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#BruhatAnantviryaPrachin
सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार और रविभद्रपादोपजीवी आचार्य अनन्तवीर्य
न्यायशास्त्रके पारंगत और अनेक शास्त्रोंके मर्मज्ञ थे। सिद्धिविनिश्चय-टीकासे अवगत होता है कि इनका दर्शन-शास्त्रीय अध्ययन बहुत व्यापक और सर्वतो मुखी था। वैदिक संहिताओं, उपनिषद्, उनके भाष्य एवं वात्तिक आदिका भी इन्होंने गहरा अध्ययन किया था। न्याय-वैशेषिक सांस्य-योग, मीमांसा, चार्वाक और बौद्धदर्शनके ये असाधारण पण्डित थे। सिद्धिविनिश्चयटीकाके पुष्पिका पायीले इनका गुरुका नाम रायभद्र जान पड़ता है। इन्होंने अपनेको उनका 'पादोपजीवी' बतलाया है। इसके अतिरिक्त इनके विषयमें और कोई जानकारीउपलब्ध नहीं होती।
साहित्य और शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि अनन्तवीर्य नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं। एक अनन्तवीर्य वे हैं, जिन्होंने आचार्य माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर अपनी परीक्षामुखवृत्ति, जिसे 'प्रमेयरलमाला' कहा जाता है और जो प्रकाशित है, लिखी है। ये अनन्नवीर्य लघु अनन्तवीर्य कहे जाते हैं और जो प्रभाचन्द्रके उत्तरवर्ती तथा १२ वीं शतीके विद्वान् हैं।
एक वे अनन्तवीर्य हैं, जिनका पैग्गूरके कन्नड़ शिलालेख मे वीरसेन सिद्धान्तदेवके प्रशिष्य और गोणसेन पण्डित भट्टारकके शिष्यके रूपमें उल्लेख है। ई० सन् ९७७ के दानलेखके अनुसार ये श्रीवेलगोलके निवासी थे। इन्हें वेदोरेगरेके राजा श्रीमत् रक्कसने पेरम्गदूर तथा नयी खाईका दान किया था !
एक अनन्तवीर्यका निर्देश मरोंल (बीजापुर बम्बई ) के अभिलेखमें आया है। यह अभिलेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमरल प्रथम ई० सन् १०२४ के समयका हुआ है । इसमें कमलदेव भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का उल्लेख आया है। ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रोंके विशेषतः जैनदर्शनके पारगामी थे। अनन्तवीर्यके शिष्य गुणकीर्ति सिद्धान्त भट्टारक और देवकीर्ति पण्डित थे।
एक अनन्तवीर्यका उलेख अकलंकसूत्रके वृत्तिकर्ताके रूपमें हुम्मचकी पञ्च वस्तिके आंगनके एक पाषाणलेखमें आया है। ये अरुङ्गलान्चय नन्दिसंघकी आचार्योंको परम्परामें हुए हैं । यह अभिलेख ई० सन् १०७७ का है। इसी लेखमें आगे कुमारसेनदेव, मौनिदेव और विमलचन्द्र भट्टारकका निर्देश है।
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० १९९ ।
२. श्रीबेलगोलनिवासिमकम्प श्रीवीरसेनसिदान्तदेववरशिष्यर श्रीगोणसेनपण्डितभट्टारक
पशिष्यर् श्रीमान् अनन्तवीर्यप्यशाल · · "जैन शिलालेख भाग १ ।
३. बम्बई कर्नाटक एसकोप्यान, जिल्द , भाग १,नं. ६१ ।
एक अन्य अनन्तवीर्यका निर्देश ई० सन् १११७ के अभिलेनवमें उपलब्ध होता है। यह अभिलेख चामराजनगरके पार्श्वनाथस्वामीवस्तिके एक पाषाणपर उत्कीर्ण' है।
एक अनन्तवीर्य वे हैं, जिनका उल्लेख कल्लूर गुड्डके सिद्धश्वर मन्दिरका पाषाणलेख में कारगणके आचार्योम शुद्धाक्षग वारदके रूप में किया गया है। यह अभिलल ई० सन् ११२१ का है। इस अभिलेखमे माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य प्रभाचन्द्रकके सधर्मा अनन्तवीर्य और मुनिचन्द्रका उल्लेख है | अनन्तवीर्यके गृहस्थशिष्य रक्कस गंगदवने भी इसी समय दान किया था।
एक अनन्तवीर्य महावादीका उल्लेख हम्मचके तोरण यागिलके उत्तर खम्भे के लेखमे श्रीपालदेवको लघुसवर्माक रूपमे आया है। ये द्रविड़ संघकं नन्दिगणक आचार्य थे | यह लेख ई० सन् १९४७ का है ।उपयुक्त अभिलखोंसे अवगत होता है कि प्रस्तुत अनन्तवीर्ये द्रविड़ संघ नन्दिगण, अरुङ्गलान्त्रयकी परम्परा अनन्तवीयं है । ये वादिराजके दादागुरु और श्रीपालक लघुराधर्मा हैं। बादिराजका समय ई० सन् १०२५ है। अत: उनके दादामुरु ५० वर्ष पहले अर्थात् ई० सन् ९७५ के आस-पास हुए होंगे । __ अभिलेखोके सूक्ष्म अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि प्रस्तुत अनन्तवीर्य काणग्गणक न होकर द्रविड़ संधीय हैं। अकलंकसूत्रकं वृत्तिकार दो अनन्तवीर्य हैं-एक रविभद्रपादोपजीवी और दूसरे इन्ही अनन्तवीर्य द्वारा उल्लिखित सिद्धि विनिश्चयके प्राचीन व्याख्याकार अनन्तवीर्य , जिन्हें हम वृद्ध अनन्तवीर्य कह सकते हैं। सिद्धिविनिश्चय-टोकाक कर्ता अनन्तवीर्य ई० सन् ९७५ के बाद और ई सन् १०२५ के पहले किसो समयमें हुए हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जो अनन्तवीर्य वादिराजके दादागुरु, श्रीपालक सधर्मा रूपसे उल्लिखित है, वहीं सिद्धिविनिश्चयके टीकाकार है 1 अतएव अनन्तवीयंका समय ई सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दीका पूर्वाद्धं है। पार्श्वनाथचरितमें वादिराजने अनन्तवीर्यको स्तुति करते हुए लिखा है कि उस अनन्त सामर्थ्यशाली मेघके समान अनन्तवीर्यकी स्तुति करता हूँ, जिनकी वचनरूपी अमृतवृष्टिसे जगतको चाटजाने वाला शून्यवादरूपी हुताशन शान्त हो गया था। इन्होंने 'न्यायविनिश्चबिवरण में अनन्तवीर्यको उस दीपशिखाके समान लिखा है, जिससे अकलंकवाङ्मयका गूढ़ और अगाध अर्थ पद पदपर प्रकाशित होता है ।
१. जैन शिलालेखसंग्रह, द्वितीय भाग, पृ० २९२ ।
२. वही, पृ ४०८, पृ० ४१६ ।
३, वही, भाग २, पृ० ७२ ।
अतएव 'सिद्धिविनिश्चयटीका' के रचयिता अनन्तवीर्यका समय पूर्वोक्त ई० सन् ९७५-१०२५ घटित होता है ।
रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्यकी दो रचनाएँ हैं-सिद्धिविनिश्चयटीका और प्रमाणसंग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार ।
सिद्धिविनिश्चयटीका
यह अकलङ्कदेव ''सिद्धिविनिश्चय पर लिखी गयी विशाल टीका है। अनन्तवीर्यने अपनी इस टीकामें मूलके अभिप्रायको विशद और पल्लवित किया है । साथ ही बीच-बीच में प्रकरणगत अर्थको स्वचित श्लोकों में भी व्यक्त किया है, जिससे पाठकको दर्शनशास्त्रके इस ग्रन्धका अध्ययन करते हुए कहीं-कहीं मणिप्रवालकी तरह गद्य-पद्यमय चम्पूकाव्यका आनन्द आ जाता है। कितने ही नये प्रमेयोंकी भी इसमें चर्चा समाहित है। इस टीकासे अनन्तवीर्यको बहुज्ञता प्रकट होती है।
इनका दूसरा ग्रन्धं प्रमाणसंग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार है। यह अकलङ्कदेव प्रमाणसंग्रहकी टीका है। इसका उल्लेख सिद्धिविनिश्चयटीकामें किया गया है । अतः यह उससे पूर्व रची गयी है। परन्तु यह अभी तक प्राप्त नहीं है, केवल इसके अस्तित्वके निर्देश ही मिलते हैं।।
गुरू | |
शिष्य | आचार्य श्री बृहत अनंतवीर्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#BruhatAnantviryaPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री ब्रुहत अनंतवीर्य (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार और रविभद्रपादोपजीवी आचार्य अनन्तवीर्य
न्यायशास्त्रके पारंगत और अनेक शास्त्रोंके मर्मज्ञ थे। सिद्धिविनिश्चय-टीकासे अवगत होता है कि इनका दर्शन-शास्त्रीय अध्ययन बहुत व्यापक और सर्वतो मुखी था। वैदिक संहिताओं, उपनिषद्, उनके भाष्य एवं वात्तिक आदिका भी इन्होंने गहरा अध्ययन किया था। न्याय-वैशेषिक सांस्य-योग, मीमांसा, चार्वाक और बौद्धदर्शनके ये असाधारण पण्डित थे। सिद्धिविनिश्चयटीकाके पुष्पिका पायीले इनका गुरुका नाम रायभद्र जान पड़ता है। इन्होंने अपनेको उनका 'पादोपजीवी' बतलाया है। इसके अतिरिक्त इनके विषयमें और कोई जानकारीउपलब्ध नहीं होती।
साहित्य और शिलालेखोंसे ज्ञात होता है कि अनन्तवीर्य नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं। एक अनन्तवीर्य वे हैं, जिन्होंने आचार्य माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर अपनी परीक्षामुखवृत्ति, जिसे 'प्रमेयरलमाला' कहा जाता है और जो प्रकाशित है, लिखी है। ये अनन्नवीर्य लघु अनन्तवीर्य कहे जाते हैं और जो प्रभाचन्द्रके उत्तरवर्ती तथा १२ वीं शतीके विद्वान् हैं।
एक वे अनन्तवीर्य हैं, जिनका पैग्गूरके कन्नड़ शिलालेख मे वीरसेन सिद्धान्तदेवके प्रशिष्य और गोणसेन पण्डित भट्टारकके शिष्यके रूपमें उल्लेख है। ई० सन् ९७७ के दानलेखके अनुसार ये श्रीवेलगोलके निवासी थे। इन्हें वेदोरेगरेके राजा श्रीमत् रक्कसने पेरम्गदूर तथा नयी खाईका दान किया था !
एक अनन्तवीर्यका निर्देश मरोंल (बीजापुर बम्बई ) के अभिलेखमें आया है। यह अभिलेख चालुक्य जयसिंह द्वितीय और जगदेकमरल प्रथम ई० सन् १०२४ के समयका हुआ है । इसमें कमलदेव भट्टारक, प्रभाचन्द्र और अनन्तवीर्य का उल्लेख आया है। ये अनन्तवीर्य समस्त शास्त्रोंके विशेषतः जैनदर्शनके पारगामी थे। अनन्तवीर्यके शिष्य गुणकीर्ति सिद्धान्त भट्टारक और देवकीर्ति पण्डित थे।
एक अनन्तवीर्यका उलेख अकलंकसूत्रके वृत्तिकर्ताके रूपमें हुम्मचकी पञ्च वस्तिके आंगनके एक पाषाणलेखमें आया है। ये अरुङ्गलान्चय नन्दिसंघकी आचार्योंको परम्परामें हुए हैं । यह अभिलेख ई० सन् १०७७ का है। इसी लेखमें आगे कुमारसेनदेव, मौनिदेव और विमलचन्द्र भट्टारकका निर्देश है।
१. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, पृ० १९९ ।
२. श्रीबेलगोलनिवासिमकम्प श्रीवीरसेनसिदान्तदेववरशिष्यर श्रीगोणसेनपण्डितभट्टारक
पशिष्यर् श्रीमान् अनन्तवीर्यप्यशाल · · "जैन शिलालेख भाग १ ।
३. बम्बई कर्नाटक एसकोप्यान, जिल्द , भाग १,नं. ६१ ।
एक अन्य अनन्तवीर्यका निर्देश ई० सन् १११७ के अभिलेनवमें उपलब्ध होता है। यह अभिलेख चामराजनगरके पार्श्वनाथस्वामीवस्तिके एक पाषाणपर उत्कीर्ण' है।
एक अनन्तवीर्य वे हैं, जिनका उल्लेख कल्लूर गुड्डके सिद्धश्वर मन्दिरका पाषाणलेख में कारगणके आचार्योम शुद्धाक्षग वारदके रूप में किया गया है। यह अभिलल ई० सन् ११२१ का है। इस अभिलेखमे माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य प्रभाचन्द्रकके सधर्मा अनन्तवीर्य और मुनिचन्द्रका उल्लेख है | अनन्तवीर्यके गृहस्थशिष्य रक्कस गंगदवने भी इसी समय दान किया था।
एक अनन्तवीर्य महावादीका उल्लेख हम्मचके तोरण यागिलके उत्तर खम्भे के लेखमे श्रीपालदेवको लघुसवर्माक रूपमे आया है। ये द्रविड़ संघकं नन्दिगणक आचार्य थे | यह लेख ई० सन् १९४७ का है ।उपयुक्त अभिलखोंसे अवगत होता है कि प्रस्तुत अनन्तवीर्ये द्रविड़ संघ नन्दिगण, अरुङ्गलान्त्रयकी परम्परा अनन्तवीयं है । ये वादिराजके दादागुरु और श्रीपालक लघुराधर्मा हैं। बादिराजका समय ई० सन् १०२५ है। अत: उनके दादामुरु ५० वर्ष पहले अर्थात् ई० सन् ९७५ के आस-पास हुए होंगे । __ अभिलेखोके सूक्ष्म अध्ययनसे ऐसा ज्ञात होता है कि प्रस्तुत अनन्तवीर्य काणग्गणक न होकर द्रविड़ संधीय हैं। अकलंकसूत्रकं वृत्तिकार दो अनन्तवीर्य हैं-एक रविभद्रपादोपजीवी और दूसरे इन्ही अनन्तवीर्य द्वारा उल्लिखित सिद्धि विनिश्चयके प्राचीन व्याख्याकार अनन्तवीर्य , जिन्हें हम वृद्ध अनन्तवीर्य कह सकते हैं। सिद्धिविनिश्चय-टोकाक कर्ता अनन्तवीर्य ई० सन् ९७५ के बाद और ई सन् १०२५ के पहले किसो समयमें हुए हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि जो अनन्तवीर्य वादिराजके दादागुरु, श्रीपालक सधर्मा रूपसे उल्लिखित है, वहीं सिद्धिविनिश्चयके टीकाकार है 1 अतएव अनन्तवीयंका समय ई सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध और ११वीं शताब्दीका पूर्वाद्धं है। पार्श्वनाथचरितमें वादिराजने अनन्तवीर्यको स्तुति करते हुए लिखा है कि उस अनन्त सामर्थ्यशाली मेघके समान अनन्तवीर्यकी स्तुति करता हूँ, जिनकी वचनरूपी अमृतवृष्टिसे जगतको चाटजाने वाला शून्यवादरूपी हुताशन शान्त हो गया था। इन्होंने 'न्यायविनिश्चबिवरण में अनन्तवीर्यको उस दीपशिखाके समान लिखा है, जिससे अकलंकवाङ्मयका गूढ़ और अगाध अर्थ पद पदपर प्रकाशित होता है ।
१. जैन शिलालेखसंग्रह, द्वितीय भाग, पृ० २९२ ।
२. वही, पृ ४०८, पृ० ४१६ ।
३, वही, भाग २, पृ० ७२ ।
अतएव 'सिद्धिविनिश्चयटीका' के रचयिता अनन्तवीर्यका समय पूर्वोक्त ई० सन् ९७५-१०२५ घटित होता है ।
रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्यकी दो रचनाएँ हैं-सिद्धिविनिश्चयटीका और प्रमाणसंग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार ।
सिद्धिविनिश्चयटीका
यह अकलङ्कदेव ''सिद्धिविनिश्चय पर लिखी गयी विशाल टीका है। अनन्तवीर्यने अपनी इस टीकामें मूलके अभिप्रायको विशद और पल्लवित किया है । साथ ही बीच-बीच में प्रकरणगत अर्थको स्वचित श्लोकों में भी व्यक्त किया है, जिससे पाठकको दर्शनशास्त्रके इस ग्रन्धका अध्ययन करते हुए कहीं-कहीं मणिप्रवालकी तरह गद्य-पद्यमय चम्पूकाव्यका आनन्द आ जाता है। कितने ही नये प्रमेयोंकी भी इसमें चर्चा समाहित है। इस टीकासे अनन्तवीर्यको बहुज्ञता प्रकट होती है।
इनका दूसरा ग्रन्धं प्रमाणसंग्रहभाष्य या प्रमाणसंग्रहालङ्कार है। यह अकलङ्कदेव प्रमाणसंग्रहकी टीका है। इसका उल्लेख सिद्धिविनिश्चयटीकामें किया गया है । अतः यह उससे पूर्व रची गयी है। परन्तु यह अभी तक प्राप्त नहीं है, केवल इसके अस्तित्वके निर्देश ही मिलते हैं।।
गुरू | |
शिष्य | आचार्य श्री बृहत अनंतवीर्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Bruhat Anantvirya ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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