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#Mahasenacharya10ThCentury
महासेन लाट-वर्गट या लाड़-वागड़ संघके आचार्य थे। प्रश्न म्नचरितको कारजाभंडारको प्राप्तमें बो प्रशस्ति दी हुई है, उससे ज्ञात होता है कि लाट वर्गट संघमें सिद्धान्तोके पारगामी जयसेन मुनि हुए और उनके शिष्य गुणाकर सेन । इन गुणाकरसेनके शिष्य महासेनसूरि हुए, जो राजा मुज द्वारा पूजित थे
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-६, किरण-४, श्रवणबेलगोल एवं यहाँकी गोम्मट मूर्ति,
पृ. २०५ तथा इसी अंकम गोम्मट मूर्तिकी प्रतिष्ठाकालीन मूर्तिका फल ।
२. इसका एक संस्करण निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे सन् १९२६ में निकला और दूसरा संस्करण भीवराज जैन ग्रन्थमाला सोलापुरसे सन् १९७१ में प्रकट हुवा है।
और सिन्धुराज या सिन्धुलके महामात्य पर्पटने जिनके चरणकमलोंकी पूजा की थी। इन्हीं महासनने 'प्रद्य म्नचरित' काव्यकी रचना को और राजाके अनुचर बिचकवान मधनने इसे लिखकर कोविदजनोंको' दिया ।
..प्रद्युम्नचरित्र के प्रत्येक सर्गके अन्तमें आनेवाली पुष्पिकामें---"श्री सिन्धुराज सत्कमहामहत्तथीपप्पटगुरोः पण्डित श्रीमहासेनाचार्यस्य कृत' लिखा मिलता है, जिससे यह वनित होता है कि सिन्धुलके महामात्य पर्पटको प्रेरणासे ही प्रस्तुत काव्य निर्मित हुआ है।
लाट-बर्गटसंघ माथुरसंघके ही समान काष्ठा संघ की शाखा है। यह संघ गुजरात और राजपूतानेमें विशेष रूपसे निवास करता था। कवि आचार्य महासेन पर्पटके गुरु थे। इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य महासेनका व्यक्तित्व अत्यन्त उन्नत था और राजपरिवारों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी ।
'प्रद्य म्नचरित' को प्रशस्तिमें काब्यके रचनाकालका निर्देश नहीं किया गया, पर मुञ्ज और सिन्धुलका निर्देश रहनेसे अभिलेख और इतिहासके साक्ष्य द्वारा ममय-निर्णय करनेकी सुविधा प्राप्त है। इतिहासमें बतलाया गया है कि मुज वि ० सं ० १०३१ (ई० सन् १७४) में परमारोंकी गद्दी पर आसीन हुआ । उदयपुरके अभिलेखसे विदित होता है कि उसने लाटों, कर्नाटकों, चोलों और केरलोको अपने पराक्रमसे अस्त कर दिया था। मुञ्ज के दो दानपत्र वि० सं० १०३१ ( ई० सन् ९७४ ) और वि० सं० १०३६ । ई० सन् ९७५ . ) के उपलब्ध हुए हैं । कहा जाता है कि ईस्वी सन् ९९३ -९९८ के बीच किसी समय तलपदेवने उनका बध किया था। इन्हीं मुञ्ज के समयमें वि० सं० १०५० । ई सन् ९९३ .) में अमितगतिने 'सुभाषिनरत्नसंदोह समाप्त किया था।
मुञ्ज या ...वाक् पतिका उत्तराधिकारी उसका अनुज सिन्धुल हुआ । इसका दूसरा नाम नवसाहसांक या सिन्धुराज है। इसके यशस्वी कृत्योंका वर्णन पद्म. गुप्तने नवसाहसांकचरितमें किया है | इसी सिन्धुलका पुत्र भोज था, जिसका मेरुतुंगकी 'प्रबन्धचिन्तार्माण' में वर्णन पाया जाता है । अतएव प्रद्य म्नचरितकी
१. श्रीलाट-वर्गटनमस्तलपूर्ण चन्द्र .. । जैन साहित्य इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ४११ |
२. डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारतका इतिहास, बनारस, १९५६ ई०, पृ २८३ ।
३. मम ( संवत् १०७८ वर्ष ) यदा मालमण्डले श्रीभोजराजा राज्यं चकार ।
----प्रबन्धचिन्तामणि, सिधीसिरीज १९३३ ई., भोजभीमप्रवन्ध, प० २५ । पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि मासा: सप्तदिनत्रयम् । भोक्तम्यं भोजराजेन सगोई दक्षिणापथम् ।। - वही, पृ. २२ ।।
रचना ई० सन् ९७४ के आस-पास हुई है और आचार्य महासेनका समय १०वी शतीका उत्तराद्ध है।
आचार्य महासेनका 'प्रद्य म्नचरित' महाकाव्य उपलब्ध है। इस काव्यमें १४ सर्ग हैं। परम्पराप्राप्त कथानकको आचार्यने महाकाव्योचित रूप प्रदान किया है।
द्वारावती नगरीमें यदुवंशी श्रीकृष्ण नामक राजा हए । इनको पटरानी सत्यभामा थी। इस पृथुवंशको पुत्रीने दृष्टिसे मृगोको, वाणीसे कोकिलाको, मुखसे चन्द्रमाको, गतिसे हंसिनीको और अपने कुन्तलसे चमरीको पराजित कर दिया था ...। .यह विचारकी अपूर्व दृष्टि थी | श्रीकृष्ण के समक्ष शत्रु नतमस्त होते ये ।प्रथमसर्ग
एक दिन नारदमुनि पृथ्वीका परिभ्रमण करते हुए द्धारिका आये । श्रीकृष्णने उनका स्वागत किया। नारद सत्यभामाके भवनमें गये, पर श्रृंगार करनेमें संलग्न रहनेके कारण सत्यभामा मुनिको न देख सकी। फलतः सत्यभामासे रुष्ट हो नारद श्रीकृष्णके लिए सुन्दरी स्त्रीको तलाश करते हुए कुण्डिनपुर पहुँचे। राजा भीष्मकी सभामै रुक्मिणी द्वारा प्रणाम किये जानेपर उन्होंने उरो श्रीकृष्ण प्राप्तिका आशीर्वाद दिया। कुण्डिनपुरसे चलकर नारद रुक्मिणीका चित्रपट लिये हुए पुनः द्धारिका पधारे। चित्रपटको देखकर श्रीकृष्ण रुक्मिणीपर अनुरस्त हो गये । रुक्मिणी के भाईका नाम रुकम था, यह रुक्मिणी का विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था । अतः शिशुपालने ससैन्य कुण्डिन पुरको घेर लिया, पर रुक्मिणी शिशुपालको नहीं चाहती थी। नारदने श्रीकृष्णको रुक्मिणी हरणकी द्वितीय सर्ग
श्रीकृष्ण और बलराम कुण्डिनपुरके बाहर उपवन में छिपकर बैठ गये। नगर के चारों ओर शिशुपालको सेना घेरा डाले थी । रुक्मिणी उस उपवनमें कामदेव के अर्चनके लिये गयी। श्रीकृष्णने उसका अपहरण किया। भीष्म, रुक्म और शिशुपाल द्वारा पीछा किये जानेपर श्रोकृष्णने शिशुपालका बध किया और सकुशल रुक्मिणीको लंकर आ गये । उपवन में रुक्मिणीके साथ उनका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। एक दिन श्रीकृष्णने झम्भिणीको श्वेतवस्त्र पहनाकर उपवनमें एक शिलापर बैठा दिया और स्वयं लताकुञ्जमें छिप गये। जब सत्यभामा वहाँ आयी, तो रुक्मिणीको सिद्धांगना या देवांगना समझ उसकी पूजा करने लगी
तथा उससे वरदान मांगा कि माधव रुक्मिणोका त्यागकर मेरे दास बनें । इसी समय श्रीकृष्ण कुञ्जसे निकल आये और हँसने लगे। रुक्मिणीको और सत्यभामा में मित्रता हो गयी। दूमरे दिन मैत्रीका संदेश लंका दूत आया। श्रीकृष्णने वस्त्राभूषण देकर उसे वापस लौटा दिया । तृतीय सर्ग
रुक्मिणीऔर सत्यभामाने बलगमफे समक्ष प्रतिज्ञा की कि जिसके पहले पुत्र होगा, वह पीछ होनेवाले पुत्र ..की माता के बालोंका अपने पुत्रके विवाहके समय मुण्डन करा देगी। रुक्मिणीको पुत्र उत्पन्न हुआ। जन्मके पांचवें दिन धूमकेतु नामक दैत्यने उस शिशुका अपहरण क्रिया ! उगने इस शिशुको वातरवकगिरिकी कन्दरामें रख दिया और एक शिलासे उस कन्दसके द्वारको भी आवृत कर दिया । दत्यक चले जानेक उपगन्त बहाँ कालसंबर गजा अपनी प्रयसी कंचनमालाके साथ विहार करता हुआ आया | कालचन्ने कन्दरास पुत्रको निकालकर कचन मालाको सौप दिया और नगर में आकर यह घोषित किया कि कञ्चनमालाने पुत्रका जन्म दिया है। जन्मोत्सव सम्पन्न किया और बालकका नाम प्रद्यम्न रक्खा गया ! -...चतुर्थ सर्ग
पुत्रके अपहरणसे द्वारावतोम तहलका मच गया । रुक्मिणी बिलखविलख कर रोने लगी। कृष्णने पुत्रकी तलाश करनेका बहुत प्रयास किया, पर पता न चला । नारदने विदेहमें जाकर सीमन्धर स्वामोके समवशरणमें श्रीकृष्णके नव जात शिशुके अपहरण के सम्बन्ध में प्रश्न किया । उत्तर प्राप्त हुआ कि पूर्वजन्मकी शत्रुताके कारण धूमकेतु दत्यने पुत्रको चुराया है। अब उसे कालसवर प्राप्त कर चुका है। वह पुत्रवत् पालन करेगा और सोलह वर्ष की अवस्था होनेपर वापस आयेगा । केवलीने प्रश्न म्नके पूर्वजन्मका आख्यान भी कहा --पञ्चमसर्ग
अयोध्या नगरी में अरिजय राजा रहता था। इसकी रानी प्रीतिकराके गर्भसे पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दो पत्र हुए। राजा मुनिका उपदेश सुनकर विरक्त हो गया और पुत्रको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। इसो समय दो वणिक पुत्रोंने श्रावकधर्म ग्रहण किया। एक मुनि द्वारा कुतिया और मातंगको पूर्वभवावलि सुन वे दोनों दीक्षित हो गये और तपश्चरण द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। -षष्ठ सर्ग
कौशल नगरीमें हेमनाग राजा रहता था। इसके मधु और कैटभ पुत्र थे। मधुको राज्य और कैटभका युवराज पद देकर वह भायां सहित संन्यासी हो गया। मधु और कैटभ बड़े प्रतापी थे। समस्त राजा इनके चरणों में नतमस्तक होते थे। एक दिन भीमने उनके राज्यमें प्रवेश कर नगरको जलाया और जनता को कष्ट दिया । मधुने उसके राज्यपर आक्रमण किया । मार्गमें हेमरथकने
५८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा
स्वागत किया । वह हेमरथको सुन्दरी भार्याको देखकर मोहित हो गया मंत्रियों के परामर्शानुसार उसने प्रथम भीमका बघ किया। अनन्तर हेमरथकी रानीको ले लिया। प्रियाके अभावमें हेमरथ उन्मत्त हो गया। एक दिन ..हेमरथ की रानी द्वारा सम्बोधन प्राप्त होनेपर वह अपने पुत्रको राज्य सौपकर मुनि हो गया । कैटभने भी श्रमण दीक्षा धारण की। समाधिमरण धारणकर वे दोनों स्वर्ग देव हुए । वहाँसे च्युत हो मधुका जीव प्रद्युम्न, कैटभका जीव जाम्बवती पुत्र और हेमरथका जीव धूमकेतु हुआ है। इसी धूमकेतुने प्रद्युम्नका अपहरण किया है। --सप्तम सर्ग
कालसंवरके घर प्रद्य म्न वृद्धिंगत होने लगा। युवक होनेपर प्रद्य म्नने कालसंबरके शत्रुओंको परास्त किया, जिससे उसने प्रसन्न हो, अपनी पत्नीके समक्ष की गयी प्रतिज्ञाके अनुसार ५०० पुत्रोंके रहनेपर भी प्रद्य म्नको युवराज बना दिया। उसके युवराज होने पर कालसंवरके अन्य पुत्र उससे द्वेष करने लगे। वे उसे विचर्याको गुफा में ल गये, हिरमें नाग, राक्षस आदि निवास करते थे । प्रद्य म्नने सभीको अपने अधीन किया। कालसंवर प्रय म्नकी इस वोरतासे बहुत प्रसन्न हुआ और वह पिताको अनुमतिसे माता कञ्चनमालाके भवन मे गया । रानी कञ्चनमाला उसके रूपसौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गयी। प्रद्य म्नने उसे समझाया, पर उसकी अनुरक्ति न घटी। प्रद्य म्नने कञ्चनमालासे दो विद्याएँ सीख ली | अन्ततोगत्वा जब उसने देखा कि प्रद्य म्न वासनाको पूरा नहीं करता है, तो उसने उसपर बलात्कारका दोषारोपण किया। राजाने मृत्युदण्ड देने के लिये सेना मेजो। स्वयं भी उसने प्रद्युम्नको पकाना चाहा, पर विद्यावलसे वह प्रश्न मनका कुछ भी नहीं कर सका । नारदने आकर प्रद्य म्न के सम्बन्धमें समस्त बातें बतला दी, जिससे कालसंबर बहुत प्रसन्न हुआ। -अष्टम सर्ग |
प्रद्युम्न नारदमुनिक साथ द्धारावती चला । सत्यभाभाका पुत्र भानु दुर्योधन पुत्री उदधिसे विवाह करना चाहता था। प्रद्युम्नने वनचर का रूप धारण कर उन मबको परास्त किया और उदधिको हर माया । उदधि नारदमुनिके समक्ष रोने लमो । प्रद्युम्नने अपना वास्तविक रूप दिखलाया, जिससे वह अनुरक्त हो गयो । प्रद्युम्नने सत्यभामा तनय भानुको परास्त किया और मर्कटरूप धारणकर पत्या मामाके उपवनको नष्ट कर दिया । उसने बाजार नष्ट किया । मेष द्वारा बलरामको मूच्छित किया । अनन्तर प्रद्युम्न अपनी माँ रुक्मिणीक भवन में अत्यन्त कुरूप और विकृत वेशमें आया । श्रीकृष्ण के निमित्त बने समस्त पकवान उसे खिला दिये । प्रद्युम्नने अपना बास्तविक रूप प्रकट किया और माताके आदेशसे विद्याबल द्वारा बाल-क्रीड़ाएँ प्रस्तुत की। अनन्तर
दुर्योधनकुमारी उदधिको मौके पास छोड़कर यादव और पाण्डवको सेनाके साथ मायामयी युद्ध करने लगा। उस युद्धको देखनेके लिये देव और दैत्य दोनों आये । -नवम सर्ग
प्रलयसमुद्रके समान दोनों पक्षकी सेनाएँ अपना पराक्रम दिखलाने लगीं। श्रीकृष्ण प्रद्युम्नके पराक्रम और बाणकौशलको देखकर आश्चर्यचकित थे। अतः उन्होंने बाहयुद्धका प्रस्ताव प्रद्युम्नके समक्ष रखा । दोनों बाहुयुद्ध की तैयारी में थे कि नारद आ गए और उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रद्युम्न का परिचय कराया । श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और धूमधामपूर्वक प्रद्युम्नका नगरमें प्रवेश कराया । उदविके साथ प्रद्युम्न का विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें कालसंवरऔर कञ्चनमालाको भी आमन्त्रित किया गया । —दशम सर्ग
श्रीकृष्णको जाम्बवती नामक पत्नीसे शम्ब नामक शूरवीर और दानी पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रीकृष्ण उसकी वीरतासे बहुत प्रसन्न थे। किन्तु एक दिन किसी कुलीन स्त्रोके शीलभंगके अपराधमें इसे नगरसे निर्वासित कर दिया । वसन्त में प्रद्युम्न वनविहारके लिये गया और वहाँ उसे शम्ब मिला। शम्बका विवाह सम्पन्न किया गया। प्रद्युम्नके भी कई विवाह हुए। उसके अनिरुद्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | -एकादश सर्ग
तीर्थकर नेमिनाथ पल्लबदेशसे बिहार कर सौरःट्र आये। याददोंने ..समवशरण जाकर तीर्थकरको बन्दना की । बलदेबने द्वारकाविनाश और श्रीकृष्णको मत्युके सम्बन्धमें प्रश्न किया । तीर्थकरने मद्यपानके कारण द्वीपायनमुनिके निमित्तसे इस देवनगरीके विनाश और जरत्कुमारके बाण श्रीकृष्णकी मृत्युके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की । जरत्कुमार वनमें चला गया और वहाँ आखेटक का जीवन यापन करने लगा। यादव इस भविष्यवाणीको मुनकर बहुत चिन्तित रहने लगे । रात्रि व्यतीत होने पर प्रातःकाल हुआ । --दादश सर्ग
श्रीकृष्ण रत्नटित सिंहासन पर शोभित थे । सामन्त और सौचब उनकी सेवा मे उपस्थित थे । विषयविरक्त और शान्तं चित्त प्रद्युम्न अन्य राजकुमारों के साथ हरिके समक्ष पहुँचा। उसने तीर्थकरके पास दीक्षा ग्रहण करनेका विचार प्रकट किया | वह माता-पितासे अनुमति प्राप्त कर नेमिनानक चरणोंमें दीक्षित हो गया । रुक्मणी और सत्यभामाने भी दीक्षा धारण कर ली। --त्रयोदश सर्ग
प्रद्युम्नने घोर तपश्चरण किया । गुणस्थान आरोहण कर कर्म-प्रकृतियों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । शम्ब, अनिरुद्ध और काम आदि भी मुनि बन गये। प्रद्यम्नने अधातिया कर्मोंको नष्ट कर निर्वाण लाभ किया । —चतुर्दश सर्ग
प्रय म्नका मानव -जीवार और जैन सहित्य श्रीमदभगवत .और विष्णुपुराण आदि ग्रन्थोंमें भी वर्णित है। श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धके ५२वें अध्यायसे ५५वें अध्याय तक यह चरित आया है। बताया गया है कि विदर्भ देशके अधिपति भीष्मकके पांच पुत्र और सुन्दरी कन्या थी। सबसे बड़े पुत्रका नाम .रुक्म था । यह अपनी बहन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था | अतः उस कन्याने एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको श्रीकृष्णके यहाँ अपना सन्देश देकर भेजा । ब्राह्मणने श्रीकृष्णसे रुक्मिणीके प्रेमकी बात कह सुनायी और शीघ्र ही विदर्भ चलनेके लिये उनसे अनुरोध किया । ब्राह्मणने वापस लौटकर रुक्मिणीको श्रीकृष्णके पधारनेकी सूचना दी। भीष्मकने श्री कृष्ण और बलरामका स्वागत किया। रुक्मिणी अपनी सखियोंके साथ देवीकेमन्दिरमें गयी और भगवतीसे श्रीकृष्णकी प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगी | श्रीकृष्ण शत्रुओंकी सेनाको मोहित कर और रथमें रुक्मिणीको सवार कराकर चल दिये। रुक्म ने श्रीकृष्णका पीछा किया। श्रीकृष्णने उसकी ..मूछ के बाल उखाड़कर उसे विकृत कर दिया और रुक्मिणीकी प्रार्थना पर उसे प्राणदान दिया । द्वारिकामें आनेपर विधिपूर्वक रुक्मिणीके साथ कृष्णका विवाह सम्पन्न
हो गया।समय पाकर रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्य म्नका जन्म हुआ। अभी प्रद्युम्न दश दिनका भी नहीं हो पाया था कि शम्बासुरले वेश बदलकर सूतिका-गृह से बालक का अपहरण कर उसे समुद्र में फेंक दिया । समुद्र में बालक प्रद्युम्नको एक मच्छ निगल गया। मछुओं द्वारा वह मच्छ पकड़ा गया और उन्होंने उसे शम्बासुर को भेंट किया । मच्छस निकले बालकको शम्बासुरने अपनी दासी मायावतीको समर्पित किया। यह मायावती कामदेवकी पत्नी रति ही थी। उसने कुमार प्रद्युम्नका लालन-पालन किया । जब प्रद्युम्न युवा हो गया, तब मायावती उसके समक्ष कामके भाव प्रकट करने लगी। प्रदयम्नने उससे कहा- 'पालन करनेवाली तुम मेरी माँ हो! तुम इस प्रकारके चिकृत विचार क्यों करती हो ? मायावतीने कहा-'प्रभो ! आप स्वयं नारायणके पुत्र हैं, शम्बासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था । आप मेरे पति कामदेव है और मैं सदाको आपकी पली रति हूँ। शम्बासुरले आफ्को समुद्र में डाल दिया था, वहाँ एक मछली निगल गयी थी। मछलीके पेटसे मैंने आपको प्राप्त किया । शम्बासुर .माया जानता है । अतः मायात्मक विद्याओं के अभावमें उसका जीतना सम्भव नहीं ।" उसने महामाया नामकी विद्या प्रद्युम्नको सिखलायी। प्रद्युम्नने युद्ध में शम्बा
गुरकी सेनाको परास्त किया | अनन्तर बह द्धारिका मे।मायावतीक साथ गया और वहाँ भी उसने मायाके कारण चमत्कार उत्पन्न मिये । इस समय नारद वहाँ आये और प्रद्युम्नका परिचय कराया ।
इसी प्रकारका विष्णुपुगणक पञ्चम स्कन्धद. २६ वे और २७ वे ..अध्याय मे प्रद्युम्नचरित उपलब्ध होता है | श्रीमद्भागवन और विष्णुपुराणके चरितमें प्रायः ममानता है। अन्तर केवल इतना ही है कि .श शम्बामुर प्रदयुम्नको विष्णु पुराणके अनुसार जन्म लेनेके छठे दिन ही समुंद्र मे गिरा देता है। दोष कथानक दोनों ग्रन्थों में समान है। ___ 'प्रद्युम्नचरितम्' महाकाव्यको कथावस्तुको उक्त दोनों प्रथोंकी कथा-वस्तु के माथ तुलना करनेपर निम्नांकिन साम्य और अमाम्य उपलब्ध होते हैं
१ प्रद्युम्न श्रीकृष्ण और रुक्मणि के पुत्र थे।
2 जन्मकी छठी रात्रि अथवा दश दिनके पूर्व ही असुर द्धारा अपहरण । ।
३ नारद ऋषि द्वारा रुक्मिणीको ..समस्त स्थिति की जानकारी।
४ द्वारिकामें प्रद्युम्नके लौटने पर नारद द्वारा प्रद्युम्न का परिचय ।
प्रद्युम्नका गम्बासुर द्वारा अंगहाण, इसका समुद्र . डाला जाना, समुद्र में मत्स्य द्वारा निगला जाना और फिर नम्बासुरके घर जाकर मत्स्यक पेट में जीवित निकलना, मायावतीका मोहित होना और बालक प्रद्युम्नका पालन करना तथा अन्त में युवा होनेपर शम्बासुरको मारकर मायावतीने विवाह करना।
यदि ..उपयुक्त असमानताओं पर विचार किया जाये, तो ज्ञात होगा कि जन लेखकोंने उक्त कथांशोंमें अपनी सुविधानुसार परिवर्तन कर उसे बुद्धि-ग्राह्य बनाया है। प्रद्युम्नको समुद्र में न उलवाकर, गुफामे अथवा शिलाक नीचे ग्वबाना अधिक बुद्धिसंगत है। मत्स्यके पेट में जीवित निकलनेकी सम्भावना बहुत कम है, जबकि गिलातल या गुकामें जीवित रह जानेकी सम्भावनामें आशंका नहीं की जा सकती । सम्बासुरके स्थानपर धूमकेतु अपहरण करनेवाला अल्पित किया गया है तथा कालसंवर विद्याधर उसका पालन करनेवाला माना गया है। कालसंवरकी पत्नी कचनमाला भी मायावतीने समान 'प्रद्युम्न' पर मोहित होती है। कालसंवर पलीके अपमानका बदला चुकानेक लिय प्रयुम्न को मार डालना चाहता है। मायावती जिस प्रकार प्रद्युम्नको बिद्या सिखलाती लाती है उसी प्रकार कंचनमाला भी। जैन-लेखकाने जन्म-जन्मान्तरक आख्यानजोड़कर प्रत्येक घटनाको तर्कपूर्ण बनानेका प्रयास किया है। उन्होंने यह दिखलाया है कि समाज जीवनको प्रत्येक घटना के पीछे पूर्वजन्मक संचित संस्कार कार्य करते हैं। धूमफेतुने पूर्वजन्मको शत्रुताके कारण ही प्रद्य म्नका अपहरण किया था और कंचनमाला भी पूर्वजन्मके प्रेमके कारण ही, प्रद्युम्न पर आमक्त होती है। शम्ब उसका पूर्वजन्मका भाई होनेसे ही प्रेम करता है।
प्रस्तुत महाकाव्यका कथानक शृङ्खलाबद्ध एवं सुगठित है । क्रमनियोजन पूर्णतया पाया जाता है। मभी कथानक शृङ्खलाकी छोटी-छोटी कड़ियोंके. ममान परस्परमें सम्बद्ध है। प्रदयुम्नचरितमें कथानकका उद्घाटन सत्यभामा द्वारा नारदको असतुष्ट करने और ईर्ष्यावश नारदका सुन्दरीकी तलाश में जाने एवं रुक्मिणीके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग उत्पन्न करनेसे होता है। कथा वस्तुको पंखुड़ियाँ सहजमें खुलती हुई अपना पराग और सौरभ विकीर्ण कर मुग्ध करती हैं | सत्यभामा और रुक्मिणीमें मपल्लीभावका उदय, द्वंद्व और शमन कई बार होता हुआ दिखलाया गया है | इस प्रकार कविने कथानकोंको योजना शृङ्खलाबद्ध कर मनोरंजकताका समावेश किया है। काव्य-प्रवाहको स्थिर एवं प्रभावोत्पादक बनाये रखनेवो लिये अवान्तर कथाएँ भी गुम्फित हैं । रचना सरसऔर रोचक है।
गुरु | आचार्य श्री गुणाकर सेन |
शिष्य | आचार्य श्री महासेनाचार्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Mahasenacharya10ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री महासेनाचार्य 10वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 22 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 22-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
महासेन लाट-वर्गट या लाड़-वागड़ संघके आचार्य थे। प्रश्न म्नचरितको कारजाभंडारको प्राप्तमें बो प्रशस्ति दी हुई है, उससे ज्ञात होता है कि लाट वर्गट संघमें सिद्धान्तोके पारगामी जयसेन मुनि हुए और उनके शिष्य गुणाकर सेन । इन गुणाकरसेनके शिष्य महासेनसूरि हुए, जो राजा मुज द्वारा पूजित थे
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-६, किरण-४, श्रवणबेलगोल एवं यहाँकी गोम्मट मूर्ति,
पृ. २०५ तथा इसी अंकम गोम्मट मूर्तिकी प्रतिष्ठाकालीन मूर्तिका फल ।
२. इसका एक संस्करण निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे सन् १९२६ में निकला और दूसरा संस्करण भीवराज जैन ग्रन्थमाला सोलापुरसे सन् १९७१ में प्रकट हुवा है।
और सिन्धुराज या सिन्धुलके महामात्य पर्पटने जिनके चरणकमलोंकी पूजा की थी। इन्हीं महासनने 'प्रद्य म्नचरित' काव्यकी रचना को और राजाके अनुचर बिचकवान मधनने इसे लिखकर कोविदजनोंको' दिया ।
..प्रद्युम्नचरित्र के प्रत्येक सर्गके अन्तमें आनेवाली पुष्पिकामें---"श्री सिन्धुराज सत्कमहामहत्तथीपप्पटगुरोः पण्डित श्रीमहासेनाचार्यस्य कृत' लिखा मिलता है, जिससे यह वनित होता है कि सिन्धुलके महामात्य पर्पटको प्रेरणासे ही प्रस्तुत काव्य निर्मित हुआ है।
लाट-बर्गटसंघ माथुरसंघके ही समान काष्ठा संघ की शाखा है। यह संघ गुजरात और राजपूतानेमें विशेष रूपसे निवास करता था। कवि आचार्य महासेन पर्पटके गुरु थे। इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य महासेनका व्यक्तित्व अत्यन्त उन्नत था और राजपरिवारों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी ।
'प्रद्य म्नचरित' को प्रशस्तिमें काब्यके रचनाकालका निर्देश नहीं किया गया, पर मुञ्ज और सिन्धुलका निर्देश रहनेसे अभिलेख और इतिहासके साक्ष्य द्वारा ममय-निर्णय करनेकी सुविधा प्राप्त है। इतिहासमें बतलाया गया है कि मुज वि ० सं ० १०३१ (ई० सन् १७४) में परमारोंकी गद्दी पर आसीन हुआ । उदयपुरके अभिलेखसे विदित होता है कि उसने लाटों, कर्नाटकों, चोलों और केरलोको अपने पराक्रमसे अस्त कर दिया था। मुञ्ज के दो दानपत्र वि० सं० १०३१ ( ई० सन् ९७४ ) और वि० सं० १०३६ । ई० सन् ९७५ . ) के उपलब्ध हुए हैं । कहा जाता है कि ईस्वी सन् ९९३ -९९८ के बीच किसी समय तलपदेवने उनका बध किया था। इन्हीं मुञ्ज के समयमें वि० सं० १०५० । ई सन् ९९३ .) में अमितगतिने 'सुभाषिनरत्नसंदोह समाप्त किया था।
मुञ्ज या ...वाक् पतिका उत्तराधिकारी उसका अनुज सिन्धुल हुआ । इसका दूसरा नाम नवसाहसांक या सिन्धुराज है। इसके यशस्वी कृत्योंका वर्णन पद्म. गुप्तने नवसाहसांकचरितमें किया है | इसी सिन्धुलका पुत्र भोज था, जिसका मेरुतुंगकी 'प्रबन्धचिन्तार्माण' में वर्णन पाया जाता है । अतएव प्रद्य म्नचरितकी
१. श्रीलाट-वर्गटनमस्तलपूर्ण चन्द्र .. । जैन साहित्य इतिहास, द्वितीय संस्करण, पृष्ठ ४११ |
२. डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारतका इतिहास, बनारस, १९५६ ई०, पृ २८३ ।
३. मम ( संवत् १०७८ वर्ष ) यदा मालमण्डले श्रीभोजराजा राज्यं चकार ।
----प्रबन्धचिन्तामणि, सिधीसिरीज १९३३ ई., भोजभीमप्रवन्ध, प० २५ । पञ्चाशत्पञ्चवर्षाणि मासा: सप्तदिनत्रयम् । भोक्तम्यं भोजराजेन सगोई दक्षिणापथम् ।। - वही, पृ. २२ ।।
रचना ई० सन् ९७४ के आस-पास हुई है और आचार्य महासेनका समय १०वी शतीका उत्तराद्ध है।
आचार्य महासेनका 'प्रद्य म्नचरित' महाकाव्य उपलब्ध है। इस काव्यमें १४ सर्ग हैं। परम्पराप्राप्त कथानकको आचार्यने महाकाव्योचित रूप प्रदान किया है।
द्वारावती नगरीमें यदुवंशी श्रीकृष्ण नामक राजा हए । इनको पटरानी सत्यभामा थी। इस पृथुवंशको पुत्रीने दृष्टिसे मृगोको, वाणीसे कोकिलाको, मुखसे चन्द्रमाको, गतिसे हंसिनीको और अपने कुन्तलसे चमरीको पराजित कर दिया था ...। .यह विचारकी अपूर्व दृष्टि थी | श्रीकृष्ण के समक्ष शत्रु नतमस्त होते ये ।प्रथमसर्ग
एक दिन नारदमुनि पृथ्वीका परिभ्रमण करते हुए द्धारिका आये । श्रीकृष्णने उनका स्वागत किया। नारद सत्यभामाके भवनमें गये, पर श्रृंगार करनेमें संलग्न रहनेके कारण सत्यभामा मुनिको न देख सकी। फलतः सत्यभामासे रुष्ट हो नारद श्रीकृष्णके लिए सुन्दरी स्त्रीको तलाश करते हुए कुण्डिनपुर पहुँचे। राजा भीष्मकी सभामै रुक्मिणी द्वारा प्रणाम किये जानेपर उन्होंने उरो श्रीकृष्ण प्राप्तिका आशीर्वाद दिया। कुण्डिनपुरसे चलकर नारद रुक्मिणीका चित्रपट लिये हुए पुनः द्धारिका पधारे। चित्रपटको देखकर श्रीकृष्ण रुक्मिणीपर अनुरस्त हो गये । रुक्मिणी के भाईका नाम रुकम था, यह रुक्मिणी का विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था । अतः शिशुपालने ससैन्य कुण्डिन पुरको घेर लिया, पर रुक्मिणी शिशुपालको नहीं चाहती थी। नारदने श्रीकृष्णको रुक्मिणी हरणकी द्वितीय सर्ग
श्रीकृष्ण और बलराम कुण्डिनपुरके बाहर उपवन में छिपकर बैठ गये। नगर के चारों ओर शिशुपालको सेना घेरा डाले थी । रुक्मिणी उस उपवनमें कामदेव के अर्चनके लिये गयी। श्रीकृष्णने उसका अपहरण किया। भीष्म, रुक्म और शिशुपाल द्वारा पीछा किये जानेपर श्रोकृष्णने शिशुपालका बध किया और सकुशल रुक्मिणीको लंकर आ गये । उपवन में रुक्मिणीके साथ उनका पाणिग्रहण सम्पन्न हुआ। एक दिन श्रीकृष्णने झम्भिणीको श्वेतवस्त्र पहनाकर उपवनमें एक शिलापर बैठा दिया और स्वयं लताकुञ्जमें छिप गये। जब सत्यभामा वहाँ आयी, तो रुक्मिणीको सिद्धांगना या देवांगना समझ उसकी पूजा करने लगी
तथा उससे वरदान मांगा कि माधव रुक्मिणोका त्यागकर मेरे दास बनें । इसी समय श्रीकृष्ण कुञ्जसे निकल आये और हँसने लगे। रुक्मिणीको और सत्यभामा में मित्रता हो गयी। दूमरे दिन मैत्रीका संदेश लंका दूत आया। श्रीकृष्णने वस्त्राभूषण देकर उसे वापस लौटा दिया । तृतीय सर्ग
रुक्मिणीऔर सत्यभामाने बलगमफे समक्ष प्रतिज्ञा की कि जिसके पहले पुत्र होगा, वह पीछ होनेवाले पुत्र ..की माता के बालोंका अपने पुत्रके विवाहके समय मुण्डन करा देगी। रुक्मिणीको पुत्र उत्पन्न हुआ। जन्मके पांचवें दिन धूमकेतु नामक दैत्यने उस शिशुका अपहरण क्रिया ! उगने इस शिशुको वातरवकगिरिकी कन्दरामें रख दिया और एक शिलासे उस कन्दसके द्वारको भी आवृत कर दिया । दत्यक चले जानेक उपगन्त बहाँ कालसंबर गजा अपनी प्रयसी कंचनमालाके साथ विहार करता हुआ आया | कालचन्ने कन्दरास पुत्रको निकालकर कचन मालाको सौप दिया और नगर में आकर यह घोषित किया कि कञ्चनमालाने पुत्रका जन्म दिया है। जन्मोत्सव सम्पन्न किया और बालकका नाम प्रद्यम्न रक्खा गया ! -...चतुर्थ सर्ग
पुत्रके अपहरणसे द्वारावतोम तहलका मच गया । रुक्मिणी बिलखविलख कर रोने लगी। कृष्णने पुत्रकी तलाश करनेका बहुत प्रयास किया, पर पता न चला । नारदने विदेहमें जाकर सीमन्धर स्वामोके समवशरणमें श्रीकृष्णके नव जात शिशुके अपहरण के सम्बन्ध में प्रश्न किया । उत्तर प्राप्त हुआ कि पूर्वजन्मकी शत्रुताके कारण धूमकेतु दत्यने पुत्रको चुराया है। अब उसे कालसवर प्राप्त कर चुका है। वह पुत्रवत् पालन करेगा और सोलह वर्ष की अवस्था होनेपर वापस आयेगा । केवलीने प्रश्न म्नके पूर्वजन्मका आख्यान भी कहा --पञ्चमसर्ग
अयोध्या नगरी में अरिजय राजा रहता था। इसकी रानी प्रीतिकराके गर्भसे पूर्णभद्र और मणिभद्र नामक दो पत्र हुए। राजा मुनिका उपदेश सुनकर विरक्त हो गया और पुत्रको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। इसो समय दो वणिक पुत्रोंने श्रावकधर्म ग्रहण किया। एक मुनि द्वारा कुतिया और मातंगको पूर्वभवावलि सुन वे दोनों दीक्षित हो गये और तपश्चरण द्वारा स्वर्ग प्राप्त किया। -षष्ठ सर्ग
कौशल नगरीमें हेमनाग राजा रहता था। इसके मधु और कैटभ पुत्र थे। मधुको राज्य और कैटभका युवराज पद देकर वह भायां सहित संन्यासी हो गया। मधु और कैटभ बड़े प्रतापी थे। समस्त राजा इनके चरणों में नतमस्तक होते थे। एक दिन भीमने उनके राज्यमें प्रवेश कर नगरको जलाया और जनता को कष्ट दिया । मधुने उसके राज्यपर आक्रमण किया । मार्गमें हेमरथकने
५८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा
स्वागत किया । वह हेमरथको सुन्दरी भार्याको देखकर मोहित हो गया मंत्रियों के परामर्शानुसार उसने प्रथम भीमका बघ किया। अनन्तर हेमरथकी रानीको ले लिया। प्रियाके अभावमें हेमरथ उन्मत्त हो गया। एक दिन ..हेमरथ की रानी द्वारा सम्बोधन प्राप्त होनेपर वह अपने पुत्रको राज्य सौपकर मुनि हो गया । कैटभने भी श्रमण दीक्षा धारण की। समाधिमरण धारणकर वे दोनों स्वर्ग देव हुए । वहाँसे च्युत हो मधुका जीव प्रद्युम्न, कैटभका जीव जाम्बवती पुत्र और हेमरथका जीव धूमकेतु हुआ है। इसी धूमकेतुने प्रद्युम्नका अपहरण किया है। --सप्तम सर्ग
कालसंवरके घर प्रद्य म्न वृद्धिंगत होने लगा। युवक होनेपर प्रद्य म्नने कालसंबरके शत्रुओंको परास्त किया, जिससे उसने प्रसन्न हो, अपनी पत्नीके समक्ष की गयी प्रतिज्ञाके अनुसार ५०० पुत्रोंके रहनेपर भी प्रद्य म्नको युवराज बना दिया। उसके युवराज होने पर कालसंवरके अन्य पुत्र उससे द्वेष करने लगे। वे उसे विचर्याको गुफा में ल गये, हिरमें नाग, राक्षस आदि निवास करते थे । प्रद्य म्नने सभीको अपने अधीन किया। कालसंवर प्रय म्नकी इस वोरतासे बहुत प्रसन्न हुआ और वह पिताको अनुमतिसे माता कञ्चनमालाके भवन मे गया । रानी कञ्चनमाला उसके रूपसौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गयी। प्रद्य म्नने उसे समझाया, पर उसकी अनुरक्ति न घटी। प्रद्य म्नने कञ्चनमालासे दो विद्याएँ सीख ली | अन्ततोगत्वा जब उसने देखा कि प्रद्य म्न वासनाको पूरा नहीं करता है, तो उसने उसपर बलात्कारका दोषारोपण किया। राजाने मृत्युदण्ड देने के लिये सेना मेजो। स्वयं भी उसने प्रद्युम्नको पकाना चाहा, पर विद्यावलसे वह प्रश्न मनका कुछ भी नहीं कर सका । नारदने आकर प्रद्य म्न के सम्बन्धमें समस्त बातें बतला दी, जिससे कालसंबर बहुत प्रसन्न हुआ। -अष्टम सर्ग |
प्रद्युम्न नारदमुनिक साथ द्धारावती चला । सत्यभाभाका पुत्र भानु दुर्योधन पुत्री उदधिसे विवाह करना चाहता था। प्रद्युम्नने वनचर का रूप धारण कर उन मबको परास्त किया और उदधिको हर माया । उदधि नारदमुनिके समक्ष रोने लमो । प्रद्युम्नने अपना वास्तविक रूप दिखलाया, जिससे वह अनुरक्त हो गयो । प्रद्युम्नने सत्यभामा तनय भानुको परास्त किया और मर्कटरूप धारणकर पत्या मामाके उपवनको नष्ट कर दिया । उसने बाजार नष्ट किया । मेष द्वारा बलरामको मूच्छित किया । अनन्तर प्रद्युम्न अपनी माँ रुक्मिणीक भवन में अत्यन्त कुरूप और विकृत वेशमें आया । श्रीकृष्ण के निमित्त बने समस्त पकवान उसे खिला दिये । प्रद्युम्नने अपना बास्तविक रूप प्रकट किया और माताके आदेशसे विद्याबल द्वारा बाल-क्रीड़ाएँ प्रस्तुत की। अनन्तर
दुर्योधनकुमारी उदधिको मौके पास छोड़कर यादव और पाण्डवको सेनाके साथ मायामयी युद्ध करने लगा। उस युद्धको देखनेके लिये देव और दैत्य दोनों आये । -नवम सर्ग
प्रलयसमुद्रके समान दोनों पक्षकी सेनाएँ अपना पराक्रम दिखलाने लगीं। श्रीकृष्ण प्रद्युम्नके पराक्रम और बाणकौशलको देखकर आश्चर्यचकित थे। अतः उन्होंने बाहयुद्धका प्रस्ताव प्रद्युम्नके समक्ष रखा । दोनों बाहुयुद्ध की तैयारी में थे कि नारद आ गए और उन्होंने श्रीकृष्ण को प्रद्युम्न का परिचय कराया । श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और धूमधामपूर्वक प्रद्युम्नका नगरमें प्रवेश कराया । उदविके साथ प्रद्युम्न का विवाह सम्पन्न हुआ, जिसमें कालसंवरऔर कञ्चनमालाको भी आमन्त्रित किया गया । —दशम सर्ग
श्रीकृष्णको जाम्बवती नामक पत्नीसे शम्ब नामक शूरवीर और दानी पुत्र उत्पन्न हुआ । श्रीकृष्ण उसकी वीरतासे बहुत प्रसन्न थे। किन्तु एक दिन किसी कुलीन स्त्रोके शीलभंगके अपराधमें इसे नगरसे निर्वासित कर दिया । वसन्त में प्रद्युम्न वनविहारके लिये गया और वहाँ उसे शम्ब मिला। शम्बका विवाह सम्पन्न किया गया। प्रद्युम्नके भी कई विवाह हुए। उसके अनिरुद्ध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ | -एकादश सर्ग
तीर्थकर नेमिनाथ पल्लबदेशसे बिहार कर सौरःट्र आये। याददोंने ..समवशरण जाकर तीर्थकरको बन्दना की । बलदेबने द्वारकाविनाश और श्रीकृष्णको मत्युके सम्बन्धमें प्रश्न किया । तीर्थकरने मद्यपानके कारण द्वीपायनमुनिके निमित्तसे इस देवनगरीके विनाश और जरत्कुमारके बाण श्रीकृष्णकी मृत्युके सम्बन्ध में भविष्यवाणी की । जरत्कुमार वनमें चला गया और वहाँ आखेटक का जीवन यापन करने लगा। यादव इस भविष्यवाणीको मुनकर बहुत चिन्तित रहने लगे । रात्रि व्यतीत होने पर प्रातःकाल हुआ । --दादश सर्ग
श्रीकृष्ण रत्नटित सिंहासन पर शोभित थे । सामन्त और सौचब उनकी सेवा मे उपस्थित थे । विषयविरक्त और शान्तं चित्त प्रद्युम्न अन्य राजकुमारों के साथ हरिके समक्ष पहुँचा। उसने तीर्थकरके पास दीक्षा ग्रहण करनेका विचार प्रकट किया | वह माता-पितासे अनुमति प्राप्त कर नेमिनानक चरणोंमें दीक्षित हो गया । रुक्मणी और सत्यभामाने भी दीक्षा धारण कर ली। --त्रयोदश सर्ग
प्रद्युम्नने घोर तपश्चरण किया । गुणस्थान आरोहण कर कर्म-प्रकृतियों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । शम्ब, अनिरुद्ध और काम आदि भी मुनि बन गये। प्रद्यम्नने अधातिया कर्मोंको नष्ट कर निर्वाण लाभ किया । —चतुर्दश सर्ग
प्रय म्नका मानव -जीवार और जैन सहित्य श्रीमदभगवत .और विष्णुपुराण आदि ग्रन्थोंमें भी वर्णित है। श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धके ५२वें अध्यायसे ५५वें अध्याय तक यह चरित आया है। बताया गया है कि विदर्भ देशके अधिपति भीष्मकके पांच पुत्र और सुन्दरी कन्या थी। सबसे बड़े पुत्रका नाम .रुक्म था । यह अपनी बहन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था | अतः उस कन्याने एक विश्वासपात्र ब्राह्मणको श्रीकृष्णके यहाँ अपना सन्देश देकर भेजा । ब्राह्मणने श्रीकृष्णसे रुक्मिणीके प्रेमकी बात कह सुनायी और शीघ्र ही विदर्भ चलनेके लिये उनसे अनुरोध किया । ब्राह्मणने वापस लौटकर रुक्मिणीको श्रीकृष्णके पधारनेकी सूचना दी। भीष्मकने श्री कृष्ण और बलरामका स्वागत किया। रुक्मिणी अपनी सखियोंके साथ देवीकेमन्दिरमें गयी और भगवतीसे श्रीकृष्णकी प्राप्ति के लिये प्रार्थना करने लगी | श्रीकृष्ण शत्रुओंकी सेनाको मोहित कर और रथमें रुक्मिणीको सवार कराकर चल दिये। रुक्म ने श्रीकृष्णका पीछा किया। श्रीकृष्णने उसकी ..मूछ के बाल उखाड़कर उसे विकृत कर दिया और रुक्मिणीकी प्रार्थना पर उसे प्राणदान दिया । द्वारिकामें आनेपर विधिपूर्वक रुक्मिणीके साथ कृष्णका विवाह सम्पन्न
हो गया।समय पाकर रुक्मिणीके गर्भसे प्रद्य म्नका जन्म हुआ। अभी प्रद्युम्न दश दिनका भी नहीं हो पाया था कि शम्बासुरले वेश बदलकर सूतिका-गृह से बालक का अपहरण कर उसे समुद्र में फेंक दिया । समुद्र में बालक प्रद्युम्नको एक मच्छ निगल गया। मछुओं द्वारा वह मच्छ पकड़ा गया और उन्होंने उसे शम्बासुर को भेंट किया । मच्छस निकले बालकको शम्बासुरने अपनी दासी मायावतीको समर्पित किया। यह मायावती कामदेवकी पत्नी रति ही थी। उसने कुमार प्रद्युम्नका लालन-पालन किया । जब प्रद्युम्न युवा हो गया, तब मायावती उसके समक्ष कामके भाव प्रकट करने लगी। प्रदयम्नने उससे कहा- 'पालन करनेवाली तुम मेरी माँ हो! तुम इस प्रकारके चिकृत विचार क्यों करती हो ? मायावतीने कहा-'प्रभो ! आप स्वयं नारायणके पुत्र हैं, शम्बासुर आपको सूतिकागृहसे चुरा लाया था । आप मेरे पति कामदेव है और मैं सदाको आपकी पली रति हूँ। शम्बासुरले आफ्को समुद्र में डाल दिया था, वहाँ एक मछली निगल गयी थी। मछलीके पेटसे मैंने आपको प्राप्त किया । शम्बासुर .माया जानता है । अतः मायात्मक विद्याओं के अभावमें उसका जीतना सम्भव नहीं ।" उसने महामाया नामकी विद्या प्रद्युम्नको सिखलायी। प्रद्युम्नने युद्ध में शम्बा
गुरकी सेनाको परास्त किया | अनन्तर बह द्धारिका मे।मायावतीक साथ गया और वहाँ भी उसने मायाके कारण चमत्कार उत्पन्न मिये । इस समय नारद वहाँ आये और प्रद्युम्नका परिचय कराया ।
इसी प्रकारका विष्णुपुगणक पञ्चम स्कन्धद. २६ वे और २७ वे ..अध्याय मे प्रद्युम्नचरित उपलब्ध होता है | श्रीमद्भागवन और विष्णुपुराणके चरितमें प्रायः ममानता है। अन्तर केवल इतना ही है कि .श शम्बामुर प्रदयुम्नको विष्णु पुराणके अनुसार जन्म लेनेके छठे दिन ही समुंद्र मे गिरा देता है। दोष कथानक दोनों ग्रन्थों में समान है। ___ 'प्रद्युम्नचरितम्' महाकाव्यको कथावस्तुको उक्त दोनों प्रथोंकी कथा-वस्तु के माथ तुलना करनेपर निम्नांकिन साम्य और अमाम्य उपलब्ध होते हैं
१ प्रद्युम्न श्रीकृष्ण और रुक्मणि के पुत्र थे।
2 जन्मकी छठी रात्रि अथवा दश दिनके पूर्व ही असुर द्धारा अपहरण । ।
३ नारद ऋषि द्वारा रुक्मिणीको ..समस्त स्थिति की जानकारी।
४ द्वारिकामें प्रद्युम्नके लौटने पर नारद द्वारा प्रद्युम्न का परिचय ।
प्रद्युम्नका गम्बासुर द्वारा अंगहाण, इसका समुद्र . डाला जाना, समुद्र में मत्स्य द्वारा निगला जाना और फिर नम्बासुरके घर जाकर मत्स्यक पेट में जीवित निकलना, मायावतीका मोहित होना और बालक प्रद्युम्नका पालन करना तथा अन्त में युवा होनेपर शम्बासुरको मारकर मायावतीने विवाह करना।
यदि ..उपयुक्त असमानताओं पर विचार किया जाये, तो ज्ञात होगा कि जन लेखकोंने उक्त कथांशोंमें अपनी सुविधानुसार परिवर्तन कर उसे बुद्धि-ग्राह्य बनाया है। प्रद्युम्नको समुद्र में न उलवाकर, गुफामे अथवा शिलाक नीचे ग्वबाना अधिक बुद्धिसंगत है। मत्स्यके पेट में जीवित निकलनेकी सम्भावना बहुत कम है, जबकि गिलातल या गुकामें जीवित रह जानेकी सम्भावनामें आशंका नहीं की जा सकती । सम्बासुरके स्थानपर धूमकेतु अपहरण करनेवाला अल्पित किया गया है तथा कालसंवर विद्याधर उसका पालन करनेवाला माना गया है। कालसंवरकी पत्नी कचनमाला भी मायावतीने समान 'प्रद्युम्न' पर मोहित होती है। कालसंवर पलीके अपमानका बदला चुकानेक लिय प्रयुम्न को मार डालना चाहता है। मायावती जिस प्रकार प्रद्युम्नको बिद्या सिखलाती लाती है उसी प्रकार कंचनमाला भी। जैन-लेखकाने जन्म-जन्मान्तरक आख्यानजोड़कर प्रत्येक घटनाको तर्कपूर्ण बनानेका प्रयास किया है। उन्होंने यह दिखलाया है कि समाज जीवनको प्रत्येक घटना के पीछे पूर्वजन्मक संचित संस्कार कार्य करते हैं। धूमफेतुने पूर्वजन्मको शत्रुताके कारण ही प्रद्य म्नका अपहरण किया था और कंचनमाला भी पूर्वजन्मके प्रेमके कारण ही, प्रद्युम्न पर आमक्त होती है। शम्ब उसका पूर्वजन्मका भाई होनेसे ही प्रेम करता है।
प्रस्तुत महाकाव्यका कथानक शृङ्खलाबद्ध एवं सुगठित है । क्रमनियोजन पूर्णतया पाया जाता है। मभी कथानक शृङ्खलाकी छोटी-छोटी कड़ियोंके. ममान परस्परमें सम्बद्ध है। प्रदयुम्नचरितमें कथानकका उद्घाटन सत्यभामा द्वारा नारदको असतुष्ट करने और ईर्ष्यावश नारदका सुन्दरीकी तलाश में जाने एवं रुक्मिणीके हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग उत्पन्न करनेसे होता है। कथा वस्तुको पंखुड़ियाँ सहजमें खुलती हुई अपना पराग और सौरभ विकीर्ण कर मुग्ध करती हैं | सत्यभामा और रुक्मिणीमें मपल्लीभावका उदय, द्वंद्व और शमन कई बार होता हुआ दिखलाया गया है | इस प्रकार कविने कथानकोंको योजना शृङ्खलाबद्ध कर मनोरंजकताका समावेश किया है। काव्य-प्रवाहको स्थिर एवं प्रभावोत्पादक बनाये रखनेवो लिये अवान्तर कथाएँ भी गुम्फित हैं । रचना सरसऔर रोचक है।
गुरु | आचार्य श्री गुणाकर सेन |
शिष्य | आचार्य श्री महासेनाचार्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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