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#Jaysen1stPrachin
धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थ के रचयिता आचार्य जयसेन लाङबागड़ संघ के विद्वान थे ! उन्होंने धर्मरत्नाकरकी अन्तिम प्रशस्तिमें अपनी गुरु-परम्परा अंकित की है। इस परम्परामें बताया है कि धर्मसेनके शिष्य शान्तिषेण, शान्तिषेणके गोपसेन, गोपसेनके भावसेन और भावसेनके शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंश को योगीन्द्रवंश कहा है । प्रशस्तिमें लिखा है
श्रीमान्सोभून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणींद्र---
स्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ।।३।।
तेभ्यः श्री (तस्माच्छौ। शांतिषणः समनि सुगुरुः पापधूली-समीरः ||४।।
वृद्धा च संतत्तमनेकजनोपभोग्या श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स तस्मात् ।।५।।
न ज्ञातः कलिना जगत्सुलिना श्रीभावसेनस्ततः ।।६।।
ततो जात: शिष्यः सकल जनतानंदजनकः
प्रसिद्धसाधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ।
१. पद्यनन्दिपञ्चविंशति, २६|८ ।
इदं चक्र शास्त्रं जिनसमय-सारार्थ-निचिंत
हितार्थ जंतुना स्वमत्तिविभवाद्गर्व-विकलः ||७||
धर्मरत्नाकर में जयमेन प्रथमने उसका रचनाकाल अंकित किया है। सर स्वतीभवन व्याघरकी प्रतिमें रचनाकालका निर्देश करनेवाला निम्नलिखित पद्य उपलब्ध होता है
बाणेन्द्रियव्योमसोम-मिते संवत्सरे शुभे १०५५!
ग्रन्थोऽयं सिद्धता यातः सबलीकरहाटके ।।
अर्थात् वि० सं० १०५५ में सबलीकरहाटक नामक स्थानमें धर्मरत्नाकरकी समाप्ति हुई है । अत: जयसेन प्रथमके समयके सम्बन्ध में किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है।
जयसेनने धर्मरत्नाकरमें आचार्य अतः पुरुषार्थसिशुराय सथा सोमदेवमूरिके उपासकाध्ययनसे अनेक पद्य उद्धत किये हैं। यशस्तिलकचम्पकी अन्तिम प्रशस्तिके आधारपर सोमदेवका समय वि० सं० १०१६ है और अमृतचन्द्र आचार्यका विक्रमकी दशम शताब्दीका तृतीय चरण है। धर्मरत्नाकर में तत्वानु शासनका भी एक पद्य उद्धत है । अतएव जयसेनका समय रामसेनके समकालीन अथवा दो-चार वर्ष पश्चात् ही होना चाहिये। धर्मरत्नाकरके उल्लेखोंके आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र और तत्वानुशासनका ममय विक्रमकी ११वीं शतीका प्रथम चरण सम्भव है । अतएव धर्मरत्नाकर में जो उसका रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया गया है उसकी पुष्टि अन्य प्रमाणोंसे भी होती है ।
आचार्य जयसेन प्रथमकी एक ही रचना प्राप्त है, धर्मरत्नाकर । इस ग्रन्थ का विषय नामानुसार आचार और तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध है । ग्रन्थ अवसरोंमें विभक्त है और समस्त विषयोंका समावेश बीम अवसरों में किया मया है। ग्रन्थ
के अन्तिम अबसरमें लिखा है
यस्या नवोरमान किमपि हि सकलद्योतकेषु प्रतयं--
मत्येनकेन नित्यं इलथयति सकलं बस्तुतत्वं विवक्ष्यं ।
अन्येनान्त्येन नीति जिनपत्तिमहिता संविकर्षत्यजन,
गोपी मंधानवद्या जगति बिजयतां सा सरली मुक्तिलक्ष्म्याः ॥६६।।
इतिथीसूरिश्रीजयसेनबिरचिते धर्मरत्नाकरे उक्ताऽनुक्तशेषविशेषसुचको विशतितमोऽवसरः ।
भर्मरत्नाकरमें रत्नत्रय, श्रावकके द्वादशवत, सप्ततत्त्व आदिका विस्तृत वर्णन आया है।
गुरु | आचार्य श्री भावसेन जी |
शिष्य | आचार्य श्री जयसेन प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Jaysen1stPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री जयसेन प्रथम (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 26 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थ के रचयिता आचार्य जयसेन लाङबागड़ संघ के विद्वान थे ! उन्होंने धर्मरत्नाकरकी अन्तिम प्रशस्तिमें अपनी गुरु-परम्परा अंकित की है। इस परम्परामें बताया है कि धर्मसेनके शिष्य शान्तिषेण, शान्तिषेणके गोपसेन, गोपसेनके भावसेन और भावसेनके शिष्य जयसेन थे। इन्होंने अपने वंश को योगीन्द्रवंश कहा है । प्रशस्तिमें लिखा है
श्रीमान्सोभून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणींद्र---
स्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ।।३।।
तेभ्यः श्री (तस्माच्छौ। शांतिषणः समनि सुगुरुः पापधूली-समीरः ||४।।
वृद्धा च संतत्तमनेकजनोपभोग्या श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स तस्मात् ।।५।।
न ज्ञातः कलिना जगत्सुलिना श्रीभावसेनस्ततः ।।६।।
ततो जात: शिष्यः सकल जनतानंदजनकः
प्रसिद्धसाधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ।
१. पद्यनन्दिपञ्चविंशति, २६|८ ।
इदं चक्र शास्त्रं जिनसमय-सारार्थ-निचिंत
हितार्थ जंतुना स्वमत्तिविभवाद्गर्व-विकलः ||७||
धर्मरत्नाकर में जयमेन प्रथमने उसका रचनाकाल अंकित किया है। सर स्वतीभवन व्याघरकी प्रतिमें रचनाकालका निर्देश करनेवाला निम्नलिखित पद्य उपलब्ध होता है
बाणेन्द्रियव्योमसोम-मिते संवत्सरे शुभे १०५५!
ग्रन्थोऽयं सिद्धता यातः सबलीकरहाटके ।।
अर्थात् वि० सं० १०५५ में सबलीकरहाटक नामक स्थानमें धर्मरत्नाकरकी समाप्ति हुई है । अत: जयसेन प्रथमके समयके सम्बन्ध में किसी भी प्रकारका विवाद नहीं है।
जयसेनने धर्मरत्नाकरमें आचार्य अतः पुरुषार्थसिशुराय सथा सोमदेवमूरिके उपासकाध्ययनसे अनेक पद्य उद्धत किये हैं। यशस्तिलकचम्पकी अन्तिम प्रशस्तिके आधारपर सोमदेवका समय वि० सं० १०१६ है और अमृतचन्द्र आचार्यका विक्रमकी दशम शताब्दीका तृतीय चरण है। धर्मरत्नाकर में तत्वानु शासनका भी एक पद्य उद्धत है । अतएव जयसेनका समय रामसेनके समकालीन अथवा दो-चार वर्ष पश्चात् ही होना चाहिये। धर्मरत्नाकरके उल्लेखोंके आधार पर आचार्य अमृतचन्द्र और तत्वानुशासनका ममय विक्रमकी ११वीं शतीका प्रथम चरण सम्भव है । अतएव धर्मरत्नाकर में जो उसका रचनाकाल वि० सं० १०५५ दिया गया है उसकी पुष्टि अन्य प्रमाणोंसे भी होती है ।
आचार्य जयसेन प्रथमकी एक ही रचना प्राप्त है, धर्मरत्नाकर । इस ग्रन्थ का विषय नामानुसार आचार और तत्त्वज्ञानसे सम्बद्ध है । ग्रन्थ अवसरोंमें विभक्त है और समस्त विषयोंका समावेश बीम अवसरों में किया मया है। ग्रन्थ
के अन्तिम अबसरमें लिखा है
यस्या नवोरमान किमपि हि सकलद्योतकेषु प्रतयं--
मत्येनकेन नित्यं इलथयति सकलं बस्तुतत्वं विवक्ष्यं ।
अन्येनान्त्येन नीति जिनपत्तिमहिता संविकर्षत्यजन,
गोपी मंधानवद्या जगति बिजयतां सा सरली मुक्तिलक्ष्म्याः ॥६६।।
इतिथीसूरिश्रीजयसेनबिरचिते धर्मरत्नाकरे उक्ताऽनुक्तशेषविशेषसुचको विशतितमोऽवसरः ।
भर्मरत्नाकरमें रत्नत्रय, श्रावकके द्वादशवत, सप्ततत्त्व आदिका विस्तृत वर्णन आया है।
गुरु | आचार्य श्री भावसेन जी |
शिष्य | आचार्य श्री जयसेन प्रथम |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Jaysen 1 st ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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