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#GangadasPrachin
धर्मचन्द्र विशालकीर्तिके पट्टशिष्य थे। बलात्कारगण कारचा शास्त्रामें
२. दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, प्रशस्तिभाग-प्रशस्ति संग्रह आरा, १० १४३ ।
धर्मचन्द्र नामके चार विद्वान् हुए हैं। एक देबेन्द्रकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र हैं। द्वितीय कुमुदचन्द्र के शिष्य धर्मचन्द्र हैं, तृतीय बिशालकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र है
और चतुर्थ देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र हैं । विशालकीति के पट्टशिष्य धर्मचन्द्र ने शक संवत् १६०७ फाल्गुन कृष्णा दशमीको चौबीसी मुलिको स्थापना की। इन्होंने शक संवत् १६१२ ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमोको पद्मावतीकी मूर्ति स्थापित की है । धर्मचन्द्र के शिष्य गंगादासने वि० सं० १७४३ श्नावण शुक्ला सप्तमीको श्रुत स्कन्ध कथाकी प्रतिलिखी हैं या द्वामि गंगादार, विशालकीर्ति के पशिष्य धर्मचन्द्र के शिष्य हैं। इनकी पण्डित उपाधि थी। इससे यह ज्ञात होता है कि इन्हें भट्टारका पट्ट प्राप्त नहीं हुआ था। श्रुतस्कन्धकथाकी प्रशस्तिमें लिखा है
__ "सं० १७४३ बर्षे थावण सुद्धि ७ शुक्र भ० श्री६ धर्मचन्द्रः तस्य पंडित गंगादास लिखितं । श्रीकार्यरंजकनगरे श्रीचंद्रप्रभचैत्यालय।"
गंगादासने श्रुतस्कन्धकथाके अतिरिक्त शक संवत् १६१२ पौष शुक्ला त्रयोदशीको पार्श्वनाथभवान्तरको रचना तथा शक संवत् १६१५ की अषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको आदित्यनारकथाकी रचना की है। इनके अतिरिक्त सम्मेदा चलपूजा, नेपक्रियाविनती, जटामुकुट और क्षेत्रपालपूजा भी इन्होंने लिखी हैं। क्षेत्रपालपूजा और सम्मेदाचलपूजा संस्कृतभागामें लिखी गयी है और इनकी रचनाकी प्रेरणा संघपति मेधा और शोभाके द्वारा प्राप्त हुई है।
गुरु | आचार्य श्री धर्मचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री गंगादास |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#GangadasPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री गंगादास (प्राचीन)
आचार्य श्री धर्मचन्द्र Aacharya Shri Dharmachandra
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 13-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 13-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धर्मचन्द्र विशालकीर्तिके पट्टशिष्य थे। बलात्कारगण कारचा शास्त्रामें
२. दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, प्रशस्तिभाग-प्रशस्ति संग्रह आरा, १० १४३ ।
धर्मचन्द्र नामके चार विद्वान् हुए हैं। एक देबेन्द्रकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र हैं। द्वितीय कुमुदचन्द्र के शिष्य धर्मचन्द्र हैं, तृतीय बिशालकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र है
और चतुर्थ देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य धर्मचन्द्र हैं । विशालकीति के पट्टशिष्य धर्मचन्द्र ने शक संवत् १६०७ फाल्गुन कृष्णा दशमीको चौबीसी मुलिको स्थापना की। इन्होंने शक संवत् १६१२ ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमोको पद्मावतीकी मूर्ति स्थापित की है । धर्मचन्द्र के शिष्य गंगादासने वि० सं० १७४३ श्नावण शुक्ला सप्तमीको श्रुत स्कन्ध कथाकी प्रतिलिखी हैं या द्वामि गंगादार, विशालकीर्ति के पशिष्य धर्मचन्द्र के शिष्य हैं। इनकी पण्डित उपाधि थी। इससे यह ज्ञात होता है कि इन्हें भट्टारका पट्ट प्राप्त नहीं हुआ था। श्रुतस्कन्धकथाकी प्रशस्तिमें लिखा है
__ "सं० १७४३ बर्षे थावण सुद्धि ७ शुक्र भ० श्री६ धर्मचन्द्रः तस्य पंडित गंगादास लिखितं । श्रीकार्यरंजकनगरे श्रीचंद्रप्रभचैत्यालय।"
गंगादासने श्रुतस्कन्धकथाके अतिरिक्त शक संवत् १६१२ पौष शुक्ला त्रयोदशीको पार्श्वनाथभवान्तरको रचना तथा शक संवत् १६१५ की अषाढ़ शुक्ला द्वितीयाको आदित्यनारकथाकी रचना की है। इनके अतिरिक्त सम्मेदा चलपूजा, नेपक्रियाविनती, जटामुकुट और क्षेत्रपालपूजा भी इन्होंने लिखी हैं। क्षेत्रपालपूजा और सम्मेदाचलपूजा संस्कृतभागामें लिखी गयी है और इनकी रचनाकी प्रेरणा संघपति मेधा और शोभाके द्वारा प्राप्त हुई है।
गुरु | आचार्य श्री धर्मचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री गंगादास |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Gangadas (Prachin)
आचार्य श्री धर्मचन्द्र Aacharya Shri Dharmachandra
आचार्य श्री धर्मचन्द्र Aacharya Shri Dharmachandra
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 13-June- 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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