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#MuniMahanandiBhattarak16ThCentury
मुनि महन्दिभट्टारक बीरचन्दके शिष्य थे । ये अपने युगक अत्यन्त प्रति ष्ठित साहित्यकार थे । इनयों द्वारा विचित 'बारहखड़ी दोहा' या 'पाहुड दोहा' ग्रन्थ प्राप्त है | इसमें ३३३ दाह है। इन्होंने नन्थके आदिमें अपने गुरुका नाम उल्लेख किया है ।
बारह निउणा जिण णवमि किय चारह अक्खरकक्क ।
महयदिण भचियायण हो, णिशुण भिरमण थक्क ।।
भन्नदुक्खह निबिगएण, बीरचन्दसिस्सेण ।
भवियह पडिबोहण कया, दोहा कञ्चमिसेण ।।
उपलब्ध पाण्डुलिपिके अन्त में निम्नलिखित ग्रन्थ-प्रशस्ति पायी जाती है
"संवत् १६०२ वर्षे बैशाख सुदि १० तिथौ रविवासरे उत्तराफाल्गु नक्षत्रे । राजाधिराज साहि आलम राये । नगर चंपावतीमध्ये श्रीपाश्वनाथचैत्यालये ।
श्रीमूलसंधे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे भट्टारकाधीकुदकुंदाचार्य न्वये । भट्टारकधीपद्यनन्दिदेवास्तत्पटे भट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेवास्तत्पट्ट भट्टा रकीजिनचन्द्रदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीप्रभाचन्द्रदेवस्तच्छिष्यमंडलाचार्य श्रीधर्म चन्द्रदेवास्तदाम्नाये ।" _इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि यह पाण्डुलिपि वि० सं० १६०२ में तैयार की गयी है। यह प्रति चम्पावतीके पाश्वनाथके चैत्यालयमें लिखी गयी है। महनन्दि ने अपना विशेष परिचय नहीं दिया है और न इस ग्रन्थके लिखनेका काल ही दिया है । भट्टारक वीरचन्द्र, जिनको इन्होंने अपना गुरु माना है वह भी निश्चितरूपसे कौन वीरचन्द्र हैं, यह नहीं कहा जा सकता है । बलात्कारगण संघ सूरत-शाखाके भट्टारकोंमें भट्टारक लक्ष्मीचन्द्रके दो शिष्योंके नाम आते है-अभयचन्द्र और वीरचन्द्र । बीरचन्द्रका समय एक मूर्तिलेखके आधारपर १६ वीं शताब्दी प्रतीत होता है। यदि इन्हीं त्रीरचन्द्रक ये शिष्य हों, तो मह नन्दिका समय भी १६ वी शतीका उत्तरार्द्ध होना चाहिये । महनन्दि मुनि थे, भट्टारक नहीं । अतएव वीरचन्द्रकी पट्टावली में इनके नामका उल्लेख न होना स्वाभाविक ही है । अतः हमारा अनुमान है कि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वीरचन्द्र
ही इनके गुरु हैं और इनका समय वि० सं० की १६ वीं शताब्दी है ।
महनन्दिकी एक ही रचना प्राप्त है-पाहुडदोहा। यह रचना बाहरखड़ीके क्रमसे लिखी गयी है। इस बारहखड़ीमें य, श, ष, ङ, और ण इन वर्णोका समावेश नहीं किया है और न इन वर्णोंपर कोई दोहा ही लिखा गया है । इसमें ३३३ दोहे हैं, जिनकी संख्याकी अभिव्यञ्जना कविने विभिन्न रूपोंमें की है ।
एक्कु या रु प शारदुइ इ ण तिन्निबि मिल्लि ।
चउबीस गल तिण्णिसय, बिरइए दोहा वेल्लिा || ४ ||
तेतीसह. छह छडिया, बिरइय सत्तावीस ।
बारह गुणिमा तिपिणसय, हुअ दोहा चउबीस ।। ५ ।।
सो दोहा अप्पाणयह, दोहो जोण मुणेइ ।
मुांण महादिण भासियउ, मुणिविण चित्ति घरेइ ।। ६ ।।
यह रचना उपदेशात्मक, आध्यात्मिक और नीति सम्बन्धी है । कविने छोटे छोटे दोहोंमें सुन्दर भावोंका गुम्फन किया है। स्थापत्यकी दृष्टिसे भी इसका कम महत्त्व नहीं है 1 बारह खड़ी शैलीमें कचिने दोहोंका सृजन किया है। प्रत्येक दोहके आरम्भमें क, का, की, कि, कु-कू, के, के, को, को, के, कः तथा ख, खा, खी, खि, खु, खू, खे, खै, स्त्रो, खो, खं, खः के क्रमसे दोहोंका सृजन किया
गया है। विषय आरम्भ करते समय कवि अहिंसाकी महत्ताका निरूपण करते हुए कहता है कि संसारमें समस्त धर्मका सार अहिंसा है। अताब' प्राणीको हिंसक आचरण द्वारा इस संमारमें निमग्न नहीं होना चाहिये । अहिंसाका आच रण व्यक्तिके जीवनको उन्नत बनाता है, भावोंको विशुद्ध करता है और निर्वाण-मार्गकी ओर ले जाता है । कविने लिखा है
किजइ जिणवर भासियऊ, धम्मु हिंसा सारू ।
जिम छिजइ रे जीव तुहु, अबलोढउ संसार ॥ ९ ||
कवि आत्माकी अमरता और सीरकी नश्वरताका चित्रण करता हुआ कहता है कि जिस प्रकार दूधमें घी, तिल में तेल और कालमें अग्नि रहती है, उसी प्रकार शरीरमें आत्मा निवास करती है। अतएव जो क्षुद्र भावोंको त्याग कर स्वभाव धारण करता है, वही तप, व्रत और संयम धारण कर कर्मों का क्षय करता है। जो ध्यान द्वारा कर्मोंका क्षपण करता है, वह सात्त-आठ या दो-तीन भवमें मुनिपद प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। कवि व्रत, संयम, नियम और तपपर विशेष जोर देता है। वस्तुतः जो आराधक सम्यक्त्व को प्राप्त कर प्रत और संयम द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता है, वह गीन हो निर्वाणपद पाता है। कवि शरीरप्रमाण सर्वांगीण आत्माको सिद्धि करता हुआ कहता है--
खीरह मज्झइ जेम घिउ, तिलर मंजिल जिम तिलु ।
कहि वासणु जिम यसइ, तिम देहहिं देहिल्ल ।। २२ ।।
खुदभाव जिय परिहरहि, सुहभाव हि मणुदेहि ।
तब बर्याणमहिं संजहि, हुक्किय कम्म खबेहि ।। २३ ।।
खणाम बंदणि पडि कमणि, झाण सयण मकरोसि ।
सत्तहि दुहु-तिहि भवहि, मुणि णिव्याणु लहीसि ।। २४ ।।
आचार्यने बताया है कि जो व्यक्ति जीवनपर्यन्त, इन्द्रियनिग्रह, दया, संयम, नियम और तपका आचरण करता है, उसके मरण करनेमें कोई हानि या कष्ट नहीं है। इस मनुष्यपर्यायका उद्देश्य व्रत और संयम धारण करना है। यदि जीवन में व्रत और संयमको प्राप्ति हो गयी, तो यह मनुष्यपर्याय सार्थक हो जाती है। जीवनका अन्तिम लक्ष्य आत्मशुद्धि है, जो व्यक्ति इस आत्मशुद्धिके लिए प्रयत्नशील रहता है, वह मनुष्यभवको सार्थक कर लेता है ।
दमुदय संजमु णियमु तउ, आज मुवि किउ जेण ।
तासु मर तह कवण भऊ, कहिया महइदेण || १७५ ॥
आचार्यने दानके चार भेद बतलाये हैं-जीवदया, आहारदान, औषधदान
और विद्यादान । जो धानक इन चारों दानोंको देता रहता है, वह अपने कर्मोंकी शोन निर्जरा कर लेता है। गृहस्थावस्थामें दान, पूजन और स्वाध्याय
ही कर्मक्षयका कारण है । लिखा है
दाणु घरविहु जिणवरह, कहियउ साबय दिज्ज ।
दय जीवई चासंघहवि, भोयणु कसह विज ॥ १७६ ।।
इसी प्रकार समाविमरणके सम्बन्धमें लिखते हुए कविने पण्डितमरणको श्रेष्ठ बताया है
बाल मरण मुणि परिहरहि, पंडिय मरणु मरेहि ।
बारह जिण सासणि कहिय, अणुवेवखउ सुमरेहि ॥ २२६ ।।
कविने ग्रन्थको समाप्त करते हुए लिखा है
जो पइ पट्टाबई संभलइ, दत्रिणु दवि लिहाबइ ।
महायंद भयो निनुलर, अक्वड सोक्नु पराबइ ।। ३३३ ।।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक वीरचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री मुनि महनन्दी भट्टारक |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#MuniMahanandiBhattarak16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री मुनि महानंदी भट्टारक 16वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक वीरचन्द्र Aacharya Shri Bhattarak Veerchandra
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 07 - June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 07 - June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
मुनि महन्दिभट्टारक बीरचन्दके शिष्य थे । ये अपने युगक अत्यन्त प्रति ष्ठित साहित्यकार थे । इनयों द्वारा विचित 'बारहखड़ी दोहा' या 'पाहुड दोहा' ग्रन्थ प्राप्त है | इसमें ३३३ दाह है। इन्होंने नन्थके आदिमें अपने गुरुका नाम उल्लेख किया है ।
बारह निउणा जिण णवमि किय चारह अक्खरकक्क ।
महयदिण भचियायण हो, णिशुण भिरमण थक्क ।।
भन्नदुक्खह निबिगएण, बीरचन्दसिस्सेण ।
भवियह पडिबोहण कया, दोहा कञ्चमिसेण ।।
उपलब्ध पाण्डुलिपिके अन्त में निम्नलिखित ग्रन्थ-प्रशस्ति पायी जाती है
"संवत् १६०२ वर्षे बैशाख सुदि १० तिथौ रविवासरे उत्तराफाल्गु नक्षत्रे । राजाधिराज साहि आलम राये । नगर चंपावतीमध्ये श्रीपाश्वनाथचैत्यालये ।
श्रीमूलसंधे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे भट्टारकाधीकुदकुंदाचार्य न्वये । भट्टारकधीपद्यनन्दिदेवास्तत्पटे भट्टारकश्रीशुभचन्द्रदेवास्तत्पट्ट भट्टा रकीजिनचन्द्रदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीप्रभाचन्द्रदेवस्तच्छिष्यमंडलाचार्य श्रीधर्म चन्द्रदेवास्तदाम्नाये ।" _इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि यह पाण्डुलिपि वि० सं० १६०२ में तैयार की गयी है। यह प्रति चम्पावतीके पाश्वनाथके चैत्यालयमें लिखी गयी है। महनन्दि ने अपना विशेष परिचय नहीं दिया है और न इस ग्रन्थके लिखनेका काल ही दिया है । भट्टारक वीरचन्द्र, जिनको इन्होंने अपना गुरु माना है वह भी निश्चितरूपसे कौन वीरचन्द्र हैं, यह नहीं कहा जा सकता है । बलात्कारगण संघ सूरत-शाखाके भट्टारकोंमें भट्टारक लक्ष्मीचन्द्रके दो शिष्योंके नाम आते है-अभयचन्द्र और वीरचन्द्र । बीरचन्द्रका समय एक मूर्तिलेखके आधारपर १६ वीं शताब्दी प्रतीत होता है। यदि इन्हीं त्रीरचन्द्रक ये शिष्य हों, तो मह नन्दिका समय भी १६ वी शतीका उत्तरार्द्ध होना चाहिये । महनन्दि मुनि थे, भट्टारक नहीं । अतएव वीरचन्द्रकी पट्टावली में इनके नामका उल्लेख न होना स्वाभाविक ही है । अतः हमारा अनुमान है कि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वीरचन्द्र
ही इनके गुरु हैं और इनका समय वि० सं० की १६ वीं शताब्दी है ।
महनन्दिकी एक ही रचना प्राप्त है-पाहुडदोहा। यह रचना बाहरखड़ीके क्रमसे लिखी गयी है। इस बारहखड़ीमें य, श, ष, ङ, और ण इन वर्णोका समावेश नहीं किया है और न इन वर्णोंपर कोई दोहा ही लिखा गया है । इसमें ३३३ दोहे हैं, जिनकी संख्याकी अभिव्यञ्जना कविने विभिन्न रूपोंमें की है ।
एक्कु या रु प शारदुइ इ ण तिन्निबि मिल्लि ।
चउबीस गल तिण्णिसय, बिरइए दोहा वेल्लिा || ४ ||
तेतीसह. छह छडिया, बिरइय सत्तावीस ।
बारह गुणिमा तिपिणसय, हुअ दोहा चउबीस ।। ५ ।।
सो दोहा अप्पाणयह, दोहो जोण मुणेइ ।
मुांण महादिण भासियउ, मुणिविण चित्ति घरेइ ।। ६ ।।
यह रचना उपदेशात्मक, आध्यात्मिक और नीति सम्बन्धी है । कविने छोटे छोटे दोहोंमें सुन्दर भावोंका गुम्फन किया है। स्थापत्यकी दृष्टिसे भी इसका कम महत्त्व नहीं है 1 बारह खड़ी शैलीमें कचिने दोहोंका सृजन किया है। प्रत्येक दोहके आरम्भमें क, का, की, कि, कु-कू, के, के, को, को, के, कः तथा ख, खा, खी, खि, खु, खू, खे, खै, स्त्रो, खो, खं, खः के क्रमसे दोहोंका सृजन किया
गया है। विषय आरम्भ करते समय कवि अहिंसाकी महत्ताका निरूपण करते हुए कहता है कि संसारमें समस्त धर्मका सार अहिंसा है। अताब' प्राणीको हिंसक आचरण द्वारा इस संमारमें निमग्न नहीं होना चाहिये । अहिंसाका आच रण व्यक्तिके जीवनको उन्नत बनाता है, भावोंको विशुद्ध करता है और निर्वाण-मार्गकी ओर ले जाता है । कविने लिखा है
किजइ जिणवर भासियऊ, धम्मु हिंसा सारू ।
जिम छिजइ रे जीव तुहु, अबलोढउ संसार ॥ ९ ||
कवि आत्माकी अमरता और सीरकी नश्वरताका चित्रण करता हुआ कहता है कि जिस प्रकार दूधमें घी, तिल में तेल और कालमें अग्नि रहती है, उसी प्रकार शरीरमें आत्मा निवास करती है। अतएव जो क्षुद्र भावोंको त्याग कर स्वभाव धारण करता है, वही तप, व्रत और संयम धारण कर कर्मों का क्षय करता है। जो ध्यान द्वारा कर्मोंका क्षपण करता है, वह सात्त-आठ या दो-तीन भवमें मुनिपद प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त कर लेता है। कवि व्रत, संयम, नियम और तपपर विशेष जोर देता है। वस्तुतः जो आराधक सम्यक्त्व को प्राप्त कर प्रत और संयम द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता है, वह गीन हो निर्वाणपद पाता है। कवि शरीरप्रमाण सर्वांगीण आत्माको सिद्धि करता हुआ कहता है--
खीरह मज्झइ जेम घिउ, तिलर मंजिल जिम तिलु ।
कहि वासणु जिम यसइ, तिम देहहिं देहिल्ल ।। २२ ।।
खुदभाव जिय परिहरहि, सुहभाव हि मणुदेहि ।
तब बर्याणमहिं संजहि, हुक्किय कम्म खबेहि ।। २३ ।।
खणाम बंदणि पडि कमणि, झाण सयण मकरोसि ।
सत्तहि दुहु-तिहि भवहि, मुणि णिव्याणु लहीसि ।। २४ ।।
आचार्यने बताया है कि जो व्यक्ति जीवनपर्यन्त, इन्द्रियनिग्रह, दया, संयम, नियम और तपका आचरण करता है, उसके मरण करनेमें कोई हानि या कष्ट नहीं है। इस मनुष्यपर्यायका उद्देश्य व्रत और संयम धारण करना है। यदि जीवन में व्रत और संयमको प्राप्ति हो गयी, तो यह मनुष्यपर्याय सार्थक हो जाती है। जीवनका अन्तिम लक्ष्य आत्मशुद्धि है, जो व्यक्ति इस आत्मशुद्धिके लिए प्रयत्नशील रहता है, वह मनुष्यभवको सार्थक कर लेता है ।
दमुदय संजमु णियमु तउ, आज मुवि किउ जेण ।
तासु मर तह कवण भऊ, कहिया महइदेण || १७५ ॥
आचार्यने दानके चार भेद बतलाये हैं-जीवदया, आहारदान, औषधदान
और विद्यादान । जो धानक इन चारों दानोंको देता रहता है, वह अपने कर्मोंकी शोन निर्जरा कर लेता है। गृहस्थावस्थामें दान, पूजन और स्वाध्याय
ही कर्मक्षयका कारण है । लिखा है
दाणु घरविहु जिणवरह, कहियउ साबय दिज्ज ।
दय जीवई चासंघहवि, भोयणु कसह विज ॥ १७६ ।।
इसी प्रकार समाविमरणके सम्बन्धमें लिखते हुए कविने पण्डितमरणको श्रेष्ठ बताया है
बाल मरण मुणि परिहरहि, पंडिय मरणु मरेहि ।
बारह जिण सासणि कहिय, अणुवेवखउ सुमरेहि ॥ २२६ ।।
कविने ग्रन्थको समाप्त करते हुए लिखा है
जो पइ पट्टाबई संभलइ, दत्रिणु दवि लिहाबइ ।
महायंद भयो निनुलर, अक्वड सोक्नु पराबइ ।। ३३३ ।।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक वीरचंद्र |
शिष्य | आचार्य श्री मुनि महनन्दी भट्टारक |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Muni Mahanandi Bhattarak 16th Century
आचार्य श्री भट्टारक वीरचन्द्र Aacharya Shri Bhattarak Veerchandra
आचार्य श्री भट्टारक वीरचन्द्र Aacharya Shri Bhattarak Veerchandra
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