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#Bramhanemidatta16ThCentury
ब्रह्म नेमिदत्त मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगणके विद्वान भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य थे | इनके दोभागुरु भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्य विद्या नन्दि थे। इन्हीं विधानन्दिके पट्टपर मल्लिभूषण प्रतिष्ठित हुए, जो सम्य म्दान, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रयसे सुशोभित थे। आराधनाकथाकोशको प्रशस्तिमें मल्लिभषणकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
श्रीमज्जैनपदान्जसारमधुकृच्छीमूलसंधानणोः ।
सम्यग्दर्शनसाधुबोधविलसच्चारित्रचूड़ामणि: 11
विधानन्दिगुरुप्रपट्टकमलोल्लासप्रदो भास्करः।
श्रीभट्टारकर्माल्लभूषणगुरु यात्सता शर्मणे ||
ब्रह्मनेमिदत्त संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी और गुजराती भाषाके विद्वान थे। इन्होंने संस्कृतमें चरित, पुराण, कथा आदि ग्रन्थोंकी रचना की है। इन्होंने मालारोहिणी नामक एक प्रसिद्ध रचना लिखा है, जिसमें मूलसंधके आचार्य श्रुतसागरको नमस्कारकर फूलमाला कहने की प्रतिज्ञा की गयी है। मोंगरा, पारिजात, चम्पा, जूही, चमेली, मालती, मुचकुन्द, कदम्ब एवं रक्तकमल आदि सुन्धित पुष्प समूहोंसे गुम्फित जिनेन्द्रमालको स्वर्गमीक्ष सुखकारिणी बताया है और इसे समस्त दुःख-दारिद्र दूर करनेवाली कहा है। इस माला रोहिणीसे प्रतीत होता है कि ब्रह्मजिनदासको स्वाभाविक कविप्रतिभा
प्राप्त थी । वे सरस्वतीके बरद पुत्र थे। इनका व्यक्तित्व बहुमुखी था । प्रतिमा निर्माण और मन्दिर निर्माणके कार्यों में सहयोग भी देते थे। एक मूतिलेखमें ब्रह्मने मिदत्त के साथ ब्रह्ममहेन्द्रदत्तके नामका भी उल्लेख आया है, जिससे व इनके सहपाठी प्रतीत होते हैं। ये अग्रवाल जातिके थे और इनका गोत्र गोयल था। मालव देशके आशानगर के निवासी थे। इन्होंने अपने अन्योंकी रचना प्रमुख व्यक्तियों के अनुरोध से की है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अनेक व्यक्ति इनके सम्पर्क में रहे हैं।
ब्रह्मनेमिदत्तको रचनाओं में उनके समयका निर्देश प्राप्त होता है, जिससे इनके स्थितिकालपर सम्यक् प्रकाश पड़ता है। इन्होंने वि० सं० १९८५ में श्रीशान्तिदासके अनुरोधसे श्रीपाल परितकी रचना की है। सं० १५७५ में आराधनाकथाकोश लिखा है। नेमिनाथपुराणको रमना गी १५.८ में हुई. है। अतएव इनका समय विक्रमको १६ वीं शताब्दो है। सुदर्शनचरितकी प्रशस्ति कविने पद्मनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दि, मल्लिभषण और श्रुतसागरकी प्रशंसा को है। इस प्रशंसाके अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञात होता कि मल्लिभषण वि० को १६ वीं शताब्दी में हुए हैं और उनके प्रसिद्ध शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त भी इसी शताब्दीमें हुए हैं। अतएब ब्रह्मनेमिदत्तका समय वि. की १६ वीं शताब्दो है । सुदर्शनचरितके अन्त में लिखा है
श्रीमूलसंघे वरभारतीये गच्छे बलात्कारगणेतिरम्ये ।
श्रीकुन्दकुंदाख्यमुनींद्रवंशे जातः प्रभाचन्द्रमहामुनींद्रः ।।२।।
पट्टे तदीये मुनिपद्मनन्दीभट्टारको भन्मसरोजभानुः ।
जातो जगत्रयहितो गुणरत्नसिंधुः कुर्मात् सतां सारसुखं यतोशः ||३||
तादृपद्माकरभास्करोन देवेंद्रकीतिमुनिचक्रवर्ती ।
तपादपंकेजसुभक्तियुक्तो विद्यादिनंदी चरितं चकार ।।४।।
तत्परटेऽनि मल्लिभूषणगुरुचारित्रचूडामणिः,
संसारांबुधितारणकचतुरश्चितामणिः प्राणिनां ।
सुरिः श्रीश्रुतसागरो गुणनिधिः श्रोसिंहनन्दी गुरुः,
सर्वे ते यतिसत्तमाः शुभतरा कुर्चतु दो मंगलं ।।५।।
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभं ।
ने मिदत्तो व्रत्ती भक्त्या भावयामास शम्मद पक्ष।।६।।
१. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, सन् १९५०, पृ० ६७-६८ पर उद्भुत ।
ब्रम्हनेमिदत्त की लगभग १२-१३ रचनाएं प्राप्त हैं
१. आराधनाकथाकोश
२. नेमिनाथपुराण
३. श्रीपालचरित
४. सुदर्शन रत
५. रात्रि-भोजनत्यागकथा
६. प्रोसकरमहामुनिनरित
७. धन्यकुमारचरित
८. नेमिनिर्वाणकाव्य-इसकी प्रति ईडर में प्राप्त है।
९. नागकुमारकथा
१०, धर्मोपदेशपीयुषवर्षश्रावकाचार
११. मालारोहिणी
१२. आदित्यवारव्रतरास
आराधनाकथाकोश प्रसिद्ध कथानन्य है। इसका प्रकाशन हो चुका है। इसको सभी कथाएं अहिंसादि व्रतोंसे सम्बद्ध हैं । सामान्य व्यक्ति भी इन कथाओंके अध्ययनसे अपने चरितको उज्वल कर सकता है । संसारके विषय-कषायोंमें निमग्न व्यक्तिको ये कथाएं आत्मोत्थानकी ओर प्रेरित करती हैं। वास्तव में ब्रह्मनेमिदत्तके आराधनाकथाकोशका कथासाहित्य को दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।
इस ग्रन्थमें ९, अधिकार हैं और श्रीपालको कथा वर्णित है। इसकी प्रशस्तिमें कविने अपना परिचयं लिखा है। ९ वे अधिकारके अन्त में दी हुई प्रशस्तिमें बताया है ___"इति श्रसिद्धचक्रपूजातिशयं प्राप्त श्रीपालमहाराजचरिते भट्टारकश्रीमल्लि भूषणशिष्याचार्य श्रीसिंहन्दिब्रह्मश्रीशांतिदासानुमोदिते ब्रह्मनेभिदतावरचिते श्रीपालमहामुनींद्रनिर्वाणगमनो नाम नवमोधिकारः समाप्तः ।"
इस चरितके रचनेका उद्देश्य कविने सिद्धचक्रका महात्म्य बतलाया है । सर्ग बद्ध कथा नियोजित है । श्रीपालके जन्मसे लेकर उनके निर्माणपर्यन्त चरितका अंकन किया गया है। भाव और शैलीको दृष्टि से यह रचना अध्ययनीय है।
इस पुराणग्रन्थकी रचना सोलह अधिकारोंमें की गयी है और इसमें नेमिनाथका चरित अंकित है। उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और केवल इन पाँचों कल्याणकोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नेमिनाथकी अपूर्व शक्तिसे
प्रभावित होकर राजनीतिज्ञ कृष्ण द्वारा प्रस्तुत की गयी कूटनीतिका भी चित्रण आया है । श्रीकृष्णकी कूटनीतिके फलस्वरूप ही नेमिनाथ विरक्त होते हैं । बिल खती हुई राजुलने आँसुओंका प्रभाव भी उनपर नहीं पड़ता । कविने सभी मर्म स्पर्शी कथांशोंका उद्घाटन किया है। अन्तमें इस चरितको मोक्षप्रद बताया गया है । लिखा है
यस्योपदेशवशतो जिन गवस्य
नेमिपुराणमतुलं शिवसौख्यकारी,
चन मयापि मतितुच्छतयात्र भवत्या,
कर्यादिदं शुभमतं मम मंगलानि ।।
सुदर्शन रसके रचयिता यद्यपि आचार्य विद्यानन्दि हैं । पर एकादश अधिकारके अन्तमें ब्रह्मनेमिदत्तका नाम आया है, तथा
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् ।।
नेमिदत्तो व्रती भक्त्याभावयामास शर्मदम् ।।
इस पद्य में 'भावयामास' पद आया है, जिसका अर्थ, प्रकट किया, प्रदर्शित किया या पालन-पोषण किया अथवा मनन द्वारा पावन किया, किया है। अत एब यहाँ प्रकट किया या निमित किया यह अर्थ लेनेसे विरोध आता है । जिसका समाधान कुछ विद्वान यह कह कर करते हैं कि सुदर्शनचरितके दश
अधिकार मुमुक्षु विद्यानन्दि द्वारा विरचित हैं और ११वें अधिकारके रचयिता ब्रह्मानेमिदत हैं। हमारी दृष्टिसे यहाँ 'भावनामास'का अर्थ रचना किया गया न होकर संशोधन या सम्बर्द्धन किया गया होना चाहिये । अतएव ब्रह्मने मिदत्त सुदर्शनचरितो रमिता नहीं हैं, अपितु उसके संशोधनकर्ता या सम्पादन कर्ता हैं।
इस ग्रन्थमें श्रावकाचारका निरूपण किया गया है। प्रारम्भमें लिखा गया है--
श्रीसर्वज्ञ प्रणम्योच्चः केवलज्ञानलोचनम् ।
सद्धर्म देशयाम्येष भत्र्यानां शमहतये ।।
इस मगलाचरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मनेमिदत्त सधर्मका उपदेश भन्यजीवोंके कल्याण के लिये लिखते हैं । इस ग्रंथमें श्रावकोंके मूलगुण और उत्तर गुणोंका विवेचन करने के पश्चात् प्रत्तोंके अतिचारोंका निरूपण आया है । श्रावककी दैनिक षट् क्रियाओं, पूजा-भक्ति एवं आराधना आदिका भी उल्लेख किया गया है । यह अन्य पांच अधिकारों में विभक्त है और पंचम अधिकार सल्लेखना नामका है। अन्तका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
''इति धर्मोपदेशपीयूपवनामध्यावकाचार भट टारकश्रीमदिनभुषणशिष्य ब्रह्मने मिदत्तविरचिते सल्लंखनाक्रमव्यावर्णनो नाम पंचमोऽधिकारः" ।
रात्रिभोजनत्यागकथा--सबिभौजनत्याग व्रतका महत्व बतलाने के लिए नागीको कथा लिखी गयी है। आचार्य ने कथाके मध्यमें रात्रिभोजनके दोषोंका
भी निरूपण किया है ! अनिमें पुष्पिकावाम निम्नप्रकार आया है
इति भट्टारकनीमल्लिभूषणशिष्याचार्यश्रीसिंहनन्दिगुरूपदेशेन ब्रह्मनेमि दविरचिता रात्रिभोजन-परित्यागफलदष्टान्त-श्रीनागश्रीकथा समाप्ता।"
इस फूलमालामें आरम्भमें २४ तीर्थंकरोंका स्तवन किया गया है। मध्यमें धन, सम्पत्ति, यौवन, पुत्र, कालत्र आदिको क्षणविध्वंशी कहकर दान देने की प्रवृत्तिको प्रोत्साहित किया गया है। संसारके समस्त ऐश्वर्षाको प्राप्तकर जो व्यनित्त प्रभुभत्रित नहीं करता, तीर्थंकरोंके चरणोंकी आराधना नहीं करता, वह अपने जन्मको निरर्थक व्यतीत करता है । इस पंचम कालमें तीर्थकारभक्ति ही आत्मोत्थामका साधक है। भक्त सरलता पूर्वक अपने राग, द्वेष, रोग, शोक, दारिद्रय आदिको दूर कर देता है। रचना निम्नप्रकार है
वृषभ अजित संभव अभिनन्दन,
सुमति जिसर पाप निकंदन !
पद्म प्रभु जिन नामें गजजउँ श्रीसुपास चंदप्पह पुन।
पुष्फयंत सोयल पुज्जिज्जइ,
जिणु सेयंसु मणहि भानिज्जइ ।
वासुपुज्ज जिण पुज्ज करेपिणु,
विमल अणंत धम्मुझाएपिणु ||
सुरासुर किनर खेघर भूरि,
जिपिाद पयहि पाहि पारि ।
सुरअप्छर गावहि सोक्सह धाम,
जिणिदह सोहइ मोत्तिय दाम ||
गलंति झत्ति जाइ कालु मोह जालु वर टए ।
सु होहि जाणु भब्ब भाणु अग्मि जेम कहढए ।
जिणिद चंद पाय पुज्ज धम्मकजकिज्जए,
सुपत्तदाणु पुण्णठाणु वणिहाणु लिज्जए ।
इसमे १०९, पद्य हैं। गुजगती मिश्रित हिन्दी में यह रचना लिखी गयी है। रविनलवी नाथा वहीं अंकित है, जो अन्यत्र पायी जाती है।
आरम्भम ही नदिने लिखा है...
पास जिनेगर पवनामा प्रगिवि परमानंदनु |
भव-मायर-तरण-तारण भवीयण मुहतमकंदन ।।
श्रीमाग्दा दिगामी निमंल मोष्यनिधानन् ।
आदित्यनतम्वाणगं जिन पासनापरवानन ||
इस प्रकार ब्रह्मनेमिक्त्त पुगणकाब्य और आत्रार शास्त्रके रचयिता हैं। इनकं ग्रंथामें मौलिकताको नम हो मकती है, पर पुगने कश्चाओंको ग्रहण कर उसे अपनो शैली में निवद्ध करनेनप्रक्रिया में आचार्य पारंगत हैं ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक मल्लिभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्हनेमिदत्त |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Bramhanemidatta16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री ब्रम्हनेमिदत्त 16वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 04-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
ब्रह्म नेमिदत्त मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगणके विद्वान भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य थे | इनके दोभागुरु भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्य विद्या नन्दि थे। इन्हीं विधानन्दिके पट्टपर मल्लिभूषण प्रतिष्ठित हुए, जो सम्य म्दान, ज्ञान, चारित्ररूपी रत्नत्रयसे सुशोभित थे। आराधनाकथाकोशको प्रशस्तिमें मल्लिभषणकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
श्रीमज्जैनपदान्जसारमधुकृच्छीमूलसंधानणोः ।
सम्यग्दर्शनसाधुबोधविलसच्चारित्रचूड़ामणि: 11
विधानन्दिगुरुप्रपट्टकमलोल्लासप्रदो भास्करः।
श्रीभट्टारकर्माल्लभूषणगुरु यात्सता शर्मणे ||
ब्रह्मनेमिदत्त संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी और गुजराती भाषाके विद्वान थे। इन्होंने संस्कृतमें चरित, पुराण, कथा आदि ग्रन्थोंकी रचना की है। इन्होंने मालारोहिणी नामक एक प्रसिद्ध रचना लिखा है, जिसमें मूलसंधके आचार्य श्रुतसागरको नमस्कारकर फूलमाला कहने की प्रतिज्ञा की गयी है। मोंगरा, पारिजात, चम्पा, जूही, चमेली, मालती, मुचकुन्द, कदम्ब एवं रक्तकमल आदि सुन्धित पुष्प समूहोंसे गुम्फित जिनेन्द्रमालको स्वर्गमीक्ष सुखकारिणी बताया है और इसे समस्त दुःख-दारिद्र दूर करनेवाली कहा है। इस माला रोहिणीसे प्रतीत होता है कि ब्रह्मजिनदासको स्वाभाविक कविप्रतिभा
प्राप्त थी । वे सरस्वतीके बरद पुत्र थे। इनका व्यक्तित्व बहुमुखी था । प्रतिमा निर्माण और मन्दिर निर्माणके कार्यों में सहयोग भी देते थे। एक मूतिलेखमें ब्रह्मने मिदत्त के साथ ब्रह्ममहेन्द्रदत्तके नामका भी उल्लेख आया है, जिससे व इनके सहपाठी प्रतीत होते हैं। ये अग्रवाल जातिके थे और इनका गोत्र गोयल था। मालव देशके आशानगर के निवासी थे। इन्होंने अपने अन्योंकी रचना प्रमुख व्यक्तियों के अनुरोध से की है, जिससे यह ध्वनित होता है कि अनेक व्यक्ति इनके सम्पर्क में रहे हैं।
ब्रह्मनेमिदत्तको रचनाओं में उनके समयका निर्देश प्राप्त होता है, जिससे इनके स्थितिकालपर सम्यक् प्रकाश पड़ता है। इन्होंने वि० सं० १९८५ में श्रीशान्तिदासके अनुरोधसे श्रीपाल परितकी रचना की है। सं० १५७५ में आराधनाकथाकोश लिखा है। नेमिनाथपुराणको रमना गी १५.८ में हुई. है। अतएव इनका समय विक्रमको १६ वीं शताब्दो है। सुदर्शनचरितकी प्रशस्ति कविने पद्मनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दि, मल्लिभषण और श्रुतसागरकी प्रशंसा को है। इस प्रशंसाके अध्ययनसे स्पष्ट ज्ञात होता कि मल्लिभषण वि० को १६ वीं शताब्दी में हुए हैं और उनके प्रसिद्ध शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त भी इसी शताब्दीमें हुए हैं। अतएब ब्रह्मनेमिदत्तका समय वि. की १६ वीं शताब्दो है । सुदर्शनचरितके अन्त में लिखा है
श्रीमूलसंघे वरभारतीये गच्छे बलात्कारगणेतिरम्ये ।
श्रीकुन्दकुंदाख्यमुनींद्रवंशे जातः प्रभाचन्द्रमहामुनींद्रः ।।२।।
पट्टे तदीये मुनिपद्मनन्दीभट्टारको भन्मसरोजभानुः ।
जातो जगत्रयहितो गुणरत्नसिंधुः कुर्मात् सतां सारसुखं यतोशः ||३||
तादृपद्माकरभास्करोन देवेंद्रकीतिमुनिचक्रवर्ती ।
तपादपंकेजसुभक्तियुक्तो विद्यादिनंदी चरितं चकार ।।४।।
तत्परटेऽनि मल्लिभूषणगुरुचारित्रचूडामणिः,
संसारांबुधितारणकचतुरश्चितामणिः प्राणिनां ।
सुरिः श्रीश्रुतसागरो गुणनिधिः श्रोसिंहनन्दी गुरुः,
सर्वे ते यतिसत्तमाः शुभतरा कुर्चतु दो मंगलं ।।५।।
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभं ।
ने मिदत्तो व्रत्ती भक्त्या भावयामास शम्मद पक्ष।।६।।
१. प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, सन् १९५०, पृ० ६७-६८ पर उद्भुत ।
ब्रम्हनेमिदत्त की लगभग १२-१३ रचनाएं प्राप्त हैं
१. आराधनाकथाकोश
२. नेमिनाथपुराण
३. श्रीपालचरित
४. सुदर्शन रत
५. रात्रि-भोजनत्यागकथा
६. प्रोसकरमहामुनिनरित
७. धन्यकुमारचरित
८. नेमिनिर्वाणकाव्य-इसकी प्रति ईडर में प्राप्त है।
९. नागकुमारकथा
१०, धर्मोपदेशपीयुषवर्षश्रावकाचार
११. मालारोहिणी
१२. आदित्यवारव्रतरास
आराधनाकथाकोश प्रसिद्ध कथानन्य है। इसका प्रकाशन हो चुका है। इसको सभी कथाएं अहिंसादि व्रतोंसे सम्बद्ध हैं । सामान्य व्यक्ति भी इन कथाओंके अध्ययनसे अपने चरितको उज्वल कर सकता है । संसारके विषय-कषायोंमें निमग्न व्यक्तिको ये कथाएं आत्मोत्थानकी ओर प्रेरित करती हैं। वास्तव में ब्रह्मनेमिदत्तके आराधनाकथाकोशका कथासाहित्य को दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है।
इस ग्रन्थमें ९, अधिकार हैं और श्रीपालको कथा वर्णित है। इसकी प्रशस्तिमें कविने अपना परिचयं लिखा है। ९ वे अधिकारके अन्त में दी हुई प्रशस्तिमें बताया है ___"इति श्रसिद्धचक्रपूजातिशयं प्राप्त श्रीपालमहाराजचरिते भट्टारकश्रीमल्लि भूषणशिष्याचार्य श्रीसिंहन्दिब्रह्मश्रीशांतिदासानुमोदिते ब्रह्मनेभिदतावरचिते श्रीपालमहामुनींद्रनिर्वाणगमनो नाम नवमोधिकारः समाप्तः ।"
इस चरितके रचनेका उद्देश्य कविने सिद्धचक्रका महात्म्य बतलाया है । सर्ग बद्ध कथा नियोजित है । श्रीपालके जन्मसे लेकर उनके निर्माणपर्यन्त चरितका अंकन किया गया है। भाव और शैलीको दृष्टि से यह रचना अध्ययनीय है।
इस पुराणग्रन्थकी रचना सोलह अधिकारोंमें की गयी है और इसमें नेमिनाथका चरित अंकित है। उनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और केवल इन पाँचों कल्याणकोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नेमिनाथकी अपूर्व शक्तिसे
प्रभावित होकर राजनीतिज्ञ कृष्ण द्वारा प्रस्तुत की गयी कूटनीतिका भी चित्रण आया है । श्रीकृष्णकी कूटनीतिके फलस्वरूप ही नेमिनाथ विरक्त होते हैं । बिल खती हुई राजुलने आँसुओंका प्रभाव भी उनपर नहीं पड़ता । कविने सभी मर्म स्पर्शी कथांशोंका उद्घाटन किया है। अन्तमें इस चरितको मोक्षप्रद बताया गया है । लिखा है
यस्योपदेशवशतो जिन गवस्य
नेमिपुराणमतुलं शिवसौख्यकारी,
चन मयापि मतितुच्छतयात्र भवत्या,
कर्यादिदं शुभमतं मम मंगलानि ।।
सुदर्शन रसके रचयिता यद्यपि आचार्य विद्यानन्दि हैं । पर एकादश अधिकारके अन्तमें ब्रह्मनेमिदत्तका नाम आया है, तथा
गुरूणामुपदेशेन सच्चरित्रमिदं शुभम् ।।
नेमिदत्तो व्रती भक्त्याभावयामास शर्मदम् ।।
इस पद्य में 'भावयामास' पद आया है, जिसका अर्थ, प्रकट किया, प्रदर्शित किया या पालन-पोषण किया अथवा मनन द्वारा पावन किया, किया है। अत एब यहाँ प्रकट किया या निमित किया यह अर्थ लेनेसे विरोध आता है । जिसका समाधान कुछ विद्वान यह कह कर करते हैं कि सुदर्शनचरितके दश
अधिकार मुमुक्षु विद्यानन्दि द्वारा विरचित हैं और ११वें अधिकारके रचयिता ब्रह्मानेमिदत हैं। हमारी दृष्टिसे यहाँ 'भावनामास'का अर्थ रचना किया गया न होकर संशोधन या सम्बर्द्धन किया गया होना चाहिये । अतएव ब्रह्मने मिदत्त सुदर्शनचरितो रमिता नहीं हैं, अपितु उसके संशोधनकर्ता या सम्पादन कर्ता हैं।
इस ग्रन्थमें श्रावकाचारका निरूपण किया गया है। प्रारम्भमें लिखा गया है--
श्रीसर्वज्ञ प्रणम्योच्चः केवलज्ञानलोचनम् ।
सद्धर्म देशयाम्येष भत्र्यानां शमहतये ।।
इस मगलाचरणसे स्पष्ट है कि ब्रह्मनेमिदत्त सधर्मका उपदेश भन्यजीवोंके कल्याण के लिये लिखते हैं । इस ग्रंथमें श्रावकोंके मूलगुण और उत्तर गुणोंका विवेचन करने के पश्चात् प्रत्तोंके अतिचारोंका निरूपण आया है । श्रावककी दैनिक षट् क्रियाओं, पूजा-भक्ति एवं आराधना आदिका भी उल्लेख किया गया है । यह अन्य पांच अधिकारों में विभक्त है और पंचम अधिकार सल्लेखना नामका है। अन्तका पुष्पिकावाक्य निम्न प्रकार है
''इति धर्मोपदेशपीयूपवनामध्यावकाचार भट टारकश्रीमदिनभुषणशिष्य ब्रह्मने मिदत्तविरचिते सल्लंखनाक्रमव्यावर्णनो नाम पंचमोऽधिकारः" ।
रात्रिभोजनत्यागकथा--सबिभौजनत्याग व्रतका महत्व बतलाने के लिए नागीको कथा लिखी गयी है। आचार्य ने कथाके मध्यमें रात्रिभोजनके दोषोंका
भी निरूपण किया है ! अनिमें पुष्पिकावाम निम्नप्रकार आया है
इति भट्टारकनीमल्लिभूषणशिष्याचार्यश्रीसिंहनन्दिगुरूपदेशेन ब्रह्मनेमि दविरचिता रात्रिभोजन-परित्यागफलदष्टान्त-श्रीनागश्रीकथा समाप्ता।"
इस फूलमालामें आरम्भमें २४ तीर्थंकरोंका स्तवन किया गया है। मध्यमें धन, सम्पत्ति, यौवन, पुत्र, कालत्र आदिको क्षणविध्वंशी कहकर दान देने की प्रवृत्तिको प्रोत्साहित किया गया है। संसारके समस्त ऐश्वर्षाको प्राप्तकर जो व्यनित्त प्रभुभत्रित नहीं करता, तीर्थंकरोंके चरणोंकी आराधना नहीं करता, वह अपने जन्मको निरर्थक व्यतीत करता है । इस पंचम कालमें तीर्थकारभक्ति ही आत्मोत्थामका साधक है। भक्त सरलता पूर्वक अपने राग, द्वेष, रोग, शोक, दारिद्रय आदिको दूर कर देता है। रचना निम्नप्रकार है
वृषभ अजित संभव अभिनन्दन,
सुमति जिसर पाप निकंदन !
पद्म प्रभु जिन नामें गजजउँ श्रीसुपास चंदप्पह पुन।
पुष्फयंत सोयल पुज्जिज्जइ,
जिणु सेयंसु मणहि भानिज्जइ ।
वासुपुज्ज जिण पुज्ज करेपिणु,
विमल अणंत धम्मुझाएपिणु ||
सुरासुर किनर खेघर भूरि,
जिपिाद पयहि पाहि पारि ।
सुरअप्छर गावहि सोक्सह धाम,
जिणिदह सोहइ मोत्तिय दाम ||
गलंति झत्ति जाइ कालु मोह जालु वर टए ।
सु होहि जाणु भब्ब भाणु अग्मि जेम कहढए ।
जिणिद चंद पाय पुज्ज धम्मकजकिज्जए,
सुपत्तदाणु पुण्णठाणु वणिहाणु लिज्जए ।
इसमे १०९, पद्य हैं। गुजगती मिश्रित हिन्दी में यह रचना लिखी गयी है। रविनलवी नाथा वहीं अंकित है, जो अन्यत्र पायी जाती है।
आरम्भम ही नदिने लिखा है...
पास जिनेगर पवनामा प्रगिवि परमानंदनु |
भव-मायर-तरण-तारण भवीयण मुहतमकंदन ।।
श्रीमाग्दा दिगामी निमंल मोष्यनिधानन् ।
आदित्यनतम्वाणगं जिन पासनापरवानन ||
इस प्रकार ब्रह्मनेमिक्त्त पुगणकाब्य और आत्रार शास्त्रके रचयिता हैं। इनकं ग्रंथामें मौलिकताको नम हो मकती है, पर पुगने कश्चाओंको ग्रहण कर उसे अपनो शैली में निवद्ध करनेनप्रक्रिया में आचार्य पारंगत हैं ।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक मल्लिभूषण |
शिष्य | आचार्य श्री ब्रम्हनेमिदत्त |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Bramhanemidatta 16 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 04-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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