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#Jaysen2nd12ThCentury
आचार्ग जयसेन द्वितीय भी अमृतचन्द्रसुरिके समान कुन्दकुन्द ग्रंथो के टीकाकार हैं। उन्होंने समयसारको टीकामें अमृतचन्द्रवे नामका उल्लेख किया है और उनकी टीकाके कतिपय पद्य भी यथास्थान उद्धृत किये हैं। अतः यह निश्चित है कि जयसेनके समक्ष अमृतचन्द्रसूरिकी टीका विद्यमान थी, पर शैली और अर्थकी दृष्टिसे उनकी यह टीका अमृतचन्द्रसूरिकी अपेक्षा भिन्न है।
प्रवचनसार को टोकाके अन्त में आठ पद्योंमें एक प्रशस्ति दी गयी है। इस प्रशस्तिमें गुरुपरम्पराका परिचय निम्न प्रकार आया है
ततः श्रीमोमरोनो भूद्गणी मुणगणाग्नयः ।
तद्विनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ।।
शीघ्र बभूव मालुसाधुः सदा धर्मरतो वदान्यः ।
सनुस्ततः साधुमहीपत्तिर्यस्तस्मादयं चारभटस्तनुजः ।।
य: संततं सर्वविदः सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभूतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभोरः ।।
अर्थात् मूलसंधके निर्ग्रन्थ तपस्वी वीरसेनाचार्य हुए। उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनके शिष्य आचार्य जयसेन हुए । सदा धर्ममें रत प्रसिद्ध मालु नामके साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है । उनसे यह चारुभट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ है जो सर्वज्ञकी पूजा तथा सदा आचार्योंके चरणोंकी आराधनापूर्वक सेवा करता है। उस चारभट अर्थात् जयसेनाचार्य ने अपने पिताकी भक्तिके विलोप होनेसे भयभीत हो इस प्राभृत नामक अन्यकी टीका की है। ___ श्रीमान त्रिभुवनचन्द्र गुरुको नमस्कार करता हूँ जो आत्माके भावरूपी जलको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वतके सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य के गुरुका नाम सोमसेन और दादा गुरुका नाम वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरुको भी नमस्कार किया है, पर प्रशस्तिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये त्रिभुवनचन्द्र कौन हैं ? इतना स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं। इन्होंने अन्य किसी टीकामें अपनापरिचय नहीं दिया है।
१. प्रवचनसार, जयसेनटीकाकी प्रशस्ति, पद्य ३, ४, ५ ।
जयसेनाचार्यने अपनी टीकाओं में अनेक श्लोक और गाथाएँ अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत की हैं। इन श्लोकों और गाथाओं की परीक्षा करनेसे जयसेनाचार्य के समय पर प्रकाश पड़ता है। उद्धृत समस्त पद्योंकी छानबीन करना तो शक्य नहीं, पर उन्होंने द्रव्यसंग्रह, तत्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकमार और लोक विभाग प्रभूति ग्रन्थों का उल्लेख किया है। चारित्रसारके रचयिता चामुण्डराय हैं और इन्हींके समकालीन आचार्य नेमचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने त्रिलोकसारको रचना की है । चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक संवत् .९०० ( ई० सन् ९७८ ) में समाप्त किया है। अतः निश्चित है कि जयसेन ई० सन् १७८ के पश्चात् ही हुए हैं। उनके समयकी यह सीमा पूर्वाद्धं सीमाके रूममें मानी जा
सकती है।
जयसेनने पञ्चास्तिकायको टीका ( पृ ८ ) में वीरनन्दिके 'आचारसार' ( ४|९.५-९६ ) के दो पद्य उद्धृत किये हैं। कर्नाटकविचरितके अनुसार इन वीरनन्दि अपने आचारसारपर एक कन्नड़-टीका शक संवत् १०७६ ( ई. सन ११५४ ) में लिखी है । अतः जयसेन ई० सन् १९५० के पश्चात् ही हुए है।
डॉ० ए० एन० उपाध्येने लिखा है कि नयकीर्तिके शिष्य बालचन्द्रने कुन्द कुन्दके तीनों प्राभूतोंपर कन्नड़में टीका लिखी है और उनकी टीकाका मूलाधार जयसेनको टीकाएँ हैं। इनकी टीकाका रचनाकाल ई. सन् की १३वौं शताब्दी का प्रथम चरण है। अत: जयमेनका समय इससे पूर्व ई० सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दीका पूर्वाध माना जा सकता है।
जयसेनाचार्यने कुन्दकुन्दने समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय इन तीनों ग्रंथों पर अपनी टीकाएं लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा की गयी टीकासे भिन्न शैलीमें अपनी टीका लिखी है। अमृतचन्द्रने समयसारमें जहाँ ४१५ गाथाओंपर टीकाएँ लिखी हैं, वहाँ जयसेनाचार्यने ४४५ गाथाओंपर | इनकी टीकाओंकी यह प्रमुख विशेषता है कि प्रत्येक गाथाके पदोंका शब्दार्थ पहले स्पष्ट करते हैं, तदनन्तर "अयमत्राभि प्रायः " आदि लिखकर उसका स्पष्टी करण करते हैं। इनकी टीकाओंका नाम तात्पर्यवृत्ति है। शब्दशः समस्त मल ग्रन्थ टीकामें ममाविष्ट है। इसके अतिरिक्त अनेक उद्धरण भी टीकामें दिये हैं। इससे इनकी अध्ययनशीलता व्यक्त होती है। समयसारकी टीकामें सिद्ध भक्ति, मूलाचार, परमात्मप्रकाश, गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंके उद्धरण उपलब्ध हैं। प्रवचनसारको टीका आरम्भ करते हुए बताया है कि मध्यमरूचिधारी
१. प्रवचनसार, प्रस्तावना, पृ० १०४ ।
शिष्यको समझाने के लिए मुख्य तथा गोणरूपसे अन्तरंगतत्व और बाह्यतत्व इनके वर्णन करनेके लिए १०१ गाथाओंमें ज्ञानाधिकार कहेंगे । तदनन्तर ११३ गाथाओंमें दर्शनाधिकार और २७ गाथाओंमें चारित्राधिकारका वर्णन किया जायगा । इस तरह समुदायसे ३११ सूत्रों द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप तीन महाधिकार हैं । अथवा टीकाके अभिप्रायसे सम्यकज्ञान, ज्ञेय और चारित्राधिकार चूलिकासहित तीन अधिकार हैं। उत्थानिकामें बताया है-"अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षण सुखामृतविपरीतचतुर्गतिसंसारदुःखभयभीत: समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशाति शयः, समस्तदुर्नयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपाते नात्यन्तमध्यस्थी भत्ता धर्मार्थकामेभ्य: सारभूत्तामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पञ्चपरमेष्टिप्रासादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः श्रीवर्धमानस्वामि तीर्थकरपरमदेवप्रमुखान् भगवतः पञ्चपरमेष्टिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञा करोति''
निकटभव्य शिवकुमारको सम्बोधित करनेके लिए कुन्दकुन्दाचार्यने यह ग्रन्थ रचा है । वे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य स्वसंवेदनसे उत्पन्न होनेवाले परमानन्दमय एक लक्षणके धारी सुखरूपी अमृतके विपरीत, चार मतिमय संसारके दुःखोसे भयभीत थे, जिनमें परम भेदज्ञानके द्वारा अनेकान्तके प्रकाशकका माहात्म्य उत्पन्न हो गया था, जिन्होंने समस्त दुर्मयोंके एकान्तका हठ दूर कर दिया था, तथा जिन्होंने समस्त शत्रु-मित्र आदिका पक्षपात छोड़कर और अत्यन्त मध्यस्.. होकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थोकी अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारो एवं अविनायी तथा पञ्चपरमेष्ठीके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षलक्ष्मीरूपी पुरुषार्थको अंगीकार किया था। वे श्रीवर्धमानस्वामी तीर्थकर परमदेवको आदि लेकर भगवान् पञ्चपरमेष्ठियोंको द्रव्य और भाव नमस्कार करते हैं ।
इम उत्थानिकामे यह स्पष्ट है कि किसी जिन कुमारको सम्बोधित करने के लिए कुन्दकुन्दाचायने यह ग्रन्थ लिखा है। टीकाकार जयसेनने प्रवचनसारके तीनों अधिकागको व्याख्या की है। इसी प्रकार समयसार और पञ्चास्तिकाय की तात्पर्यवृति भी लिखी है। इनकी टीवाशैलीकी प्रमुख विशेषता निम्न प्रकार है
१ समस्त पदोंका व्याख्यान ।
२. आशयका स्पष्टीकरण ।
३. व्यायाम निश्चयनयके साथ व्यवहारनयंका भी अवलम्बन ।
१. प्रवचनसार, उत्थानिका टीका, शान्ति वीर दिगम्बर जैन प्रकाशन, पृ. ५ ।
४. व्याख्याकी पुष्टि के हेतु उद्धरणोंका प्रस्तुतीकरण ।
५. पारिभाषिक शब्दोंका स्पष्टीकरण।
यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, जिनसे व्यवहार और निश्चय समन्वित इनकी व्याख्या-शैलीका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकेगा - "यथो स्फटिकमणिविगयो निर्मलो पि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वेतोपाधिवशेन रक्त कृष्णश्वेतवर्णो भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावन भादव,कस्लम्मोपि मानहारेण गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सरागसम्मवन्यपूर्वकदान-गुजादिशुभानुष्टानेन, तपो धनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिगुभानुष्ठानेन परिणत: शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविति-प्रमाद-नापाय-योगपश्चप्रत्ययम्पाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः । निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किंच जीवस्या संख्येयलोकमात्रपरिणामा: सिद्धान्त मध्यमप्रतिपल्या मिथ्यादृष्टयादिचतुर्दश गुणस्थानरूपेण कथिताः । अथ प्राभूतशास्त्र सान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभा शुभशुद्धोपयोगम्पेण कथितानि ।"
अर्थात्, जिस प्रकार स्फटिकमणिका पत्थर निर्मल होनेपर भी जपापुष्पादि रक्त, कृष्ण, श्वेत उपाधिके वशसे लाल, काला, श्वेत रंगरूप परिणमन करता है, उसी तरह यह जीव स्वभावसे शुद्ध-बुद्ध-एक स्वभाव होनेपर भी व्यवहार नयकी अपेक्षा गृहस्थंक गुगर्माहत सम्यक्त्वपूर्वक दान-पूजा आदि शुभ कार्योको करता है तथा मुनिधर्म के मूलगुण और उत्तरगुणोंका अच्छी तरह पालन करता हुआ परिणामाका शुभ करना है। मिथ्यादर्शन भाव अदितिभाव, प्रमादभाव, कपायभाव और मन-वचन-कायेयोगोके हलम-चलनरूप-भाव ऐसे पाँच कारणरूप अशुभोपयोग; वर्तन करता हुआ अशुभ जानने योग्य है। तथा निश्चय रत्नत्रय मय शुद्ध उपयोगसे परिणमन करता हुआ शुद्ध जानने योग्य है। आशय यह है कि सिद्धान्त में जीव के असंन्यातलोकमात्र परिणाम मध्यम वर्णनको अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि चौदह गुणस्थानरूपसे कहे गये हैं। इस प्रवचनसार -प्राभृत शास्त्रमें उन्हीं गुणस्थानोंको संक्षेपसे शुभ -अशुभ तथा शद्धोपयोगरूप कहा गया है । इस प्रकार जयसेनाचार्यने व्यवहार और निश्चय दोना ही नयोंका आलम्बन कर कुन्दकुन्दके तीनों प्राभृत ग्रंथोकी व्याख्याकी है।
गुरु | आचार्य श्री सोमसेन जी |
शिष्य | आचार्य श्री जयसेन द्वितीय |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Jaysen2nd12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री जयसेन द्वितीय 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 26 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्ग जयसेन द्वितीय भी अमृतचन्द्रसुरिके समान कुन्दकुन्द ग्रंथो के टीकाकार हैं। उन्होंने समयसारको टीकामें अमृतचन्द्रवे नामका उल्लेख किया है और उनकी टीकाके कतिपय पद्य भी यथास्थान उद्धृत किये हैं। अतः यह निश्चित है कि जयसेनके समक्ष अमृतचन्द्रसूरिकी टीका विद्यमान थी, पर शैली और अर्थकी दृष्टिसे उनकी यह टीका अमृतचन्द्रसूरिकी अपेक्षा भिन्न है।
प्रवचनसार को टोकाके अन्त में आठ पद्योंमें एक प्रशस्ति दी गयी है। इस प्रशस्तिमें गुरुपरम्पराका परिचय निम्न प्रकार आया है
ततः श्रीमोमरोनो भूद्गणी मुणगणाग्नयः ।
तद्विनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभृते ।।
शीघ्र बभूव मालुसाधुः सदा धर्मरतो वदान्यः ।
सनुस्ततः साधुमहीपत्तिर्यस्तस्मादयं चारभटस्तनुजः ।।
य: संततं सर्वविदः सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभूतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्तिविलोपभोरः ।।
अर्थात् मूलसंधके निर्ग्रन्थ तपस्वी वीरसेनाचार्य हुए। उनके शिष्य अनेक गुणोंके धारी आचार्य सोमसेन हुए और उनके शिष्य आचार्य जयसेन हुए । सदा धर्ममें रत प्रसिद्ध मालु नामके साधु हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है । उनसे यह चारुभट नामक पुत्र उत्पन्न हुआ है जो सर्वज्ञकी पूजा तथा सदा आचार्योंके चरणोंकी आराधनापूर्वक सेवा करता है। उस चारभट अर्थात् जयसेनाचार्य ने अपने पिताकी भक्तिके विलोप होनेसे भयभीत हो इस प्राभृत नामक अन्यकी टीका की है। ___ श्रीमान त्रिभुवनचन्द्र गुरुको नमस्कार करता हूँ जो आत्माके भावरूपी जलको बढ़ानेके लिए चन्द्रमाके तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वतके सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य के गुरुका नाम सोमसेन और दादा गुरुका नाम वीरसेन था। इन्होंने त्रिभुवनचन्द्र गुरुको भी नमस्कार किया है, पर प्रशस्तिसे यह ज्ञात नहीं होता कि ये त्रिभुवनचन्द्र कौन हैं ? इतना स्पष्ट है कि जयसेनाचार्य सेनगणान्वयी हैं। इन्होंने अन्य किसी टीकामें अपनापरिचय नहीं दिया है।
१. प्रवचनसार, जयसेनटीकाकी प्रशस्ति, पद्य ३, ४, ५ ।
जयसेनाचार्यने अपनी टीकाओं में अनेक श्लोक और गाथाएँ अन्य ग्रन्थोंसे उद्धृत की हैं। इन श्लोकों और गाथाओं की परीक्षा करनेसे जयसेनाचार्य के समय पर प्रकाश पड़ता है। उद्धृत समस्त पद्योंकी छानबीन करना तो शक्य नहीं, पर उन्होंने द्रव्यसंग्रह, तत्वानुशासन, चारित्रसार, त्रिलोकमार और लोक विभाग प्रभूति ग्रन्थों का उल्लेख किया है। चारित्रसारके रचयिता चामुण्डराय हैं और इन्हींके समकालीन आचार्य नेमचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने त्रिलोकसारको रचना की है । चामुण्डरायने अपना चामुण्डपुराण शक संवत् .९०० ( ई० सन् ९७८ ) में समाप्त किया है। अतः निश्चित है कि जयसेन ई० सन् १७८ के पश्चात् ही हुए हैं। उनके समयकी यह सीमा पूर्वाद्धं सीमाके रूममें मानी जा
सकती है।
जयसेनने पञ्चास्तिकायको टीका ( पृ ८ ) में वीरनन्दिके 'आचारसार' ( ४|९.५-९६ ) के दो पद्य उद्धृत किये हैं। कर्नाटकविचरितके अनुसार इन वीरनन्दि अपने आचारसारपर एक कन्नड़-टीका शक संवत् १०७६ ( ई. सन ११५४ ) में लिखी है । अतः जयसेन ई० सन् १९५० के पश्चात् ही हुए है।
डॉ० ए० एन० उपाध्येने लिखा है कि नयकीर्तिके शिष्य बालचन्द्रने कुन्द कुन्दके तीनों प्राभूतोंपर कन्नड़में टीका लिखी है और उनकी टीकाका मूलाधार जयसेनको टीकाएँ हैं। इनकी टीकाका रचनाकाल ई. सन् की १३वौं शताब्दी का प्रथम चरण है। अत: जयमेनका समय इससे पूर्व ई० सन्की ११वीं शताब्दीका उत्तरार्ध या १२वीं शताब्दीका पूर्वाध माना जा सकता है।
जयसेनाचार्यने कुन्दकुन्दने समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय इन तीनों ग्रंथों पर अपनी टीकाएं लिखी हैं। इन्होंने आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा की गयी टीकासे भिन्न शैलीमें अपनी टीका लिखी है। अमृतचन्द्रने समयसारमें जहाँ ४१५ गाथाओंपर टीकाएँ लिखी हैं, वहाँ जयसेनाचार्यने ४४५ गाथाओंपर | इनकी टीकाओंकी यह प्रमुख विशेषता है कि प्रत्येक गाथाके पदोंका शब्दार्थ पहले स्पष्ट करते हैं, तदनन्तर "अयमत्राभि प्रायः " आदि लिखकर उसका स्पष्टी करण करते हैं। इनकी टीकाओंका नाम तात्पर्यवृत्ति है। शब्दशः समस्त मल ग्रन्थ टीकामें ममाविष्ट है। इसके अतिरिक्त अनेक उद्धरण भी टीकामें दिये हैं। इससे इनकी अध्ययनशीलता व्यक्त होती है। समयसारकी टीकामें सिद्ध भक्ति, मूलाचार, परमात्मप्रकाश, गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंके उद्धरण उपलब्ध हैं। प्रवचनसारको टीका आरम्भ करते हुए बताया है कि मध्यमरूचिधारी
१. प्रवचनसार, प्रस्तावना, पृ० १०४ ।
शिष्यको समझाने के लिए मुख्य तथा गोणरूपसे अन्तरंगतत्व और बाह्यतत्व इनके वर्णन करनेके लिए १०१ गाथाओंमें ज्ञानाधिकार कहेंगे । तदनन्तर ११३ गाथाओंमें दर्शनाधिकार और २७ गाथाओंमें चारित्राधिकारका वर्णन किया जायगा । इस तरह समुदायसे ३११ सूत्रों द्वारा ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूप तीन महाधिकार हैं । अथवा टीकाके अभिप्रायसे सम्यकज्ञान, ज्ञेय और चारित्राधिकार चूलिकासहित तीन अधिकार हैं। उत्थानिकामें बताया है-"अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षण सुखामृतविपरीतचतुर्गतिसंसारदुःखभयभीत: समुत्पन्नपरमभेदविज्ञानप्रकाशाति शयः, समस्तदुर्नयैकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपाते नात्यन्तमध्यस्थी भत्ता धर्मार्थकामेभ्य: सारभूत्तामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पञ्चपरमेष्टिप्रासादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः श्रीवर्धमानस्वामि तीर्थकरपरमदेवप्रमुखान् भगवतः पञ्चपरमेष्टिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञा करोति''
निकटभव्य शिवकुमारको सम्बोधित करनेके लिए कुन्दकुन्दाचार्यने यह ग्रन्थ रचा है । वे श्रीकुन्दकुन्दाचार्य स्वसंवेदनसे उत्पन्न होनेवाले परमानन्दमय एक लक्षणके धारी सुखरूपी अमृतके विपरीत, चार मतिमय संसारके दुःखोसे भयभीत थे, जिनमें परम भेदज्ञानके द्वारा अनेकान्तके प्रकाशकका माहात्म्य उत्पन्न हो गया था, जिन्होंने समस्त दुर्मयोंके एकान्तका हठ दूर कर दिया था, तथा जिन्होंने समस्त शत्रु-मित्र आदिका पक्षपात छोड़कर और अत्यन्त मध्यस्.. होकर धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थोकी अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारो एवं अविनायी तथा पञ्चपरमेष्ठीके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाले मोक्षलक्ष्मीरूपी पुरुषार्थको अंगीकार किया था। वे श्रीवर्धमानस्वामी तीर्थकर परमदेवको आदि लेकर भगवान् पञ्चपरमेष्ठियोंको द्रव्य और भाव नमस्कार करते हैं ।
इम उत्थानिकामे यह स्पष्ट है कि किसी जिन कुमारको सम्बोधित करने के लिए कुन्दकुन्दाचायने यह ग्रन्थ लिखा है। टीकाकार जयसेनने प्रवचनसारके तीनों अधिकागको व्याख्या की है। इसी प्रकार समयसार और पञ्चास्तिकाय की तात्पर्यवृति भी लिखी है। इनकी टीवाशैलीकी प्रमुख विशेषता निम्न प्रकार है
१ समस्त पदोंका व्याख्यान ।
२. आशयका स्पष्टीकरण ।
३. व्यायाम निश्चयनयके साथ व्यवहारनयंका भी अवलम्बन ।
१. प्रवचनसार, उत्थानिका टीका, शान्ति वीर दिगम्बर जैन प्रकाशन, पृ. ५ ।
४. व्याख्याकी पुष्टि के हेतु उद्धरणोंका प्रस्तुतीकरण ।
५. पारिभाषिक शब्दोंका स्पष्टीकरण।
यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं, जिनसे व्यवहार और निश्चय समन्वित इनकी व्याख्या-शैलीका परिज्ञान प्राप्त किया जा सकेगा - "यथो स्फटिकमणिविगयो निर्मलो पि जपापुष्पादिरक्तकृष्णश्वेतोपाधिवशेन रक्त कृष्णश्वेतवर्णो भवति, तथाऽयं जीवः स्वभावन भादव,कस्लम्मोपि मानहारेण गृहस्थापेक्षया यथासम्भवं सरागसम्मवन्यपूर्वकदान-गुजादिशुभानुष्टानेन, तपो धनापेक्षया तु मूलोत्तरगुणादिगुभानुष्ठानेन परिणत: शुभो ज्ञातव्य इति । मिथ्यात्वाविति-प्रमाद-नापाय-योगपश्चप्रत्ययम्पाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः । निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगेन परिणतः शुद्धो ज्ञातव्य इति । किंच जीवस्या संख्येयलोकमात्रपरिणामा: सिद्धान्त मध्यमप्रतिपल्या मिथ्यादृष्टयादिचतुर्दश गुणस्थानरूपेण कथिताः । अथ प्राभूतशास्त्र सान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभा शुभशुद्धोपयोगम्पेण कथितानि ।"
अर्थात्, जिस प्रकार स्फटिकमणिका पत्थर निर्मल होनेपर भी जपापुष्पादि रक्त, कृष्ण, श्वेत उपाधिके वशसे लाल, काला, श्वेत रंगरूप परिणमन करता है, उसी तरह यह जीव स्वभावसे शुद्ध-बुद्ध-एक स्वभाव होनेपर भी व्यवहार नयकी अपेक्षा गृहस्थंक गुगर्माहत सम्यक्त्वपूर्वक दान-पूजा आदि शुभ कार्योको करता है तथा मुनिधर्म के मूलगुण और उत्तरगुणोंका अच्छी तरह पालन करता हुआ परिणामाका शुभ करना है। मिथ्यादर्शन भाव अदितिभाव, प्रमादभाव, कपायभाव और मन-वचन-कायेयोगोके हलम-चलनरूप-भाव ऐसे पाँच कारणरूप अशुभोपयोग; वर्तन करता हुआ अशुभ जानने योग्य है। तथा निश्चय रत्नत्रय मय शुद्ध उपयोगसे परिणमन करता हुआ शुद्ध जानने योग्य है। आशय यह है कि सिद्धान्त में जीव के असंन्यातलोकमात्र परिणाम मध्यम वर्णनको अपेक्षा मिथ्यादर्शन आदि चौदह गुणस्थानरूपसे कहे गये हैं। इस प्रवचनसार -प्राभृत शास्त्रमें उन्हीं गुणस्थानोंको संक्षेपसे शुभ -अशुभ तथा शद्धोपयोगरूप कहा गया है । इस प्रकार जयसेनाचार्यने व्यवहार और निश्चय दोना ही नयोंका आलम्बन कर कुन्दकुन्दके तीनों प्राभृत ग्रंथोकी व्याख्याकी है।
गुरु | आचार्य श्री सोमसेन जी |
शिष्य | आचार्य श्री जयसेन द्वितीय |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Jaysen 2 nd 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 26-April- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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