्रतिष्ठा और मूर्ति-प्रतिष्ठामें पूर्ण योगदान दिया था । साह लखराजने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति खरीद कर इन्हें अर्पित की थी 1 पंचस्तिकायको पुष्पिकामें बताया गया है ___ "स्वस्ति श्रीमलसंघे हुँबड़ जातीय सा० कान्हा भार्या रामति..... एतेषां मध्ये सा० लखराजेन मोयित्वा पंचास्तिकायपुस्तकं श्रीविद्यानंदिने ज्ञानावर्णी कर्मक्षयार्थ दत्तं शुभं भवत्तु" ।
इनके शिष्य ब्रह्माजितने भडौंच में हनुमत्चरितकी रचना की है। इनके अन्य शिष्य छाडने वि० सं० १५९१ से भडौंच में धन्यकुमारचरितकी एक प्रति लिखी है । इनके तृतीय शिष्य ब्रह्मधर्मपालने सं० १५०५ में एक मूर्तिको स्थापना की है।
विद्यान्दिने सुदर्शनचरितकी रचना की है। इस अन्धकी प्रशस्तिमै पूर्वा चार्योका स्मरण करते हुए अपनी गुर्वावलि अंकित की है। लिखा है
श्रीमूलसधे बरभारतीये गच्छे बलात्कारगणेऽतिरम्ये ।
श्रीकुन्दकुन्दास्यमुनीन्द्रवंशे जातः प्रभाचन्द्रमहामुनीन्द्रः ।।
पट्टे सदीये मुनिपयनन्दो भट्टारको भव्यसरोजभानुः ।
जातो जगत्त्रयहितो गुणरत्लसिन्धुः कुर्यात् सतां सारसुख यतीशः ।।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराज जैन मन्थमाला, प्रथाक ८, सोलापुर, वि० सं० २०१४
लेखांक ४२७-४३३ ।
२. बद्दी, लेखांक २५७,३५६ ।
३. बही, लेखांक ४३५ ।
सत्पपद्माकरभास्करोऽत्र देवेन्द्रकीतिनिचक्रवर्ती ।
तत्पादपङ्कजसुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दी चरितं चकार ।।
तत्पादपट्टेऽजनि मल्लिभूषणगुरुचारित्रचूडामणि:
__ संसाराम्बुधितारणकचतुरश्चिन्तामणिः प्राणिनाम् ।
सूरिश्रीश्रुतसागरो गुणनिधि: श्रीसिंहनन्दी गुरु:
___ सर्वे ते यतिसत्तमाः शुभतराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि सूरत-शाखाके बलात्कारगणके आचार्यों में देवेन्द्र कोतिके शिष्य विद्यानन्दि हैं। ग्रन्थक भारम्भमें भी गुरुपरम्पराका स्मरण किया गया है।
विद्यानन्दिके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी कोई भी वृत्तान्त ग्रन्थप्रशस्तियोंमें उपलब्ध नहीं होता है। केवल एक पट्टावली में 'अष्टशाखाप्राग्वाटवंशावतंस' तथा 'हरिराजकुलोद्योतकर कहा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि ये प्राग्वाट पौरवाड़ी जातिके थे तथा इनके पिताका नाम हरिराज था । पोरवाड़ जातिमें अथवा उसके निदी पक वर्ग में थाट शालाओंकी मान्यता प्रचलित रही होगी । इस जातिका प्रचार प्राचीनकालमें गुजरात प्रदेशमें रहा है। इस प्रदेशकी प्राचीन राजधानी नीमाल थी । इश प्रागवाट जातिमें विद्यानन्दिके गुरुभट्टारक देवेन्द्रकीतिका विशेष सम्मान रहा है। इन्होंने पौरपाटान्वयकी अशाखाबाले एक श्रावक द्वारा वि० सं० १४९३ में एक जिनमूर्तिकी स्थापना करायी थी।
"संवत् १४९३ शाके १३५८ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरी दिने मूलनक्षत्रे श्री मलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कून्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्रोप्रभाचन्द्रदेवा: तत्पट्टे वादिवादीन्द्र भ० पद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे श्रीदेवेन्द्रकीतिदेवाः पौरपाटान्चये अष्टशाखे आहारदानदानेश्वर सिंघई-लक्ष्मण तस्य भार्या अखसिरी कुक्षि समुत्पन्न अर्जुन........।" ____ अतएव स्पष्ट है कि प्राग्वाट, पौरपाट और पोरवाड़ एक ही जातिके वाचक हैं। डॉ० हीरालालजी जैनका अनुमान है कि भट्टारक देवेन्द्रकीति भी इसी जातिमें उत्पन्न हुए होंगे और उन्हींके प्रभावसे विद्यानन्दि भी दीक्षित हुए होंगे। वि० सं०१४९९ के मतिलेखमें उन्हें देवेन्द्रकीतिका शिष्य कहा गया है, पर वि०
१. हा.हीरालाल जैन, सुदर्शनधरित, सन् १९७०, इलोक १२।४५-५० ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४३९ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४२५ ।
४. सुदर्शनपरित, सम्पादक हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीछ, दिल्ली, सन् १९५०
प्रस्तावना, पृ. १६ ।
संवत् १५१३ के मूर्तिलेखमें उनका श्रीदेवेन्द्रफीति दीक्षित आचार्य श्रीविद्या नन्दिके रूपमें उल्लेख आया है। संवत् १५३७ के मुत्ति लेखमें देवेन्द्रकीतिपदे प्रतिष्ठित विद्यानन्दिको बताया है । इससे स्पष्ट है कि वे संवत् १५१३ के पश्चात् और संवत् १५३७ के पूर्व भट्टारक गद्दीपर आसीन हो चुके थे। श्रीजोहरा पुरकरने वि० सं० १४२९-१५३७ उनका भट्टारककाल माना है।
विद्यानन्दिने पर्याप्त भ्रमण किया था । पद्दावली के अनुसार उन्होंने सम्मेद शिखर, चम्पा, पावा, उर्जयन्तगिरि आदि समस्त तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा की थी। इनका सम्मान राजाधिराज महामण्डलेश्वर वच्चाङ्ग-गङ्ग-जयसिंह-व्याघ-नरेन्द्र आदिके द्वारा किया गया था। इनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूर्तियोंमें हूँबड़जाति भावकोंक उल्लेख अधिक आये हैं । अन्यजति और बर्ग सम्बन्धी गि काठा बांगडमंदा महारा:ति, राकवालजाति, गोलश्रृंगार वंश, पल्लोवालजाति, एवं अग्रोतकान्वय (अग्रवाल) के नाम प्रास होते हैं ।
पट्टालियों, मतिलेखों एवं ग्रन्थप्रशस्तियोंके आधारपर विद्यानन्दिका समय वि सं १४६१-१५३८ पाया जाता है । इस कार्यकालके भीतर उन्होंने धर्मप्रचारके लिये धर्मोपदेशके साथ मति एवं मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी।
भट्टारक विद्यानन्दिके द्वारा सुदर्शनचरितनामक परितकाध्यकी रचना गन्धार नगर या गन्धारपुरीमें की गयी है। इस गन्धार नगरका उल्लेख अन्य आचार्योंके ग्रन्थोंमें भी मिलता है । सम्भवतः ग्रह सूरत नगरका ही नामान्तर है ! इस कृतिकी रचना वि० सं० १३५५ के लगभग सम्पत्र हुई है। __इस ग्रन्थमें पुण्यपुरुष सुदर्शनका आख्यान वर्णित है 1 कथावस्तु १२ अधि कारोंमें विभक्त है। प्रथम और द्वितीय अधिकारमें तीर्थंकर महावीरका विपूला चलपर समवशरण प्रस्तुत होता है और उसमें गौतम गणधर उनसे धर्मविषयक प्रश्न पूछते हैं। स्तवनप्रकरणमें गणघरोंक नमस्कारके पश्चात् कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पात्रकेसरो, अकलंक, जिनसेन, रत्नकोति, गुणभद्र, प्रभाचन्द्र, देवेन्द्रकोति और आशाधरका संस्मरण किया है । श्रेणिक जिनेन्द्रको पूजा-स्तुतिके अनन्तर गौतम गणधरसे पञ्चम अन्तःकृत केवलो सुदर्शनमुनिके चरित-वर्णनकी प्रार्थना करते हैं। गौतम गणधर उस चरितका वर्णन करते हैं । विद्यानन्दिने इस प्रकार तृतीय अधिकारमें सुदर्शनके जन्ममहोत्सवका वर्णन किया है । चतुर्थ अधिकारमें सुदर्शन-मनोरमा विवाह, पंचममें सुदर्शनकी श्रेष्टि पद प्राप्ति, षष्ठमें कपिलका प्रलोभन तथा रानी अभयमतीका व्यामोह, सप्तममें अभयाकृत उपसर्ग निवारण और शीलप्रभाव वर्णन, अष्टममें सुदर्शन और
मनोरमाके पूर्वभव, नवममें द्वादशानुप्रेक्षा, दशममें सुदर्शनका दीक्षाग्रहण और तप, एकादशमें केवलज्ञानोत्पत्ति और द्वादशमें सुदर्शनमुनिको मोक्षप्राप्तिका वर्णन आया है। समस्त ग्रन्थ अनुष्टुप छन्दोंमें निर्मित है। सन्तिमें छंदपरि वर्तन हुआ है | कविने प्रसंगवश सुभाषितोंका भी प्रयोग किया है | पुण्यका माहात्म्य बतलाते हुए लिखा है
पुण्येन दुरतरवस्तुसमागमोऽस्ति
पुण्यं विना तदपि हस्ततलात्प्रयाति ।
तस्मात्सुनिर्मलधियः कुरुत प्रमोदात्
पुण्यं जिनेन्द्रकथितं शिवशर्ममीजम् ॥
इस प्रकार सुदर्शनचरितके द्वारा कपिने पुराण, धर्मशास्त्र और दर्शनका प्रणयन किया है । इस अन्धकी कुल इलोकसंख्या १३६२ है ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक देवेन्द्रकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक विद्यानंदी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakVidyanandiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक विद्यानंदी (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 31-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 31-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य विद्यानन्दि बलात्कारगणकी सूरत शाखाके भट्टारक थे। इस शाखाका आरम्भ भट्टारक देवेन्द्रकीति से हुआ है । ये भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य थे। पदमन्दिके तीन शिष्योंने तीन भट्टारक-परम्पराएँ श्रारम्भ की हैं। शुभचन्द्र ने दिल्ली-जयपुरशाखा, सकलकीतिने ईडर-शाखा और देवेन्द्रकी तिने सूरत-शाखाको समद्ध किया है । बलात्कारगण उसर शाखामें वि. स. १२६४ में वसन्तकीति, वि. सं. १२६६ में विशालकोति, तत्पश्चात् शुभकीति, वि० संवत् १२७१-१२९६ में धर्मचन्द्र, धि सं०१२२६-१३१. में रत्नकीति, वि० सं० १३१०-१३८४ में प्रभाचन्द्र और वि० सं० १३८५-१४५० में पद्मनन्दि भट्टारक हुए ! इन पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीति वि.सं. १४९३ में पट्ट पर आसीन हुए। देवेन्द्रकीसिके शिष्य विद्यानन्दि हुए । इन्होंने वि० सं० १४९९ की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको एक चौबीसो मूर्ति, विसं १५१३ की बैशाख शुक्ला दशमीको एक मेरू तथा चौबीसो मति, विसं १५१८ को माघ शुक्ला पंचमीको दो मतियाँ, वि. सं. १५२१ को मैशाख कृष्णा द्वितीयाको एक चौबीसी मूर्ति एवं वि० सं० १५३७ की वैशाख शुक्ला द्वादशीको एक अन्य
१. पाण्डवपुराण, १८।२०१।
मूर्ति स्थापित की है। वि० सं० १५१३ को चौबीसी मति आपिका संयमश्रीके लिये घोघामें प्रतिष्ठित को गयी थी। विद्यानन्दिके सम्बन्धमें निम्नलिखित अभिलेख उपलब्ध हैं
"सं० १५३७ वर्ष वैशाख सुदि १० गुरौ श्रोमलसंघे भ० जिनचन्द्राम्नाये मंडलाचार्य विद्यानन्दि तदुपदेशं गोलारारान्वये पियू पुत्र"......"।।"
"संवत् १५४४ बर्षे बैसाख सुदि ३ सोमे श्रीमूलसंघे भ० श्रीविद्यानन्दि भट्टारक श्रीभुवनकोति भ० श्रीज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हूंबड साह चांदा, भार्या रेमाई......२" ।
इन अभिलेखोंस स्पष्ट है कि विद्यानन्दिने मन्दिर-प्रतिष्ठा और मूर्ति-प्रतिष्ठामें पूर्ण योगदान दिया था । साह लखराजने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति खरीद कर इन्हें अर्पित की थी 1 पंचस्तिकायको पुष्पिकामें बताया गया है ___ "स्वस्ति श्रीमलसंघे हुँबड़ जातीय सा० कान्हा भार्या रामति..... एतेषां मध्ये सा० लखराजेन मोयित्वा पंचास्तिकायपुस्तकं श्रीविद्यानंदिने ज्ञानावर्णी कर्मक्षयार्थ दत्तं शुभं भवत्तु" ।
इनके शिष्य ब्रह्माजितने भडौंच में हनुमत्चरितकी रचना की है। इनके अन्य शिष्य छाडने वि० सं० १५९१ से भडौंच में धन्यकुमारचरितकी एक प्रति लिखी है । इनके तृतीय शिष्य ब्रह्मधर्मपालने सं० १५०५ में एक मूर्तिको स्थापना की है।
विद्यान्दिने सुदर्शनचरितकी रचना की है। इस अन्धकी प्रशस्तिमै पूर्वा चार्योका स्मरण करते हुए अपनी गुर्वावलि अंकित की है। लिखा है
श्रीमूलसधे बरभारतीये गच्छे बलात्कारगणेऽतिरम्ये ।
श्रीकुन्दकुन्दास्यमुनीन्द्रवंशे जातः प्रभाचन्द्रमहामुनीन्द्रः ।।
पट्टे सदीये मुनिपयनन्दो भट्टारको भव्यसरोजभानुः ।
जातो जगत्त्रयहितो गुणरत्लसिन्धुः कुर्यात् सतां सारसुख यतीशः ।।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराज जैन मन्थमाला, प्रथाक ८, सोलापुर, वि० सं० २०१४
लेखांक ४२७-४३३ ।
२. बद्दी, लेखांक २५७,३५६ ।
३. बही, लेखांक ४३५ ।
सत्पपद्माकरभास्करोऽत्र देवेन्द्रकीतिनिचक्रवर्ती ।
तत्पादपङ्कजसुभक्तियुक्तो विद्यादिनन्दी चरितं चकार ।।
तत्पादपट्टेऽजनि मल्लिभूषणगुरुचारित्रचूडामणि:
__ संसाराम्बुधितारणकचतुरश्चिन्तामणिः प्राणिनाम् ।
सूरिश्रीश्रुतसागरो गुणनिधि: श्रीसिंहनन्दी गुरु:
___ सर्वे ते यतिसत्तमाः शुभतराः कुर्वन्तु वो मङ्गलम् ।।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि सूरत-शाखाके बलात्कारगणके आचार्यों में देवेन्द्र कोतिके शिष्य विद्यानन्दि हैं। ग्रन्थक भारम्भमें भी गुरुपरम्पराका स्मरण किया गया है।
विद्यानन्दिके गृहस्थ जीवन सम्बन्धी कोई भी वृत्तान्त ग्रन्थप्रशस्तियोंमें उपलब्ध नहीं होता है। केवल एक पट्टावली में 'अष्टशाखाप्राग्वाटवंशावतंस' तथा 'हरिराजकुलोद्योतकर कहा गया है, जिससे ज्ञात होता है कि ये प्राग्वाट पौरवाड़ी जातिके थे तथा इनके पिताका नाम हरिराज था । पोरवाड़ जातिमें अथवा उसके निदी पक वर्ग में थाट शालाओंकी मान्यता प्रचलित रही होगी । इस जातिका प्रचार प्राचीनकालमें गुजरात प्रदेशमें रहा है। इस प्रदेशकी प्राचीन राजधानी नीमाल थी । इश प्रागवाट जातिमें विद्यानन्दिके गुरुभट्टारक देवेन्द्रकीतिका विशेष सम्मान रहा है। इन्होंने पौरपाटान्वयकी अशाखाबाले एक श्रावक द्वारा वि० सं० १४९३ में एक जिनमूर्तिकी स्थापना करायी थी।
"संवत् १४९३ शाके १३५८ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरी दिने मूलनक्षत्रे श्री मलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कून्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्रोप्रभाचन्द्रदेवा: तत्पट्टे वादिवादीन्द्र भ० पद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे श्रीदेवेन्द्रकीतिदेवाः पौरपाटान्चये अष्टशाखे आहारदानदानेश्वर सिंघई-लक्ष्मण तस्य भार्या अखसिरी कुक्षि समुत्पन्न अर्जुन........।" ____ अतएव स्पष्ट है कि प्राग्वाट, पौरपाट और पोरवाड़ एक ही जातिके वाचक हैं। डॉ० हीरालालजी जैनका अनुमान है कि भट्टारक देवेन्द्रकीति भी इसी जातिमें उत्पन्न हुए होंगे और उन्हींके प्रभावसे विद्यानन्दि भी दीक्षित हुए होंगे। वि० सं०१४९९ के मतिलेखमें उन्हें देवेन्द्रकीतिका शिष्य कहा गया है, पर वि०
१. हा.हीरालाल जैन, सुदर्शनधरित, सन् १९७०, इलोक १२।४५-५० ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४३९ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ४२५ ।
४. सुदर्शनपरित, सम्पादक हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीछ, दिल्ली, सन् १९५०
प्रस्तावना, पृ. १६ ।
संवत् १५१३ के मूर्तिलेखमें उनका श्रीदेवेन्द्रफीति दीक्षित आचार्य श्रीविद्या नन्दिके रूपमें उल्लेख आया है। संवत् १५३७ के मुत्ति लेखमें देवेन्द्रकीतिपदे प्रतिष्ठित विद्यानन्दिको बताया है । इससे स्पष्ट है कि वे संवत् १५१३ के पश्चात् और संवत् १५३७ के पूर्व भट्टारक गद्दीपर आसीन हो चुके थे। श्रीजोहरा पुरकरने वि० सं० १४२९-१५३७ उनका भट्टारककाल माना है।
विद्यानन्दिने पर्याप्त भ्रमण किया था । पद्दावली के अनुसार उन्होंने सम्मेद शिखर, चम्पा, पावा, उर्जयन्तगिरि आदि समस्त तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा की थी। इनका सम्मान राजाधिराज महामण्डलेश्वर वच्चाङ्ग-गङ्ग-जयसिंह-व्याघ-नरेन्द्र आदिके द्वारा किया गया था। इनके द्वारा प्रतिष्ठित करायी गयी मूर्तियोंमें हूँबड़जाति भावकोंक उल्लेख अधिक आये हैं । अन्यजति और बर्ग सम्बन्धी गि काठा बांगडमंदा महारा:ति, राकवालजाति, गोलश्रृंगार वंश, पल्लोवालजाति, एवं अग्रोतकान्वय (अग्रवाल) के नाम प्रास होते हैं ।
पट्टालियों, मतिलेखों एवं ग्रन्थप्रशस्तियोंके आधारपर विद्यानन्दिका समय वि सं १४६१-१५३८ पाया जाता है । इस कार्यकालके भीतर उन्होंने धर्मप्रचारके लिये धर्मोपदेशके साथ मति एवं मन्दिरोंकी प्रतिष्ठा करायी।
भट्टारक विद्यानन्दिके द्वारा सुदर्शनचरितनामक परितकाध्यकी रचना गन्धार नगर या गन्धारपुरीमें की गयी है। इस गन्धार नगरका उल्लेख अन्य आचार्योंके ग्रन्थोंमें भी मिलता है । सम्भवतः ग्रह सूरत नगरका ही नामान्तर है ! इस कृतिकी रचना वि० सं० १३५५ के लगभग सम्पत्र हुई है। __इस ग्रन्थमें पुण्यपुरुष सुदर्शनका आख्यान वर्णित है 1 कथावस्तु १२ अधि कारोंमें विभक्त है। प्रथम और द्वितीय अधिकारमें तीर्थंकर महावीरका विपूला चलपर समवशरण प्रस्तुत होता है और उसमें गौतम गणधर उनसे धर्मविषयक प्रश्न पूछते हैं। स्तवनप्रकरणमें गणघरोंक नमस्कारके पश्चात् कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पात्रकेसरो, अकलंक, जिनसेन, रत्नकोति, गुणभद्र, प्रभाचन्द्र, देवेन्द्रकोति और आशाधरका संस्मरण किया है । श्रेणिक जिनेन्द्रको पूजा-स्तुतिके अनन्तर गौतम गणधरसे पञ्चम अन्तःकृत केवलो सुदर्शनमुनिके चरित-वर्णनकी प्रार्थना करते हैं। गौतम गणधर उस चरितका वर्णन करते हैं । विद्यानन्दिने इस प्रकार तृतीय अधिकारमें सुदर्शनके जन्ममहोत्सवका वर्णन किया है । चतुर्थ अधिकारमें सुदर्शन-मनोरमा विवाह, पंचममें सुदर्शनकी श्रेष्टि पद प्राप्ति, षष्ठमें कपिलका प्रलोभन तथा रानी अभयमतीका व्यामोह, सप्तममें अभयाकृत उपसर्ग निवारण और शीलप्रभाव वर्णन, अष्टममें सुदर्शन और
मनोरमाके पूर्वभव, नवममें द्वादशानुप्रेक्षा, दशममें सुदर्शनका दीक्षाग्रहण और तप, एकादशमें केवलज्ञानोत्पत्ति और द्वादशमें सुदर्शनमुनिको मोक्षप्राप्तिका वर्णन आया है। समस्त ग्रन्थ अनुष्टुप छन्दोंमें निर्मित है। सन्तिमें छंदपरि वर्तन हुआ है | कविने प्रसंगवश सुभाषितोंका भी प्रयोग किया है | पुण्यका माहात्म्य बतलाते हुए लिखा है
पुण्येन दुरतरवस्तुसमागमोऽस्ति
पुण्यं विना तदपि हस्ततलात्प्रयाति ।
तस्मात्सुनिर्मलधियः कुरुत प्रमोदात्
पुण्यं जिनेन्द्रकथितं शिवशर्ममीजम् ॥
इस प्रकार सुदर्शनचरितके द्वारा कपिने पुराण, धर्मशास्त्र और दर्शनका प्रणयन किया है । इस अन्धकी कुल इलोकसंख्या १३६२ है ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक देवेन्द्रकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक विद्यानंदी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Vidyanandi ( Prachin )
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