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#Durgdevacharya11ThCentury
दुर्गदेव नामके श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्यमें तीन आचायोंका उल्लेख मिलता है। प्रथम दुर्गदेवका उल्लेख मेघविजयके वर्षप्रबोधमें आया है। इसमें इन्हें षष्ठि-संवत्सरी' नामक ग्रन्यका रचयिता बतलाया है। उद्धरण निन्न प्रकार है
अथ जैनमते दुर्गदेवः स्वकृतष्ठिसंवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाह--
ॐ नमः परमात्मानं बन्दिल्या श्रीजिनेश्वरम् ।
केवलज्ञानमास्थाय दुर्गदेवेन भाष्यते ।।
पार्थ उवाच-भगवान दुर्गदेव ! देवानामधिप ! प्रभो !!
'भगवन् कथ्यतां सत्यं संवत्सरफलाफलम् ।।
दुर्गदेव उवाच-शृणु पार्थ! यथावृत्त भविष्यन्ति तथाद्भुतम् ।
दभिक्षं च. सभिक्षं च राजपीडा भयानि च ।।
एतद् योऽत्र न जानाति तस्य जन्म निरर्थकम् ।
तेन सर्व प्रवक्ष्यामि विस्तरेण शुभाशुभम् ॥
भणयं दुग्गदेवण जो जाणइ वियवखणो ।
सो रान्चत्य वि पुजो णिच्छयो नद्धलच्छीय ॥
हितोस गंदेद कानन्वतिके रचगिना है तथा इस नामक एक आचार्यका उद्धरण आरम्भसिद्धि नामक ग्रन्यकी टीकामें श्री हेमहंसगणिने निम्न प्रकार उपस्थित किया है
:-"मुण्डयितारः भाविष्ठायिनो भवन्ति बघूमूढाम्" इति ।
उपयुपत दोनों दुर्गदेवोंपर विचार करनेसे यह ज्ञात होता है कि ये दोनों ज्योतिष विषयके ज्ञाता तो अवश्य हैं पर रिष्टसम्मुचयके कर्ता नहीं हैं। रिष्ट समुच्चयको रचनाशैली बिल्कुल भिन्न है। गुरुपरम्परा भी इस बातको व्यक्त करती है कि आचार्य दुर्गदेव दिगम्बर परम्पराके हैं। जैन साहित्य संशोधकमें प्रकाशित 'बृहट्टिमणिका' नामक प्राचीन जैन ग्रन्थ सूचीमें मरणकण्डिका और मन्त्रमहोदधिके कर्ता दुर्गदेवको दिगम्बर आम्नायका आचार्य माना है। रिष्ट समुच्चयकी प्रशस्तिमे भी ज्ञात होता है कि इनके गुरुका नाम संयमदेव' था । संयमदेव भी संयमसेनके शिष्य थे तथा संयमसेनके गुरुका नाम माधवचन्द्र था । _ 'दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तकमें माधवचन्द्र नाम के दो व्यक्ति आये हैं। एक तो प्रसिद्ध त्रिलोकसार,क्षपणकसार,लब्धिसार आदि अन्धोंके टीकाकार और दुसरे पद्मावती पुरवार जातिके विद्वान् हैं । मेरा अपना विचार है कि संघमसेन प्रसिद्ध माधवचन्द्र विद्यके शिष्य होंगे। क्योंकि इस परम्पराके सभी आचार्य गणित, ज्योतिष आदि लोकोपयोगी विषयोके ज्ञाता हुए हैं । दुर्गदेवने 'रिष्टगमुच्चय' ग्रन्थको रचना लक्ष्मीनिवास राजाके राज्य में कुम्भ नगर नामक पहाड़ी नगरके शान्तिनाथ जिनालयमेंकी है। विशेषज्ञोंका अनुमान
१ जय जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इस्य ।
तहवि हु संजमसेणो माहवचन्दो गुरुतब्य ॥
रइयं बहसत्पत्थं उवजीविता हु दुग्गएवंण ।
रिसमुच्चयसत्यं बयणण संजमदेबस्स ॥
---रिष्टसमचाय, गोधाग्रन्थमाला, इन्दौर संस्करण, गाभा-२५४, २५५ ।
२ गिरिक मनयरण (य) र सिरिलच्छिनिवासनिबइरजमि ।
सिरिसतिनाह भपणे मुणि-भावन-सम्मउमे (ले) रम्मे ॥
–रिण्टसमुच्चय, गाथा २६१ ।
है कि यह कुम्भनगर भरतपुरके निकट 'कुम्हर', 'कुम्भेर' अथवा 'कुम्भेरी' नामका प्रसिद्ध स्थान ही है। महामहोपाध्याय स्व० डा. गौरीशंकर होराचन्द जो भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि लक्ष्मीनिवास कोई साधारण सरदार रहा होगा तथा कुम्भनगर भरतपुरक निकटवाला कुम्भेरी, कुम्मेर या कुम्हर ही है, क्योंकि इस ग्रन्थकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें हुई है । अतः यह स्थान शौरसेन देशके निकट ही होना चाहिए ! कुछ लोग कुम्हागर कुम्भलगढ़को मानते हैं, पर उनका यह मानना ठोक नहीं बचता, क्योंकि यह गढ़ तो दुर्गदेव के जीवनके बहुत पीछे बना है।
कुम्भराणा द्वारा विनिर्मित मसिन्दा किलेका कुम्भ-विहार भी यह नहीं हो सकता है, क्योंकि इतिहास द्वारा इसकी पुष्टि नहीं होती है। अतएव रिष्ट समुच्चयका रचगास्थान शरसेन देशके भीतर भरतपुरके निकट वर्तमानका कुम्हर या कुम्मेर है। दुर्गदेवके समय में यह नगर किसी पहाड़ीके निकट बसा हुआ होगा, जहाँ शान्तिनाथ जिनालयों इसकी रचना की गया है । यह नगर उस समय रमणीक और भव्य रहा होगा। किसी बंशावलीमें लक्ष्मीनिवासका नाम नहीं मिलता है। अत: हो सकता है कि वह एक छोटा सरदार जाट या जदन राजपूत रहा हो। यह स्मरणीय है कि भरतपुरमें जाटोंका शासन रहा है जो अपनेको मदनपालका वंशज कहते थे । इतिहास में मदनपालको जदन राजपूत बतलाया गया है । यह टहनपालके, जो ११वीं शताब्दी में बयाना शासक थे, तृतीय पुत्र थे। अत: इससे भी कुम्भनगर भरतपुरके निकटवाला कुम्हर ही सिद्ध होता है।
रिष्टसमुच्चयकी प्रशस्तिमें संयमदेव और दुर्गदेव-इन दोनोंकी विद्वत्ताका वर्णन बाया है। दुर्गदवके गुरु संयमदेव षडदर्शनके ज्ञाता, ज्योतिष, व्याकरण और राजनीति में पूर्ण निष्णात थे। वे वादिरूप मदोन्मत्त हाथियोंके झुण्डको पराजित करने के लिए सिंहके समान थे। ये सिद्धान्तशास्त्रके पारगामी थे और मुनियों में सर्वश्रेष्ठ थे। इन यशस्वी यमदेवके शिष्य दुर्गदेव भी विशुद्ध चरित्र वान् और सकलशास्त्रोंके मर्मज पण्डित थे । लिखा है
संजाओ इहतस्स चारुचरिओ नाणं बुद्धोयं ( धोया ) मई
सीसो देसजई सं ( बि ) बोहणयरो णीसेसबुद्धागमो ।
मामेणं दुग्गएब विदिओ दागीसरायण्णओ
तेणंदं रइयं विसुद्धमणा सत्थं महत्थ फुलं ।'
१. रिष्टसमुच्चय, गापा---२५८ ।
अर्थात् संयमदेवका शिष्य दुर्गदेब विशुद्ध चरित्रवाला, ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षा लित बुद्धिवाला, वाद-विवादमें देश भरके विद्वानोंको पराजित करनेवाला, सब को समझानेवाला एवं सम्पूर्ण शास्त्रोंका विद्वान् हुआ, जिसने अपनी विशुद्ध बुद्धि द्वारा स्पष्ट और महान अर्थबाले इस रिष्टसमुच्चयशास्त्रकी रचना की।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इस पद्यमें आये हुए 'देसजई' का संस्कृत रूपान्तर 'देशयत्ति' मान लिया है और इस मान्यताके आधारपर दुर्गदेवको क्षुल्लक बतलाया है, पर यह भूल है । 'देसजई का संस्कृत रूपान्तर 'देशजयी है और इसका अर्थ शास्त्रार्थ में देश भरके विद्वानोंका जीतनेवाला है। यदि दुर्ग देव क्षुल्लक होते तो उन्हें चारचरित नहीं कहा जा सकता। यह ग्रन्थ भी उन्होंने मुनियों और भव्य श्रावकोंको सम्बोधित करनेके लिए लिखा है । मुनिको मगि ही सम्बोधित कर सकता है, श्रावक या क्षुल्लक नहीं! अतः स्पष्ट है कि इस ग्रन्धके रचयिता आचार्य दुर्गदेव ज्योतिष, शाकुन, मन्त्र आदिके साथ आगम
और सर्कशास्त्रके भी ज्ञाता थे।
दुर्गदेवका स्थिति-काल उनकी रचनाओंसे ज्ञात किया जा सकता है। रिष्ट समुचच्यमें रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है
संवच्छरइगसहसे बोलीणे णवयसीइ संजुत्ते ।
साधणमुक्तयासि दिअइम्मि (य ) मूलरिक्वभि ॥
अर्थात् संबत् १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्रमें इसकी रचना की है। यहाँ पर संवत् शब्द सामान्य आया है। इसे विक्रम संवत् लिया जाय या शक संवत् यह एक विचारणीय प्रश्न है। ज्योतिषने अनुसार गणना करने पर शक संवत् १०८९ में श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्र पड़ता है तथा वि० सं० १०८९. में श्रावण शुक्ला एकादगीको प्रातःकाल सूर्योदयमें ३ घटी अर्थात् एक घंटा १२ मिनट तक ज्येष्ठा नक्षत्र रहता है। पश्चात् मूल नक्षत्र आता है। निष्कर्ष यह है कि शक संवत् माननेपर श्रावण शुक्ला एकादशी को मल नक्षत्र दिन भर रहता है और वि० सं० मानने पर सूर्यादयके एक घंटा बारह मिनट पश्चात् मूल नक्षत्र आता है । अत्तएव कौन-सा संवत् लेना उचित है । सम्भवत: कुछ समालोचक यह तर्क कर सकते हैं कि शक संवत् लेनेसे दिन भर मूल नक्षत्र रहता है। अन्यकर्ताने किसी भी समय इस नक्षत्र में ग्रन्थका निर्माण किया होगा। अतएव शक संवत् लेना ही उचित है।
१. जैन-पन्य-प्रशस्ति-संग्रह प्रथम भाग, पृष्ठ-९४ ।
२. रिष्टसमुच्चय, गाथा संख्या-२६० ।
शक संवत् मानने में तीन दोष आते हैं। पहला दोष तो यह है कि शक संवत् में अमान्त माम गणना ली जाती है और यहाँ पर पूर्णिमान्त मास गणना की गयी है। दूसरा दोप यह है कि उत्तर भारत में वि० सं० का प्रचार था और दक्षिण भारत में शक संवत का । यदि दो शक संचत मानते हैं तो ग्रन्थकार. दक्षिणके निवासी सिद्ध होते हैं, पर बात ऐसी नहीं है। तीसरी बात यह है कि जहाँ-जहाँ शक संवत्का उल्लेख मिलता है, वहाँ संवत्क पूर्व शक विशेषण आता है। सामान्य संवत् शब्द नि सं० के लिए ही प्रयुक्त होता है । 'रिष्टसमुन्वय' की रचना वि० सं० १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशी शुक्रवारको सूर्योदयके ? घंटा १२ मिनटके पश्चात् किसी भी समयमें पूर्ण हुई है। ई० सन् के अनुसार गणना करनेपर २१ जुलाई शुक्रवार ई० सन् १०३२ आता है । अत: दुर्गदेव ई० सन् की ११वीं शतीके विद्वान् हैं।
दुर्गदेवकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
१. रिष्टसमुच्चय ।
२. अर्घकाण्ड ।
३. मरणकाण्डका ।
४. मन्त्रमहोदधि ।
इस ग्रन्थमें २६१ गाथाएँ हैं। आरम्भमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करनेके पश्चात् मनुष्यजीवन और जैनधर्मकी उत्तमताका निरूपण कर विषयका कथन किया गया है। प्राक्कथनके रूपमें अनेक रोगों और उनके भेदोंका वर्णन है। यह १६ गाथाओं तक गया है । विषयमें प्रवेश करनेके परवान् ग्रन्थकारने रिष्टोंके पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीन भेद बतलाये हैं। प्रथम श्रेणी में शारीरिक अरिष्टोंका वर्णन करते हुए वाहा है कि जिसकी आंग्ने स्थिर हो जायें, पुतलियाँ इधर-उधर न चलें, शरीर कान्तिहीन काष्ठवत् हो जाये और ललाट में पीना आवे वह केवल ७ दिन जीवित रहता है। यदि बन्द मुख एकाएक खुल जाये, औलोंकी पलक न गिरें, इकटक दृष्टि हो जाये तथा नख-दाँत सड़ जायें या गिर जायें तो वह व्यक्ति सात दिन तक जीवित रहता है । भोजनके समय जिस व्यक्तिको कड़वे, तीखे, कषायले, खट्टे, मीठे और खारे रसोंका स्वाद न आवे उसकी आयु १ माहकी होती है। बिना किसी कारणके जिसके नख, ओठ काले पड़ जामें, गर्दन झुक जाये, तथा उष्ण बस्तु शीत और शीत वस्तु उष्म प्रतीत हो, सुगन्धित वस्तु दुर्गन्धित और दुर्गन्धित वस्तु सुगन्धित
माणूम. सावितका न माईता है। प्रकृति विपर्यास होना भी शीघ्रमृत्युका सूचक है। जिसका स्नान करनेके अनन्तर वक्षस्थल पहले सूख जाये तथा अवशेष शरीर गौला रहे, वह व्यक्ति केबल पन्द्रह दिन जीवित रहता है । इस प्रकार पिण्डस्थ अरिष्टोंका विवेचन १७ वीं गाथासे लेकर ४० वीं गाथा तक २४ गाथाओम विस्तारपूर्वक किया है।
द्वितीय श्रेणी में पदस्थ अरिष्ट्रों द्वारा मरणसुचक चिह्नोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण कर सुगन्धित द्रव्य तथा आभूषण से अपनेको सजाकर जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करनी चाहिये । पश्चात्-"ओं ह्रीं णमो अरहताणं कमले-कमले विमले-बिमले उदरदेवि इटिमिटि पुलिन्दिनी स्वाहा” इस मन्त्रका २१ बार जाप कर बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धोंसे प्रकट होने वाले मृत्युसूचक लक्षणोंका दर्शन करना चाहिये।
उपयुक्त विधिके अनुसार जो व्यक्ति संसारमें एक चन्द्रमाको नाना रूपोंमें तथा छिद्रोंसे परिपूर्ण देखता है उसका मरण एक वर्षके भीतर होता है। यदि हाथकी हथेलीको मोड़नेपर इस प्रकारसे सट सके जिससे चुल्लू बन जाये और एक बार ऐसा करने में देर लगे, तो सात दिनकी आयु समझनी चाहिये । जो व्यक्ति सूर्य, चन्द्र एवं ताराओंकी कान्तिको मलिनस्वरूपमें परिवर्तन करते हुए एवं नाना प्रकारमे छिद्रपूर्ण देखता है, उसका मरण छह मासके भीतर होता है। यदि सात दिनों तक सूर्य, चन्द्र एवं साराओंके बिम्बोंको नाचता हुआ देखे, तो निःसन्देह उसका जीवन तीन मासका समझना चाहिये । इस तरह दीपक, चन्द्रनिम्ब, सूर्यबिम्ब, तारिका, सन्ध्याकालीन रक्तवर्ण धूम धूसित दिशाएँ, मेघाच्छन्न आकाश एवं उल्काएँ आदिके दर्शन द्वारा आयुका निश्चय किया जाता है। इस प्रकार ४१वीं गाथा तक २७ गाथाओंमें पदस्थ रिष्टोका वर्णन आया है।
तृतीय श्रेणी में निजच्छाया, परच्छाया और छायापुरुष द्वारा मृत्युसूचक लक्षणोंका बड़े सुन्दर ढंगसे निरूपण किया है । प्रारम्भमें छायादर्शनकी विधि बतलाते हुए लिखा है कि स्नान आदिसे पवित्र होकर- 'ओं ह्रीं रक्ते रक्ते रक्त प्रिये सिंहमस्सकसमारूढे कूष्माण्डी देवि मम शरीरे अवतर-अवतर छायां सत्या कुरु कुरु ह्रीं स्वाहा" इस मन्त्रका जाप कर छायादर्शन करना चाहिये । यदि कोई रोगी व्यक्ति जहाँ खड़ा हो, बहाँ अपनी छाया न देख सके या अपनी छायाको कई रूपोंमें देखे अथवा छायाको बैल, हाथी, कौआ, गदहा, 'मैंसा और घोड़ा आदि नाना रूपोंमें देखें तो उसे अपना ७ दिनके भीतर मरण समझना चाहिये । यदि कोई अपनी छायाको काली, नीली, पीली और लाल देखता है, तो वह
क्रमशः तीन, चार, पांच और छह दिन जीवित रहता है। इस प्रकार अपनी कायाके रंग, आकार, लम्बाई, छंदन-भेदन आदि विभिन्न तरीकोंसे आधुका निश्चय किया गया है।
परछायादर्शनकी विधिका निरूपण करते हुए बताया है कि एक अत्यन्त सुन्दर युवकको जो न लम्बा हो, न नाटा हो, स्नान कराकर सुन्दर बस्त्रोंसे युक्त बर-"ओं ह्रीं रक्ते रवते रक्तप्रिये सिंहमस्तकसभारूढ़े कुष्माण्डी देवि मम शरीरे अवतर-अवत्तर छायां सत्यां कुरु कुरु ह्रीं स्वाहा'' मन्त्रका १०८ बार जाप करना चाहिये, पश्चात् उत्तर दिशाकी ओर मुंह कर उस व्यक्तिको जैठा देना चाहिये, अनन्तर रोगी व्यक्तिको उस युवककी छायाका दर्शन करना चाहिये । यदि रोगी व्यक्ति किसी व्यक्तिको छायाको टेढ़ी, अधोमुखी, पराङ्मुखी और और नीलवर्णका देखता है, तो दो दिन जीवित रहता है । यदि छायाको हंसते, रोते, दौड़ते, बिना नान, बाल, नाक, भुजा, जंघा, कमर, सिर और हाथ-पैरके देखता है, तो छह महीनेके भीतर मत्य होती है। रक्त, ची, तेल, पीब और अग्नि आदि पदार्थों को छाया द्वारा उगलते हुए देखता है, तो एक सप्ताहके भीतर मत्य होती है। इस प्रकार ६५ वौं गाथा सक परछाया द्वारा मरण समय का निर्धारण दिया गया है।
छायापुरुषका कथन करते हुए बतलाया गया है कि मन्त्रसे मन्त्रित व्यक्ति समतल भूमिपर खड़ा होकर गैरोंको समानान्तर कर, हायौंको नीचे लटका कर अभिमान, छल-कपट और विषय बासनासे रहित जो अपनी छायाका दर्शन करता है, वह छायापुरुष कहलाता है। इसका सम्बन्ध नाकके अग्रभागसे, दोनों स्तनोंके मध्यभागसे, गुप्तांगोंसे, पैरके कोनोंसे, ललाटसे और आकाशसे होता है । जो व्यक्ति उस छायापुरुषको बिना सिर, पैरके देखता है, तो जिस रोगी के लिए छायापुरुषका दर्शन किया जा रहा है, वह छह मास जीवित रहता है । यदि कोई छायापुरुष घुटनोंके बिना दिखलायी पड़े, तो २८ महीने और कमर बिना दिखलायी पड़े तो १५ महीने शेष जीवन समझना चाहिये । यदि छाया पुरुष बिना हृदयके दिखलाई पड़े तो ८ महीने, बिना गुप्तांगोंके दिखलाई पड़े, तो दो दिन और बिना कन्धोके दिखलाई पड़े तो जीवन एक दिन शेष समझना चाहिये। इस प्रकार छायापुरुषके दर्शन द्वारा मरणसमयका निर्धा रण १०७वीं गाथा तक किया गया है।
इसके पश्चात् १३०ची गाथा तक स्वप्नदर्शन द्वारा मृत्युके लक्षणोंका कथन किया है । इस प्रकरणके प्रारम्भमें बताया है कि जिस रातको स्वप्न देखना हो, उसके पूर्वके दिन उपवाससहित मौनव्रत धारण करे और उस दिन समस्त
आरम्भका त्याग कर विकथा एवं कषायोंसे रहित होकर-'ओं ही पम्हसवणे स्वाहा' इस मन्त्रका एक हजार बार जाप कर भूमिपर शयन करे । यहाँ स्वप्नों के दो भेद बतलाये हैं --कधित और सहज । मन्त्रजापपूर्वक किसी देवविशेष की आराधनासे जो स्वप्न देखे जाते हैं वे देब कथित और चिन्तारहित स्वस्थ एवं स्थिर मनसे चिना मन्त्रोच्चारणके शरीरमें धातुओंके सम होनेपर जो स्वप्न देखे जाते हैं, वे सहज कहलाते हैं। प्रथम प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल दश वर्षमें, दूसरे प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल पाँच वर्षमें, तीसरं प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल छह महीने में और चौथे प्रहरमें स्वान देखनेसे उसका फल दस दिनमें प्राप्त होता है। ___ जो स्वप्नमें जिनेन्द्र भगबानको प्रतिमाको हाथ, पैर, घुटने, मस्तक, जंघा, कंधा और पेटसे रहित देखता है वह क्रमशः ४ महीने, ३ वर्ष, १ वर्ष, पाँच दिन,
वर्ष, १ मास और ८मास जीवित रहता है । अथवा जिस व्यक्तिके शुभाशुभको ज्ञात करनेके लिए स्वप्नदर्शन किया जा रहा है, वह उपयुक्त समयों तक जीवित रहता है। स्वप्नमें छत्रभंग देखनेसे राजाको मत्यु, परिवारको मृत्यु देखनेसे परिवारका मरण होता है। यदि इनमें अपना नाम होता दले. तो दो महीनेकी आयु शेष समझनी चाहिये । दक्षिण दिशाकी और ऊँट, गदहा और भैसेपर सवार होकर, घी या तेल शरीरमें लगाये हुए जाते देखें तो एक मासकी आयु शंष समझनी चाहिये । यदि काले रंगका व्यक्ति घरमेसे अपनेको बलपूर्वक खींचकर ले जाते हुए स्वप्नमें दिखलायी दे तो एक मासकी आयु शेष समझनी चाहिये । रुधिर, चर्बी, पीच, चर्म और तैलमें स्नान करते हुए या डूबते हुए अपनेको स्वप्न में देखे या स्वप्नमें लाल फूलोको बांधकर ले जाते हुए देखे, तो वह व्यक्ति एक मास जीवित रहता है । इस प्रकार इस प्रकरणमें विस्तारपूर्वक स्वप्नदर्शनका कथन किया गया है। इसके अनन्तर प्रत्यक्षरिष्ट
और लिंगरिष्टोंका कथन करते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति दिशाओंको हरे रंगकी देखता है, वह एक सप्ताहले भीतर, जो नीले वर्णकी देखता है वह पांच दिन के भीतर, जो श्वेत वर्णकी वस्तुको पीत और पीत वर्णकी वस्तुको श्वेत देखता है वह तीन दिन जीवित रहता है। जिसकी जीभसे जल न गिरे, जीभ रसका अनुभव न कर सके और जो अकारण अपना हाथ गुप्त स्थानोंपर रखे बह सात दिन जीवित रहता है । इस प्रकरणमें विभिन्न अनुमान और हेतुओं द्वारा मृत्युसमयका प्रतिपादन किया गया है ।
प्रश्न द्वारा रिष्टोंके वर्णनके प्रकरणमें प्रश्नोंके आठ भेद बतलाये है
१. अंगुलि प्रश्न, २. अलक्त प्रवन, ३. गोरोचन प्रश्न, ४. अक्षर प्रश्न,
५. शब्दप्रश्न, ६. प्रश्नाक्षरप्रश्न, ७. लग्नप्रश्न और ८. होराप्रश्न | अंगुलिप्रश्न का कथन करते हुए बताया है कि श्री महावीरस्वामीकी प्रतिमाके सम्मुख उत्तम मालतीके पुष्षों से-'ओ हों अहणमो अरहताणं ह्रीं अबतर-अनतर स्वाहा' इस मन्त्रका १८ बार जाप कर मन्त्र सिद्ध करे । पुनः दाहिने हाथकी तर्जनी को १७० बार मन्त्रसे मन्त्रित कर आँखोंके ऊपर रखकर रोगीको भूमि देखने के लिए कहे। यदि वह सूर्यके विम्बको भूमिपर देखे तो छह मास जीवित रहता है। इस प्रकार अगुलिप्रश्न द्वारा मृत्युसमयको ज्ञात करनेकी विधिके उपरान्त अलक्तप्रश्नकी विधि बतलायो है कि चौरस भूमिको एक वर्णकी गायके गोबर से लीप कर उस स्थानपर “ओं ह्रीं अरह णमो अरहताणं ह्रीं अवतर अबतर स्वाहा इस मन्त्रको १०८ बार जपना चाहिये। फिर कांसके बर्तन में अलक्तको भरकर १०० बार मन्त्रले मन्त्रित कर उक्त पृथ्वीपर उस बर्तनधो रख देना चाहिए । पश्चात् रोगीक हाथोंको दूधसे भोकर दोनों हाथोंपर मन्त्र पढ़ते हुए दिन, मास और वार्षकी कल्पना करनी चाहिये । पुनः १७० बार उक्त मन्त्रको पड़कर अलक्तसे रोगीके हाथोंको घोना चाहिये । इस क्रियाक अनन्तर हाश्रोंक सन्विस्थानमें जितने बिन्दु काले रंगके दिखलायी पड़ें उतने दिन, मास और वर्षकी बायु समझनी चाहिये । लगभग यही विधि गोरोचनप्रश्नकी भी है।
प्रश्नाकारविधिका कथन करते हुए लिखा है कि जिस रोगीक सम्बन्धमें प्रश्न करना हो वह--ओं ह्रीं बद बद वाग्वादिनी सत्यं ह्रीं स्वाहा" इस मन्त्रका जाप कर प्रश्न करे। उत्तर देनेवाला प्रश्नवाक्यके सभी व्यञ्जनोंको दुगुना और मात्राओंको चौगुना कर जोड़ दे । इस योगफलमें स्वरोंको संख्यासे भाग देनेपर सम शेष आये तो रोगीका जोबन और विषम शेष आनेपर रोगीकी मृत्यु समझना चाहिये । अक्षरप्रश्नके वर्णनमें वज, धूम, खर, गज, वृष, सिंह, श्वान और वायस इन आठ आयोंके अक्षर क्रमानुसार आयुका निश्चय करना चाहिये । शब्द प्रश्नमें शब्दोच्चारण, दर्शन आदिके शकुनों द्वारा अरिष्टोंका कथन किया गया है। इस प्रकरणमें शब्दश्नवणके दो भेद बतलाये है—१. देवकथित शब्द आर २. प्राकृतिकशब्द । देवकथित शब्द मन्त्राराक्ना द्वारा सुने जाते है। प्राकृतिक पशु-पक्षी मनुष्य आदिके शब्दश्रवण द्वारा फलका कथन किया जाता है। शब्दप्रश्नका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है।
होराप्रश्न इसका एक महत्त्वपूर्ण अंश है। इसमें मन्त्राराधनाके पश्चात् तीन रेखाएँ खींचनेके अनन्तर आठ तिरछी और खड़ी रेखाएं खींचकर आठ आयोंको रखनेको विधि है तथा इन आयों के वेष द्वारा शुभाशुभ फलका निक पण किया है। शनिचक्र, नरचक्र इत्यादि चकों द्वारा भी मरणसमयका निर्धारण किया गया है । विभिन्न नक्षत्रोंमें रोग उत्पन्न होनेसे कितने दिनों तक बीमारी रहती है और रोगीको कितने दिनों तक कष्ट उठाना पड़ता है आदि का मभन है ! जानन पन्नाली ला मिना कर द्वादश भावों में रहने वाले ग्रहोके सम्बन्धसे फलका प्रतिपादन किया है। इस ग्रन्धमें गोमूत्र, गोदुग्ध आदिका भी विधान आया है, पर यह लौकिक दृष्टिसे है। धर्मके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि दुर्गदेवने अद्भुतसागर, चरक, सुश्रुत, पुराण आदि ग्रन्थोंसे अनेक विषय ग्रहण कर ज्याने त्यों निबद्ध कर दिये हैं । अतः इन लोकिक विषयोंका जैनधर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है।
इस ग्रंथमें १४६ गाथाएँ हैं, जो 'रिष्टसमुच्चय'को १६२ गाथाओंसे मिलती हैं। रिष्टसमुच्चयमें १६३से आगे और बढ़ाकर २६१ गाथाएँ कर दी गयी हैं। 'मरणकण्डिका की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। कुछ विद्वानोंका अनुमान है कि 'मरणकण्डिका' का निर्माण किसी अन्य व्यक्तिने किया है, दुर्गदेवाचायने इस ग्रंथका विस्तार कर 'रिष्टसमुच्चय की रचना की है। पर मेरा मन है कि यह रचना भी दुर्गदेवकी है, यतः कोई अन्धकार भावको तो ग्रहण कर सकता है पर अन्यके पद्योंको यथावत् नहीं ग्रहण करता। अतएव दुर्गदेवने पहले मरणकण्डिका की रचना की होगी, किन्तु बादको उसे संक्षिप्त जानकर उसीमें वृद्धिकर एक नवीन ग्रन्ध रच दिया होगा तथा पहले लिखे गये ग्रन्थको ज्योंकात्यों छोड़ दिया होगा।
इसमें १४९, गाथाएँ और दस अध्याय हैं। इसकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें है। यह तेजी-मन्दी ज्ञात करनेका अपूर्व ग्रन्थ है। ग्रह और नक्षत्रोंकी विभिन्न परिस्थितियोंके अनुसार खाद्यपदार्थ, सोना, चाँदी, लोहा, ताम्बा, हीरा, मोती, पशु एवं अन्य धन-धान्यादि पदार्थों की घटती-बढ़ती कीमतोंका प्रतिपादन किया है, सुकाल और दुष्कालका कथन भी संक्षेपमें किया है। ज्योतिष चन्द्र के गणनानुसार वृष्टि, अतिवृष्टि और वृष्टि अभावका कथन आया है। साठ संवत्सरोंके फलाफल तथा किस संवत्सरमें किस प्रकारको वर्षा और धान्यकी उत्पत्ति होती है, इसका संक्षेपमें सुन्दर वर्णन आया है। अन्य छोटा होनेपर भी उपयोगी है। इसमें प्रत्येक वस्तुकी तेजी-मन्दी ग्रहोंको चाल परसे निकाली गयी है। संहितासम्बन्धी कतिपय बातें भी इसमें संकलित हैं। अहाचार प्रक रणमें गुरु और शुक्रको गतिके अनुसार देश और समाजकी परिस्थितिका ज्ञान
कराया गया है। शनि और मंगलके निमित्तपरसे लोहा और ताँबेकी घटा. बढ़ीका कथन किया गया है।
यह मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ है । इसकी भाषा प्राकृत है। "ण्टिसमुज्नय' में आये हुए मन्त्रोंसे पता चलता है कि ये आचार्य मन्त्रशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे । मन्त्रों में वैदिकधर्म और जैनधर्म,इन दोनोंकी कतिपय बातें आयी हैं, जिससे अवगत होता है कि मन्त्रशास्त्रमें सम्प्रदाय विभिन्नता नहीं ली जाती थी। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वैदिकधर्मके प्रभावके कारण ही जैनधर्म में इस विषयका समावेश किया गया होगा। क्योंकि आठवीं शती में जनधर्मको नास्तिक कहकर विधर्मी श्रद्धालुओंकी श्रद्धाको दुर कर रहे थे। अत: जैनाचार्य और भट्टारकोंने वैदिकधर्मकी देखा-देवी मन्त्र-तन्त्रवादको जनधर्ममें स्थान दिया।
ग्रंथकर्ताके जीतनकी लाप ग्रन्थमें रहती है. इस नियमके अनुसार यह स्पष्ट है कि आचार्य दुर्गदेब एक अच्छे मान्त्रिक थे। मन्त्रमहोदधि मन्त्रशास्त्रका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
गुरु | आचार्य श्री संयमदेव |
शिष्य | आचार्य श्री दुर्गदेव |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Durgdevacharya11ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री दुर्गदेवाचार्य 11वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 01 -May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 01 -May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
दुर्गदेव नामके श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्यमें तीन आचायोंका उल्लेख मिलता है। प्रथम दुर्गदेवका उल्लेख मेघविजयके वर्षप्रबोधमें आया है। इसमें इन्हें षष्ठि-संवत्सरी' नामक ग्रन्यका रचयिता बतलाया है। उद्धरण निन्न प्रकार है
अथ जैनमते दुर्गदेवः स्वकृतष्ठिसंवत्सरग्रन्थे पुनरेवमाह--
ॐ नमः परमात्मानं बन्दिल्या श्रीजिनेश्वरम् ।
केवलज्ञानमास्थाय दुर्गदेवेन भाष्यते ।।
पार्थ उवाच-भगवान दुर्गदेव ! देवानामधिप ! प्रभो !!
'भगवन् कथ्यतां सत्यं संवत्सरफलाफलम् ।।
दुर्गदेव उवाच-शृणु पार्थ! यथावृत्त भविष्यन्ति तथाद्भुतम् ।
दभिक्षं च. सभिक्षं च राजपीडा भयानि च ।।
एतद् योऽत्र न जानाति तस्य जन्म निरर्थकम् ।
तेन सर्व प्रवक्ष्यामि विस्तरेण शुभाशुभम् ॥
भणयं दुग्गदेवण जो जाणइ वियवखणो ।
सो रान्चत्य वि पुजो णिच्छयो नद्धलच्छीय ॥
हितोस गंदेद कानन्वतिके रचगिना है तथा इस नामक एक आचार्यका उद्धरण आरम्भसिद्धि नामक ग्रन्यकी टीकामें श्री हेमहंसगणिने निम्न प्रकार उपस्थित किया है
:-"मुण्डयितारः भाविष्ठायिनो भवन्ति बघूमूढाम्" इति ।
उपयुपत दोनों दुर्गदेवोंपर विचार करनेसे यह ज्ञात होता है कि ये दोनों ज्योतिष विषयके ज्ञाता तो अवश्य हैं पर रिष्टसम्मुचयके कर्ता नहीं हैं। रिष्ट समुच्चयको रचनाशैली बिल्कुल भिन्न है। गुरुपरम्परा भी इस बातको व्यक्त करती है कि आचार्य दुर्गदेव दिगम्बर परम्पराके हैं। जैन साहित्य संशोधकमें प्रकाशित 'बृहट्टिमणिका' नामक प्राचीन जैन ग्रन्थ सूचीमें मरणकण्डिका और मन्त्रमहोदधिके कर्ता दुर्गदेवको दिगम्बर आम्नायका आचार्य माना है। रिष्ट समुच्चयकी प्रशस्तिमे भी ज्ञात होता है कि इनके गुरुका नाम संयमदेव' था । संयमदेव भी संयमसेनके शिष्य थे तथा संयमसेनके गुरुका नाम माधवचन्द्र था । _ 'दिगम्बर जैन ग्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तकमें माधवचन्द्र नाम के दो व्यक्ति आये हैं। एक तो प्रसिद्ध त्रिलोकसार,क्षपणकसार,लब्धिसार आदि अन्धोंके टीकाकार और दुसरे पद्मावती पुरवार जातिके विद्वान् हैं । मेरा अपना विचार है कि संघमसेन प्रसिद्ध माधवचन्द्र विद्यके शिष्य होंगे। क्योंकि इस परम्पराके सभी आचार्य गणित, ज्योतिष आदि लोकोपयोगी विषयोके ज्ञाता हुए हैं । दुर्गदेवने 'रिष्टगमुच्चय' ग्रन्थको रचना लक्ष्मीनिवास राजाके राज्य में कुम्भ नगर नामक पहाड़ी नगरके शान्तिनाथ जिनालयमेंकी है। विशेषज्ञोंका अनुमान
१ जय जए जियमाणो संजमदेवो मुणीसरो इस्य ।
तहवि हु संजमसेणो माहवचन्दो गुरुतब्य ॥
रइयं बहसत्पत्थं उवजीविता हु दुग्गएवंण ।
रिसमुच्चयसत्यं बयणण संजमदेबस्स ॥
---रिष्टसमचाय, गोधाग्रन्थमाला, इन्दौर संस्करण, गाभा-२५४, २५५ ।
२ गिरिक मनयरण (य) र सिरिलच्छिनिवासनिबइरजमि ।
सिरिसतिनाह भपणे मुणि-भावन-सम्मउमे (ले) रम्मे ॥
–रिण्टसमुच्चय, गाथा २६१ ।
है कि यह कुम्भनगर भरतपुरके निकट 'कुम्हर', 'कुम्भेर' अथवा 'कुम्भेरी' नामका प्रसिद्ध स्थान ही है। महामहोपाध्याय स्व० डा. गौरीशंकर होराचन्द जो भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि लक्ष्मीनिवास कोई साधारण सरदार रहा होगा तथा कुम्भनगर भरतपुरक निकटवाला कुम्भेरी, कुम्मेर या कुम्हर ही है, क्योंकि इस ग्रन्थकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें हुई है । अतः यह स्थान शौरसेन देशके निकट ही होना चाहिए ! कुछ लोग कुम्हागर कुम्भलगढ़को मानते हैं, पर उनका यह मानना ठोक नहीं बचता, क्योंकि यह गढ़ तो दुर्गदेव के जीवनके बहुत पीछे बना है।
कुम्भराणा द्वारा विनिर्मित मसिन्दा किलेका कुम्भ-विहार भी यह नहीं हो सकता है, क्योंकि इतिहास द्वारा इसकी पुष्टि नहीं होती है। अतएव रिष्ट समुच्चयका रचगास्थान शरसेन देशके भीतर भरतपुरके निकट वर्तमानका कुम्हर या कुम्मेर है। दुर्गदेवके समय में यह नगर किसी पहाड़ीके निकट बसा हुआ होगा, जहाँ शान्तिनाथ जिनालयों इसकी रचना की गया है । यह नगर उस समय रमणीक और भव्य रहा होगा। किसी बंशावलीमें लक्ष्मीनिवासका नाम नहीं मिलता है। अत: हो सकता है कि वह एक छोटा सरदार जाट या जदन राजपूत रहा हो। यह स्मरणीय है कि भरतपुरमें जाटोंका शासन रहा है जो अपनेको मदनपालका वंशज कहते थे । इतिहास में मदनपालको जदन राजपूत बतलाया गया है । यह टहनपालके, जो ११वीं शताब्दी में बयाना शासक थे, तृतीय पुत्र थे। अत: इससे भी कुम्भनगर भरतपुरके निकटवाला कुम्हर ही सिद्ध होता है।
रिष्टसमुच्चयकी प्रशस्तिमें संयमदेव और दुर्गदेव-इन दोनोंकी विद्वत्ताका वर्णन बाया है। दुर्गदवके गुरु संयमदेव षडदर्शनके ज्ञाता, ज्योतिष, व्याकरण और राजनीति में पूर्ण निष्णात थे। वे वादिरूप मदोन्मत्त हाथियोंके झुण्डको पराजित करने के लिए सिंहके समान थे। ये सिद्धान्तशास्त्रके पारगामी थे और मुनियों में सर्वश्रेष्ठ थे। इन यशस्वी यमदेवके शिष्य दुर्गदेव भी विशुद्ध चरित्र वान् और सकलशास्त्रोंके मर्मज पण्डित थे । लिखा है
संजाओ इहतस्स चारुचरिओ नाणं बुद्धोयं ( धोया ) मई
सीसो देसजई सं ( बि ) बोहणयरो णीसेसबुद्धागमो ।
मामेणं दुग्गएब विदिओ दागीसरायण्णओ
तेणंदं रइयं विसुद्धमणा सत्थं महत्थ फुलं ।'
१. रिष्टसमुच्चय, गापा---२५८ ।
अर्थात् संयमदेवका शिष्य दुर्गदेब विशुद्ध चरित्रवाला, ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षा लित बुद्धिवाला, वाद-विवादमें देश भरके विद्वानोंको पराजित करनेवाला, सब को समझानेवाला एवं सम्पूर्ण शास्त्रोंका विद्वान् हुआ, जिसने अपनी विशुद्ध बुद्धि द्वारा स्पष्ट और महान अर्थबाले इस रिष्टसमुच्चयशास्त्रकी रचना की।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इस पद्यमें आये हुए 'देसजई' का संस्कृत रूपान्तर 'देशयत्ति' मान लिया है और इस मान्यताके आधारपर दुर्गदेवको क्षुल्लक बतलाया है, पर यह भूल है । 'देसजई का संस्कृत रूपान्तर 'देशजयी है और इसका अर्थ शास्त्रार्थ में देश भरके विद्वानोंका जीतनेवाला है। यदि दुर्ग देव क्षुल्लक होते तो उन्हें चारचरित नहीं कहा जा सकता। यह ग्रन्थ भी उन्होंने मुनियों और भव्य श्रावकोंको सम्बोधित करनेके लिए लिखा है । मुनिको मगि ही सम्बोधित कर सकता है, श्रावक या क्षुल्लक नहीं! अतः स्पष्ट है कि इस ग्रन्धके रचयिता आचार्य दुर्गदेव ज्योतिष, शाकुन, मन्त्र आदिके साथ आगम
और सर्कशास्त्रके भी ज्ञाता थे।
दुर्गदेवका स्थिति-काल उनकी रचनाओंसे ज्ञात किया जा सकता है। रिष्ट समुचच्यमें रचनाकालका निर्देश करते हुए लिखा है
संवच्छरइगसहसे बोलीणे णवयसीइ संजुत्ते ।
साधणमुक्तयासि दिअइम्मि (य ) मूलरिक्वभि ॥
अर्थात् संबत् १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्रमें इसकी रचना की है। यहाँ पर संवत् शब्द सामान्य आया है। इसे विक्रम संवत् लिया जाय या शक संवत् यह एक विचारणीय प्रश्न है। ज्योतिषने अनुसार गणना करने पर शक संवत् १०८९ में श्रावण शुक्ला एकादशीको मूल नक्षत्र पड़ता है तथा वि० सं० १०८९. में श्रावण शुक्ला एकादगीको प्रातःकाल सूर्योदयमें ३ घटी अर्थात् एक घंटा १२ मिनट तक ज्येष्ठा नक्षत्र रहता है। पश्चात् मूल नक्षत्र आता है। निष्कर्ष यह है कि शक संवत् माननेपर श्रावण शुक्ला एकादशी को मल नक्षत्र दिन भर रहता है और वि० सं० मानने पर सूर्यादयके एक घंटा बारह मिनट पश्चात् मूल नक्षत्र आता है । अत्तएव कौन-सा संवत् लेना उचित है । सम्भवत: कुछ समालोचक यह तर्क कर सकते हैं कि शक संवत् लेनेसे दिन भर मूल नक्षत्र रहता है। अन्यकर्ताने किसी भी समय इस नक्षत्र में ग्रन्थका निर्माण किया होगा। अतएव शक संवत् लेना ही उचित है।
१. जैन-पन्य-प्रशस्ति-संग्रह प्रथम भाग, पृष्ठ-९४ ।
२. रिष्टसमुच्चय, गाथा संख्या-२६० ।
शक संवत् मानने में तीन दोष आते हैं। पहला दोष तो यह है कि शक संवत् में अमान्त माम गणना ली जाती है और यहाँ पर पूर्णिमान्त मास गणना की गयी है। दूसरा दोप यह है कि उत्तर भारत में वि० सं० का प्रचार था और दक्षिण भारत में शक संवत का । यदि दो शक संचत मानते हैं तो ग्रन्थकार. दक्षिणके निवासी सिद्ध होते हैं, पर बात ऐसी नहीं है। तीसरी बात यह है कि जहाँ-जहाँ शक संवत्का उल्लेख मिलता है, वहाँ संवत्क पूर्व शक विशेषण आता है। सामान्य संवत् शब्द नि सं० के लिए ही प्रयुक्त होता है । 'रिष्टसमुन्वय' की रचना वि० सं० १०८९ श्रावण शुक्ला एकादशी शुक्रवारको सूर्योदयके ? घंटा १२ मिनटके पश्चात् किसी भी समयमें पूर्ण हुई है। ई० सन् के अनुसार गणना करनेपर २१ जुलाई शुक्रवार ई० सन् १०३२ आता है । अत: दुर्गदेव ई० सन् की ११वीं शतीके विद्वान् हैं।
दुर्गदेवकी निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध हैं।
१. रिष्टसमुच्चय ।
२. अर्घकाण्ड ।
३. मरणकाण्डका ।
४. मन्त्रमहोदधि ।
इस ग्रन्थमें २६१ गाथाएँ हैं। आरम्भमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करनेके पश्चात् मनुष्यजीवन और जैनधर्मकी उत्तमताका निरूपण कर विषयका कथन किया गया है। प्राक्कथनके रूपमें अनेक रोगों और उनके भेदोंका वर्णन है। यह १६ गाथाओं तक गया है । विषयमें प्रवेश करनेके परवान् ग्रन्थकारने रिष्टोंके पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीन भेद बतलाये हैं। प्रथम श्रेणी में शारीरिक अरिष्टोंका वर्णन करते हुए वाहा है कि जिसकी आंग्ने स्थिर हो जायें, पुतलियाँ इधर-उधर न चलें, शरीर कान्तिहीन काष्ठवत् हो जाये और ललाट में पीना आवे वह केवल ७ दिन जीवित रहता है। यदि बन्द मुख एकाएक खुल जाये, औलोंकी पलक न गिरें, इकटक दृष्टि हो जाये तथा नख-दाँत सड़ जायें या गिर जायें तो वह व्यक्ति सात दिन तक जीवित रहता है । भोजनके समय जिस व्यक्तिको कड़वे, तीखे, कषायले, खट्टे, मीठे और खारे रसोंका स्वाद न आवे उसकी आयु १ माहकी होती है। बिना किसी कारणके जिसके नख, ओठ काले पड़ जामें, गर्दन झुक जाये, तथा उष्ण बस्तु शीत और शीत वस्तु उष्म प्रतीत हो, सुगन्धित वस्तु दुर्गन्धित और दुर्गन्धित वस्तु सुगन्धित
माणूम. सावितका न माईता है। प्रकृति विपर्यास होना भी शीघ्रमृत्युका सूचक है। जिसका स्नान करनेके अनन्तर वक्षस्थल पहले सूख जाये तथा अवशेष शरीर गौला रहे, वह व्यक्ति केबल पन्द्रह दिन जीवित रहता है । इस प्रकार पिण्डस्थ अरिष्टोंका विवेचन १७ वीं गाथासे लेकर ४० वीं गाथा तक २४ गाथाओम विस्तारपूर्वक किया है।
द्वितीय श्रेणी में पदस्थ अरिष्ट्रों द्वारा मरणसुचक चिह्नोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण कर सुगन्धित द्रव्य तथा आभूषण से अपनेको सजाकर जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करनी चाहिये । पश्चात्-"ओं ह्रीं णमो अरहताणं कमले-कमले विमले-बिमले उदरदेवि इटिमिटि पुलिन्दिनी स्वाहा” इस मन्त्रका २१ बार जाप कर बाह्य वस्तुओंके सम्बन्धोंसे प्रकट होने वाले मृत्युसूचक लक्षणोंका दर्शन करना चाहिये।
उपयुक्त विधिके अनुसार जो व्यक्ति संसारमें एक चन्द्रमाको नाना रूपोंमें तथा छिद्रोंसे परिपूर्ण देखता है उसका मरण एक वर्षके भीतर होता है। यदि हाथकी हथेलीको मोड़नेपर इस प्रकारसे सट सके जिससे चुल्लू बन जाये और एक बार ऐसा करने में देर लगे, तो सात दिनकी आयु समझनी चाहिये । जो व्यक्ति सूर्य, चन्द्र एवं ताराओंकी कान्तिको मलिनस्वरूपमें परिवर्तन करते हुए एवं नाना प्रकारमे छिद्रपूर्ण देखता है, उसका मरण छह मासके भीतर होता है। यदि सात दिनों तक सूर्य, चन्द्र एवं साराओंके बिम्बोंको नाचता हुआ देखे, तो निःसन्देह उसका जीवन तीन मासका समझना चाहिये । इस तरह दीपक, चन्द्रनिम्ब, सूर्यबिम्ब, तारिका, सन्ध्याकालीन रक्तवर्ण धूम धूसित दिशाएँ, मेघाच्छन्न आकाश एवं उल्काएँ आदिके दर्शन द्वारा आयुका निश्चय किया जाता है। इस प्रकार ४१वीं गाथा तक २७ गाथाओंमें पदस्थ रिष्टोका वर्णन आया है।
तृतीय श्रेणी में निजच्छाया, परच्छाया और छायापुरुष द्वारा मृत्युसूचक लक्षणोंका बड़े सुन्दर ढंगसे निरूपण किया है । प्रारम्भमें छायादर्शनकी विधि बतलाते हुए लिखा है कि स्नान आदिसे पवित्र होकर- 'ओं ह्रीं रक्ते रक्ते रक्त प्रिये सिंहमस्सकसमारूढे कूष्माण्डी देवि मम शरीरे अवतर-अवतर छायां सत्या कुरु कुरु ह्रीं स्वाहा" इस मन्त्रका जाप कर छायादर्शन करना चाहिये । यदि कोई रोगी व्यक्ति जहाँ खड़ा हो, बहाँ अपनी छाया न देख सके या अपनी छायाको कई रूपोंमें देखे अथवा छायाको बैल, हाथी, कौआ, गदहा, 'मैंसा और घोड़ा आदि नाना रूपोंमें देखें तो उसे अपना ७ दिनके भीतर मरण समझना चाहिये । यदि कोई अपनी छायाको काली, नीली, पीली और लाल देखता है, तो वह
क्रमशः तीन, चार, पांच और छह दिन जीवित रहता है। इस प्रकार अपनी कायाके रंग, आकार, लम्बाई, छंदन-भेदन आदि विभिन्न तरीकोंसे आधुका निश्चय किया गया है।
परछायादर्शनकी विधिका निरूपण करते हुए बताया है कि एक अत्यन्त सुन्दर युवकको जो न लम्बा हो, न नाटा हो, स्नान कराकर सुन्दर बस्त्रोंसे युक्त बर-"ओं ह्रीं रक्ते रवते रक्तप्रिये सिंहमस्तकसभारूढ़े कुष्माण्डी देवि मम शरीरे अवतर-अवत्तर छायां सत्यां कुरु कुरु ह्रीं स्वाहा'' मन्त्रका १०८ बार जाप करना चाहिये, पश्चात् उत्तर दिशाकी ओर मुंह कर उस व्यक्तिको जैठा देना चाहिये, अनन्तर रोगी व्यक्तिको उस युवककी छायाका दर्शन करना चाहिये । यदि रोगी व्यक्ति किसी व्यक्तिको छायाको टेढ़ी, अधोमुखी, पराङ्मुखी और और नीलवर्णका देखता है, तो दो दिन जीवित रहता है । यदि छायाको हंसते, रोते, दौड़ते, बिना नान, बाल, नाक, भुजा, जंघा, कमर, सिर और हाथ-पैरके देखता है, तो छह महीनेके भीतर मत्य होती है। रक्त, ची, तेल, पीब और अग्नि आदि पदार्थों को छाया द्वारा उगलते हुए देखता है, तो एक सप्ताहके भीतर मत्य होती है। इस प्रकार ६५ वौं गाथा सक परछाया द्वारा मरण समय का निर्धारण दिया गया है।
छायापुरुषका कथन करते हुए बतलाया गया है कि मन्त्रसे मन्त्रित व्यक्ति समतल भूमिपर खड़ा होकर गैरोंको समानान्तर कर, हायौंको नीचे लटका कर अभिमान, छल-कपट और विषय बासनासे रहित जो अपनी छायाका दर्शन करता है, वह छायापुरुष कहलाता है। इसका सम्बन्ध नाकके अग्रभागसे, दोनों स्तनोंके मध्यभागसे, गुप्तांगोंसे, पैरके कोनोंसे, ललाटसे और आकाशसे होता है । जो व्यक्ति उस छायापुरुषको बिना सिर, पैरके देखता है, तो जिस रोगी के लिए छायापुरुषका दर्शन किया जा रहा है, वह छह मास जीवित रहता है । यदि कोई छायापुरुष घुटनोंके बिना दिखलायी पड़े, तो २८ महीने और कमर बिना दिखलायी पड़े तो १५ महीने शेष जीवन समझना चाहिये । यदि छाया पुरुष बिना हृदयके दिखलाई पड़े तो ८ महीने, बिना गुप्तांगोंके दिखलाई पड़े, तो दो दिन और बिना कन्धोके दिखलाई पड़े तो जीवन एक दिन शेष समझना चाहिये। इस प्रकार छायापुरुषके दर्शन द्वारा मरणसमयका निर्धा रण १०७वीं गाथा तक किया गया है।
इसके पश्चात् १३०ची गाथा तक स्वप्नदर्शन द्वारा मृत्युके लक्षणोंका कथन किया है । इस प्रकरणके प्रारम्भमें बताया है कि जिस रातको स्वप्न देखना हो, उसके पूर्वके दिन उपवाससहित मौनव्रत धारण करे और उस दिन समस्त
आरम्भका त्याग कर विकथा एवं कषायोंसे रहित होकर-'ओं ही पम्हसवणे स्वाहा' इस मन्त्रका एक हजार बार जाप कर भूमिपर शयन करे । यहाँ स्वप्नों के दो भेद बतलाये हैं --कधित और सहज । मन्त्रजापपूर्वक किसी देवविशेष की आराधनासे जो स्वप्न देखे जाते हैं वे देब कथित और चिन्तारहित स्वस्थ एवं स्थिर मनसे चिना मन्त्रोच्चारणके शरीरमें धातुओंके सम होनेपर जो स्वप्न देखे जाते हैं, वे सहज कहलाते हैं। प्रथम प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल दश वर्षमें, दूसरे प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल पाँच वर्षमें, तीसरं प्रहरमें स्वप्न देखनेसे उसका फल छह महीने में और चौथे प्रहरमें स्वान देखनेसे उसका फल दस दिनमें प्राप्त होता है। ___ जो स्वप्नमें जिनेन्द्र भगबानको प्रतिमाको हाथ, पैर, घुटने, मस्तक, जंघा, कंधा और पेटसे रहित देखता है वह क्रमशः ४ महीने, ३ वर्ष, १ वर्ष, पाँच दिन,
वर्ष, १ मास और ८मास जीवित रहता है । अथवा जिस व्यक्तिके शुभाशुभको ज्ञात करनेके लिए स्वप्नदर्शन किया जा रहा है, वह उपयुक्त समयों तक जीवित रहता है। स्वप्नमें छत्रभंग देखनेसे राजाको मत्यु, परिवारको मृत्यु देखनेसे परिवारका मरण होता है। यदि इनमें अपना नाम होता दले. तो दो महीनेकी आयु शेष समझनी चाहिये । दक्षिण दिशाकी और ऊँट, गदहा और भैसेपर सवार होकर, घी या तेल शरीरमें लगाये हुए जाते देखें तो एक मासकी आयु शंष समझनी चाहिये । यदि काले रंगका व्यक्ति घरमेसे अपनेको बलपूर्वक खींचकर ले जाते हुए स्वप्नमें दिखलायी दे तो एक मासकी आयु शेष समझनी चाहिये । रुधिर, चर्बी, पीच, चर्म और तैलमें स्नान करते हुए या डूबते हुए अपनेको स्वप्न में देखे या स्वप्नमें लाल फूलोको बांधकर ले जाते हुए देखे, तो वह व्यक्ति एक मास जीवित रहता है । इस प्रकार इस प्रकरणमें विस्तारपूर्वक स्वप्नदर्शनका कथन किया गया है। इसके अनन्तर प्रत्यक्षरिष्ट
और लिंगरिष्टोंका कथन करते हुए लिखा है कि जो व्यक्ति दिशाओंको हरे रंगकी देखता है, वह एक सप्ताहले भीतर, जो नीले वर्णकी देखता है वह पांच दिन के भीतर, जो श्वेत वर्णकी वस्तुको पीत और पीत वर्णकी वस्तुको श्वेत देखता है वह तीन दिन जीवित रहता है। जिसकी जीभसे जल न गिरे, जीभ रसका अनुभव न कर सके और जो अकारण अपना हाथ गुप्त स्थानोंपर रखे बह सात दिन जीवित रहता है । इस प्रकरणमें विभिन्न अनुमान और हेतुओं द्वारा मृत्युसमयका प्रतिपादन किया गया है ।
प्रश्न द्वारा रिष्टोंके वर्णनके प्रकरणमें प्रश्नोंके आठ भेद बतलाये है
१. अंगुलि प्रश्न, २. अलक्त प्रवन, ३. गोरोचन प्रश्न, ४. अक्षर प्रश्न,
५. शब्दप्रश्न, ६. प्रश्नाक्षरप्रश्न, ७. लग्नप्रश्न और ८. होराप्रश्न | अंगुलिप्रश्न का कथन करते हुए बताया है कि श्री महावीरस्वामीकी प्रतिमाके सम्मुख उत्तम मालतीके पुष्षों से-'ओ हों अहणमो अरहताणं ह्रीं अबतर-अनतर स्वाहा' इस मन्त्रका १८ बार जाप कर मन्त्र सिद्ध करे । पुनः दाहिने हाथकी तर्जनी को १७० बार मन्त्रसे मन्त्रित कर आँखोंके ऊपर रखकर रोगीको भूमि देखने के लिए कहे। यदि वह सूर्यके विम्बको भूमिपर देखे तो छह मास जीवित रहता है। इस प्रकार अगुलिप्रश्न द्वारा मृत्युसमयको ज्ञात करनेकी विधिके उपरान्त अलक्तप्रश्नकी विधि बतलायो है कि चौरस भूमिको एक वर्णकी गायके गोबर से लीप कर उस स्थानपर “ओं ह्रीं अरह णमो अरहताणं ह्रीं अवतर अबतर स्वाहा इस मन्त्रको १०८ बार जपना चाहिये। फिर कांसके बर्तन में अलक्तको भरकर १०० बार मन्त्रले मन्त्रित कर उक्त पृथ्वीपर उस बर्तनधो रख देना चाहिए । पश्चात् रोगीक हाथोंको दूधसे भोकर दोनों हाथोंपर मन्त्र पढ़ते हुए दिन, मास और वार्षकी कल्पना करनी चाहिये । पुनः १७० बार उक्त मन्त्रको पड़कर अलक्तसे रोगीके हाथोंको घोना चाहिये । इस क्रियाक अनन्तर हाश्रोंक सन्विस्थानमें जितने बिन्दु काले रंगके दिखलायी पड़ें उतने दिन, मास और वर्षकी बायु समझनी चाहिये । लगभग यही विधि गोरोचनप्रश्नकी भी है।
प्रश्नाकारविधिका कथन करते हुए लिखा है कि जिस रोगीक सम्बन्धमें प्रश्न करना हो वह--ओं ह्रीं बद बद वाग्वादिनी सत्यं ह्रीं स्वाहा" इस मन्त्रका जाप कर प्रश्न करे। उत्तर देनेवाला प्रश्नवाक्यके सभी व्यञ्जनोंको दुगुना और मात्राओंको चौगुना कर जोड़ दे । इस योगफलमें स्वरोंको संख्यासे भाग देनेपर सम शेष आये तो रोगीका जोबन और विषम शेष आनेपर रोगीकी मृत्यु समझना चाहिये । अक्षरप्रश्नके वर्णनमें वज, धूम, खर, गज, वृष, सिंह, श्वान और वायस इन आठ आयोंके अक्षर क्रमानुसार आयुका निश्चय करना चाहिये । शब्द प्रश्नमें शब्दोच्चारण, दर्शन आदिके शकुनों द्वारा अरिष्टोंका कथन किया गया है। इस प्रकरणमें शब्दश्नवणके दो भेद बतलाये है—१. देवकथित शब्द आर २. प्राकृतिकशब्द । देवकथित शब्द मन्त्राराक्ना द्वारा सुने जाते है। प्राकृतिक पशु-पक्षी मनुष्य आदिके शब्दश्रवण द्वारा फलका कथन किया जाता है। शब्दप्रश्नका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है।
होराप्रश्न इसका एक महत्त्वपूर्ण अंश है। इसमें मन्त्राराधनाके पश्चात् तीन रेखाएँ खींचनेके अनन्तर आठ तिरछी और खड़ी रेखाएं खींचकर आठ आयोंको रखनेको विधि है तथा इन आयों के वेष द्वारा शुभाशुभ फलका निक पण किया है। शनिचक्र, नरचक्र इत्यादि चकों द्वारा भी मरणसमयका निर्धारण किया गया है । विभिन्न नक्षत्रोंमें रोग उत्पन्न होनेसे कितने दिनों तक बीमारी रहती है और रोगीको कितने दिनों तक कष्ट उठाना पड़ता है आदि का मभन है ! जानन पन्नाली ला मिना कर द्वादश भावों में रहने वाले ग्रहोके सम्बन्धसे फलका प्रतिपादन किया है। इस ग्रन्धमें गोमूत्र, गोदुग्ध आदिका भी विधान आया है, पर यह लौकिक दृष्टिसे है। धर्मके साथ इसका कोई सम्बन्ध नहीं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि दुर्गदेवने अद्भुतसागर, चरक, सुश्रुत, पुराण आदि ग्रन्थोंसे अनेक विषय ग्रहण कर ज्याने त्यों निबद्ध कर दिये हैं । अतः इन लोकिक विषयोंका जैनधर्मसे कोई सम्बन्ध नहीं है।
इस ग्रंथमें १४६ गाथाएँ हैं, जो 'रिष्टसमुच्चय'को १६२ गाथाओंसे मिलती हैं। रिष्टसमुच्चयमें १६३से आगे और बढ़ाकर २६१ गाथाएँ कर दी गयी हैं। 'मरणकण्डिका की भाषा शौरसेनी प्राकृत है। कुछ विद्वानोंका अनुमान है कि 'मरणकण्डिका' का निर्माण किसी अन्य व्यक्तिने किया है, दुर्गदेवाचायने इस ग्रंथका विस्तार कर 'रिष्टसमुच्चय की रचना की है। पर मेरा मन है कि यह रचना भी दुर्गदेवकी है, यतः कोई अन्धकार भावको तो ग्रहण कर सकता है पर अन्यके पद्योंको यथावत् नहीं ग्रहण करता। अतएव दुर्गदेवने पहले मरणकण्डिका की रचना की होगी, किन्तु बादको उसे संक्षिप्त जानकर उसीमें वृद्धिकर एक नवीन ग्रन्ध रच दिया होगा तथा पहले लिखे गये ग्रन्थको ज्योंकात्यों छोड़ दिया होगा।
इसमें १४९, गाथाएँ और दस अध्याय हैं। इसकी रचना शौरसेनी प्राकृतमें है। यह तेजी-मन्दी ज्ञात करनेका अपूर्व ग्रन्थ है। ग्रह और नक्षत्रोंकी विभिन्न परिस्थितियोंके अनुसार खाद्यपदार्थ, सोना, चाँदी, लोहा, ताम्बा, हीरा, मोती, पशु एवं अन्य धन-धान्यादि पदार्थों की घटती-बढ़ती कीमतोंका प्रतिपादन किया है, सुकाल और दुष्कालका कथन भी संक्षेपमें किया है। ज्योतिष चन्द्र के गणनानुसार वृष्टि, अतिवृष्टि और वृष्टि अभावका कथन आया है। साठ संवत्सरोंके फलाफल तथा किस संवत्सरमें किस प्रकारको वर्षा और धान्यकी उत्पत्ति होती है, इसका संक्षेपमें सुन्दर वर्णन आया है। अन्य छोटा होनेपर भी उपयोगी है। इसमें प्रत्येक वस्तुकी तेजी-मन्दी ग्रहोंको चाल परसे निकाली गयी है। संहितासम्बन्धी कतिपय बातें भी इसमें संकलित हैं। अहाचार प्रक रणमें गुरु और शुक्रको गतिके अनुसार देश और समाजकी परिस्थितिका ज्ञान
कराया गया है। शनि और मंगलके निमित्तपरसे लोहा और ताँबेकी घटा. बढ़ीका कथन किया गया है।
यह मन्त्रशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ है । इसकी भाषा प्राकृत है। "ण्टिसमुज्नय' में आये हुए मन्त्रोंसे पता चलता है कि ये आचार्य मन्त्रशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे । मन्त्रों में वैदिकधर्म और जैनधर्म,इन दोनोंकी कतिपय बातें आयी हैं, जिससे अवगत होता है कि मन्त्रशास्त्रमें सम्प्रदाय विभिन्नता नहीं ली जाती थी। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वैदिकधर्मके प्रभावके कारण ही जैनधर्म में इस विषयका समावेश किया गया होगा। क्योंकि आठवीं शती में जनधर्मको नास्तिक कहकर विधर्मी श्रद्धालुओंकी श्रद्धाको दुर कर रहे थे। अत: जैनाचार्य और भट्टारकोंने वैदिकधर्मकी देखा-देवी मन्त्र-तन्त्रवादको जनधर्ममें स्थान दिया।
ग्रंथकर्ताके जीतनकी लाप ग्रन्थमें रहती है. इस नियमके अनुसार यह स्पष्ट है कि आचार्य दुर्गदेब एक अच्छे मान्त्रिक थे। मन्त्रमहोदधि मन्त्रशास्त्रका महत्वपूर्ण ग्रन्थ है।
गुरु | आचार्य श्री संयमदेव |
शिष्य | आचार्य श्री दुर्गदेव |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Durgdevacharya 11 Th Century
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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