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#Manikyanandiji
आचार्य माणिक्यनन्दि जैन न्यायशास्त्रके महापण्डित थे। इनका परीक्षा मुखसूत्र जैन न्यायशास्त्रका बाघ न्यायसूत्र है । इसके स्रोतका निर्देश करते हुए प्रेमयरत्नमाला मे कहा गया है ----
अकलखनचोऽम्भोधेरुन येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।।
अर्थात् जिस धीमान्ने अकलदेबके वचन-सागरका मन्थन करके 'न्याय विद्यामृत' निकोला, उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार है । ____ माणिक्यनन्दि नन्दिसंघके प्रमुख आचार्य थे। धारानगरी इनकी निवास स्थली रही है, ऐसा प्रमेयरलमालाकी टिप्पणी तथा अन्य प्रमाणोंसे अवगत होता है।
१. प्रमेयरलमाला १।२ ।
२. प्रमेयरलमाला, टिप्पण पृ ० १ ।
शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं०६४ के एक पद्यमें माणिक्य नन्दिको जिनराज लिखा है
"माणिक्यनन्दीजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमर्दी ।
चिनं प्रमाचन्द्र इह क्षमाया माण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपि ।।"
न्यायदीपिकामें इनका 'भगवान' के रूपमें उल्लेख किया गया है। प्रमेय कमलमार्तण्डमें प्रमाचन्द्रने इनका गुरुके रूपमें स्मरण करते हुए इनके पद पंकजके प्रसादसे ही प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करनेका उल्लेख किया है। इससे माणिक्यनन्दीके असाधारण वैदुष्यका परिज्ञान होता है । माणिक्यनन्दीने अकलङ्ग के ग्रन्थोंके साथ दिङनागके न्यायप्रवेश और धर्मकीर्तिके न्याय बिन्दुका भी अध्ययन किया था । वस्तुत: माणिक्यनांन्द अत्यन्त प्रतिभाशाली और विभिन्न दर्शनोंके ज्ञाता है। 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि (वि० सं०११००) के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दीके गुरुका नाम राममन्दी है और स्वयं नयनन्दी उनके शिष्य हैं। 'सुदंसणचरिउ' को प्रशस्तिमें लिखा है
जिणिदागमभासणे एचित्तो तवायारणिवाइलद्धाइजुत्तो।
परिंदारिदेहि चंदणंदी हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी ।।
असेसाण गंथाण पारमि पत्तो तवे अंगवी भन्बराईमित्तो।
गुणावासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी ॥
पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदंसपणाहहो तेण अबाहहो विरइ बुह अहिणदिउ ।।
अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें जिनेन्द्र-आगमके विशिष्ट अभ्यासी, तपस्वी, गणी रामनन्दी हुए। उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दी हुए, जो कि सर्वग्नन्थोंके पारगामी, अंगोंके ज्ञाता एवं सद्गुणोंके निवासभूत थे। नयनन्दी उनके शिष्य थे।
प्रमेयरत्नमालाकारके पूर्वोक्त उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दी अकलंकके उत्तरवर्ती हैं और अकलंकका समय ई० सन् ७२०-७८० ई० माना गया है। अतएव माणिक्यनन्दीके समयको पूर्वावधि ई० सन् ८०० निर्वाध मानी जा सकती है। प्रज्ञाकारगुप्त भाविकारणबाद और अतीतकारणवाद स्वीकार करते हैं। माणिक्यनन्दीने अपने परीक्षामुखसूत्रमें इन दोनों कारणवादोंका खण्डन किया है। यथा -----
१. तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारकः ---- न्यायदीपिका, अभिनव धर्मभूषण ।
भाव्यतीतयोगमनागबोधनि नरिगोशोधौ प्रतिहेलम् । तयापाराश्चितं हि तद्भावभावित्वम् ।।
षष्ठ अध्यायके ५७ सूत्रमें प्रभाकरगुरुकी प्रमाणसंख्याका खण्डन किया गया है और इनका समय ई सन् की ८वी शतीका प्राम्भिक भाग है । इससे भी माणिक्यनन्दिके समयकी पूर्वावधि ई० मन् ८०० है। आचार्य प्रभाबन्द्र (ई. सन् ११०० ) ने परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमात्तंण्ड नामक टीका लिखी है। अतः प्रभाचन्द्र का समय (११वीं शती ) इनकी उत्तराधि है। व्यतव्य है कि डॉ दरबारीलाल कोठियाने अनेक प्रमाणोंस सिद्ध किया है कि माणिक्यनन्दि प्रभा चन्द्र के साक्षात् गुरु थे । अत: माणिक्यनन्दि .. उनसे कुछ पूर्ववर्ती (ई० १०२८ के लगभग) हैं।
आचार्य नयनन्दीने अपने 'सदसणारउको वि सं ११०० में धारानरेश भाजदेव के समयमें पूर्ण किया है और अगनेको माणिक्यमन्दीका प्रथम शिष्य
कहा है
णिविक्कमकालहो ववगएम गयारहसंबच्छरमाएम् ।
हि केलिग्उि अमरच्छरेण णयणंदी विस्याउ बिस्वरेण ||
अतएव माणिक्यानन्दका समय नयनन्दी के समय वि० सं० ११०० से ३०-४० वर्ष पहले अर्थात् वि० सं० १०६० , ई० सन् १००३ ( ई० सन को ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण अवगत होता है।
रचना
माणिक्यनन्दिका एकमात्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' ही मिलता है। इस ग्रन्धका नामकरण बौद्धदर्शनके हेतुमुख, न्यायमुख जसे ग्रन्थों के अनुकरणपर मुखान्त नामपर किया गया है।
परीक्षामुखमें प्रमाण और प्रमाणाभासोंका विशद प्रतिपादन किया गया है। जिस प्रकार दपंणमें हमें अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलाई पड़ता है उसी प्रकार परीक्षा मुखरूपी दर्पणमें प्रमाण और प्रमाणाभासको स्पष्ट रूपसे ज्ञात किया जा सकता है।
यह ग्रन्थ न्यायसूत्र, बैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र आदि मूत्रग्रन्योंकी तरह सूत्रात्मक शैलीमें लिखा गया है ।
- इसके सूत्र सरल, सरस और गम्भीर अर्थ वाले हैं। इसकी भाषा प्राञ्जल
१. परीक्षामुखसूत्र, ३।५८-५९ ।
२. सुदंसचरिउ, प्रशस्ति, कश्यक ९, प्राकृत शोघ संस्थान, वैशाली ।
३. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, पृ ० ३१, ३२, ३३, वीरसेवा मन्दिर-संस्करण, ई० १९४९ ।
और सुबोध है | समस्त गन्थ मे २०८ .सूत्र हैं और यह छ: समुद्देशों में विभक्त है। प्रथम समुशमें १३ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके विशेषणोंकी सार्थकता, दीगन दृष्टांत ज्ञान में 'स्व' और 'पर' की व्यवसायात्मकत्ताकी सिद्धि तथा प्रमाणकी प्रमाणताकी ज्ञप्तिको कथञ्चित् स्वतः और कथञ्चित् परत्त: सिद्ध किया गया है। हिताहित प्राप्ति -परिहारमें समर्थ होनक कारण ज्ञान कोही प्रमाण माना गया है 1 अज्ञानरूप सम्मिनापं आदि प्रमाणलक्षणोंकी मीमांसा की है।
द्वितीय समुई में १२ सूत्र है। प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद , प्रत्यक्ष का लक्षण, सांब्यबहारिक प्रत्यक्षका वर्णन ,अर्थ और आलोक मे ज्ञानके प्रति कारणतावा निरास, पदार्थस ज्ञानोत्पत्तिका खण्डन, स्वावरगक्षयोपशमरूप योग्य्रता ज्ञान के द्वारा प्रतिनिधित्व विषय की व्यवस्ता शाहगोपना विषय मानने में व्यापारका प्रतिपादन और निराबरण एवं अतीन्द्रियस्वरूप मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण प्रतिपादित किया गया है।
तृतीय समुदेश में १७ सूत्र हैं। इसमें परीक्षाका लक्षण, परोक्ष प्रमाणक पांच भेद, उदाहरणपूर्वक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानका लक्षण, हेतु और अविनाभाबका स्वरूप, साध्यका लक्षण, साध्यके विशेषणोंकी सार्थकता, धर्मीका प्रतिपादन, धर्मीकी सिद्धिक प्रकार, पक्ष प्रयोगको आवश्यकता, अनुमानके दो अंगोंका प्रतिपादन, उदाहरण, उपनय और निगमनको अनुमानके अंग मानने में दोपोल्ट्रावन, शास्त्र (वीतराग ) कथा मे उदाहरणादिके भी अनुमानक अवयव होनेको स्वीकृति, अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान, हेतुक उपलब्धि और अनुपलब्धि, उपलब्धिके अबिगद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि, तथा अनुप लब्धिके अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि एवं अविरुद्धोपलब्धिके व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्णचर , उत्तरचर और सहचर, बिरुवोपलब्धिके भी अविद्धोपलब्धिके समान विरुद्धव्याप्य, विरुद्ध-कार्य, बिरुद्ध-कारण, विरुद्धपूर्वचर, विरुद्धउत्सरचर, और बिरुद्ध-सहचर, अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धिके अविरुद्धस्वभावा नुपलब्धि, ब्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलधि और सहचरानुपलब्धि; विरुखानुपलब्धिके विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्ध कारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि इन सभीका विशद प्रतिपादन है। बौद्धोंके प्रति कारणहेतुकी सिद्धि, आगमप्रमाणका लक्षण और शब्दमें वस्तु प्रतिपादनको शक्तिका भी इसी समुददेशमें वर्णन है।
चतुर्थ समुद्देशमें ९ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणके सामान्य-विशेष उभयरूप विषय की सिद्धि करते हुए सामान्य और विशेषके दो-दो भेदोंका उदाहरण सहित प्रति पादन किया गया है।
पञ्चम समुद्देशमें ३ सूत्र हैं । इसमें प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलको बतलाकर उसे प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न सिद्ध किया है।
पाट समुद्दे में ७४ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणाभासोका विशद वर्णन आया है। स्वरूपाभास, प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास, तकीभास , अनुमानाभाग, पक्षाभास, हेल्लाभास, हेत्वाभासके असिद्ध, बिगद्ध, अनेकान्तिक और अकिञ्चित्का भेद तथा उनके उदाहरण 1, कालाभासके भेद, बालप्रयोगाभाम, आगमा भाम, संख्याभास, विपयाभास, फलाभास तथा वादी और प्रतिवादीको जय-पराजयव्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है ।
इसपर उत्तरकालमें अनेक टीका-व्याख्याएँ लिखी गयी है। इनमें प्रभा चन्द्राचार्यका विशाल प्रमेयकमलमार्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य को मध्यम परिमाण वाली प्रमेयरत्नमाला, भट्टारना चारु कीतिका प्रमेय रतमालालडार एवं शान्ति वर्गीकी प्रमेयकण्ठिका आदि टोकाएँ उपलब्ध है। परीक्षामुखसूत्रका प्रभाव आचार्य देवसरिक प्रमाणनयतत्त्वालोक और आचार्य हेमचन्द्रको प्रमाणमीमांसा पर स्पष्टत: दिखलाई पड़ता है । उत्तरवर्ती प्रायः समस्त जैन यायिकोंने इस ग्रन्थसे प्रेरणा ब्रहण की है।
माणिक्यनन्दि
आचार्य माणिक्यनन्दि जैन न्यायशास्त्रके महापण्डित थे। इनका परीक्षा मुखसूत्र जैन न्यायशास्त्रका बाघ न्यायसूत्र है । इसके स्रोतका निर्देश करते हुए प्रमेयरलमालामें कहा गया है
अकलखनचोऽम्भोधेरुन येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।। अर्थात् जिस धीमान्ने अकलदेबके वचन-सागरका मन्थन करके 'न्याय विद्यामृत' निकोला, उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार है । ____ माणिक्यनन्दि नन्दिसंघके प्रमुख आचार्य थे। धारानगरी इनकी निवास स्थली रही है, ऐसा प्रमेयरलमालाकी टिप्पणी तथा अन्य प्रमाणोंसे अवगत होता है। १. प्रमेयरलमाला १।२ । २. प्रमेयरलमाला, टिप्पण पुs १ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४१
शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं०६४ के एक पद्यमें माणिक्य नन्दिको जिनराज लिखा है
"माणिक्यनन्दीजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमी।
चिनं प्रमाचन्द्र इह दमायां माण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपि ।।" न्यायदीपिकामें इनका 'भगवान' के रूपमें उल्लेख किया गया है। प्रमेय कमलमार्तण्डमें प्रमाचन्द्रने इनका गुरुके रूपमें स्मरण करते हुए इनके पद पंकजके प्रसादसे ही प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करनेका उल्लेख किया है। इससे माणिक्यनन्दीके असाधारण बंदुष्यका परिज्ञान होता है । माणिक्यनन्दीने अकलङ्गके ग्रन्थोंके साथ दिङनागके न्यायप्रवेश और धर्मकीतिक ग्याबिन्दुका भी अध्ययन किया था । वस्तुत: माणिक्यनांन्द अत्यन्त प्रतिभाशाली और विभिन्न दर्शनोंके ज्ञाता है। 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि (वि० सं०११००) के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दीके गुरुका नाम राममन्दी है और स्वयं नयनन्दी उनके शिष्य हैं। 'सुदंसणचरिउ' को प्रशस्तिमें लिखा है
जिणिदागमभासणे एचित्तो तवायारणिवाइलद्धाइजुत्तो। परिंदारिदेहि चंदणंदी हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी ।। असेसाण गंथाण पारमि पत्तो तवे अंगवी भन्बराईमित्तो। गुणावासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी ॥ पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदंसपणाहहो तेण अबाहहो विरइ बुह अहिणदिउ ।। अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें जिनेन्द्र-आगमके विशिष्ट अभ्यासी, तपस्वी, गणी रामनन्दी हुए। उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दी हुए, जो कि सर्वग्नन्थोंके पारगामी, अंगोंके ज्ञाता एवं सद्गुणोंके निवासभूत थे। नयनन्दी उनके शिष्य थे।
समय
प्रमेयरत्नमालाकारके पूर्वोक्त उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दी अकलंकके उत्तरवर्ती हैं और अकलंकका समय ई० सन् ७२०-७८० ई० माना गया है। अतएव माणिक्यनन्दीके समयको पूर्वावधि ई० सन् ८०० निर्वाध मानी जा सकती है। प्रज्ञाकारगुप्त भाविकारणबाद और अतीतकारणवाद स्वीकार करते हैं। माणिक्यनन्दीने अपने परीक्षामुखसूत्रमें इन दोनों कारणवादोंका खण्डन किया है। यथा १. तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारकः न्यायदीपिका, अभिनव धर्मभूषण ।
HT
भाव्यतीतयोगमनागबोधनि नरिगोशोधौ प्रतिहेलम् । तयापाराश्चितं हि तद्भावभावित्वम् ।।
षष्ठ अध्यायके ५५ सूत्रमें प्रभाकरगुरुकी प्रमाणसंख्याका खण्डन किया गया है और इनका समय ई सन् की वी शतीका प्राम्भिक भाग है । इससे भी माणिक्यनन्दिके समयकी पूर्वावधि ई० मन् ८०० है। आचार्य प्रभाबन्द्र (ई. सन् १९००) ने परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमात्तंण्ड नामक टीका लिखी है। अतः प्रभानेन्द्रका समय (११वीं शती ) इनकी उत्तराधि है। ध्यातव्य है कि डॉ दरबारीलाल कोठियाने अनेक प्रमाणोंस सिद्ध किया है कि माणिक्यनन्दि प्रभा चन्द्र के साक्षात् गुरु थे । अत: माणिक्य नन्दि उनरा बुछ मुबंवली (ई० १०२८ के लगभग) हैं।
आचार्य नयनन्दीने अपने 'सदसणारउको वि सं १५०० में धारानरेश भाजदेव के समयमें पूर्ण किया है और अगनेको माणिक्यमन्दीका प्रथम शिष्य
कहा है
णिविक्कमकालहो ववगएम गयारहसंबच्छरमाएम् ।
हि केलिग्उि अमरच्छरेण णयणंदी विस्याउ बिस्वरेण || अतएव माणिक्यानन्दका समय नयनन्दी के समय वि० सं० ११०० से ३०-४० वर्ष पहले अर्थात् वि० सं० १४६७, ई० सन् १९०३ ( ई० मन् को ११वीं शताब्दी
का प्रथम चरण अबगत होता है। रचना
माणिक्यनन्दिका एकमात्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' ही मिलता है। इस ग्रन्धका नामकरण बौद्धदर्शनके हेतुमुख, न्यायमुख जसे ग्रन्थों के अनुकरणपर मुखान्त नामपर किया गया है।
परीक्षामुखमें प्रमाण और प्रमाणाभासोंका विशद प्रतिपादन किया गया है। जिस प्रकार दपंणमें हमें अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलाई पड़ता है उसी प्रकार परीक्षा मुखरूपी दर्पणमें प्रमाण और प्रमाणाभासको स्पष्ट रूपसे ज्ञात किया जा सकता है।
यह ग्रन्थ न्यायसूत्र, बैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र आदि मूत्रग्रन्योंकी तरह सूत्रात्मक शैलीमें लिखा गया है ।
- इसके सूत्र सरल, सरस और गम्भीर अर्थ वाले हैं। इसकी भाषा प्राञ्जल १. परीक्षामुखसूत्र, ३।५८-५९ । २. सुदंसगरिउ, प्रशस्ति, कश्यक ९, प्राकृत शोघ संस्थान, वैशाली । ३. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, ३० ३१, ३२, ३३, बीरसेवा मन्दिर-संस्करण, ई० १९४९ ।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३
और सुबोध है | समस्त गन्थम २८८ मुत्र हैं और यह छ: समुद्देशों में विभक्त है। प्रथम समुशमें १३ मूत्र हैं। इसमें प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके विशेषणोंकी सार्थकता, दीगन हादान्तसे ज्ञान में 'स्व' और 'पर' की व्यवसायात्मकत्ताकी शिद्धि तथा प्रमाणकी प्रमाणताकी ज्ञप्तिको नाचिन् स्वतः और कथञ्चित् परत्त: सिद्ध किया गया है। हिताहितमाति-परिहारमें समर्थ होनक कारण ज्ञान काही प्रमाण माना गया है 1 अज्ञानरूप सम्मिनापं आदि प्रमाणलक्षणोंकी मीमांसा की है।
द्वितीय समुई में १२ मुत्र है। प्रमाण प्रत्यक्ष आर परोक्ष दो मंद, प्रत्यक्ष का लक्षण, सांब्यबहारिक प्रत्यक्षका नन, अर्भ और आलोकम ज्ञानके प्रति कारणतावा निरास, पदार्थस ज्ञानोत्पत्तिका खण्डन, स्वावरगक्षयोपशमरूप योग्यत्तासे ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत निकी अरा, शाहगोपना विषय मानने में व्यापारका प्रतिपादन और निराबरण एवं अतीन्द्रियस्वरूप मुख्यप्रत्यक्षका लाण प्रतिपादित किया गया है।
तृतीय समुदेश में १७ सूत्र हैं। इसमें परीक्षाका लक्षण, परोक्ष प्रमाणक पांच भेद, उदाहरणपूर्वक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, सर्व और अनुमानका लक्षण, हेतु और अविनाभाबका स्वरूप, साध्यका लक्षण, साध्यके विशेषणोंकी सार्थकता, धर्मीका प्रतिपादन, धर्मीकी सिद्धिक प्रकार, पक्षप्रयोगको आवश्यकता, अनुमानके दो अंगोंका प्रतिपादन, उदाहरण, उपनय और निगमनको अनुमानके अंग मानने में दोपोल्ट्रावन, शास्त्र (चीसराग) कमा म उदाहरणादिके भी अनुमानक अवयव होनेको स्वीकृति, अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान, हेतुक उपलब्धि और अनुपलब्धि, उपलब्धिके अबिगद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि, तथा अनुप लब्धिके अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि एवं अविरुद्धोपलब्धिके व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्नचर, उत्तरचर और सहचर, बिरुवोपलब्धिके भी अविद्धोपलब्धिके समान विरुद्धव्याप्य, विरुद्ध-कार्य, बिरुद्ध-कारण, विरुद्धपूर्वचर, विरुद्धउत्सरचर, और बिरुद्ध-सहचर, अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धिके अविरुद्धस्वभावा नुपलब्धि, ब्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलधि और सहचरानुपलब्धि; विरुखानुपलब्धिके विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्ध कारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि इन सभीका विशद प्रतिपादन है। बौद्धोंके प्रति कारणहेतुकी सिद्धि, आगमप्रमाणका लक्षण और शब्दमें वस्तु प्रतिपादनको शक्तिका भी इसी समुददेशमें वर्णन है।
चतुर्थ समुद्देशमें ९ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणके सामान्य-विशेष उभयरूप विषय की सिद्धि करते हुए सामान्य और विशेषके दो-दो भेदोंका उदाहरण सहित प्रति पादन किया गया है। ४४ : तीर्थंकर महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा
ILLI
पञ्चम समुद्देशमें ३ सूत्र हैं । इसमें प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलको बतलाकर उसे प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न सिद्ध किया है।
पाट समुद्दे में ७४ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणाभासोका विशद वर्णन आया है। स्वरूपाभास, प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास, ताभास, अनुमानाभाग, पक्षाभास, हेल्लाभास, हेत्वाभासके असिद्ध, बिगद्ध, अनेकान्तिक और अकिञ्चित्का न गया नादातरम. -1, कालाभासके भेद, बालप्रयोगाभाम, आगमा भाम, संख्याभास, विपयाभास, फलाभास तथा बादी और प्रतिवादीको जय-पराजयव्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है ।
टीकाएँ
इसपर उत्तरकालमें अनेक टीका-व्याख्याएँ लिखी गयी है। इनमें प्रभा चन्द्राचार्यका विशाल प्रमेयकमलमार्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य को मध्यम परिमाण वाली प्रमेयरत्नमाला, भट्टारक चारु कीर्तिका प्रमेयरतमालालड़्कार एवं शान्ति वर्गीकी प्रमेयकण्ठिका आदि टोकाएँ उपलब्ध है। परीक्षामुखसूत्रका प्रभाव आचार्य देवसूरके प्रमाणनयतत्त्वालोक और आचार्य हेमचन्द्रको प्रमाणमीमांसा पर स्पष्टत: दिखलाई पड़ता है । उत्तरवर्ती प्रायः समस्त जैन नयायिकोंने इस ग्रन्थसे प्रेरणा ग्रहण की है।
गुरु | आचार्य श्री रामानंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री मानिक्यनंदी जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Manikyanandiji
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री माणिक्यनंदीजी महाराज 11वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 19 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 19-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य माणिक्यनन्दि जैन न्यायशास्त्रके महापण्डित थे। इनका परीक्षा मुखसूत्र जैन न्यायशास्त्रका बाघ न्यायसूत्र है । इसके स्रोतका निर्देश करते हुए प्रेमयरत्नमाला मे कहा गया है ----
अकलखनचोऽम्भोधेरुन येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।।
अर्थात् जिस धीमान्ने अकलदेबके वचन-सागरका मन्थन करके 'न्याय विद्यामृत' निकोला, उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार है । ____ माणिक्यनन्दि नन्दिसंघके प्रमुख आचार्य थे। धारानगरी इनकी निवास स्थली रही है, ऐसा प्रमेयरलमालाकी टिप्पणी तथा अन्य प्रमाणोंसे अवगत होता है।
१. प्रमेयरलमाला १।२ ।
२. प्रमेयरलमाला, टिप्पण पृ ० १ ।
शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं०६४ के एक पद्यमें माणिक्य नन्दिको जिनराज लिखा है
"माणिक्यनन्दीजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमर्दी ।
चिनं प्रमाचन्द्र इह क्षमाया माण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपि ।।"
न्यायदीपिकामें इनका 'भगवान' के रूपमें उल्लेख किया गया है। प्रमेय कमलमार्तण्डमें प्रमाचन्द्रने इनका गुरुके रूपमें स्मरण करते हुए इनके पद पंकजके प्रसादसे ही प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करनेका उल्लेख किया है। इससे माणिक्यनन्दीके असाधारण वैदुष्यका परिज्ञान होता है । माणिक्यनन्दीने अकलङ्ग के ग्रन्थोंके साथ दिङनागके न्यायप्रवेश और धर्मकीर्तिके न्याय बिन्दुका भी अध्ययन किया था । वस्तुत: माणिक्यनांन्द अत्यन्त प्रतिभाशाली और विभिन्न दर्शनोंके ज्ञाता है। 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि (वि० सं०११००) के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दीके गुरुका नाम राममन्दी है और स्वयं नयनन्दी उनके शिष्य हैं। 'सुदंसणचरिउ' को प्रशस्तिमें लिखा है
जिणिदागमभासणे एचित्तो तवायारणिवाइलद्धाइजुत्तो।
परिंदारिदेहि चंदणंदी हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी ।।
असेसाण गंथाण पारमि पत्तो तवे अंगवी भन्बराईमित्तो।
गुणावासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी ॥
पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदंसपणाहहो तेण अबाहहो विरइ बुह अहिणदिउ ।।
अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें जिनेन्द्र-आगमके विशिष्ट अभ्यासी, तपस्वी, गणी रामनन्दी हुए। उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दी हुए, जो कि सर्वग्नन्थोंके पारगामी, अंगोंके ज्ञाता एवं सद्गुणोंके निवासभूत थे। नयनन्दी उनके शिष्य थे।
प्रमेयरत्नमालाकारके पूर्वोक्त उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दी अकलंकके उत्तरवर्ती हैं और अकलंकका समय ई० सन् ७२०-७८० ई० माना गया है। अतएव माणिक्यनन्दीके समयको पूर्वावधि ई० सन् ८०० निर्वाध मानी जा सकती है। प्रज्ञाकारगुप्त भाविकारणबाद और अतीतकारणवाद स्वीकार करते हैं। माणिक्यनन्दीने अपने परीक्षामुखसूत्रमें इन दोनों कारणवादोंका खण्डन किया है। यथा -----
१. तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारकः ---- न्यायदीपिका, अभिनव धर्मभूषण ।
भाव्यतीतयोगमनागबोधनि नरिगोशोधौ प्रतिहेलम् । तयापाराश्चितं हि तद्भावभावित्वम् ।।
षष्ठ अध्यायके ५७ सूत्रमें प्रभाकरगुरुकी प्रमाणसंख्याका खण्डन किया गया है और इनका समय ई सन् की ८वी शतीका प्राम्भिक भाग है । इससे भी माणिक्यनन्दिके समयकी पूर्वावधि ई० मन् ८०० है। आचार्य प्रभाबन्द्र (ई. सन् ११०० ) ने परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमात्तंण्ड नामक टीका लिखी है। अतः प्रभाचन्द्र का समय (११वीं शती ) इनकी उत्तराधि है। व्यतव्य है कि डॉ दरबारीलाल कोठियाने अनेक प्रमाणोंस सिद्ध किया है कि माणिक्यनन्दि प्रभा चन्द्र के साक्षात् गुरु थे । अत: माणिक्यनन्दि .. उनसे कुछ पूर्ववर्ती (ई० १०२८ के लगभग) हैं।
आचार्य नयनन्दीने अपने 'सदसणारउको वि सं ११०० में धारानरेश भाजदेव के समयमें पूर्ण किया है और अगनेको माणिक्यमन्दीका प्रथम शिष्य
कहा है
णिविक्कमकालहो ववगएम गयारहसंबच्छरमाएम् ।
हि केलिग्उि अमरच्छरेण णयणंदी विस्याउ बिस्वरेण ||
अतएव माणिक्यानन्दका समय नयनन्दी के समय वि० सं० ११०० से ३०-४० वर्ष पहले अर्थात् वि० सं० १०६० , ई० सन् १००३ ( ई० सन को ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण अवगत होता है।
रचना
माणिक्यनन्दिका एकमात्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' ही मिलता है। इस ग्रन्धका नामकरण बौद्धदर्शनके हेतुमुख, न्यायमुख जसे ग्रन्थों के अनुकरणपर मुखान्त नामपर किया गया है।
परीक्षामुखमें प्रमाण और प्रमाणाभासोंका विशद प्रतिपादन किया गया है। जिस प्रकार दपंणमें हमें अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलाई पड़ता है उसी प्रकार परीक्षा मुखरूपी दर्पणमें प्रमाण और प्रमाणाभासको स्पष्ट रूपसे ज्ञात किया जा सकता है।
यह ग्रन्थ न्यायसूत्र, बैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र आदि मूत्रग्रन्योंकी तरह सूत्रात्मक शैलीमें लिखा गया है ।
- इसके सूत्र सरल, सरस और गम्भीर अर्थ वाले हैं। इसकी भाषा प्राञ्जल
१. परीक्षामुखसूत्र, ३।५८-५९ ।
२. सुदंसचरिउ, प्रशस्ति, कश्यक ९, प्राकृत शोघ संस्थान, वैशाली ।
३. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, पृ ० ३१, ३२, ३३, वीरसेवा मन्दिर-संस्करण, ई० १९४९ ।
और सुबोध है | समस्त गन्थ मे २०८ .सूत्र हैं और यह छ: समुद्देशों में विभक्त है। प्रथम समुशमें १३ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके विशेषणोंकी सार्थकता, दीगन दृष्टांत ज्ञान में 'स्व' और 'पर' की व्यवसायात्मकत्ताकी सिद्धि तथा प्रमाणकी प्रमाणताकी ज्ञप्तिको कथञ्चित् स्वतः और कथञ्चित् परत्त: सिद्ध किया गया है। हिताहित प्राप्ति -परिहारमें समर्थ होनक कारण ज्ञान कोही प्रमाण माना गया है 1 अज्ञानरूप सम्मिनापं आदि प्रमाणलक्षणोंकी मीमांसा की है।
द्वितीय समुई में १२ सूत्र है। प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद , प्रत्यक्ष का लक्षण, सांब्यबहारिक प्रत्यक्षका वर्णन ,अर्थ और आलोक मे ज्ञानके प्रति कारणतावा निरास, पदार्थस ज्ञानोत्पत्तिका खण्डन, स्वावरगक्षयोपशमरूप योग्य्रता ज्ञान के द्वारा प्रतिनिधित्व विषय की व्यवस्ता शाहगोपना विषय मानने में व्यापारका प्रतिपादन और निराबरण एवं अतीन्द्रियस्वरूप मुख्यप्रत्यक्षका लक्षण प्रतिपादित किया गया है।
तृतीय समुदेश में १७ सूत्र हैं। इसमें परीक्षाका लक्षण, परोक्ष प्रमाणक पांच भेद, उदाहरणपूर्वक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमानका लक्षण, हेतु और अविनाभाबका स्वरूप, साध्यका लक्षण, साध्यके विशेषणोंकी सार्थकता, धर्मीका प्रतिपादन, धर्मीकी सिद्धिक प्रकार, पक्ष प्रयोगको आवश्यकता, अनुमानके दो अंगोंका प्रतिपादन, उदाहरण, उपनय और निगमनको अनुमानके अंग मानने में दोपोल्ट्रावन, शास्त्र (वीतराग ) कथा मे उदाहरणादिके भी अनुमानक अवयव होनेको स्वीकृति, अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान, हेतुक उपलब्धि और अनुपलब्धि, उपलब्धिके अबिगद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि, तथा अनुप लब्धिके अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि एवं अविरुद्धोपलब्धिके व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्णचर , उत्तरचर और सहचर, बिरुवोपलब्धिके भी अविद्धोपलब्धिके समान विरुद्धव्याप्य, विरुद्ध-कार्य, बिरुद्ध-कारण, विरुद्धपूर्वचर, विरुद्धउत्सरचर, और बिरुद्ध-सहचर, अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धिके अविरुद्धस्वभावा नुपलब्धि, ब्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलधि और सहचरानुपलब्धि; विरुखानुपलब्धिके विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्ध कारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि इन सभीका विशद प्रतिपादन है। बौद्धोंके प्रति कारणहेतुकी सिद्धि, आगमप्रमाणका लक्षण और शब्दमें वस्तु प्रतिपादनको शक्तिका भी इसी समुददेशमें वर्णन है।
चतुर्थ समुद्देशमें ९ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणके सामान्य-विशेष उभयरूप विषय की सिद्धि करते हुए सामान्य और विशेषके दो-दो भेदोंका उदाहरण सहित प्रति पादन किया गया है।
पञ्चम समुद्देशमें ३ सूत्र हैं । इसमें प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलको बतलाकर उसे प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न सिद्ध किया है।
पाट समुद्दे में ७४ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणाभासोका विशद वर्णन आया है। स्वरूपाभास, प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास, तकीभास , अनुमानाभाग, पक्षाभास, हेल्लाभास, हेत्वाभासके असिद्ध, बिगद्ध, अनेकान्तिक और अकिञ्चित्का भेद तथा उनके उदाहरण 1, कालाभासके भेद, बालप्रयोगाभाम, आगमा भाम, संख्याभास, विपयाभास, फलाभास तथा वादी और प्रतिवादीको जय-पराजयव्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है ।
इसपर उत्तरकालमें अनेक टीका-व्याख्याएँ लिखी गयी है। इनमें प्रभा चन्द्राचार्यका विशाल प्रमेयकमलमार्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य को मध्यम परिमाण वाली प्रमेयरत्नमाला, भट्टारना चारु कीतिका प्रमेय रतमालालडार एवं शान्ति वर्गीकी प्रमेयकण्ठिका आदि टोकाएँ उपलब्ध है। परीक्षामुखसूत्रका प्रभाव आचार्य देवसरिक प्रमाणनयतत्त्वालोक और आचार्य हेमचन्द्रको प्रमाणमीमांसा पर स्पष्टत: दिखलाई पड़ता है । उत्तरवर्ती प्रायः समस्त जैन यायिकोंने इस ग्रन्थसे प्रेरणा ब्रहण की है।
माणिक्यनन्दि
आचार्य माणिक्यनन्दि जैन न्यायशास्त्रके महापण्डित थे। इनका परीक्षा मुखसूत्र जैन न्यायशास्त्रका बाघ न्यायसूत्र है । इसके स्रोतका निर्देश करते हुए प्रमेयरलमालामें कहा गया है
अकलखनचोऽम्भोधेरुन येन धीमता।
न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।। अर्थात् जिस धीमान्ने अकलदेबके वचन-सागरका मन्थन करके 'न्याय विद्यामृत' निकोला, उस माणिक्यनन्दिको नमस्कार है । ____ माणिक्यनन्दि नन्दिसंघके प्रमुख आचार्य थे। धारानगरी इनकी निवास स्थली रही है, ऐसा प्रमेयरलमालाकी टिप्पणी तथा अन्य प्रमाणोंसे अवगत होता है। १. प्रमेयरलमाला १।२ । २. प्रमेयरलमाला, टिप्पण पुs १ ।
प्रबुद्धाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४१
शिमोगा जिलेके नगरताल्लुकेके शिलालेख नं०६४ के एक पद्यमें माणिक्य नन्दिको जिनराज लिखा है
"माणिक्यनन्दीजिनराजवाणीप्राणाधिनाथः परवादिमी।
चिनं प्रमाचन्द्र इह दमायां माण्डवृद्धौ नितरां व्यदीपि ।।" न्यायदीपिकामें इनका 'भगवान' के रूपमें उल्लेख किया गया है। प्रमेय कमलमार्तण्डमें प्रमाचन्द्रने इनका गुरुके रूपमें स्मरण करते हुए इनके पद पंकजके प्रसादसे ही प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना करनेका उल्लेख किया है। इससे माणिक्यनन्दीके असाधारण बंदुष्यका परिज्ञान होता है । माणिक्यनन्दीने अकलङ्गके ग्रन्थोंके साथ दिङनागके न्यायप्रवेश और धर्मकीतिक ग्याबिन्दुका भी अध्ययन किया था । वस्तुत: माणिक्यनांन्द अत्यन्त प्रतिभाशाली और विभिन्न दर्शनोंके ज्ञाता है। 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि (वि० सं०११००) के उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दीके गुरुका नाम राममन्दी है और स्वयं नयनन्दी उनके शिष्य हैं। 'सुदंसणचरिउ' को प्रशस्तिमें लिखा है
जिणिदागमभासणे एचित्तो तवायारणिवाइलद्धाइजुत्तो। परिंदारिदेहि चंदणंदी हुओ तस्स सीसो गणी रामणंदी ।। असेसाण गंथाण पारमि पत्तो तवे अंगवी भन्बराईमित्तो। गुणावासभूवो सुतिल्लोक्कणंदी महापंडिओ तस्स माणिक्कणंदी ॥ पढमसीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयदि अणिदिउ ।
चरिउ सुदंसपणाहहो तेण अबाहहो विरइ बुह अहिणदिउ ।। अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्दके अन्वयमें जिनेन्द्र-आगमके विशिष्ट अभ्यासी, तपस्वी, गणी रामनन्दी हुए। उनके शिष्य महापण्डित माणिक्यनन्दी हुए, जो कि सर्वग्नन्थोंके पारगामी, अंगोंके ज्ञाता एवं सद्गुणोंके निवासभूत थे। नयनन्दी उनके शिष्य थे।
समय
प्रमेयरत्नमालाकारके पूर्वोक्त उल्लेखानुसार माणिक्यनन्दी अकलंकके उत्तरवर्ती हैं और अकलंकका समय ई० सन् ७२०-७८० ई० माना गया है। अतएव माणिक्यनन्दीके समयको पूर्वावधि ई० सन् ८०० निर्वाध मानी जा सकती है। प्रज्ञाकारगुप्त भाविकारणबाद और अतीतकारणवाद स्वीकार करते हैं। माणिक्यनन्दीने अपने परीक्षामुखसूत्रमें इन दोनों कारणवादोंका खण्डन किया है। यथा १. तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारकः न्यायदीपिका, अभिनव धर्मभूषण ।
HT
भाव्यतीतयोगमनागबोधनि नरिगोशोधौ प्रतिहेलम् । तयापाराश्चितं हि तद्भावभावित्वम् ।।
षष्ठ अध्यायके ५५ सूत्रमें प्रभाकरगुरुकी प्रमाणसंख्याका खण्डन किया गया है और इनका समय ई सन् की वी शतीका प्राम्भिक भाग है । इससे भी माणिक्यनन्दिके समयकी पूर्वावधि ई० मन् ८०० है। आचार्य प्रभाबन्द्र (ई. सन् १९००) ने परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमात्तंण्ड नामक टीका लिखी है। अतः प्रभानेन्द्रका समय (११वीं शती ) इनकी उत्तराधि है। ध्यातव्य है कि डॉ दरबारीलाल कोठियाने अनेक प्रमाणोंस सिद्ध किया है कि माणिक्यनन्दि प्रभा चन्द्र के साक्षात् गुरु थे । अत: माणिक्य नन्दि उनरा बुछ मुबंवली (ई० १०२८ के लगभग) हैं।
आचार्य नयनन्दीने अपने 'सदसणारउको वि सं १५०० में धारानरेश भाजदेव के समयमें पूर्ण किया है और अगनेको माणिक्यमन्दीका प्रथम शिष्य
कहा है
णिविक्कमकालहो ववगएम गयारहसंबच्छरमाएम् ।
हि केलिग्उि अमरच्छरेण णयणंदी विस्याउ बिस्वरेण || अतएव माणिक्यानन्दका समय नयनन्दी के समय वि० सं० ११०० से ३०-४० वर्ष पहले अर्थात् वि० सं० १४६७, ई० सन् १९०३ ( ई० मन् को ११वीं शताब्दी
का प्रथम चरण अबगत होता है। रचना
माणिक्यनन्दिका एकमात्र ग्रन्थ 'परीक्षामुख' ही मिलता है। इस ग्रन्धका नामकरण बौद्धदर्शनके हेतुमुख, न्यायमुख जसे ग्रन्थों के अनुकरणपर मुखान्त नामपर किया गया है।
परीक्षामुखमें प्रमाण और प्रमाणाभासोंका विशद प्रतिपादन किया गया है। जिस प्रकार दपंणमें हमें अपना प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखलाई पड़ता है उसी प्रकार परीक्षा मुखरूपी दर्पणमें प्रमाण और प्रमाणाभासको स्पष्ट रूपसे ज्ञात किया जा सकता है।
यह ग्रन्थ न्यायसूत्र, बैशेषिकसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र आदि मूत्रग्रन्योंकी तरह सूत्रात्मक शैलीमें लिखा गया है ।
- इसके सूत्र सरल, सरस और गम्भीर अर्थ वाले हैं। इसकी भाषा प्राञ्जल १. परीक्षामुखसूत्र, ३।५८-५९ । २. सुदंसगरिउ, प्रशस्ति, कश्यक ९, प्राकृत शोघ संस्थान, वैशाली । ३. आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, ३० ३१, ३२, ३३, बीरसेवा मन्दिर-संस्करण, ई० १९४९ ।
प्रबुवाचार्य एवं परम्परापोषकाचार्य : ४३
और सुबोध है | समस्त गन्थम २८८ मुत्र हैं और यह छ: समुद्देशों में विभक्त है। प्रथम समुशमें १३ मूत्र हैं। इसमें प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके विशेषणोंकी सार्थकता, दीगन हादान्तसे ज्ञान में 'स्व' और 'पर' की व्यवसायात्मकत्ताकी शिद्धि तथा प्रमाणकी प्रमाणताकी ज्ञप्तिको नाचिन् स्वतः और कथञ्चित् परत्त: सिद्ध किया गया है। हिताहितमाति-परिहारमें समर्थ होनक कारण ज्ञान काही प्रमाण माना गया है 1 अज्ञानरूप सम्मिनापं आदि प्रमाणलक्षणोंकी मीमांसा की है।
द्वितीय समुई में १२ मुत्र है। प्रमाण प्रत्यक्ष आर परोक्ष दो मंद, प्रत्यक्ष का लक्षण, सांब्यबहारिक प्रत्यक्षका नन, अर्भ और आलोकम ज्ञानके प्रति कारणतावा निरास, पदार्थस ज्ञानोत्पत्तिका खण्डन, स्वावरगक्षयोपशमरूप योग्यत्तासे ज्ञान के द्वारा प्रतिनियत निकी अरा, शाहगोपना विषय मानने में व्यापारका प्रतिपादन और निराबरण एवं अतीन्द्रियस्वरूप मुख्यप्रत्यक्षका लाण प्रतिपादित किया गया है।
तृतीय समुदेश में १७ सूत्र हैं। इसमें परीक्षाका लक्षण, परोक्ष प्रमाणक पांच भेद, उदाहरणपूर्वक स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, सर्व और अनुमानका लक्षण, हेतु और अविनाभाबका स्वरूप, साध्यका लक्षण, साध्यके विशेषणोंकी सार्थकता, धर्मीका प्रतिपादन, धर्मीकी सिद्धिक प्रकार, पक्षप्रयोगको आवश्यकता, अनुमानके दो अंगोंका प्रतिपादन, उदाहरण, उपनय और निगमनको अनुमानके अंग मानने में दोपोल्ट्रावन, शास्त्र (चीसराग) कमा म उदाहरणादिके भी अनुमानक अवयव होनेको स्वीकृति, अनुमानके स्वार्थानुमान और परार्थानुमान, हेतुक उपलब्धि और अनुपलब्धि, उपलब्धिके अबिगद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि, तथा अनुप लब्धिके अविरुद्धानुपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि एवं अविरुद्धोपलब्धिके व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्नचर, उत्तरचर और सहचर, बिरुवोपलब्धिके भी अविद्धोपलब्धिके समान विरुद्धव्याप्य, विरुद्ध-कार्य, बिरुद्ध-कारण, विरुद्धपूर्वचर, विरुद्धउत्सरचर, और बिरुद्ध-सहचर, अनुपलब्धिके प्रथम भेद अविरुद्धानुपलब्धिके अविरुद्धस्वभावा नुपलब्धि, ब्यापकानुपलब्धि, कार्यानुपलब्धि, कारणानुपलब्धि, पूर्वचरानुपलब्धि, उत्तरचरानुपलधि और सहचरानुपलब्धि; विरुखानुपलब्धिके विरुद्ध कार्यानुपलब्धि, विरुद्ध कारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि इन सभीका विशद प्रतिपादन है। बौद्धोंके प्रति कारणहेतुकी सिद्धि, आगमप्रमाणका लक्षण और शब्दमें वस्तु प्रतिपादनको शक्तिका भी इसी समुददेशमें वर्णन है।
चतुर्थ समुद्देशमें ९ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणके सामान्य-विशेष उभयरूप विषय की सिद्धि करते हुए सामान्य और विशेषके दो-दो भेदोंका उदाहरण सहित प्रति पादन किया गया है। ४४ : तीर्थंकर महाबीर और उनकी आचार्य परम्परा
ILLI
पञ्चम समुद्देशमें ३ सूत्र हैं । इसमें प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलको बतलाकर उसे प्रमाणसे कथञ्चित् भिन्न और कञ्चित् अभिन्न सिद्ध किया है।
पाट समुद्दे में ७४ सूत्र हैं। इसमें प्रमाणाभासोका विशद वर्णन आया है। स्वरूपाभास, प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास, ताभास, अनुमानाभाग, पक्षाभास, हेल्लाभास, हेत्वाभासके असिद्ध, बिगद्ध, अनेकान्तिक और अकिञ्चित्का न गया नादातरम. -1, कालाभासके भेद, बालप्रयोगाभाम, आगमा भाम, संख्याभास, विपयाभास, फलाभास तथा बादी और प्रतिवादीको जय-पराजयव्यवस्थाका प्रतिपादन किया गया है ।
टीकाएँ
इसपर उत्तरकालमें अनेक टीका-व्याख्याएँ लिखी गयी है। इनमें प्रभा चन्द्राचार्यका विशाल प्रमेयकमलमार्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य को मध्यम परिमाण वाली प्रमेयरत्नमाला, भट्टारक चारु कीर्तिका प्रमेयरतमालालड़्कार एवं शान्ति वर्गीकी प्रमेयकण्ठिका आदि टोकाएँ उपलब्ध है। परीक्षामुखसूत्रका प्रभाव आचार्य देवसूरके प्रमाणनयतत्त्वालोक और आचार्य हेमचन्द्रको प्रमाणमीमांसा पर स्पष्टत: दिखलाई पड़ता है । उत्तरवर्ती प्रायः समस्त जैन नयायिकोंने इस ग्रन्थसे प्रेरणा ग्रहण की है।
गुरु | आचार्य श्री रामानंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री मानिक्यनंदी जी |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
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