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#Malaykirti15ThCentury
मलयकोति नामके दो भट्टारकोंका उल्लेख प्राप्त होता है । एक मलयकीर्ति भट्टारक यश:कीतिके शिष्य हैं। इनके सम्बन्धमें यन्त्रलेख और मूर्तिलेख उपलब्ध हैं। इन्होंने वि०सं० १५०२में एक यन्त्र तथा वि०सं० १५१०में एक मूति स्थापित की थी। इन मलयकोतिके पश्चात् गुणभद्र भट्टारक हुए। इनके आम्नायमें अपवाल जिनदासने सं० १५१०में डूंगरसिंहके राज्यकालमें समय सारकी एक प्रति लिखवायी। सं० १५१२में गुणभद्रने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति ब्रह्माधर्मदासको दी।
दूसरे मलयकीति भट्टारक धर्मकीतिके शिष्य हैं। धर्मकीतिक तीन शिष्य हुए हेमकीति, मलयकीति और सहस्रकीति । ये तीनों ही गुजरात प्रदेशमें विहार करते रहे। मलयकीतिके पट्टशिष्य नरेन्द्रकीति हुए। इन्होंने कलबुरगाके पिरोजसाहको सभामें समस्यापूर्ति करके जिनन्दिरका जीर्णोद्धार करानेकी अनुज्ञा प्राप्त की तथा प्रस्तरीमें राजा बैजनाथसे सम्मान पाकर पाश्र्वनाथ मन्दिरमें सहस्रकूट-जिनमन्दिरकी स्थापना की।
१. संवत् १५७२ वर्षे कातिक सुदि ५ भौमदिने श्रीकाष्ठासंघभ. श्री गुणीतिदेवाः
वल्प? श्रीयशकीतिदेवाः तत्पट्ट धीमलंकीतिवान्वये साह परदेवा तस्य भार्या जैणी।
भट्टारक सम्प्रदाय, आभ० ५६३ ।
२. संवत् १५१० माघ सुदि १३ सौमे श्रीकाष्ठासंघे आचार्य मलयकोतिदेवाः तयो प्रति
ष्ठितम् । भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५६४ ।
३. वही, लेखांक ५६५ ।
४. वही, लेखांक ५६६ ।
५, बही, लेखांक ६४० ।
प्रस्तुत मलयकी लि अनेक विषयोंके पण्डित थे। इनके दादागुरु त्रिभुवन कीति थे और गुरु धर्मकीति । धर्मकीतिके समय वि०सं० १४३१ में केसरियाजी तीर्थक्षेत्रपर विमलनाथमन्दिरका निर्माण हुआ। मलयकीति काष्ठासंघ पुन्नाट, लाइबागडाच्छक आचार्य हैं। दिल्ली के साह फैरूने वि०सं० १४९३में श्रुतपञ्चमी-उद्यापनके निमित्त मूलाचारको एक प्रति मलयकीतिको अर्पित की। इस ग्रन्धकी प्रशस्ति ऐतिहासिक दष्टिसे विशेष महत्वपूर्ण है। इसमें श्रुतधर, सारस्वत और प्रबुद्धाचार्योके नाम आये हैं। प्रशस्तिमें अङ्गपूर्वादिके पाठी आचार्योंका उल्लेख करनेके पश्चात् धरसेन, भूतबलि, जिनपालित, पुष्प दन्त और समन्तभद्रादिके नाम बागडसंघकी पट्टावलिमें परिगणित किये हैं। इन आचार्योंके अतिरिक्त सिद्धसेन, देवसूरि, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, अकलंक, बीरसेन, निससम, जिनसन, वासबसेन, रामसेन, माधव सेन, धर्मसेन, विजयसेन, सम्भवसेन, दायसेन, केशवसेन, चारित्रसेन, महेन्द्रसेन, अनन्तकोति, विजयसेन, जयसेन और केशवसेनके नाम भी स्लिखित हैं।
प्रशस्ति में यह भी बताया है कि वि० सं० १४९३ में योगिनीपुर (दिल्ली के पास बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाये गये फेरोजाबाद नगरम, जो उस समय धन-धान्य से परिपूर्ण था, अग्रवाल वंश, गर्ग गोत्री साहू लालू निवास करता था । उसकी प्रेमवती नामकी पत्नी थी, जो पातिव्रतादि गुणोंसे अलंकृत थी। इनके दो पुत्र थे साहू खेतल और मदन । खेतलको धर्मपत्नीका नाम सरो था। इस पत्नीसे खेतलको फेरू, पल्हू और बीघा नामक तीन पुत्र हुए। इन तीनोंकी काकलेही, माल्हाही और हरिचन्दही नामकी कामयः धर्मपत्नियां थीं। खेतलके द्वितीय पुत्र पल्लू के मण्डन, जाल्हा, घिरोया और हरिश्चन्द्र नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए। इस परिवारके सभी व्यक्ति विधिवत जैनधर्मका पालन करते और आहार, औषध, अभय और ज्ञान दानादि चारों दामोंका उपयोग करते थे । साहू खेतलने गिरिनगरका यात्रोत्सब किया। साह फेरूकी धर्मपत्नीने अपने स्वामी से अनुरोध किया कि श्रुतपञ्चमोका उद्यापन कराइये। इसे सुनकर फेरू अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने मुलाचार नामक ग्रन्थ श्रुतपञ्चमीके निमित्त लिखाकर मुनि धर्मकीतिके लिए अर्पित किया । इन धर्मकीतिके स्वर्ग चले जानेपर उक्त ग्रन्थ यम-नियम में निरत तपस्वी मलयकोतिको सम्मानपूर्वक अर्पित किया गया । मलयकोतिने उक्त ग्रन्थकी प्रशस्ति लिखी है। यह प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टिसे बहुत उपयोगी है। प्रशस्तिमें ३६ पद्य हैं और पद्योंके मध्य में गद्यांशका भी उप योग किया गया है।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६३७ ।
प्रशस्तिका निर्माणकाल वि० सं०१४६३ है। अतएब मलयकीतिका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दी है। मलयकीतिने एलदुग्गके राजा रणमलको उपदेश देकर सरसम्बामें मूलसंघका प्रभाव कम किया तथा शान्तिनाथकी विशाल मूर्ति स्थापित की। बताया है
"सत्पड़े भा श्रीमलयकोतिदेवानां यनिजबोधनशक्तितः एलदुग्गाधीश्वर राजश्री रणमल्ल प्रतिबाध्य तरसुबानगरे कंकापिछायान् हटान् महाकायश्री शांतिनाथस्य प्रासादः कारितः।"
मलयकीर्ति द्वारा लिखित रचनाओंमें केवल मुलाचारको प्रशस्ति ही अभी तक उपलब्ध है । इस प्रशस्तिके प्रारम्भमें ही लिखा है
'मूलाचार पुस्तकस्य प्रशस्ति चकार मलयकोतिः' तथा अन्तिम पद्योंमें धर्म कीति और उनके शिष्योंका परिचय भी इन्होंने लिखा है। बताया है
श्रीधर्मकीति बने प्रसिद्धिस्तस्पट्टरत्नाकरचंद्ररोचिः ।
षट्तकवेत्ता गतमानमायक्रोधारिलोभोऽभवदश्च पुण्यः ।।
तस्य पादसरोजालिगुणमतिविचक्षणः ।
मलयोत्तरकीतिर्वा मुदं कुर्याद्दिगम्बरः ।।
हेमकीतिगुणज्येष्ठो ज्येष्ठो मत्तः कुशाग्रधीः ।
धर्मध्यामरतः शान्तो दान्तः सूनृतवाग्यमी ।।
ततोऽनुजा मुनींद्रस्तु सहस्रोत्तरकोतियुक् ।
गुर्जरी जगतीं शास्तो द्वौ यती महिमोदयो ।।
वयं त्रयोऽपि धीमन्तः साधीयांसो निरेनसः ।
धर्मकीतभगवतः शिष्या इव रेवः करः ।।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक धर्मकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री मलयकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री नरेन्द्रकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Malaykirti15ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री मलयकीर्ति 15वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक धर्मकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Dharmakirti
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 08-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 08-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
मलयकोति नामके दो भट्टारकोंका उल्लेख प्राप्त होता है । एक मलयकीर्ति भट्टारक यश:कीतिके शिष्य हैं। इनके सम्बन्धमें यन्त्रलेख और मूर्तिलेख उपलब्ध हैं। इन्होंने वि०सं० १५०२में एक यन्त्र तथा वि०सं० १५१०में एक मूति स्थापित की थी। इन मलयकोतिके पश्चात् गुणभद्र भट्टारक हुए। इनके आम्नायमें अपवाल जिनदासने सं० १५१०में डूंगरसिंहके राज्यकालमें समय सारकी एक प्रति लिखवायी। सं० १५१२में गुणभद्रने पञ्चास्तिकायकी एक प्रति ब्रह्माधर्मदासको दी।
दूसरे मलयकीति भट्टारक धर्मकीतिके शिष्य हैं। धर्मकीतिक तीन शिष्य हुए हेमकीति, मलयकीति और सहस्रकीति । ये तीनों ही गुजरात प्रदेशमें विहार करते रहे। मलयकीतिके पट्टशिष्य नरेन्द्रकीति हुए। इन्होंने कलबुरगाके पिरोजसाहको सभामें समस्यापूर्ति करके जिनन्दिरका जीर्णोद्धार करानेकी अनुज्ञा प्राप्त की तथा प्रस्तरीमें राजा बैजनाथसे सम्मान पाकर पाश्र्वनाथ मन्दिरमें सहस्रकूट-जिनमन्दिरकी स्थापना की।
१. संवत् १५७२ वर्षे कातिक सुदि ५ भौमदिने श्रीकाष्ठासंघभ. श्री गुणीतिदेवाः
वल्प? श्रीयशकीतिदेवाः तत्पट्ट धीमलंकीतिवान्वये साह परदेवा तस्य भार्या जैणी।
भट्टारक सम्प्रदाय, आभ० ५६३ ।
२. संवत् १५१० माघ सुदि १३ सौमे श्रीकाष्ठासंघे आचार्य मलयकोतिदेवाः तयो प्रति
ष्ठितम् । भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५६४ ।
३. वही, लेखांक ५६५ ।
४. वही, लेखांक ५६६ ।
५, बही, लेखांक ६४० ।
प्रस्तुत मलयकी लि अनेक विषयोंके पण्डित थे। इनके दादागुरु त्रिभुवन कीति थे और गुरु धर्मकीति । धर्मकीतिके समय वि०सं० १४३१ में केसरियाजी तीर्थक्षेत्रपर विमलनाथमन्दिरका निर्माण हुआ। मलयकीति काष्ठासंघ पुन्नाट, लाइबागडाच्छक आचार्य हैं। दिल्ली के साह फैरूने वि०सं० १४९३में श्रुतपञ्चमी-उद्यापनके निमित्त मूलाचारको एक प्रति मलयकीतिको अर्पित की। इस ग्रन्धकी प्रशस्ति ऐतिहासिक दष्टिसे विशेष महत्वपूर्ण है। इसमें श्रुतधर, सारस्वत और प्रबुद्धाचार्योके नाम आये हैं। प्रशस्तिमें अङ्गपूर्वादिके पाठी आचार्योंका उल्लेख करनेके पश्चात् धरसेन, भूतबलि, जिनपालित, पुष्प दन्त और समन्तभद्रादिके नाम बागडसंघकी पट्टावलिमें परिगणित किये हैं। इन आचार्योंके अतिरिक्त सिद्धसेन, देवसूरि, वज्रसूरि, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, अकलंक, बीरसेन, निससम, जिनसन, वासबसेन, रामसेन, माधव सेन, धर्मसेन, विजयसेन, सम्भवसेन, दायसेन, केशवसेन, चारित्रसेन, महेन्द्रसेन, अनन्तकोति, विजयसेन, जयसेन और केशवसेनके नाम भी स्लिखित हैं।
प्रशस्ति में यह भी बताया है कि वि० सं० १४९३ में योगिनीपुर (दिल्ली के पास बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाये गये फेरोजाबाद नगरम, जो उस समय धन-धान्य से परिपूर्ण था, अग्रवाल वंश, गर्ग गोत्री साहू लालू निवास करता था । उसकी प्रेमवती नामकी पत्नी थी, जो पातिव्रतादि गुणोंसे अलंकृत थी। इनके दो पुत्र थे साहू खेतल और मदन । खेतलको धर्मपत्नीका नाम सरो था। इस पत्नीसे खेतलको फेरू, पल्हू और बीघा नामक तीन पुत्र हुए। इन तीनोंकी काकलेही, माल्हाही और हरिचन्दही नामकी कामयः धर्मपत्नियां थीं। खेतलके द्वितीय पुत्र पल्लू के मण्डन, जाल्हा, घिरोया और हरिश्चन्द्र नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए। इस परिवारके सभी व्यक्ति विधिवत जैनधर्मका पालन करते और आहार, औषध, अभय और ज्ञान दानादि चारों दामोंका उपयोग करते थे । साहू खेतलने गिरिनगरका यात्रोत्सब किया। साह फेरूकी धर्मपत्नीने अपने स्वामी से अनुरोध किया कि श्रुतपञ्चमोका उद्यापन कराइये। इसे सुनकर फेरू अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने मुलाचार नामक ग्रन्थ श्रुतपञ्चमीके निमित्त लिखाकर मुनि धर्मकीतिके लिए अर्पित किया । इन धर्मकीतिके स्वर्ग चले जानेपर उक्त ग्रन्थ यम-नियम में निरत तपस्वी मलयकोतिको सम्मानपूर्वक अर्पित किया गया । मलयकोतिने उक्त ग्रन्थकी प्रशस्ति लिखी है। यह प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टिसे बहुत उपयोगी है। प्रशस्तिमें ३६ पद्य हैं और पद्योंके मध्य में गद्यांशका भी उप योग किया गया है।
१. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ६३७ ।
प्रशस्तिका निर्माणकाल वि० सं०१४६३ है। अतएब मलयकीतिका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दी है। मलयकीतिने एलदुग्गके राजा रणमलको उपदेश देकर सरसम्बामें मूलसंघका प्रभाव कम किया तथा शान्तिनाथकी विशाल मूर्ति स्थापित की। बताया है
"सत्पड़े भा श्रीमलयकोतिदेवानां यनिजबोधनशक्तितः एलदुग्गाधीश्वर राजश्री रणमल्ल प्रतिबाध्य तरसुबानगरे कंकापिछायान् हटान् महाकायश्री शांतिनाथस्य प्रासादः कारितः।"
मलयकीर्ति द्वारा लिखित रचनाओंमें केवल मुलाचारको प्रशस्ति ही अभी तक उपलब्ध है । इस प्रशस्तिके प्रारम्भमें ही लिखा है
'मूलाचार पुस्तकस्य प्रशस्ति चकार मलयकोतिः' तथा अन्तिम पद्योंमें धर्म कीति और उनके शिष्योंका परिचय भी इन्होंने लिखा है। बताया है
श्रीधर्मकीति बने प्रसिद्धिस्तस्पट्टरत्नाकरचंद्ररोचिः ।
षट्तकवेत्ता गतमानमायक्रोधारिलोभोऽभवदश्च पुण्यः ।।
तस्य पादसरोजालिगुणमतिविचक्षणः ।
मलयोत्तरकीतिर्वा मुदं कुर्याद्दिगम्बरः ।।
हेमकीतिगुणज्येष्ठो ज्येष्ठो मत्तः कुशाग्रधीः ।
धर्मध्यामरतः शान्तो दान्तः सूनृतवाग्यमी ।।
ततोऽनुजा मुनींद्रस्तु सहस्रोत्तरकोतियुक् ।
गुर्जरी जगतीं शास्तो द्वौ यती महिमोदयो ।।
वयं त्रयोऽपि धीमन्तः साधीयांसो निरेनसः ।
धर्मकीतभगवतः शिष्या इव रेवः करः ।।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक धर्मकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री मलयकीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री नरेन्द्रकीर्ती |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Malaykirti 15th Century
आचार्य श्री भट्टारक धर्मकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Dharmakirti
आचार्य श्री भट्टारक धर्मकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Dharmakirti
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 08-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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15000
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