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#Jinchandracharya12ThCentury
सिद्धान्तसार ग्रन्यके रचयिता जिनचन्द्राचार्य हैं। इस ग्रन्यकी उपान्त्य गाथामें बताया है--
पवयणपमाणलक्खणछंदालंकाररहिपहियाएण ।
जिणईदेण पउत्तं इणमागमत्तिजुत्तेण' ।। इस गाथामें "जिणइंदेण' पदसे संस्कृत रूपान्तर जिन चन्द्र ही सिद्ध होता है, जिनेन्द्र नहीं। अतएव भाष्यकारने "जिनचन्द्रनाम्ना सिद्धान्तग्रन्थ वेदिना ' जो अर्थ किया है वह बिल्कुल यथार्थ है । श्री नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिसंग्रहको प्रस्तावनामै सम्भावना की है कि जिनचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके ५५वें शिलालेखमें आया है । तस्वार्थकी सुखबोधिका, टीकामें निम्नलिखित प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिसमें भास्करनन्दिके गुरु जिन
चन्द्र सिद्धान्तशास्त्रोके पारंगत विद्वान बतलाये गये हैं--- १. सिद्धान्तसाराविसंग्रह, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पद्य ७८, पृ०५२ ।
तस्यासीत्सुबिशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः ।
शिष्य: श्रीजिमचन्द्रनामकलितश्चारित्रचूडामणिः ।।
शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्याभवत्तत्त्ववित् ।
तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ।।
सुखबोधिकाटीकाका निश्चित समय ज्ञात नहीं है ! पर पं० शान्तिराज शास्त्रीने इसका रचना-काल वि० सं० १३५३ के लगभग माना है । ग्रन्थ के अन्त रंग परीक्षण करने से ये जिनचन्द्र सिद्धान्तमारके का प्रतीत नहीं होते हैं।
जिनचन्द्र नामके एक अन्य सिद्धान्तवेना विद्वान औरहुए हैं । ये धर्मसंग्रह श्रावकाचारने का मेधावीके गुरू और पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्र के शिष्य थे। तिलोयपत्तिकी दान-प्रशस्तिमें इनका परिचय निम्न प्रकार दिया गया है
अथ श्रीमूलसंघेऽस्मिन्मन्दिसंघेऽनधेनि ।
बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ।।
तानि प्रभाचन्द्रः सुरिचन्द्राजितांगजः ।
दर्शनज्ञानमारिषतपोवीर्यसमन्त्रितः ।।
श्रीमान्बभूव मार्तण्डस्तरपट्टोदयभूधर ।
पद्मनन्दी बुधानन्दी तमच्छंदी मुनिप्रभः ।।
तत्पट्टाम्बुधिसञ्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः ।
पंचाक्षवनदावाग्निः कगायक्ष्माधरानिः ।।
तदीयपट्टाम्बरभानुमालीक्षमादिनानागुणरत्नमाली ।
भट्टारकथोजिनचन्द्रमामा सैद्धान्तिकानां भुनि योस्ति मोमा ।
इस दानप्रशस्तिमें मेधावीने अपनी गुरुपरम्पराका परिचय देते हुए सरस्वती गच्छके प्रभाचन्द्र-पद्यनन्दि शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्रका उल्लेख किया है। जो सैद्धान्तिकोंकी पंक्ति में परिगणित थे । उक्त प्रशस्ति वि०स० १५१० में लिखी गयी है। उस समय जिनचन्द्र वर्तमान थे। सिद्धान्तसारकी प्रभाचन्द्र द्वारा निर्मित एक कम्नड़ टीका भी 'जैन सिद्धान्त भवन आरामें है। यह टीका कब लिखी गयी, इसका कोई निर्देश नहीं है। "कर्नाटकविचरते में प्रभाचन्द्रका समय १३ वीं शताब्दी अनुमानित किया है। अतः उक्त दोनों ही जिनचन्द्र सिद्धान्तसारके रचयिता नहीं हैं।
सिद्धान्तसारग्रन्थका अध्ययन करनेसे यह ज्ञाता होता है कि इस ग्रन्थ पर गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दोनोंका प्रभाव है। आचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसारका अध्ययन कर ही इस ग्रन्थकी रचना जिनचन्द्रने की है। सिद्धान्तसारको प्रारम्भिक गाथाएं गोम्मटसार जीवकाण्डसे पूर्णतया प्रभावित हैं। जीवकाण्डमें सिद्धगतिका वर्णन करते हुए बताया है कि सिद्धजीवोंकी सिद्धगति केवलज्ञान क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, अनाहार और उपयोगकी अक्रम प्रवृत्ति होती हैं।
सिद्धपरमेष्ठी--१४ गुणस्थान, १४ जीव-समास, ४ जीव संज्ञा, ६ पर्याप्ति, १० प्राण-इनसे रहित होते हैं तथा इनके सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनाहारको छोड़कर शेष नव मार्गणा नहीं पायी जाती। ये सिद्ध सदा शुद्ध ही रहते हैं, क्योंकि मुक्ति प्राप्तिके बाद पुनः कर्मका बन्ध नहीं होता । यथा
सिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दसणं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारं उवजोगाणक्कमपउत्ती ।।
गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जत्तिपाणपरिहोणा।
सेसणवमागणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥
जीवगुणठाणसपणापज्जतीपाणमांगणगवर्ण ।
सिद्धतसामिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता ।।
मिला सिकाई सपना पलं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारे सेसा संसारिए जीवे ॥
इन गाथाओंकी तुलनासे स्पष्ट है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के पश्चात् ही सिद्धान्तसारके रचयिता जिनचन्द्र हुए होंगे | आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई० सन् की दशम शताब्दी है। सिद्धान्तसारपर प्रभाचन्द्रने विक्रमको १३ वीं शताब्दीमें कन्नड टीका लिखी है। अतएव जिनचन्द्रका समय नेमिचन्द्र और प्रभाचन्द्रके मध्य में होना चाहिए। अर्थात् ई० सन् की ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्घ या १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्घ निश्चित है।
जिनचन्द्रका सिद्धान्तसार प्राकृतभाषामें निबद्ध उपलब्ध है। इस ग्रन्थ पर ज्ञानभूषणका संस्कृतभाष्य भी है। इसका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे सिद्धान्तसारादिसंग्रहके रूपमें हो चुका है। इसमें ७९ गाथाएं हैं। आचार्यने १४ मार्गणाओंमें जीवसमासों, गुणस्थानों, योगों और उपयोगोंका वर्णन किया है। १४ जीवसमासोंमें योगों और उपयोगोंका एवं १४ गुणस्थानोंमें योगों
१. गोम्मटसार जौवकाण्ड, रायचन्द जैनशास्त्रमाला , पद्य-७३०-३१, पृ. २७२ ।
२. सिद्धान्तसाराविसंग्रह, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य१-२, पृ. १-२ ।
और उपयोगोंका वर्णन किया गया है । १४ मार्गणाओं, १४ जीबसमामों और १४ गुण स्थानों में बन्धके ५७ प्रत्ययोंका कथन किया किया गया है। ग्रन्थकारने इस ग्रन्थमैं १४ मार्गणाऔ में जीवसमासोंका वर्णन ११ गाथाओंमें, पश्चात मार्गणाओं में गुणस्थानोंका १२से २० अर्थात् ९, गाथाओंमें वर्णन किया है । २१वीं गाथासे ३१वी गाथा तक १४ मार्गणाओंमें १५ योगोंका कथन किया है । ३२वीं गाथासे ४२वी गाथापयंन्त १४ गुणस्थानों में द्वादश उपयोगों का वर्णन किया गया है ! ४३वीं और ४४वी गाथामें १४ जोवसमासोंमें १५ योगोंका और ४५ वीं गाथा में उपयोगोंका वर्णन आया है। ४६ वी गाथामें चतुर्दश गुणस्थानोंम यथासम्भव योगोंका और ४७वी गाथामें चतुर्दश गुणस्थानों में द्वादश उपयोगोंका वर्णन आया है। ४८वीं गाथासे चतुर्दश मार्गणाओंमें ५७ प्रत्ययोंका कथन ७०वीं गाथा तक किया गया है। ७१वीं गाथासे ७७वीं माथापर्यन्त चतुर्दश गुण स्थानोंमें प्रत्ययोंका निरूपण आया है । ७८वों गाथामें ग्रन्थकारका नामांकन और ७९वी गाथामें सिद्धान्तसारका महत्त्व बतलाया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें पर्याप्त सैद्धांतिक विषयोंकी चर्चा आयी है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री जिनचन्द्राचार्य |
शिष्य | आचार्य श्री भास्करनन्दि |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Jinchandracharya12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री जिनचन्द्राचार्य 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 30 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
सिद्धान्तसार ग्रन्यके रचयिता जिनचन्द्राचार्य हैं। इस ग्रन्यकी उपान्त्य गाथामें बताया है--
पवयणपमाणलक्खणछंदालंकाररहिपहियाएण ।
जिणईदेण पउत्तं इणमागमत्तिजुत्तेण' ।। इस गाथामें "जिणइंदेण' पदसे संस्कृत रूपान्तर जिन चन्द्र ही सिद्ध होता है, जिनेन्द्र नहीं। अतएव भाष्यकारने "जिनचन्द्रनाम्ना सिद्धान्तग्रन्थ वेदिना ' जो अर्थ किया है वह बिल्कुल यथार्थ है । श्री नाथूराम प्रेमीने सिद्धान्तसारादिसंग्रहको प्रस्तावनामै सम्भावना की है कि जिनचन्द्र भास्करनन्दिके गुरु हैं, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके ५५वें शिलालेखमें आया है । तस्वार्थकी सुखबोधिका, टीकामें निम्नलिखित प्रशस्ति प्राप्त होती है, जिसमें भास्करनन्दिके गुरु जिन
चन्द्र सिद्धान्तशास्त्रोके पारंगत विद्वान बतलाये गये हैं--- १. सिद्धान्तसाराविसंग्रह, माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पद्य ७८, पृ०५२ ।
तस्यासीत्सुबिशुद्धदृष्टिविभवः सिद्धान्तपारंगतः ।
शिष्य: श्रीजिमचन्द्रनामकलितश्चारित्रचूडामणिः ।।
शिष्यो भास्करनन्दिनामविबुधस्तस्याभवत्तत्त्ववित् ।
तेनाकारि सुखादिबोधविषया तत्त्वार्थवृत्तिः स्फुटम् ।।
सुखबोधिकाटीकाका निश्चित समय ज्ञात नहीं है ! पर पं० शान्तिराज शास्त्रीने इसका रचना-काल वि० सं० १३५३ के लगभग माना है । ग्रन्थ के अन्त रंग परीक्षण करने से ये जिनचन्द्र सिद्धान्तमारके का प्रतीत नहीं होते हैं।
जिनचन्द्र नामके एक अन्य सिद्धान्तवेना विद्वान औरहुए हैं । ये धर्मसंग्रह श्रावकाचारने का मेधावीके गुरू और पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्र के शिष्य थे। तिलोयपत्तिकी दान-प्रशस्तिमें इनका परिचय निम्न प्रकार दिया गया है
अथ श्रीमूलसंघेऽस्मिन्मन्दिसंघेऽनधेनि ।
बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ।।
तानि प्रभाचन्द्रः सुरिचन्द्राजितांगजः ।
दर्शनज्ञानमारिषतपोवीर्यसमन्त्रितः ।।
श्रीमान्बभूव मार्तण्डस्तरपट्टोदयभूधर ।
पद्मनन्दी बुधानन्दी तमच्छंदी मुनिप्रभः ।।
तत्पट्टाम्बुधिसञ्चन्द्रः शुभचन्द्रः सतां वरः ।
पंचाक्षवनदावाग्निः कगायक्ष्माधरानिः ।।
तदीयपट्टाम्बरभानुमालीक्षमादिनानागुणरत्नमाली ।
भट्टारकथोजिनचन्द्रमामा सैद्धान्तिकानां भुनि योस्ति मोमा ।
इस दानप्रशस्तिमें मेधावीने अपनी गुरुपरम्पराका परिचय देते हुए सरस्वती गच्छके प्रभाचन्द्र-पद्यनन्दि शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्रका उल्लेख किया है। जो सैद्धान्तिकोंकी पंक्ति में परिगणित थे । उक्त प्रशस्ति वि०स० १५१० में लिखी गयी है। उस समय जिनचन्द्र वर्तमान थे। सिद्धान्तसारकी प्रभाचन्द्र द्वारा निर्मित एक कम्नड़ टीका भी 'जैन सिद्धान्त भवन आरामें है। यह टीका कब लिखी गयी, इसका कोई निर्देश नहीं है। "कर्नाटकविचरते में प्रभाचन्द्रका समय १३ वीं शताब्दी अनुमानित किया है। अतः उक्त दोनों ही जिनचन्द्र सिद्धान्तसारके रचयिता नहीं हैं।
सिद्धान्तसारग्रन्थका अध्ययन करनेसे यह ज्ञाता होता है कि इस ग्रन्थ पर गोम्मटसार जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दोनोंका प्रभाव है। आचार्य नेमिचन्द्र के गोम्मटसारका अध्ययन कर ही इस ग्रन्थकी रचना जिनचन्द्रने की है। सिद्धान्तसारको प्रारम्भिक गाथाएं गोम्मटसार जीवकाण्डसे पूर्णतया प्रभावित हैं। जीवकाण्डमें सिद्धगतिका वर्णन करते हुए बताया है कि सिद्धजीवोंकी सिद्धगति केवलज्ञान क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, अनाहार और उपयोगकी अक्रम प्रवृत्ति होती हैं।
सिद्धपरमेष्ठी--१४ गुणस्थान, १४ जीव-समास, ४ जीव संज्ञा, ६ पर्याप्ति, १० प्राण-इनसे रहित होते हैं तथा इनके सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनाहारको छोड़कर शेष नव मार्गणा नहीं पायी जाती। ये सिद्ध सदा शुद्ध ही रहते हैं, क्योंकि मुक्ति प्राप्तिके बाद पुनः कर्मका बन्ध नहीं होता । यथा
सिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दसणं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारं उवजोगाणक्कमपउत्ती ।।
गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जत्तिपाणपरिहोणा।
सेसणवमागणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥
जीवगुणठाणसपणापज्जतीपाणमांगणगवर्ण ।
सिद्धतसामिणमो भणामि सिद्धे णमंसित्ता ।।
मिला सिकाई सपना पलं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारे सेसा संसारिए जीवे ॥
इन गाथाओंकी तुलनासे स्पष्ट है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के पश्चात् ही सिद्धान्तसारके रचयिता जिनचन्द्र हुए होंगे | आचार्य नेमिचन्द्रका समय ई० सन् की दशम शताब्दी है। सिद्धान्तसारपर प्रभाचन्द्रने विक्रमको १३ वीं शताब्दीमें कन्नड टीका लिखी है। अतएव जिनचन्द्रका समय नेमिचन्द्र और प्रभाचन्द्रके मध्य में होना चाहिए। अर्थात् ई० सन् की ११ वीं शताब्दीका उत्तरार्घ या १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्घ निश्चित है।
जिनचन्द्रका सिद्धान्तसार प्राकृतभाषामें निबद्ध उपलब्ध है। इस ग्रन्थ पर ज्ञानभूषणका संस्कृतभाष्य भी है। इसका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे सिद्धान्तसारादिसंग्रहके रूपमें हो चुका है। इसमें ७९ गाथाएं हैं। आचार्यने १४ मार्गणाओंमें जीवसमासों, गुणस्थानों, योगों और उपयोगोंका वर्णन किया है। १४ जीवसमासोंमें योगों और उपयोगोंका एवं १४ गुणस्थानोंमें योगों
१. गोम्मटसार जौवकाण्ड, रायचन्द जैनशास्त्रमाला , पद्य-७३०-३१, पृ. २७२ ।
२. सिद्धान्तसाराविसंग्रह, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, पद्य१-२, पृ. १-२ ।
और उपयोगोंका वर्णन किया गया है । १४ मार्गणाओं, १४ जीबसमामों और १४ गुण स्थानों में बन्धके ५७ प्रत्ययोंका कथन किया किया गया है। ग्रन्थकारने इस ग्रन्थमैं १४ मार्गणाऔ में जीवसमासोंका वर्णन ११ गाथाओंमें, पश्चात मार्गणाओं में गुणस्थानोंका १२से २० अर्थात् ९, गाथाओंमें वर्णन किया है । २१वीं गाथासे ३१वी गाथा तक १४ मार्गणाओंमें १५ योगोंका कथन किया है । ३२वीं गाथासे ४२वी गाथापयंन्त १४ गुणस्थानों में द्वादश उपयोगों का वर्णन किया गया है ! ४३वीं और ४४वी गाथामें १४ जोवसमासोंमें १५ योगोंका और ४५ वीं गाथा में उपयोगोंका वर्णन आया है। ४६ वी गाथामें चतुर्दश गुणस्थानोंम यथासम्भव योगोंका और ४७वी गाथामें चतुर्दश गुणस्थानों में द्वादश उपयोगोंका वर्णन आया है। ४८वीं गाथासे चतुर्दश मार्गणाओंमें ५७ प्रत्ययोंका कथन ७०वीं गाथा तक किया गया है। ७१वीं गाथासे ७७वीं माथापर्यन्त चतुर्दश गुण स्थानोंमें प्रत्ययोंका निरूपण आया है । ७८वों गाथामें ग्रन्थकारका नामांकन और ७९वी गाथामें सिद्धान्तसारका महत्त्व बतलाया गया है। इस प्रकार इस लघुकाय ग्रन्थमें पर्याप्त सैद्धांतिक विषयोंकी चर्चा आयी है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री जिनचन्द्राचार्य |
शिष्य | आचार्य श्री भास्करनन्दि |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Jinchandracharya 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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