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#Indranandi1st10ThCentury
इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। किन्तु यहाँ मन्त्रशास्त्र विज्ञ ज्वालमालिनीकल्पके रचयिता इन्द्रनन्दि अभिप्रेत हैं। एकसन्धिभट्टा रक द्वारा विरचित जिनसंहितामें उनके पूर्ववर्ती आठ प्रतिष्ठाचार्योंका उल्लेख आया है ! आर्यपने शक सं० १२४१ (वि०सं०१३७६) में जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' नामक ग्रन्य लिखा है। इसमें ९ प्रतिष्ठाचार्योंके उल्लेख आये हैं, जिनमें एक इन्द्रनन्दिका भी है। किन्तु इन्द्रनन्दिके नामकी जो संहिता मिलती है, उसके रचयिता प्रस्तुत इन्द्रनन्दिसे भिन्न इन्द्रनन्दि हैं । पद्य निम्न प्रकार है
बीराचार्यसुपूज्यपादजिनसेनाचार्यसंभाषितो यः पूर्व गुणभद्रसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्यूजितः । यश्चाशाधरस्तिमल्लकथितो यश्चैकसन्धिस्ततः ।
तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचित्तः स्याज्जैनपूजाक्रमः ॥ रायबहादुर डा.हीरालाल जीकी 'ACatlogue of Sanskrit And Fra krit Manscripts in the Cantral Provinces and Berar' नामक अन्यसूची नागपुरसे ई० सन् १९२६ में प्रकाशित हुई थी। इस ग्रन्थको प्रस्तावनामें इन्द्र नन्दिके सम्बन्धमें लिखा गया है १. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, पृ ० ६० |
By this author we have the work Jvalamalini-Kalpa. It deals with the cult of propitiating the goddess of fire, jvalamalini. The wok opens with an account of the circumstances of the origin of the cult. Elachatya, a sage and leader of Dravidagana, lived at. Hemagrama in Daksindesa. He had a .. female pupil name Kamala Sji. Once she became possessed of a Brahma-kakshasa under whose iniluence she indulged in all sorts of acts and talks decent or in decent. ......Elacharya sught the aid of Vahnidevata that dwelt on the top of the Nilagiri hills. He inculcated the art which Indra nandi long after him professes to expose in writing,
ज्वालमालिनीकल्पकी प्रशस्तिसे अवगत होता है कि इन्द्रनन्दि योगीन्द्र मन्त्रशास्त्रके विशिष्ट विद्वान थे तथा वासवनन्दिके प्रशिष्य और बप्पनन्दि के शिष्य थे। इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थको लेकर इस ज्वालमालिनी कल्पकी रचना की है। इस ग्रन्थ की आद्यप्रशस्तिके २२ वे पद्यमें ग्रन्थरचनाका प्रायः पूरा इतिवृत्त दिया गया है। देवीके आदेशसे ज्वालिनीमत नामक एक ग्रन्च मलय नामक दक्षिण देशके हेम नामक ग्राममें द्रविड़ाधीश्वर हेमाचार्ये रचा था। उनके शिष्य गङ्गमुनि, नीलग्रीव और बीजाब नामके हुए और सांतिरसञ्चा' नामक आर्यिका तथा 'बिरबट्ट' नामक क्षुल्लक भी हुआ | इस परिपाटी एवं
अविच्छिन्न सम्प्रदायसे चले आये हुए मन्त्रवादका यह ग्रन्थ कन्दर्पने जाना और उसने भी अपने पुत्र गुणन्दि नामक मुनिके प्रति व्याख्यान किया। इन दोनों के पास रहकर इन्द्रनन्दिने उस मन्त्रशास्त्रका ग्रन्थत: और अर्थतः विशेष रूपा से अध्ययन किया । इन्द्रनन्दिने उस क्लिष्ट प्राचीन शास्त्रको हृदयमें धारणकर ललित आर्या और गीतादि छन्दोंमें हेलाचार्यके उक्त अर्थको ग्रन्थ परिवर्तनके साथ सम्पूर्ण जगतको आश्चर्यचकित करने वाले इस ग्रन्थकी रचना की। राय बहादुर डॉ० हीरालाल जी ने इन्द्रनन्दिकी गुरुपरम्पराका उल्लेख निम्न प्रकार किया है।
द्राविड-गण
इन्द्रदेव
इन्द्रनन्दि (प्रथम)
बासबनन्दि
१. ज्वालामालिनीकल्प, सूरत संस्करण, प्रास्ताविक, पृ० ७ पर उद्धत । ।
वर्षनन्दि
हर्षनन्दि ( प्रथम )
हर्षनन्दि (द्वितीय)
इन्द्रनन्दि (द्वितीय)
इस गुरुपरम्परासे और अन्यत्र प्राप्त ग्रन्थप्रशस्तिसे विरोध आता है। बम्बई और कारंजाकी प्रतियोंमें निम्नलिखित पद्म प्राप्त होते हैं
स श्रीवासवनंदिसन्मुनिपति: शिष्यस्तदीयो भवेत् ॥
शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमतिविभवः ।
श्रीबपनंदिगुरुरिति बुबमधुपनिषेवित्तपदामः ।।
लोकं यस्य प्रसादादजान मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी
यस्याशास्तंभमूर्धान्यतिविमलयशः श्रीबितानो निबद्ध: ।
कालास्तायेन पौराणिककविवृषभा द्योतितास्तत्पुराण
व्याख्यानाबप्पनंदिनथितगुणगणस्तस्य किं वयतेऽन्न
शिष्यस्तस्येन्द्रनंदिविमलगुणगणोद्दामधामाभिरामः
प्रज्ञा-तीक्ष्णानधारा-विदलितबहलाज्ञानवल्लीवितानः' ।
श्री जैन सिद्धान्तभवन आराकी पाण्डुलिपिमें दशम परिच्छेदके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है, वह इससे भिन्न है। आग वाली प्रतिमें अंकित गुरु परम्परा रायबहादुर डा. हीरालालजी द्वारा उल्लिखित गुरुपरम्पराके समान है। यथा
स श्रीवासवनन्दिसन्मुनिपति: शिष्यस्तदीयो भवेत् ।।
शिव्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमिति विभवः ।
श्री वर्षनन्दिगुरुरिति बुधमघुपनिसेवितपदान्जः ।।
लोके यस्य प्रसादादनि मुनिजनः सत्पुराणार्थवेदी ।
यस्याशास्तम्भमूर्धन्यतिबिमलयशः श्रीवितानो निबद्धः
xxxपौराणिककविवृषभाद्योतितास्तत्पुराण
व्याख्यानाद-हर्षनन्दि प्रथितगुणस्तस्य किं वयतन
१. जैन प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, विल्ली पृ० १३८-१३९ पर उद्धत ।
शिध्यस्तस्येन्द्रनन्दिविमलगणगणोद्दामधामाभिराम:
प्रज्ञतीक्ष्णाम्बधागबिमलितबहलाज्ञानवल्ली बितानः ।
इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थको रचनाका समय उद्धृत किया है। यह पद्म जैन सिद्धान्त भवन की
पद्मनन्द जी द्वारा प्रका शित प्रशस्तिसंग्रह में समान है । पद्म निम्नप्रकार है
अष्टशत्तस्यकपष्टि (८६१) प्रमाणशकवत्सरेष्वत्तीतेषु ।
श्रीमान्यस्वेटकटके पर्वण्यक्ष [य] तृतीयायाम् ।।
मतदलसहितचतुःगतपरिमाणग्रंथरचनाया युक्तं ।
श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्याः ।।
अर्थात्, इस ग्रन्थकी समाप्ति मान्यम्लेटमें (वर्तमान मलखेड़में) शक सं०८६१ ई० (सन् ९३९) में अक्षयतृतीयाके दिन हुई । अतएव स्पष्ट है कि आचार्य इन्द्र नन्दि योगीन्द्र का समय ई० सन् की दशम शताब्दीका पूर्वार्द्ध है। आचार्य नेमिचन्द्रने गुरुक रूपमें जिन इन्द्रनन्दिका उल्लेख किया है, समयकी दृष्टिसे वे यही इन्द्रनन्दि सम्भावित हो सकते हैं, पर विषयवस्तु और आगमज्ञानकी दृष्टि से ये दोनों इन्द्रनन्दि भिन्न प्रतीत होते हैं।
ज्वालमालिनीकल्प मन्त्रशास्त्रका उत्कृष्ट ग्रन्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ दश परिच्छेदों में विभक्त है । इन परिच्छेदोंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. मन्त्रीलक्षण-अर्थात् मन्त्रमाधक के लक्षण ।
२. दिव्यादिव्यग्रह---दिव्यम्त्रीग्रह, दिव्यपुरुषग्रह, अदिव्यस्त्रीग्रह, अदिव्य
पुरुषग्रह ।
३. सकलीकरणक्रिया–अंशुद्धि, बीजाक्षरज्ञान ।
४. मण्डलपरिज्ञान- सामान्यमण्डल, सर्वतोभद्रमण्डल आदि मण्डलोंका
विवेचन ।
५. भूताकम्पन तेल
६. रक्षास्तम्भन-बश्य प्रकरण |
७. वशीकरण प्रकरण।
१. ज्दालमालिनीकल्प, आरा जैन सिद्धान्त भवनको हलिम्बित अन्तिम प्रशस्ति ।
२. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प०१३९पर उधृत |
८. पूजनविधि प्रकरण ।
९. नीराजनविधि।
१०. शिष्यपरीक्षा एवं शिष्यप्रदेयस्तोत्र आदि विवरण ।
प्रथम परिच्छेद में ३५ पद्य हैं। मंगलाचरणके पश्चात् ज्वालामालिनी देवी के स्वरूपका वर्णन किया गया है। पश्चात् ग्रन्थरचनाका कारण बतलाते हुए कमलश्रीकी कथा अंकित है। कमलश्रीको ग्रहबाधा थी, जिसे ज्वालामालिनी देवी द्वारा मन्त्र प्राप्त कर दूर किया गया। इसी परिच्छेदमें गुरुपरम्पराका भी उल्लेख आया है। इस परम्परामें बताया है कि कदर्प नामक मुनिने इस मन्त्र शास्त्रका उपदेश गुणनन्दिको दिया और इन्द्रनन्दिने इन दोनोंसे इस ग्रन्थका अध्ययन किया । २८वं पद्यमें ग्रन्थकी विषयानुक्रमणिका अंकित है। ३०वें पद्यसे ३९वें पद्यपर्यन्त मन्त्रसाधकका लक्षण दिया गया है। मन्त्रसाधना करने वालेको गुरुभक्त, सत्यवादी, चतुर, ब्रह्मचारी और भक्तिपरायण होना चाहिये।
द्वित्तीय परिच्छेदमें ग्रहोंसे अभिभूत होने वाले व्यक्तियोंके लक्षणोंका वर्णन है। ग्रहोंके दिव्य और अदिव्य दो भेद कर कौन ग्रह किसको पीड़ा पहुँचाता है, इसका विस्तारसे वर्णन किया गया है । ग्रहोंको कीलित करनेके लिये बीजाक्षर
और ध्वनियाँ भी निबद्ध की गयी हैं। इस परिच्छेदम २२ पद्य हैं।
तृतीय परिच्छेदमें सकलीकरण क्रियाका शरीरके अंग और उपांगोंको किन किन बीजाक्षरों द्वारा शुद्ध और रक्षित किया जा सकता है इसका भी वर्णन आया है । मन्त्रों में जया, बिजया, अजिता, अपराजिता, जम्मा, मोहा, गौरो और गान्धारी इन देवियों के लिए कौन-कौन बीजाक्षर जोड़कर मन्त्र तैयार किये जाते हैं, इसका विवेचन आया है । इस परिच्छेदके अन्तमें ४ रक्षामन्त्र हैं, जिनके द्वारा शरीर, स्थान, आसन आदिकी रक्षा की जाती। इस परिच्छेदमें कुल ८३ पद्य हैं। ज्वालमालिनीका ध्यान करनेकी विधि गृहनिग्रह निधान, भूताख्य गायत्रीमन्त्र और उसकी शक्ति, कामार्थक मन्त्र और उसकी तर्जनी मुद्रा, भंजन मन्त्र, भंजनमुद्रा, आध्यायनमन्त्र, आध्यायनमुद्राके वर्णनके पश्चात् बीजाक्षरों का ज्ञान और महत्व वणित है। बीजोंकी शक्तियों तथा द्वादश विधि-वीजाक्षर एवं साधनाविधि भी बतलायी गयी है।
चतुर्थ परिच्छेदमें ४४ पद्य हैं । इस परिच्छेदके प्रारम्भमें मण्डल बनानेकी विधि निबद्ध है। मन्त्रसिद्धिके लिए आठ हाथ चौरस भूमिमें मण्डल बनाया जाता है । मण्डल पाँच रंगोंके चूणेंसि चार द्वारों वाला एवं अनेक प्रकारको ध्वजा-पताकाओंसे युक्त होता है। पुरुष प्रवेश करनेके योग्य द्वार पर पीपलके
तोरण लगाकर सभी दिशाओंमें मुशलके समीप जालसे भरे हुए घटोंको स्थापित करे । इसके पूर्व आदि आठ कोणोंमें इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, बरुण, यम, कुबेर
और इंशान देवाको समस्त लक्षणों से युक्त करे। इन्द्रकी पीत, अग्निको अग्नितुल्ये , यमको अत्यन्त कृष्ण, नैऋतको हरित, वरुणको चन्द्रमाके समान, वायुको असित -धूमिल वर्ण, कुबेरको समस्त रंग मुक्त और ईशान देवको श्वेत वर्ण युक्त अंकित करे । इनके वाहन क्रमशः गज, मेघ महिष, शत्र, मकर, मृग, तुरंग और वृषभ हैं। इनके हाथों में वज्र अग्नि, दण्ड, शक्ति , तलवार, पाश, महातुरंग, दात्रि और शूल हैं । इन लोकपालोंक बीचमें देवीकी आकृति बनाये । अनन्तर मंत्रो की स्थापना कर पूजा करें। इस प्रकरण बिभिन्न प्रकारके मन्त्र भी दिये गये हैं तथा पश्योपचारका विधान है। इसके पश्चात् सर्वतोभद्र मण्डल बनाने की विधि वणित है । इस मण्डलमें मेघ, महामेघ, ज्वाल, लोल, काल, स्थित, अनील, रौद्र, अतिरौद्र, सजल, असजल, हिमका, हिमाचल, लुलित, महा
काल और नान्दिके अंकित करनेका निर्देश आया है।
समयमण्डल एवं विभिन्न मन्त्रोंका उल्लेख करनेके पश्चात् सत्यमण्डल रचनाको विधि दी गयी है। इन मण्डलों द्वारा मन्त्राराधनाकी विधि एवं महत्त्व
अंकित किया गया है।
पश्चम परिच्छेदमें २० पद्य हैं। इसमें भूता -कम्पन-तैलका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। इस तैलको बनाने में पूनिक, शुक-तुण्डिका, काकान्तुण्डिका, अश्वगन्धा, भृकुषमांडि, इन्द्र, बारुणी, पूति, दमन, अग्रगन्धा, श्रीपर्णी, असगंध, कुटज, कुकरंजा, मोशृंगि, शृंगिनाग, सर्पविष, मुष्टिक, अंजीर, भीलीसत्, चकांगी, खरकर्णी, गोररू, तवलेका, बिप, कनक, बराही, अंकोल, अस्थि, प्रम, लज्ज रिका, पाटलिका, काम, मदनतरु, भिलावा, काकजंघा, बन्ध्या, देवदारु, बुहती, सहदेवी, गिरिकणिका, नदिल्लिका, अकर्शेल हस्तिकर्णी, नीम, महानीम, सिरस, लोकेश्वरी, दान्य, पारिवृक्ष , महावृक्ष कटकहार, उपयोगिमल, श्वेत और लाल जयादि, ब्राह्मी, कोकिलाक्ष, मंग, देवपालि, कटुकबी, सिंहकेसकर, घोषालिका, अर्कभक्ति, पतिलता , मुक्तिलता, अतिमुक्तकलता, भगमुष्कि, नागकेशर, शार्दूल सुखी, पुत्रजीवी, शीग्रह, एरण्ड, तुलसी, सन्ध्या, अपामार्ग एवं गजमद आदि
औषधियोंका प्रयोग किया जाता है 1 उपयुक्त औषधियोंको कूट-पीस कर विभिन्न प्रकारकी वस्तुओं द्वारा भावना देनेकी विधि भी वर्णित है।
षष्ट परिच्छेदमें ४७ पद्य हैं। सर्वप्रथम सर्वरक्षामन्त्रकी विधिका वर्णन करते हुए द्वादश कमलपत्रों में बीजाक्षरोंको सुगन्धित द्रव्य द्वारा लिखनेका वर्णन आया है। यह मन्त्र रोग, पीडा, अपमृत्यु, भय, ग्रह और पिशाचपीड़ा आदिसे
रक्षा करता है । मोहनवश्य, स्त्री-आकर्षण, सनस्तम्भन, जिह्वास्तम्भन, क्रोध स्तम्भन आदिका भी वर्णन आया है। आवेष्टनमन्त्रके पश्चात विभिन्न प्रकार के यन्त्र बनानेकी प्रक्रियाका वर्णन आया है । यन्त्र-मन्त्रकी दृष्टिसे यह परिषद महत्त्वपूर्ण है।
सप्तम परिच्छेदमें ५१ पद्य हैं । शरपुंखी, सहदेवी, तुलसी, कस्तूरी, कर्पूर गौरोचन, गजमद, मनःशिला, दमनक, जातिपुष्प, धमीपुष्ण और हरिकांताको समभाग लेकर तिलक करनेसे सभी लोग वशमें होते हैं। इसी प्रकार इलायची, लौंग, चन्दन, तगर, कमल, कूट, कुकुम, उशीर, गौरोचन, नागकेशर, मनशिल, राजिका, हिक्का, तुलसी और पद्मास्त्रको समभाग लेकर पुष्प नक्षत्र में कन्यासे पिसवाये । इसका अंजन करनेसे सभीको पराजित किया जा सकता है। बशी करण और सुखदायक अंजनोंकी और भी कई विधियाँ वर्णितहै। बशीकरण अंजन एवं वश्यप्रयोग भी आये हैं। वश्यनमक, वश्यतैल, कामबारण, दारारिक चूर्ण, योनिशोधक लेप एवं सन्तानदायक औषधिका वर्णन आया है। ____ अष्टम परिच्छेदमें २५ पद्य हैं । इस प्रकरणमें देवीकी पूजाविविधा कथन आया है । सर्वप्रथम स्नानविधि, अंजनविधि, तिलकविधि, एवं देवी की आर धनाकी विभिन्न विधियाँ अंकित हैं। ज्वालामालिनी देबोकी पूजाविधि और पूजाफल भी वर्णित है । वसुधारामन्त्र, नवग्रहमन्त्र एवं विभिन्न अनुष्य मन्त्रों का कथन भी किया गया है।
नवम परिच्छेदमें २५ पद्य हैं और नीराजनविधि वणित हैं नीराजन द्रव्य के साथ मातृकाचनि एवं समन्त्र विभिन्न द्रव्यांसे देवीकी आरती और पूजाकी विधि आयी है।
दशम परिच्छेदमें २० पद्यों में शिष्यको विद्या देनेकी विधिकेनिरूपणके पश्चात् चन्द्रनाथपूजा, ज्वालामालिनीपूजा, हवन और जाप्येविधि, ज्वाल मालिनीस्तोत्र, मूलमन्त्र, मन्त्रोद्धार, वशीकरणमन्त्र, ज्वालामालिनी देवीके साधनकी तृतीय विधि, ध्यानमन्त्र, पञ्चोपचार मन्त्र, कौमारी देवी, बैष्णवोदेवी वाराहीदेवी, ऐन्द्रीदेवी, चामुण्डादेवी, एवं महालक्ष्मीदेवीकी पूजनविधि वर्णित है। गद्यमय ज्वालमालिनीस्तोत्र और चन्द्रप्रभस्तवनके अनन्तर ग्रन्थ समाप्त हुआ है । चन्द्रप्रभस्तोत्रमें शौरसेनी, मागधी, अपभ्रश, पैशाची, चूलिका पैशाची और संस्कृतका एक साथ प्रयोग किया गया है । शौरसेनी
विगद दुह देख मोहारि केदूदयं,
दलिद मुरु दुरिद मध बिहिद कुमुदक्वयं ।
नाचतं नदिजो सबर नद बच्छल
लहदि निञ्चदि गदि सोदहं णिम्मलं ।।
मागधी
अशुल शुल विलशन लनाय शेबिन पदे,
नमिल जय जंतु तुदिन्नशिब दुल पदे ।
चलन पुल निलद शिंशालि शलशी लुदे,
देहि मह शा मिव शालि शाशद पदे ।।
स्तोत्र बीजाक्षरगभित है और मन्त्रशास्त्रकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है ।
हमारा अनुमान है कि यह स्तोत्र इन्द्रनन्दि विरचित नहीं है, किसीने पीछेसे इसे जोड़ दिया है। मूल ग्रन्थ दशम परिच्छेदके अनन्तर समाप्त हो जाता है । अत: बादमें जितने पूजा-पाठ आये हैं, वे सभी अन्य किसीके द्वारा रचित हैं।
इस मन्त्रग्रन्थमें भारतकी ८-९वीं शतीकी मान्त्रिक परम्पराका संकलन किया गया है । आचार्यने जहां तहाँ पंचपरमेष्ठी और उनके बीजाक्षरोंका निर्देश कर सामान्य मन्त्रपरम्पराको जैनत्वका रूप दिया है । जैनदर्शन और जैनतत्त्व ज्ञानके साथ इसका कोई भी मेल नहीं है पर लोकविधिके अन्तर्गत इसकी उप योगिता है । मध्यकालमें फलाकांक्षी व्यक्ति श्रद्धानसे विचलित हो रहे थे, अत: उस युगमें जैन-मन्त्रोंका विधान कर जनसाधारणको इस लोकैषणामें स्थित किया है।
गुरु | आचार्य श्री बप्पनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री इंद्रनंदी प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Indranandi1st10ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री इन्द्रनन्दी प्रथम 10वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 29 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 29-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। किन्तु यहाँ मन्त्रशास्त्र विज्ञ ज्वालमालिनीकल्पके रचयिता इन्द्रनन्दि अभिप्रेत हैं। एकसन्धिभट्टा रक द्वारा विरचित जिनसंहितामें उनके पूर्ववर्ती आठ प्रतिष्ठाचार्योंका उल्लेख आया है ! आर्यपने शक सं० १२४१ (वि०सं०१३७६) में जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' नामक ग्रन्य लिखा है। इसमें ९ प्रतिष्ठाचार्योंके उल्लेख आये हैं, जिनमें एक इन्द्रनन्दिका भी है। किन्तु इन्द्रनन्दिके नामकी जो संहिता मिलती है, उसके रचयिता प्रस्तुत इन्द्रनन्दिसे भिन्न इन्द्रनन्दि हैं । पद्य निम्न प्रकार है
बीराचार्यसुपूज्यपादजिनसेनाचार्यसंभाषितो यः पूर्व गुणभद्रसूरिवसुनन्दीन्द्रादिनन्यूजितः । यश्चाशाधरस्तिमल्लकथितो यश्चैकसन्धिस्ततः ।
तेभ्यः स्वाहृत्सारमध्यरचित्तः स्याज्जैनपूजाक्रमः ॥ रायबहादुर डा.हीरालाल जीकी 'ACatlogue of Sanskrit And Fra krit Manscripts in the Cantral Provinces and Berar' नामक अन्यसूची नागपुरसे ई० सन् १९२६ में प्रकाशित हुई थी। इस ग्रन्थको प्रस्तावनामें इन्द्र नन्दिके सम्बन्धमें लिखा गया है १. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, पृ ० ६० |
By this author we have the work Jvalamalini-Kalpa. It deals with the cult of propitiating the goddess of fire, jvalamalini. The wok opens with an account of the circumstances of the origin of the cult. Elachatya, a sage and leader of Dravidagana, lived at. Hemagrama in Daksindesa. He had a .. female pupil name Kamala Sji. Once she became possessed of a Brahma-kakshasa under whose iniluence she indulged in all sorts of acts and talks decent or in decent. ......Elacharya sught the aid of Vahnidevata that dwelt on the top of the Nilagiri hills. He inculcated the art which Indra nandi long after him professes to expose in writing,
ज्वालमालिनीकल्पकी प्रशस्तिसे अवगत होता है कि इन्द्रनन्दि योगीन्द्र मन्त्रशास्त्रके विशिष्ट विद्वान थे तथा वासवनन्दिके प्रशिष्य और बप्पनन्दि के शिष्य थे। इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थको लेकर इस ज्वालमालिनी कल्पकी रचना की है। इस ग्रन्थ की आद्यप्रशस्तिके २२ वे पद्यमें ग्रन्थरचनाका प्रायः पूरा इतिवृत्त दिया गया है। देवीके आदेशसे ज्वालिनीमत नामक एक ग्रन्च मलय नामक दक्षिण देशके हेम नामक ग्राममें द्रविड़ाधीश्वर हेमाचार्ये रचा था। उनके शिष्य गङ्गमुनि, नीलग्रीव और बीजाब नामके हुए और सांतिरसञ्चा' नामक आर्यिका तथा 'बिरबट्ट' नामक क्षुल्लक भी हुआ | इस परिपाटी एवं
अविच्छिन्न सम्प्रदायसे चले आये हुए मन्त्रवादका यह ग्रन्थ कन्दर्पने जाना और उसने भी अपने पुत्र गुणन्दि नामक मुनिके प्रति व्याख्यान किया। इन दोनों के पास रहकर इन्द्रनन्दिने उस मन्त्रशास्त्रका ग्रन्थत: और अर्थतः विशेष रूपा से अध्ययन किया । इन्द्रनन्दिने उस क्लिष्ट प्राचीन शास्त्रको हृदयमें धारणकर ललित आर्या और गीतादि छन्दोंमें हेलाचार्यके उक्त अर्थको ग्रन्थ परिवर्तनके साथ सम्पूर्ण जगतको आश्चर्यचकित करने वाले इस ग्रन्थकी रचना की। राय बहादुर डॉ० हीरालाल जी ने इन्द्रनन्दिकी गुरुपरम्पराका उल्लेख निम्न प्रकार किया है।
द्राविड-गण
इन्द्रदेव
इन्द्रनन्दि (प्रथम)
बासबनन्दि
१. ज्वालामालिनीकल्प, सूरत संस्करण, प्रास्ताविक, पृ० ७ पर उद्धत । ।
वर्षनन्दि
हर्षनन्दि ( प्रथम )
हर्षनन्दि (द्वितीय)
इन्द्रनन्दि (द्वितीय)
इस गुरुपरम्परासे और अन्यत्र प्राप्त ग्रन्थप्रशस्तिसे विरोध आता है। बम्बई और कारंजाकी प्रतियोंमें निम्नलिखित पद्म प्राप्त होते हैं
स श्रीवासवनंदिसन्मुनिपति: शिष्यस्तदीयो भवेत् ॥
शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमतिविभवः ।
श्रीबपनंदिगुरुरिति बुबमधुपनिषेवित्तपदामः ।।
लोकं यस्य प्रसादादजान मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी
यस्याशास्तंभमूर्धान्यतिविमलयशः श्रीबितानो निबद्ध: ।
कालास्तायेन पौराणिककविवृषभा द्योतितास्तत्पुराण
व्याख्यानाबप्पनंदिनथितगुणगणस्तस्य किं वयतेऽन्न
शिष्यस्तस्येन्द्रनंदिविमलगुणगणोद्दामधामाभिरामः
प्रज्ञा-तीक्ष्णानधारा-विदलितबहलाज्ञानवल्लीवितानः' ।
श्री जैन सिद्धान्तभवन आराकी पाण्डुलिपिमें दशम परिच्छेदके अन्तमें जो प्रशस्ति दी गयी है, वह इससे भिन्न है। आग वाली प्रतिमें अंकित गुरु परम्परा रायबहादुर डा. हीरालालजी द्वारा उल्लिखित गुरुपरम्पराके समान है। यथा
स श्रीवासवनन्दिसन्मुनिपति: शिष्यस्तदीयो भवेत् ।।
शिव्यस्तस्य महात्मा चतुरनियोगेषु चतुरमिति विभवः ।
श्री वर्षनन्दिगुरुरिति बुधमघुपनिसेवितपदान्जः ।।
लोके यस्य प्रसादादनि मुनिजनः सत्पुराणार्थवेदी ।
यस्याशास्तम्भमूर्धन्यतिबिमलयशः श्रीवितानो निबद्धः
xxxपौराणिककविवृषभाद्योतितास्तत्पुराण
व्याख्यानाद-हर्षनन्दि प्रथितगुणस्तस्य किं वयतन
१. जैन प्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग, विल्ली पृ० १३८-१३९ पर उद्धत ।
शिध्यस्तस्येन्द्रनन्दिविमलगणगणोद्दामधामाभिराम:
प्रज्ञतीक्ष्णाम्बधागबिमलितबहलाज्ञानवल्ली बितानः ।
इन्द्रनन्दिने अपने इस ग्रन्थको रचनाका समय उद्धृत किया है। यह पद्म जैन सिद्धान्त भवन की
पद्मनन्द जी द्वारा प्रका शित प्रशस्तिसंग्रह में समान है । पद्म निम्नप्रकार है
अष्टशत्तस्यकपष्टि (८६१) प्रमाणशकवत्सरेष्वत्तीतेषु ।
श्रीमान्यस्वेटकटके पर्वण्यक्ष [य] तृतीयायाम् ।।
मतदलसहितचतुःगतपरिमाणग्रंथरचनाया युक्तं ।
श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्याः ।।
अर्थात्, इस ग्रन्थकी समाप्ति मान्यम्लेटमें (वर्तमान मलखेड़में) शक सं०८६१ ई० (सन् ९३९) में अक्षयतृतीयाके दिन हुई । अतएव स्पष्ट है कि आचार्य इन्द्र नन्दि योगीन्द्र का समय ई० सन् की दशम शताब्दीका पूर्वार्द्ध है। आचार्य नेमिचन्द्रने गुरुक रूपमें जिन इन्द्रनन्दिका उल्लेख किया है, समयकी दृष्टिसे वे यही इन्द्रनन्दि सम्भावित हो सकते हैं, पर विषयवस्तु और आगमज्ञानकी दृष्टि से ये दोनों इन्द्रनन्दि भिन्न प्रतीत होते हैं।
ज्वालमालिनीकल्प मन्त्रशास्त्रका उत्कृष्ट ग्रन्थ है। प्रस्तुत ग्रन्थ दश परिच्छेदों में विभक्त है । इन परिच्छेदोंके नाम निम्न प्रकार हैं
१. मन्त्रीलक्षण-अर्थात् मन्त्रमाधक के लक्षण ।
२. दिव्यादिव्यग्रह---दिव्यम्त्रीग्रह, दिव्यपुरुषग्रह, अदिव्यस्त्रीग्रह, अदिव्य
पुरुषग्रह ।
३. सकलीकरणक्रिया–अंशुद्धि, बीजाक्षरज्ञान ।
४. मण्डलपरिज्ञान- सामान्यमण्डल, सर्वतोभद्रमण्डल आदि मण्डलोंका
विवेचन ।
५. भूताकम्पन तेल
६. रक्षास्तम्भन-बश्य प्रकरण |
७. वशीकरण प्रकरण।
१. ज्दालमालिनीकल्प, आरा जैन सिद्धान्त भवनको हलिम्बित अन्तिम प्रशस्ति ।
२. जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प०१३९पर उधृत |
८. पूजनविधि प्रकरण ।
९. नीराजनविधि।
१०. शिष्यपरीक्षा एवं शिष्यप्रदेयस्तोत्र आदि विवरण ।
प्रथम परिच्छेद में ३५ पद्य हैं। मंगलाचरणके पश्चात् ज्वालामालिनी देवी के स्वरूपका वर्णन किया गया है। पश्चात् ग्रन्थरचनाका कारण बतलाते हुए कमलश्रीकी कथा अंकित है। कमलश्रीको ग्रहबाधा थी, जिसे ज्वालामालिनी देवी द्वारा मन्त्र प्राप्त कर दूर किया गया। इसी परिच्छेदमें गुरुपरम्पराका भी उल्लेख आया है। इस परम्परामें बताया है कि कदर्प नामक मुनिने इस मन्त्र शास्त्रका उपदेश गुणनन्दिको दिया और इन्द्रनन्दिने इन दोनोंसे इस ग्रन्थका अध्ययन किया । २८वं पद्यमें ग्रन्थकी विषयानुक्रमणिका अंकित है। ३०वें पद्यसे ३९वें पद्यपर्यन्त मन्त्रसाधकका लक्षण दिया गया है। मन्त्रसाधना करने वालेको गुरुभक्त, सत्यवादी, चतुर, ब्रह्मचारी और भक्तिपरायण होना चाहिये।
द्वित्तीय परिच्छेदमें ग्रहोंसे अभिभूत होने वाले व्यक्तियोंके लक्षणोंका वर्णन है। ग्रहोंके दिव्य और अदिव्य दो भेद कर कौन ग्रह किसको पीड़ा पहुँचाता है, इसका विस्तारसे वर्णन किया गया है । ग्रहोंको कीलित करनेके लिये बीजाक्षर
और ध्वनियाँ भी निबद्ध की गयी हैं। इस परिच्छेदम २२ पद्य हैं।
तृतीय परिच्छेदमें सकलीकरण क्रियाका शरीरके अंग और उपांगोंको किन किन बीजाक्षरों द्वारा शुद्ध और रक्षित किया जा सकता है इसका भी वर्णन आया है । मन्त्रों में जया, बिजया, अजिता, अपराजिता, जम्मा, मोहा, गौरो और गान्धारी इन देवियों के लिए कौन-कौन बीजाक्षर जोड़कर मन्त्र तैयार किये जाते हैं, इसका विवेचन आया है । इस परिच्छेदके अन्तमें ४ रक्षामन्त्र हैं, जिनके द्वारा शरीर, स्थान, आसन आदिकी रक्षा की जाती। इस परिच्छेदमें कुल ८३ पद्य हैं। ज्वालमालिनीका ध्यान करनेकी विधि गृहनिग्रह निधान, भूताख्य गायत्रीमन्त्र और उसकी शक्ति, कामार्थक मन्त्र और उसकी तर्जनी मुद्रा, भंजन मन्त्र, भंजनमुद्रा, आध्यायनमन्त्र, आध्यायनमुद्राके वर्णनके पश्चात् बीजाक्षरों का ज्ञान और महत्व वणित है। बीजोंकी शक्तियों तथा द्वादश विधि-वीजाक्षर एवं साधनाविधि भी बतलायी गयी है।
चतुर्थ परिच्छेदमें ४४ पद्य हैं । इस परिच्छेदके प्रारम्भमें मण्डल बनानेकी विधि निबद्ध है। मन्त्रसिद्धिके लिए आठ हाथ चौरस भूमिमें मण्डल बनाया जाता है । मण्डल पाँच रंगोंके चूणेंसि चार द्वारों वाला एवं अनेक प्रकारको ध्वजा-पताकाओंसे युक्त होता है। पुरुष प्रवेश करनेके योग्य द्वार पर पीपलके
तोरण लगाकर सभी दिशाओंमें मुशलके समीप जालसे भरे हुए घटोंको स्थापित करे । इसके पूर्व आदि आठ कोणोंमें इन्द्र, अग्नि, यम, नैऋत, बरुण, यम, कुबेर
और इंशान देवाको समस्त लक्षणों से युक्त करे। इन्द्रकी पीत, अग्निको अग्नितुल्ये , यमको अत्यन्त कृष्ण, नैऋतको हरित, वरुणको चन्द्रमाके समान, वायुको असित -धूमिल वर्ण, कुबेरको समस्त रंग मुक्त और ईशान देवको श्वेत वर्ण युक्त अंकित करे । इनके वाहन क्रमशः गज, मेघ महिष, शत्र, मकर, मृग, तुरंग और वृषभ हैं। इनके हाथों में वज्र अग्नि, दण्ड, शक्ति , तलवार, पाश, महातुरंग, दात्रि और शूल हैं । इन लोकपालोंक बीचमें देवीकी आकृति बनाये । अनन्तर मंत्रो की स्थापना कर पूजा करें। इस प्रकरण बिभिन्न प्रकारके मन्त्र भी दिये गये हैं तथा पश्योपचारका विधान है। इसके पश्चात् सर्वतोभद्र मण्डल बनाने की विधि वणित है । इस मण्डलमें मेघ, महामेघ, ज्वाल, लोल, काल, स्थित, अनील, रौद्र, अतिरौद्र, सजल, असजल, हिमका, हिमाचल, लुलित, महा
काल और नान्दिके अंकित करनेका निर्देश आया है।
समयमण्डल एवं विभिन्न मन्त्रोंका उल्लेख करनेके पश्चात् सत्यमण्डल रचनाको विधि दी गयी है। इन मण्डलों द्वारा मन्त्राराधनाकी विधि एवं महत्त्व
अंकित किया गया है।
पश्चम परिच्छेदमें २० पद्य हैं। इसमें भूता -कम्पन-तैलका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। इस तैलको बनाने में पूनिक, शुक-तुण्डिका, काकान्तुण्डिका, अश्वगन्धा, भृकुषमांडि, इन्द्र, बारुणी, पूति, दमन, अग्रगन्धा, श्रीपर्णी, असगंध, कुटज, कुकरंजा, मोशृंगि, शृंगिनाग, सर्पविष, मुष्टिक, अंजीर, भीलीसत्, चकांगी, खरकर्णी, गोररू, तवलेका, बिप, कनक, बराही, अंकोल, अस्थि, प्रम, लज्ज रिका, पाटलिका, काम, मदनतरु, भिलावा, काकजंघा, बन्ध्या, देवदारु, बुहती, सहदेवी, गिरिकणिका, नदिल्लिका, अकर्शेल हस्तिकर्णी, नीम, महानीम, सिरस, लोकेश्वरी, दान्य, पारिवृक्ष , महावृक्ष कटकहार, उपयोगिमल, श्वेत और लाल जयादि, ब्राह्मी, कोकिलाक्ष, मंग, देवपालि, कटुकबी, सिंहकेसकर, घोषालिका, अर्कभक्ति, पतिलता , मुक्तिलता, अतिमुक्तकलता, भगमुष्कि, नागकेशर, शार्दूल सुखी, पुत्रजीवी, शीग्रह, एरण्ड, तुलसी, सन्ध्या, अपामार्ग एवं गजमद आदि
औषधियोंका प्रयोग किया जाता है 1 उपयुक्त औषधियोंको कूट-पीस कर विभिन्न प्रकारकी वस्तुओं द्वारा भावना देनेकी विधि भी वर्णित है।
षष्ट परिच्छेदमें ४७ पद्य हैं। सर्वप्रथम सर्वरक्षामन्त्रकी विधिका वर्णन करते हुए द्वादश कमलपत्रों में बीजाक्षरोंको सुगन्धित द्रव्य द्वारा लिखनेका वर्णन आया है। यह मन्त्र रोग, पीडा, अपमृत्यु, भय, ग्रह और पिशाचपीड़ा आदिसे
रक्षा करता है । मोहनवश्य, स्त्री-आकर्षण, सनस्तम्भन, जिह्वास्तम्भन, क्रोध स्तम्भन आदिका भी वर्णन आया है। आवेष्टनमन्त्रके पश्चात विभिन्न प्रकार के यन्त्र बनानेकी प्रक्रियाका वर्णन आया है । यन्त्र-मन्त्रकी दृष्टिसे यह परिषद महत्त्वपूर्ण है।
सप्तम परिच्छेदमें ५१ पद्य हैं । शरपुंखी, सहदेवी, तुलसी, कस्तूरी, कर्पूर गौरोचन, गजमद, मनःशिला, दमनक, जातिपुष्प, धमीपुष्ण और हरिकांताको समभाग लेकर तिलक करनेसे सभी लोग वशमें होते हैं। इसी प्रकार इलायची, लौंग, चन्दन, तगर, कमल, कूट, कुकुम, उशीर, गौरोचन, नागकेशर, मनशिल, राजिका, हिक्का, तुलसी और पद्मास्त्रको समभाग लेकर पुष्प नक्षत्र में कन्यासे पिसवाये । इसका अंजन करनेसे सभीको पराजित किया जा सकता है। बशी करण और सुखदायक अंजनोंकी और भी कई विधियाँ वर्णितहै। बशीकरण अंजन एवं वश्यप्रयोग भी आये हैं। वश्यनमक, वश्यतैल, कामबारण, दारारिक चूर्ण, योनिशोधक लेप एवं सन्तानदायक औषधिका वर्णन आया है। ____ अष्टम परिच्छेदमें २५ पद्य हैं । इस प्रकरणमें देवीकी पूजाविविधा कथन आया है । सर्वप्रथम स्नानविधि, अंजनविधि, तिलकविधि, एवं देवी की आर धनाकी विभिन्न विधियाँ अंकित हैं। ज्वालामालिनी देबोकी पूजाविधि और पूजाफल भी वर्णित है । वसुधारामन्त्र, नवग्रहमन्त्र एवं विभिन्न अनुष्य मन्त्रों का कथन भी किया गया है।
नवम परिच्छेदमें २५ पद्य हैं और नीराजनविधि वणित हैं नीराजन द्रव्य के साथ मातृकाचनि एवं समन्त्र विभिन्न द्रव्यांसे देवीकी आरती और पूजाकी विधि आयी है।
दशम परिच्छेदमें २० पद्यों में शिष्यको विद्या देनेकी विधिकेनिरूपणके पश्चात् चन्द्रनाथपूजा, ज्वालामालिनीपूजा, हवन और जाप्येविधि, ज्वाल मालिनीस्तोत्र, मूलमन्त्र, मन्त्रोद्धार, वशीकरणमन्त्र, ज्वालामालिनी देवीके साधनकी तृतीय विधि, ध्यानमन्त्र, पञ्चोपचार मन्त्र, कौमारी देवी, बैष्णवोदेवी वाराहीदेवी, ऐन्द्रीदेवी, चामुण्डादेवी, एवं महालक्ष्मीदेवीकी पूजनविधि वर्णित है। गद्यमय ज्वालमालिनीस्तोत्र और चन्द्रप्रभस्तवनके अनन्तर ग्रन्थ समाप्त हुआ है । चन्द्रप्रभस्तोत्रमें शौरसेनी, मागधी, अपभ्रश, पैशाची, चूलिका पैशाची और संस्कृतका एक साथ प्रयोग किया गया है । शौरसेनी
विगद दुह देख मोहारि केदूदयं,
दलिद मुरु दुरिद मध बिहिद कुमुदक्वयं ।
नाचतं नदिजो सबर नद बच्छल
लहदि निञ्चदि गदि सोदहं णिम्मलं ।।
मागधी
अशुल शुल विलशन लनाय शेबिन पदे,
नमिल जय जंतु तुदिन्नशिब दुल पदे ।
चलन पुल निलद शिंशालि शलशी लुदे,
देहि मह शा मिव शालि शाशद पदे ।।
स्तोत्र बीजाक्षरगभित है और मन्त्रशास्त्रकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है ।
हमारा अनुमान है कि यह स्तोत्र इन्द्रनन्दि विरचित नहीं है, किसीने पीछेसे इसे जोड़ दिया है। मूल ग्रन्थ दशम परिच्छेदके अनन्तर समाप्त हो जाता है । अत: बादमें जितने पूजा-पाठ आये हैं, वे सभी अन्य किसीके द्वारा रचित हैं।
इस मन्त्रग्रन्थमें भारतकी ८-९वीं शतीकी मान्त्रिक परम्पराका संकलन किया गया है । आचार्यने जहां तहाँ पंचपरमेष्ठी और उनके बीजाक्षरोंका निर्देश कर सामान्य मन्त्रपरम्पराको जैनत्वका रूप दिया है । जैनदर्शन और जैनतत्त्व ज्ञानके साथ इसका कोई भी मेल नहीं है पर लोकविधिके अन्तर्गत इसकी उप योगिता है । मध्यकालमें फलाकांक्षी व्यक्ति श्रद्धानसे विचलित हो रहे थे, अत: उस युगमें जैन-मन्त्रोंका विधान कर जनसाधारणको इस लोकैषणामें स्थित किया है।
गुरु | आचार्य श्री बप्पनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री इंद्रनंदी प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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