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#Gyanbhushan18ThCentury
ज्ञानभूषण नामके चार आचार्योंका उल्लेख प्राप्त होता है। प्रथम ज्ञानभूषण भट्टारक समालकीतिकी परम्परामें भट्टारक भुवनकोतिके शिष्य हुए हैं । द्वितीय ज्ञानभूषण सूरत-शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकोतिको परम्परामें भट्टारक वीरचन्द्रके शिष्यके रूपमें हुए हैं। इनके भट्टारक होनेका समय सं०१६०० १६१६ है । तृतीय ज्ञान भूषणका सम्बन्ध अटेर-शाखाके साथ रहा है और इनका समय १७ वीं शताब्दी माना जाता है । चौथे ज्ञानभूषण नागौरके भट्टारक रत्नकोतिके शिष्य थे । इनका समय १८ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण है। _ विवेचनीय ज्ञानभूषण प्रारम्भमें भयारक विमलेन्द्रकीतिके शिष्य थे। किन्तु उत्तरकालमें इन्होंने भुबनकीतिको अपना गुरु स्वीकार किया है । ज्ञान भूषण एवं ज्ञानकीति ये दोनों ही सगे भाई एवं गुरुमाई थे। ये गोलालारे जातिके श्रावक थे। वि० सं० १५३५ में सागवाड़ा एवं नोगाममें एक साथ एक ही दिन आयोजित होने के कारण दो भट्टारक-परम्पराएं स्थापित हुई। सागवाड़ामें होनेवाली प्रतिष्ठाके संचालक भट्टारक ज्ञानभूषण थे और नोगाम के प्रतिष्ठा महोत्सबके संचालक ज्ञानकीति थे। यहीसे ज्ञानभूषण बड़साजनोंके गुरु और ज्ञानकी ति लोहड़साजनोंके गुरु कहलाने लगे। ____ नन्दिसघको पट्टालिसे ज्ञात होता है कि ज्ञानभूषण गुजरात के रहनेवाले थे। गुजरातमें इन्होंने सागारधर्म धारण किया, अहोर (आभीर) देशमें १? प्रतिमाएँ धारण की और वागवट या बागड़देशमें दुर्धर महावत ग्रहण किये। तौलवदेशके यत्तियों में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई । तैलंगदेशके उत्तम-उत्तम पुरुषोंने इनके चरणोंकी वन्दना को । द्रविड़ देशके विद्वानोंने खनका स्तवन
१. राजस्थान के जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पृ० ४९ ।
किया, महाराष्ट्र में उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्रके धनी धावकोंने उनके लिए महामहोत्सब किया, रायदेश (ईडरके आस-पासका प्रान्त के निवासियों ने उनके वचनोंको अतिशय प्रमाला , मेहपाट मात) मामी लोगोंको जन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवे के भव्यजनों के हृदयकमलको विकसित किया, मेवातमें उनके अध्यात्मरहस्यपूर्ण व्याख्यानसे विविध विद्वान श्रावक प्रसन्न हुए, कुरु जालके लोगोंका अज्ञानरोग दूर किया, तूरबके षड्दर्शन और तर्कके जानने वालोंपर विजय प्राप्त किया, वैराट (जयपुरके आस-पास के लोगोंको उभयमार्ग (सागार-अनगार) दिखलाये, नमियाळ (निमाड़) में जिनधर्म की प्रभावना की, दंगराट हड़ी-बटी नागट चार्ल (2) आदि जनपदोंमें प्रतिबोधके निमित्त विहार किया, भैरव राजाने उनकी भक्ति की, इन्द्र राजाने चरण पूजे, मजाधिराज देवराजने चरणोंकी आराधना की, जिनधर्मके आराधक मदिलियार, रामनाथ राय, धोम्मरसराय, कलपराय, पाण्डुराय आदि राजाओंने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा को । ब्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य-तर्क-आगम-अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोंपर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध ध्याना मृतपानकी उन्हें लालसा' थी"।।
नन्दिसंघकी पट्टावलीमें जो यह प्रशस्ति दी गयी है वह आंतशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ती है, पर इसमें सन्देह नहीं कि भट्टारक ज्ञानभूषण मेधाबी और प्रभावशाली थे।
इनके व्यक्तित्व के सम्बन्धमें शुभचन्द्र-पट्टालिसे पूरा प्रकाश प्राप्त होता है। इस पट्टापलिके नवम अनुच्छेदमें बताया है कि इन्होंने अनेक जनपदों में बिहार कर प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । लिखा है
___ "इनके (भुवनकौतिके) पटरूपी उदयाचलके लिए सूर्य के समान, गुर्जर देशमें सर्वप्रथम सागारधर्मके प्रचारक, अहीर-आभीर देश में स्वीकृत एकादश प्रतिमासे पवित्र शरीरवाले, वाग्बर देशमें अंगीकृत दुर्द्धर महावतके भारको धारण करनेवाले, कर्णाटक देशमें ऊंचे-रचे चैत्यालयोंके दर्शनसे महापुण्यको उपार्जित करनेवाले, तौलव देशके महावादीश्वर विद्वज्जनों और चक्रवत्तियोंमें प्रतिमा प्राप्त करनेवाले, तैलंग देशके सज्जनोंसे पुजित चरणकमलवाले, द्रविड सके विजोंस स्तुति किये जानेवाले, महाराष्ट्र दशमें उमजबल यशका विस्तार करनेवाले, सौराष्ट्र देशके उत्तम उपासकोंसे महोत्सब मनाये जानेवाले, सम्य ग्दर्शनसे युक्त शयदेशके निवासी प्राणिसमूहसे प्रमाणीकृत वाक्यवाले, मेदपाट
१. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, सन् १६४२, पृ
५२१-३-।
देशके अनेक अनजनोंको उद्बोधित करनेवाले, मालव देशके भव्योंके हृदय कमलको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान, मेवात देशके अन्यान्य विज्ञ उपासकोंको अपने आध्यत्मिक व्याख्यानोंसे रजित करनेवाले, कुरुजांगल देशके प्राणियोंले आज संगको हटाने के लिए तद्वैद्यके समान, तुरब देशमें षड्दर्शन न्याय आदिके अध्ययनसे उत्पन्न अखवं गर्वको दबाकर विजय प्राप्त करनेवाले, विराट् देशमें उभय मार्गको प्रदर्शित करनेवाले, नमियाई देशमें जिनधर्मकी अत्यन्त प्रभावना और नव हजार उपदेशकोंको नियत करनेवाले, टंग, राट, हड़ी, वटो, नाग और चाल आदि अनेक जनपदों में ज्ञानप्रचारक लिा विहार करनेवालं श्रीमलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके दिल्ली सिंहासनके अधि पति, अपने प्रतापसे दिङमण्डलका आक्रमण करनेवाले, अष्टांगयुक्त सम्यक्त्व आदि अनेक गुणगणसे अलंकृत और श्रीमान् इन्द्रादि भूपालोंसे पूजित चरण कमलवाले, गजान्तलक्ष्मी, ध्वजान्तपुण्य, नाटधान्तभोग, समुद्रान्तभूमिभागके रक्षक, सामन्तोंके मस्तकसे घृष्ट चरणवाले श्री देवरायसे पूजितपादपश्नवाले, जिनधर्मके आराधक मुदितपाल राय, रामनाथराय, बोम्मसराय, कल्पराय, पापड राय आदि अनेक राजाओंसे चचित चरणयुगलबाले, अनेक तीर्थयात्राओंको सम्पन्न करनेवाले, मोक्षलक्ष्मीको वशीभूत करनेवाले, रत्नत्रयसे सुशोभित शरीर बाले, व्याकरण, छन्द, अलंकार, साहित्य, न्याय और अध्यात्मप्रमुख शास्त्ररूपी मानसरोवरके राजहंस, शुद्धध्यानरूपी अमृतपानको लालसा करनेवाले और वसुन्धराके आचार्य श्रीमद्भट्टारकावर्य श्रीज्ञानभूषण हुए' ।"
आचार्य ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकीतिके पश्चात् सागवाड़ाके पट्टपर आसीन हुए । इनका प्राचीन उल्लेख निम्नलिखित भूतिलेखमें पाया जाता है
"संवत् १५३१ वर्षे वैसाख वदो ५ बुधे श्रीमूलसंधे भ० श्रीसकल कोसि स्तत्पट्टे भा भवनकोत्तिदेवास्ततपट्टे भ० श्रीज्ञानभूषणदेवस्तदुपदेशात् मेघा भार्या टीगू प्रणमति श्री गिरिपुरे रावल श्री सोमदास राशी गुराई सुराज्ये" अर्थात् वि० सं०१५३१ वैशाख कृष्णा द्वितीयामें इनके सान्निध्य में यह प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है। श्री जोहरापुरकरने ज्ञानभूषणका भट्टारक-काल १५३४ माना है, पर यह समय युक्तिसंगत प्रसीत नहीं होता। डॉ० प्रेमसागरने अपने हिन्दी जैनक्ति काव्य और कवि'में इनका समय वि० सं०१५३२-१५५७ माना
१. शुभचन्द्र पाल, अनुच्छेद १।।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० १५८ ।
३. हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि, भारतीय जानपीठ, पृ० ७३ ।
है, पर डूंगरपुरबाले अभिलेखसे ज्ञात होता है कि मानभूषण वि० सं० १५३१ या इसके पहले ही भट्टारक गद्दीपर आसीन हुए थे। इन्होंने वि० सं० १५६० में 'तत्त्वज्ञानतरंगिणी की रचना की है, जिसकी पुष्पिकामें इनके नामके पूर्व 'मुमुक्षु' शब्द जुड़ा हुआ मिलता है। इससे यह ध्वनित होता है कि विक सं १५६० या उसके दो-एक वर्ष पूर्व ही ने भट्दा एक पद छोड़ रहे । अन्य अभिलेखोंसे यह ज्ञात होता है कि वि सं० १५५७ तक ये निश्चितरूपसे भट्टारक पदपर आसीन रहे हैं। इसके पश्चात् ये अपने शिष्य विजयकोति को भट्टारक पदप र प्रतिष्ठित कर स्वयं साहित्यसाधना में प्रवृत्त हुए हैं।
भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित होते ही शानभूषण के कार्यकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई हैं। इन्होंने १५३१में डूगरपुरमें सहस्रकूट प्रतिष्ठा का संचालन किया । १५३४ फाल्गुन शुक्ला दशमोमें आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सबके समय प्रतिष्ठित की गयी मतियां अनेक स्थानोंपर आज भी प्राप्त होती है। वि० सं० १५५३५में इन्होंने दो प्रतिष्ठाओंमें भाग लिया था। एक प्रतिष्ठाका निर्देश जयपुरके छाबड़ोंके मन्दिर में और दूसरोका उल्लेख उदयपुरके मन्दिरमें मिलता है। वि० सं० १५४० में हूंवड़ जाति श्रावक लाखा एवं उसके परिवारने इन्हींके आदेशसे आदिनाथस्वामीकी प्रतिष्ठा करायी थी। इनके तत्वावधान में वि० सं० १५४३, १५४४ एवं १५४५में विविध प्रतिष्ठा-महोत्सव सम्पन्न हुए थे। वि० सं०१५५२में एक बृहद आयोजन हुआ, जिसमें भट्टारक शानभूषण सम्मिलित हुए थे। वि० सं० १५५७ तक सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाओं में इनके सम्मिलित होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। वि सं १५६० और १५६१में सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाओंमें इनके शिष्य भद्दारक विजयकीतिका उल्लेख मिलता है। यथा
"संवत् १५६० वर्षे श्री मूलसंधे भट्टारक श्री ज्ञानभूषण तत्पढ़े भ. श्री विजयकोतिगुरूपदेशात् बाई श्रीमोईन श्रीबाई श्रीविनय श्रोविमान पंक्तियत उद्यापने श्रीचन्द्रप्रभ"......"
'संवत् १५६१ वर्षे चैत्र वदो ८ शुक्र श्री मूलसंधै सरस्वतीगच्छे भट्टारक श्री सकलकति तत्पट्टे भ श्री भवनकी ति तत्पट्टे भ श्रीज्ञानभूषण तत्पट्टे भग विजयकात्तिगुरूपदेशात् हूंबड ज्ञातीय श्रेष्टि लखमय भार्या मरगदी सुत श्रे. समबर भायों मचकू सुत श्रे गंगा भार्या वरिल सुत हरखा होरा झठा नित्यं श्री आदोश्वर प्रणमंति बाई मचकू पिसा दोसो रामा भार्या पूरी पुषी रंगी एते प्रणमंति।"
अतएव भट्टारक ज्ञानभूषणका समय वि० सं० १५००-१५६२ है ।
भट्टारक ज्ञान भूषणने संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भामाबों में रचनाएँ लिखी हैं । निम्नलिखित संस्कृत-रचनाएँ प्रसिद्ध हैं
१. आत्मसम्बोधन काव्य
२. ऋषिमण्डलपूजा
३. तत्त्वज्ञानतरंगिणी
४. पूजाष्टकटीका
५. पञ्चकल्याणकोद्यापनपूजा
६. नेमिनिर्वाणकाध्यकी परिजकाटीका
७. भक्तामरपूजा
८. श्रुतपूजा
९. सरस्वतीपूजा
१०. सरस्वतीस्तुति
११. शास्त्रमण्डलपूजा
१. आदीश्चरफाग
२. जलगालनरास
३. पोसह रास
४. पटकमरास
५. नागदारास
आत्मसम्बोधन आध्यात्मिक कृति है। इसकी प्रति जय पुरके बाबा दुलोचन्दके शास्त्रभण्डारमें संग्रहीत है!
इस ग्रन्थमें १८ अध्याय हैं और समस्त पद्यसंख्या ५३६ है । कविने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार निबद्ध किया है—
जातः श्रीसकलादिकोलिमुनिपः श्रीमलसंधेग्नगी
स्तत्पट्टोदयपर्वते रविरभूण्यांबुजानंदकृत् ।
विल्यासी भुवनादिकोतिरथ यस्तत्पादकजे रत:
तत्त्वज्ञानतरंगिणीं स कृतवानेता हि चिद्भूषणः ॥२१॥
स्पष्ट है कि ज्ञानभूषणके प्रगुरु सकलकोति और गुरु भुवनकीति थे। इस
१. तत्त्वज्ञानतरंगिणी, १८।२१ ।
अन्यमें शुद्ध चैतन्यस्वरूपका प्रतिपादन किया गया है। ध्यान, मेद विज्ञान, अहंकार-ममकारका त्याग, रत्नत्रयस्वरूप, शुद्ध चैतन्यरूपका विस्तारसे विवे चन किया गया है। बताया है कि शुद्ध चैतन्यस्वरूपका स्मरण ही समस्त सुख प्रदान करने वाला, मोहको जीतनेवाला, अशुभ आस्रव एवं दुष्कर्मों का हर्ता, सम्बदन, सम्यज्ञान और न्यधारितको प्रतिमा साधक और मनुष्य जन्मको सफलताका सूचक है।
सौख्यं मोहजयोशुभास्त्रवहति शोतिदुष्कर्मणा
मत्यंसं घ विशुद्धता नरि भवेदाराधना तात्विको।
रलानां त्रितयं नजन्मसफलं संसारभीनाशनं
चिदूपोहमितिस्मृतेश्च समता सदभ्यो यशःकीत्तंन ।'
आचार्यने बताया है कि मेदविज्ञानके बिना शुद्ध चिद्रूपका ध्यान नहीं किया जा सकता है । जो मैद-विज्ञानका धारी है, उसे यह सारा संसार भान्त प्रतीत होता है। अतएव भेदविज्ञानकी प्राप्तिके लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिये । आचार्यने लिखा है
उन्मत्तं नातियुक्तं गतनयनयुगं दिग्विमूलं च सुप्तं
निश्चित प्रासमूछ जलबहनगतं बालकावस्थमेतत् ।
स्वस्याधीनं कृतं वा अहिलगतिगत व्याकुलं मोहधुतः
सर्व शुद्धात्मदृग्भीरहितमपि जगद् भाति भेदचित्त।
इस प्रकार इस तत्त्वज्ञानतरंगिणीमें शुद्ध चेतन्यकी प्रासिके लिये परद्रव्यों के त्यागका वर्णन किया है । आस्मतत्त्वको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ उपादेय है।
भक्तामर, श्रुत, सरस्वती, शास्त्रमण्डल आदि पूजाग्रन्थों में तत्तद्दपुजाओंका संकलन किया गया है। पूजाष्टक में आठ पूजाओंकी स्वोपज्ञ टीका है। समस्त कृति दश अधिकारोंमें विभक है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२८ है। अन्तिम पुष्णिका निम्न प्रकार है
"इति भट्टारकश्रीभुवनकोसिशिष्यमुनिज्ञानभूषणविरचितायां स्वकृताष्टक दशकटोकायां विद्वज्जनबल्लभसंज्ञार्या नन्दीश्वरद्वीपजिनालयाचनवर्णनीयेनाम दशमोऽधिकारः ॥"
१. त तरंगि०, २५
२. वही, ६२
फागसम्बन्धी हिन्दीकी रचनामों में इस कृतिका विशिष्ट स्थान है। इस कृतिमें आदितीर्थंकरका जीवनचरित वर्णित है। आरम्भका अंश संस्कृत में लिखा गया है और वशिष्ट हिन्दी में । २३९ पद्य संस्कृतमें लिखे गये हैं और शेष २६२ हिन्दीमें। समस्त पद्योंकी संख्या ५०१ है। तीर्थकर आदिनाथका जन्म, शं शवावस्था और युवावस्थाका सांगोपांग चित्रण किया गया है। नीलाञ्जनाके नृत्य करते समय विलीन हो जाने के कारण आदिनाथ संसारसे विरक्त हो जाते हैं। कविने इस घटनाका सजीव चित्रण करते हुए लिखा है--
आहे धिग-धिग इह संसार, बेकार अपार असार ।
नहीं सम मार समान कुमार, रमा परिवार ।।
आहे घर पुर नगर नहीं निज रज सम राज अकाज ।
ह्य गय पयदल बल मल सरिखन नारि समाज ।।
आहे आयु कमल दल सम चंचल चपल शरीर ।
यौवन धन इव अधिर करम जिय करतल नीर ॥
आहे मोग वियोग समन्तित रोग तण घर अंग ।
मोह महा मुनि निदित निदित नादीय संग ।।
आहे छेदन भंदन वेदन दोठोय नरग मझारि ।
भामिनी भोग तणइ फलितउ किम बांधइ नारि ।।
यह व्रतविधानके महात्म्यपर आधारित रास है। भाषा एवं शेलीकी दृष्टिसे इसमें रासोकाव्य जैसी सरसता और मधुरता पायी जाती है। कविने कृत्तिके अन्तमें अपना नामांकन किया है--
वारि रमणियमुगतिज सम अनुप सुख अनुभवह ! भव म कारि पुनरपि न बावइ इह बू पालजस गमइ ।। ते नर पोसह कान भावइ एणि परि पोसह धरइज नर नारि सुजण । ज्ञान भषण गरु इम मणइ, ते नर करइ बखाण ॥
इसी प्रकार षट्कर्मरास कमसिद्धान्तपर आधारित है। इसमें देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान इन षट्कर्मों के पालन करनेका सुन्दर उपदेश दिया है। इसमें ५३ छन्द हैं और अन्तिम छन्दमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है।
'जलगालनरास' में ३३ पद्य है। इसमें जल छाननेकी विधिका रासशेली में वर्णन है । इस प्रकार ज्ञानभूषणने साहित्य, संस्कृति और समाजके उत्थानके कार्य किये हैं।
गुरु | आचार्य श्री रत्नकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री ग्यानभूषण |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Gyanbhushan18ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री ज्ञानभूषण 18वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 27-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
ज्ञानभूषण नामके चार आचार्योंका उल्लेख प्राप्त होता है। प्रथम ज्ञानभूषण भट्टारक समालकीतिकी परम्परामें भट्टारक भुवनकोतिके शिष्य हुए हैं । द्वितीय ज्ञानभूषण सूरत-शाखाके भट्टारक देवेन्द्रकोतिको परम्परामें भट्टारक वीरचन्द्रके शिष्यके रूपमें हुए हैं। इनके भट्टारक होनेका समय सं०१६०० १६१६ है । तृतीय ज्ञान भूषणका सम्बन्ध अटेर-शाखाके साथ रहा है और इनका समय १७ वीं शताब्दी माना जाता है । चौथे ज्ञानभूषण नागौरके भट्टारक रत्नकोतिके शिष्य थे । इनका समय १८ वीं शताब्दीका अन्तिम चरण है। _ विवेचनीय ज्ञानभूषण प्रारम्भमें भयारक विमलेन्द्रकीतिके शिष्य थे। किन्तु उत्तरकालमें इन्होंने भुबनकीतिको अपना गुरु स्वीकार किया है । ज्ञान भूषण एवं ज्ञानकीति ये दोनों ही सगे भाई एवं गुरुमाई थे। ये गोलालारे जातिके श्रावक थे। वि० सं० १५३५ में सागवाड़ा एवं नोगाममें एक साथ एक ही दिन आयोजित होने के कारण दो भट्टारक-परम्पराएं स्थापित हुई। सागवाड़ामें होनेवाली प्रतिष्ठाके संचालक भट्टारक ज्ञानभूषण थे और नोगाम के प्रतिष्ठा महोत्सबके संचालक ज्ञानकीति थे। यहीसे ज्ञानभूषण बड़साजनोंके गुरु और ज्ञानकी ति लोहड़साजनोंके गुरु कहलाने लगे। ____ नन्दिसघको पट्टालिसे ज्ञात होता है कि ज्ञानभूषण गुजरात के रहनेवाले थे। गुजरातमें इन्होंने सागारधर्म धारण किया, अहोर (आभीर) देशमें १? प्रतिमाएँ धारण की और वागवट या बागड़देशमें दुर्धर महावत ग्रहण किये। तौलवदेशके यत्तियों में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा हुई । तैलंगदेशके उत्तम-उत्तम पुरुषोंने इनके चरणोंकी वन्दना को । द्रविड़ देशके विद्वानोंने खनका स्तवन
१. राजस्थान के जैन सन्त, व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, पृ० ४९ ।
किया, महाराष्ट्र में उन्हें बहुत यश मिला, सौराष्ट्रके धनी धावकोंने उनके लिए महामहोत्सब किया, रायदेश (ईडरके आस-पासका प्रान्त के निवासियों ने उनके वचनोंको अतिशय प्रमाला , मेहपाट मात) मामी लोगोंको जन्होंने प्रतिबोधित किया, मालवे के भव्यजनों के हृदयकमलको विकसित किया, मेवातमें उनके अध्यात्मरहस्यपूर्ण व्याख्यानसे विविध विद्वान श्रावक प्रसन्न हुए, कुरु जालके लोगोंका अज्ञानरोग दूर किया, तूरबके षड्दर्शन और तर्कके जानने वालोंपर विजय प्राप्त किया, वैराट (जयपुरके आस-पास के लोगोंको उभयमार्ग (सागार-अनगार) दिखलाये, नमियाळ (निमाड़) में जिनधर्म की प्रभावना की, दंगराट हड़ी-बटी नागट चार्ल (2) आदि जनपदोंमें प्रतिबोधके निमित्त विहार किया, भैरव राजाने उनकी भक्ति की, इन्द्र राजाने चरण पूजे, मजाधिराज देवराजने चरणोंकी आराधना की, जिनधर्मके आराधक मदिलियार, रामनाथ राय, धोम्मरसराय, कलपराय, पाण्डुराय आदि राजाओंने पूजा की और उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा को । ब्याकरण-छन्द-अलंकार-साहित्य-तर्क-आगम-अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोंपर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध ध्याना मृतपानकी उन्हें लालसा' थी"।।
नन्दिसंघकी पट्टावलीमें जो यह प्रशस्ति दी गयी है वह आंतशयोक्तिपूर्ण मालूम पड़ती है, पर इसमें सन्देह नहीं कि भट्टारक ज्ञानभूषण मेधाबी और प्रभावशाली थे।
इनके व्यक्तित्व के सम्बन्धमें शुभचन्द्र-पट्टालिसे पूरा प्रकाश प्राप्त होता है। इस पट्टापलिके नवम अनुच्छेदमें बताया है कि इन्होंने अनेक जनपदों में बिहार कर प्रतिष्ठा प्राप्त की थी । लिखा है
___ "इनके (भुवनकौतिके) पटरूपी उदयाचलके लिए सूर्य के समान, गुर्जर देशमें सर्वप्रथम सागारधर्मके प्रचारक, अहीर-आभीर देश में स्वीकृत एकादश प्रतिमासे पवित्र शरीरवाले, वाग्बर देशमें अंगीकृत दुर्द्धर महावतके भारको धारण करनेवाले, कर्णाटक देशमें ऊंचे-रचे चैत्यालयोंके दर्शनसे महापुण्यको उपार्जित करनेवाले, तौलव देशके महावादीश्वर विद्वज्जनों और चक्रवत्तियोंमें प्रतिमा प्राप्त करनेवाले, तैलंग देशके सज्जनोंसे पुजित चरणकमलवाले, द्रविड सके विजोंस स्तुति किये जानेवाले, महाराष्ट्र दशमें उमजबल यशका विस्तार करनेवाले, सौराष्ट्र देशके उत्तम उपासकोंसे महोत्सब मनाये जानेवाले, सम्य ग्दर्शनसे युक्त शयदेशके निवासी प्राणिसमूहसे प्रमाणीकृत वाक्यवाले, मेदपाट
१. नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, प्रथम संस्करण, सन् १६४२, पृ
५२१-३-।
देशके अनेक अनजनोंको उद्बोधित करनेवाले, मालव देशके भव्योंके हृदय कमलको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान, मेवात देशके अन्यान्य विज्ञ उपासकोंको अपने आध्यत्मिक व्याख्यानोंसे रजित करनेवाले, कुरुजांगल देशके प्राणियोंले आज संगको हटाने के लिए तद्वैद्यके समान, तुरब देशमें षड्दर्शन न्याय आदिके अध्ययनसे उत्पन्न अखवं गर्वको दबाकर विजय प्राप्त करनेवाले, विराट् देशमें उभय मार्गको प्रदर्शित करनेवाले, नमियाई देशमें जिनधर्मकी अत्यन्त प्रभावना और नव हजार उपदेशकोंको नियत करनेवाले, टंग, राट, हड़ी, वटो, नाग और चाल आदि अनेक जनपदों में ज्ञानप्रचारक लिा विहार करनेवालं श्रीमलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके दिल्ली सिंहासनके अधि पति, अपने प्रतापसे दिङमण्डलका आक्रमण करनेवाले, अष्टांगयुक्त सम्यक्त्व आदि अनेक गुणगणसे अलंकृत और श्रीमान् इन्द्रादि भूपालोंसे पूजित चरण कमलवाले, गजान्तलक्ष्मी, ध्वजान्तपुण्य, नाटधान्तभोग, समुद्रान्तभूमिभागके रक्षक, सामन्तोंके मस्तकसे घृष्ट चरणवाले श्री देवरायसे पूजितपादपश्नवाले, जिनधर्मके आराधक मुदितपाल राय, रामनाथराय, बोम्मसराय, कल्पराय, पापड राय आदि अनेक राजाओंसे चचित चरणयुगलबाले, अनेक तीर्थयात्राओंको सम्पन्न करनेवाले, मोक्षलक्ष्मीको वशीभूत करनेवाले, रत्नत्रयसे सुशोभित शरीर बाले, व्याकरण, छन्द, अलंकार, साहित्य, न्याय और अध्यात्मप्रमुख शास्त्ररूपी मानसरोवरके राजहंस, शुद्धध्यानरूपी अमृतपानको लालसा करनेवाले और वसुन्धराके आचार्य श्रीमद्भट्टारकावर्य श्रीज्ञानभूषण हुए' ।"
आचार्य ज्ञानभूषण भट्टारक भुवनकीतिके पश्चात् सागवाड़ाके पट्टपर आसीन हुए । इनका प्राचीन उल्लेख निम्नलिखित भूतिलेखमें पाया जाता है
"संवत् १५३१ वर्षे वैसाख वदो ५ बुधे श्रीमूलसंधे भ० श्रीसकल कोसि स्तत्पट्टे भा भवनकोत्तिदेवास्ततपट्टे भ० श्रीज्ञानभूषणदेवस्तदुपदेशात् मेघा भार्या टीगू प्रणमति श्री गिरिपुरे रावल श्री सोमदास राशी गुराई सुराज्ये" अर्थात् वि० सं०१५३१ वैशाख कृष्णा द्वितीयामें इनके सान्निध्य में यह प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई है। श्री जोहरापुरकरने ज्ञानभूषणका भट्टारक-काल १५३४ माना है, पर यह समय युक्तिसंगत प्रसीत नहीं होता। डॉ० प्रेमसागरने अपने हिन्दी जैनक्ति काव्य और कवि'में इनका समय वि० सं०१५३२-१५५७ माना
१. शुभचन्द्र पाल, अनुच्छेद १।।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, पृ० १५८ ।
३. हिन्दी जन भक्ति काव्य और कवि, भारतीय जानपीठ, पृ० ७३ ।
है, पर डूंगरपुरबाले अभिलेखसे ज्ञात होता है कि मानभूषण वि० सं० १५३१ या इसके पहले ही भट्टारक गद्दीपर आसीन हुए थे। इन्होंने वि० सं० १५६० में 'तत्त्वज्ञानतरंगिणी की रचना की है, जिसकी पुष्पिकामें इनके नामके पूर्व 'मुमुक्षु' शब्द जुड़ा हुआ मिलता है। इससे यह ध्वनित होता है कि विक सं १५६० या उसके दो-एक वर्ष पूर्व ही ने भट्दा एक पद छोड़ रहे । अन्य अभिलेखोंसे यह ज्ञात होता है कि वि सं० १५५७ तक ये निश्चितरूपसे भट्टारक पदपर आसीन रहे हैं। इसके पश्चात् ये अपने शिष्य विजयकोति को भट्टारक पदप र प्रतिष्ठित कर स्वयं साहित्यसाधना में प्रवृत्त हुए हैं।
भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित होते ही शानभूषण के कार्यकाल में अनेक महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई हैं। इन्होंने १५३१में डूगरपुरमें सहस्रकूट प्रतिष्ठा का संचालन किया । १५३४ फाल्गुन शुक्ला दशमोमें आयोजित प्रतिष्ठा महोत्सबके समय प्रतिष्ठित की गयी मतियां अनेक स्थानोंपर आज भी प्राप्त होती है। वि० सं० १५५३५में इन्होंने दो प्रतिष्ठाओंमें भाग लिया था। एक प्रतिष्ठाका निर्देश जयपुरके छाबड़ोंके मन्दिर में और दूसरोका उल्लेख उदयपुरके मन्दिरमें मिलता है। वि० सं० १५४० में हूंवड़ जाति श्रावक लाखा एवं उसके परिवारने इन्हींके आदेशसे आदिनाथस्वामीकी प्रतिष्ठा करायी थी। इनके तत्वावधान में वि० सं० १५४३, १५४४ एवं १५४५में विविध प्रतिष्ठा-महोत्सव सम्पन्न हुए थे। वि० सं०१५५२में एक बृहद आयोजन हुआ, जिसमें भट्टारक शानभूषण सम्मिलित हुए थे। वि० सं० १५५७ तक सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाओं में इनके सम्मिलित होने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। वि सं १५६० और १५६१में सम्पन्न हुई प्रतिष्ठाओंमें इनके शिष्य भद्दारक विजयकीतिका उल्लेख मिलता है। यथा
"संवत् १५६० वर्षे श्री मूलसंधे भट्टारक श्री ज्ञानभूषण तत्पढ़े भ. श्री विजयकोतिगुरूपदेशात् बाई श्रीमोईन श्रीबाई श्रीविनय श्रोविमान पंक्तियत उद्यापने श्रीचन्द्रप्रभ"......"
'संवत् १५६१ वर्षे चैत्र वदो ८ शुक्र श्री मूलसंधै सरस्वतीगच्छे भट्टारक श्री सकलकति तत्पट्टे भ श्री भवनकी ति तत्पट्टे भ श्रीज्ञानभूषण तत्पट्टे भग विजयकात्तिगुरूपदेशात् हूंबड ज्ञातीय श्रेष्टि लखमय भार्या मरगदी सुत श्रे. समबर भायों मचकू सुत श्रे गंगा भार्या वरिल सुत हरखा होरा झठा नित्यं श्री आदोश्वर प्रणमंति बाई मचकू पिसा दोसो रामा भार्या पूरी पुषी रंगी एते प्रणमंति।"
अतएव भट्टारक ज्ञानभूषणका समय वि० सं० १५००-१५६२ है ।
भट्टारक ज्ञान भूषणने संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भामाबों में रचनाएँ लिखी हैं । निम्नलिखित संस्कृत-रचनाएँ प्रसिद्ध हैं
१. आत्मसम्बोधन काव्य
२. ऋषिमण्डलपूजा
३. तत्त्वज्ञानतरंगिणी
४. पूजाष्टकटीका
५. पञ्चकल्याणकोद्यापनपूजा
६. नेमिनिर्वाणकाध्यकी परिजकाटीका
७. भक्तामरपूजा
८. श्रुतपूजा
९. सरस्वतीपूजा
१०. सरस्वतीस्तुति
११. शास्त्रमण्डलपूजा
१. आदीश्चरफाग
२. जलगालनरास
३. पोसह रास
४. पटकमरास
५. नागदारास
आत्मसम्बोधन आध्यात्मिक कृति है। इसकी प्रति जय पुरके बाबा दुलोचन्दके शास्त्रभण्डारमें संग्रहीत है!
इस ग्रन्थमें १८ अध्याय हैं और समस्त पद्यसंख्या ५३६ है । कविने अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार निबद्ध किया है—
जातः श्रीसकलादिकोलिमुनिपः श्रीमलसंधेग्नगी
स्तत्पट्टोदयपर्वते रविरभूण्यांबुजानंदकृत् ।
विल्यासी भुवनादिकोतिरथ यस्तत्पादकजे रत:
तत्त्वज्ञानतरंगिणीं स कृतवानेता हि चिद्भूषणः ॥२१॥
स्पष्ट है कि ज्ञानभूषणके प्रगुरु सकलकोति और गुरु भुवनकीति थे। इस
१. तत्त्वज्ञानतरंगिणी, १८।२१ ।
अन्यमें शुद्ध चैतन्यस्वरूपका प्रतिपादन किया गया है। ध्यान, मेद विज्ञान, अहंकार-ममकारका त्याग, रत्नत्रयस्वरूप, शुद्ध चैतन्यरूपका विस्तारसे विवे चन किया गया है। बताया है कि शुद्ध चैतन्यस्वरूपका स्मरण ही समस्त सुख प्रदान करने वाला, मोहको जीतनेवाला, अशुभ आस्रव एवं दुष्कर्मों का हर्ता, सम्बदन, सम्यज्ञान और न्यधारितको प्रतिमा साधक और मनुष्य जन्मको सफलताका सूचक है।
सौख्यं मोहजयोशुभास्त्रवहति शोतिदुष्कर्मणा
मत्यंसं घ विशुद्धता नरि भवेदाराधना तात्विको।
रलानां त्रितयं नजन्मसफलं संसारभीनाशनं
चिदूपोहमितिस्मृतेश्च समता सदभ्यो यशःकीत्तंन ।'
आचार्यने बताया है कि मेदविज्ञानके बिना शुद्ध चिद्रूपका ध्यान नहीं किया जा सकता है । जो मैद-विज्ञानका धारी है, उसे यह सारा संसार भान्त प्रतीत होता है। अतएव भेदविज्ञानकी प्राप्तिके लिए निरन्तर प्रयास करना चाहिये । आचार्यने लिखा है
उन्मत्तं नातियुक्तं गतनयनयुगं दिग्विमूलं च सुप्तं
निश्चित प्रासमूछ जलबहनगतं बालकावस्थमेतत् ।
स्वस्याधीनं कृतं वा अहिलगतिगत व्याकुलं मोहधुतः
सर्व शुद्धात्मदृग्भीरहितमपि जगद् भाति भेदचित्त।
इस प्रकार इस तत्त्वज्ञानतरंगिणीमें शुद्ध चेतन्यकी प्रासिके लिये परद्रव्यों के त्यागका वर्णन किया है । आस्मतत्त्वको अवगत करनेके लिए यह ग्रन्थ उपादेय है।
भक्तामर, श्रुत, सरस्वती, शास्त्रमण्डल आदि पूजाग्रन्थों में तत्तद्दपुजाओंका संकलन किया गया है। पूजाष्टक में आठ पूजाओंकी स्वोपज्ञ टीका है। समस्त कृति दश अधिकारोंमें विभक है। इसका रचनाकाल वि० सं० १५२८ है। अन्तिम पुष्णिका निम्न प्रकार है
"इति भट्टारकश्रीभुवनकोसिशिष्यमुनिज्ञानभूषणविरचितायां स्वकृताष्टक दशकटोकायां विद्वज्जनबल्लभसंज्ञार्या नन्दीश्वरद्वीपजिनालयाचनवर्णनीयेनाम दशमोऽधिकारः ॥"
१. त तरंगि०, २५
२. वही, ६२
फागसम्बन्धी हिन्दीकी रचनामों में इस कृतिका विशिष्ट स्थान है। इस कृतिमें आदितीर्थंकरका जीवनचरित वर्णित है। आरम्भका अंश संस्कृत में लिखा गया है और वशिष्ट हिन्दी में । २३९ पद्य संस्कृतमें लिखे गये हैं और शेष २६२ हिन्दीमें। समस्त पद्योंकी संख्या ५०१ है। तीर्थकर आदिनाथका जन्म, शं शवावस्था और युवावस्थाका सांगोपांग चित्रण किया गया है। नीलाञ्जनाके नृत्य करते समय विलीन हो जाने के कारण आदिनाथ संसारसे विरक्त हो जाते हैं। कविने इस घटनाका सजीव चित्रण करते हुए लिखा है--
आहे धिग-धिग इह संसार, बेकार अपार असार ।
नहीं सम मार समान कुमार, रमा परिवार ।।
आहे घर पुर नगर नहीं निज रज सम राज अकाज ।
ह्य गय पयदल बल मल सरिखन नारि समाज ।।
आहे आयु कमल दल सम चंचल चपल शरीर ।
यौवन धन इव अधिर करम जिय करतल नीर ॥
आहे मोग वियोग समन्तित रोग तण घर अंग ।
मोह महा मुनि निदित निदित नादीय संग ।।
आहे छेदन भंदन वेदन दोठोय नरग मझारि ।
भामिनी भोग तणइ फलितउ किम बांधइ नारि ।।
यह व्रतविधानके महात्म्यपर आधारित रास है। भाषा एवं शेलीकी दृष्टिसे इसमें रासोकाव्य जैसी सरसता और मधुरता पायी जाती है। कविने कृत्तिके अन्तमें अपना नामांकन किया है--
वारि रमणियमुगतिज सम अनुप सुख अनुभवह ! भव म कारि पुनरपि न बावइ इह बू पालजस गमइ ।। ते नर पोसह कान भावइ एणि परि पोसह धरइज नर नारि सुजण । ज्ञान भषण गरु इम मणइ, ते नर करइ बखाण ॥
इसी प्रकार षट्कर्मरास कमसिद्धान्तपर आधारित है। इसमें देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान इन षट्कर्मों के पालन करनेका सुन्दर उपदेश दिया है। इसमें ५३ छन्द हैं और अन्तिम छन्दमें कविने अपने नामका उल्लेख किया है।
'जलगालनरास' में ३३ पद्य है। इसमें जल छाननेकी विधिका रासशेली में वर्णन है । इस प्रकार ज्ञानभूषणने साहित्य, संस्कृति और समाजके उत्थानके कार्य किये हैं।
गुरु | आचार्य श्री रत्नकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री ग्यानभूषण |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Gyanbhushan 18 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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