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#BhattarakVijaykirti16ThCentury
भट्टारक सकलकीति ने अपने त्याग एवं विद्वत्तापूर्ण जीवन से गुजरात और राजस्थानमें भट्टारकसंस्थाको लोकप्रिय बना दिया था। इनके पश्चात् भुबन कीति और ज्ञानभूषणने भी जैनपरम्परा के प्रचार और प्रसारमें पूर्ण योगदान दिया । विजयकोति भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य थे और सकलकी ति द्वारा स्थापित भट्टारकगद्दीपर आसीन हुए थे। विजय कीतिके प्रमुख शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र थे, जिन्होंने अपने गुावी गर्माप्त की है : गग सट्टारक विजयकीति के प्रारम्भिक जीवनके सम्बन्धमें निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती । पर शुभचन्द्र के गीतों में पाये जानेवाले उल्लेखोसे यह ज्ञात होता है कि इनके पिताका नाम शाहगंग और माताका नाम कुंरि था। इनका शरीर कामदेवके समान सुन्दर था । बाल्यकाल में इन्होंने विशेष अध्ययन नहीं किया था, पर भट्टारक ज्ञानभूषण के सम्पर्क में आते ही इन्होंने गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार जैसे सैद्धान्तिक ग्रन्थों के साथ न्याय, काव्य, व्याकरण आदि विषयोंका भा अध्ययन किया था। युवावस्था में ही इन्होंने साधुजीवन ग्रहण कर लिया था और पूर्णतः संयमका पालन कर कठोर साधना स्वीकार की थी।
बिजयकौतिकी साधनाका वर्णन आचार्य शुभचन्द्र ने-रूपक काव्य के रूपमें किया है । बताया है कि जब कामदेवको आचार्य विजयकीतिको सुन्दरता एवं संयमका ज्ञान हुआ तो वह ईष्यासे जलभुन गया और क्रोधित होकर उसने उन्हें संयमसे विचलित करनेका निश्चय किया। उसने देवाङ्गनाओंको बुलाया और उन्हें विजयकीतिक संयमको भंग करनेका आदेश दिया । विजयकोतिकी साधनाके समक्ष देवाङ्गनाएं अपने क्रियाकलापमें निष्फल हो गयीं। इसके पश्चात् कामदेवने क्रोध, मान, मद एवं मिथ्यात्वकी सेनाएकन की। चारों ओर वसन्त ऋतु व्याप्त हो गयी और अमराइयोंमें कोयलकी मधुर कूज सुनायो पड़ने लगी । रणभेरो बज उठो और आचार्य विजयकीतिको कामदेवकी सेनाने
आवेष्ठित कर लिया। क्रोध, मान आदि विकारोंने अपने-अपने प्रहार आरम्भ किये, पर विजयकीतिके संयमके समक्ष कामदेवका एक भी सैनिक ठहर न सका । मोहसेनामें भगदड़ मच गयो । विजयकीति ध्यानमें तल्लीन हो गये। उनके समा, दम और यमके समक्ष मदनराज पराजित हो गया तथा विजयकीति के चारिश्रकी निर्मलता सर्वत्र व्याप्त हो गयी । श्रेणिकचरितमें विजयकीतिको यतिराज, पुण्यमूर्ति आदि विशेषणों द्वारा उल्लिखित किया है
जयति विजयकोति: पुण्यमूर्तिः सुकीर्तिः,
जयतु च यतिराजो भूमिपैः स्पृष्टपादः ।
नयलिनहिमांशुमानभूषस्य पट्ट
विविधपर-विवादि क्षमांधरे वज्रपात:' ।।
विजयकीतिने अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योका सम्पादन किया है। वि० सं० ११५५७, १५६०, १५६१, १५६४, १५६८ एवं १५७० आदि वर्षों में सम्पन्न होनेवाली प्रतिष्ठाओंमें इन्होंने भाग लिया है । वि० सं० १५६१ में इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी महत्ताको व्यक्त करने के लिए रत्नत्रयकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की थी।
भट्टारक विजयकीर्ति ज्ञानभूषणके पट्टपर आसीन हुए थे। ज्ञानभूषण वि० सं० १५५७ तक गद्दोपर आसीन रहे हैं। असएव वि० सं० १५५७–१५७० तक इनके भट्टारकपदपर आसीन रहनेका उल्लेख मिलता है। श्री डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवालने विषयकीतिक जीवनका स्वर्णकाल वि० सं० १५५२ १५७० माना है । उन्होंने लिखा है-"इन १८ वर्षों में इन्होंने देशको एक नयी सांस्कृतिक चेतना दी तथा अपने त्याग एवं तपस्वी जीबनसे देशको आगे बढाया । संवत् १५५७ में इन्हें भट्टारकपद अवश्य मिल गया था।" अतएव विजयकोतिका समय विक्रमको १६वीं शताब्दी है। डॉ. जोहरापुरकरने लिखा है-"भट्टारक ज्ञानभूषणके पट्टशिष्य भट्टारक विजयकीर्ति हुए।
आपने संवत् १५५७ की माघ कृष्णा पंचमीको तथा संवत् १५६७ की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको शान्तिनाथमतियों तथा संवत् १५६१ की वैशाख शुक्ला दशमीको रत्नत्रयमति स्थापित की । संवत् १५५८ की फाल्गुन शुक्ला दशमीको श्रीसंघने अपनी मांगनी आर्यिका देवीके लिए पचनन्दि-पंचविंशतिकी प्रति लिखवायो थी। पट्टावलोके अनुसार मल्लिराय, भेरवराय और देवेन्द्ररायने विजयकीतिका सम्मान किया था।"
विजयकीति शास्त्रार्थी विद्वान थे । इन्होंने अपने विहार और प्रवचन द्वारा बनधर्मका प्रचार एवं प्रसार किया था। इनके द्वारा लिखित कोई भी ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है।
१. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पृ. ६६ पर उड़त ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखात ६४ |
३. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित, जयपुर, प.६७ ।
४. महारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० १५४-१५५ ।
गुरु | आचार्य श्री ग्यानभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक विजयकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattarakVijaykirti16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टारक विजयकीर्ति 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 30-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भट्टारक सकलकीति ने अपने त्याग एवं विद्वत्तापूर्ण जीवन से गुजरात और राजस्थानमें भट्टारकसंस्थाको लोकप्रिय बना दिया था। इनके पश्चात् भुबन कीति और ज्ञानभूषणने भी जैनपरम्परा के प्रचार और प्रसारमें पूर्ण योगदान दिया । विजयकोति भट्टारक ज्ञानभूषणके शिष्य थे और सकलकी ति द्वारा स्थापित भट्टारकगद्दीपर आसीन हुए थे। विजय कीतिके प्रमुख शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र थे, जिन्होंने अपने गुावी गर्माप्त की है : गग सट्टारक विजयकीति के प्रारम्भिक जीवनके सम्बन्धमें निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती । पर शुभचन्द्र के गीतों में पाये जानेवाले उल्लेखोसे यह ज्ञात होता है कि इनके पिताका नाम शाहगंग और माताका नाम कुंरि था। इनका शरीर कामदेवके समान सुन्दर था । बाल्यकाल में इन्होंने विशेष अध्ययन नहीं किया था, पर भट्टारक ज्ञानभूषण के सम्पर्क में आते ही इन्होंने गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार जैसे सैद्धान्तिक ग्रन्थों के साथ न्याय, काव्य, व्याकरण आदि विषयोंका भा अध्ययन किया था। युवावस्था में ही इन्होंने साधुजीवन ग्रहण कर लिया था और पूर्णतः संयमका पालन कर कठोर साधना स्वीकार की थी।
बिजयकौतिकी साधनाका वर्णन आचार्य शुभचन्द्र ने-रूपक काव्य के रूपमें किया है । बताया है कि जब कामदेवको आचार्य विजयकीतिको सुन्दरता एवं संयमका ज्ञान हुआ तो वह ईष्यासे जलभुन गया और क्रोधित होकर उसने उन्हें संयमसे विचलित करनेका निश्चय किया। उसने देवाङ्गनाओंको बुलाया और उन्हें विजयकीतिक संयमको भंग करनेका आदेश दिया । विजयकोतिकी साधनाके समक्ष देवाङ्गनाएं अपने क्रियाकलापमें निष्फल हो गयीं। इसके पश्चात् कामदेवने क्रोध, मान, मद एवं मिथ्यात्वकी सेनाएकन की। चारों ओर वसन्त ऋतु व्याप्त हो गयी और अमराइयोंमें कोयलकी मधुर कूज सुनायो पड़ने लगी । रणभेरो बज उठो और आचार्य विजयकीतिको कामदेवकी सेनाने
आवेष्ठित कर लिया। क्रोध, मान आदि विकारोंने अपने-अपने प्रहार आरम्भ किये, पर विजयकीतिके संयमके समक्ष कामदेवका एक भी सैनिक ठहर न सका । मोहसेनामें भगदड़ मच गयो । विजयकीति ध्यानमें तल्लीन हो गये। उनके समा, दम और यमके समक्ष मदनराज पराजित हो गया तथा विजयकीति के चारिश्रकी निर्मलता सर्वत्र व्याप्त हो गयी । श्रेणिकचरितमें विजयकीतिको यतिराज, पुण्यमूर्ति आदि विशेषणों द्वारा उल्लिखित किया है
जयति विजयकोति: पुण्यमूर्तिः सुकीर्तिः,
जयतु च यतिराजो भूमिपैः स्पृष्टपादः ।
नयलिनहिमांशुमानभूषस्य पट्ट
विविधपर-विवादि क्षमांधरे वज्रपात:' ।।
विजयकीतिने अनेक सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योका सम्पादन किया है। वि० सं० ११५५७, १५६०, १५६१, १५६४, १५६८ एवं १५७० आदि वर्षों में सम्पन्न होनेवाली प्रतिष्ठाओंमें इन्होंने भाग लिया है । वि० सं० १५६१ में इन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी महत्ताको व्यक्त करने के लिए रत्नत्रयकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की थी।
भट्टारक विजयकीर्ति ज्ञानभूषणके पट्टपर आसीन हुए थे। ज्ञानभूषण वि० सं० १५५७ तक गद्दोपर आसीन रहे हैं। असएव वि० सं० १५५७–१५७० तक इनके भट्टारकपदपर आसीन रहनेका उल्लेख मिलता है। श्री डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवालने विषयकीतिक जीवनका स्वर्णकाल वि० सं० १५५२ १५७० माना है । उन्होंने लिखा है-"इन १८ वर्षों में इन्होंने देशको एक नयी सांस्कृतिक चेतना दी तथा अपने त्याग एवं तपस्वी जीबनसे देशको आगे बढाया । संवत् १५५७ में इन्हें भट्टारकपद अवश्य मिल गया था।" अतएव विजयकोतिका समय विक्रमको १६वीं शताब्दी है। डॉ. जोहरापुरकरने लिखा है-"भट्टारक ज्ञानभूषणके पट्टशिष्य भट्टारक विजयकीर्ति हुए।
आपने संवत् १५५७ की माघ कृष्णा पंचमीको तथा संवत् १५६७ की वैशाख शुक्ला द्वितीयाको शान्तिनाथमतियों तथा संवत् १५६१ की वैशाख शुक्ला दशमीको रत्नत्रयमति स्थापित की । संवत् १५५८ की फाल्गुन शुक्ला दशमीको श्रीसंघने अपनी मांगनी आर्यिका देवीके लिए पचनन्दि-पंचविंशतिकी प्रति लिखवायो थी। पट्टावलोके अनुसार मल्लिराय, भेरवराय और देवेन्द्ररायने विजयकीतिका सम्मान किया था।"
विजयकीति शास्त्रार्थी विद्वान थे । इन्होंने अपने विहार और प्रवचन द्वारा बनधर्मका प्रचार एवं प्रसार किया था। इनके द्वारा लिखित कोई भी ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है।
१. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पृ. ६६ पर उड़त ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखात ६४ |
३. राजस्थानके जैन संत, व्यक्तित्व एवं कृतित, जयपुर, प.६७ ।
४. महारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० १५४-१५५ ।
गुरु | आचार्य श्री ग्यानभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक विजयकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टारक शुभचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bhattarak Vijaykirti 16 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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BhattarakVijaykirti16ThCentury
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