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#Aacharya Shri Chhatrasen18ThCentury
मलसंव, सेनगण, पुष्करगच्छकी शाखामैं सोमसेनके शिष्य जिनसेन हुए और जिनसेनके समन्तभद्र। इन समन्तभद्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। छत्रसेनके सम्बन्धमें विशेष उल्लेख नहीं मिलते हैं, पर उनकी रचनाओंमें जो प्रशस्तियाँ अंकित हैं, उनसे ऐसा अनुमान होता है कि छत्रसेन काव्यरचयिता होनेके साथ वाग्मी और प्रतिष्ठाकारक भी थे। बताया गया है
श्रीमलसंघमे गछ मनोहर सोभत हे जु अतिहि रसाला ।
पुष्करगछ सुसेनगणाश्रित पूज रचे जिनकी गुणमाला ।।
समंतजुभद्रके पट प्रगट भयो छत्रसेन सुवादि विसाला ।
अर्जुनसुत कहे भवि सु परवादीको मान मिटे ततकाला ॥
इस प्रकार अर्जुनसुत विहारीदासने छत्रसेनका प्रशंसात्मक परिचय दिया है। बिहारीदासने इन्हें काध्य, पुराण और आगमका ज्ञाता तो कहा ही है, साथ ही यह भी बताया है कि, ये सेनगणके भट्टारक समन्तभद्रके शिष्य थे ।
१. भट्टार सम्प्रदाय, लेखांक ४० 1
२. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक ६२ ।
छत्रसेनके अनन्तर नरेन्द्र सेन पट्टाधीश हुए। इन्होंने शक संवत् १६५२में ज्ञानयन्त्र प्रतिष्ठित किया है। सूरतमें रहते हुए इन्होंने विसं १७९० में आश्विन कृष्णा त्रयोदशीमें यशोधरचरितको प्रति लिखी है । नरेन्द्रसेनने पाच नाथपूजा और वृषभनाथपालना रचनाएँ भी लिखी हैं।
छत्रसेनके एक शिष्य हीरा नामके हुए हैं, जिन्होंने संवत् १७५४में कडतशाह की प्रेरणासे वृधणपुरमें 'शगिरदाहरण की पचना कीइसमेनका सा प्रतिष्ठित मूर्तिके आधार पर वि०सं० १७५४के आसपास है। इनके उपदेशसे सं १७५४ में पाश्वनाथकी मूर्ति प्रतिष्ठित्त हुई है। कारजा गद्दीके ये भट्टारक हैं । रचनाओंके आधार पर भी छत्रसेनका समय वि०सं० की १८वीं शती सिद्ध होता है।
छत्रसेनने संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओंमें रचनाएँ लिखी हैं। इनकी निम्नलिखित रचना उपलब्ध है
१. द्रौपदीहरण ( हिन्दी ),
२. समवशरण षटपदी (हिन्दी),
३. मेरुपूजा ( संस्कृत ),
४. पार्श्वनाथ पूजा ( संस्कृत ),
५. अनन्तनाथस्तोत्र ( संस्कृत),
६. पद्मावतीस्तोत्र (संस्कृत),
७, झूलना (हिन्दी),
८. छत्रसेनगरु आरती (हिन्दी)।
रचनाएँ सामान्यतः अच्छी हैं। अनन्तनाथस्तोत्रका एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
भुवन विदितभावं देवदेवेंद्रवंधे परजिनमत स्तौति यो शुद्धभावैः ।
भवति सुभगसर्गी मुक्तिनाथश्च नित्यं स्तवनमिदनिचं भाषितं छत्रसेनः ।।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक समंतभद्र |
शिष्य | आचार्य श्री छत्रसेन |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Aacharya Shri Chhatrasen18ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री छत्रसेन 18वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक समन्तभद्र Aacharya Shri Bhattarak Samantbhadra
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 13-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 13-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
मलसंव, सेनगण, पुष्करगच्छकी शाखामैं सोमसेनके शिष्य जिनसेन हुए और जिनसेनके समन्तभद्र। इन समन्तभद्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। छत्रसेनके सम्बन्धमें विशेष उल्लेख नहीं मिलते हैं, पर उनकी रचनाओंमें जो प्रशस्तियाँ अंकित हैं, उनसे ऐसा अनुमान होता है कि छत्रसेन काव्यरचयिता होनेके साथ वाग्मी और प्रतिष्ठाकारक भी थे। बताया गया है
श्रीमलसंघमे गछ मनोहर सोभत हे जु अतिहि रसाला ।
पुष्करगछ सुसेनगणाश्रित पूज रचे जिनकी गुणमाला ।।
समंतजुभद्रके पट प्रगट भयो छत्रसेन सुवादि विसाला ।
अर्जुनसुत कहे भवि सु परवादीको मान मिटे ततकाला ॥
इस प्रकार अर्जुनसुत विहारीदासने छत्रसेनका प्रशंसात्मक परिचय दिया है। बिहारीदासने इन्हें काध्य, पुराण और आगमका ज्ञाता तो कहा ही है, साथ ही यह भी बताया है कि, ये सेनगणके भट्टारक समन्तभद्रके शिष्य थे ।
१. भट्टार सम्प्रदाय, लेखांक ४० 1
२. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक ६२ ।
छत्रसेनके अनन्तर नरेन्द्र सेन पट्टाधीश हुए। इन्होंने शक संवत् १६५२में ज्ञानयन्त्र प्रतिष्ठित किया है। सूरतमें रहते हुए इन्होंने विसं १७९० में आश्विन कृष्णा त्रयोदशीमें यशोधरचरितको प्रति लिखी है । नरेन्द्रसेनने पाच नाथपूजा और वृषभनाथपालना रचनाएँ भी लिखी हैं।
छत्रसेनके एक शिष्य हीरा नामके हुए हैं, जिन्होंने संवत् १७५४में कडतशाह की प्रेरणासे वृधणपुरमें 'शगिरदाहरण की पचना कीइसमेनका सा प्रतिष्ठित मूर्तिके आधार पर वि०सं० १७५४के आसपास है। इनके उपदेशसे सं १७५४ में पाश्वनाथकी मूर्ति प्रतिष्ठित्त हुई है। कारजा गद्दीके ये भट्टारक हैं । रचनाओंके आधार पर भी छत्रसेनका समय वि०सं० की १८वीं शती सिद्ध होता है।
छत्रसेनने संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओंमें रचनाएँ लिखी हैं। इनकी निम्नलिखित रचना उपलब्ध है
१. द्रौपदीहरण ( हिन्दी ),
२. समवशरण षटपदी (हिन्दी),
३. मेरुपूजा ( संस्कृत ),
४. पार्श्वनाथ पूजा ( संस्कृत ),
५. अनन्तनाथस्तोत्र ( संस्कृत),
६. पद्मावतीस्तोत्र (संस्कृत),
७, झूलना (हिन्दी),
८. छत्रसेनगरु आरती (हिन्दी)।
रचनाएँ सामान्यतः अच्छी हैं। अनन्तनाथस्तोत्रका एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है
भुवन विदितभावं देवदेवेंद्रवंधे परजिनमत स्तौति यो शुद्धभावैः ।
भवति सुभगसर्गी मुक्तिनाथश्च नित्यं स्तवनमिदनिचं भाषितं छत्रसेनः ।।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक समंतभद्र |
शिष्य | आचार्य श्री छत्रसेन |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Chhatrasen 18th Century
आचार्य श्री भट्टारक समन्तभद्र Aacharya Shri Bhattarak Samantbhadra
आचार्य श्री भट्टारक समन्तभद्र Aacharya Shri Bhattarak Samantbhadra
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 13-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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Aacharya Shri Chhatrasen18ThCentury
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