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#BramhaJindasPrachin
ब्रह्मजिनदास संस्कृत के महान विद्वान और कवि थे। ये कुन्दकुन्दान्वय, सर स्वती गच्छके भट्टारक सकलकोतिके कनिष्ठ भ्राता और शिष्य थे। बलात्कार गणको ईडर शाखाके सर्वाधिक प्रभावक भट्टारक सकलकोतिके अनुज होनेके कारण इनकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी।
इनकी माताका नाम शोभा और पिताको नाम कर्णसिंह था । ये पाटनके रहनेवाले तथा हूंबड़ जातिके श्रावक थे। पर्याप्त धनिक और समृद्ध थे। कुछ समयके बाद इन्हें घरसे विरक्ति हो गयो और इन्होंने श्रमण-जीवन स्वीकार किया । इन्होंने गुरुके रूपमें सकलकोतिका आदरपूर्वक स्मरण किया है ।
ब्रह्मजिनदासको जन्म-तिथिके सम्बन्धमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है, पर वि० सं० १५१० से आचार्य ब्रह्मजिनदास ख्याति प्राप्त कर चुके हैं तथा अनेक मूतिलस्त्रों में उनके निर्देश मिलते हैं। सकलकीतिका जन्म वि. सं० : ४४३में हुआ है । अतः लघुभ्राता होनके कारण इनकी जन्म तिथि ४-५ वर्ष बाद भी स्वीकार की जाये तो वि० सं० १४५* के पूर्व ही इनकी जन्मतिथि आता है। इन्होंने वि० सं० १५१० माघ शुक्ला पञ्चमीको एक पञ्चपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थो । यथा ___ "सबत् १५१० वर्षे माहमासे शुक्लपक्षे ५ रबी श्रीमलसंभट्टारक पद्मनन्दि तपट्टे भा श्रोसकलकोति तच्छिष्य ब्रह्मजिनदास हुंबड जातीय सा तेजु भा मलाई......।"
कविने गुजराती हरिवंशरासमें उसका रचनाकाल वि० सं० १५२० (ई० सन् १४५३) अंकित किया है। कहा जाता है कि भट्टारक सकलकोतिने वि० में०१४८१ में संघसहित बडालीम चातुर्मास किया था और वहाँ के अमीझरा पार्श्वनाथ चैत्यालय में बैठकर 'मलाचारप्रदीप' नामक अन्य अपने अनुज और शिष्य ब्रह्मजिनदासके आग्रहसे वि० सं० १४८१ श्रावण शुक्ला पूर्णिमाके दिन पूर्ण किया था। कविके संस्कृत हरिवंशपुराणको पाण्डुलिपि मार्गशीर्ष कृष्णा प्रयोदशो रविवार वि० सं० १५५५ की प्राप्त होती है। अतः इनका यह ग्रन्थ ई० सन् १४९८ के पूर्व अवश्य ही रचा गया होगा | अतएव हमारा अनुमान
है कि ब्रह्मजिनदासका समय वि० सं० १४५०-१५२५ होना चाहिए। इस समयावधिमें कविकी रचनाओंका लेखन भी सम्भव है।
इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि मनोहर, मल्लिदास, गुणदास और नेमिदास इनके शिष्य थे । ब्रह्मजिनदास ग्रन्धरचयिता होने के साथ कुशल उपाध्याय भी थे | यही कारण है कि इनके सानिध्य में अनेक शिष्योंन ज्ञानार्जन किया था।
१. जम्बूस्वामीचरित
२. रामचरित
३. हरिवंशपुराण
४. पुष्पाजांलवतकथा
५. जम्बूदीपपूजा
६. साद्वंद्वयहीपपूजा
७. सप्तषिपुजा
८. ज्येष्ठिाजनवर पूजा
९. सोलहकारणपूजा
१०. गुमपूजा
११. अनन्सबसपूजा
१२. जलयात्राविधि
१. आदिनाथपण
२. हरिवंशपुराण
३. राम-सीतारास
४. यशोधररास
५. हनुमंतरास
६. नागकुमाररास
७. परमहसरास
८. अजितनाथरास
९.होलोरास
१०. धर्मपरीक्षारास
११. ज्येष्ठिजिनवररास
१२. श्रेणिकरास
१३. समकितमिथ्यात्वरास
१४. सुदर्शनरास
१५. अम्बिकारास
१६. नागश्रीरास
५७. श्रीपालरास
१८. जम्बूस्वामीरास
१२. भद्रबाहरास
२०. के मविपाकरास
२१. सुकौशलस्वामीरास
२२. रोहिणीरास
२३. सोलहकारणरास
२४. दशलक्षण रास
२१. अनन्तवतगस
२६. धन्नकुमारगम
२७. चारुदत्तप्रबन्धरास
२८. पुष्पाञ्जलिरास
१. शिष्य मनोहर स्पड़ा ब्रह्म मल्लिदास गणदास ।
पढ़ो पढ़ावो बहु भाव सों जिन होई सोख्य विकास ।। हरिवंशपुराणनी प्रशस्ति ब्रह्मजिनदास शिष्म निरमला नेमिदास सुविचार । पाई पड़ावो विस्तरो परमहंस अवतार ।।-परमहंसरास, पद्य ८ ।
२९. धनपालरास
३०, भविष्यदत्तरास
३१. जीवन्धर रास
३२. नेमीश्वर रास
३३. करकण्डरास
३४. सुभौमचक्रवर्ती रास
३५. अाकीलालगनस
३६. मिथ्यादुक्डविनती
३७. बारहवतगीत
३८. जीवड़ागोत
३९ बिणन्दगीत
४०. आदिनाथस्तवन
४१. आलोचनाजधमाल
४२. मुरुजयमाल
४३. शास्त्रपूजा
४४. सरस्वतोपूजा
४५. मुरुपूजा
४६. जम्बूद्वीपपूजा
४७. निर्दोषसप्तमीव्रतपूजा
४८. रविव्रतकथा
४९, चौरासीजातिजयमाल
५०. भट्टारकविद्याधरकथा
५१, अष्टांगसम्यक्त्वकथा
५२. व्रतकथा
५३. पञ्चपरमेष्ठीगुणवर्णन
इस चरितकाव्यमें अन्तिम केवली जम्बूस्वामीका जीवनवृत्त अंकित है । सम्पूर्ण काम ११ सगों में विभक्त है । शृङ्गार और वोररसका सुन्दर वर्णन पाया जाता है। अलंकारों की दुष्टिसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तरन्यास, काब्यलिंग, निदर्शना, परिसंख्या आदि सभी प्रमुख अर्था लंकार प्राप्त है। भाषाशैलोको सशक्त बनाने के लिए सुभाषितोंका भी प्रयोग किया गया है।
इस पुराणमें रखें तीर्थकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके वंश हरिवंशमें उत्पन्न हुए व्यक्तियोंका वर्णन किया गया है। कौरव और पाण्ड. वोंकी कथा भी निबद्ध है । समस्त कथा ४० सों में विभक्त है । रस, अलंकार, गुण और रीतिको दृष्टि से भी इस पुराणका पर्याप्त मूल्य है । सृष्टि-विद्या, श्रावकाचार, श्रमणाचार, गुण-द्रव्य, तत्वज्ञान, नय आदिका भी कथन आया है |
रविषेणाचार्यके पद्मपुराणके आधारपर इस रामकथाको रचना को गयी है। समस्त इतिवृत्त ८३ सर्गों में विभक्त है और १५०० पद्य प्रमाण हैं । माषाके सरल होने पर भी शैलो अलंकृत है।
राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में रचा गया यह पुराण ग्रन्थ कविको सबसे बड़ा रचना है । ऋषभदेव, बावलि, भरत आदि महा पुरुषों के जीवनवृत्त अंकित हैं। आदि तीर्थंकर ऋषभदेवको पूर्व भवावली,
भोगभूमिको समदि, कुलकरोंकी उत्पत्ति तथा उनके द्वारा विभिन्न समयों में सम्पादित विभिन्न कृत्योंके निर्देश, कर्मभूमियोंका प्रारम्भ एवं इन कर्म
भूमियोंमें घटित होनेवाली विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण किया गया है। | आचार्यने देशी भाषामें ग्रन्थका रचे जानेका कारण बतलाते हुए लिखा है--
भविषण भाव सुणो आज, रास कहो मनोहार ।
आदिपुराण जोई करी, कबित करूं मनोहार ।।
बाल गोपाल जिम पढ़े गणे, जाणे बहु भेद ।
जिन सासण गुण निरमला, मिथ्यामत कैद ।।
कठिन नारेल दीजे बालक हाय, ते स्वान न जाणे ।
छोल्यां केला द्रास्त्र दीजे, ते गुण बहु माने ।
तिम ए आदपुराण सार, देस भाषा बखाणं ।
प्रगुण गुण जिम विस्तरे, जिन सासण बखाण ।
इस ग्रन्थका दूसरा नाम नेमिनाथरास भी है। कविने संस्कृत में लिखे गये अपने पुराणपर ही राजस्थानी भाषामें इस काव्यग्रंथकी रचना की है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२० है ।
रामके जीवनवृत्तको राजस्थानी भाषामें निबद्ध किया गया है। यह रचना वि० सं० १५०८ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशीको लिखी गयी है।
महाराज यशोधरको कथा अहिंसाका महत्त्व वर्णित रह नेके कारण साहित्य-स्रष्टाओंके लिए विशेष प्रिय रहे हैं। ब्रह्मजिनदासने भी उक्त यशोधरकथाको आधार मानकर इस कृतिकी रचना की है । भाषा शैलीको दृष्टिसे यह रचना ग्राह्य है।
पुण्यपुरुष हनुमानका जीवन जैन आचार्य और जैन लेख कोंको विशेष प्रिय रहा है। यह एक लघु काव्य है, जिसमें चरितनायक
हनुमानके जीवनकी मुख्य-मुख्य घटनाओंका वर्णन किया गया है । इस रासमें । ७२७ दोहा, चौपाई बन्ध है।
ज्ञानपंचमीनतका माहात्म्य दिखलानेके लिए नाग कुमारको कथा प्रसिद्ध है । इस कथाके आधार पर संस्कृत, अपभ्रंश और प्राकृत
आदि भाषाओंम भी काव्य लिखे गये हैं। ब्रह्मजिनदासने राजस्थानीमिश्रित हिन्दोमें नागकुमाररासकी रचना कर पंचमीव्रतका माहात्म्य प्रकट किया है।
इस आध्यात्मिक रूपककाव्यका नायक परमहंस नामक
गजा है और चेतनानामक रानी नायिका है। नायक मायारानीके वश होकर अपने शुद्ध स्वरूपको भूल जाता है और कायानगरी में रहने लगता है। राजाका अमात्य मन है, जिसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति मामक दो पलियाँ हैं । इस कायका प्रतिनायक मोह है। इस प्रकार मोह और परमहंसका संघर्ष दिख लाकार मोहका पराजय और परममको विजय दिखलायी गयी है । यह प्रतीक रचना बड़ी सुन्दर है।
इस रासम्रन्थमें द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथका जीवन वणित है। रचयिताने अजितनाथके जीवनकी प्रमुख घटनाभोंको संक्षेपमें निबद्ध करनेका प्रयास किया है।
रचयिताने जैन मान्यताके आधारपर होलीकी कथा संक्ति की है। इस रासग्रन्धमें कुल १८८ पद्य हैं, तथा दोहा, चौपाई और वस्तु बन्ध छन्दोंका प्रयोग किया गया है।
मनुष्यको पापप्रवृत्तियोंसे हटाकर शुभ प्रवृत्तियोंकी ओर अग्रसर करने के लिए इस ग्रन्थकी रचना की गयी है। इस सममें दो पक्तिगोंके कार्य-कलाप विशेष रूपसे अंकित है। एक व्यक्ति मनोवेग है, जो शुद्धाचरण वाला है और दूसरा व्यक्ति पवनवेग है, जो सन्मार्गसे भ्रष्ट हो चुका है। इन दोनों व्यक्तियोंके आधारसे कथावस्तुका विकास हुआ है।
यह लघुकथाकाव्य है। बताया गया है कि सोमाने प्रतिज्ञा की थी कि वह प्रतिदिन एक कलश जल लेकर श्रीजीका अभिषेक करेगी। उसने विभिन्न परिस्थितियोंके आनेपर भी अपनी इस प्रतिज्ञाका निर्वाह किया है। कविने सोमाकी इस प्रतिज्ञाका बड़े ही उदात्त रूप में वर्णन किया है । पद्यसमा १२० है।
इस कृतिमें मगधसम्राट् श्रेणिकका जीवनवृत्त अंकित हैं। ये भगवान्के प्रमुख श्रोता थे। यह रासग्रन्थ दोहा और चौपाई छन्दमें लिखा गया है । भाषा सरल और सुन्दर है ।
इस लघुकाय रासमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका चित्रण किया गया है । इसमें 8 पद्य हैं। पाखण्डमढ़ता, देवमढ़ता और गुरू मढ़ताका अच्छा निराकरण किया गया है। फलप्राप्ति के हेतु किसी भी देवकी आराधना करना मिथ्यात्व है। सम्यक्ष्टिकी श्रद्धा दद और निर्मल होती है । बह ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप आत्माका ही श्रद्धान करता है । उसको दृष्टि में अपने किये हुए कोका फल भोक्ता यह संसारी जीव है। अतएव किसी भी देनविशेष
की उपासना करनेसे पुत्र,धन आदिको प्राप्ति संभव नहीं है।
इस रामकाव्यमें ३३७ पद्यों द्वाग सुदर्शनकी कथा वणित है । कविने विकारों और कषायोंका अच्छी चित्रण किया है।
१५८ छन्द्रों द्वारा अम्बिकादेवीका चरित निबद्ध किया गया है। काध्यगणोंका सामान्यतया समावेश हुआ है।
इस ससमें रात्रिभोजमके त्यागका महत्व वणित है। इस व्रतका पालन नागश्रीने किया है। अतः कविने २५३ पद्यों में नागनीका चरित लिखा है।
इस रास काव्यमें ४४८ पद्य हैं और इसमें कोटिभट श्रीपालके जीवनका चित्रण हुभा है | कविने भाग्यवादका महत्त्व बतलाया है श्रीपालके अतिरिक्त, मैना सुन्दगे, रमण मंजूषा, धवल सेठ आदि पात्रोंके चरितका चित्रा किया गया है।
१००५ पद्योंमें अन्तिम केवली जम्नुस्वामीके चारतका अंकन रासशैली में किया गया है ।
अन्तिम श्रुतली भद्रबाहकामकि जीवनका जिण' इस रासकाव्य में किया गया है। मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भद्रबाहुके शिष्य थे।
४६ पद्योंमें रविव्रतका माहात्म्य वर्णित है। इस कृतिकी भाषा सरल और सुबोध है ।
कविने पूजासाहित्यमें नामानुसार पूजाओका अंकन किया है। गौत और स्तवनोंमें भावोंकी गहराई पर्याप्त रूपमें पायी जाती है । ब्रह्मजिनदासको काव्य प्रतिभा अमाधारण है | अन्यबाहुल्यको दृष्टिसे इनका स्थान जैनसाहित्यमें प्रमुख है। संस्कृतकी अपेक्षा राजस्थानीमिश्रित हिन्दी-रचनाएं अधिक सरस हैं। अभ्जनाकी गोदसे शिशु हनुमानके गिरनेका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
अङ्के, विधान तनयं यावत्पश्येत्तदजनी ।
लोलत्वात्पत्तितस्तावदर्भकः पर्वतापनि ।।
शतखण्डगतातत्र शिला बालकगतः ।
हाहाकार बिमाने हि जातं तत्र ममस्तले ।।
अञ्जनासुन्दरी तावद्रोदनं विदधे परम् ।
हा पुत्र हा गुणाधार हा माग्मदृशा कृते ।।
समाप्तिञ्च मया नीता: सर्वे दुःखकदम्बकाः ।
त्वया नवीना विहितास्तत्किं करवाण्यहम् ॥
चूर्णीभूतां शिला दश्वा शिशुचोपद्रवोप्सितम् ।
उत्तानशय्यामाश्रित्याधयमानं कराङ्गलिम् ।।
हनुमच्चरित ५|१.२-१४७
पद्यों में संगीतात्मात भी पायी जाती है । निम्नलिखित पद्म दर्शनीय है सरलतरतरंगास्. जबीना, बग्घटपटताभोगजिताबारेणन्द्राः । दतपथमचनोना मानसमा मिनर.. .यो ।
हनुमचरित ६|१२२
कविने कान्यकी समापिकी सूचना देते हुए लिखा है
जैनेन्द्रशासनसुधारसपानपुष्टो,
देवेन्द्रको त्तितिनायकनैष्टिकात्मा ।
तचिन्छष्यसंयमधरेण चरिन्नमेतत्,
सृष्टं समीरणसुतस्य महद्धिकस्य ।।
हनुचरित्त १२|९१
हरिवंश पुराणको प्रशस्तिमें कदिने भुवनकोतिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
जगति भुवनकोतिः भूतले ख्यातकीत्तिः
धुतजलनिधिवेत्ताऽनंगमात्रनमेत्ता ।
बिमलगणनिवासश्निनसंसारपारा;
स जयति जिनराजः साधुराजीसमाजः ।। ३९॥३८
प्रबन्ध संघटनमें आचार्यको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । कथाके माध्यमसे पौराणिक, धार्मिक और दार्शनिक तथ्यों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। चरित, धर्म और दर्शनकी परम्पराका पोषण चरित और रास काव्योंके रूपमें किया गया है। ये भट्टारक सकलकीति और भुवनकीत्तिके संघमें प्रविष्ट थे और उन्हें गुरुतुल्य मानते थे । इनकी रचनाए ६० से भी अधिक है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक सकलकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्हजिनदास |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BramhaJindasPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री ब्रम्हाजिंदा (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
ब्रह्मजिनदास संस्कृत के महान विद्वान और कवि थे। ये कुन्दकुन्दान्वय, सर स्वती गच्छके भट्टारक सकलकोतिके कनिष्ठ भ्राता और शिष्य थे। बलात्कार गणको ईडर शाखाके सर्वाधिक प्रभावक भट्टारक सकलकोतिके अनुज होनेके कारण इनकी प्रतिष्ठा अत्यधिक थी।
इनकी माताका नाम शोभा और पिताको नाम कर्णसिंह था । ये पाटनके रहनेवाले तथा हूंबड़ जातिके श्रावक थे। पर्याप्त धनिक और समृद्ध थे। कुछ समयके बाद इन्हें घरसे विरक्ति हो गयो और इन्होंने श्रमण-जीवन स्वीकार किया । इन्होंने गुरुके रूपमें सकलकोतिका आदरपूर्वक स्मरण किया है ।
ब्रह्मजिनदासको जन्म-तिथिके सम्बन्धमें कोई निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है, पर वि० सं० १५१० से आचार्य ब्रह्मजिनदास ख्याति प्राप्त कर चुके हैं तथा अनेक मूतिलस्त्रों में उनके निर्देश मिलते हैं। सकलकीतिका जन्म वि. सं० : ४४३में हुआ है । अतः लघुभ्राता होनके कारण इनकी जन्म तिथि ४-५ वर्ष बाद भी स्वीकार की जाये तो वि० सं० १४५* के पूर्व ही इनकी जन्मतिथि आता है। इन्होंने वि० सं० १५१० माघ शुक्ला पञ्चमीको एक पञ्चपरमेष्ठीकी मूर्ति स्थापित की थो । यथा ___ "सबत् १५१० वर्षे माहमासे शुक्लपक्षे ५ रबी श्रीमलसंभट्टारक पद्मनन्दि तपट्टे भा श्रोसकलकोति तच्छिष्य ब्रह्मजिनदास हुंबड जातीय सा तेजु भा मलाई......।"
कविने गुजराती हरिवंशरासमें उसका रचनाकाल वि० सं० १५२० (ई० सन् १४५३) अंकित किया है। कहा जाता है कि भट्टारक सकलकोतिने वि० में०१४८१ में संघसहित बडालीम चातुर्मास किया था और वहाँ के अमीझरा पार्श्वनाथ चैत्यालय में बैठकर 'मलाचारप्रदीप' नामक अन्य अपने अनुज और शिष्य ब्रह्मजिनदासके आग्रहसे वि० सं० १४८१ श्रावण शुक्ला पूर्णिमाके दिन पूर्ण किया था। कविके संस्कृत हरिवंशपुराणको पाण्डुलिपि मार्गशीर्ष कृष्णा प्रयोदशो रविवार वि० सं० १५५५ की प्राप्त होती है। अतः इनका यह ग्रन्थ ई० सन् १४९८ के पूर्व अवश्य ही रचा गया होगा | अतएव हमारा अनुमान
है कि ब्रह्मजिनदासका समय वि० सं० १४५०-१५२५ होना चाहिए। इस समयावधिमें कविकी रचनाओंका लेखन भी सम्भव है।
इनकी रचनाओंसे अवगत होता है कि मनोहर, मल्लिदास, गुणदास और नेमिदास इनके शिष्य थे । ब्रह्मजिनदास ग्रन्धरचयिता होने के साथ कुशल उपाध्याय भी थे | यही कारण है कि इनके सानिध्य में अनेक शिष्योंन ज्ञानार्जन किया था।
१. जम्बूस्वामीचरित
२. रामचरित
३. हरिवंशपुराण
४. पुष्पाजांलवतकथा
५. जम्बूदीपपूजा
६. साद्वंद्वयहीपपूजा
७. सप्तषिपुजा
८. ज्येष्ठिाजनवर पूजा
९. सोलहकारणपूजा
१०. गुमपूजा
११. अनन्सबसपूजा
१२. जलयात्राविधि
१. आदिनाथपण
२. हरिवंशपुराण
३. राम-सीतारास
४. यशोधररास
५. हनुमंतरास
६. नागकुमाररास
७. परमहसरास
८. अजितनाथरास
९.होलोरास
१०. धर्मपरीक्षारास
११. ज्येष्ठिजिनवररास
१२. श्रेणिकरास
१३. समकितमिथ्यात्वरास
१४. सुदर्शनरास
१५. अम्बिकारास
१६. नागश्रीरास
५७. श्रीपालरास
१८. जम्बूस्वामीरास
१२. भद्रबाहरास
२०. के मविपाकरास
२१. सुकौशलस्वामीरास
२२. रोहिणीरास
२३. सोलहकारणरास
२४. दशलक्षण रास
२१. अनन्तवतगस
२६. धन्नकुमारगम
२७. चारुदत्तप्रबन्धरास
२८. पुष्पाञ्जलिरास
१. शिष्य मनोहर स्पड़ा ब्रह्म मल्लिदास गणदास ।
पढ़ो पढ़ावो बहु भाव सों जिन होई सोख्य विकास ।। हरिवंशपुराणनी प्रशस्ति ब्रह्मजिनदास शिष्म निरमला नेमिदास सुविचार । पाई पड़ावो विस्तरो परमहंस अवतार ।।-परमहंसरास, पद्य ८ ।
२९. धनपालरास
३०, भविष्यदत्तरास
३१. जीवन्धर रास
३२. नेमीश्वर रास
३३. करकण्डरास
३४. सुभौमचक्रवर्ती रास
३५. अाकीलालगनस
३६. मिथ्यादुक्डविनती
३७. बारहवतगीत
३८. जीवड़ागोत
३९ बिणन्दगीत
४०. आदिनाथस्तवन
४१. आलोचनाजधमाल
४२. मुरुजयमाल
४३. शास्त्रपूजा
४४. सरस्वतोपूजा
४५. मुरुपूजा
४६. जम्बूद्वीपपूजा
४७. निर्दोषसप्तमीव्रतपूजा
४८. रविव्रतकथा
४९, चौरासीजातिजयमाल
५०. भट्टारकविद्याधरकथा
५१, अष्टांगसम्यक्त्वकथा
५२. व्रतकथा
५३. पञ्चपरमेष्ठीगुणवर्णन
इस चरितकाव्यमें अन्तिम केवली जम्बूस्वामीका जीवनवृत्त अंकित है । सम्पूर्ण काम ११ सगों में विभक्त है । शृङ्गार और वोररसका सुन्दर वर्णन पाया जाता है। अलंकारों की दुष्टिसे उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तरन्यास, काब्यलिंग, निदर्शना, परिसंख्या आदि सभी प्रमुख अर्था लंकार प्राप्त है। भाषाशैलोको सशक्त बनाने के लिए सुभाषितोंका भी प्रयोग किया गया है।
इस पुराणमें रखें तीर्थकर नेमिनाथ और श्रीकृष्णके वंश हरिवंशमें उत्पन्न हुए व्यक्तियोंका वर्णन किया गया है। कौरव और पाण्ड. वोंकी कथा भी निबद्ध है । समस्त कथा ४० सों में विभक्त है । रस, अलंकार, गुण और रीतिको दृष्टि से भी इस पुराणका पर्याप्त मूल्य है । सृष्टि-विद्या, श्रावकाचार, श्रमणाचार, गुण-द्रव्य, तत्वज्ञान, नय आदिका भी कथन आया है |
रविषेणाचार्यके पद्मपुराणके आधारपर इस रामकथाको रचना को गयी है। समस्त इतिवृत्त ८३ सर्गों में विभक्त है और १५०० पद्य प्रमाण हैं । माषाके सरल होने पर भी शैलो अलंकृत है।
राजस्थानी मिश्रित हिन्दी में रचा गया यह पुराण ग्रन्थ कविको सबसे बड़ा रचना है । ऋषभदेव, बावलि, भरत आदि महा पुरुषों के जीवनवृत्त अंकित हैं। आदि तीर्थंकर ऋषभदेवको पूर्व भवावली,
भोगभूमिको समदि, कुलकरोंकी उत्पत्ति तथा उनके द्वारा विभिन्न समयों में सम्पादित विभिन्न कृत्योंके निर्देश, कर्मभूमियोंका प्रारम्भ एवं इन कर्म
भूमियोंमें घटित होनेवाली विभिन्न अवस्थाओंका चित्रण किया गया है। | आचार्यने देशी भाषामें ग्रन्थका रचे जानेका कारण बतलाते हुए लिखा है--
भविषण भाव सुणो आज, रास कहो मनोहार ।
आदिपुराण जोई करी, कबित करूं मनोहार ।।
बाल गोपाल जिम पढ़े गणे, जाणे बहु भेद ।
जिन सासण गुण निरमला, मिथ्यामत कैद ।।
कठिन नारेल दीजे बालक हाय, ते स्वान न जाणे ।
छोल्यां केला द्रास्त्र दीजे, ते गुण बहु माने ।
तिम ए आदपुराण सार, देस भाषा बखाणं ।
प्रगुण गुण जिम विस्तरे, जिन सासण बखाण ।
इस ग्रन्थका दूसरा नाम नेमिनाथरास भी है। कविने संस्कृत में लिखे गये अपने पुराणपर ही राजस्थानी भाषामें इस काव्यग्रंथकी रचना की है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२० है ।
रामके जीवनवृत्तको राजस्थानी भाषामें निबद्ध किया गया है। यह रचना वि० सं० १५०८ मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशीको लिखी गयी है।
महाराज यशोधरको कथा अहिंसाका महत्त्व वर्णित रह नेके कारण साहित्य-स्रष्टाओंके लिए विशेष प्रिय रहे हैं। ब्रह्मजिनदासने भी उक्त यशोधरकथाको आधार मानकर इस कृतिकी रचना की है । भाषा शैलीको दृष्टिसे यह रचना ग्राह्य है।
पुण्यपुरुष हनुमानका जीवन जैन आचार्य और जैन लेख कोंको विशेष प्रिय रहा है। यह एक लघु काव्य है, जिसमें चरितनायक
हनुमानके जीवनकी मुख्य-मुख्य घटनाओंका वर्णन किया गया है । इस रासमें । ७२७ दोहा, चौपाई बन्ध है।
ज्ञानपंचमीनतका माहात्म्य दिखलानेके लिए नाग कुमारको कथा प्रसिद्ध है । इस कथाके आधार पर संस्कृत, अपभ्रंश और प्राकृत
आदि भाषाओंम भी काव्य लिखे गये हैं। ब्रह्मजिनदासने राजस्थानीमिश्रित हिन्दोमें नागकुमाररासकी रचना कर पंचमीव्रतका माहात्म्य प्रकट किया है।
इस आध्यात्मिक रूपककाव्यका नायक परमहंस नामक
गजा है और चेतनानामक रानी नायिका है। नायक मायारानीके वश होकर अपने शुद्ध स्वरूपको भूल जाता है और कायानगरी में रहने लगता है। राजाका अमात्य मन है, जिसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति मामक दो पलियाँ हैं । इस कायका प्रतिनायक मोह है। इस प्रकार मोह और परमहंसका संघर्ष दिख लाकार मोहका पराजय और परममको विजय दिखलायी गयी है । यह प्रतीक रचना बड़ी सुन्दर है।
इस रासम्रन्थमें द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथका जीवन वणित है। रचयिताने अजितनाथके जीवनकी प्रमुख घटनाभोंको संक्षेपमें निबद्ध करनेका प्रयास किया है।
रचयिताने जैन मान्यताके आधारपर होलीकी कथा संक्ति की है। इस रासग्रन्धमें कुल १८८ पद्य हैं, तथा दोहा, चौपाई और वस्तु बन्ध छन्दोंका प्रयोग किया गया है।
मनुष्यको पापप्रवृत्तियोंसे हटाकर शुभ प्रवृत्तियोंकी ओर अग्रसर करने के लिए इस ग्रन्थकी रचना की गयी है। इस सममें दो पक्तिगोंके कार्य-कलाप विशेष रूपसे अंकित है। एक व्यक्ति मनोवेग है, जो शुद्धाचरण वाला है और दूसरा व्यक्ति पवनवेग है, जो सन्मार्गसे भ्रष्ट हो चुका है। इन दोनों व्यक्तियोंके आधारसे कथावस्तुका विकास हुआ है।
यह लघुकथाकाव्य है। बताया गया है कि सोमाने प्रतिज्ञा की थी कि वह प्रतिदिन एक कलश जल लेकर श्रीजीका अभिषेक करेगी। उसने विभिन्न परिस्थितियोंके आनेपर भी अपनी इस प्रतिज्ञाका निर्वाह किया है। कविने सोमाकी इस प्रतिज्ञाका बड़े ही उदात्त रूप में वर्णन किया है । पद्यसमा १२० है।
इस कृतिमें मगधसम्राट् श्रेणिकका जीवनवृत्त अंकित हैं। ये भगवान्के प्रमुख श्रोता थे। यह रासग्रन्थ दोहा और चौपाई छन्दमें लिखा गया है । भाषा सरल और सुन्दर है ।
इस लघुकाय रासमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वका चित्रण किया गया है । इसमें 8 पद्य हैं। पाखण्डमढ़ता, देवमढ़ता और गुरू मढ़ताका अच्छा निराकरण किया गया है। फलप्राप्ति के हेतु किसी भी देवकी आराधना करना मिथ्यात्व है। सम्यक्ष्टिकी श्रद्धा दद और निर्मल होती है । बह ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप आत्माका ही श्रद्धान करता है । उसको दृष्टि में अपने किये हुए कोका फल भोक्ता यह संसारी जीव है। अतएव किसी भी देनविशेष
की उपासना करनेसे पुत्र,धन आदिको प्राप्ति संभव नहीं है।
इस रामकाव्यमें ३३७ पद्यों द्वाग सुदर्शनकी कथा वणित है । कविने विकारों और कषायोंका अच्छी चित्रण किया है।
१५८ छन्द्रों द्वारा अम्बिकादेवीका चरित निबद्ध किया गया है। काध्यगणोंका सामान्यतया समावेश हुआ है।
इस ससमें रात्रिभोजमके त्यागका महत्व वणित है। इस व्रतका पालन नागश्रीने किया है। अतः कविने २५३ पद्यों में नागनीका चरित लिखा है।
इस रास काव्यमें ४४८ पद्य हैं और इसमें कोटिभट श्रीपालके जीवनका चित्रण हुभा है | कविने भाग्यवादका महत्त्व बतलाया है श्रीपालके अतिरिक्त, मैना सुन्दगे, रमण मंजूषा, धवल सेठ आदि पात्रोंके चरितका चित्रा किया गया है।
१००५ पद्योंमें अन्तिम केवली जम्नुस्वामीके चारतका अंकन रासशैली में किया गया है ।
अन्तिम श्रुतली भद्रबाहकामकि जीवनका जिण' इस रासकाव्य में किया गया है। मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भद्रबाहुके शिष्य थे।
४६ पद्योंमें रविव्रतका माहात्म्य वर्णित है। इस कृतिकी भाषा सरल और सुबोध है ।
कविने पूजासाहित्यमें नामानुसार पूजाओका अंकन किया है। गौत और स्तवनोंमें भावोंकी गहराई पर्याप्त रूपमें पायी जाती है । ब्रह्मजिनदासको काव्य प्रतिभा अमाधारण है | अन्यबाहुल्यको दृष्टिसे इनका स्थान जैनसाहित्यमें प्रमुख है। संस्कृतकी अपेक्षा राजस्थानीमिश्रित हिन्दी-रचनाएं अधिक सरस हैं। अभ्जनाकी गोदसे शिशु हनुमानके गिरनेका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
अङ्के, विधान तनयं यावत्पश्येत्तदजनी ।
लोलत्वात्पत्तितस्तावदर्भकः पर्वतापनि ।।
शतखण्डगतातत्र शिला बालकगतः ।
हाहाकार बिमाने हि जातं तत्र ममस्तले ।।
अञ्जनासुन्दरी तावद्रोदनं विदधे परम् ।
हा पुत्र हा गुणाधार हा माग्मदृशा कृते ।।
समाप्तिञ्च मया नीता: सर्वे दुःखकदम्बकाः ।
त्वया नवीना विहितास्तत्किं करवाण्यहम् ॥
चूर्णीभूतां शिला दश्वा शिशुचोपद्रवोप्सितम् ।
उत्तानशय्यामाश्रित्याधयमानं कराङ्गलिम् ।।
हनुमच्चरित ५|१.२-१४७
पद्यों में संगीतात्मात भी पायी जाती है । निम्नलिखित पद्म दर्शनीय है सरलतरतरंगास्. जबीना, बग्घटपटताभोगजिताबारेणन्द्राः । दतपथमचनोना मानसमा मिनर.. .यो ।
हनुमचरित ६|१२२
कविने कान्यकी समापिकी सूचना देते हुए लिखा है
जैनेन्द्रशासनसुधारसपानपुष्टो,
देवेन्द्रको त्तितिनायकनैष्टिकात्मा ।
तचिन्छष्यसंयमधरेण चरिन्नमेतत्,
सृष्टं समीरणसुतस्य महद्धिकस्य ।।
हनुचरित्त १२|९१
हरिवंश पुराणको प्रशस्तिमें कदिने भुवनकोतिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
जगति भुवनकोतिः भूतले ख्यातकीत्तिः
धुतजलनिधिवेत्ताऽनंगमात्रनमेत्ता ।
बिमलगणनिवासश्निनसंसारपारा;
स जयति जिनराजः साधुराजीसमाजः ।। ३९॥३८
प्रबन्ध संघटनमें आचार्यको पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है । कथाके माध्यमसे पौराणिक, धार्मिक और दार्शनिक तथ्यों की सुन्दर अभिव्यंजना हुई है। चरित, धर्म और दर्शनकी परम्पराका पोषण चरित और रास काव्योंके रूपमें किया गया है। ये भट्टारक सकलकीति और भुवनकीत्तिके संघमें प्रविष्ट थे और उन्हें गुरुतुल्य मानते थे । इनकी रचनाए ६० से भी अधिक है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक सकलकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्हजिनदास |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri BramhaJindas ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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