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#Bramhadev12ThCentury
अध्यात्मश लोक टीकाकारोंमें आचार्य ब्रह्मदेवका नाम उल्लेखनीय है। ये जनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे। इन्होंने 'स्व' समय और पर समयका अन्छा अध्ययन किया है। इनके सम्बन्धमें बद्रव्यसंग्रहको भूमिकामें पंडित जवाहरलालजोने लिखा है कि ब्रह्म उनको उपाधि है, जो बतलाती है कि वे ब्रह्मारी थे और देव उनका नाम है । कई ग्रन्थकारोंने अपने नामके प्रारम्भमें ब्रह्मशब्द का उपयोग उपाधिक रूपम किया है। यथा-आराधनाकथाकोशके कर्ता ब्रह्म मेमिदत्त और श्रुतस्कन्धके रचयिता ब्रह्म हेमचन्द्र । इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म नेमिदत्त ब्रह्मचारी थे, पर 'ब्रह्म' यह उनकी उपाधि न होकर सम्भवतः ब्रह्मदेव यही पूरा नाम रहा हो। उनके उपलब्ध ग्रन्थोंसे उनके पापिद्धत्यका सो ग्ज्ञिान होता ही है, साथ ही अनेक विषगोंको जानकारी भी मिलती है। ब्रह्मदेवके परिचयके सम्बन्ध में उनके ग्रन्थोंसे कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। श्री पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने अपने एक निबन्धमें बताया है कि 'द्रव्यसंग्रह के रचयिता नेमि चन्द्र सिद्धान्तदेव, वृत्तिकार ब्रह्मदेव
और सोमराज धिमे तीनों ही समसामयिक हैं। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टि के लिए 'बृहद्रव्यसंग्रह' को टोकाके उत्थानवाक्यको उपस्थित कर लिखा है
पहले नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्वारा सोमनामके राजश्रेष्ठिके निमित्त मालव देशके आश्रमनामक नगरके मुनिसुवत चैत्यालयमें २६ गाथात्मक द्रव्यसंग्रहके लघुरूपमें रचे जाने और बादमें विशेष तत्वपरिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिचन्द्र के द्वारा बृहद्व्यसंग्रहनी रचना हुई है । उस बृहद्रव्यसंग्रह के अधिकारोंके विभाजन पूर्वक यह वृत्ति आरम्भ की जाती है। साथ में यह भी सूचित किया है कि उस समय आश्रमनामका यह नगर महामण्डलेश्वरके अधिकारमें था और सोम नामका राजश्रेण्टि भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंका अधिकारी होने के साथ साथ तत्त्वज्ञानरूप सुधारसका पिपासु' था !"
श्री परमानन्दजीको अनुमान है कि ब्रह्मदेवके उक्त घटनानिर्देश और लेखनशैलीसे यह स्पष्ट है कि ये सब घटनाएं उनके सामने घटी हैं। अतएव वत्तिकार ब्रह्मदेवको नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवके समकालीन या उनसे कुछ ही उत्तरकालवर्ती मानना चाहिए ।
द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव मालवदेशके निवासी थे। इन्होंने भाश्रमनगरको अपने निवाससे पवित्र किया था और भव्यचातकोंको ज्ञाना -
१. अनेकान्त वर्ष १९, पृ० १४५ ।
मृतका पान कराया था। मुनि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवने पहले सोमश्रेष्टिके विशेष निमित्त २६ गाथात्मक पदार्थलक्षणरूपलघुद्रव्यसंग्रहकी रचना की, पश्चात् तत्वपरिज्ञानार्थ ५८ गात्मक बहदव्यसंग्रहकी रचना को, जिसका उल्लेख वृतिकारने उत्थानवाक्यमें किया है। वृत्तिकार ब्रह्मदेवने उसी आश्रम नगरके मुनिसुवत चैत्यालयमें अध्यात्मरसभित द्रव्यसंग्रहको महत्त्वपूर्ण टीका लिखी है। यह टीका और मूलमन्थरचना भोजदेवके राज्यकाल वि० सं० १७७४-१११०के मध्य लिखी गयी है। उत्थानिकावाक्यसे यह स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीका और द्रव्यसंग्रह दोनों ही भोजके काल में रने गये हैं। अतएव ब्रह्मदेवका समय वि० सं० को १२वीं शताब्दी होना चाहिए।
डॉ० ए०एन० उपाध्येने ब्रह्मदेवको जयसेनके बादका विद्वान बतलाया है। पर ब्रह्मदेव इनसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं, क्योंकि जयसेनने 'पञ्वास्तिकाय' की पहली गाथाकी टोकामै ग्रन्थके निमित्तकी व्याख्या करते हुए लिखा है-'अथ प्राभृतये शिवकुमारमहाराजो निमित्तं अन्यत्र द्रव्यसंग्रहादी सोमष्ठयादि ज्ञातव्य" । इससे स्पष्ट है कि जयसेन निमित्त कथनकी बातसे परिचित थे। अतएव वे ब्रह्मदेवके उत्तरवर्ती जात होते हैं। यों तो ब्रह्मदेवकी टीकाशैली जयसेना चार्य जेसो ही प्रतीत होती है। जयसेनाचार्यने टीकाओं में शब्दार्थ, नया, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थका कथन करनेका निर्देश किया है। मंगलादिकी चर्चा एवं व्याख्यान करनेकी पद्धति जयसेनाचार्य जैसी ही प्रतीत होती है। अतः सहसा ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मदेवने जयसेनाचार्यका अनुसरण किया हो । जयसेनने 'पंचास्तिकाय'की १४६वी गाथा और समयसारको १७वीं गाथा की टोकामें, द्रब्यसंग्रहको ५७वीं गाथाको टीकामें उद्धृत उद्धरणोंको अपनाया है । अत: अनुमान यह है कि 'बृहद्रव्यसंग्रह की १३ची गाथामें उद्धृत गद्य चाक्योंके आधारपर पपिडत आशाधरजीने श्लोकको रचना को है
"सहजशुद्धकेवलज्ञानदर्शनरूपाखण्डप्रत्यक्षाप्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रभुति षड्दच्यपञ्चास्तिकायसततत्त्वनवपदार्थेषु मूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितं वीत रागसर्वजप्रणीतनविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादष्टिर्भवति । पाषा परेखासदशानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्यतरोदयेन........." इन्द्रियसुखादि परद्ध्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते, परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवर गृहीततस्करबदात्मनिन्दासहितः समिन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दष्टेल क्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्पादृष्टि: सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीय
१. परमात्मप्रकाश, प्रस्तावना (अंग्रेजी), पृ०७२ ।
कषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनेकदेशरागादिरहितस्वाभाविक सुखानु भूतिलक्षणेषु बहिविषयेषु पुनरेकदेशहिसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु" दमणबयसामाझ्यपोसहसचित्तराइभत्तया..." स एव सदृष्टि लिरेखादिदश कोपादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रामाहापाविरहितस्व शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुन: सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहावतेषु वर्तते “स एव जलरेखादिशदृशसंज्वलनकषायमन्दोदये............"सत्यपूर्वपरमालादकसुखानु भतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्ती भवति ।"
यही अभिप्राय पण्डित आशाधरजीके निम्नलिखित पद्यमें अंकित उपलब्ध होता है
भुरेखादिसदककषायवंशगो यो विश्वदरवाज्ञया
हेयं वैषयिक सुखं निजमुपादेयं स्विति श्रद्दधत् ।
चौरी मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिदादिमान
शर्माक्षं भजते रुजल्यपि पर नोत्तप्यते सोप्यघः ॥
उक्त गद्य-पद्यमें शब्द और अर्थ सादृश्य है । अतः यह मानना पड़ता है कि किसी एकने दूसरेका अनुसरण किया है। आशाधरजीका समय चिकी १३वों शताब्दी है । आशाधरजीने बृहद्रव्यसंग्रहको टीकाके अनेक वाक्य ग्रहण विषे हैं--अत: ब्रह्मदेव आशाधरके पूर्ववर्ती हैं। इनका समय जयसेनसे पूर्व है। __पं० अजितकुमार शास्त्रीके सम्पादकत्व में प्रकाशित बृहद्रव्यसंग्रहकी भूमि कामें लिखा है--"जयसलमेरकै श्वेताम्बरीय भण्डार में वि० सं० १४८५ श्रावण सुदी तेरस शनिवारको लिम्बी हुई टीकावाली द्रव्यसंग्रहकी एक प्रति है। जो माण्डवगढ़ वर्तमान माण्डूमें काष्ठासंघ, माथुरसंघके भट्टारक गुणकोतिके शिष्य भट्टारक प्रशाकीति, हरिभूषणदेव और ज्ञानचन्द्रको आम्नायमें अग्रवालवंशी, मगंगोत्री श्रावक साह धोनुके पुत्र हींगाकी धर्मपत्नीने अपने ज्ञानाबरणकमके क्षयार्थ लिम्बबायी थी। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवका समय इस पाण्डुलिपिको तिथिसे पूर्ववर्ती है। अतः निष्कर्ष रूपमें ब्रह्मदेवका समय ई० सन् को १२वीं शती है।
१. वृहद्रव्यसंग्रहको टोका
१. बृहद्व्य संग्रह, प्रथम संस्करण, गाथा १३, पृ० ३३-३५ ।
२. सागरिधर्मामृत, ११३ ।
२. परमार्थप्रकाशको टोका
३. तत्वदीपक
४. ज्ञानदीपक
५. प्रतिष्ठा तिलक
६. विवाहपटल
७. कथाकोष
बहाव्यसंग्रहको टीका-बृहद्रव्यसंग्रहको टोकामें अनेक सैद्धान्तिक बातोंका समावेश किया गया है। १०वीं गाथाके व्याख्यानमें समुद्धासका, तेरहवींके व्याख्यानमें गुणस्थान और मार्गणामोंका, ३५वीं गाथाके व्याख्यान में १२ अनुप्रेक्षाओंका और विशेषत: तीनों लोकोंका बहुत ही विस्तारके साथ वर्णन किया है । शान और दर्शनके प्रकरणमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों की चर्चा कर दर्शनोपयोगका वर्णन किया गया है ।
द्वितीय अधिकारको प्रारम्भिक माथाओंकी उत्थानिकामें 'परिणामि जीव मुत्त' गाथा उद्धत कर छहों द्रव्योंका विस्तारसे व्याख्यान किया है। लिखा है
परिणामपरिणामिनी जीवपुद्गलो स्वभावविभावपर्यायाभ्यां कृत्वा शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावन्यजनपर्यायाभाबान्मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनीति । 'जीव' शनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते, तेन जीब तीति जीवः । व्यवहारनयेन पुन: कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुभिः प्राणर्जीवत्ति, जीविष्यति जीवितपूर्वो चा जीवः । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीबरूपाणि । "मुत्त' शुद्धात्मनो बिलक्षणस्पर्शगन्धवर्णवती मूतिरुच्यते, तत्सद्भावान्मूतः पुदगलः ! जीवद्रव्यं पुनरूपचरितासभूतव्यवहारेण मूर्तमपि शुद्धनिश्चयनयेना मूर्सम्, धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्तानि । "सपदेस' लोकमानप्रमिता. संख्येयप्रदेशलक्षणं जीवद्रव्यमादि कृत्वा पंचद्रव्याणि पंचास्तिकायसंज्ञानि सप्रदेशानि । कालद्रव्यं पुनबहुप्रदेशलक्षणकायवाभावादप्रदेशम् ।'
अर्थात् स्वभाव और विभाव पर्यायों द्वारा परिणामसे जीव एवं पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य अर्थात् धर्म,अधर्म, आकाश और काल विभावव्यन्जनपर्यायके अभावकी मुख्यतासे अपरिणामी हैं। 'जीव' शुद्धनिश्चय नयसे निर्मल ज्ञान-दर्शनस्वभावधारक शुद्ध चैतन्यरूप है। आगममें शुद्ध चैतन्यको प्राण कहते हैं। उस शुद्ध चैतन्यरूप प्राणसे जो जोता है, वह जीव
१. बृहदव्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, द्वितीय अधिकार, चूलिका प्रकरण, पृ० ७६-७७ ,
है। व्यबहारनयसे कर्मोंके उदयसे प्राप्त द्रव्य तथा भावरूप चार प्राणोंसे अर्थात् इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास नामक प्राणसे जीता है, जोयेगा
और पहले जीता था, वह जीव है । पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीयरूप हैं। शुद्ध आत्मासे बिलवण, स्पर्श, गन्ध, रस तथा वर्णका सद्भाब जिसमें पाया जाता है, वह मूर्तिक है | पुद्गल मूर्तिवाला होनेसे मूर्ति कहलाता है । जीव
न्य अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयसे मूर्त है किन्तु शुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा अमूर्त है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी अमतिक हैं। लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशोंको धारण करनेसे जीवादि पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय नामसे कहे जाते हैं और बहप्रदेशरूप कायत्वके न होनेसे काल द्रव्य अप्रदेश है। इस प्रकार द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका विस्तारसे निरूपण किया है । द्रव्यों के इस विवेचनप्रसंगमें शंका-समा धान भी प्रस्तुत किया गया है। बताया है कि यदि जीब-अजीब ये दोनों द्रव्य सर्वथा अपरिणामी ही हैं, तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है
और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं, तो जीव-अजीव द्रभ्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं, आस्रवादि साल पदार्थ नहीं ? इस शंकाका उत्तर देते हुए बताया है कि कचित् परिणामी होनेसे सात पदार्थोंका कथन संगत होता है । जीव शुद्धद्रव्याथिकनयसे शुद्ध चिदानन्द स्वभावरूप है, पर अनादि कर्मबन्वरूप पर्यायके कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्यायको ग्रहण करता है। यद्यपि जीव पर्यायरूपसे परिणमन करता है, तो भी निश्चयनयसे अपने शुद्ध रूप को नहीं छोड़ता है । इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका भी कथन किया है।
इस प्रकार टीकाकार ब्रह्मदेवने गाथाका शाब्दिक व्याख्यान ही नहीं किया, अपितु उसका विशेष विवेचन या व्याख्यान किया है। जैन आगमिक परम्परानुसार मति, श्रुत ज्ञानको परोक्ष कहा है, किन्तु ब्रह्मदेवने गाथा ५की टीका शंका-समाधानपूर्वक उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। इसी प्रकार गाथा ४४की व्याख्या में दर्शनका स्वरूप तर्कशास्त्र और सिद्धान्त ग्रन्थानुसार उपस्थित किया गया है। ब्रह्मदेवने इस स्वरूपका विवेचन धवला और जय धवला टीकाओंके आधारपर किया है। निश्चयतः ब्रह्मदेवने आगम और अध्यात्मके प्रकाशमै व्यसंग्रही टीका लिखी है। इस टीकामें उद्धरणपद्यों की बहुलता है । समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमार्थप्रकाश, योग सार, मूलाचार, भगवतीभराधना, इटोपदेश, यशस्तिलक, आप्तस्वरूप, त्रिलोकसार और तत्वानुशासनके उद्धरण उपलब्ध होते हैं। गाथा ४५ में पंच नमस्कारग्रन्थ, लघुसिद्धचक और अदसिद्धचक्रका कथन आया है। पंच
नमस्कार ग्रन्थको १२००० श्लोकप्रमाण कहा है-"अन्यदपि द्वादशसहस्र प्रमितपंचनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवा
नविधानं भेदाभेदरलत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् ।" इसी प्रकार पंचपरमेष्टि ग्रन्थका कथन भी भाया है | लिखा है-"तथैव विस्तरेण पंचपरमेष्ठिान्थकथितक्रमेण, अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनादिधिरूप मन्त्रवादसम्बन्धिपंचनमस्कारग्रन्थेन चेति। इस प्रकार बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें अनेक प्रन्य और ग्रन्थकारोंका निदेश आया है, जो इतिहासकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है।
परमार्थप्रकाशकी यह टोका भी बृहद्व्यसंग्रहकी टोकाके समान विस्तृत है। यह सत्य है कि इसमें द्रव्यसंग्रहकी टीकाके समान सैद्धान्तिक विषयोंका समावेश नहीं हो सका है । भावनात्मकग्रन्थ होनेके कारण टीकाकारने आत्मा, भकि, बीतरागता एवं सरागताका विस्तारपूर्वक कथन किया है । द्रव्यसंग्रहके समान इसमें भी शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, मागमार्थ और भावार्थकी पद्धतिको अपनाया गया है। विषयोंके लिए शंका-समाधानपूर्वक प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण किया है। गाथा २१७ के व्याख्यानमें बताया है कि निश्चयसम्यक्त्व वीतरागचारित्रका अविनाभावी है, पर निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थावस्थामें भी सम्भव है, पर वीतरागचारित्र वहां नहीं रहता है। अतः पूर्वापर विरोध आता है। इस विरोधका परिहार नयदृष्टि द्वारा किया गया है। इसी प्रकार शुद्धात्माका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्रासि होती है, पर अन्यत्र यह भी बताया गया है कि द्रव्यपरमाणुभावमें परमाणुका ध्यान करनेसे केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। इस शंकाका समाधान भी तात्विकष्ट्रिसे किया है। टीकाके अन्तमें बताया है कि "इस ग्रन्थ में अधिकतर पदोंकी सन्धि नहीं की गयी है और सुखपूर्वक बोध कराने के लिए वाक्य भी पृथक्-पृथक रखे गये हैं। अतः विद्वानोंको इस ग्रन्थमें लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य, विशेषण, वाक्य, समाप्ति आदि सम्बन्धी दुषण नहीं देखना चाहिये।" ___ टोकाकी व्याख्यानशैलीका निरूपण करते हुए स्वयं टीकाकारने लिखा है "एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थ: कचित्तः । नविभागकथनरूपेण नयार्थी भणितः । बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः । अत्र नित्यनिरजनज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्य भुपादेयमिति मावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले
१. वृहद्रव्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, गाथा ४९, पृ. २०८ ।
२. वही. गाथा ५४, पृ० २२२ ।
यथासम्भव सर्वत्र ज्ञातव्यः ।" सन्धि आदिके सम्बन्धमें इसी आशयका कथन बहद्माव्यसंग्रहको टीकामें भी पाया जाता है। बताया है.-"अब ग्रन्थे विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति ववनात्पादानां सन्धिनियमो नास्ति । वाक्यानि च स्तोक स्तोकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिमवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमास विशेषणवावयसमाप्त्यादिषणं तथा च शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादन विषये विस्मृति दुषणं च विद्धिन ग्राह्यमिति"।
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीकाशैली भाष्यात्मक होनेपर भी सरल है। व्याख्या नये रूपमें प्रस्तुत की गयी हैं । अन्य ग्रन्थोंसे जो उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनका विषयके साथ मेल बैठता है । टीकाकारके व्यक्तित्वके साथ मूललेखकका व्यक्तित्व भी ब्रह्मदेचमें समाविष्ट है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्हदेव |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Bramhadev12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री ब्रम्हदेव 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 21-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 21-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
अध्यात्मश लोक टीकाकारोंमें आचार्य ब्रह्मदेवका नाम उल्लेखनीय है। ये जनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान थे। इन्होंने 'स्व' समय और पर समयका अन्छा अध्ययन किया है। इनके सम्बन्धमें बद्रव्यसंग्रहको भूमिकामें पंडित जवाहरलालजोने लिखा है कि ब्रह्म उनको उपाधि है, जो बतलाती है कि वे ब्रह्मारी थे और देव उनका नाम है । कई ग्रन्थकारोंने अपने नामके प्रारम्भमें ब्रह्मशब्द का उपयोग उपाधिक रूपम किया है। यथा-आराधनाकथाकोशके कर्ता ब्रह्म मेमिदत्त और श्रुतस्कन्धके रचयिता ब्रह्म हेमचन्द्र । इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म नेमिदत्त ब्रह्मचारी थे, पर 'ब्रह्म' यह उनकी उपाधि न होकर सम्भवतः ब्रह्मदेव यही पूरा नाम रहा हो। उनके उपलब्ध ग्रन्थोंसे उनके पापिद्धत्यका सो ग्ज्ञिान होता ही है, साथ ही अनेक विषगोंको जानकारी भी मिलती है। ब्रह्मदेवके परिचयके सम्बन्ध में उनके ग्रन्थोंसे कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। श्री पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीने अपने एक निबन्धमें बताया है कि 'द्रव्यसंग्रह के रचयिता नेमि चन्द्र सिद्धान्तदेव, वृत्तिकार ब्रह्मदेव
और सोमराज धिमे तीनों ही समसामयिक हैं। उन्होंने अपने कथनकी पुष्टि के लिए 'बृहद्रव्यसंग्रह' को टोकाके उत्थानवाक्यको उपस्थित कर लिखा है
पहले नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्वारा सोमनामके राजश्रेष्ठिके निमित्त मालव देशके आश्रमनामक नगरके मुनिसुवत चैत्यालयमें २६ गाथात्मक द्रव्यसंग्रहके लघुरूपमें रचे जाने और बादमें विशेष तत्वपरिज्ञानार्थ उन्हीं नेमिचन्द्र के द्वारा बृहद्व्यसंग्रहनी रचना हुई है । उस बृहद्रव्यसंग्रह के अधिकारोंके विभाजन पूर्वक यह वृत्ति आरम्भ की जाती है। साथ में यह भी सूचित किया है कि उस समय आश्रमनामका यह नगर महामण्डलेश्वरके अधिकारमें था और सोम नामका राजश्रेण्टि भाण्डागार आदि अनेक नियोगोंका अधिकारी होने के साथ साथ तत्त्वज्ञानरूप सुधारसका पिपासु' था !"
श्री परमानन्दजीको अनुमान है कि ब्रह्मदेवके उक्त घटनानिर्देश और लेखनशैलीसे यह स्पष्ट है कि ये सब घटनाएं उनके सामने घटी हैं। अतएव वत्तिकार ब्रह्मदेवको नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवके समकालीन या उनसे कुछ ही उत्तरकालवर्ती मानना चाहिए ।
द्रव्यसंग्रहके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव मालवदेशके निवासी थे। इन्होंने भाश्रमनगरको अपने निवाससे पवित्र किया था और भव्यचातकोंको ज्ञाना -
१. अनेकान्त वर्ष १९, पृ० १४५ ।
मृतका पान कराया था। मुनि श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवने पहले सोमश्रेष्टिके विशेष निमित्त २६ गाथात्मक पदार्थलक्षणरूपलघुद्रव्यसंग्रहकी रचना की, पश्चात् तत्वपरिज्ञानार्थ ५८ गात्मक बहदव्यसंग्रहकी रचना को, जिसका उल्लेख वृतिकारने उत्थानवाक्यमें किया है। वृत्तिकार ब्रह्मदेवने उसी आश्रम नगरके मुनिसुवत चैत्यालयमें अध्यात्मरसभित द्रव्यसंग्रहको महत्त्वपूर्ण टीका लिखी है। यह टीका और मूलमन्थरचना भोजदेवके राज्यकाल वि० सं० १७७४-१११०के मध्य लिखी गयी है। उत्थानिकावाक्यसे यह स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीका और द्रव्यसंग्रह दोनों ही भोजके काल में रने गये हैं। अतएव ब्रह्मदेवका समय वि० सं० को १२वीं शताब्दी होना चाहिए।
डॉ० ए०एन० उपाध्येने ब्रह्मदेवको जयसेनके बादका विद्वान बतलाया है। पर ब्रह्मदेव इनसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं, क्योंकि जयसेनने 'पञ्वास्तिकाय' की पहली गाथाकी टोकामै ग्रन्थके निमित्तकी व्याख्या करते हुए लिखा है-'अथ प्राभृतये शिवकुमारमहाराजो निमित्तं अन्यत्र द्रव्यसंग्रहादी सोमष्ठयादि ज्ञातव्य" । इससे स्पष्ट है कि जयसेन निमित्त कथनकी बातसे परिचित थे। अतएव वे ब्रह्मदेवके उत्तरवर्ती जात होते हैं। यों तो ब्रह्मदेवकी टीकाशैली जयसेना चार्य जेसो ही प्रतीत होती है। जयसेनाचार्यने टीकाओं में शब्दार्थ, नया, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थका कथन करनेका निर्देश किया है। मंगलादिकी चर्चा एवं व्याख्यान करनेकी पद्धति जयसेनाचार्य जैसी ही प्रतीत होती है। अतः सहसा ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मदेवने जयसेनाचार्यका अनुसरण किया हो । जयसेनने 'पंचास्तिकाय'की १४६वी गाथा और समयसारको १७वीं गाथा की टोकामें, द्रब्यसंग्रहको ५७वीं गाथाको टीकामें उद्धृत उद्धरणोंको अपनाया है । अत: अनुमान यह है कि 'बृहद्रव्यसंग्रह की १३ची गाथामें उद्धृत गद्य चाक्योंके आधारपर पपिडत आशाधरजीने श्लोकको रचना को है
"सहजशुद्धकेवलज्ञानदर्शनरूपाखण्डप्रत्यक्षाप्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रभुति षड्दच्यपञ्चास्तिकायसततत्त्वनवपदार्थेषु मूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितं वीत रागसर्वजप्रणीतनविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादष्टिर्भवति । पाषा परेखासदशानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्यतरोदयेन........." इन्द्रियसुखादि परद्ध्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते, परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलवर गृहीततस्करबदात्मनिन्दासहितः समिन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दष्टेल क्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्पादृष्टि: सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीय
१. परमात्मप्रकाश, प्रस्तावना (अंग्रेजी), पृ०७२ ।
कषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनेकदेशरागादिरहितस्वाभाविक सुखानु भूतिलक्षणेषु बहिविषयेषु पुनरेकदेशहिसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु" दमणबयसामाझ्यपोसहसचित्तराइभत्तया..." स एव सदृष्टि लिरेखादिदश कोपादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रामाहापाविरहितस्व शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुन: सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहावतेषु वर्तते “स एव जलरेखादिशदृशसंज्वलनकषायमन्दोदये............"सत्यपूर्वपरमालादकसुखानु भतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्ती भवति ।"
यही अभिप्राय पण्डित आशाधरजीके निम्नलिखित पद्यमें अंकित उपलब्ध होता है
भुरेखादिसदककषायवंशगो यो विश्वदरवाज्ञया
हेयं वैषयिक सुखं निजमुपादेयं स्विति श्रद्दधत् ।
चौरी मारयितुं धृतस्तलवरेणेवात्मनिदादिमान
शर्माक्षं भजते रुजल्यपि पर नोत्तप्यते सोप्यघः ॥
उक्त गद्य-पद्यमें शब्द और अर्थ सादृश्य है । अतः यह मानना पड़ता है कि किसी एकने दूसरेका अनुसरण किया है। आशाधरजीका समय चिकी १३वों शताब्दी है । आशाधरजीने बृहद्रव्यसंग्रहको टीकाके अनेक वाक्य ग्रहण विषे हैं--अत: ब्रह्मदेव आशाधरके पूर्ववर्ती हैं। इनका समय जयसेनसे पूर्व है। __पं० अजितकुमार शास्त्रीके सम्पादकत्व में प्रकाशित बृहद्रव्यसंग्रहकी भूमि कामें लिखा है--"जयसलमेरकै श्वेताम्बरीय भण्डार में वि० सं० १४८५ श्रावण सुदी तेरस शनिवारको लिम्बी हुई टीकावाली द्रव्यसंग्रहकी एक प्रति है। जो माण्डवगढ़ वर्तमान माण्डूमें काष्ठासंघ, माथुरसंघके भट्टारक गुणकोतिके शिष्य भट्टारक प्रशाकीति, हरिभूषणदेव और ज्ञानचन्द्रको आम्नायमें अग्रवालवंशी, मगंगोत्री श्रावक साह धोनुके पुत्र हींगाकी धर्मपत्नीने अपने ज्ञानाबरणकमके क्षयार्थ लिम्बबायी थी। इससे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवका समय इस पाण्डुलिपिको तिथिसे पूर्ववर्ती है। अतः निष्कर्ष रूपमें ब्रह्मदेवका समय ई० सन् को १२वीं शती है।
१. वृहद्रव्यसंग्रहको टोका
१. बृहद्व्य संग्रह, प्रथम संस्करण, गाथा १३, पृ० ३३-३५ ।
२. सागरिधर्मामृत, ११३ ।
२. परमार्थप्रकाशको टोका
३. तत्वदीपक
४. ज्ञानदीपक
५. प्रतिष्ठा तिलक
६. विवाहपटल
७. कथाकोष
बहाव्यसंग्रहको टीका-बृहद्रव्यसंग्रहको टोकामें अनेक सैद्धान्तिक बातोंका समावेश किया गया है। १०वीं गाथाके व्याख्यानमें समुद्धासका, तेरहवींके व्याख्यानमें गुणस्थान और मार्गणामोंका, ३५वीं गाथाके व्याख्यान में १२ अनुप्रेक्षाओंका और विशेषत: तीनों लोकोंका बहुत ही विस्तारके साथ वर्णन किया है । शान और दर्शनके प्रकरणमें ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदों की चर्चा कर दर्शनोपयोगका वर्णन किया गया है ।
द्वितीय अधिकारको प्रारम्भिक माथाओंकी उत्थानिकामें 'परिणामि जीव मुत्त' गाथा उद्धत कर छहों द्रव्योंका विस्तारसे व्याख्यान किया है। लिखा है
परिणामपरिणामिनी जीवपुद्गलो स्वभावविभावपर्यायाभ्यां कृत्वा शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावन्यजनपर्यायाभाबान्मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनीति । 'जीव' शनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते, तेन जीब तीति जीवः । व्यवहारनयेन पुन: कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुभिः प्राणर्जीवत्ति, जीविष्यति जीवितपूर्वो चा जीवः । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीबरूपाणि । "मुत्त' शुद्धात्मनो बिलक्षणस्पर्शगन्धवर्णवती मूतिरुच्यते, तत्सद्भावान्मूतः पुदगलः ! जीवद्रव्यं पुनरूपचरितासभूतव्यवहारेण मूर्तमपि शुद्धनिश्चयनयेना मूर्सम्, धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्तानि । "सपदेस' लोकमानप्रमिता. संख्येयप्रदेशलक्षणं जीवद्रव्यमादि कृत्वा पंचद्रव्याणि पंचास्तिकायसंज्ञानि सप्रदेशानि । कालद्रव्यं पुनबहुप्रदेशलक्षणकायवाभावादप्रदेशम् ।'
अर्थात् स्वभाव और विभाव पर्यायों द्वारा परिणामसे जीव एवं पुद्गल ये दो द्रव्य परिणामी हैं। शेष चार द्रव्य अर्थात् धर्म,अधर्म, आकाश और काल विभावव्यन्जनपर्यायके अभावकी मुख्यतासे अपरिणामी हैं। 'जीव' शुद्धनिश्चय नयसे निर्मल ज्ञान-दर्शनस्वभावधारक शुद्ध चैतन्यरूप है। आगममें शुद्ध चैतन्यको प्राण कहते हैं। उस शुद्ध चैतन्यरूप प्राणसे जो जोता है, वह जीव
१. बृहदव्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, द्वितीय अधिकार, चूलिका प्रकरण, पृ० ७६-७७ ,
है। व्यबहारनयसे कर्मोंके उदयसे प्राप्त द्रव्य तथा भावरूप चार प्राणोंसे अर्थात् इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छवास नामक प्राणसे जीता है, जोयेगा
और पहले जीता था, वह जीव है । पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अजीयरूप हैं। शुद्ध आत्मासे बिलवण, स्पर्श, गन्ध, रस तथा वर्णका सद्भाब जिसमें पाया जाता है, वह मूर्तिक है | पुद्गल मूर्तिवाला होनेसे मूर्ति कहलाता है । जीव
न्य अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनयसे मूर्त है किन्तु शुद्ध निश्चयनयको अपेक्षा अमूर्त है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य भी अमतिक हैं। लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशोंको धारण करनेसे जीवादि पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय नामसे कहे जाते हैं और बहप्रदेशरूप कायत्वके न होनेसे काल द्रव्य अप्रदेश है। इस प्रकार द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा द्रव्योंका विस्तारसे निरूपण किया है । द्रव्यों के इस विवेचनप्रसंगमें शंका-समा धान भी प्रस्तुत किया गया है। बताया है कि यदि जीब-अजीब ये दोनों द्रव्य सर्वथा अपरिणामी ही हैं, तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है
और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं, तो जीव-अजीव द्रभ्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं, आस्रवादि साल पदार्थ नहीं ? इस शंकाका उत्तर देते हुए बताया है कि कचित् परिणामी होनेसे सात पदार्थोंका कथन संगत होता है । जीव शुद्धद्रव्याथिकनयसे शुद्ध चिदानन्द स्वभावरूप है, पर अनादि कर्मबन्वरूप पर्यायके कारण राग आदि परद्रव्यजनित उपाधिपर्यायको ग्रहण करता है। यद्यपि जीव पर्यायरूपसे परिणमन करता है, तो भी निश्चयनयसे अपने शुद्ध रूप को नहीं छोड़ता है । इसी प्रकार अन्य द्रव्योंका भी कथन किया है।
इस प्रकार टीकाकार ब्रह्मदेवने गाथाका शाब्दिक व्याख्यान ही नहीं किया, अपितु उसका विशेष विवेचन या व्याख्यान किया है। जैन आगमिक परम्परानुसार मति, श्रुत ज्ञानको परोक्ष कहा है, किन्तु ब्रह्मदेवने गाथा ५की टीका शंका-समाधानपूर्वक उन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। इसी प्रकार गाथा ४४की व्याख्या में दर्शनका स्वरूप तर्कशास्त्र और सिद्धान्त ग्रन्थानुसार उपस्थित किया गया है। ब्रह्मदेवने इस स्वरूपका विवेचन धवला और जय धवला टीकाओंके आधारपर किया है। निश्चयतः ब्रह्मदेवने आगम और अध्यात्मके प्रकाशमै व्यसंग्रही टीका लिखी है। इस टीकामें उद्धरणपद्यों की बहुलता है । समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, परमार्थप्रकाश, योग सार, मूलाचार, भगवतीभराधना, इटोपदेश, यशस्तिलक, आप्तस्वरूप, त्रिलोकसार और तत्वानुशासनके उद्धरण उपलब्ध होते हैं। गाथा ४५ में पंच नमस्कारग्रन्थ, लघुसिद्धचक और अदसिद्धचक्रका कथन आया है। पंच
नमस्कार ग्रन्थको १२००० श्लोकप्रमाण कहा है-"अन्यदपि द्वादशसहस्र प्रमितपंचनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवा
नविधानं भेदाभेदरलत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् ।" इसी प्रकार पंचपरमेष्टि ग्रन्थका कथन भी भाया है | लिखा है-"तथैव विस्तरेण पंचपरमेष्ठिान्थकथितक्रमेण, अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनादिधिरूप मन्त्रवादसम्बन्धिपंचनमस्कारग्रन्थेन चेति। इस प्रकार बृहद्रव्यसंग्रहकी टीकामें अनेक प्रन्य और ग्रन्थकारोंका निदेश आया है, जो इतिहासकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है।
परमार्थप्रकाशकी यह टोका भी बृहद्व्यसंग्रहकी टोकाके समान विस्तृत है। यह सत्य है कि इसमें द्रव्यसंग्रहकी टीकाके समान सैद्धान्तिक विषयोंका समावेश नहीं हो सका है । भावनात्मकग्रन्थ होनेके कारण टीकाकारने आत्मा, भकि, बीतरागता एवं सरागताका विस्तारपूर्वक कथन किया है । द्रव्यसंग्रहके समान इसमें भी शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, मागमार्थ और भावार्थकी पद्धतिको अपनाया गया है। विषयोंके लिए शंका-समाधानपूर्वक प्रत्येक विषयका स्पष्टीकरण किया है। गाथा २१७ के व्याख्यानमें बताया है कि निश्चयसम्यक्त्व वीतरागचारित्रका अविनाभावी है, पर निश्चयसम्यक्त्व तो गृहस्थावस्थामें भी सम्भव है, पर वीतरागचारित्र वहां नहीं रहता है। अतः पूर्वापर विरोध आता है। इस विरोधका परिहार नयदृष्टि द्वारा किया गया है। इसी प्रकार शुद्धात्माका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्रासि होती है, पर अन्यत्र यह भी बताया गया है कि द्रव्यपरमाणुभावमें परमाणुका ध्यान करनेसे केवल ज्ञान उत्पन्न होता है। इस शंकाका समाधान भी तात्विकष्ट्रिसे किया है। टीकाके अन्तमें बताया है कि "इस ग्रन्थ में अधिकतर पदोंकी सन्धि नहीं की गयी है और सुखपूर्वक बोध कराने के लिए वाक्य भी पृथक्-पृथक रखे गये हैं। अतः विद्वानोंको इस ग्रन्थमें लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य, विशेषण, वाक्य, समाप्ति आदि सम्बन्धी दुषण नहीं देखना चाहिये।" ___ टोकाकी व्याख्यानशैलीका निरूपण करते हुए स्वयं टीकाकारने लिखा है "एवं पदखण्डनारूपेण शब्दार्थ: कचित्तः । नविभागकथनरूपेण नयार्थी भणितः । बौद्धादिमतस्वरूपकथनप्रस्तावे मतार्थोऽपि निरूपितः, एवं गुणविशिष्टाः सिद्धा मुक्ताः सन्तीत्यागमार्थः प्रसिद्धः । अत्र नित्यनिरजनज्ञानमयरूपं परमात्मद्रव्य भुपादेयमिति मावार्थः । अनेन प्रकारेण शब्दनयमतागमभावार्थो व्याख्यानकाले
१. वृहद्रव्यसंग्रह, प्रथम संस्करण, गाथा ४९, पृ. २०८ ।
२. वही. गाथा ५४, पृ० २२२ ।
यथासम्भव सर्वत्र ज्ञातव्यः ।" सन्धि आदिके सम्बन्धमें इसी आशयका कथन बहद्माव्यसंग्रहको टीकामें भी पाया जाता है। बताया है.-"अब ग्रन्थे विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति ववनात्पादानां सन्धिनियमो नास्ति । वाक्यानि च स्तोक स्तोकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिमवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमास विशेषणवावयसमाप्त्यादिषणं तथा च शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादन विषये विस्मृति दुषणं च विद्धिन ग्राह्यमिति"।
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मदेवकी टीकाशैली भाष्यात्मक होनेपर भी सरल है। व्याख्या नये रूपमें प्रस्तुत की गयी हैं । अन्य ग्रन्थोंसे जो उद्धरण प्रस्तुत किये गये हैं, उनका विषयके साथ मेल बैठता है । टीकाकारके व्यक्तित्वके साथ मूललेखकका व्यक्तित्व भी ब्रह्मदेचमें समाविष्ट है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्हदेव |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bramhadev 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 21-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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