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#GandharkirtijiPrachin
आचार्य गणधरकीत्ति अध्यात्मविषयके विद्वान हैं । ये दर्शन व्याकरण और साहित्यके पारंगत विद्वान थे। गद्य और पद्म लिखनेकी क्षमता इनमें विद्यमान थी। अध्यात्मतरंगिणीके टीकाकारके रूपमें मणधरकोतिको ख्याति है। ये गुजरात प्रदेशक निवासी थे । इन्होन अपना यह टीका सोमदेव नामके किसी व्यकिके अनुरोबसे रची है । गणधरकौलिने अध्यात्मतरंगिणो-टीकाको प्रश स्तिमें अपनी गुरुपरम्परा निबद्ध की है। साथ ही गुजरातकी प्रशंसा भी
की है
स्फूर्जबोधगणेभवतिपत्तिचियम: संयमी,
जजे जन्मवतां सुपोतममलं यो जन्मयादो विभोः ।
जम्यो यो विजयो मनोजनपतेजिष्णोजगज्जन्मिनाम्,
श्रीमत्सागरनंदिनामविदितः सिद्धान्तवाविधुः ।।
स्थाद्वादसात्मकत्तपोवनिताललामो भन्यातिसस्पपरिबर्द्धननीरदामः । कामोरुभूम्हविकर्तनसंकुठारस्तस्माद्विलोभइननोऽजनि स्वर्णनन्दी ।
तस्माद् गौतममार्गगो गुणगणे गम्यो गुणिमामणी
गीतार्थो गुरुसंगनागगरुडो गीर्वाणगीर्गोचरः ।
गुसिग्रामसमग्रतापरिगतः प्रोग्रग्रहोद्गारको,
ग्रन्थमथिविभेदको गुरुगमः श्रीपद्मनन्दी मुनिः ।।
आचार्योचित्तचातुरोचयचितश्चारित्रचञ्चुः शुचि
श्चावसिंचयचित्रचित्ररचनासंचेतनेनोच्चकैः ।
चित्तानन्दचमत्कृतिप्रविचरन्प्रांचत्प्रचेतीमत्ता,
प्राभूच्चारुविचारणकनिपुणः श्रीपुष्पदन्तस्ततः ।।
समभवदिह चातश्चन्द्रवत्कायकान्तिस्तदनुविहितबोधो भव्यसत्केरवाणाम् ।
मुनिकुवलययचन्द्रः कौशिकानन्दकारी, निहिततिमिरराशिश्चारुचारित्ररोचिः।।
१. अध्यात्मतरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पच ८-१२ ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इनकी गुरु-परम्परामें सागरनन्दि, स्वर्णनन्दि, पानन्दि, पुष्पदन्त, कुवलयचन्द्र और गणधरकीतिके नाम आये हैं।
आचार्य सोमदेवने अध्यात्मतरंगिणी ग्रन्थको रचना की है। इसी ग्रन्थपर गणधरकीतिने टीका लिखी है। सोमदेवका समय वि सं १०१६ है। अत: यह टीका उसके बाद ही लिखी गयी होगी। टीका गुजरातके चालुक्यवंशी राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह राज्यकाल में समास को गयो है। टीकाके लिखे जानेका समय भी अंकित है
संवत्सरे शुभे योगे पुज्यनक्षत्रसंज्ञके ।
चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रखी दिने ।
सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभृत्कोतिविपश्चितः ।
निस्त्रिंशतजितारातिविजयश्रीविराजनि।
जयसिंहदेवसौ राज्ये सज्जनानन्ददायिनि ।'
अर्थात् वि० सं० ११८९ चैत्र शुक्ला पंचमी, रविवार पुष्य नक्षत्र में इस टीकाकी रचना की गयी है।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इसकी दो पाण्डुलिपियोंको चर्चा को है। एक पाण्डुलिपि ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वतो भवन झालरापाटनमें है। यह प्रति संवत् १५३३ आश्विन शुक्ला द्वितीयाके दिन 'हिसार' में लिखी गयी है। यह प्रति सुनामपुरके वासी खडेलवालवंशी संघाधिपति श्रावक कल्हके चार पुत्रों में से प्रथम पुत्र धोराकी पत्नो धनश्रीके द्वारा अपने सानावरणीय कर्मक क्षयार्थ लिखाकर तात्कालिक भद्रारक जिनचन्द्रके शिष्य पण्डित मेधा नीको प्रदान की गयी है । दूसरी प्रति पाटनके स्वताम्बरी शास्त्रभण्डारमें है। ___ गणधरकीतिने अपनी इस टीकामें पद्यगत वाक्यों एवं शब्दोंके अर्थके साथ साथ कहींकहीं उसके विषधको भी स्पष्ट किया है। विषय स्पष्टीकरणमें कुन्द कुन्द, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, जिनसेन आदि आचार्यों के प्रन्योंका अनुसरण एवं उल्लेख किया गया है। विषय स्पष्टीकरणको दृष्टिसे यह टीका महत्त्वपूर्ण है । टोकाका गद्य प्राढ़, समस्यन्त और सानुप्रास है। भाषा और साहित्यकी दृष्टिसे भी टोका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यथा-- ___ "निखिलसुरासुरसेवावसरमायातसुरसम्बोधनावधारितधर्मावसरणाणं! अम रोगनरेन्द्र श्रीकल्पानोकहारामोल्लासामृताम्भोवरायमाण[f] महापरम
१. अध्यात्मतरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पघ १७-१९ ।
पंचकल्याणकोकनदकाननोत्पत्तिसार[२]भवाम्भोधिसमुत्तरणकसे तुबन्धं सम्यक्त्व रत्नं गीणिगणान]नुग्राह्यता, अष्टादशसागरोपमकोटीकोटी या यावलष्टस्वा
यादमत्यागादिस्वभावस्य धर्मस्य भरते धर्मकर्माणि प्रवर्तयन् ति] भगवानिति जासाकूतपरिणाका समाधिविभबिष्यदामनमत्यु वैराग्य योग्या गा] यनीलयसा प्रहितां गीणिश्वरेण, तां च शृङ्गारादिरसाभिनयदक्षा हाव-भावविभ्रमविलासवती शान्तरसानन्तरसेव नश्वरस्वभावां विभात्यात्मनोऽ नश्वरस्वभावतां चिकी रारिदेव इत्यं योगमुद्रामुन्मुद्रितवानित्याह ।"
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री गणधरकिर्ती जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#GandharkirtijiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री गणधरकीर्तिजी (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 06-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य गणधरकीत्ति अध्यात्मविषयके विद्वान हैं । ये दर्शन व्याकरण और साहित्यके पारंगत विद्वान थे। गद्य और पद्म लिखनेकी क्षमता इनमें विद्यमान थी। अध्यात्मतरंगिणीके टीकाकारके रूपमें मणधरकोतिको ख्याति है। ये गुजरात प्रदेशक निवासी थे । इन्होन अपना यह टीका सोमदेव नामके किसी व्यकिके अनुरोबसे रची है । गणधरकौलिने अध्यात्मतरंगिणो-टीकाको प्रश स्तिमें अपनी गुरुपरम्परा निबद्ध की है। साथ ही गुजरातकी प्रशंसा भी
की है
स्फूर्जबोधगणेभवतिपत्तिचियम: संयमी,
जजे जन्मवतां सुपोतममलं यो जन्मयादो विभोः ।
जम्यो यो विजयो मनोजनपतेजिष्णोजगज्जन्मिनाम्,
श्रीमत्सागरनंदिनामविदितः सिद्धान्तवाविधुः ।।
स्थाद्वादसात्मकत्तपोवनिताललामो भन्यातिसस्पपरिबर्द्धननीरदामः । कामोरुभूम्हविकर्तनसंकुठारस्तस्माद्विलोभइननोऽजनि स्वर्णनन्दी ।
तस्माद् गौतममार्गगो गुणगणे गम्यो गुणिमामणी
गीतार्थो गुरुसंगनागगरुडो गीर्वाणगीर्गोचरः ।
गुसिग्रामसमग्रतापरिगतः प्रोग्रग्रहोद्गारको,
ग्रन्थमथिविभेदको गुरुगमः श्रीपद्मनन्दी मुनिः ।।
आचार्योचित्तचातुरोचयचितश्चारित्रचञ्चुः शुचि
श्चावसिंचयचित्रचित्ररचनासंचेतनेनोच्चकैः ।
चित्तानन्दचमत्कृतिप्रविचरन्प्रांचत्प्रचेतीमत्ता,
प्राभूच्चारुविचारणकनिपुणः श्रीपुष्पदन्तस्ततः ।।
समभवदिह चातश्चन्द्रवत्कायकान्तिस्तदनुविहितबोधो भव्यसत्केरवाणाम् ।
मुनिकुवलययचन्द्रः कौशिकानन्दकारी, निहिततिमिरराशिश्चारुचारित्ररोचिः।।
१. अध्यात्मतरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पच ८-१२ ।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि इनकी गुरु-परम्परामें सागरनन्दि, स्वर्णनन्दि, पानन्दि, पुष्पदन्त, कुवलयचन्द्र और गणधरकीतिके नाम आये हैं।
आचार्य सोमदेवने अध्यात्मतरंगिणी ग्रन्थको रचना की है। इसी ग्रन्थपर गणधरकीतिने टीका लिखी है। सोमदेवका समय वि सं १०१६ है। अत: यह टीका उसके बाद ही लिखी गयी होगी। टीका गुजरातके चालुक्यवंशी राजा जयसिंह या सिद्धराज जयसिंह राज्यकाल में समास को गयो है। टीकाके लिखे जानेका समय भी अंकित है
संवत्सरे शुभे योगे पुज्यनक्षत्रसंज्ञके ।
चैत्रमासे सिते पक्षेऽथ पंचम्यां रखी दिने ।
सिद्धा सिद्धिप्रदा टीका गणभृत्कोतिविपश्चितः ।
निस्त्रिंशतजितारातिविजयश्रीविराजनि।
जयसिंहदेवसौ राज्ये सज्जनानन्ददायिनि ।'
अर्थात् वि० सं० ११८९ चैत्र शुक्ला पंचमी, रविवार पुष्य नक्षत्र में इस टीकाकी रचना की गयी है।
श्री पं० परमानन्दजी शास्त्रीने इसकी दो पाण्डुलिपियोंको चर्चा को है। एक पाण्डुलिपि ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वतो भवन झालरापाटनमें है। यह प्रति संवत् १५३३ आश्विन शुक्ला द्वितीयाके दिन 'हिसार' में लिखी गयी है। यह प्रति सुनामपुरके वासी खडेलवालवंशी संघाधिपति श्रावक कल्हके चार पुत्रों में से प्रथम पुत्र धोराकी पत्नो धनश्रीके द्वारा अपने सानावरणीय कर्मक क्षयार्थ लिखाकर तात्कालिक भद्रारक जिनचन्द्रके शिष्य पण्डित मेधा नीको प्रदान की गयी है । दूसरी प्रति पाटनके स्वताम्बरी शास्त्रभण्डारमें है। ___ गणधरकीतिने अपनी इस टीकामें पद्यगत वाक्यों एवं शब्दोंके अर्थके साथ साथ कहींकहीं उसके विषधको भी स्पष्ट किया है। विषय स्पष्टीकरणमें कुन्द कुन्द, समन्तभद्र, अकलंक, विद्यानन्द, जिनसेन आदि आचार्यों के प्रन्योंका अनुसरण एवं उल्लेख किया गया है। विषय स्पष्टीकरणको दृष्टिसे यह टीका महत्त्वपूर्ण है । टोकाका गद्य प्राढ़, समस्यन्त और सानुप्रास है। भाषा और साहित्यकी दृष्टिसे भी टोका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है । यथा-- ___ "निखिलसुरासुरसेवावसरमायातसुरसम्बोधनावधारितधर्मावसरणाणं! अम रोगनरेन्द्र श्रीकल्पानोकहारामोल्लासामृताम्भोवरायमाण[f] महापरम
१. अध्यात्मतरंगिणी टोका, अन्तिम प्रशस्ति, पघ १७-१९ ।
पंचकल्याणकोकनदकाननोत्पत्तिसार[२]भवाम्भोधिसमुत्तरणकसे तुबन्धं सम्यक्त्व रत्नं गीणिगणान]नुग्राह्यता, अष्टादशसागरोपमकोटीकोटी या यावलष्टस्वा
यादमत्यागादिस्वभावस्य धर्मस्य भरते धर्मकर्माणि प्रवर्तयन् ति] भगवानिति जासाकूतपरिणाका समाधिविभबिष्यदामनमत्यु वैराग्य योग्या गा] यनीलयसा प्रहितां गीणिश्वरेण, तां च शृङ्गारादिरसाभिनयदक्षा हाव-भावविभ्रमविलासवती शान्तरसानन्तरसेव नश्वरस्वभावां विभात्यात्मनोऽ नश्वरस्वभावतां चिकी रारिदेव इत्यं योगमुद्रामुन्मुद्रितवानित्याह ।"
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री गणधरकिर्ती जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Gandharkirtiji ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 06-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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