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#BhattavosariPrachin
आचार्य भट्टयोसरि ज्योतिष और निमित्तशास्त्रके आचार्य हैं । ये दिगम्बरा चार्य दामनन्दिके शिष्य थे । इन्होंने स्वयं लिखा है--
जंदामनंदिगुरुणोमणयं आयाण जाणि (य) मुझं ।
तं आपणाणतिलए बोसरिणा भन्नए पयह ॥
"श्रीमद्दामनन्दिगुरुसकाशात् यत् मया वोसरिणो आया-आयानां मनाक् गुह्यं परिज्ञातमस्ति तदेतस्मिन् स्वयं विरच्यमानायज्ञानतिलकाभिधानशास्त्र नतनतं दुस्तरसंसारसागरोत्तीर्ण सर्वजं बीरजिन सिद्ध संघं पुलिदिनी च नत्वा प्रकटं भव्यत इति समुदायार्थ: ।"
स्पष्ट है कि भट्टवोसरिने गुह दामनन्दिके पाससे आयौंका रहस्य प्राप्तकर आय-विषयक सम्पूर्ण शास्त्रों के साररूपमें यह ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थपर स्वयं अन्धकारकी रची हुई संस्कृतटीका भी है । टीका अथवा मुलग्रन्थमें रचयिताने रचनासमयका निर्देश नहीं किया है। ग्रन्थके सन्धि वाक्यों में निम्न प्रकार पुलिसका प्राप्त होती है -.
इति दिगम्बराचार्य-पंडितश्रीदामनन्दि - शिष्यभट्टबोरिविरचिते साय श्रीटीकायज्ञानतिलके आयस्वरूपप्रकरणं प्रथमम् ।।
प्रत्येक सन्धि-वाक्य के पूर्व एक संस्कृत-पद्य आता है। इन पद्यों में भट्टयोसरि का जीवनपरिचय प्राप्त होता है । प्रथम सन्धिका पद्य निम्न प्रकार है--
प्राच्योदीच्यकुले हिजोच्युत इति श्यातस्तस्य यः
श्रीनारायणसज्ञयाभवदतः सूनुः कुलीनानणीः ।
१. अध्या तरंगि, अन्तिम प्रशस्ति, गधभाग ।
२. आयज्ञानतिलक, पाण्डुलिपि जैन सिद्धान्त भवन, आरा, गाथा २ ।
३. वहीं, द्वितीय गाथाकी टीका ।
४. वही, प्रथम संधि ।
विद्वान दुर्लभराज इत्यभिहितस्तस्यात्मजो बोसरिः
स्वे शास्त्रे रचनां चकार मचिगनायस्वरूपस्थितिम् ।'
इस पद्यसे ज्ञात होता है कि प्राच्य-उदीच्य-ब्राह्मण वंशमें नारायण नामक व्यक्ति हुआ। इनका पुत्र दुर्ल भराज और दुर्लभराजका पुत्र भट्टवोसरि हुमा। भट्टबोसरिके भाईका नाम 'कोक' बताया गया है। पञ्चम प्रकरणके अन्तिम पद्मसे कोककी सूचना प्राप्त होती है
यत्तत्कालसमागतस्य जनयत्युल्लाममात्रादपि
मानचोलिमार सो कतिः ।
तत्संवत्सरमोहजालपटलमध्वंसदिव्योषधं
कार्य ज्ञानमिदं चकार कचिरं कोकानुजो बोसरि ॥
भट्टवोसरिने आयज्ञानग्रन्थके पातप्रकरणमें 'अहिलपाटलपुर'का निर्देश किया है। इस पद्यसे यह भी ज्ञात होता है कि सुग्रीव आदि आचायोने जिस महाशास्त्रको रचना की थी, उसका अध्ययन आचार्य दामनन्दिने किया और दामनन्दिसे समस्त विषयका परिजान भट्टवोसरिने प्राप्त किया। पद्य निम्न प्रकार है
सुग्रीवादिमुनीन्द्रगुम्फितमहाशास्त्रेषु यज्जस्पितं
साम्नायं गुरुदामनन्दिवचसा विज्ञाय सचं पुनः ।।
संक्षेपादणहिल्लपाटलपुरि प्रज्ञापदं शानिनं
पातसमाश्रयं तदधृता चक्र स्फुटं बोसरि ॥
अन्तिम सन्धि-वाक्यके पूर्व भी एक प्रशस्तिपञ्च आया है, पर पद्य मशुद्ध है। इस पद्यसे भट्ट वोसरिका दिगम्बराचार्यत्व सिद्ध होता है । पधमें बताया है कि महादेव नामके विद्वानसे अल्प विषयको जानकर सुप्रणयिनीके रूपमें शाब्दी कलाको प्राप्तकर कोकके भाई कोसरि सुधीने यह शास्त्र रचा, जो कि स्फुरायमान वर्णावाली आयश्रीके सोमाग्यको प्राप्त है। अथवा उस आयनोसे सुशोभित है। यही कारण है कि आयज्ञानकी स्वोपज्ञ टीकाका नाम आयश्री है। पद्य निम्न प्रकार है--
महादेवान्मांत्री प्रमितविषर्य रागविमुखो
विदित्वा श्रीकोलविसमयशा सुप्रणयनी ।।
१. प्रथम प्रकरणका अन्तिम पञ्च, आयज्ञानतिलक ।
२. वहीं, पंचम प्रकरण ।
३. बही, तितीय प्रकरण ।
कलां दध्याच्छाब्दी विरचर्यादर्द शास्त्रमनुज;
स्फुरद्वायत्रीमुभगमधुना बोसरिसुधीः ॥
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि वोसरिके पिताका नाम दुर्लमराज, दादा का नाम नारायण और बड़े भाईका नाम कोक था। यह प्राध्य-उदोश्य ब्राह्मण थे। जैन गुरुओंके प्रभावसे ये जैन धर्म में दीक्षित हए। दिगम्बराचार्य दामनन्दि इनके गुरु थे । ये मन्त्री, मन्त्रवादी, सुधी और रागविमुख-विरक्त दिगम्बराचार्य थे।
श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने बताया है कि दामनन्दिके शिष्य भट्टबोरि वही हैं, जिनका श्रवणबेलगोलके अभिलेख ५५ में उल्लेख है । इन्होंने महाबादी विष्णुभट्टको पराजित किया था। ये दामनन्दि-अभिलेखानुसार प्रभाचन्द्राचार्यके सघर्मा थे, जिनके चरण धाराधिपत्ति भोजराज के द्वारा पूजित थे और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दि आचार्यका सधर्मा लिया है, जिन्होंने कुवादि दैत्य धूर्जटोको बादमें पराजित किया था।
श्री मुख्तार साहबका अनुमान है कि धूर्जटी और महादेव दोनों पर्याय वाची शब्द हैं। आश्चर्य नहीं कि जिन महादेवका उक्त प्रशस्तिपनमें उल्लेख है, वे ये ही धजंटी हों और इनकी तथा विष्णुभट्टकी घोर पराजयको देखकर हो भट्टबोसरि जैनधर्म में दीक्षित हुए हों और इसीसे उन्होंने महादेवसे प्राप्त शानको 'प्रमितविषय' विशेषण दिया हो और दामनन्दिसे प्राप्त ज्ञानको 'अमनाक' विशेषणसे विभूषित किया हो।
इस प्रकार प्रभाचन्द्रका सघर्मा होनेसे भट्ट वोसरिका समय भी भोजराजके समकालीन माना जा सकता है । दामनन्दि तो भोजराजके समकालीन हैं हो, अत: उनके शिष्यका समय भी ई. सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध होना चाहिए। ग्रन्यके अन्तरंग परीक्षणसे भी यही सिद्ध होता है। आयज्ञानका प्रचार १३ वौं पाती सक ही प्राप्त होता है। इसके पश्चात् प्रश्नशास्त्रमें आय वाली कल्पना लुप्तप्राय दिखलाई पड़ती है । ग्रहयोग प्रकरणमें जिन गोगोंकी चर्चा की गयी है उन योगोंकी स्थिति दशम शताब्दीके उत्तरार्ध या ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वार्षकी है। भाषाशैली और विषय इन दोनों ही दृष्टियोंसे गाय मानसिलक ११ वीं शताब्दीके बादकी रचना प्रतीत नहीं होती।
इस ग्रन्धमें कुल ४१५ गाथाएं और २५ प्रकरण हैं। प्रश्नशास्त्रकी दृष्टिसे १. आयशा०, २५वें प्रकरणका अन्तिम पद्य । २. पुरातन जैनवाक्य सूची, वीर सेवा मन्दिर संस्करण, सन् १९५०, पृ.१०३ ।
यह महत्त्वपूर्ण है । इसमें ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, वान, वृष और ध्वाक्ष इन आठ आयों द्वारा प्रश्नोंके फलका सुन्दर वर्णन किया है । इन्होंने आठ आयों द्वारा स्थिर चक्क और चल-चनादिककी रचना कर विविध प्रश्नोंके उत्तर दिये गंप हैं । अन्यत्र कारण निम्न प्रकार है
१.आयस्व-आठ आयोंक स्वरूप, गुण और आकृतियों का विश्लेषण ४७ गाथाओं में किया है।
२. पातविभाग - मन, मद्ध-विमुक्त, रूद्ध-गृहीत-विमुक्त, संस्थान, अनु कूल, प्रतिकूल, चलिस, सरित, अभिमुखे, पूर्वमुम्ब, अन्तरित आदि १६ पातोका कथनकर उनके आयरूप अक्षरोंका विवेचन किया है। इसमें २४ गाथाएं है।
३. आवावस्था--१९, गाथाओंमें मित्र, शुभ, अशम, रिपु आदि सम्बन्धों द्वारा आयोंकी अवस्थाओंका नाथन किया गया है।
४. ग्रह-योग-इस प्रकरणमें २८ गाथा है। ग्रहोंके मूलतः दो भेद किये हैं-१. सौम्य और २. पाप । इन दोनों ही प्रकारके ग्रहों के आयवर्ण एवं शुभाशुभ फलोका निर्देश किया है।
५. पृच्छाकार्यज्ञान–१६ गाथाओंमें पृच्छकको चर्या, वेशा, दृषि एवं वार्ता लाप आदिके द्वारा आयोका आनयन !
६. शुभाशुभ-इसमें १७ गाथाएँ हैं । इनमें आयों द्वारा आये जग शुभाशुभ वर्णोपरसे फलादेश बतलाया गया है।
७. लाभालाभ---इस प्रकरण १० गाथाएँ हैं। इनमें पृच्छकके प्रश्नानुसार आयों का निर्धारण कर लाभालाभ फलादेशका वर्णन किया है।
८. राग-निर्दश- इसमें २१ गाथाएं हैं। रोगके सम्बन्धमें किये गये प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। सर्वप्रथम रोगकी साध्यामाध्यतापर विचार किया गया है । पश्चात् कितने समय तक रोग रहेगा, इसपर भी विचार किया गया है ।
९. चन्या-परीक्षण-इस प्रकरणमें ११ गाथाएँ हैं। श्रावधर्मके परिपालन हेतु विवाह आदि क्रियाएँ आवश्यक है। अतएव कन्याको परीक्षाका वर्णन इन गाथाओंमें आया है। किस प्रकारके प्रश्नमें भार्या बननेवालो कन्या सुशोल होगी, यह प्रश्नशास्त्रकी दृष्टिसे विचार किया है।
१०. भू-लक्षण-इस प्रकरण में २५, गाथाए" हैं। प्रश्नानुसार किस प्रकारको भूमि कुल, गोत्र, धन इत्यादि करनेवाली होगी और किस प्रकारको भूमि हानि करनेवाली होगी, इसका विवेचन किया है।
१२. परिमान--- मायाम प्रकक प्रश्नाक्षरों द्वारा गर्भसम्बन्धी गुह्य प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है।
१२. विवाह-इस प्रकरणमें केवल पाँच गाथाएँ हैं। इनमें विवाहसम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं।
१३. गमनागमन -इस प्रकरणमैं १ गाथाएँ हैं। विदेश या दूर देश गये हुए व्यक्तिके लौट कर आने के समयका विचार किया गया है ।
१४. परिचित ज्ञान–५ गाथाओंमें कौन व्यक्ति किस समय मित्र या शत्रुका रूप प्राप्त करेगा तथा किस परिचितसे लाभालाभ होगा-इसका विचार किया गया है।
१५. जय-पराजय--१३ गाथाओंके जय-पराजयका विचार किया गया है। किस समय आक्रमण करनेसे विजय लाभ होगा और किस समय आक्रमण करनेपर पराजय होगी आदि बातोंका प्रश्नाक्षरों द्वारा विचार किया गया है।
१६, वर्षा-लक्षणमें २८ गाथाएँ हैं। वर्षाकालमें आकर पृच्छकके वर्षा सम्बन्धी प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है । बताया है कि मनुष्योंको सुख, बुद्धि और ऐश्वर्यकी प्राप्ति अन्न द्वारा होती है और अन्नका हेतु वर्षों है । अतएव वर्षा सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर इस प्रकरण में दिया गया है।
१७. अर्ध-काण्ड-इस प्रकरणमें २१ गाथाएं हैं और तेजी-मन्दीका विचार गया है।
१८. नष्ट-परिज्ञान-इस प्रकरण में ३१ गाथाएँ हैं और नष्ट हुई, चोरी गयो वस्तुका प्रश्नाक्षरों द्वारा विचार किया गया है।
१९. तपोनिहि-परिज्ञान-इस प्रकरणमें ७ गाथाएं हैं ! संसारसे विरक्त होनेवाला व्यक्ति अपनी दीक्षाका निर्वाह कर सकेमा या नहीं आदि प्रश्नोंका विचार किया गया है।
२०. जीवित मान--इस प्रकरणमें ७ गाथाएं हैं। ग्रहदशावश आयुका परिज्ञान प्राप्त करनेकी विधिका वर्णन है ।
२१. नामाक्षरोद्देश-इस प्रकरणमें ११ गाथाएं हैं । आरम्भमें बताया है कि जैसे दानके बिना धन, चन्द्र के बिना रात्रि शोभित नहीं होती उसी प्रकार नामके बिना विद्यमान वस्तु भी शोभित नहीं होती। अत: प्रश्नाक्षरविधि द्वारा वस्तु और व्यक्तिके नामका वर्णन किया है।
२२. प्रश्नाक्षरसंख्या-इस प्रकरणमें ११ गाथाएँ हैं। प्रश्नाक्षरगणना द्वारा शुभाशुभ फलका विवेचन किया है।
२३. संकीर्ण---इस प्रकरण में १६ गाथाएं हैं और विविध प्रकारके प्रश्नोंके उत्तर निकालनेकी विधि वर्णित है।
२४. काल-सात गाथाओंमें नाना प्रकारके किये गये प्रश्नोंके फल कब प्राप्त होंगे इसका विचार किया है।
२५. चक्रपूजा-इसमें पाँच गाथाएं हैं और अन्तमें १२ पद्यों में एक स्तुति अंकित की गयी है । अन्तमें १२ मन्त्र भी निबद्ध हैं।
इस प्रकार प्रश्नाक्षरों द्वारा फलादेश विधिका निरूपण किया है । प्रश्न फर्ताकी शारीरिक शुद्धिके साथ मान्त्रिक गदि भी अपेक्षित है। आचार्य तम मनकी शुद्धिका वर्णनकर अन्तमें मान्त्रिक शुद्धिका विधान किया है। प्रश्न शास्त्रको दृष्टिसे यह ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है।
गुरु | आचार्य श्री दामनन्दी जी |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टवोसरी जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhattavosariPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भट्टवोसारी (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 08-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 08-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य भट्टयोसरि ज्योतिष और निमित्तशास्त्रके आचार्य हैं । ये दिगम्बरा चार्य दामनन्दिके शिष्य थे । इन्होंने स्वयं लिखा है--
जंदामनंदिगुरुणोमणयं आयाण जाणि (य) मुझं ।
तं आपणाणतिलए बोसरिणा भन्नए पयह ॥
"श्रीमद्दामनन्दिगुरुसकाशात् यत् मया वोसरिणो आया-आयानां मनाक् गुह्यं परिज्ञातमस्ति तदेतस्मिन् स्वयं विरच्यमानायज्ञानतिलकाभिधानशास्त्र नतनतं दुस्तरसंसारसागरोत्तीर्ण सर्वजं बीरजिन सिद्ध संघं पुलिदिनी च नत्वा प्रकटं भव्यत इति समुदायार्थ: ।"
स्पष्ट है कि भट्टवोसरिने गुह दामनन्दिके पाससे आयौंका रहस्य प्राप्तकर आय-विषयक सम्पूर्ण शास्त्रों के साररूपमें यह ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थपर स्वयं अन्धकारकी रची हुई संस्कृतटीका भी है । टीका अथवा मुलग्रन्थमें रचयिताने रचनासमयका निर्देश नहीं किया है। ग्रन्थके सन्धि वाक्यों में निम्न प्रकार पुलिसका प्राप्त होती है -.
इति दिगम्बराचार्य-पंडितश्रीदामनन्दि - शिष्यभट्टबोरिविरचिते साय श्रीटीकायज्ञानतिलके आयस्वरूपप्रकरणं प्रथमम् ।।
प्रत्येक सन्धि-वाक्य के पूर्व एक संस्कृत-पद्य आता है। इन पद्यों में भट्टयोसरि का जीवनपरिचय प्राप्त होता है । प्रथम सन्धिका पद्य निम्न प्रकार है--
प्राच्योदीच्यकुले हिजोच्युत इति श्यातस्तस्य यः
श्रीनारायणसज्ञयाभवदतः सूनुः कुलीनानणीः ।
१. अध्या तरंगि, अन्तिम प्रशस्ति, गधभाग ।
२. आयज्ञानतिलक, पाण्डुलिपि जैन सिद्धान्त भवन, आरा, गाथा २ ।
३. वहीं, द्वितीय गाथाकी टीका ।
४. वही, प्रथम संधि ।
विद्वान दुर्लभराज इत्यभिहितस्तस्यात्मजो बोसरिः
स्वे शास्त्रे रचनां चकार मचिगनायस्वरूपस्थितिम् ।'
इस पद्यसे ज्ञात होता है कि प्राच्य-उदीच्य-ब्राह्मण वंशमें नारायण नामक व्यक्ति हुआ। इनका पुत्र दुर्ल भराज और दुर्लभराजका पुत्र भट्टवोसरि हुमा। भट्टबोसरिके भाईका नाम 'कोक' बताया गया है। पञ्चम प्रकरणके अन्तिम पद्मसे कोककी सूचना प्राप्त होती है
यत्तत्कालसमागतस्य जनयत्युल्लाममात्रादपि
मानचोलिमार सो कतिः ।
तत्संवत्सरमोहजालपटलमध्वंसदिव्योषधं
कार्य ज्ञानमिदं चकार कचिरं कोकानुजो बोसरि ॥
भट्टवोसरिने आयज्ञानग्रन्थके पातप्रकरणमें 'अहिलपाटलपुर'का निर्देश किया है। इस पद्यसे यह भी ज्ञात होता है कि सुग्रीव आदि आचायोने जिस महाशास्त्रको रचना की थी, उसका अध्ययन आचार्य दामनन्दिने किया और दामनन्दिसे समस्त विषयका परिजान भट्टवोसरिने प्राप्त किया। पद्य निम्न प्रकार है
सुग्रीवादिमुनीन्द्रगुम्फितमहाशास्त्रेषु यज्जस्पितं
साम्नायं गुरुदामनन्दिवचसा विज्ञाय सचं पुनः ।।
संक्षेपादणहिल्लपाटलपुरि प्रज्ञापदं शानिनं
पातसमाश्रयं तदधृता चक्र स्फुटं बोसरि ॥
अन्तिम सन्धि-वाक्यके पूर्व भी एक प्रशस्तिपञ्च आया है, पर पद्य मशुद्ध है। इस पद्यसे भट्ट वोसरिका दिगम्बराचार्यत्व सिद्ध होता है । पधमें बताया है कि महादेव नामके विद्वानसे अल्प विषयको जानकर सुप्रणयिनीके रूपमें शाब्दी कलाको प्राप्तकर कोकके भाई कोसरि सुधीने यह शास्त्र रचा, जो कि स्फुरायमान वर्णावाली आयश्रीके सोमाग्यको प्राप्त है। अथवा उस आयनोसे सुशोभित है। यही कारण है कि आयज्ञानकी स्वोपज्ञ टीकाका नाम आयश्री है। पद्य निम्न प्रकार है--
महादेवान्मांत्री प्रमितविषर्य रागविमुखो
विदित्वा श्रीकोलविसमयशा सुप्रणयनी ।।
१. प्रथम प्रकरणका अन्तिम पञ्च, आयज्ञानतिलक ।
२. वहीं, पंचम प्रकरण ।
३. बही, तितीय प्रकरण ।
कलां दध्याच्छाब्दी विरचर्यादर्द शास्त्रमनुज;
स्फुरद्वायत्रीमुभगमधुना बोसरिसुधीः ॥
संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि वोसरिके पिताका नाम दुर्लमराज, दादा का नाम नारायण और बड़े भाईका नाम कोक था। यह प्राध्य-उदोश्य ब्राह्मण थे। जैन गुरुओंके प्रभावसे ये जैन धर्म में दीक्षित हए। दिगम्बराचार्य दामनन्दि इनके गुरु थे । ये मन्त्री, मन्त्रवादी, सुधी और रागविमुख-विरक्त दिगम्बराचार्य थे।
श्री जुगलकिशोरजी मुख्तारने बताया है कि दामनन्दिके शिष्य भट्टबोरि वही हैं, जिनका श्रवणबेलगोलके अभिलेख ५५ में उल्लेख है । इन्होंने महाबादी विष्णुभट्टको पराजित किया था। ये दामनन्दि-अभिलेखानुसार प्रभाचन्द्राचार्यके सघर्मा थे, जिनके चरण धाराधिपत्ति भोजराज के द्वारा पूजित थे और जिन्हें महाप्रभावक उन गोपनन्दि आचार्यका सधर्मा लिया है, जिन्होंने कुवादि दैत्य धूर्जटोको बादमें पराजित किया था।
श्री मुख्तार साहबका अनुमान है कि धूर्जटी और महादेव दोनों पर्याय वाची शब्द हैं। आश्चर्य नहीं कि जिन महादेवका उक्त प्रशस्तिपनमें उल्लेख है, वे ये ही धजंटी हों और इनकी तथा विष्णुभट्टकी घोर पराजयको देखकर हो भट्टबोसरि जैनधर्म में दीक्षित हुए हों और इसीसे उन्होंने महादेवसे प्राप्त शानको 'प्रमितविषय' विशेषण दिया हो और दामनन्दिसे प्राप्त ज्ञानको 'अमनाक' विशेषणसे विभूषित किया हो।
इस प्रकार प्रभाचन्द्रका सघर्मा होनेसे भट्ट वोसरिका समय भी भोजराजके समकालीन माना जा सकता है । दामनन्दि तो भोजराजके समकालीन हैं हो, अत: उनके शिष्यका समय भी ई. सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध होना चाहिए। ग्रन्यके अन्तरंग परीक्षणसे भी यही सिद्ध होता है। आयज्ञानका प्रचार १३ वौं पाती सक ही प्राप्त होता है। इसके पश्चात् प्रश्नशास्त्रमें आय वाली कल्पना लुप्तप्राय दिखलाई पड़ती है । ग्रहयोग प्रकरणमें जिन गोगोंकी चर्चा की गयी है उन योगोंकी स्थिति दशम शताब्दीके उत्तरार्ध या ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वार्षकी है। भाषाशैली और विषय इन दोनों ही दृष्टियोंसे गाय मानसिलक ११ वीं शताब्दीके बादकी रचना प्रतीत नहीं होती।
इस ग्रन्धमें कुल ४१५ गाथाएं और २५ प्रकरण हैं। प्रश्नशास्त्रकी दृष्टिसे १. आयशा०, २५वें प्रकरणका अन्तिम पद्य । २. पुरातन जैनवाक्य सूची, वीर सेवा मन्दिर संस्करण, सन् १९५०, पृ.१०३ ।
यह महत्त्वपूर्ण है । इसमें ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, वान, वृष और ध्वाक्ष इन आठ आयों द्वारा प्रश्नोंके फलका सुन्दर वर्णन किया है । इन्होंने आठ आयों द्वारा स्थिर चक्क और चल-चनादिककी रचना कर विविध प्रश्नोंके उत्तर दिये गंप हैं । अन्यत्र कारण निम्न प्रकार है
१.आयस्व-आठ आयोंक स्वरूप, गुण और आकृतियों का विश्लेषण ४७ गाथाओं में किया है।
२. पातविभाग - मन, मद्ध-विमुक्त, रूद्ध-गृहीत-विमुक्त, संस्थान, अनु कूल, प्रतिकूल, चलिस, सरित, अभिमुखे, पूर्वमुम्ब, अन्तरित आदि १६ पातोका कथनकर उनके आयरूप अक्षरोंका विवेचन किया है। इसमें २४ गाथाएं है।
३. आवावस्था--१९, गाथाओंमें मित्र, शुभ, अशम, रिपु आदि सम्बन्धों द्वारा आयोंकी अवस्थाओंका नाथन किया गया है।
४. ग्रह-योग-इस प्रकरणमें २८ गाथा है। ग्रहोंके मूलतः दो भेद किये हैं-१. सौम्य और २. पाप । इन दोनों ही प्रकारके ग्रहों के आयवर्ण एवं शुभाशुभ फलोका निर्देश किया है।
५. पृच्छाकार्यज्ञान–१६ गाथाओंमें पृच्छकको चर्या, वेशा, दृषि एवं वार्ता लाप आदिके द्वारा आयोका आनयन !
६. शुभाशुभ-इसमें १७ गाथाएँ हैं । इनमें आयों द्वारा आये जग शुभाशुभ वर्णोपरसे फलादेश बतलाया गया है।
७. लाभालाभ---इस प्रकरण १० गाथाएँ हैं। इनमें पृच्छकके प्रश्नानुसार आयों का निर्धारण कर लाभालाभ फलादेशका वर्णन किया है।
८. राग-निर्दश- इसमें २१ गाथाएं हैं। रोगके सम्बन्धमें किये गये प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। सर्वप्रथम रोगकी साध्यामाध्यतापर विचार किया गया है । पश्चात् कितने समय तक रोग रहेगा, इसपर भी विचार किया गया है ।
९. चन्या-परीक्षण-इस प्रकरणमें ११ गाथाएँ हैं। श्रावधर्मके परिपालन हेतु विवाह आदि क्रियाएँ आवश्यक है। अतएव कन्याको परीक्षाका वर्णन इन गाथाओंमें आया है। किस प्रकारके प्रश्नमें भार्या बननेवालो कन्या सुशोल होगी, यह प्रश्नशास्त्रकी दृष्टिसे विचार किया है।
१०. भू-लक्षण-इस प्रकरण में २५, गाथाए" हैं। प्रश्नानुसार किस प्रकारको भूमि कुल, गोत्र, धन इत्यादि करनेवाली होगी और किस प्रकारको भूमि हानि करनेवाली होगी, इसका विवेचन किया है।
१२. परिमान--- मायाम प्रकक प्रश्नाक्षरों द्वारा गर्भसम्बन्धी गुह्य प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है।
१२. विवाह-इस प्रकरणमें केवल पाँच गाथाएँ हैं। इनमें विवाहसम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं।
१३. गमनागमन -इस प्रकरणमैं १ गाथाएँ हैं। विदेश या दूर देश गये हुए व्यक्तिके लौट कर आने के समयका विचार किया गया है ।
१४. परिचित ज्ञान–५ गाथाओंमें कौन व्यक्ति किस समय मित्र या शत्रुका रूप प्राप्त करेगा तथा किस परिचितसे लाभालाभ होगा-इसका विचार किया गया है।
१५. जय-पराजय--१३ गाथाओंके जय-पराजयका विचार किया गया है। किस समय आक्रमण करनेसे विजय लाभ होगा और किस समय आक्रमण करनेपर पराजय होगी आदि बातोंका प्रश्नाक्षरों द्वारा विचार किया गया है।
१६, वर्षा-लक्षणमें २८ गाथाएँ हैं। वर्षाकालमें आकर पृच्छकके वर्षा सम्बन्धी प्रश्नोंका उत्तर दिया गया है । बताया है कि मनुष्योंको सुख, बुद्धि और ऐश्वर्यकी प्राप्ति अन्न द्वारा होती है और अन्नका हेतु वर्षों है । अतएव वर्षा सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर इस प्रकरण में दिया गया है।
१७. अर्ध-काण्ड-इस प्रकरणमें २१ गाथाएं हैं और तेजी-मन्दीका विचार गया है।
१८. नष्ट-परिज्ञान-इस प्रकरण में ३१ गाथाएँ हैं और नष्ट हुई, चोरी गयो वस्तुका प्रश्नाक्षरों द्वारा विचार किया गया है।
१९. तपोनिहि-परिज्ञान-इस प्रकरणमें ७ गाथाएं हैं ! संसारसे विरक्त होनेवाला व्यक्ति अपनी दीक्षाका निर्वाह कर सकेमा या नहीं आदि प्रश्नोंका विचार किया गया है।
२०. जीवित मान--इस प्रकरणमें ७ गाथाएं हैं। ग्रहदशावश आयुका परिज्ञान प्राप्त करनेकी विधिका वर्णन है ।
२१. नामाक्षरोद्देश-इस प्रकरणमें ११ गाथाएं हैं । आरम्भमें बताया है कि जैसे दानके बिना धन, चन्द्र के बिना रात्रि शोभित नहीं होती उसी प्रकार नामके बिना विद्यमान वस्तु भी शोभित नहीं होती। अत: प्रश्नाक्षरविधि द्वारा वस्तु और व्यक्तिके नामका वर्णन किया है।
२२. प्रश्नाक्षरसंख्या-इस प्रकरणमें ११ गाथाएँ हैं। प्रश्नाक्षरगणना द्वारा शुभाशुभ फलका विवेचन किया है।
२३. संकीर्ण---इस प्रकरण में १६ गाथाएं हैं और विविध प्रकारके प्रश्नोंके उत्तर निकालनेकी विधि वर्णित है।
२४. काल-सात गाथाओंमें नाना प्रकारके किये गये प्रश्नोंके फल कब प्राप्त होंगे इसका विचार किया है।
२५. चक्रपूजा-इसमें पाँच गाथाएं हैं और अन्तमें १२ पद्यों में एक स्तुति अंकित की गयी है । अन्तमें १२ मन्त्र भी निबद्ध हैं।
इस प्रकार प्रश्नाक्षरों द्वारा फलादेश विधिका निरूपण किया है । प्रश्न फर्ताकी शारीरिक शुद्धिके साथ मान्त्रिक गदि भी अपेक्षित है। आचार्य तम मनकी शुद्धिका वर्णनकर अन्तमें मान्त्रिक शुद्धिका विधान किया है। प्रश्न शास्त्रको दृष्टिसे यह ग्रन्थ विशेष महत्त्वपूर्ण है।
गुरु | आचार्य श्री दामनन्दी जी |
शिष्य | आचार्य श्री भट्टवोसरी जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Bhattavosari ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 08-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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