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#Indranandi2ndPrachin
इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। श्रुतावतारके कर्ता और ज्यालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कई इन्द्रनन्दियोंके निर्देश प्राप्त हैं। वृत्तावतारके कर्ताको स्व. श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने गोम्मटसार और मल्लिषेणप्रशस्तिके इन्द्रनन्दिसे अभिन्न स्वीकार किया है। श्रुतावतारमें वीरसेन और जिनसेन आचार्य तकको ही सिद्धान्तरचनाका उल्लेख है | अतः यदि
नामचन्द्राचायक पीछे हुए हात तो बहुत सम्भव है कि गोम्मटसारका भी उल्लेख करते । चतुर्थ इन्द्रनन्दि नीतिसार अथवा समयभूषणके कर्ता है जो नेमिचन्द्र आचार्य के पश्चात् हुए हैं। उन्होंने नीतिसारके एक पद्यमें सोम देवादिकके साथ नेमिचन्द्रका भी नामोल्लेख किया है। पञ्चम इन्द्रनन्दि इन्द्र नन्दि-संहिताके रचयिता है। बहुत सम्भव है कि ये हो इन्द्रनन्दि पूजा-विधिके भी का हो । दायभागप्रकरणके अन्त में पायी जानेवाली गाथाओंसे बहत कुछ स्पष्टता प्राप्त होती है
पुज्ज पुज्जविहाणे जिणसेणाइवीरसेणगुरुजुत्तइ ।
पुज्जस्स या य गुणमहसूरीहि जह तहुट्टिा ।। ६३ ।।
धसुणंदि-इंदणदि य तह य मुणिएमसंधिगणिनाई (हि) ।
रचिया पुरजविही या पुवक्कमदो विपिपट्टिा ॥ ६४ ॥
गोयम-समंतभद्द य अचलं कसुमाहणदिमुणिणाहि ।
वसुणंदि-इंदणदिहि रचिया सा संहिता पमाणा हु ।। ६५ ।।
दूसरी गापामें वसुनन्दिके साथ एकसंषिमुनिका भी उल्लेख है, जो एक संधि-संहिताके कर्ता हैं, जिनका समय विक्रमको १३वीं शताब्दी है । अतएव इन इन्द्रनन्दिको एकसंधिमट्टारकके बावका विद्वान् मानना होगा। प्रेमोजीने छेद-पिण्डको इन्द्रनन्दिसहिताके कर्ताको कृति माना है और इसका प्रधान कारण यह है कि यह गन्ध उक्त संहितामें उसके चतुर्थ अध्यायके रूपमें समाविष्ट पाया जाता है। अतएव प्रेमौजीने छेद-पिण्डके कर्ताको १३वीं शताब्दीके बादका विद्वान माना है।
श्री आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने छेद-पिण्डको स्वतन्त्र कृति माना है
और उसका रचयिता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कोई अन्य इन्द्रनन्दि है । मुख्तार साहबने लिखा है- "मेरी रायमें यह छेद-पिण्ड बो अपनी रचना शैली आदि परसे एक व्यवस्थित स्वतन्त्र ग्रन्थ मालूम होता है। यदि उक्त इन्द्रनन्दि संहितामें भी पाया जाता है तो उसमें उसी तरह अपनाया गया है जिस तरह कि १७वीं शताब्दोकी बनी हुई भद्रबाहुसंहितामें "भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र' नामके एक प्राचीन ग्रन्थको अपनाया गया है और जिस तरह उसके उक्त प्रकार अपनाये जानेसे वह १७वीं शताब्दीका अन्य नहीं हो जाता, उसी तरह छेद-पिण्डके इन्द्रनन्दिसंहितामें समाविष्ट हो जानेमानसे यह वि० की १३वीं शताब्दीकी अथवा उसके बादकी कृति नहीं हो जाता । वास्तव में छेद-पिण्ड संहिता शास्त्रकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने विषयका एक बिल्कुल स्वतन्त्र ग्रन्थ है। यह बात उसके साहित्यको आद्योपान्त गौरसे पढ़नेपर भली प्रकार स्पष्ट हो जाती है। उसके अन्त में गाथा संख्या तथा श्लोक संख्याका दिया जाना और उसका अन्य परिमाण प्रकट करना भी इसी बातको पुष्ट करता है। यदि वह मूलत: और वस्तुत: संहिताका एक अंग होता तो ग्रन्थ परिमाण उसी तक सीमित न रह कर सारी संहिताका अन्य परिमाण होता और वह संहिताके हो अन्त में रहता, न कि उसके किसी अंगविशेषके अनन्तर । ____ आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट है कि छेद-पिण्ड एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसका समावेश इन्द्रनन्दिसंहितामें किया गया है। इसको साहित्यिक प्रौढ़ता, गम्भीरता और विषय-व्यवस्था भी इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ सिद्ध करती है । जीवशास्त्र और कल्पम्यवहार जैसे प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख होनेसे छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दिकी प्राचीनता स्वत: सिद्ध हो जाती है । थी आचार्य जुगलकिशोरजीने अनुमान किया था कि छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि मल्लिषेणप्रशस्तिमें निर्दिष्ट इन्द्रमन्दि है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके पद्यमें कहा गया है
भावेद छेदपिड जो एदं ईदणदिर्गाणरचिदं ।
लोइयलोउत्तरिए ववहारे होइ सो कुसलो ।।
इय इंदणदिजोइंदविरइयं सज्मणाण मलहरणं ।
विहियं तं भत्तीए सम्मसपसत्तचित्तण ॥
उपर्युक्त गाथाओंसे मिलता जुलता भाव मल्लिषेण प्रशस्तिके निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है
१. पुरातन जैन वाक्य सूची [प्रथम भाग], सम्पादक : आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार, __वीर सेवा मन्दिर, सन् १९५०, प्रस्तावना पु. १०८ ।
२. छेदपिण्ड, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक १८, गापा-३६१, ३६२ (१)।
दुरित-ग्रह-निग्रहाद्धयं यदि भो भूरि-नरेन्द्र-वन्दितम् ।
ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ।।
अर्थात् हे भव्यजीबो ! यदि तुम्हें दुरित-निगहोंसे-पापरूपी ग्रहके द्वारा पकड़े जानेसे कुछ भय होता है तो अनेक नरेन्द्र वन्दित्त इन्द्रनन्दि मुनिको भो।
इन्द्रनन्दि प्रायश्चित्त विधि द्वारा पापरूप ग्रहका निराकरण करनेवाले हैं । अतएव उनके प्रायश्चित्त शास्त्रके पढ़नेकी ओर किया गया संकेत प्रतीत होता है। छेद-पिण्ड ग्रन्थके प्रशस्ति पद्यमें भी इस शास्त्रको मलहरण करने वाला बताया है। अतएव यह अनुमान निर्दोष है कि मल्लिषेण प्रशस्तिमें उल्लिखित इन्द्रनन्दि ही छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि हैं । मल्लिषेण प्रशस्ति शक संवत् १०५०, फाल्गुन शुक्ला तृतीयाको अङ्कित की गयी है । अतएव इन्द्र नन्दिका समय इससे पूर्व होना चाहिए। हमारा अनुमान है कि इन इन्द्रनन्दिका समय ई० सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या ११वीं शतीका पूर्वाधं होना सम्भव है।
इन्द्रनन्दिका छेदपिण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थका प्रका सन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे विसं० १९७८ में हुआ है । प्रकाशित प्रतिमें ३६२ गाथाएं हैं, पर ग्रन्थमें निबद्ध गाथामें ३३३ ही गाथाओंकी संख्या बतायी है और लोक प्रमाण ४२० बताया गया है
चउरसयाई वीसुत्तराई गंथस्स परिमाणं ।
तेतीसुत्तरतिसयपमाणं गाहाणिबद्धस्स ।।
श्री प्रेमौजीने 'तेतीसुत्तर के स्थानपर 'बासट्युत्तर' पाठ स्वीकार किया है, पर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस मान्यताका खण्डन किया है और उन्होंने मूल गाथाएँ ३३३ ही मानी हैं। शेष गाथाओंको प्रक्षिप्त माना है। २२. गाथाएँ जहाँ-तहाँ प्रक्षिप्त रूपमें समाविष्ट हो गयी है । मुख्तार साहबने कुछ गाथाओंकी छान-बीनकर उन्हें प्रक्षिप्त सिद्ध किया है, पर हमें मुस्तार साहबफे सर्क समीचीन प्रतीत नहीं होते । हमने समस्त पन्ध ३६की अक्षर संख्या गिनकर छलोक मान निकाला तो ४२० लोकसे कुछ ही अक्षर बढ़ते हैं । अतएव इस ग्रन्थमें प्रक्षिप्त या ध्यर्षकी बढ़ी हुई गाथाओंमें न कहीं पुन
१. जैनशिलालेख संग्रह, माणिकचन्द्र पन्धमाला, प्रथम भाग, शिलालेख संख्या
५४, पद्म-२७, पृ० १०५ ।।
२. छेदपिण्ड माणिक चन्द्र अषमाला, पन्यांक-१८, गापा-३६० पु. ७५ ।।
रुक्ति है, और न ऐसा क्रम ही है जिससे कहीं भी प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना की जाय । लिपिकर्ताको असावधानीसे या अन्य किसी कारणवश तेतीसुत्तर' पाठ निह हो गया है। लांच जारलेपर २० इयोन माथाओंमें ही पूर्ण होती है।
आरम्भमें आचार्य ने प्रायश्चित्त, छेद, मल-हरण, पाप-नाशन, शुद्धि, पुष्य, पवित्र, पाबन-ये सब प्रायश्चित्तके नामान्तर बताये हैं। प्रायश्चित्तके द्वारा चित्तादिकी शुद्धि करके आत्म-विकासको प्राप्त किया जाता है । जो आत्म विकास अथवा मुक्तिको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपने दोषों-अपराधोंपर कड़ी दृष्टि रखने की आवश्यकता है। किस दोष या अपराधके लिए कौन-सा दण्ड या प्रायश्चित्त विहित है-यही इस ग्रन्थका वर्ण्य-विषय है। मुनि, आयिका, श्रावक और धाविकारूप चतुःसंघ और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप चतुर्विध वर्ण के सभी स्त्री-पुरुषोंको लक्ष्यकर नन्थ लिखा गया है। दोषोंके प्रकारों और उनके आगमादि विहित तपश्चरणादिरूप संशोधनोंका इसमें निर्देश और संकेत किया है। यह अनेक आचार्योंके उपदेशको अधिगत करके जीत और कल्प व्यवहारादि प्राचीन शास्त्रोंके आधारपर निर्मित है। आत्म-शुद्धिका साधन प्रायश्चित्त हो है । इस प्रायश्चित्तसे ही आत्मशुद्धि सम्भव है । आरम्भको ४० गाथाओंमें मूल गुणोंके पश्चात् प्रथम महाब्रतका वर्णन आया है । ग्रन्थका प्रथम मूल गुणाधिकार है और द्वितीय महानताधिकार । इस महाव्रताधिकारके अन्तर्गत प्रथम प्रकरण में प्रथम महावतका निरूपण किया है । द्वितीय और तुतीय महावताधिकार नामक तृतीय प्रकरण में ४१-४६ माथाए है । इन छ: गाथाओंमें द्वितीय और ततोय महावतका वर्णन किया है तथा इन व्रतोंमें होनेवाले दोषों और उनकी प्रायश्चित्त विधियोंका कथन आया है। चतुर्थ प्रकरण चतुर्थ महानताधिकार नामका है। इसमें ४७-६० गाथाएं हैं । इस व्रतम लगनेवाले दोषों और उन दोषोंको दूर करने हेतु उपवासादि प्रायश्चित्तोंका वर्णन है। पञ्चम प्रकरण पञ्चम महाप्रताधिकार नामका है। इसमें ६१से लेकर ६८ तक गाथाएं हैं। परिग्रह परिमाण महाव्रत में प्रमाद या अज्ञानतापूर्वक लगनेवाले दोषं और उनकी प्रायश्चित्तविधियोंका वर्णन आया है । षष्ठप्रकरण रात्रि भोजन त्याग नामक षष्ठवताधिकार आया है । इसमें ६९-७५ गाथाएं हैं । स्वप्नमें रात्रि भोजन करना, असमयमें भोजन करना, रोगावस्था या उपसविस्थामें बैठकर भोजन करना आदि दोषोंके प्राय विचतोंका वर्णन आया है। सप्तम प्रकरणसे लेकर एकादश प्रकरण तक १६ १०३ गाथाएं हैं। इनमें पञ्च समितियों में लगने वाले दोष और उनमें विहिल प्रायश्चित्तोंका काथन किया है। द्वादश इन्द्रिय निरोधाधिकारमें एक हो
गाथा है । इन्द्रियनिरोधमें होनेवाले अतिचारोंको शुद्धिके लिए एक, दो, तोन, चार और पांच उपवास करनेका वर्णन आया है। १३वो अधिकार केशलुसन्चाधिकार है । इसमें १०५-१०८ गाथाएं हैं। समयका अतिक्रमण कर केशलुश्च करना या आगमोक्त विधिके अनुसार कैशलुञ्च न करने सम्बन्धी प्रायश्चित्तोंका वर्णन है । चतुर्दश षडावश्यकाधिकारमें १०९-१२३, पञ्चदश अचेलकाधिकारमें १२४-२५, षोडश स्नान-अदन्त-मन-क्षिति शयनाधिकारमें १२६वीं गाथा, सप्तदश स्थिति भोजनकमवताधिकारमें १२वीं गाथा, अष्टादश उत्तरगुणाधिकारमें १२९-१५२ गाथाएँ, एकोनविंशति लिका प्रकरणमें १५३-१७३ गाथाएं",२०वें दशावध प्रायश्चित्ताधिकारमें १७४-१७५ गाथाए', २१वें आलोचनाधिकारमें १७७-१८१ गाथाएं, २२वें प्रतिक्रमणा धिकारमें १८२-१८७, सवें उभयाधिकारमें १८८-१८५ गाथाएँ, २४वें विवेका धिकारमें ११०–१९३ गाथाएं, २५वें व्युत्सर्गाधिकारमें ११४-२०२, २६वं तपाधिकारमें २०३-२०८, २२२-२४२, २७वें पंचकअधिकारमें २०९-२१५, २८वें मासिक चतुर्मासिक अधिकारमें २१६-२१८, २८वें षापमासिकाधिकारमें २१२-२२५, ३०वें छेदाधिकारमें २४३-२५२, ३१वें मूलाधिकारमें २५३-२६१, ३२वें स्वगणानुपस्थान अधिकारमें २६२-२६९, ३३ परगणानुपस्थान अधिकार में २७०-२७५,३३३ पारश्चिक अधिकारमें २७६-२८४, ३४वें श्रद्धानाधिकारमें २८५-२८७, ३५. ऋषि प्रायश्चित्त अधिकारमें २८८वीं गाया, ३६वें संयत्तिका या श्रवणो नाम अधिकारमें २८९-३०२ और ३७वें त्रिविधश्रावक प्रायश्चित्ताधि कारमें ३३५-३६९ गाथाएं आयी हैं । नामानुसार तत्तदधिकारमें होनेवाले दोष और उन दोषों के निराकरणार्थ प्रायश्चित्तविधिका वर्णन आया है । वस्तुतः यह प्रायश्चित्तशास्त्र आत्म-शुद्धिके लिए अत्यन्त उपयोगी है । मूलगुण और और उत्तरगुणोंमें प्रमाद या अज्ञानसे लगनेवाले दोषोंका कथन किया गया है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री इंद्रनंदी द्वितीय |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Indranandi2ndPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री इंद्रनंदि द्वितीय (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 03-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
इन्द्रनन्दि नामके कई आचार्योंके उल्लेख मिलते हैं। श्रुतावतारके कर्ता और ज्यालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कई इन्द्रनन्दियोंके निर्देश प्राप्त हैं। वृत्तावतारके कर्ताको स्व. श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने गोम्मटसार और मल्लिषेणप्रशस्तिके इन्द्रनन्दिसे अभिन्न स्वीकार किया है। श्रुतावतारमें वीरसेन और जिनसेन आचार्य तकको ही सिद्धान्तरचनाका उल्लेख है | अतः यदि
नामचन्द्राचायक पीछे हुए हात तो बहुत सम्भव है कि गोम्मटसारका भी उल्लेख करते । चतुर्थ इन्द्रनन्दि नीतिसार अथवा समयभूषणके कर्ता है जो नेमिचन्द्र आचार्य के पश्चात् हुए हैं। उन्होंने नीतिसारके एक पद्यमें सोम देवादिकके साथ नेमिचन्द्रका भी नामोल्लेख किया है। पञ्चम इन्द्रनन्दि इन्द्र नन्दि-संहिताके रचयिता है। बहुत सम्भव है कि ये हो इन्द्रनन्दि पूजा-विधिके भी का हो । दायभागप्रकरणके अन्त में पायी जानेवाली गाथाओंसे बहत कुछ स्पष्टता प्राप्त होती है
पुज्ज पुज्जविहाणे जिणसेणाइवीरसेणगुरुजुत्तइ ।
पुज्जस्स या य गुणमहसूरीहि जह तहुट्टिा ।। ६३ ।।
धसुणंदि-इंदणदि य तह य मुणिएमसंधिगणिनाई (हि) ।
रचिया पुरजविही या पुवक्कमदो विपिपट्टिा ॥ ६४ ॥
गोयम-समंतभद्द य अचलं कसुमाहणदिमुणिणाहि ।
वसुणंदि-इंदणदिहि रचिया सा संहिता पमाणा हु ।। ६५ ।।
दूसरी गापामें वसुनन्दिके साथ एकसंषिमुनिका भी उल्लेख है, जो एक संधि-संहिताके कर्ता हैं, जिनका समय विक्रमको १३वीं शताब्दी है । अतएव इन इन्द्रनन्दिको एकसंधिमट्टारकके बावका विद्वान् मानना होगा। प्रेमोजीने छेद-पिण्डको इन्द्रनन्दिसहिताके कर्ताको कृति माना है और इसका प्रधान कारण यह है कि यह गन्ध उक्त संहितामें उसके चतुर्थ अध्यायके रूपमें समाविष्ट पाया जाता है। अतएव प्रेमौजीने छेद-पिण्डके कर्ताको १३वीं शताब्दीके बादका विद्वान माना है।
श्री आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने छेद-पिण्डको स्वतन्त्र कृति माना है
और उसका रचयिता इन्द्रनन्दिसे भिन्न कोई अन्य इन्द्रनन्दि है । मुख्तार साहबने लिखा है- "मेरी रायमें यह छेद-पिण्ड बो अपनी रचना शैली आदि परसे एक व्यवस्थित स्वतन्त्र ग्रन्थ मालूम होता है। यदि उक्त इन्द्रनन्दि संहितामें भी पाया जाता है तो उसमें उसी तरह अपनाया गया है जिस तरह कि १७वीं शताब्दोकी बनी हुई भद्रबाहुसंहितामें "भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र' नामके एक प्राचीन ग्रन्थको अपनाया गया है और जिस तरह उसके उक्त प्रकार अपनाये जानेसे वह १७वीं शताब्दीका अन्य नहीं हो जाता, उसी तरह छेद-पिण्डके इन्द्रनन्दिसंहितामें समाविष्ट हो जानेमानसे यह वि० की १३वीं शताब्दीकी अथवा उसके बादकी कृति नहीं हो जाता । वास्तव में छेद-पिण्ड संहिता शास्त्रकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने विषयका एक बिल्कुल स्वतन्त्र ग्रन्थ है। यह बात उसके साहित्यको आद्योपान्त गौरसे पढ़नेपर भली प्रकार स्पष्ट हो जाती है। उसके अन्त में गाथा संख्या तथा श्लोक संख्याका दिया जाना और उसका अन्य परिमाण प्रकट करना भी इसी बातको पुष्ट करता है। यदि वह मूलत: और वस्तुत: संहिताका एक अंग होता तो ग्रन्थ परिमाण उसी तक सीमित न रह कर सारी संहिताका अन्य परिमाण होता और वह संहिताके हो अन्त में रहता, न कि उसके किसी अंगविशेषके अनन्तर । ____ आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारके उपर्युक्त कथनसे स्पष्ट है कि छेद-पिण्ड एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसका समावेश इन्द्रनन्दिसंहितामें किया गया है। इसको साहित्यिक प्रौढ़ता, गम्भीरता और विषय-व्यवस्था भी इसे स्वतन्त्र ग्रन्थ सिद्ध करती है । जीवशास्त्र और कल्पम्यवहार जैसे प्राचीन ग्रन्थोंका उल्लेख होनेसे छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दिकी प्राचीनता स्वत: सिद्ध हो जाती है । थी आचार्य जुगलकिशोरजीने अनुमान किया था कि छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि मल्लिषेणप्रशस्तिमें निर्दिष्ट इन्द्रमन्दि है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिके पद्यमें कहा गया है
भावेद छेदपिड जो एदं ईदणदिर्गाणरचिदं ।
लोइयलोउत्तरिए ववहारे होइ सो कुसलो ।।
इय इंदणदिजोइंदविरइयं सज्मणाण मलहरणं ।
विहियं तं भत्तीए सम्मसपसत्तचित्तण ॥
उपर्युक्त गाथाओंसे मिलता जुलता भाव मल्लिषेण प्रशस्तिके निम्नलिखित पद्यमें पाया जाता है
१. पुरातन जैन वाक्य सूची [प्रथम भाग], सम्पादक : आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार, __वीर सेवा मन्दिर, सन् १९५०, प्रस्तावना पु. १०८ ।
२. छेदपिण्ड, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक १८, गापा-३६१, ३६२ (१)।
दुरित-ग्रह-निग्रहाद्धयं यदि भो भूरि-नरेन्द्र-वन्दितम् ।
ननु तेन हि भव्यदेहिनो भजत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ।।
अर्थात् हे भव्यजीबो ! यदि तुम्हें दुरित-निगहोंसे-पापरूपी ग्रहके द्वारा पकड़े जानेसे कुछ भय होता है तो अनेक नरेन्द्र वन्दित्त इन्द्रनन्दि मुनिको भो।
इन्द्रनन्दि प्रायश्चित्त विधि द्वारा पापरूप ग्रहका निराकरण करनेवाले हैं । अतएव उनके प्रायश्चित्त शास्त्रके पढ़नेकी ओर किया गया संकेत प्रतीत होता है। छेद-पिण्ड ग्रन्थके प्रशस्ति पद्यमें भी इस शास्त्रको मलहरण करने वाला बताया है। अतएव यह अनुमान निर्दोष है कि मल्लिषेण प्रशस्तिमें उल्लिखित इन्द्रनन्दि ही छेद-पिण्डके रचयिता इन्द्रनन्दि हैं । मल्लिषेण प्रशस्ति शक संवत् १०५०, फाल्गुन शुक्ला तृतीयाको अङ्कित की गयी है । अतएव इन्द्र नन्दिका समय इससे पूर्व होना चाहिए। हमारा अनुमान है कि इन इन्द्रनन्दिका समय ई० सन् की दशम शताब्दीका उत्तरार्द्ध या ११वीं शतीका पूर्वाधं होना सम्भव है।
इन्द्रनन्दिका छेदपिण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थका प्रका सन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे विसं० १९७८ में हुआ है । प्रकाशित प्रतिमें ३६२ गाथाएं हैं, पर ग्रन्थमें निबद्ध गाथामें ३३३ ही गाथाओंकी संख्या बतायी है और लोक प्रमाण ४२० बताया गया है
चउरसयाई वीसुत्तराई गंथस्स परिमाणं ।
तेतीसुत्तरतिसयपमाणं गाहाणिबद्धस्स ।।
श्री प्रेमौजीने 'तेतीसुत्तर के स्थानपर 'बासट्युत्तर' पाठ स्वीकार किया है, पर आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस मान्यताका खण्डन किया है और उन्होंने मूल गाथाएँ ३३३ ही मानी हैं। शेष गाथाओंको प्रक्षिप्त माना है। २२. गाथाएँ जहाँ-तहाँ प्रक्षिप्त रूपमें समाविष्ट हो गयी है । मुख्तार साहबने कुछ गाथाओंकी छान-बीनकर उन्हें प्रक्षिप्त सिद्ध किया है, पर हमें मुस्तार साहबफे सर्क समीचीन प्रतीत नहीं होते । हमने समस्त पन्ध ३६की अक्षर संख्या गिनकर छलोक मान निकाला तो ४२० लोकसे कुछ ही अक्षर बढ़ते हैं । अतएव इस ग्रन्थमें प्रक्षिप्त या ध्यर्षकी बढ़ी हुई गाथाओंमें न कहीं पुन
१. जैनशिलालेख संग्रह, माणिकचन्द्र पन्धमाला, प्रथम भाग, शिलालेख संख्या
५४, पद्म-२७, पृ० १०५ ।।
२. छेदपिण्ड माणिक चन्द्र अषमाला, पन्यांक-१८, गापा-३६० पु. ७५ ।।
रुक्ति है, और न ऐसा क्रम ही है जिससे कहीं भी प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना की जाय । लिपिकर्ताको असावधानीसे या अन्य किसी कारणवश तेतीसुत्तर' पाठ निह हो गया है। लांच जारलेपर २० इयोन माथाओंमें ही पूर्ण होती है।
आरम्भमें आचार्य ने प्रायश्चित्त, छेद, मल-हरण, पाप-नाशन, शुद्धि, पुष्य, पवित्र, पाबन-ये सब प्रायश्चित्तके नामान्तर बताये हैं। प्रायश्चित्तके द्वारा चित्तादिकी शुद्धि करके आत्म-विकासको प्राप्त किया जाता है । जो आत्म विकास अथवा मुक्तिको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें अपने दोषों-अपराधोंपर कड़ी दृष्टि रखने की आवश्यकता है। किस दोष या अपराधके लिए कौन-सा दण्ड या प्रायश्चित्त विहित है-यही इस ग्रन्थका वर्ण्य-विषय है। मुनि, आयिका, श्रावक और धाविकारूप चतुःसंघ और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप चतुर्विध वर्ण के सभी स्त्री-पुरुषोंको लक्ष्यकर नन्थ लिखा गया है। दोषोंके प्रकारों और उनके आगमादि विहित तपश्चरणादिरूप संशोधनोंका इसमें निर्देश और संकेत किया है। यह अनेक आचार्योंके उपदेशको अधिगत करके जीत और कल्प व्यवहारादि प्राचीन शास्त्रोंके आधारपर निर्मित है। आत्म-शुद्धिका साधन प्रायश्चित्त हो है । इस प्रायश्चित्तसे ही आत्मशुद्धि सम्भव है । आरम्भको ४० गाथाओंमें मूल गुणोंके पश्चात् प्रथम महाब्रतका वर्णन आया है । ग्रन्थका प्रथम मूल गुणाधिकार है और द्वितीय महानताधिकार । इस महाव्रताधिकारके अन्तर्गत प्रथम प्रकरण में प्रथम महावतका निरूपण किया है । द्वितीय और तुतीय महावताधिकार नामक तृतीय प्रकरण में ४१-४६ माथाए है । इन छ: गाथाओंमें द्वितीय और ततोय महावतका वर्णन किया है तथा इन व्रतोंमें होनेवाले दोषों और उनकी प्रायश्चित्त विधियोंका कथन आया है। चतुर्थ प्रकरण चतुर्थ महानताधिकार नामका है। इसमें ४७-६० गाथाएं हैं । इस व्रतम लगनेवाले दोषों और उन दोषोंको दूर करने हेतु उपवासादि प्रायश्चित्तोंका वर्णन है। पञ्चम प्रकरण पञ्चम महाप्रताधिकार नामका है। इसमें ६१से लेकर ६८ तक गाथाएं हैं। परिग्रह परिमाण महाव्रत में प्रमाद या अज्ञानतापूर्वक लगनेवाले दोषं और उनकी प्रायश्चित्तविधियोंका वर्णन आया है । षष्ठप्रकरण रात्रि भोजन त्याग नामक षष्ठवताधिकार आया है । इसमें ६९-७५ गाथाएं हैं । स्वप्नमें रात्रि भोजन करना, असमयमें भोजन करना, रोगावस्था या उपसविस्थामें बैठकर भोजन करना आदि दोषोंके प्राय विचतोंका वर्णन आया है। सप्तम प्रकरणसे लेकर एकादश प्रकरण तक १६ १०३ गाथाएं हैं। इनमें पञ्च समितियों में लगने वाले दोष और उनमें विहिल प्रायश्चित्तोंका काथन किया है। द्वादश इन्द्रिय निरोधाधिकारमें एक हो
गाथा है । इन्द्रियनिरोधमें होनेवाले अतिचारोंको शुद्धिके लिए एक, दो, तोन, चार और पांच उपवास करनेका वर्णन आया है। १३वो अधिकार केशलुसन्चाधिकार है । इसमें १०५-१०८ गाथाएं हैं। समयका अतिक्रमण कर केशलुश्च करना या आगमोक्त विधिके अनुसार कैशलुञ्च न करने सम्बन्धी प्रायश्चित्तोंका वर्णन है । चतुर्दश षडावश्यकाधिकारमें १०९-१२३, पञ्चदश अचेलकाधिकारमें १२४-२५, षोडश स्नान-अदन्त-मन-क्षिति शयनाधिकारमें १२६वीं गाथा, सप्तदश स्थिति भोजनकमवताधिकारमें १२वीं गाथा, अष्टादश उत्तरगुणाधिकारमें १२९-१५२ गाथाएँ, एकोनविंशति लिका प्रकरणमें १५३-१७३ गाथाएं",२०वें दशावध प्रायश्चित्ताधिकारमें १७४-१७५ गाथाए', २१वें आलोचनाधिकारमें १७७-१८१ गाथाएं, २२वें प्रतिक्रमणा धिकारमें १८२-१८७, सवें उभयाधिकारमें १८८-१८५ गाथाएँ, २४वें विवेका धिकारमें ११०–१९३ गाथाएं, २५वें व्युत्सर्गाधिकारमें ११४-२०२, २६वं तपाधिकारमें २०३-२०८, २२२-२४२, २७वें पंचकअधिकारमें २०९-२१५, २८वें मासिक चतुर्मासिक अधिकारमें २१६-२१८, २८वें षापमासिकाधिकारमें २१२-२२५, ३०वें छेदाधिकारमें २४३-२५२, ३१वें मूलाधिकारमें २५३-२६१, ३२वें स्वगणानुपस्थान अधिकारमें २६२-२६९, ३३ परगणानुपस्थान अधिकार में २७०-२७५,३३३ पारश्चिक अधिकारमें २७६-२८४, ३४वें श्रद्धानाधिकारमें २८५-२८७, ३५. ऋषि प्रायश्चित्त अधिकारमें २८८वीं गाया, ३६वें संयत्तिका या श्रवणो नाम अधिकारमें २८९-३०२ और ३७वें त्रिविधश्रावक प्रायश्चित्ताधि कारमें ३३५-३६९ गाथाएं आयी हैं । नामानुसार तत्तदधिकारमें होनेवाले दोष और उन दोषों के निराकरणार्थ प्रायश्चित्तविधिका वर्णन आया है । वस्तुतः यह प्रायश्चित्तशास्त्र आत्म-शुद्धिके लिए अत्यन्त उपयोगी है । मूलगुण और और उत्तरगुणोंमें प्रमाद या अज्ञानसे लगनेवाले दोषोंका कथन किया गया है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री इंद्रनंदी द्वितीय |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Indranandi 2 nd ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 03-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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