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#Dharmakirti17ThCentury
भट्टारक परम्परामें धर्मकीसि नामके चार भट्टारकोंका निर्देश प्राप्त होता है। एक धर्मकीर्ति त्रिभुवनकोतिके शिष्य हैं, जिनका निर्देश मलयकीतिके प्रसंगमें किया जा चुका है। दूसरे धर्मकीर्ति बलात्कारगण नागौर शाखामें भुवनकीतिके शिष्य है। इन धर्मकीतिक सम्बन्धमें पट्टावलीमें बताया गया है कि ये विसं १५९० चैत्र कृष्णा सप्तमीको पट्टारूढ़ हुए और दश बर्ष तक पट्टपर रहे। ये जातिसे सेठी थे। विसं० १६०१की फाल्गुन शुक्ला नवमीको इन्होंने एक चन्द्रप्रभकी मूर्ति स्थापित की थी। बताया है
"संवत् १५९० चैत्र वदि ७ म० धर्मकीतिजी गृहस्थ वर्ष १३, दीक्षा वर्ष ३१, पट्ट वर्ष १०, मास १, दिबस २०, अंतर मास १, दिवस १०, सर्व वर्ष
५५, मास १, दिवस ४, जाति सेठी, पट्ट अजमेर" ॥
तीसरे धर्मकीर्ति सिंहकीतिके शिष्य है। बलात्कारगण अटेर शाखाका प्रारम्भ सिंहकीर्तिसे होता है। ये सिंहकीति भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने वि०सं० १५२०को आषाढ़ शुक्ला सप्तमीको एक महावीरमूर्ति प्रतिष्ठा पित की थी। सिंहकीतिके बाद धर्मकीति और उनके पश्चात् शीलभूषण भट्टारक हुए।
चतुर्थ धर्मकीसि ललितकोतिके शिष्य हैं। ये बलात्कारगण जेरहट शाखाके आचार्य है। इस शाखाका प्रारम्भ भटटारक त्रिभवनकी तिो होना है। ये भट्टारक देवेन्द्रकीतिक शिष्य थे। त्रिभुवनकीतिके पश्चात् क्रमशः सहस्र कीति, पचनन्दि, यश-कीर्ति, ललितकीति और धर्मकीति भट्टारक हुए। धर्मकीतिने संवत् १६४५ माघ शुक्ला पञ्चमीको एक मूति; संवत् १६६९ चैत्र पूर्णिमाको एक चन्द्रप्रभुमूर्ति तथा एक पार्श्वनाथमूर्ति और संवत् १६७१ वैशाख शुक्ला पञ्चमीको एक नन्दीश्वरमूर्ति स्थापित की। अभिलेख निम्न प्रकार है
"सं० (१६) ४५ माघ सुदि ५ श्रीमूलसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशकौति पट्टे भ० ललितकीति पट्टे भ. श्रीधर्मकीति उपदेशात् पौरपट्टे छितिरा मूर गोहिलगोत्र साधु दीनू भार्या ॥"
"संवत् १६६९ चैत सुद १५ रखो मूलसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशोकीर्ति तत्पट्टे भ० ललितकीति तत्पट्टे भ० धर्मकीर्ति उपदेशात् ।।"
"संवत् १६६९ चैत सुदी १५ रबी भ७ ललितकीर्ति भ० धर्मकीति तदुपदे शात् सा. पदारथ भार्या जिया पुत्र दो खेमकरण पमायेता नित्यं नमति ।"
_ "संवत् १६७१ वर्षे वैसाख सुदि ५ मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्चये भ० यशकीति तत्पट्टे भ० ललितकीति तत्पट्टे भ० धर्मकीति उपदेशात् पौरपट्टे सा उदयचंदे भार्या "उदयगिरेन्द्र प्रतिष्ठा प्रसिद्ध ।।"
यही धर्मकीति अन्यरचयिता होनेके कारण इस प्रस्तुत सन्दर्भमें उल्लेख्य हैं। ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगपके आचार्य थे। इनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं। प्रथम रचना पापुराण वि०सं० १६६८में सावन महीनेकी तृतीया शनिवारके दिन मालच देशमें पूर्ण की गयी है । और हरिवंशपुराण वि०
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २८० ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक, २२५-२२८ ।
संवत् १६७१ आश्विन कृष्णा पञ्चमी रविवारके दिन पूर्ण हुआ है। ग्रन्धरचना के कालका उल्लेख करते हुए बताया है
वर्षे चष्टशते चैकानसप्तयधिके रबौ।
आश्विने कृष्णपंचम्या, ग्रंथोयं रचितो मया ॥
इससे स्पष्ट है कि धर्मकीतिका समय वि० की १७ वीं शताब्दी है । इन धर्मकीतिके उपदेशसे वि०सं० १६८१ माघ शुक्ला पूर्णिमा गुरुवार के दिन पाश्च नाथकी मुर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी और इन्हीके उपदेशसे वि०सं० १६८२ मार्ग शीर्ष वदीको षोडशकारणयन्त्रको प्रतिष्ठा की गयी है । अतएव धर्मकीतिका यश जैनसंस्कृति के प्रचार और प्रसारकी दृष्टिसे भी कम नहीं है।
धर्मकीतिको दो रचनाएं उपलब्ध हैं—पद्मपुराण और हरिवंशपुराण । पद्मपुराणकी रचना रविषेणके पारितके आधारपर की गयी है। मूल कथामें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया है ।
हरिवंशपुराणमें भी २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथका चरित अंकित है। रच नाओंमें मौलिकताको अपेक्षा अनुकरण ही अधिक प्राप्त होता है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री धर्मकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Dharmakirti17ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री १०८ धर्मकीर्ति 17वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Lalitkirti
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 10-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 10-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
भट्टारक परम्परामें धर्मकीसि नामके चार भट्टारकोंका निर्देश प्राप्त होता है। एक धर्मकीर्ति त्रिभुवनकोतिके शिष्य हैं, जिनका निर्देश मलयकीतिके प्रसंगमें किया जा चुका है। दूसरे धर्मकीर्ति बलात्कारगण नागौर शाखामें भुवनकीतिके शिष्य है। इन धर्मकीतिक सम्बन्धमें पट्टावलीमें बताया गया है कि ये विसं १५९० चैत्र कृष्णा सप्तमीको पट्टारूढ़ हुए और दश बर्ष तक पट्टपर रहे। ये जातिसे सेठी थे। विसं० १६०१की फाल्गुन शुक्ला नवमीको इन्होंने एक चन्द्रप्रभकी मूर्ति स्थापित की थी। बताया है
"संवत् १५९० चैत्र वदि ७ म० धर्मकीतिजी गृहस्थ वर्ष १३, दीक्षा वर्ष ३१, पट्ट वर्ष १०, मास १, दिबस २०, अंतर मास १, दिवस १०, सर्व वर्ष
५५, मास १, दिवस ४, जाति सेठी, पट्ट अजमेर" ॥
तीसरे धर्मकीर्ति सिंहकीतिके शिष्य है। बलात्कारगण अटेर शाखाका प्रारम्भ सिंहकीर्तिसे होता है। ये सिंहकीति भट्टारक जिनचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने वि०सं० १५२०को आषाढ़ शुक्ला सप्तमीको एक महावीरमूर्ति प्रतिष्ठा पित की थी। सिंहकीतिके बाद धर्मकीति और उनके पश्चात् शीलभूषण भट्टारक हुए।
चतुर्थ धर्मकीसि ललितकोतिके शिष्य हैं। ये बलात्कारगण जेरहट शाखाके आचार्य है। इस शाखाका प्रारम्भ भटटारक त्रिभवनकी तिो होना है। ये भट्टारक देवेन्द्रकीतिक शिष्य थे। त्रिभुवनकीतिके पश्चात् क्रमशः सहस्र कीति, पचनन्दि, यश-कीर्ति, ललितकीति और धर्मकीति भट्टारक हुए। धर्मकीतिने संवत् १६४५ माघ शुक्ला पञ्चमीको एक मूति; संवत् १६६९ चैत्र पूर्णिमाको एक चन्द्रप्रभुमूर्ति तथा एक पार्श्वनाथमूर्ति और संवत् १६७१ वैशाख शुक्ला पञ्चमीको एक नन्दीश्वरमूर्ति स्थापित की। अभिलेख निम्न प्रकार है
"सं० (१६) ४५ माघ सुदि ५ श्रीमूलसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशकौति पट्टे भ० ललितकीति पट्टे भ. श्रीधर्मकीति उपदेशात् पौरपट्टे छितिरा मूर गोहिलगोत्र साधु दीनू भार्या ॥"
"संवत् १६६९ चैत सुद १५ रखो मूलसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० यशोकीर्ति तत्पट्टे भ० ललितकीति तत्पट्टे भ० धर्मकीर्ति उपदेशात् ।।"
"संवत् १६६९ चैत सुदी १५ रबी भ७ ललितकीर्ति भ० धर्मकीति तदुपदे शात् सा. पदारथ भार्या जिया पुत्र दो खेमकरण पमायेता नित्यं नमति ।"
_ "संवत् १६७१ वर्षे वैसाख सुदि ५ मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्चये भ० यशकीति तत्पट्टे भ० ललितकीति तत्पट्टे भ० धर्मकीति उपदेशात् पौरपट्टे सा उदयचंदे भार्या "उदयगिरेन्द्र प्रतिष्ठा प्रसिद्ध ।।"
यही धर्मकीति अन्यरचयिता होनेके कारण इस प्रस्तुत सन्दर्भमें उल्लेख्य हैं। ये मूलसंघ सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगपके आचार्य थे। इनकी दो रचनाएं उपलब्ध हैं। प्रथम रचना पापुराण वि०सं० १६६८में सावन महीनेकी तृतीया शनिवारके दिन मालच देशमें पूर्ण की गयी है । और हरिवंशपुराण वि०
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक २८० ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक, २२५-२२८ ।
संवत् १६७१ आश्विन कृष्णा पञ्चमी रविवारके दिन पूर्ण हुआ है। ग्रन्धरचना के कालका उल्लेख करते हुए बताया है
वर्षे चष्टशते चैकानसप्तयधिके रबौ।
आश्विने कृष्णपंचम्या, ग्रंथोयं रचितो मया ॥
इससे स्पष्ट है कि धर्मकीतिका समय वि० की १७ वीं शताब्दी है । इन धर्मकीतिके उपदेशसे वि०सं० १६८१ माघ शुक्ला पूर्णिमा गुरुवार के दिन पाश्च नाथकी मुर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी और इन्हीके उपदेशसे वि०सं० १६८२ मार्ग शीर्ष वदीको षोडशकारणयन्त्रको प्रतिष्ठा की गयी है । अतएव धर्मकीतिका यश जैनसंस्कृति के प्रचार और प्रसारकी दृष्टिसे भी कम नहीं है।
धर्मकीतिको दो रचनाएं उपलब्ध हैं—पद्मपुराण और हरिवंशपुराण । पद्मपुराणकी रचना रविषेणके पारितके आधारपर की गयी है। मूल कथामें कुछ भी परिवर्तन नहीं किया है ।
हरिवंशपुराणमें भी २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथका चरित अंकित है। रच नाओंमें मौलिकताको अपेक्षा अनुकरण ही अधिक प्राप्त होता है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री धर्मकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Dharmakirti 17th Century
आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Lalitkirti
आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Lalitkirti
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 10-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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