हैशटैग
#BhavsenTrayvidhya13ThCentury
आन्ध्रप्रदेशके अनन्तपुर जिलेमें अमरापुरम ग्रामके निकट एक समाधि लेखमें निम्नलिखित पद्य अंकित है
श्रोमूलसंघसेनगणदवादिगिरिवजदंडमप्प
भावसेनविद्यारतिय निषिधः ।।
कातन्त्ररूपमालावृत्तिके रचयिता भी भावसेन #विद्य है। इस ग्रन्धके अन्तमें आयी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि ये मूलसंघ सेनगणके आचार्य थे। सेनगणको पदावली में भी इनका उल्लेख आया है
परमशब्दब्रह्मस्वरूपत्रिविद्याधिपपरवादिपर्वतवनदंडश्रीभावसेनभट्टारकारणाम् ॥
पट्टालिमें आये हुए बादि, पर्वत, बच्च और शब्दब्रह्मस्वरूप इन विशे षणोंसे स्पष्ट है कि प्रस्तुत उल्लेख भावसेन विद्यका ही है। पट्टालि १७वीं शतीकी है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि भारसेन विद्य अत्यन्तु प्राचीन हैं । इतना तो स्पष्ट है कि सेनगणके पुरातन आचार्यों में इनकी गणना की गयी है।
प्रकट है कि इन्हें 'बादिगिरिवञ्चदण्ड' और 'बादिपर्वतबच्च' ये विशेषण बादीरूपी. पर्वतोंके लिये वनके समान सिद्ध करते हैं। कातन्त्ररूपमालावृत्तिमें 'परवादिगिरिसुरेश्वर' विशेषण भी आया है, जिससे इनका शास्त्रार्थी विद्वान होना सिद्ध होता है । ग्रन्थपुष्पिकाओं में इन्हें विद्य, विद्यदेव और विद्य चक्रवर्ती विशेषण दिये गये हैं। जैन आचार्यों में शब्दागम (व्याकरण), तांगम (दर्शन) तथा परमागम (सिद्धान्त) इन तीन विद्याओंमें निपुण ब्यक्तिको *विद्य' उपाधि दी जाती थी। इससे स्पष्ट है कि भावसेन तर्क, व्याकरण
और सिद्धान्त इन विषयोंके मर्मज्ञ विद्वान थे । विश्वतत्त्वप्रकाशके अन्तमें उनकी शिष्य द्वारा जो प्रशस्ति दी गयी है, उसमें षट्तर्क, शब्दशास्त्र, स्वमत-परमत्त आगम, वैद्यक, संगीत, काव्य, नाटक आदि विषयोंके ज्ञाता भी इन्हें बताया है। इसमें सन्देह नहीं कि भावसेन चार्वाक, बेदान्ती, योग, भाट्ट, प्राभाकर, सांख्य और बौद्ध दर्शनोंके ज्ञाता थे | प्रशस्ति में आया हुआ पथ निम्न प्रकार है
षट्तक शब्दशास्त्र स्वपरमतमताशेषराद्धान्तपक्ष
बैद्यं वाक्यं विलेल्यं विषमसमविभेदप्रयुक्त कवित्वम् ।
संगीतं सर्वकाव्यं सरसकविकृतं नाटक वेरिस सम्यम्
विद्यत्वे प्रवृत्तिस्तव कथमवनी भावसेननतीन्द्र ॥
यह प्रशस्ति १० पद्योंकी है। अन्य पद्योंमें अभिनवविषि, बसीन्द्र, मनिप, वादोभकेशरी इत्यादि विशेषणों द्वारा प्रशंसा की गयी है। इस प्रशस्तिके तीन पद्य कन्नड़ भाषाके हैं और पूर्वोक्त समाधिलेख भी कन्नड़ भाषामें ही है। अस: भावसेनका निवासस्थान कर्नाटक प्रदेश था, यह स्पष्ट है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष १, पृ० ३८ ।
२. सिमान्ते जिनधी रसेनसदृशः शास्त्राचभाभास्करः, पट्तवकलंकदेवबियुषः साक्षा
दयं भूतले । सर्वव्याकरणे विपरिषवधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं वैवियोसममेषपन्द्र
मुनियो वादीमपंचाननः ।।—पैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, पृ. ६२ ।
३. विश्वतत्त्वप्रकाश, अन्तिम प्रशस्ति, पच ५ ।
जैनाचार्य-परम्पस में बननायके के अविर भी पाएम विद्वान काष्ठासंघ लाडवागद्धगच्छके माचार्य थे । वेषोपसेनके शिष्य और जय सेनके गुरु थे। जयसेनने सन् १९९में शकलीकरहाटव नगरमें धर्मरलाकर नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा था । अतः इन भावसेनका समय दशम शतीका उत्तराब है। दूसरे भावसेन काष्ठासंघ माथुरगच्छके आचार्य हैं। ये धर्मसेनके शिष्य तथा सहस्त्रकीतिके गुरु थे। सहस्त्रकीतिके शिष्य गुणकीतिका उल्लेख ग्वालियर प्रदेश में सन् १४१२-१४१७तक प्राप्त होता है। अतः इन भावसेनका समय १४वीं शतीका उत्तरार्ध । प्रस्तुत भावसम उक्त दोनों आचार्योसे भिन्न हैं।
भावसेनने अपने किसो ग्रन्थमें समयका उल्लेख नहीं किया है। अतः उनके समय-निर्णयमें अन्तरंग सामग्री और बाह्य सामग्रीका उपयोग करना आवश्यक है । विश्वतत्त्वप्रकाशको एक प्राचीन प्रति शक संवत् १३६७ ई० सन् १४४५) की है। कातन्त्ररूपमालाकी हस्तलिखित प्रति शक संवत् १३०५ (३० सन् १३८३) की उपलब्ध है । इसी ग्रन्यकी एक अन्य प्रतिका उल्लेख कन्नड़ प्रांतीय साइपत्रीय ग्रन्थ-सूचीमें आया है। कातन्त्ररूपमालाको मह प्रति शक संवत् १२८५ (ई सन् १३६७)की है । अत्तएव इन हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर भावसेन विश्वका समय ई. सन् १३६७के पूर्व सुनिश्चित है । आचार्य ने न्याय दर्शनको चर्चा में पूर्व पक्षके रूपम भासर्वकृत न्यायसारके कई पद्य उद्धृत किये हैं। यह ग्रन्थ १० वीं शताब्दी का है। वेदान्तदर्शनके विचारमें लेखकने विमुक्तात्म की इष्टसिद्धिका उल्लेख किया है । तथा आत्माके अणु आकारकी चर्चा रामा मुजके विचार उपस्थित किये हैं । इन दोनोंका समय १२ वीं शती है ।
'वेदप्रामाण्यको चर्चाके सन्दर्भ में लेखकने तुरुष्कशास्त्रको बहुजनसम्मत कहा है तथा वेदोंके हिंसा उपदेशकी तुलना तुरुकशास्त्रसे की है | तुरुष्कशास्त्र मुस्लिमशास्त्रका पर्यायवाची हे और उत्तर भारतमें मुस्लिमसत्ताका व्यापक प्रसार ई. सन् ११९२ से १२१० तक हमा। तथा सुलतान इल्तुमसके समय ई० सन् १२१० से १२३६ तक यह सत्ता दृढमूल हुई और दक्षिणभारतमें भी मुस्लिम सत्ताका विस्तार हुआ। अतः तुरुष्कशास्त्रको बहुसम्मत कहना १३ वीं शताब्दीके मध्यसे पहले प्रतीत नहीं होता। इस तरह भावसेनके समयकी पूर्वावधि ई० सन् १२३६ और उत्तरावधि ई. सन् १३०० के लग भाग मानी जा सकती है। मावसेनने १३ वौं सदीके अन्तिमचरणके नैयायिक विद्धान केशमिश्रको तर्कभाषाका उपयोग नहीं किया है। अतः इन्हें
केशव मिश्रसे किंचित् पूर्व अथवा समकालोन होना चाहिए । दूसरी बात यह है कि भावसेनके समामिलेखकी लिपि १३ वीं शताब्दीके अनुकूल है। इससे भी इनका समय ई० सन्की १३ वौं शताब्दीका मध्यभाग होना संभव है।
मावसेन प्रतिभाशाली विभिन्न विषयोंके शाता बाचार्य हैं। इनकी निम्न लिखित रचनाएं प्राप्त हैं--
१. प्रमाप्रमेय-अन्यके प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हुए लिखा है
श्रीवर्धमानं सुरराज्यपूज्यं साक्षात्कृताशेषपदार्थतत्वम् ।
सौख्याकरं मुक्तिपति प्रणम्य प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये ।।
ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्ति में भावसेन विद्यके विशेषणोंका प्रयोग आया है। इसमें केवल एक ही परिच्छेद प्राप्त है और यह मोक्षशास्त्रका पहला प्रकरण है तथा प्रमेयकी ही चर्चा की गयी है। अन्यका उत्तरार्ध भाग अप्राप्य है, जिसमें प्रमाचर्चा भी सम्मिल्लित रही होगी । अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है ___ 'इति परवादिगिरिसुरेश्वरश्रीमदभावसेनविखदेवविरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्र प्रमाणनिरूपणः प्रथमः परिच्छेदः ।'
इस ग्रन्थमें प्रत्यक्षके इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वसं वेदनप्रत्यक्ष ये चार भेद किये हैं । परोक्षके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्फ, कहापोह, अनुमान और आगम ये छ: भेद माने हैं।
अनुमानके पक्ष, साध्य, हेतू, दष्टान्त, उपनय और निगमन ये छ: अवयव तथा हेतुका लक्षण अन्यथानुपपत्तिको न मानकर व्यासमान पक्षधर्मको बताया है। अनुमानके भेदोंका निरूपण दो रूपोंमें किया है--
१. फेवलाम्बयो, केवलम्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी ।
२. दृष्ट, सामन्यतोदृष्ट और अदृष्ट ।
हेत्वाभासके सात भेद बतलाये गये हैं असिव, विरूद्ध, अनेकान्तिक, अकिञ्चित्कर, अनध्यसित, कालात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणसम ।
विपक्षसे समानसा बतलाने वाले वाक्यसे दिया हुआ उत्तर जाति कहलाता है। जतियोंको संख्या बीस है, यतः वर्षासमा जातिमें साध्यसमा जातिका अन्तर्भाव होता है, अतः उसका पृथक वर्णन नहीं किया है। प्रत्युदाहरण जासिका समावेश साधर्म्यसमा जातिमें होता है। अर्थापत्तिसमा तथा उपपत्ति समा जातियां प्रकरणसमा जातिसे भिन्न नहीं है तथा अनित्यसमाजाति अवि शेषसमा जातिसे अभिन्न है । असः पुनरुक जातियोंको छोड़ देनेपर जातियाँ बीस होती हैं।
इस ग्रन्थमें २२ निग्रहस्थान और बादके चार अंगों-१. सभापति, २. सभ्यजन, ३. प्रतिवादी और ४. बादीका सम्यक प्रतिपादन किया गया है। वादके १. तात्विकबाद, २. प्रातिभवाद, ३. नियतार्थवाद और ४. परार्थनवाद
का वर्णन आया है।
पत्रका लक्षण, पत्रके अंग एवं पत्रके विषयमें जय और पराजयकी व्यवस्था चणित है। कथाके बाद, वादवितण्डा, जल्प और जल्पवितण्डा ये भेद किये गये हैं तथा बाद और जल्पको अभिन्न माना गया है | लिखा है
___ "तस्मात् सम्यक साधनदषणवत्त्वेन वादान्न भियते जल्पः । तद् वितण्डापि वादवितण्डातो न भिद्यते। ततो वादो जल्प इत्यनान्तरम् । तद्वितण्डेऽपि तथा । तत एव कथायां वीतरागविजिजीविषयविभागो नास्त्येव ।
-प्रमाप्रमेय १।१०८ पृ० ५७.९८ । आगम, आगमाभास, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके प्रतिपादन प्रसंगमें मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमान एवं गणमानका स्वरूप भी प्रतिपादित है। उपमानप्रमाणके अन्तर्गत आगमिकपरम्पराके पल्य, रज्जु बादिको गणना भी बतलायी गयी है।
२, कथा-विचार-इस ग्रन्थका केवल उल्लेख ही प्राप्त होता है। इसमें दार्शनिकवादोंसे सम्बद्ध वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान आदिका विस्तृत विचार किया गया होगा। यह ग्रन्थ अद्यावधि प्रार नहीं है।
३. शाक्टायनव्याकरण-टीका-मध्यप्रान्तीय हस्तलिखित सूची में इस ग्रन्थ का निर्देश आया है। इसी आधारपर जैन साहित्य और इतिहास में पंडित नाथूरामजी प्रेमीने और जिनरत्नकोष में श्री वेलणकरने इसका उल्लेख किया है, पर अभी तक इसकी कोई हस्तलिखित या मुद्रित प्रति प्राप्त नहीं है। ___४. कातन्त्ररूपमाला-कातन्त्ररूपमाला व्याकरणके सूत्रोंके अनुसार शब्द रूपोंको सिद्धिका वर्णन आया है। अन्य दो भागों में विभक्त है। पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध । पूर्वार्धमें ९७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धितके रूपोंको सिद्धि की गयी है। उत्तराध में ८७१. सूत्रों द्वारा तिङन्त कृदन्तके रूपोंका साधुत्व आया है । कातन्त्ररूपमाला यह नाम भावसेनका दिया हुआ है। यों इस ग्रन्थ
१. मध्यप्रान्तीय हस्तलिखित ग्रन्थसूची, पृ० २५ ।
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५५ ।
३. जिनरत्नकोष, पृ० ३७७ ।
के वास्तविक नाम 'कलाप' और 'कौमार' हैं। लेखकका कथन है कि भगवान् ऋषभदेव ब्राह्मीकुमारीके लिए इस ग्रन्थको रचना की, अत: यह नाम पड़ा। स्वयं भावसेनने इस व्याकरणके लिए 'सबंबर्माकृत' इस विशेषणका प्रयोग किया है। इस व्याकरणके दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पहला संस्करण जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय बम्बईसे और दूसरा वीर-पुस्तका-भण्डार जयपुर से प्रकाशित हुआ है। संस्कृत-भाषाकै प्रारम्भिक अभ्यासियोंके लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है।
५. न्यायसूर्यावलि—इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि स्ट्रासबर्ग (जर्मनी) के संग्न हालयमें है । इसमें मोक्षशास्त्रके ५ परिच्छंद हैं।
६. भुक्ति-मुक्तिविचार . प्रम ग्रन्थकी पाण्डुलिपि भा उपर्युक्त संग्रहालयमें है । इसमें स्त्रीमक्ति और केवल मितभी बाकी गयी है।
७. सिद्धान्तसार—जिनरत्नकोषके वर्णनानुसार यह ग्रन्थ मडविद्रीके मठमें है तथा इसका ७०० श्लोकप्रमाण है । पर श्रीविद्याधर जोहरापुरकरकी सूचनाके अनुसार यह ग्रन्थ वहाँ नहीं है।
८. न्यायदीपिका-इस ग्रन्धकी सूचना लुई राइस द्वारा सम्पादित मेसुर और कुर्गकी हस्तलिखित ग्रन्थ सूजीसे प्राप्त होती है। कहा नहीं जा सकता कि यह धर्मभूषणको न्यायदीपिकासे भिन्न कोई स्वतन्त्र कृति है अथवा वही है।
९. सप्तपदार्थी टीका-इसका उल्लेख पाटनके हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची की प्रस्तावनामें आया है।
१०. विश्वतत्वप्रकाश-इस ग्रन्थ में चार्वाक दर्शनमीमांसा, सर्वशसिद्धि, ईश्वरमीमांसा, वेदप्रामाण्यमीमांसा, स्वत:प्रामाण्यांबचार, भ्रन्तिविचार, मायावादविचार, आत्माणुत्वविचार, आत्मविभुत्वविचार, आत्मासर्वज्ञत्व विचार, रामवाविचार, गुणविचार, इन्द्रियविचार, दिग्द्रध्यविचार, वैशेषिकमतविचार, न्यायमतविचार, मीमांसादर्शविचार, सांख्यदर्शन विचार और बौद्धदर्शनविचार प्रकरणोंका समावेश किया गया है। विषयोंकी दृष्टिसे सर्वप्रथम आत्माके स्वरूपकी स्थापना की गयी है। चार्वाकोंका आक्षेप है कि जीव नामक कोई अनादि, अनन्त, स्वतन्त्र तत्व किसी प्रमाणसे ज्ञात नहीं है | जीव या चैतन्य की उत्पत्ति शरीररूपमें परिणत चार महाभूतोंसे ही
१. विवएना ओरियन्टल जरनल, सन् १८५७, पु० ३०५ ।
२. विश्वतत्वप्रकाश, जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर, प्रस्तावना पु० ६ ।
होती है। यह चैतन्य शरीरात्मक है अथवा शरीरका ही गुण या कार्य है । इसके उत्तरमें कहा गया है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि जीव चेतन, निरवयव, बाह्य इन्द्रियोंसे अग्राह्य और स्पर्शादिसे रहित है । इसके प्रतिकूल शरीर जड़, सावच्या बाह्य इन्द्रियोंसे ग्राह्य एवं स्पर्शादि सहित है। चैतन्यकी उत्पत्ति चैतन्यसे ही सम्भव है, जड़से नहीं | शरीर जोवरहित अवस्थामें भी पाया जाता है तथा जीव भी अशरीरी अवस्था में पाया जाता है । अतएव चैतम्य आत्माकी सिद्धि प्रमागासे होती है ।
आगमके उपदेशक सर्वशका अस्तित्व चार्वाक और मीमांसक नहीं मानते। बनके आक्षेपोंका उत्तर देते हुए भावसेनने बताया है कि सर्वशका अस्तित्व बागम और अनुमानसे सिद्ध होता है। ज्ञानके समस्त आवरण नष्ट हो जानेपर स्वभावतः समस्त पदार्थोका ज्ञान होता है। ज्ञान और वैरागका परम प्रकर्ष ही सर्वशत्व है। पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञत्वमें बाधक नहीं है। सर्वज्ञका अस्तित्व अनुमान द्वारा सुनिश्चित है।
न्यायदर्शनमें सर्वज्ञका अस्तित्व स्वीकार किया गया है। किन्तु सर्वज्ञ जगत्कर्ता है, इसकी मीमांसा की गयी है। ईश्वर जगत्कर्ता है, यह कहनेका आधार है, जगत्को कार्य सिद्ध करना । कार्य वह होता है, जो पहले विद्यमान न हो तथा बादमें उत्पन्न हो जाये। किन्तु जगत् अमुक समयमें विद्यमान नहीं था, यह कहनेका कोई साधन नहीं है। अत: जगत्को कार्य सिद्ध करना ही गलत है। इस प्रकार कार्यत्वहेतुका खण्डन कर जगत्कर्ताका खण्डन किया है। ___मीमांसक सर्वशप्रणीत आगम तो नहीं मानते, किन्तु अनादि अपौरुषेय वेदको प्रमाणभूत आगम मानते हैं । इनका चार्वाकोने खण्डन किया है। वेद को अपौरुषेय मानना भ्रान्त है, क्योंकि कार्य होनेसे वेदका भी कोई कर्ता होगा ! वेदको अध्ययनपरम्परा अनादि है, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि काण्व, याज्ञवल्क आदि शाखाओंके नामोसे उन परम्पराओंका प्रारम्भ उन ऋषियों ने किया था, यह स्पष्ट होता है। वेदककि सूचक वाक्य वैदिक ग्रन्यों में ही उपलब्ध होते हैं | अत: वेदका प्रामाण्य अपौरुषेयताके कारण नहीं हो सकता है।
वेद स्वतः प्रमाण है, इस मीमांसक मतकै सिलसिले में ज्ञान स्वतः प्रमाण होते हैं या परत: प्रमाण होते हैं, इसका विचार लेखकने किया है। ज्ञान यदि वस्तुतत्वके अनुसार है, तो वह प्रमाण होता है सपा वस्तु के स्वरूपके विरुद्ध है, तो अप्रमाण होता है । अतः जानका प्रामाभ्य वस्तुके स्वरूपपर आधारित
है परतः निश्चित होता है, स्वतः नहीं । इसी सन्दर्भ में ज्ञान के स्वसंवेद्य और अस्वसंवैद्यकी भी चर्चा की गयी है।
प्रामाण्यके सम्बन्धमें अप्रमाण जानका- भ्रान्तिका स्वरूप क्या है, यह विस्तारसे बतलाया गया है। माध्यमिक बौद्ध सभी प्रकारके पदार्थके ज्ञानको भ्रम कहते हैं। संसारमें कोई पदार्थ नहीं है, सब शून्य है' यह उनका अभि मत है, पर सर्वजनप्रसिद्ध प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणोंका इस प्रकार अभाव बतलाना युक्त नहीं ; राति प्रमान बदमाहैं. जो प्रमेय-- बाह्य पदार्थों का भी अस्तित्व अवश्य मानना होगा। इसी प्रकार योगाचार बौद्धोंके विज्ञानवादको भी समीक्षा की गयी है।
जगत्के स्वरूपको भ्रमअन्य माननेवाले वेदान्तदर्शनको समीक्षा विस्तारसे की है । वेदान्तियोंका कथन है कि प्रपञ्च-संसारकी उत्पत्ति अज्ञानसे होती है, तथा जानसे उसको निवृत्ति होती है । पर अज्ञान जैसे निषेधात्मक अभाव रूप तत्त्वसे जगत् जेमा भावरूप तस्व उतान्न नहीं हो सकता है । इसी प्रकार जान वस्तुको जान सकता है, उसका नाश नहीं कर सकता। वैदिक वाक्योंमें अनेक स्थानोंपर प्रपञ्चको ब्रह्मस्वरूप कहा है। अतः ब्रह्म यदि सत्य हो, तो प्रपंच भी सत्य होगा। प्रपंचको गत्यतामें बाधक कोई प्रमाण नहीं है। ब्रह्म साक्षात्कारसे प्रपंच बाधित नहीं होता। इस प्रकार मायावादको समीक्षा भी विस्तारसे की गयी है।
पूर्वोक्त दार्शनिक मान्यताओंके अतिरिक्त वैशेषिक और नयायिक द्वारा अभिमत आत्मसवंगतवादका निरसन किया गया है। वैशेषिक मतमें इन्द्रियों को पृथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न माना है तथा इन्द्रियों और पदार्थोके सन्निकर्षक बिना प्रत्यक्षज्ञान सम्भव नहीं होता । अन्त में प्रत्येक कर्मके भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती, इस मतका निराकरण किया है, तथा ध्यानबलसे कर्मक्षयका समर्थन किया है।
न्यायदर्शनकी तत्त्वव्यवस्थामें प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों की गणना की गयी है। इन १६ पदार्थों की समीक्षाके अनन्तर ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोगपर विचार किया है।
भाट्ट मीमांसक अन्धकारको द्रव्य मानते है। भैयायिकादि उसे प्रकाशका अभावमात्र कहते हैं । यहाँ इन सभी मतोंको विस्तृत समीक्षा की गयी है ।
सांख्योंके मतसे जगत्का मूल कारण प्रकृतिनामक जड़तत्त्व है तथा वह सत्व, रजस् आर तमस् इन तीन गुणोंसे बना है । बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय तथा
पंचमहाभूत इन्हींसे बने हैं। किन्तु जैनदृष्टिसे बुद्धि, अहंकार ये चैतन्यमय जीवके कार्य हैं, जड़ प्रकृतिक नहीं । सांख्योंका दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है सत्कार्य बाद। कार्य नया उत्पन्न नहीं होता, कारणमें विद्यमान ही रहता है। यह प्रत्यक्षव्यवहाररो विरुद्ध है | सांस्य पुरुषको अकर्ती मानते हैं—बन्ध और मोक्ष पुरुषके नहीं होते, प्रकृतिक ही होते हैं । इस कथनकी भी जनदृष्टिसे समीक्षा की गयी है।
बौद्धाभिमत क्षणिकवादका विवेचन करते हुए लिखा है कि बौद्ध आत्मा जैसा कोई शारंचत तत्त्व नहीं मानते । रूप, संज्ञा, वेदना, विज्ञान, संस्कार इन पांच स्कन्धोंसे ही सब कार्य होते हैं । नित्य आत्माका अस्तित्व प्रत्यभिज्ञान
गद्वार: वि से कि निरज हो जाता है । आत्मा नित्य न हो, तो मुक्तिका प्रयास न्यर्थ हो जायगा और पूनर्जम भी घटित नहीं हो सकेगा। इस प्रकार विस्तारपूर्वक क्षणिकबादकी समीक्षा की है। यह विश्वतत्वप्रकाश भी किसी ग्रन्थका एक परितछेद ही प्रतीत होता है । सम्भवतः पूर्ण ग्रन्थ आचार्य का दूसरा ही रहा होगा।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री भावसेन त्रैविद्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BhavsenTrayvidhya13ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री भावसेन त्रैविद्या 13वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 12-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 12-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आन्ध्रप्रदेशके अनन्तपुर जिलेमें अमरापुरम ग्रामके निकट एक समाधि लेखमें निम्नलिखित पद्य अंकित है
श्रोमूलसंघसेनगणदवादिगिरिवजदंडमप्प
भावसेनविद्यारतिय निषिधः ।।
कातन्त्ररूपमालावृत्तिके रचयिता भी भावसेन #विद्य है। इस ग्रन्धके अन्तमें आयी हुई प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि ये मूलसंघ सेनगणके आचार्य थे। सेनगणको पदावली में भी इनका उल्लेख आया है
परमशब्दब्रह्मस्वरूपत्रिविद्याधिपपरवादिपर्वतवनदंडश्रीभावसेनभट्टारकारणाम् ॥
पट्टालिमें आये हुए बादि, पर्वत, बच्च और शब्दब्रह्मस्वरूप इन विशे षणोंसे स्पष्ट है कि प्रस्तुत उल्लेख भावसेन विद्यका ही है। पट्टालि १७वीं शतीकी है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि भारसेन विद्य अत्यन्तु प्राचीन हैं । इतना तो स्पष्ट है कि सेनगणके पुरातन आचार्यों में इनकी गणना की गयी है।
प्रकट है कि इन्हें 'बादिगिरिवञ्चदण्ड' और 'बादिपर्वतबच्च' ये विशेषण बादीरूपी. पर्वतोंके लिये वनके समान सिद्ध करते हैं। कातन्त्ररूपमालावृत्तिमें 'परवादिगिरिसुरेश्वर' विशेषण भी आया है, जिससे इनका शास्त्रार्थी विद्वान होना सिद्ध होता है । ग्रन्थपुष्पिकाओं में इन्हें विद्य, विद्यदेव और विद्य चक्रवर्ती विशेषण दिये गये हैं। जैन आचार्यों में शब्दागम (व्याकरण), तांगम (दर्शन) तथा परमागम (सिद्धान्त) इन तीन विद्याओंमें निपुण ब्यक्तिको *विद्य' उपाधि दी जाती थी। इससे स्पष्ट है कि भावसेन तर्क, व्याकरण
और सिद्धान्त इन विषयोंके मर्मज्ञ विद्वान थे । विश्वतत्त्वप्रकाशके अन्तमें उनकी शिष्य द्वारा जो प्रशस्ति दी गयी है, उसमें षट्तर्क, शब्दशास्त्र, स्वमत-परमत्त आगम, वैद्यक, संगीत, काव्य, नाटक आदि विषयोंके ज्ञाता भी इन्हें बताया है। इसमें सन्देह नहीं कि भावसेन चार्वाक, बेदान्ती, योग, भाट्ट, प्राभाकर, सांख्य और बौद्ध दर्शनोंके ज्ञाता थे | प्रशस्ति में आया हुआ पथ निम्न प्रकार है
षट्तक शब्दशास्त्र स्वपरमतमताशेषराद्धान्तपक्ष
बैद्यं वाक्यं विलेल्यं विषमसमविभेदप्रयुक्त कवित्वम् ।
संगीतं सर्वकाव्यं सरसकविकृतं नाटक वेरिस सम्यम्
विद्यत्वे प्रवृत्तिस्तव कथमवनी भावसेननतीन्द्र ॥
यह प्रशस्ति १० पद्योंकी है। अन्य पद्योंमें अभिनवविषि, बसीन्द्र, मनिप, वादोभकेशरी इत्यादि विशेषणों द्वारा प्रशंसा की गयी है। इस प्रशस्तिके तीन पद्य कन्नड़ भाषाके हैं और पूर्वोक्त समाधिलेख भी कन्नड़ भाषामें ही है। अस: भावसेनका निवासस्थान कर्नाटक प्रदेश था, यह स्पष्ट है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, वर्ष १, पृ० ३८ ।
२. सिमान्ते जिनधी रसेनसदृशः शास्त्राचभाभास्करः, पट्तवकलंकदेवबियुषः साक्षा
दयं भूतले । सर्वव्याकरणे विपरिषवधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयं वैवियोसममेषपन्द्र
मुनियो वादीमपंचाननः ।।—पैनशिलालेखसंग्रह, प्रथम भाग, पृ. ६२ ।
३. विश्वतत्त्वप्रकाश, अन्तिम प्रशस्ति, पच ५ ।
जैनाचार्य-परम्पस में बननायके के अविर भी पाएम विद्वान काष्ठासंघ लाडवागद्धगच्छके माचार्य थे । वेषोपसेनके शिष्य और जय सेनके गुरु थे। जयसेनने सन् १९९में शकलीकरहाटव नगरमें धर्मरलाकर नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा था । अतः इन भावसेनका समय दशम शतीका उत्तराब है। दूसरे भावसेन काष्ठासंघ माथुरगच्छके आचार्य हैं। ये धर्मसेनके शिष्य तथा सहस्त्रकीतिके गुरु थे। सहस्त्रकीतिके शिष्य गुणकीतिका उल्लेख ग्वालियर प्रदेश में सन् १४१२-१४१७तक प्राप्त होता है। अतः इन भावसेनका समय १४वीं शतीका उत्तरार्ध । प्रस्तुत भावसम उक्त दोनों आचार्योसे भिन्न हैं।
भावसेनने अपने किसो ग्रन्थमें समयका उल्लेख नहीं किया है। अतः उनके समय-निर्णयमें अन्तरंग सामग्री और बाह्य सामग्रीका उपयोग करना आवश्यक है । विश्वतत्त्वप्रकाशको एक प्राचीन प्रति शक संवत् १३६७ ई० सन् १४४५) की है। कातन्त्ररूपमालाकी हस्तलिखित प्रति शक संवत् १३०५ (३० सन् १३८३) की उपलब्ध है । इसी ग्रन्यकी एक अन्य प्रतिका उल्लेख कन्नड़ प्रांतीय साइपत्रीय ग्रन्थ-सूचीमें आया है। कातन्त्ररूपमालाको मह प्रति शक संवत् १२८५ (ई सन् १३६७)की है । अत्तएव इन हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर भावसेन विश्वका समय ई. सन् १३६७के पूर्व सुनिश्चित है । आचार्य ने न्याय दर्शनको चर्चा में पूर्व पक्षके रूपम भासर्वकृत न्यायसारके कई पद्य उद्धृत किये हैं। यह ग्रन्थ १० वीं शताब्दी का है। वेदान्तदर्शनके विचारमें लेखकने विमुक्तात्म की इष्टसिद्धिका उल्लेख किया है । तथा आत्माके अणु आकारकी चर्चा रामा मुजके विचार उपस्थित किये हैं । इन दोनोंका समय १२ वीं शती है ।
'वेदप्रामाण्यको चर्चाके सन्दर्भ में लेखकने तुरुष्कशास्त्रको बहुजनसम्मत कहा है तथा वेदोंके हिंसा उपदेशकी तुलना तुरुकशास्त्रसे की है | तुरुष्कशास्त्र मुस्लिमशास्त्रका पर्यायवाची हे और उत्तर भारतमें मुस्लिमसत्ताका व्यापक प्रसार ई. सन् ११९२ से १२१० तक हमा। तथा सुलतान इल्तुमसके समय ई० सन् १२१० से १२३६ तक यह सत्ता दृढमूल हुई और दक्षिणभारतमें भी मुस्लिम सत्ताका विस्तार हुआ। अतः तुरुष्कशास्त्रको बहुसम्मत कहना १३ वीं शताब्दीके मध्यसे पहले प्रतीत नहीं होता। इस तरह भावसेनके समयकी पूर्वावधि ई० सन् १२३६ और उत्तरावधि ई. सन् १३०० के लग भाग मानी जा सकती है। मावसेनने १३ वौं सदीके अन्तिमचरणके नैयायिक विद्धान केशमिश्रको तर्कभाषाका उपयोग नहीं किया है। अतः इन्हें
केशव मिश्रसे किंचित् पूर्व अथवा समकालोन होना चाहिए । दूसरी बात यह है कि भावसेनके समामिलेखकी लिपि १३ वीं शताब्दीके अनुकूल है। इससे भी इनका समय ई० सन्की १३ वौं शताब्दीका मध्यभाग होना संभव है।
मावसेन प्रतिभाशाली विभिन्न विषयोंके शाता बाचार्य हैं। इनकी निम्न लिखित रचनाएं प्राप्त हैं--
१. प्रमाप्रमेय-अन्यके प्रारम्भमें मङ्गलाचरण करते हुए लिखा है
श्रीवर्धमानं सुरराज्यपूज्यं साक्षात्कृताशेषपदार्थतत्वम् ।
सौख्याकरं मुक्तिपति प्रणम्य प्रमाप्रमेयं प्रकटं प्रवक्ष्ये ।।
ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्ति में भावसेन विद्यके विशेषणोंका प्रयोग आया है। इसमें केवल एक ही परिच्छेद प्राप्त है और यह मोक्षशास्त्रका पहला प्रकरण है तथा प्रमेयकी ही चर्चा की गयी है। अन्यका उत्तरार्ध भाग अप्राप्य है, जिसमें प्रमाचर्चा भी सम्मिल्लित रही होगी । अन्तिम प्रशस्ति निम्न प्रकार है ___ 'इति परवादिगिरिसुरेश्वरश्रीमदभावसेनविखदेवविरचिते सिद्धान्तसारे मोक्षशास्त्र प्रमाणनिरूपणः प्रथमः परिच्छेदः ।'
इस ग्रन्थमें प्रत्यक्षके इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, योगिप्रत्यक्ष और स्वसं वेदनप्रत्यक्ष ये चार भेद किये हैं । परोक्षके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्फ, कहापोह, अनुमान और आगम ये छ: भेद माने हैं।
अनुमानके पक्ष, साध्य, हेतू, दष्टान्त, उपनय और निगमन ये छ: अवयव तथा हेतुका लक्षण अन्यथानुपपत्तिको न मानकर व्यासमान पक्षधर्मको बताया है। अनुमानके भेदोंका निरूपण दो रूपोंमें किया है--
१. फेवलाम्बयो, केवलम्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी ।
२. दृष्ट, सामन्यतोदृष्ट और अदृष्ट ।
हेत्वाभासके सात भेद बतलाये गये हैं असिव, विरूद्ध, अनेकान्तिक, अकिञ्चित्कर, अनध्यसित, कालात्ययापदिष्ट तथा प्रकरणसम ।
विपक्षसे समानसा बतलाने वाले वाक्यसे दिया हुआ उत्तर जाति कहलाता है। जतियोंको संख्या बीस है, यतः वर्षासमा जातिमें साध्यसमा जातिका अन्तर्भाव होता है, अतः उसका पृथक वर्णन नहीं किया है। प्रत्युदाहरण जासिका समावेश साधर्म्यसमा जातिमें होता है। अर्थापत्तिसमा तथा उपपत्ति समा जातियां प्रकरणसमा जातिसे भिन्न नहीं है तथा अनित्यसमाजाति अवि शेषसमा जातिसे अभिन्न है । असः पुनरुक जातियोंको छोड़ देनेपर जातियाँ बीस होती हैं।
इस ग्रन्थमें २२ निग्रहस्थान और बादके चार अंगों-१. सभापति, २. सभ्यजन, ३. प्रतिवादी और ४. बादीका सम्यक प्रतिपादन किया गया है। वादके १. तात्विकबाद, २. प्रातिभवाद, ३. नियतार्थवाद और ४. परार्थनवाद
का वर्णन आया है।
पत्रका लक्षण, पत्रके अंग एवं पत्रके विषयमें जय और पराजयकी व्यवस्था चणित है। कथाके बाद, वादवितण्डा, जल्प और जल्पवितण्डा ये भेद किये गये हैं तथा बाद और जल्पको अभिन्न माना गया है | लिखा है
___ "तस्मात् सम्यक साधनदषणवत्त्वेन वादान्न भियते जल्पः । तद् वितण्डापि वादवितण्डातो न भिद्यते। ततो वादो जल्प इत्यनान्तरम् । तद्वितण्डेऽपि तथा । तत एव कथायां वीतरागविजिजीविषयविभागो नास्त्येव ।
-प्रमाप्रमेय १।१०८ पृ० ५७.९८ । आगम, आगमाभास, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण और कालप्रमाणके प्रतिपादन प्रसंगमें मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान, तत्प्रतिमान एवं गणमानका स्वरूप भी प्रतिपादित है। उपमानप्रमाणके अन्तर्गत आगमिकपरम्पराके पल्य, रज्जु बादिको गणना भी बतलायी गयी है।
२, कथा-विचार-इस ग्रन्थका केवल उल्लेख ही प्राप्त होता है। इसमें दार्शनिकवादोंसे सम्बद्ध वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान आदिका विस्तृत विचार किया गया होगा। यह ग्रन्थ अद्यावधि प्रार नहीं है।
३. शाक्टायनव्याकरण-टीका-मध्यप्रान्तीय हस्तलिखित सूची में इस ग्रन्थ का निर्देश आया है। इसी आधारपर जैन साहित्य और इतिहास में पंडित नाथूरामजी प्रेमीने और जिनरत्नकोष में श्री वेलणकरने इसका उल्लेख किया है, पर अभी तक इसकी कोई हस्तलिखित या मुद्रित प्रति प्राप्त नहीं है। ___४. कातन्त्ररूपमाला-कातन्त्ररूपमाला व्याकरणके सूत्रोंके अनुसार शब्द रूपोंको सिद्धिका वर्णन आया है। अन्य दो भागों में विभक्त है। पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध । पूर्वार्धमें ९७४ सूत्रों द्वारा सन्धि, नाम, समास और तद्धितके रूपोंको सिद्धि की गयी है। उत्तराध में ८७१. सूत्रों द्वारा तिङन्त कृदन्तके रूपोंका साधुत्व आया है । कातन्त्ररूपमाला यह नाम भावसेनका दिया हुआ है। यों इस ग्रन्थ
१. मध्यप्रान्तीय हस्तलिखित ग्रन्थसूची, पृ० २५ ।
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५५ ।
३. जिनरत्नकोष, पृ० ३७७ ।
के वास्तविक नाम 'कलाप' और 'कौमार' हैं। लेखकका कथन है कि भगवान् ऋषभदेव ब्राह्मीकुमारीके लिए इस ग्रन्थको रचना की, अत: यह नाम पड़ा। स्वयं भावसेनने इस व्याकरणके लिए 'सबंबर्माकृत' इस विशेषणका प्रयोग किया है। इस व्याकरणके दो संस्करण प्रकाशित हुए हैं। पहला संस्करण जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय बम्बईसे और दूसरा वीर-पुस्तका-भण्डार जयपुर से प्रकाशित हुआ है। संस्कृत-भाषाकै प्रारम्भिक अभ्यासियोंके लिए यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है।
५. न्यायसूर्यावलि—इस ग्रन्थको पाण्डुलिपि स्ट्रासबर्ग (जर्मनी) के संग्न हालयमें है । इसमें मोक्षशास्त्रके ५ परिच्छंद हैं।
६. भुक्ति-मुक्तिविचार . प्रम ग्रन्थकी पाण्डुलिपि भा उपर्युक्त संग्रहालयमें है । इसमें स्त्रीमक्ति और केवल मितभी बाकी गयी है।
७. सिद्धान्तसार—जिनरत्नकोषके वर्णनानुसार यह ग्रन्थ मडविद्रीके मठमें है तथा इसका ७०० श्लोकप्रमाण है । पर श्रीविद्याधर जोहरापुरकरकी सूचनाके अनुसार यह ग्रन्थ वहाँ नहीं है।
८. न्यायदीपिका-इस ग्रन्धकी सूचना लुई राइस द्वारा सम्पादित मेसुर और कुर्गकी हस्तलिखित ग्रन्थ सूजीसे प्राप्त होती है। कहा नहीं जा सकता कि यह धर्मभूषणको न्यायदीपिकासे भिन्न कोई स्वतन्त्र कृति है अथवा वही है।
९. सप्तपदार्थी टीका-इसका उल्लेख पाटनके हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची की प्रस्तावनामें आया है।
१०. विश्वतत्वप्रकाश-इस ग्रन्थ में चार्वाक दर्शनमीमांसा, सर्वशसिद्धि, ईश्वरमीमांसा, वेदप्रामाण्यमीमांसा, स्वत:प्रामाण्यांबचार, भ्रन्तिविचार, मायावादविचार, आत्माणुत्वविचार, आत्मविभुत्वविचार, आत्मासर्वज्ञत्व विचार, रामवाविचार, गुणविचार, इन्द्रियविचार, दिग्द्रध्यविचार, वैशेषिकमतविचार, न्यायमतविचार, मीमांसादर्शविचार, सांख्यदर्शन विचार और बौद्धदर्शनविचार प्रकरणोंका समावेश किया गया है। विषयोंकी दृष्टिसे सर्वप्रथम आत्माके स्वरूपकी स्थापना की गयी है। चार्वाकोंका आक्षेप है कि जीव नामक कोई अनादि, अनन्त, स्वतन्त्र तत्व किसी प्रमाणसे ज्ञात नहीं है | जीव या चैतन्य की उत्पत्ति शरीररूपमें परिणत चार महाभूतोंसे ही
१. विवएना ओरियन्टल जरनल, सन् १८५७, पु० ३०५ ।
२. विश्वतत्वप्रकाश, जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर, प्रस्तावना पु० ६ ।
होती है। यह चैतन्य शरीरात्मक है अथवा शरीरका ही गुण या कार्य है । इसके उत्तरमें कहा गया है कि जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि जीव चेतन, निरवयव, बाह्य इन्द्रियोंसे अग्राह्य और स्पर्शादिसे रहित है । इसके प्रतिकूल शरीर जड़, सावच्या बाह्य इन्द्रियोंसे ग्राह्य एवं स्पर्शादि सहित है। चैतन्यकी उत्पत्ति चैतन्यसे ही सम्भव है, जड़से नहीं | शरीर जोवरहित अवस्थामें भी पाया जाता है तथा जीव भी अशरीरी अवस्था में पाया जाता है । अतएव चैतम्य आत्माकी सिद्धि प्रमागासे होती है ।
आगमके उपदेशक सर्वशका अस्तित्व चार्वाक और मीमांसक नहीं मानते। बनके आक्षेपोंका उत्तर देते हुए भावसेनने बताया है कि सर्वशका अस्तित्व बागम और अनुमानसे सिद्ध होता है। ज्ञानके समस्त आवरण नष्ट हो जानेपर स्वभावतः समस्त पदार्थोका ज्ञान होता है। ज्ञान और वैरागका परम प्रकर्ष ही सर्वशत्व है। पुरुष होना अथवा वक्ता होना सर्वज्ञत्वमें बाधक नहीं है। सर्वज्ञका अस्तित्व अनुमान द्वारा सुनिश्चित है।
न्यायदर्शनमें सर्वज्ञका अस्तित्व स्वीकार किया गया है। किन्तु सर्वज्ञ जगत्कर्ता है, इसकी मीमांसा की गयी है। ईश्वर जगत्कर्ता है, यह कहनेका आधार है, जगत्को कार्य सिद्ध करना । कार्य वह होता है, जो पहले विद्यमान न हो तथा बादमें उत्पन्न हो जाये। किन्तु जगत् अमुक समयमें विद्यमान नहीं था, यह कहनेका कोई साधन नहीं है। अत: जगत्को कार्य सिद्ध करना ही गलत है। इस प्रकार कार्यत्वहेतुका खण्डन कर जगत्कर्ताका खण्डन किया है। ___मीमांसक सर्वशप्रणीत आगम तो नहीं मानते, किन्तु अनादि अपौरुषेय वेदको प्रमाणभूत आगम मानते हैं । इनका चार्वाकोने खण्डन किया है। वेद को अपौरुषेय मानना भ्रान्त है, क्योंकि कार्य होनेसे वेदका भी कोई कर्ता होगा ! वेदको अध्ययनपरम्परा अनादि है, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि काण्व, याज्ञवल्क आदि शाखाओंके नामोसे उन परम्पराओंका प्रारम्भ उन ऋषियों ने किया था, यह स्पष्ट होता है। वेदककि सूचक वाक्य वैदिक ग्रन्यों में ही उपलब्ध होते हैं | अत: वेदका प्रामाण्य अपौरुषेयताके कारण नहीं हो सकता है।
वेद स्वतः प्रमाण है, इस मीमांसक मतकै सिलसिले में ज्ञान स्वतः प्रमाण होते हैं या परत: प्रमाण होते हैं, इसका विचार लेखकने किया है। ज्ञान यदि वस्तुतत्वके अनुसार है, तो वह प्रमाण होता है सपा वस्तु के स्वरूपके विरुद्ध है, तो अप्रमाण होता है । अतः जानका प्रामाभ्य वस्तुके स्वरूपपर आधारित
है परतः निश्चित होता है, स्वतः नहीं । इसी सन्दर्भ में ज्ञान के स्वसंवेद्य और अस्वसंवैद्यकी भी चर्चा की गयी है।
प्रामाण्यके सम्बन्धमें अप्रमाण जानका- भ्रान्तिका स्वरूप क्या है, यह विस्तारसे बतलाया गया है। माध्यमिक बौद्ध सभी प्रकारके पदार्थके ज्ञानको भ्रम कहते हैं। संसारमें कोई पदार्थ नहीं है, सब शून्य है' यह उनका अभि मत है, पर सर्वजनप्रसिद्ध प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि प्रमाणोंका इस प्रकार अभाव बतलाना युक्त नहीं ; राति प्रमान बदमाहैं. जो प्रमेय-- बाह्य पदार्थों का भी अस्तित्व अवश्य मानना होगा। इसी प्रकार योगाचार बौद्धोंके विज्ञानवादको भी समीक्षा की गयी है।
जगत्के स्वरूपको भ्रमअन्य माननेवाले वेदान्तदर्शनको समीक्षा विस्तारसे की है । वेदान्तियोंका कथन है कि प्रपञ्च-संसारकी उत्पत्ति अज्ञानसे होती है, तथा जानसे उसको निवृत्ति होती है । पर अज्ञान जैसे निषेधात्मक अभाव रूप तत्त्वसे जगत् जेमा भावरूप तस्व उतान्न नहीं हो सकता है । इसी प्रकार जान वस्तुको जान सकता है, उसका नाश नहीं कर सकता। वैदिक वाक्योंमें अनेक स्थानोंपर प्रपञ्चको ब्रह्मस्वरूप कहा है। अतः ब्रह्म यदि सत्य हो, तो प्रपंच भी सत्य होगा। प्रपंचको गत्यतामें बाधक कोई प्रमाण नहीं है। ब्रह्म साक्षात्कारसे प्रपंच बाधित नहीं होता। इस प्रकार मायावादको समीक्षा भी विस्तारसे की गयी है।
पूर्वोक्त दार्शनिक मान्यताओंके अतिरिक्त वैशेषिक और नयायिक द्वारा अभिमत आत्मसवंगतवादका निरसन किया गया है। वैशेषिक मतमें इन्द्रियों को पृथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न माना है तथा इन्द्रियों और पदार्थोके सन्निकर्षक बिना प्रत्यक्षज्ञान सम्भव नहीं होता । अन्त में प्रत्येक कर्मके भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती, इस मतका निराकरण किया है, तथा ध्यानबलसे कर्मक्षयका समर्थन किया है।
न्यायदर्शनकी तत्त्वव्यवस्थामें प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों की गणना की गयी है। इन १६ पदार्थों की समीक्षाके अनन्तर ज्ञानयोग, भक्तियोग और क्रियायोगपर विचार किया है।
भाट्ट मीमांसक अन्धकारको द्रव्य मानते है। भैयायिकादि उसे प्रकाशका अभावमात्र कहते हैं । यहाँ इन सभी मतोंको विस्तृत समीक्षा की गयी है ।
सांख्योंके मतसे जगत्का मूल कारण प्रकृतिनामक जड़तत्त्व है तथा वह सत्व, रजस् आर तमस् इन तीन गुणोंसे बना है । बुद्धि, अहंकार, इन्द्रिय तथा
पंचमहाभूत इन्हींसे बने हैं। किन्तु जैनदृष्टिसे बुद्धि, अहंकार ये चैतन्यमय जीवके कार्य हैं, जड़ प्रकृतिक नहीं । सांख्योंका दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है सत्कार्य बाद। कार्य नया उत्पन्न नहीं होता, कारणमें विद्यमान ही रहता है। यह प्रत्यक्षव्यवहाररो विरुद्ध है | सांस्य पुरुषको अकर्ती मानते हैं—बन्ध और मोक्ष पुरुषके नहीं होते, प्रकृतिक ही होते हैं । इस कथनकी भी जनदृष्टिसे समीक्षा की गयी है।
बौद्धाभिमत क्षणिकवादका विवेचन करते हुए लिखा है कि बौद्ध आत्मा जैसा कोई शारंचत तत्त्व नहीं मानते । रूप, संज्ञा, वेदना, विज्ञान, संस्कार इन पांच स्कन्धोंसे ही सब कार्य होते हैं । नित्य आत्माका अस्तित्व प्रत्यभिज्ञान
गद्वार: वि से कि निरज हो जाता है । आत्मा नित्य न हो, तो मुक्तिका प्रयास न्यर्थ हो जायगा और पूनर्जम भी घटित नहीं हो सकेगा। इस प्रकार विस्तारपूर्वक क्षणिकबादकी समीक्षा की है। यह विश्वतत्वप्रकाश भी किसी ग्रन्थका एक परितछेद ही प्रतीत होता है । सम्भवतः पूर्ण ग्रन्थ आचार्य का दूसरा ही रहा होगा।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री भावसेन त्रैविद्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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