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धर्मचन्द्र के पश्चात् बलात्कार गणकी कारन्जा शाखामें देवेन्द्रकीर्ति पट्टा घीश हुए । इन्होंने कारन्जा निवासी बघेरवाल शिष्यों के साथ शक संवत् १६४३ की पौष कृष्णा द्वादशीको श्रवणबेलगोलकी यात्रा की। इस यात्राका उल्लेख श्रवणबेलगोल के अभिलेखों में निम्न प्रकार हुआ है
"सके १६४३ पौस वदि-१२ शुक्रवारे भण्डेवेडकीर्ति । (देवेन्द्रकीर्ति ) सहित उघरवल जात्ति हीरासाइ सुत हाससा सुत चागेवा सोनाबाई राजाई गोमाई
राधाई, मन्नाई सहित जात्रा सफल करी कारज कर।"
शक संवत् १६५० की पौष शुक्ला द्वितीयाको आपने नासिकके पास त्र्यम्बक ग्रामके पाश्चवर्ती गजपंथ पर्वतकी बन्दना की थी। तदनन्तर १५ दिनके पश्चात्
१. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक १३७ ।
२. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिः सं० ३६६, पृ० ३४५ ।
मांगीतगी पर्वतकी यात्रा की। इस समय जिनसागर, रत्नसागर, चन्द्रसागर, रूपजी, वीरजी, आदि शान भी आपके साथ थे। इसके पश्चात् गिरिनारकी यात्रा के लिये जाते हुए आप सूरतमें ठहरे । वहाँ माघ शुक्ला प्रतिपदाको आणन्द नामक आबकने 'णायकुमारचरिज'की एक प्रति आपको अर्पित की। शक संवत् १६५१ को बैंशाग्न कृष्णा अयोदशीको इन्होंने केसरियाजीकी यात्रा की तथा उसी वर्ष मार्गशीर्ष शुवला पञ्चमीको तारंगा पर्वत और कोटिशिलाकी वन्दना की। इसी वर्ष पौष कृष्णा द्वादशीको गिरिनारकी और माघकृष्णा चतुर्थीको शत्रुजय पयंत की यात्रा की और मार्ग में सूरतमें पड़ाव डाला।
वि० सं० १५२की भाद्रपद शुक्ला पञ्चमीको आयिका पारामती के लिए श्री चन्द्र विरचित कथाकोशकी एक प्रति लिखवायी। इनके द्वारा लिखी एक नन्दीश्वर-आरती भी उपलब्ध है। आगरानिवासी बनारसोदासके पुत्र जीवन दासको पहले इनके बिषयमें अनादर था, किन्तु सुरतके चातुर्मासमें इनकी विद्वत्ता देखकर वे इनके शिष्य बन गये। बद्धिसागर और रूपचन्द्र ने भी इनकी स्तुति की है । इनके शिय माणिकनन्दिने शक संवत् १६४६ की भाद्रपद शुक्ला पतुसीको अनन्तनाथ-बारतीको रचना की है । अतएव इनका समय वि० सं० की १८वीं शती सुनिश्चित है। देबेन्द्रकीतिने कल्याणमन्दिरपूजा, विपापहार पूजा इन दो पूजाग्रन्थोंकी रचना की है। ये दोनों रचनाएँ साधारण हैं। रच नाएं संस्कृत भाषामें हैं। कल्याणमन्दिरमें रचनाकालका निर्देश भी किया गया है । यथा
गुण बेदांगचंद्राब्दे शाके १६४३ फाल्गुनमास्येदं ।
कारंजाख्यापुरे दृष्टं चन्द्रनाथदेवार्चनम् ।।
इति श्रीबलात्कारगणेयं भ० देवेन्द्रकीर्तिविरचितम् । कल्याणमंदिरपूजा संपूर्णम् ।।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री देवेन्द्रकीर्ति |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
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Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री देवेन्द्रकीर्ति 18वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 14-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धर्मचन्द्र के पश्चात् बलात्कार गणकी कारन्जा शाखामें देवेन्द्रकीर्ति पट्टा घीश हुए । इन्होंने कारन्जा निवासी बघेरवाल शिष्यों के साथ शक संवत् १६४३ की पौष कृष्णा द्वादशीको श्रवणबेलगोलकी यात्रा की। इस यात्राका उल्लेख श्रवणबेलगोल के अभिलेखों में निम्न प्रकार हुआ है
"सके १६४३ पौस वदि-१२ शुक्रवारे भण्डेवेडकीर्ति । (देवेन्द्रकीर्ति ) सहित उघरवल जात्ति हीरासाइ सुत हाससा सुत चागेवा सोनाबाई राजाई गोमाई
राधाई, मन्नाई सहित जात्रा सफल करी कारज कर।"
शक संवत् १६५० की पौष शुक्ला द्वितीयाको आपने नासिकके पास त्र्यम्बक ग्रामके पाश्चवर्ती गजपंथ पर्वतकी बन्दना की थी। तदनन्तर १५ दिनके पश्चात्
१. भट्टारकसम्प्रदाय, लेखांक १३७ ।
२. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिः सं० ३६६, पृ० ३४५ ।
मांगीतगी पर्वतकी यात्रा की। इस समय जिनसागर, रत्नसागर, चन्द्रसागर, रूपजी, वीरजी, आदि शान भी आपके साथ थे। इसके पश्चात् गिरिनारकी यात्रा के लिये जाते हुए आप सूरतमें ठहरे । वहाँ माघ शुक्ला प्रतिपदाको आणन्द नामक आबकने 'णायकुमारचरिज'की एक प्रति आपको अर्पित की। शक संवत् १६५१ को बैंशाग्न कृष्णा अयोदशीको इन्होंने केसरियाजीकी यात्रा की तथा उसी वर्ष मार्गशीर्ष शुवला पञ्चमीको तारंगा पर्वत और कोटिशिलाकी वन्दना की। इसी वर्ष पौष कृष्णा द्वादशीको गिरिनारकी और माघकृष्णा चतुर्थीको शत्रुजय पयंत की यात्रा की और मार्ग में सूरतमें पड़ाव डाला।
वि० सं० १५२की भाद्रपद शुक्ला पञ्चमीको आयिका पारामती के लिए श्री चन्द्र विरचित कथाकोशकी एक प्रति लिखवायी। इनके द्वारा लिखी एक नन्दीश्वर-आरती भी उपलब्ध है। आगरानिवासी बनारसोदासके पुत्र जीवन दासको पहले इनके बिषयमें अनादर था, किन्तु सुरतके चातुर्मासमें इनकी विद्वत्ता देखकर वे इनके शिष्य बन गये। बद्धिसागर और रूपचन्द्र ने भी इनकी स्तुति की है । इनके शिय माणिकनन्दिने शक संवत् १६४६ की भाद्रपद शुक्ला पतुसीको अनन्तनाथ-बारतीको रचना की है । अतएव इनका समय वि० सं० की १८वीं शती सुनिश्चित है। देबेन्द्रकीतिने कल्याणमन्दिरपूजा, विपापहार पूजा इन दो पूजाग्रन्थोंकी रचना की है। ये दोनों रचनाएँ साधारण हैं। रच नाएं संस्कृत भाषामें हैं। कल्याणमन्दिरमें रचनाकालका निर्देश भी किया गया है । यथा
गुण बेदांगचंद्राब्दे शाके १६४३ फाल्गुनमास्येदं ।
कारंजाख्यापुरे दृष्टं चन्द्रनाथदेवार्चनम् ।।
इति श्रीबलात्कारगणेयं भ० देवेन्द्रकीर्तिविरचितम् । कल्याणमंदिरपूजा संपूर्णम् ।।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री देवेन्द्रकीर्ति |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Devendrakirti 18th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 14-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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15000
dig
Devendrakirti18ThCentury
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