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#Muni PadmakirtiPrachin
'पासणाहचरिज'के कर्ता मुनि पद्मकीर्ति हैं। इस पथकी प्रत्येक सन्धिके अन्तिम कड़वकके पत्त में 'पउम' शब्दका उपयोग किया गया है। यह 'पउम' भब्द 'कमल' और 'लक्ष्मी' दोनों ही अर्थोंमें सन्दर्भके अनुसार घटित हो सकता है । पर चतुर्थ सन्धिके अन्तिम पत्ते में 'पउमभणई तथा पांचवीं, चौदहवीं और अठारहवीं सन्धियोंके अन्तिम पत्तोंमें 'पउकित्ति' पदका प्रयोग आया है । १४ ची और १८वों मन्धियोंके अन्तिम घसोंमें 'पउकित्तिमुणिका प्रयोग आता है, जिससे स्पष्ट है कि आचार्य पद्मकीर्तिमुनिने 'पासणाहरि'की रचना की। ग्रन्यके अन्त में आचार्यने कविप्रशस्ति निबद्ध की है, जो निम्न प्रकार है
जइ वि विरुद्ध एवं णियाण-बंध जिणिद लूह समये ।
सह वि तुह चलण-कित्तं कइत्तणं होज्ज पउमस्स ।।
रइयं पास-पुराण मिया पुहबी जिणालया दिट्ट्ठा ।
इण्इं जीविय-मरणं हरिसविसाओ ण पउमस्स ।।
सावय-कुर्लाम्म जम्मो जिणचलणाराहणा कइतं च ।
एया. तिण्णि जिणवर भवि भवे इंतु पउमस्स ।।
णव-सय-णउमाणतये कत्तियमासे अमावसी दिवसे ।
रइयं पास-पुराणं कश्णा इह पउमगामेण ॥
अर्थात्-पपकी तिने पार्श्वपुराणकी रचना की, पृथ्वीभ्रमण किया और जिनालयोंके दर्शन किये अब उसे जीवन मरणके सम्बन्धमें कोई हर्ष-विषाद नहीं है। श्रावककुलमें जन्म, जिनचरणोंमें भक्ति तथा कवित्व, ये तीन बातें हे जिनवर ! पद्मको जन्मान्सरोंमें प्राप्त हो। अन्तिम पद्यमें कविने अपनी रचना के समयका उल्लेख किया है। १८वीं सन्धिके अन्तिम कड़वकमें आचार्यने अपनी मुरुपरम्पराका निर्देश किया है, जो निम्न प्रकार है
सुपसिद्ध महामइ णिनमबरु थिउसेण-संधु इह महिहि वरू।
तहिं चंदसेणु णामण रिसी चय-संजम-णियमइँ जासु किसी ।।
तहाँ सोसु महामइ णियमधारि जयवंतु गुणायक बंभयारि ।
सिरि माहस्सेणु महानुमाउ विणसेणु सीसु पुणु तासु जाउ ।
तहाँ पुव्व-मणेहें पउमकित्ति उप्पण्णु सीसु जिणु जाम् चित्ति ।
ते जिणवर-सासणु-भासिएक कह धिरड्य जिणसंगहा माण ।
घत्ता–सिरि-गुरु-देव-पसाएँ कहिङ असेसु वि चरिउ मई।।
पउकित्ति-मुणि-गवहो देउ जिणेसर बिमलमई ॥
अर्थात् इस पृथ्वीपर सुप्रसिद्ध अत्यन्त प्रतिभाशाली, नियमोंका धारक श्रेष्ठ सेनसंघ हुआ। उसमें चन्द्रसेन नाम ऋषि थे। जिनके जीवित रहनेके साधन ही व्रत, संयम और नियम थे। इनके शिष्य महामति नियमधारी, नय वान्, गुणोंकी खान ब्रह्मचारी तथा महानुभाव श्री माघबसेन हुए। तत्पश्चात् उनके शिष्ट्य जिनसेन हुए। पूर्वस्नेहके कारण पद्मकीर्ति उनका शिष्य हुआ, जिसके चित्तमें जिनवर विराजते थे। __ गुरुदेवके प्रसादसे यह ग्रन्थ लिखा गया, मुनि पद्मकीतिको जिनेश्वर बुद्धि प्रदान करें। ___ इस गुरुपरम्परासे स्पष्ट है कि परकीतिके गुरु जिनसेन, दादागुरु माधव सेन और परदादागुरु चन्द्रसेन थे। सेनसंघ अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है और इस संघमें बड़े-बड़े आचार्य उत्पन्न हुए हैं । पद्मकीति दाक्षिणात्य थे, क्योंकि सेनसंघ का प्रभुत्व दक्षिण भारसमें रहा है। 'पासणाहरिज'के वर्णनोंसे भी इनका दक्षि
१. पासणाहरित, अन्तिम अन्य प्रशस्ति ।
२. पासणाहरित, सम्पादक प्रफुल्ल कुमार मोदी, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, १८०२२ ।
णात्य होना सिद्ध होता है। मामाकी कन्याके साथ विवाह करनेकी पद्धतिका वर्ण। इस ग्रन्थकी १३वीं सन्धिमें आया है। युद्धवर्णन सम्बन्ध में कर्नाटक और महाराष्ट्रके वीरोंकी प्रशंसा की गयी है । अतएव जन्मभूमि के प्रेमके कारण कवि को दाक्षिणात्य माननेगें किसी प्रकारकी बाधा नहीं है।
ग्रन्थ चनाका निर्देश अधिने प्रशारिबिया है। पर यह प्रगस्ति सन् १४५३की प्राचीन पाण्डुलिपिमें उपलब्ध नहीं है । उसके पश्चातकी आमेर भण्डार में सुरक्षित पाण्डुलिपियोंमें उक्त प्रशस्ति पायी जाती है । सबसे प्राचीन प्रतिमें प्रशस्ति न होनेके कारण कुछ सन्देह होता है, पर यह हमें लिपिकारोंका प्रमाद मालूम पड़ता है | प्रशस्तिके भावोंको देखनेसे यह साष्ट होता है कि प्रशस्ति प्रन्थकर्ता द्वाग ही लिखित है। यद्यपि प्रशस्ति गाथा छन्दमें लिखी गयी है, पर इससे भी किसी प्रकारकी आशंका नहीं की जा सकती, क्योंकि पुष्पदन्तने भी अपने 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिका एक भाग माथाछन्द में लिखा है। प्रशस्ति के अनुसार इस प्रन्थकी रचना संवत् ९९९ कातिक मासकी अमावस्याको हई है, पर यहाँ यह विचारणीय है कि यह संवत् शक संवत् है या बिक्रम संवत् । श्रद्धेय डा० हीरालाल जैन इसे शक संवत् मानते हैं और प्रो० डा० कोछड़ इसे विक्रम संवत् मानते हैं। पद्मकीर्ति दाक्षिणात्य विद्वान थे और दक्षिण भारत में काल गणना शक संवतके अनुसार ली जाती है । वि० सं० का उपयोग उत्तर भारतमें होता रहा है । पञ्चकीतिने अपने गुरुका नाम जिनसेन दादागुरुका नाम माधव सेन और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेन बतलाया है। इस गुरुशिष्यपरम्पराके नामोंमें चन्द्रसेन (चन्द्रप्रभा और माधवसेनके नामोंका उल्लेख गरेआबलि' में प्राप्त एक अभिलेखमें गुरुशिष्यके रूपमें हुआ है ! इम अभिलेख में उसका समय अंकित है
"स्वस्ति थीमत्तु विक्रम-वर्षद ४ [ ] नेय सावा [रण]-संवत्मरद माघ शुद्ध ५ बृ० वारद्वन्दु श्लोमन्मल-संघद सेनाणद पोरि-गच्छद चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव-शिष्यरष माधवसेन-भट्टारकादेवरु'' अर्थात् मूलसेन, सेनगण और पौगीर मच्छके चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेव जिमचरणोंका ममन करके पश्चारमेष्ठिके स्मरण कर समाधिमरण धारण कर स्वर्गस्थ हुए । चालुक्यवंशी राजा विक्रमादित्य (षष्ठ) त्रिभुवन मल्लदेव शक संवत् ८९.८ ई० सन् १००६ में सिंहामनारूढ हुआ था और तत्काल ही उसने अपने नामसे एक
१. जन शिलालेखसंग्रह, भाग दो, अभिलेख संख्या २८६, पृ. ४३६ ।
मंवत्त चलाया था। गैरोनेट और जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके सम्पादक में विक्रम वर्षद नामसे निर्दिष्ट किया है। साथ ही इन विद्वानोंने अभिलेखमें अंकित चारके पश्चात् कुछ स्थान रिक्त होनेसे यह अनुमान किया है कि इस चारके अंकके बाद भी कोई अंक अंकित रहा है, जो अब लुप्त हो गया है और यह लुप्त अंक ९ होना चाहिये । इन विद्वानोंने इस अभिलेखका समय चालुक्य वि० संकलौ बर्ष माना है। यह वर्ष शक संवत् १०४७,ई. सन् १९२४ और नि० सं० ११८१ होता है । अब यदि इस अभिलेखका समय शक सं० १०४७
और उसमें उल्लिखित चन्द्रसेन और माधवसेनको पद्मकीतिकी गुरुपरम्परामें माना जाये तो शक सं०१०४७ में माधवसेन जीवित थे, यह मानना पड़ेगा। अभिलेखके अनुसार उन्हें ही दान दिया गया था और यदि पद्मकीतिके ग्रन्थकी समाप्ति शक सं० १९.५ में मानी जाये, तो पदाकतिके दादागुरु माघवसेन इसके भी पूर्व २५-३० बर्ष अवश्य ही रहे होंगे। मनुष्यकी आयु तो १०० वर्ष सम्भव है, पर ७०-७५ वर्ष तक कोई व्यक्ति आचार्य रहे, यह असाधारण प्रतीत होता है । अब यदि पासणाहचरिउको समाप्तिका समय वि० सं ५५५ माना जाये, तो वि सं १९५—वि० सं० १९८१ में भी वे जीवित थे और यह अस म्भव जैसा प्रतीत होता है। पनकोतिके गुरु, दादागुरु और परदादागुरु सेन संधके थे और हिरेआवलि' शिलालेखके चन्द्रप्रभ और माधवसेन ही पद्मकीर्ति के परदादागुरु और दादागुरु हैं ।
इस चर्चापर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'हिरेआबलि' अभिलेखमें चारकी संख्याके पश्चात् जो रके अंककी कल्पना की गयी है, बह ठीक नहीं है। यहाँ का अंक ही मानना चाहिये, उसके पश्चात् किसी अंककी कल्पनाको संभावना नहीं है। जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके २१२, २१३ और २१४ संख्यक अभिलेख भी इसपर प्रकाश डालते हैं। गैरोनेटने साधार को साधारण संवत्सर माना है, पर चालुक्य विक्रमका ४५वाँ वर्ष साधारण संवत्सर नहीं है । इस वर्ष शिवावसु संवत्सर आता है। अभिलेख संख्या २०३से स्पष्ट है कि विश्ववसु संवत्सर शक संवत् ९४७ में था और उसके बाद शक संवत् १०४७में आता है। यह शक संवत् १०७ ही विक्रम चालुक्यका ४२वाँ वर्ष है। अतएव उक्त विषमताओंसे यह स्पष्ट है कि हिरेवावलि' अभिलेखमें ४ अंकके आगे १ अंक या साऽधाको साधारण होनेका अनुमान प्रान्त है । बिक्रम चालुक्यका दुसरा वर्ष पिंगल-संवत्सरके पश्चात् कालयुक्त और तत्पश्चात् सिद्धाथिन संवत्सर आते हैं। अतः स्पष्ट है कि विक्रम चालुक्यका तीसरा वर्ष कालयुक्त और चौथा सिद्धाथिन संवत्सर था। अतएव हिरेआपलि' अभिलेखक
साधा०को सिद्धा मानना चाहिये, जो सिद्धाथिनका संक्षिप्त रूप है। अत: सिद्धार्थनः संवत् विक्रम चालुक्यके चौथे वर्षमे थाइसका समन्वय हिर-आवलि
अभिलेख में अंकित ४ और साधा से हो जाता है। ____ अभिलेखमें चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेवकी स्वर्ग प्राप्तिका उल्लेख है। इस उल्लेखसे यह निश्चित हो जाता है कि माधव सेनके जीवित होनेका यदि कहीं निर्देश हो सकता है, तो वह १००२के पूर्व ही हो सकता है । हुम्मचके एक अभिलेखमें भी माधवसेनका नाम आया है। यह अभिलेख शक संवत्त ९८४का है। इसमें लोक्कियवसादिके लिए 'जम्बहलिल' प्रदान करनेके समय इन माधवसेनको दान दिये जानेका उल्लेख है ! हुम्मच्च और हिरे-आवलि दोनों समीपस्थ गांव हैं। हिरे-आवलिमें भट्टारकका पट्ट था, यह हमें जेनशिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके अभिलेख २८६ संख्यकमें उल्लिखित माधवसेनको भट्टारक उपाधिसे भी ज्ञास हो जाता है । जिस क्षेत्रमें मन्दिर, मठको दान दिया जाता था, वह उस क्षेत्रके मठाधीश या भट्टारकको ही दिया जाता था। अत: यह अनुमान सहज हैं कि अभिलेख संख्या १९८के अनुसार जिन माधबसेनको दान दिया गया वे हिरे-आबलि शिलालेखके अनुसार दान पानेवाले माधवसेनसे भिन्न नहीं हैं। आशय यह है कि मायनसेन शक संवत ९८४में जीवित थे और शक संवत् १७०२में इस लोकका त्याग किया । जैनशिला लेखसंग्रह द्वितीय भागके १५८ संख्यक अभिलेखसे भी माधवसेनके पट्टका परिजान होता है। अतः अनुमान है कि माधवसेनके प्रशिष्य पद्मकीतिको अपने 'पासणाहपरिउ'के लिखने की प्रेरणा इसी पार्श्वनाथ मन्दिरसे प्राप्त हुई होगी। अतएव यह अनुमान सबंथा सत्य है कि हिरे-आलि अभिलेखके माधवसेन ही पद्मकीतिके दादागुरु हैं और दादागुरुका समय शक संवत् १००१के आस-पास है । अत: उनका प्रशिष्य उनके पूर्वका नहीं हो सकता । यदि पप्रकीतिके अन्यको समाप्ति वि०सं० ९९५मैं मानें, तो उन्हें शक संवत् ८६४में जीवित मानना पड़ेगा जो कि असम्भव है । अतः पासणाहरितकी समाप्तिका संवत् शक संवत् ही है, विक्रम संवत् नहीं। अतएव
१. पासणाचरिउकी समाप्ति शक संवत् १९९ कार्तिक मासकी अमावस्या को हुई है।
२. ग्रन्थके रचयिता पनकोतिके गुरुका नाम जिनसेन, दादागुरुका नाम मायनसेन है और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेन है। दादागुरु और परदादा गुरुके नामोंकी सिद्धि हिरे-आवलि अभिलेखसे होती है।
यह ग्रन्थ १८ सन्धियोंमें विभक्त है। इसके परिमाण आदिके सम्बन्धमें
अन्यकारने स्वयं ही लिखा है
अट्ठारह-संघिउ ऍह पुराणु तेसछि-पुराणे महापुराणु ।
सतिणि दहोत्तर कडबायहँ पाणा-विह-छंद-सुहावयाह ।
तेतीस संबई तेवीसयाई अक्त्र रइं किंपि सविसेसयाई 1
उपत्य सांस्थाहा पमाणु फुटु पय असेसु विक्रय-प्रमाणु ।
जो को वि अत्थु आरिस णिबद्ध सो एत्थु गंथि सहत्य-बद्ध ।
जं आरिस-पास पुराण वृत्तु जं गणहर-मुणिवर-रिसिहं वृत्त ।
तं पत्थु सत्थ मई बिथरिउ जं कब्ध करंस, संसरित।
तज संजउ जेण बिरोहु जाहिँ त ऍत्थु गंथिमई कहिउ पाहि ।
सम्मत्तहा दुसणु जेणहोइ आगमण तेण ण वि कज्ज को बि ।
घत्ता- मित्थत्त करति य कन्चई पर सम्मत्तई मणहरइँ ।
किंगाव-फलोबम-सरिसइँ होहि अंति असुहकरई ।।
अर्थात् १८ संधियोंसे युक्त यह पुसण ६३ पुराणों में सबसे अधिक प्रधान है। नाना प्रकारके छन्दोंसे सुहावने ३१० कड़वक तथा ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थका प्रमाण है। यह स्पष्टत: पुराका पूरा प्रामाणिक है। ऋषियोंके द्वारा जो भी सत्व निर्धारित किया गया है, वह सब इस ग्रन्थमें अर्थयुक्त शब्दोंमें निबद्ध है । जो ऋषियोंने पाश्र्यपुराणमें कहा है, जो गणधरों, मुनियों और तपस्वियोंने बतलाया है तथा जो काब्यकर्ताओंने निर्दिष्ट किया है, वह मैंने इस शास्त्रमें प्रकट किया है। जिससे सप और संयमका विरोध हो वह मैंने इस ग्रन्थमें नहीं कहा है। जिससे सम्यक्ल दूषित हो उस आगमसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं रहा।
विपरीतसम्यक्त्वसहित किन्तु मनोहर काव्य मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं तथा किपाक फलके समान अन्तमें अशुभकर होते हैं ।
प्रथम सन्धिमें २३ कड़वक हैं । २४ तीर्थंकरोंकी स्तुसिके पश्चात् कविने लधुता प्रदर्शित करनेके अनन्तर काव्य लिखनेकी प्रेरणाका निर्देश किया है। खलनिन्दाके पश्चात मध्यदेशका वर्णन किया है ! कविने बताया है कि मगध देश धनधान्यसे बहुत ही सम्पन्न है, यहाँके साधारण व्यक्ति भी चोर, शत्रुओं से मुक्त हैं । यहकि उपवनोंके परिसर फलफूलोंसे संयुक्त हैं । धानके लहलहाते हुए खेत और गाती हुई बालिकाओं द्वारा उनकी रखवाली किसके मनको नहीं आकृष्ट करती है। यहां भ्रमर, कमलसमूहोंको छोड़कर कृषक बन्धुओंके मुखों
१. पासणाहपरिउ, प्राकृत टेक्स्ट सोसाईटी, १८। २० ।
के कपोलोंका सेवन करते थे। यहाँ विविध प्रकारके समस्त विद्वान अपने-अपने देशोंका त्याग कर, यहाँ आकर रहते हैं। देव भी स्वर्गले च्युत हो यहाँ निवास करनेकी कामना करते हैं। इसी देशमें पोदनपुर नामका नगर है, जो प्राकाट, शालाओं, मठों, जिनमन्दिों, प्रणालियों, बड़कों, गोड, नी-लंबी झााल काओं, आरामों, उपवनों, नदियों, कूपों, बापियों, बृक्षों, चौराहों एवं विभिन्न प्रकारके बाजारसे सुशोभित है । इस नगरमें चौशाला, ऊँचा, विशाल तथा विचित्र ग्रहोंसे युक्त राजभवन था । यह महीतलपर उसी प्रकार सुशोभित था जिस प्रकार नभत्तलमें नक्षत्रीसहित चन्द्रमा । राजभवनके वर्णनके पश्चात महाराज अरबिन्द और उनकी पत्नी प्रभावतीके रूप, सौन्दर्य और गुणोंका वर्णन किया है। अनन्तर राजाके पुरोहित विश्वभूतिके गुणोंका निरूपण किया गया है। इस पुरोहितकी पत्नीका नाम अनुद्धरी था, जो अपने रूपलावण्यसे विश्वभूतिको आकृष्ट करती थी। इस दम्पत्तिके दो पुत्र हुए कमठ और मरुभूति । कमठ की पत्नी मदमत्त महागजको करिणीको शोभा धारण करनेवाली शुद्ध हृदय तथा शीलवती थी। उसका नाम वरुणा था । मरुभूतिकी पत्नी परलोक मार्गके विपरीत आचरण करने वाली तथा कुशील थी। उसका नाम वसुन्धरी था । एक दिन विश्वभूतिको संसारसे बिरक्ति हुई और उसने घर-बार छोड़कर अपना पद अपने पुत्रको सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। अनुदरीने भी पतिका अनुकरण किया और वह भी प्रजित हो गयी । राजाने कमठ और मरुभूतिको बुलाकर उन दोनोंमेंसे मरूभूतिको पुरोहितके पद पर प्रतिष्ठित किया । एक दिन राजा अरविन्दको किसी शत्रुको वश करनेके लिए दूर देश जाना पड़ा, साथमें मरुभूति भी गया । किन्तु वह अपना समस्त परिवार नहींपर छोड़ गया। इसी समय वह दुष्ट, विमष्ट चित्त तथा महामदोन्मत्त कमठ घरमें रहती हुई अपनी भ्रातृवधूको देखकर उसपर अनुरक्त हो गया | कमठने अपने छोटे भाई की पत्नोके साथ अनुचित व्यवहार किया । जब माभूति शत्रु पराजयके अनन्तर वापस घर आया, तो उसे कमठकी इस अनीतिका पता लगा । पर उदार मरुभूतिने कमठको क्षमा कर दिया । पर राजाको कमठकी यह अनीति पसन्द न आयी और उसने उसे नगरसे निर्वासित कर दिया । कमठ एक तपोवनमें प्रविष्ट हुआ और तापसियोंके आश्रममें जाकर रहने लगा। मरुभूति राजाके द्वारा समझाये जानेपर भी अपने भाईकी तलाश करनेके लिए निकल पड़ा। वह तापसियोंके आश्रममें पहुंचा और वहाँ मरुभूतिको पञ्चाग्नि तप करते हुए देखकर प्रभावित हुआ। उसने भावपूर्वक उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और प्रणाम करने के लिए उसके चरणोंमें सिर झुकाया । कहने लगा "हे महाबल !
आप गुणों वागार मुझे क्षमा करें।" कमटने एक शिलाखण्ड उठाकर मरुभूति पर प्रहार किया, जिससे मरुभूतिका प्राणान्त हो गया। मराभूति आर्तध्यानसे मरण करनेके कारण उनी वामें महागजके रूप में उगा हुषा और कमल कुक्कुट नामका भयंकर सपं हुआ | मरुभूतिका जीव अभियोग गजराज अपने समूहके साथ सम्पूर्ण बनामें बड़े अनुरागसे घूमता था, अपने साम् की रक्षा करता श्रा । वह कारगियोंक साथ कमलघुक्त सरोवरोम विहार करता था।
द्वितीय मन्धिमें समस्त राज्यका त्याग कर राजा अरविन्दके मुनीन्द्र होनेका वर्णन आया है। अविन्द मुनिने चिन्तन करते हुए अबधिज्ञान प्राप्त किया। इस सन्दर्भ में नरवा, तियंञ्च, मनुष्य और देव गतिके दुःखोंका वर्णन है । राजा अरबिन्दने निष्क्रमण किया और पञ्चमुष्टिलोञ्चकर दोक्षा धारण की । द्वितीय सन्धिमें १६ कड़वा है और इसमें राजा अरबिन्द के दीक्षित होने की विचार धाराका चित्रण आया है।
तृतीय सन्धिमें १६ बाड़वक हैं। तृतीय सम्ध्रिमें अरविन्दकी गश्चयां और उनके बिहारका चित्रण आया है। इस सन्धि सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यनत्यके दोष, सम्यक्त्वकी प्रशंसा, अणुव्रत, णवत्त और शिक्षातोंका स्वरूप बतलाया गया है। जिन बरकी भवितकी प्रशंसा करते हुए बतलाया गया है कि भक्तिके प्रभावसे मनुष्य समस्त तियों के दुःखोसे छूट जाता है 1 इसी सन्धिमें अनि घोष गजपत्तिके उद्बोधनका भी सन्दर्भ आया है। अरविन्द मुनिने उसे सम्बो. धित करते हुए कहा- "हे गजबल ! मैं राजा अविन्य ई, पोदनपुरका स्वामी हूँ, यहाँ आया हूँ। तू मरुभूति है, जो हाथीके रूप में उत्पन्न हुआ है। विधिशात् तु इस सार्थके पास आया है । मैंने पहले ही तुझे कमठसे पास जानेसे रोका था । उसकी अवहेलना कर तू इस दुःखको प्राप्त हुआ है । हे गजवर ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तू मेरे द्वारा कहे हुए वचनोंका यथासम्भव पालन कर । सम्य क्व और अणुजनोंको ग्रहण कर, ग्रही तेरे कल्याणका मार्ग है।'' मुनि अरबिन्द ने मोक्षलाभ किया ओर गज श्रेष्ठ तपश्चर्याम सलपन हुआ।
चतुर्थ सन्धिमें १२ कड़वक हैं और अपनिषोप गजकी तपस्याका वर्णन आया है । अपनिधोषकी मृत्यु कुक्कुट सर्पके दंशनसे हुई, पर द्वादश भावनाओं का चिन्तन करनेके कारण उसका जन्म सहस्त्रारकल्पमें हुआ और कुक्कुट सर्प पञ्चम नरकम उत्पन्न हआ । इस चौथी सन्धिमें राजा हेमप्रभ, राजकुमार विद्युत्बेगकी कथा भी वर्णित है। प्रसंगवश मुनिके २८ मूलगुण एवं संयम तपश्चर्या आदिका वर्णन आया है।
पांचवीं सन्धि १२ कड़वक हैं । इस सन्धिमें मरुभूतिका जीव सहस्रार
स्वर्णसे धुत हो जम्बू द्वीपने अगरविदेह क्षेत्रमें पृथ्वीपत्ति होनेका वर्णन आया है । कमलका जीय भोलके रूपमें उत्पन्न हुआ है । मरुभूतिका जीब चक्रायुध सिरके श्वेत बालोंको देखकर संसानसे विरत हो तपश्चर्या करने लगा। पूर्व जम्मके वैरभावके कारण कमठका जीव गोलने चमायुधपर बाणप्रहार किया, जिससे मुनि बकायुष ध्यानपूर्वक मरण कर अवेयकमें दवरूपमें उत्पन्न हुए
और भीलका जीच नरकम उत्पन्न हुआ ।
छठी सन्धि १८ कड़वक हैं । चक्राका जोब बंधकसे च्युत होकर पूर्व विदेह क्षेत्रके विजय देशके नाजाके यहाँ कनकप्रभके रूपमें उत्पन्न हुआ। कनक प्रमने बयस्क होकर अपने राज्यांनी समृद्धि की । उसके धन-धान्यसे सदा समृद्ध ३२ हजार प्रदेश, २६ करोड ग्राम, १२ हजार खान, स्वर्ण और चाँदीके तोरणों से युक्त ८४ लाख श्रेष्ठ पुर, ८४ हजार बरबट, सूखेट और द्रोणमुख थे । उसक मन और पवनकी गति वाले १८ बारोड़ येष्ठ घोड़े, ८४ लाख मदोन्मत्त हाथी एवं समस्त शत्रु दलबा नाश करने वाले उत्तने ही उत्तम रथ थे। इस राजाक ८ लाख अंगरक्षक, ती[सौ साठ रसोईआएवं उबटन और सम्मर्दन करने वाले २०० अनुचर थे । १६ हजार शनियाँ और तीन करोड़ उत्तम कृषक थे । चतुरंगिणी सेनासे घिरा हुआ वह राजा घटस्लण्डकी विजयके लिए चल पड़ा। विजयके पश्चात् व वापस लौटा और आनन्दपूर्वक साम्राज्य करने लगा। उसका अपार ऐश्वयं आ । आचार्य ने इस सन्धिम घटा तुका वर्णः। त हुए कनकप्रभके भोगविलासका चित्रण किया है । एक दिन कनकप्रभने यशावर मुनिके दर्शन किये और उनसे फर्मसिद्धान्तका उपदेश सुना । कनकप्रभने दीक्षा ग्रहण की।
सप्तम सन्धिमें १३ कड़वक हैं। आरम्भमें मुनिदीक्षाको प्रशंसा की गयी है। अनन्तर १२ अंग और १४ पूर्वोका वर्णन आया है । मुनि कमकप्रभने अंग और पूोंके अध्ययनके पश्चात् पूर्वांगों में आयी हुई वस्तुओंकी संख्याका अध्ययन किया है । इस सन्दर्भ में सीन हजार नौ सौ पाहडोके अध्ययनका कथन आया है। कनकप्रभमुनिने कठोर तपश्चरण कर आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त की, साथ ही जलचरण, तन्तुचरण, श्रेणिचरण और जंघाचरण ऋद्धियोके साथ सावधि, मनःपर्ययज्ञान आदि प्राप्त किये । बिविया ऋद्धि एवं अक्षीण महानस ऋद्धि भी प्राप्त हुई। कनकप्रभने क्षीरवन में प्रवेश कर गिरिशिखरपर आरूढ़ हो, धर्म ध्यान प्रारम्भ किया । इसी समय कमठके जीबने, जो कि सिंह के रूप में वहाँ निवास करता था, मुनिपर आक्रमण किया और उसने मुनिका प्राणान्त कर दिया । कनकप्रभमुनि समताभावपूर्वक भरण कर वैजयन्त नामक स्वर्ग में देव हुए ।
कमठका जीव विभिन्न योनियों में जन्म-मरण करता हुआ बाहाण कुलमें उत्पन्न हआ। उसने रशिष्ट नामक नगल्नी के साथ सामुदीधा प्रामा की और वह पञ्चाग्नितप करने लगा।
आठनों सन्धिमें २३ कड़वक हैं । इस सन्धिमें वाराणसी के राजा हसन और उनकी पत्नी बामादेवीका वर्णन आया है। सीर्थकर पार्श्वनाथ गर्भम आनेके छ: महीने पहिलेरो ही देवों द्वारा रत्नोंकी वर्षा हुई और बामादेवीकी सेवाके लिए देवांगनोंका आगमन हुआ | वामादेवीने रात्रिके चतुर्थ प्रहरमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल राजा ह्यसेनसे पूछा । हयसेनने स्वानोंके फलपर प्रकाश डालते हुए बतलाया कि तुम्हें संसारोद्धान पुत्र उत्पन्न होगा । इस पूत्र का महत्त्व सर्वत्र व्याप्त हो जायगा । अनन्तर तीर्थकर पार्श्वनाथका गर्भावतरण, जन्माभिषेक, कर्णछेदन, नामकरणका वर्णन आया है। इन्द्र तीर्थंकर पार्वको वामादेवीके पास छोड़कर स्वर्ग चला गया ।
नौवीं सन्धि १४ कड़वक है और जयसगत भवन में किये गये जन्मोत्सवका चित्रण है। पुत्र-उत्पत्तिसे झ्यसेनको समृद्धि अधिक बढ़ी | शनैः-शनै: पार्श्वनाथ बाल्यावस्था पार कर ३१३ वर्षमें प्रविष्ट हुए। हयसेनकी राजसभामं भूटान, मौर्य, इक्ष्वाकु, कच्छ, सिन्धु आदि विभिन्न देशोंके गजा उपस्थित हुए । एक दिन राजसभामें दूत आया और उसने कुगस्थलको राजा द्वारा दीक्षा ग्रहण किये जानेका वर्णन किया । यसेन इस समाचारसे दुःखित हुआ। इसी बीच दूत्तने कुशस्थलपर यवन राजा द्वारा आक्रमण और धमकी दिये जानेकी बात बतलायी। हमसेनने प्रतिज्ञा की कि यवनका गर्व खर्च कर दूंगा | उसने युद्धके लिए प्रस्थान किया ।
दसवीं सन्धिमें १४ कहलक हैं। इस सन्धिके आरम्भमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ यवन सेनाका सामना करने के लिए चल पड़े। हयसेनने पार्श्वनाथको बहुत समझाया कि अभी तुम बालक हो, युद्धमें प्रौढ़ व्यक्तियोंको ही जाना चाहिये । अत: तुम यहीं निवास करो और मैं युद्धके लिए जाऊँगा। पारवनाथने निवेदन किया कि शिशु तथा बालकका लालन-पालन करना पिताका कत्तव्य है। इसके विपरीत वृद्धावस्थामें पिताकी सवा-सुश्रुषा करना पुत्रका धर्म है। अत: कुमारने युद्ध में जानेके लिए अत्यधिक आग्रह किया, जिसे पिताको स्वीकार करना पड़ा । चतुरंगिणीसे युक्त कुमार पार्श्वनाथने शुद्ध के लिए प्रस्थान किया । मार्ग में नानाप्रकारके शकुन हुए। सरोबरके समीप सेनाका शिविर पड़ा। इस सन्दर्भमें आचार्यने सूर्यास्त, सन्ध्या, रात्रि, चन्द्रोदय, सूर्योदय, सैन्यनस्थान आदिका सुन्दर चित्रण किया है । कुशस्थल के राजा रविक्रीतिने कुमार पालका
स्वागत किया।
इसके पश्चात् ग्यारहवीं सन्धिके १३ कड़वकोंमें युद्धका वर्णन आया है। बताया है कि कुमारका आगमन सुनकर अवनराज सशंकित हुझा । पाश्र्धक आ जानेसे रबिकौतिकी सेनाका बल बढ़ा और गबनराजकी सेनाके साथ भयंकर पद्ध होने लगा। रविकीतिने अपूर्व रणकौशल दिखलाया । यवनराजके बहुतसे सामन्त और वीर रविकीति द्वारो परास्त किये गये।
बारहवीं सन्धिमें १५ कवक है। आरम्भमें यवनराजके गजबलला रवि कीर्तिपर आक्रमण करनेका चित्रण आया है। विकीर्तिने अत्यन्त कौशलपूर्वक गजसेनाका विनाश किया, पर विशाल गजवाहिनी के समक्ष उगवी गाक्ति कुण्ठित होने लगी। रविकीतिक मन्त्रियोंने इस रणदशाको देखकर नमार पावसे निवे दन किया कि आप अब युद्ध करने के लिए तैयार हो जाइये । आपकी शक्तिके समक्षा त्रलोक्यकी गक्ति नतमस्तक है । कुमार पाच एक अक्षौहिणी अश्व, गज, रथ और पैदल सैनिकों महित रणभूमिमें प्रविष्ट हुए ! पाश्चंने शत्रुके मजममूह को क्षणभरमै तितर-बितर कर दिया । कुमार पात्र के साथ युद्ध करने के लिए यवनराज अनेक प्रकारको तैयारियां करने लगा और उसने दिव्य अस्त्रोका प्रयोग किया। यवनराजने विभिन्न अस्त्रोंका प्रयोग किया, पर उसका एक भी वाण
सार्थक न हुआ । कुमार पावने यवनराजको बन्दी बना लिगा !
तेरहवीं सन्धिमें २० कड़बक हैं 1 आरम्भमें यवनराजके भटो द्वारा आत्म समर्पणका वृतान्त आया है। युद्धसमाप्तिके अनन्तर कुमार पाबने कुशस्थली में प्रवेश किया । रविकीतिने विभिन्न प्रकारसे कुमारका स्वागत और आतिथ्य किया । यवनराजके मन्त्रीने आकर सन्धिका प्रस्ताव उपस्थित किया । कुमार पाश्चने यवनराजको मुक्त कर दिया और सन्धिका प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया गया । रविकीर्तिने अपने मन्त्रियोंसे परामर्श कर अपनी कन्याका विवाह कुमार पावसे करनेकी इच्छा व्यक्त की। विवाहके लिए रवि, चन्द्रसे शुद्ध लान निश्चित की गयी । इसी समय कुमार पावको सूचना मिली कि नगरके बाहर कुछ तपस्वी आये हुए हैं। कुमार पाश्र्व उन तपस्वियोंको उद्बोधन करनेके लिए चल पडे ! वहाँ जाकर देखा कि जिन लकड़ियोंको जलाकर पञ्चाग्निप्तप किया जा रहा है, उनमें एक लकड़ीके बीच सर्प है। कुमारने रोकते हुए कहा इस लकड़ीको मत जलाओ, इसमें साँप है । तपस्वियोंके बीच रहनेवाला कमठ का जीच तापसी रुष्ट हुआ और क्रोधपूर्वक बोला-इस लकड़ीमें सर्प कहाँ है ? यह राजा खल है । मैं अभी इस लकड़ीको फाड़कर देखता हूँ। लकड़ीको फाड़ा गया, तो उसमेंसे एक विषधर भुजंग निकला। सभी देखकर आश्चर्यचकित रह गये । कमठके जीवको तो अत्यधिक पश्चात्ताप हुआ । उसने अनशन कर
जीव हिंसा और परिग्रहका त्याग कर पञ्चत्व प्राप्त किया। स्वर्ग गया और वहाँ देवियों के साथ विचरण करने लगा । पाश्चकुमारने सर्पको पञ्चनमस्कार मन्त्र दिया जिसके प्रभाव पातालमें. नागराजोंके बीच सीन पल्यकी आयवाला धरणेन्द्रदेव हुआ। सर्पकी मत्युको देखकर कुमारके मनमें विरक्ति हुई और बह संसारके भोगोंको असार समझने लगा। लौकान्तिक देवोंने आकर कुमारके बैराग्यकी वृद्धि की और कुमारने जिनदीक्षा ग्रहण की। कुमारके दीक्षित होनेसे रविकीति और प्रभावतीको विशेष कष्ट हुआ | जब हयसेनाने कुमारकी दीशाका समाचार मुना, तो हतप्रभ हो गया। मन्त्रियोंने उसे बहुत समझाया । माता बामादेवीको भी पुत्रके दीक्षा समाचारसे कष्ट हुआ! मन्द्रियोंने किसी प्रकार हयसेन और बामादेबीको समझाकर सन्तुष्ट किया ।।
चौदहवीं संधि, ३० कड़बक हैं । आरम्भमें पार्श्वनानके तप और संयमका चित्रण किया है। आकाशमार्गसे जाते हुए असुरेन्द्र के विमानका स्थगन होना
और स्थगनका कारण पाश्चकुमारको जानकर अमरेन्द्र द्वारा पाश्वनाथको मार डालने का निश्चय करना एवं नाना प्रकारके उपसर्ग देना, और उपसर्गोके शमन के लिए धरणन्द्रका आना, नागराज द्वारा पार्वकी सेवा करना तथा असुर कुमारको उपमान करनेके लिए चेतावनी देना आदिका वर्णन आया है। पार्श्वनाथकी केवलज्ञानकी उत्पत्ति भी इसी सन्धिमें वर्णित है । ___ पन्द्रहवीं सन्धिमें १२ कड़बक है ! केवलज्ञानको प्रशंसाकी गयी है । देवों द्वारा बोवलज्ञानकाल्याणक सम्पन्न करनेवाले उत्सवका वर्णन आया है। इन्द्र द्वारा होड़े गये बञसे असुरकुमारका पावनायके शरणमें जाना, इन्द्र द्वारा समब शरणकी रचना, देवों द्वारा जिनेन्द्रको स्तुति, इन्द्रकी उपदेश देने हेतु प्रार्थना आदि विषय इसी सन्धिमें आये हैं।
सोलहवीं सन्धि १४. कड़वक है। आरम्भमें गणधर द्वारा लोकोत्पतिपर प्रकाश डालने के लिए आग्रह किया गया है और समवशरण में आवारा, लोका काश, मेरु, अधोलोक, उर्व लोक, स्वग आदिके वर्णनके पश्चात् वैमानिक ज्यो तिषी, व्यन्तर और भवनवासियोंकी आयुका वर्णन आया है। मध्यलोक और उसमें स्थित जम्बूद्वीप, सप्त क्षेत्र, षट् कुलाचल पूर्व अपर विदेह, गंगादि नदियाँ लवणसमुद्र, वातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्कराधीप, दाईहीपले क्षेत्र, पवंतादि द्वीपसमुद्रोम सूर्य-चन्द्रकी संख्या, सीनों बातपलयोंका स्वरूप एवं कमठासुर हाग जिनेन्द्रसे क्षमायाचनाका वर्णन आया है ।
सत्रहवीं सन्धिमें २४ कड़वक हैं। इस सन्धिमें कुशस्थलीमें जिनेन्द्रके समय शरणका पहुंचना, रविकीतिका जिनेन्द्र के पास आगमन, शलाकापुरुषोंके सम्बन्ध
में जानने की इच्छा, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र, सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दुःषमा, दुःषम-सुषमा, दुःषमा, दुःषम-दुःषमा, इन छह कालोंका वर्णन किया गया है। तृतीय कालके अन्तमें ऋषभदेवादि चतुर्विशति तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति, तीर्थंकरोंकी कायाका प्रमाण, उनके जन्मस्थान, वर्ण, आय, तीर्थंकरों के तीर्थकी अवधि, द्वादश चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव नारायण, नव प्रतिनारायण
आदिका वर्णन आया है। रविकीति भी तीर्थकर पाश्र्वनाथके उपदेशसे प्रभा बित होकर दीक्षित हो जाता है और पाश्वनाथके समवशरणमें शौरीपुर पहुंचता है।
१८वीं सन्धि, २२ कड़वक हैं। समवशरणमें नरक जानेवाले मनुष्यों के कृत्योंके पश्चात् तिर्यञ्चगतिके जीवोंका विवरण आया है। मनुष्यगतिके जीवोंके दो भेद किये हैं-कर्मभूमिके मनुष्य और भोगभूमिके | भोगभूमिमें उत्पन्न होने वालोंके सत्कार्यका वर्णन करते हुए ढाई द्वीपकी १७० कर्मभूमियोंका विवेचन किया है ! देवगति में उत्पन्न करानेवाले सत्कृत्योंका चित्रण कर समवशरणमें वामादेवी और हयसेनको उपदेश दिये जानेका कथन आया है । नागराजद्वारा पूर्वजन्मने वृत्तान्तके सम्बन्धमें पूछनेपर दशभवोंकी कथाका संक्षेप में चित्रण आया है। हयसेन भी दीक्षित हो जाता है और अन्तमें अन्य परिचय और अन्धकारकी गुरु परम्पराके साथ अन्य समाप्त हो जाता है ।
यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त और कान्यकी दृष्ट्रिसे महत्त्वपूर्ण है । इसमें सम्यक्त्व, श्रावकधर्म, मुनिधर्म, कर्मसिद्धान्त, विश्वका स्वरूप आदिका चित्रण आया है । सम्यक्त्वके स्वरूपका विवेचन निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियोंसे किया गया है। इस ग्रन्थमें सम्यक्त्वके चार गुण-१. मुनियोंके दोषोंका गोपन, २. च्युत चारित्र व्यक्तियोंका पुनः सम्यक् चरित्र में स्थापन ३. वात्सल्य और ४. प्रभावना बतलाये हैं। पाँच दोषोंमें-१. शंका, २. आकांक्षा, ३ विचिकित्सा, ४. मढदष्टि, ओर ५. परसमयप्रशंसाकी गणना की है। श्रावकधर्म के अन्तर्गत गणनत, अणुयत, शिक्षातका कथन आया है । मुनिधर्मके अन्तर्गत २८ मूलगुण-पांच महाबलोंका पालन, पांच समितियोंका धारण, पंचइन्द्रियोंका निग्रह, षड़ आवश्यक, खड़े-खड़े भोजन, एक बार भोजन, वस्त्रत्याग, केशलञ्च, अस्नान, भूमिशयन और अदन्त धावन मूलाचारके समान ही इस ग्रन्थमें आये हैं । लपके दो भेद किये हैं—बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य, बुत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तपके भेद हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सगं और ध्यान में छह आभ्यन्तर सपके भेद हैं। इन मूलगुणों के साथ २२ घरीपह और उत्तरगुणोंका भी कथन
आया है। कर्मसिद्धान्त और सृष्टिविद्या के सम्बन्धमें अनेक महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी हैं।
काव्यको दृष्टि से भी यह ग्रन्थ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसमें महाकाच्यके सभी लक्षण घटित होते हैं । आचार्य ने षड्ऋतु, सन्ध्या, रात्रि, नदी, बन, पर्वत, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण किया है । यहाँ उदाहरणार्थ चन्द्रोदय वर्णनकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं
ऐत्वंतरि भुभणहा सुहु जणंतु हि उइउ चंदुतम भाहणंतु ।
आणंद-जगणु परमत्थ-गम्भु अवर्यारउ गाइ पह अमिय-कुंभु ।
चंदुग्गमे विसिय कुमुअ-सद्ध मजलिय सरेहि पंकय-उदंड ।
संसि-सोमु विलिणिह गज सुहाइ सुरुग्गम विडसड़ गुणह जाइ ।
अहवा जगि जो जसु ठियउ चित्ति गुण-रहित वि सम्मल देइ तित्ति ।
मयलंछण-किरणहिं तिमिरु पढ्छु जोण्हाणल परिपुणा दिछु ।
कोडतह मिहण, सुक्षु जाउ रोमंचित तणु उच्छलिल राउ ।
पिसि भीसण अलि-उल-सम-सदोस तम-रहिए ससक किय सत्तोस ।
बहु-दोष वि अहया महिल होइ परिगरिय सुपुरिसे सोह देइ ।
धत्ता-गहु सयलु विकिउ अकलंकिउ थिउ सकलंकित चंद-तणु ।
णिय-कब्जही विउस वि भुल्लाह गरवर किं पुणु इयर-जणु'।
इसी समय संसारको सुख पहुंचाता हुआ लया अन्धकारपटलका नाश करता हुआ चन्द्रमा नभमें उदित हुआ। आनन्दकी उत्पत्ति करनेवाला तथा परमार्थभावको धारण करनेवाला वह चन्द्र नभमें अमुसकुम्भके समान अवतरित हुआ । चन्द्रो दयके समय कुमुदसमह विकसित हुआ तथा सरोवरों में विकसित कमल मुकु लित हुए। सौम्यचन्द्र भी नलिनीको नहीं सुहाता । वह सूर्योदयपर ही प्रफु ल्लित होती है और गुणोंका उत्कर्ण प्राप्त करती है। अथवा इस संसारमें जो जिसके चित्तमें बसा हुआ है, वह गपाहोन होते हुए भी उसकी तृप्ति करसा है। चन्द्रमाकी किरणोंसे अन्धकारका नाश हुआ तथा गगन ज्योत्स्नाजलसे परि पूर्ण दिखलायी दिया । क्रीड़ामें आसक्त युगलोंको सुख प्राप्त हुआ, उनके शरीरमें रोमांच हुआ और अनुराग उमड़ पड़ा । भ्रमरसमूहके समान काली एवं भीषण रात्रिको चन्द्रमाने तमरहित और शोभायुक्त बनाया अथवा अत्य धिक दोषपूर्ण व्यक्ति भी सत्पुरुषकी संगतिमें शोभित होता है । चन्द्रमाने समस्त आकाशको कलंकरहित किया किन्तु स्वयं चन्द्रमाका शरीर कलंक युक्त
१. पासणाहबरिज--१०।११ ।
रहा । जब विद्वान् तथा उत्तम पुरुष भी अपना कार्य भूल जाते हैं, तब फिर अन्य लोगोंकी क्या बात ?
इस प्रकार आचार्य पाकीतिने धर्म, दर्शन और काव्यको त्रिवेणो इस ग्रन्थ में एक साथ प्रवाहित की है।
गुरु | आचार्य श्री जिनसेन |
शिष्य | आचार्य श्री मुनि पद्मकिर्ती |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Muni PadmakirtiPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री मुनि पद्मकीर्ति (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख - 01-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date -01-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
'पासणाहचरिज'के कर्ता मुनि पद्मकीर्ति हैं। इस पथकी प्रत्येक सन्धिके अन्तिम कड़वकके पत्त में 'पउम' शब्दका उपयोग किया गया है। यह 'पउम' भब्द 'कमल' और 'लक्ष्मी' दोनों ही अर्थोंमें सन्दर्भके अनुसार घटित हो सकता है । पर चतुर्थ सन्धिके अन्तिम पत्ते में 'पउमभणई तथा पांचवीं, चौदहवीं और अठारहवीं सन्धियोंके अन्तिम पत्तोंमें 'पउकित्ति' पदका प्रयोग आया है । १४ ची और १८वों मन्धियोंके अन्तिम घसोंमें 'पउकित्तिमुणिका प्रयोग आता है, जिससे स्पष्ट है कि आचार्य पद्मकीर्तिमुनिने 'पासणाहरि'की रचना की। ग्रन्यके अन्त में आचार्यने कविप्रशस्ति निबद्ध की है, जो निम्न प्रकार है
जइ वि विरुद्ध एवं णियाण-बंध जिणिद लूह समये ।
सह वि तुह चलण-कित्तं कइत्तणं होज्ज पउमस्स ।।
रइयं पास-पुराण मिया पुहबी जिणालया दिट्ट्ठा ।
इण्इं जीविय-मरणं हरिसविसाओ ण पउमस्स ।।
सावय-कुर्लाम्म जम्मो जिणचलणाराहणा कइतं च ।
एया. तिण्णि जिणवर भवि भवे इंतु पउमस्स ।।
णव-सय-णउमाणतये कत्तियमासे अमावसी दिवसे ।
रइयं पास-पुराणं कश्णा इह पउमगामेण ॥
अर्थात्-पपकी तिने पार्श्वपुराणकी रचना की, पृथ्वीभ्रमण किया और जिनालयोंके दर्शन किये अब उसे जीवन मरणके सम्बन्धमें कोई हर्ष-विषाद नहीं है। श्रावककुलमें जन्म, जिनचरणोंमें भक्ति तथा कवित्व, ये तीन बातें हे जिनवर ! पद्मको जन्मान्सरोंमें प्राप्त हो। अन्तिम पद्यमें कविने अपनी रचना के समयका उल्लेख किया है। १८वीं सन्धिके अन्तिम कड़वकमें आचार्यने अपनी मुरुपरम्पराका निर्देश किया है, जो निम्न प्रकार है
सुपसिद्ध महामइ णिनमबरु थिउसेण-संधु इह महिहि वरू।
तहिं चंदसेणु णामण रिसी चय-संजम-णियमइँ जासु किसी ।।
तहाँ सोसु महामइ णियमधारि जयवंतु गुणायक बंभयारि ।
सिरि माहस्सेणु महानुमाउ विणसेणु सीसु पुणु तासु जाउ ।
तहाँ पुव्व-मणेहें पउमकित्ति उप्पण्णु सीसु जिणु जाम् चित्ति ।
ते जिणवर-सासणु-भासिएक कह धिरड्य जिणसंगहा माण ।
घत्ता–सिरि-गुरु-देव-पसाएँ कहिङ असेसु वि चरिउ मई।।
पउकित्ति-मुणि-गवहो देउ जिणेसर बिमलमई ॥
अर्थात् इस पृथ्वीपर सुप्रसिद्ध अत्यन्त प्रतिभाशाली, नियमोंका धारक श्रेष्ठ सेनसंघ हुआ। उसमें चन्द्रसेन नाम ऋषि थे। जिनके जीवित रहनेके साधन ही व्रत, संयम और नियम थे। इनके शिष्य महामति नियमधारी, नय वान्, गुणोंकी खान ब्रह्मचारी तथा महानुभाव श्री माघबसेन हुए। तत्पश्चात् उनके शिष्ट्य जिनसेन हुए। पूर्वस्नेहके कारण पद्मकीर्ति उनका शिष्य हुआ, जिसके चित्तमें जिनवर विराजते थे। __ गुरुदेवके प्रसादसे यह ग्रन्थ लिखा गया, मुनि पद्मकीतिको जिनेश्वर बुद्धि प्रदान करें। ___ इस गुरुपरम्परासे स्पष्ट है कि परकीतिके गुरु जिनसेन, दादागुरु माधव सेन और परदादागुरु चन्द्रसेन थे। सेनसंघ अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है और इस संघमें बड़े-बड़े आचार्य उत्पन्न हुए हैं । पद्मकीति दाक्षिणात्य थे, क्योंकि सेनसंघ का प्रभुत्व दक्षिण भारसमें रहा है। 'पासणाहरिज'के वर्णनोंसे भी इनका दक्षि
१. पासणाहरित, अन्तिम अन्य प्रशस्ति ।
२. पासणाहरित, सम्पादक प्रफुल्ल कुमार मोदी, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, १८०२२ ।
णात्य होना सिद्ध होता है। मामाकी कन्याके साथ विवाह करनेकी पद्धतिका वर्ण। इस ग्रन्थकी १३वीं सन्धिमें आया है। युद्धवर्णन सम्बन्ध में कर्नाटक और महाराष्ट्रके वीरोंकी प्रशंसा की गयी है । अतएव जन्मभूमि के प्रेमके कारण कवि को दाक्षिणात्य माननेगें किसी प्रकारकी बाधा नहीं है।
ग्रन्थ चनाका निर्देश अधिने प्रशारिबिया है। पर यह प्रगस्ति सन् १४५३की प्राचीन पाण्डुलिपिमें उपलब्ध नहीं है । उसके पश्चातकी आमेर भण्डार में सुरक्षित पाण्डुलिपियोंमें उक्त प्रशस्ति पायी जाती है । सबसे प्राचीन प्रतिमें प्रशस्ति न होनेके कारण कुछ सन्देह होता है, पर यह हमें लिपिकारोंका प्रमाद मालूम पड़ता है | प्रशस्तिके भावोंको देखनेसे यह साष्ट होता है कि प्रशस्ति प्रन्थकर्ता द्वाग ही लिखित है। यद्यपि प्रशस्ति गाथा छन्दमें लिखी गयी है, पर इससे भी किसी प्रकारकी आशंका नहीं की जा सकती, क्योंकि पुष्पदन्तने भी अपने 'णायकुमारचरिउकी प्रशस्तिका एक भाग माथाछन्द में लिखा है। प्रशस्ति के अनुसार इस प्रन्थकी रचना संवत् ९९९ कातिक मासकी अमावस्याको हई है, पर यहाँ यह विचारणीय है कि यह संवत् शक संवत् है या बिक्रम संवत् । श्रद्धेय डा० हीरालाल जैन इसे शक संवत् मानते हैं और प्रो० डा० कोछड़ इसे विक्रम संवत् मानते हैं। पद्मकीर्ति दाक्षिणात्य विद्वान थे और दक्षिण भारत में काल गणना शक संवतके अनुसार ली जाती है । वि० सं० का उपयोग उत्तर भारतमें होता रहा है । पञ्चकीतिने अपने गुरुका नाम जिनसेन दादागुरुका नाम माधव सेन और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेन बतलाया है। इस गुरुशिष्यपरम्पराके नामोंमें चन्द्रसेन (चन्द्रप्रभा और माधवसेनके नामोंका उल्लेख गरेआबलि' में प्राप्त एक अभिलेखमें गुरुशिष्यके रूपमें हुआ है ! इम अभिलेख में उसका समय अंकित है
"स्वस्ति थीमत्तु विक्रम-वर्षद ४ [ ] नेय सावा [रण]-संवत्मरद माघ शुद्ध ५ बृ० वारद्वन्दु श्लोमन्मल-संघद सेनाणद पोरि-गच्छद चन्द्रप्रभ सिद्धान्त देव-शिष्यरष माधवसेन-भट्टारकादेवरु'' अर्थात् मूलसेन, सेनगण और पौगीर मच्छके चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेव जिमचरणोंका ममन करके पश्चारमेष्ठिके स्मरण कर समाधिमरण धारण कर स्वर्गस्थ हुए । चालुक्यवंशी राजा विक्रमादित्य (षष्ठ) त्रिभुवन मल्लदेव शक संवत् ८९.८ ई० सन् १००६ में सिंहामनारूढ हुआ था और तत्काल ही उसने अपने नामसे एक
१. जन शिलालेखसंग्रह, भाग दो, अभिलेख संख्या २८६, पृ. ४३६ ।
मंवत्त चलाया था। गैरोनेट और जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके सम्पादक में विक्रम वर्षद नामसे निर्दिष्ट किया है। साथ ही इन विद्वानोंने अभिलेखमें अंकित चारके पश्चात् कुछ स्थान रिक्त होनेसे यह अनुमान किया है कि इस चारके अंकके बाद भी कोई अंक अंकित रहा है, जो अब लुप्त हो गया है और यह लुप्त अंक ९ होना चाहिये । इन विद्वानोंने इस अभिलेखका समय चालुक्य वि० संकलौ बर्ष माना है। यह वर्ष शक संवत् १०४७,ई. सन् १९२४ और नि० सं० ११८१ होता है । अब यदि इस अभिलेखका समय शक सं० १०४७
और उसमें उल्लिखित चन्द्रसेन और माधवसेनको पद्मकीतिकी गुरुपरम्परामें माना जाये तो शक सं०१०४७ में माधवसेन जीवित थे, यह मानना पड़ेगा। अभिलेखके अनुसार उन्हें ही दान दिया गया था और यदि पद्मकीतिके ग्रन्थकी समाप्ति शक सं० १९.५ में मानी जाये, तो पदाकतिके दादागुरु माघवसेन इसके भी पूर्व २५-३० बर्ष अवश्य ही रहे होंगे। मनुष्यकी आयु तो १०० वर्ष सम्भव है, पर ७०-७५ वर्ष तक कोई व्यक्ति आचार्य रहे, यह असाधारण प्रतीत होता है । अब यदि पासणाहचरिउको समाप्तिका समय वि० सं ५५५ माना जाये, तो वि सं १९५—वि० सं० १९८१ में भी वे जीवित थे और यह अस म्भव जैसा प्रतीत होता है। पनकोतिके गुरु, दादागुरु और परदादागुरु सेन संधके थे और हिरेआवलि' शिलालेखके चन्द्रप्रभ और माधवसेन ही पद्मकीर्ति के परदादागुरु और दादागुरु हैं ।
इस चर्चापर विचार करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'हिरेआबलि' अभिलेखमें चारकी संख्याके पश्चात् जो रके अंककी कल्पना की गयी है, बह ठीक नहीं है। यहाँ का अंक ही मानना चाहिये, उसके पश्चात् किसी अंककी कल्पनाको संभावना नहीं है। जैन शिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके २१२, २१३ और २१४ संख्यक अभिलेख भी इसपर प्रकाश डालते हैं। गैरोनेटने साधार को साधारण संवत्सर माना है, पर चालुक्य विक्रमका ४५वाँ वर्ष साधारण संवत्सर नहीं है । इस वर्ष शिवावसु संवत्सर आता है। अभिलेख संख्या २०३से स्पष्ट है कि विश्ववसु संवत्सर शक संवत् ९४७ में था और उसके बाद शक संवत् १०४७में आता है। यह शक संवत् १०७ ही विक्रम चालुक्यका ४२वाँ वर्ष है। अतएव उक्त विषमताओंसे यह स्पष्ट है कि हिरेवावलि' अभिलेखमें ४ अंकके आगे १ अंक या साऽधाको साधारण होनेका अनुमान प्रान्त है । बिक्रम चालुक्यका दुसरा वर्ष पिंगल-संवत्सरके पश्चात् कालयुक्त और तत्पश्चात् सिद्धाथिन संवत्सर आते हैं। अतः स्पष्ट है कि विक्रम चालुक्यका तीसरा वर्ष कालयुक्त और चौथा सिद्धाथिन संवत्सर था। अतएव हिरेआपलि' अभिलेखक
साधा०को सिद्धा मानना चाहिये, जो सिद्धाथिनका संक्षिप्त रूप है। अत: सिद्धार्थनः संवत् विक्रम चालुक्यके चौथे वर्षमे थाइसका समन्वय हिर-आवलि
अभिलेख में अंकित ४ और साधा से हो जाता है। ____ अभिलेखमें चन्द्रप्रभ सिद्धान्तदेवके शिष्य माधवसेन भट्टारकदेवकी स्वर्ग प्राप्तिका उल्लेख है। इस उल्लेखसे यह निश्चित हो जाता है कि माधव सेनके जीवित होनेका यदि कहीं निर्देश हो सकता है, तो वह १००२के पूर्व ही हो सकता है । हुम्मचके एक अभिलेखमें भी माधवसेनका नाम आया है। यह अभिलेख शक संवत्त ९८४का है। इसमें लोक्कियवसादिके लिए 'जम्बहलिल' प्रदान करनेके समय इन माधवसेनको दान दिये जानेका उल्लेख है ! हुम्मच्च और हिरे-आवलि दोनों समीपस्थ गांव हैं। हिरे-आवलिमें भट्टारकका पट्ट था, यह हमें जेनशिलालेखसंग्रह द्वितीय भागके अभिलेख २८६ संख्यकमें उल्लिखित माधवसेनको भट्टारक उपाधिसे भी ज्ञास हो जाता है । जिस क्षेत्रमें मन्दिर, मठको दान दिया जाता था, वह उस क्षेत्रके मठाधीश या भट्टारकको ही दिया जाता था। अत: यह अनुमान सहज हैं कि अभिलेख संख्या १९८के अनुसार जिन माधबसेनको दान दिया गया वे हिरे-आबलि शिलालेखके अनुसार दान पानेवाले माधवसेनसे भिन्न नहीं हैं। आशय यह है कि मायनसेन शक संवत ९८४में जीवित थे और शक संवत् १७०२में इस लोकका त्याग किया । जैनशिला लेखसंग्रह द्वितीय भागके १५८ संख्यक अभिलेखसे भी माधवसेनके पट्टका परिजान होता है। अतः अनुमान है कि माधवसेनके प्रशिष्य पद्मकीतिको अपने 'पासणाहपरिउ'के लिखने की प्रेरणा इसी पार्श्वनाथ मन्दिरसे प्राप्त हुई होगी। अतएव यह अनुमान सबंथा सत्य है कि हिरे-आलि अभिलेखके माधवसेन ही पद्मकीतिके दादागुरु हैं और दादागुरुका समय शक संवत् १००१के आस-पास है । अत: उनका प्रशिष्य उनके पूर्वका नहीं हो सकता । यदि पप्रकीतिके अन्यको समाप्ति वि०सं० ९९५मैं मानें, तो उन्हें शक संवत् ८६४में जीवित मानना पड़ेगा जो कि असम्भव है । अतः पासणाहरितकी समाप्तिका संवत् शक संवत् ही है, विक्रम संवत् नहीं। अतएव
१. पासणाचरिउकी समाप्ति शक संवत् १९९ कार्तिक मासकी अमावस्या को हुई है।
२. ग्रन्थके रचयिता पनकोतिके गुरुका नाम जिनसेन, दादागुरुका नाम मायनसेन है और परदादागुरुका नाम चन्द्रसेन है। दादागुरु और परदादा गुरुके नामोंकी सिद्धि हिरे-आवलि अभिलेखसे होती है।
यह ग्रन्थ १८ सन्धियोंमें विभक्त है। इसके परिमाण आदिके सम्बन्धमें
अन्यकारने स्वयं ही लिखा है
अट्ठारह-संघिउ ऍह पुराणु तेसछि-पुराणे महापुराणु ।
सतिणि दहोत्तर कडबायहँ पाणा-विह-छंद-सुहावयाह ।
तेतीस संबई तेवीसयाई अक्त्र रइं किंपि सविसेसयाई 1
उपत्य सांस्थाहा पमाणु फुटु पय असेसु विक्रय-प्रमाणु ।
जो को वि अत्थु आरिस णिबद्ध सो एत्थु गंथि सहत्य-बद्ध ।
जं आरिस-पास पुराण वृत्तु जं गणहर-मुणिवर-रिसिहं वृत्त ।
तं पत्थु सत्थ मई बिथरिउ जं कब्ध करंस, संसरित।
तज संजउ जेण बिरोहु जाहिँ त ऍत्थु गंथिमई कहिउ पाहि ।
सम्मत्तहा दुसणु जेणहोइ आगमण तेण ण वि कज्ज को बि ।
घत्ता- मित्थत्त करति य कन्चई पर सम्मत्तई मणहरइँ ।
किंगाव-फलोबम-सरिसइँ होहि अंति असुहकरई ।।
अर्थात् १८ संधियोंसे युक्त यह पुसण ६३ पुराणों में सबसे अधिक प्रधान है। नाना प्रकारके छन्दोंसे सुहावने ३१० कड़वक तथा ३३२३ से कुछ अधिक पंक्तियाँ इस ग्रन्थका प्रमाण है। यह स्पष्टत: पुराका पूरा प्रामाणिक है। ऋषियोंके द्वारा जो भी सत्व निर्धारित किया गया है, वह सब इस ग्रन्थमें अर्थयुक्त शब्दोंमें निबद्ध है । जो ऋषियोंने पाश्र्यपुराणमें कहा है, जो गणधरों, मुनियों और तपस्वियोंने बतलाया है तथा जो काब्यकर्ताओंने निर्दिष्ट किया है, वह मैंने इस शास्त्रमें प्रकट किया है। जिससे सप और संयमका विरोध हो वह मैंने इस ग्रन्थमें नहीं कहा है। जिससे सम्यक्ल दूषित हो उस आगमसे भी मेरा कोई प्रयोजन नहीं रहा।
विपरीतसम्यक्त्वसहित किन्तु मनोहर काव्य मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं तथा किपाक फलके समान अन्तमें अशुभकर होते हैं ।
प्रथम सन्धिमें २३ कड़वक हैं । २४ तीर्थंकरोंकी स्तुसिके पश्चात् कविने लधुता प्रदर्शित करनेके अनन्तर काव्य लिखनेकी प्रेरणाका निर्देश किया है। खलनिन्दाके पश्चात मध्यदेशका वर्णन किया है ! कविने बताया है कि मगध देश धनधान्यसे बहुत ही सम्पन्न है, यहाँके साधारण व्यक्ति भी चोर, शत्रुओं से मुक्त हैं । यहकि उपवनोंके परिसर फलफूलोंसे संयुक्त हैं । धानके लहलहाते हुए खेत और गाती हुई बालिकाओं द्वारा उनकी रखवाली किसके मनको नहीं आकृष्ट करती है। यहां भ्रमर, कमलसमूहोंको छोड़कर कृषक बन्धुओंके मुखों
१. पासणाहपरिउ, प्राकृत टेक्स्ट सोसाईटी, १८। २० ।
के कपोलोंका सेवन करते थे। यहाँ विविध प्रकारके समस्त विद्वान अपने-अपने देशोंका त्याग कर, यहाँ आकर रहते हैं। देव भी स्वर्गले च्युत हो यहाँ निवास करनेकी कामना करते हैं। इसी देशमें पोदनपुर नामका नगर है, जो प्राकाट, शालाओं, मठों, जिनमन्दिों, प्रणालियों, बड़कों, गोड, नी-लंबी झााल काओं, आरामों, उपवनों, नदियों, कूपों, बापियों, बृक्षों, चौराहों एवं विभिन्न प्रकारके बाजारसे सुशोभित है । इस नगरमें चौशाला, ऊँचा, विशाल तथा विचित्र ग्रहोंसे युक्त राजभवन था । यह महीतलपर उसी प्रकार सुशोभित था जिस प्रकार नभत्तलमें नक्षत्रीसहित चन्द्रमा । राजभवनके वर्णनके पश्चात महाराज अरबिन्द और उनकी पत्नी प्रभावतीके रूप, सौन्दर्य और गुणोंका वर्णन किया है। अनन्तर राजाके पुरोहित विश्वभूतिके गुणोंका निरूपण किया गया है। इस पुरोहितकी पत्नीका नाम अनुद्धरी था, जो अपने रूपलावण्यसे विश्वभूतिको आकृष्ट करती थी। इस दम्पत्तिके दो पुत्र हुए कमठ और मरुभूति । कमठ की पत्नी मदमत्त महागजको करिणीको शोभा धारण करनेवाली शुद्ध हृदय तथा शीलवती थी। उसका नाम वरुणा था । मरुभूतिकी पत्नी परलोक मार्गके विपरीत आचरण करने वाली तथा कुशील थी। उसका नाम वसुन्धरी था । एक दिन विश्वभूतिको संसारसे बिरक्ति हुई और उसने घर-बार छोड़कर अपना पद अपने पुत्रको सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। अनुदरीने भी पतिका अनुकरण किया और वह भी प्रजित हो गयी । राजाने कमठ और मरुभूतिको बुलाकर उन दोनोंमेंसे मरूभूतिको पुरोहितके पद पर प्रतिष्ठित किया । एक दिन राजा अरविन्दको किसी शत्रुको वश करनेके लिए दूर देश जाना पड़ा, साथमें मरुभूति भी गया । किन्तु वह अपना समस्त परिवार नहींपर छोड़ गया। इसी समय वह दुष्ट, विमष्ट चित्त तथा महामदोन्मत्त कमठ घरमें रहती हुई अपनी भ्रातृवधूको देखकर उसपर अनुरक्त हो गया | कमठने अपने छोटे भाई की पत्नोके साथ अनुचित व्यवहार किया । जब माभूति शत्रु पराजयके अनन्तर वापस घर आया, तो उसे कमठकी इस अनीतिका पता लगा । पर उदार मरुभूतिने कमठको क्षमा कर दिया । पर राजाको कमठकी यह अनीति पसन्द न आयी और उसने उसे नगरसे निर्वासित कर दिया । कमठ एक तपोवनमें प्रविष्ट हुआ और तापसियोंके आश्रममें जाकर रहने लगा। मरुभूति राजाके द्वारा समझाये जानेपर भी अपने भाईकी तलाश करनेके लिए निकल पड़ा। वह तापसियोंके आश्रममें पहुंचा और वहाँ मरुभूतिको पञ्चाग्नि तप करते हुए देखकर प्रभावित हुआ। उसने भावपूर्वक उसकी तीन प्रदक्षिणाएँ की और प्रणाम करने के लिए उसके चरणोंमें सिर झुकाया । कहने लगा "हे महाबल !
आप गुणों वागार मुझे क्षमा करें।" कमटने एक शिलाखण्ड उठाकर मरुभूति पर प्रहार किया, जिससे मरुभूतिका प्राणान्त हो गया। मराभूति आर्तध्यानसे मरण करनेके कारण उनी वामें महागजके रूप में उगा हुषा और कमल कुक्कुट नामका भयंकर सपं हुआ | मरुभूतिका जीव अभियोग गजराज अपने समूहके साथ सम्पूर्ण बनामें बड़े अनुरागसे घूमता था, अपने साम् की रक्षा करता श्रा । वह कारगियोंक साथ कमलघुक्त सरोवरोम विहार करता था।
द्वितीय मन्धिमें समस्त राज्यका त्याग कर राजा अरविन्दके मुनीन्द्र होनेका वर्णन आया है। अविन्द मुनिने चिन्तन करते हुए अबधिज्ञान प्राप्त किया। इस सन्दर्भ में नरवा, तियंञ्च, मनुष्य और देव गतिके दुःखोंका वर्णन है । राजा अरबिन्दने निष्क्रमण किया और पञ्चमुष्टिलोञ्चकर दोक्षा धारण की । द्वितीय सन्धिमें १६ कड़वा है और इसमें राजा अरबिन्द के दीक्षित होने की विचार धाराका चित्रण आया है।
तृतीय सन्धिमें १६ बाड़वक हैं। तृतीय सम्ध्रिमें अरविन्दकी गश्चयां और उनके बिहारका चित्रण आया है। इस सन्धि सम्यक्त्वकी महिमा, सम्यनत्यके दोष, सम्यक्त्वकी प्रशंसा, अणुव्रत, णवत्त और शिक्षातोंका स्वरूप बतलाया गया है। जिन बरकी भवितकी प्रशंसा करते हुए बतलाया गया है कि भक्तिके प्रभावसे मनुष्य समस्त तियों के दुःखोसे छूट जाता है 1 इसी सन्धिमें अनि घोष गजपत्तिके उद्बोधनका भी सन्दर्भ आया है। अरविन्द मुनिने उसे सम्बो. धित करते हुए कहा- "हे गजबल ! मैं राजा अविन्य ई, पोदनपुरका स्वामी हूँ, यहाँ आया हूँ। तू मरुभूति है, जो हाथीके रूप में उत्पन्न हुआ है। विधिशात् तु इस सार्थके पास आया है । मैंने पहले ही तुझे कमठसे पास जानेसे रोका था । उसकी अवहेलना कर तू इस दुःखको प्राप्त हुआ है । हे गजवर ! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। तू मेरे द्वारा कहे हुए वचनोंका यथासम्भव पालन कर । सम्य क्व और अणुजनोंको ग्रहण कर, ग्रही तेरे कल्याणका मार्ग है।'' मुनि अरबिन्द ने मोक्षलाभ किया ओर गज श्रेष्ठ तपश्चर्याम सलपन हुआ।
चतुर्थ सन्धिमें १२ कड़वक हैं और अपनिषोप गजकी तपस्याका वर्णन आया है । अपनिधोषकी मृत्यु कुक्कुट सर्पके दंशनसे हुई, पर द्वादश भावनाओं का चिन्तन करनेके कारण उसका जन्म सहस्त्रारकल्पमें हुआ और कुक्कुट सर्प पञ्चम नरकम उत्पन्न हआ । इस चौथी सन्धिमें राजा हेमप्रभ, राजकुमार विद्युत्बेगकी कथा भी वर्णित है। प्रसंगवश मुनिके २८ मूलगुण एवं संयम तपश्चर्या आदिका वर्णन आया है।
पांचवीं सन्धि १२ कड़वक हैं । इस सन्धिमें मरुभूतिका जीव सहस्रार
स्वर्णसे धुत हो जम्बू द्वीपने अगरविदेह क्षेत्रमें पृथ्वीपत्ति होनेका वर्णन आया है । कमलका जीय भोलके रूपमें उत्पन्न हुआ है । मरुभूतिका जीब चक्रायुध सिरके श्वेत बालोंको देखकर संसानसे विरत हो तपश्चर्या करने लगा। पूर्व जम्मके वैरभावके कारण कमठका जीव गोलने चमायुधपर बाणप्रहार किया, जिससे मुनि बकायुष ध्यानपूर्वक मरण कर अवेयकमें दवरूपमें उत्पन्न हुए
और भीलका जीच नरकम उत्पन्न हुआ ।
छठी सन्धि १८ कड़वक हैं । चक्राका जोब बंधकसे च्युत होकर पूर्व विदेह क्षेत्रके विजय देशके नाजाके यहाँ कनकप्रभके रूपमें उत्पन्न हुआ। कनक प्रमने बयस्क होकर अपने राज्यांनी समृद्धि की । उसके धन-धान्यसे सदा समृद्ध ३२ हजार प्रदेश, २६ करोड ग्राम, १२ हजार खान, स्वर्ण और चाँदीके तोरणों से युक्त ८४ लाख श्रेष्ठ पुर, ८४ हजार बरबट, सूखेट और द्रोणमुख थे । उसक मन और पवनकी गति वाले १८ बारोड़ येष्ठ घोड़े, ८४ लाख मदोन्मत्त हाथी एवं समस्त शत्रु दलबा नाश करने वाले उत्तने ही उत्तम रथ थे। इस राजाक ८ लाख अंगरक्षक, ती[सौ साठ रसोईआएवं उबटन और सम्मर्दन करने वाले २०० अनुचर थे । १६ हजार शनियाँ और तीन करोड़ उत्तम कृषक थे । चतुरंगिणी सेनासे घिरा हुआ वह राजा घटस्लण्डकी विजयके लिए चल पड़ा। विजयके पश्चात् व वापस लौटा और आनन्दपूर्वक साम्राज्य करने लगा। उसका अपार ऐश्वयं आ । आचार्य ने इस सन्धिम घटा तुका वर्णः। त हुए कनकप्रभके भोगविलासका चित्रण किया है । एक दिन कनकप्रभने यशावर मुनिके दर्शन किये और उनसे फर्मसिद्धान्तका उपदेश सुना । कनकप्रभने दीक्षा ग्रहण की।
सप्तम सन्धिमें १३ कड़वक हैं। आरम्भमें मुनिदीक्षाको प्रशंसा की गयी है। अनन्तर १२ अंग और १४ पूर्वोका वर्णन आया है । मुनि कमकप्रभने अंग और पूोंके अध्ययनके पश्चात् पूर्वांगों में आयी हुई वस्तुओंकी संख्याका अध्ययन किया है । इस सन्दर्भ में सीन हजार नौ सौ पाहडोके अध्ययनका कथन आया है। कनकप्रभमुनिने कठोर तपश्चरण कर आकाशगामिनी ऋद्धि प्राप्त की, साथ ही जलचरण, तन्तुचरण, श्रेणिचरण और जंघाचरण ऋद्धियोके साथ सावधि, मनःपर्ययज्ञान आदि प्राप्त किये । बिविया ऋद्धि एवं अक्षीण महानस ऋद्धि भी प्राप्त हुई। कनकप्रभने क्षीरवन में प्रवेश कर गिरिशिखरपर आरूढ़ हो, धर्म ध्यान प्रारम्भ किया । इसी समय कमठके जीबने, जो कि सिंह के रूप में वहाँ निवास करता था, मुनिपर आक्रमण किया और उसने मुनिका प्राणान्त कर दिया । कनकप्रभमुनि समताभावपूर्वक भरण कर वैजयन्त नामक स्वर्ग में देव हुए ।
कमठका जीव विभिन्न योनियों में जन्म-मरण करता हुआ बाहाण कुलमें उत्पन्न हआ। उसने रशिष्ट नामक नगल्नी के साथ सामुदीधा प्रामा की और वह पञ्चाग्नितप करने लगा।
आठनों सन्धिमें २३ कड़वक हैं । इस सन्धिमें वाराणसी के राजा हसन और उनकी पत्नी बामादेवीका वर्णन आया है। सीर्थकर पार्श्वनाथ गर्भम आनेके छ: महीने पहिलेरो ही देवों द्वारा रत्नोंकी वर्षा हुई और बामादेवीकी सेवाके लिए देवांगनोंका आगमन हुआ | वामादेवीने रात्रिके चतुर्थ प्रहरमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल राजा ह्यसेनसे पूछा । हयसेनने स्वानोंके फलपर प्रकाश डालते हुए बतलाया कि तुम्हें संसारोद्धान पुत्र उत्पन्न होगा । इस पूत्र का महत्त्व सर्वत्र व्याप्त हो जायगा । अनन्तर तीर्थकर पार्श्वनाथका गर्भावतरण, जन्माभिषेक, कर्णछेदन, नामकरणका वर्णन आया है। इन्द्र तीर्थंकर पार्वको वामादेवीके पास छोड़कर स्वर्ग चला गया ।
नौवीं सन्धि १४ कड़वक है और जयसगत भवन में किये गये जन्मोत्सवका चित्रण है। पुत्र-उत्पत्तिसे झ्यसेनको समृद्धि अधिक बढ़ी | शनैः-शनै: पार्श्वनाथ बाल्यावस्था पार कर ३१३ वर्षमें प्रविष्ट हुए। हयसेनकी राजसभामं भूटान, मौर्य, इक्ष्वाकु, कच्छ, सिन्धु आदि विभिन्न देशोंके गजा उपस्थित हुए । एक दिन राजसभामें दूत आया और उसने कुगस्थलको राजा द्वारा दीक्षा ग्रहण किये जानेका वर्णन किया । यसेन इस समाचारसे दुःखित हुआ। इसी बीच दूत्तने कुशस्थलपर यवन राजा द्वारा आक्रमण और धमकी दिये जानेकी बात बतलायी। हमसेनने प्रतिज्ञा की कि यवनका गर्व खर्च कर दूंगा | उसने युद्धके लिए प्रस्थान किया ।
दसवीं सन्धिमें १४ कहलक हैं। इस सन्धिके आरम्भमें बताया गया है कि पार्श्वनाथ यवन सेनाका सामना करने के लिए चल पड़े। हयसेनने पार्श्वनाथको बहुत समझाया कि अभी तुम बालक हो, युद्धमें प्रौढ़ व्यक्तियोंको ही जाना चाहिये । अत: तुम यहीं निवास करो और मैं युद्धके लिए जाऊँगा। पारवनाथने निवेदन किया कि शिशु तथा बालकका लालन-पालन करना पिताका कत्तव्य है। इसके विपरीत वृद्धावस्थामें पिताकी सवा-सुश्रुषा करना पुत्रका धर्म है। अत: कुमारने युद्ध में जानेके लिए अत्यधिक आग्रह किया, जिसे पिताको स्वीकार करना पड़ा । चतुरंगिणीसे युक्त कुमार पार्श्वनाथने शुद्ध के लिए प्रस्थान किया । मार्ग में नानाप्रकारके शकुन हुए। सरोबरके समीप सेनाका शिविर पड़ा। इस सन्दर्भमें आचार्यने सूर्यास्त, सन्ध्या, रात्रि, चन्द्रोदय, सूर्योदय, सैन्यनस्थान आदिका सुन्दर चित्रण किया है । कुशस्थल के राजा रविक्रीतिने कुमार पालका
स्वागत किया।
इसके पश्चात् ग्यारहवीं सन्धिके १३ कड़वकोंमें युद्धका वर्णन आया है। बताया है कि कुमारका आगमन सुनकर अवनराज सशंकित हुझा । पाश्र्धक आ जानेसे रबिकौतिकी सेनाका बल बढ़ा और गबनराजकी सेनाके साथ भयंकर पद्ध होने लगा। रविकीतिने अपूर्व रणकौशल दिखलाया । यवनराजके बहुतसे सामन्त और वीर रविकीति द्वारो परास्त किये गये।
बारहवीं सन्धिमें १५ कवक है। आरम्भमें यवनराजके गजबलला रवि कीर्तिपर आक्रमण करनेका चित्रण आया है। विकीर्तिने अत्यन्त कौशलपूर्वक गजसेनाका विनाश किया, पर विशाल गजवाहिनी के समक्ष उगवी गाक्ति कुण्ठित होने लगी। रविकीतिक मन्त्रियोंने इस रणदशाको देखकर नमार पावसे निवे दन किया कि आप अब युद्ध करने के लिए तैयार हो जाइये । आपकी शक्तिके समक्षा त्रलोक्यकी गक्ति नतमस्तक है । कुमार पाच एक अक्षौहिणी अश्व, गज, रथ और पैदल सैनिकों महित रणभूमिमें प्रविष्ट हुए ! पाश्चंने शत्रुके मजममूह को क्षणभरमै तितर-बितर कर दिया । कुमार पात्र के साथ युद्ध करने के लिए यवनराज अनेक प्रकारको तैयारियां करने लगा और उसने दिव्य अस्त्रोका प्रयोग किया। यवनराजने विभिन्न अस्त्रोंका प्रयोग किया, पर उसका एक भी वाण
सार्थक न हुआ । कुमार पावने यवनराजको बन्दी बना लिगा !
तेरहवीं सन्धिमें २० कड़बक हैं 1 आरम्भमें यवनराजके भटो द्वारा आत्म समर्पणका वृतान्त आया है। युद्धसमाप्तिके अनन्तर कुमार पाबने कुशस्थली में प्रवेश किया । रविकीतिने विभिन्न प्रकारसे कुमारका स्वागत और आतिथ्य किया । यवनराजके मन्त्रीने आकर सन्धिका प्रस्ताव उपस्थित किया । कुमार पाश्चने यवनराजको मुक्त कर दिया और सन्धिका प्रस्ताव स्वीकृत कर लिया गया । रविकीर्तिने अपने मन्त्रियोंसे परामर्श कर अपनी कन्याका विवाह कुमार पावसे करनेकी इच्छा व्यक्त की। विवाहके लिए रवि, चन्द्रसे शुद्ध लान निश्चित की गयी । इसी समय कुमार पावको सूचना मिली कि नगरके बाहर कुछ तपस्वी आये हुए हैं। कुमार पाश्र्व उन तपस्वियोंको उद्बोधन करनेके लिए चल पडे ! वहाँ जाकर देखा कि जिन लकड़ियोंको जलाकर पञ्चाग्निप्तप किया जा रहा है, उनमें एक लकड़ीके बीच सर्प है। कुमारने रोकते हुए कहा इस लकड़ीको मत जलाओ, इसमें साँप है । तपस्वियोंके बीच रहनेवाला कमठ का जीच तापसी रुष्ट हुआ और क्रोधपूर्वक बोला-इस लकड़ीमें सर्प कहाँ है ? यह राजा खल है । मैं अभी इस लकड़ीको फाड़कर देखता हूँ। लकड़ीको फाड़ा गया, तो उसमेंसे एक विषधर भुजंग निकला। सभी देखकर आश्चर्यचकित रह गये । कमठके जीवको तो अत्यधिक पश्चात्ताप हुआ । उसने अनशन कर
जीव हिंसा और परिग्रहका त्याग कर पञ्चत्व प्राप्त किया। स्वर्ग गया और वहाँ देवियों के साथ विचरण करने लगा । पाश्चकुमारने सर्पको पञ्चनमस्कार मन्त्र दिया जिसके प्रभाव पातालमें. नागराजोंके बीच सीन पल्यकी आयवाला धरणेन्द्रदेव हुआ। सर्पकी मत्युको देखकर कुमारके मनमें विरक्ति हुई और बह संसारके भोगोंको असार समझने लगा। लौकान्तिक देवोंने आकर कुमारके बैराग्यकी वृद्धि की और कुमारने जिनदीक्षा ग्रहण की। कुमारके दीक्षित होनेसे रविकीति और प्रभावतीको विशेष कष्ट हुआ | जब हयसेनाने कुमारकी दीशाका समाचार मुना, तो हतप्रभ हो गया। मन्त्रियोंने उसे बहुत समझाया । माता बामादेवीको भी पुत्रके दीक्षा समाचारसे कष्ट हुआ! मन्द्रियोंने किसी प्रकार हयसेन और बामादेबीको समझाकर सन्तुष्ट किया ।।
चौदहवीं संधि, ३० कड़बक हैं । आरम्भमें पार्श्वनानके तप और संयमका चित्रण किया है। आकाशमार्गसे जाते हुए असुरेन्द्र के विमानका स्थगन होना
और स्थगनका कारण पाश्चकुमारको जानकर अमरेन्द्र द्वारा पाश्वनाथको मार डालने का निश्चय करना एवं नाना प्रकारके उपसर्ग देना, और उपसर्गोके शमन के लिए धरणन्द्रका आना, नागराज द्वारा पार्वकी सेवा करना तथा असुर कुमारको उपमान करनेके लिए चेतावनी देना आदिका वर्णन आया है। पार्श्वनाथकी केवलज्ञानकी उत्पत्ति भी इसी सन्धिमें वर्णित है । ___ पन्द्रहवीं सन्धिमें १२ कड़बक है ! केवलज्ञानको प्रशंसाकी गयी है । देवों द्वारा बोवलज्ञानकाल्याणक सम्पन्न करनेवाले उत्सवका वर्णन आया है। इन्द्र द्वारा होड़े गये बञसे असुरकुमारका पावनायके शरणमें जाना, इन्द्र द्वारा समब शरणकी रचना, देवों द्वारा जिनेन्द्रको स्तुति, इन्द्रकी उपदेश देने हेतु प्रार्थना आदि विषय इसी सन्धिमें आये हैं।
सोलहवीं सन्धि १४. कड़वक है। आरम्भमें गणधर द्वारा लोकोत्पतिपर प्रकाश डालने के लिए आग्रह किया गया है और समवशरण में आवारा, लोका काश, मेरु, अधोलोक, उर्व लोक, स्वग आदिके वर्णनके पश्चात् वैमानिक ज्यो तिषी, व्यन्तर और भवनवासियोंकी आयुका वर्णन आया है। मध्यलोक और उसमें स्थित जम्बूद्वीप, सप्त क्षेत्र, षट् कुलाचल पूर्व अपर विदेह, गंगादि नदियाँ लवणसमुद्र, वातकीखण्ड, कालोदधि, पुष्कराधीप, दाईहीपले क्षेत्र, पवंतादि द्वीपसमुद्रोम सूर्य-चन्द्रकी संख्या, सीनों बातपलयोंका स्वरूप एवं कमठासुर हाग जिनेन्द्रसे क्षमायाचनाका वर्णन आया है ।
सत्रहवीं सन्धिमें २४ कड़वक हैं। इस सन्धिमें कुशस्थलीमें जिनेन्द्रके समय शरणका पहुंचना, रविकीतिका जिनेन्द्र के पास आगमन, शलाकापुरुषोंके सम्बन्ध
में जानने की इच्छा, अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालचक्र, सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दुःषमा, दुःषम-सुषमा, दुःषमा, दुःषम-दुःषमा, इन छह कालोंका वर्णन किया गया है। तृतीय कालके अन्तमें ऋषभदेवादि चतुर्विशति तीर्थंकरोंकी उत्पत्ति, तीर्थंकरोंकी कायाका प्रमाण, उनके जन्मस्थान, वर्ण, आय, तीर्थंकरों के तीर्थकी अवधि, द्वादश चक्रवर्ती, नव बलदेव, नव नारायण, नव प्रतिनारायण
आदिका वर्णन आया है। रविकीति भी तीर्थकर पाश्र्वनाथके उपदेशसे प्रभा बित होकर दीक्षित हो जाता है और पाश्वनाथके समवशरणमें शौरीपुर पहुंचता है।
१८वीं सन्धि, २२ कड़वक हैं। समवशरणमें नरक जानेवाले मनुष्यों के कृत्योंके पश्चात् तिर्यञ्चगतिके जीवोंका विवरण आया है। मनुष्यगतिके जीवोंके दो भेद किये हैं-कर्मभूमिके मनुष्य और भोगभूमिके | भोगभूमिमें उत्पन्न होने वालोंके सत्कार्यका वर्णन करते हुए ढाई द्वीपकी १७० कर्मभूमियोंका विवेचन किया है ! देवगति में उत्पन्न करानेवाले सत्कृत्योंका चित्रण कर समवशरणमें वामादेवी और हयसेनको उपदेश दिये जानेका कथन आया है । नागराजद्वारा पूर्वजन्मने वृत्तान्तके सम्बन्धमें पूछनेपर दशभवोंकी कथाका संक्षेप में चित्रण आया है। हयसेन भी दीक्षित हो जाता है और अन्तमें अन्य परिचय और अन्धकारकी गुरु परम्पराके साथ अन्य समाप्त हो जाता है ।
यह ग्रन्थ जैन सिद्धान्त और कान्यकी दृष्ट्रिसे महत्त्वपूर्ण है । इसमें सम्यक्त्व, श्रावकधर्म, मुनिधर्म, कर्मसिद्धान्त, विश्वका स्वरूप आदिका चित्रण आया है । सम्यक्त्वके स्वरूपका विवेचन निश्चय और व्यवहार दोनों ही दृष्टियोंसे किया गया है। इस ग्रन्थमें सम्यक्त्वके चार गुण-१. मुनियोंके दोषोंका गोपन, २. च्युत चारित्र व्यक्तियोंका पुनः सम्यक् चरित्र में स्थापन ३. वात्सल्य और ४. प्रभावना बतलाये हैं। पाँच दोषोंमें-१. शंका, २. आकांक्षा, ३ विचिकित्सा, ४. मढदष्टि, ओर ५. परसमयप्रशंसाकी गणना की है। श्रावकधर्म के अन्तर्गत गणनत, अणुयत, शिक्षातका कथन आया है । मुनिधर्मके अन्तर्गत २८ मूलगुण-पांच महाबलोंका पालन, पांच समितियोंका धारण, पंचइन्द्रियोंका निग्रह, षड़ आवश्यक, खड़े-खड़े भोजन, एक बार भोजन, वस्त्रत्याग, केशलञ्च, अस्नान, भूमिशयन और अदन्त धावन मूलाचारके समान ही इस ग्रन्थमें आये हैं । लपके दो भेद किये हैं—बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन, अवमौदर्य, बुत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तपके भेद हैं । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सगं और ध्यान में छह आभ्यन्तर सपके भेद हैं। इन मूलगुणों के साथ २२ घरीपह और उत्तरगुणोंका भी कथन
आया है। कर्मसिद्धान्त और सृष्टिविद्या के सम्बन्धमें अनेक महत्त्वपूर्ण बातें बतलायी गयी हैं।
काव्यको दृष्टि से भी यह ग्रन्थ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसमें महाकाच्यके सभी लक्षण घटित होते हैं । आचार्य ने षड्ऋतु, सन्ध्या, रात्रि, नदी, बन, पर्वत, सूर्योदय, चन्द्रोदय आदिका सुन्दर चित्रण किया है । यहाँ उदाहरणार्थ चन्द्रोदय वर्णनकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाती हैं
ऐत्वंतरि भुभणहा सुहु जणंतु हि उइउ चंदुतम भाहणंतु ।
आणंद-जगणु परमत्थ-गम्भु अवर्यारउ गाइ पह अमिय-कुंभु ।
चंदुग्गमे विसिय कुमुअ-सद्ध मजलिय सरेहि पंकय-उदंड ।
संसि-सोमु विलिणिह गज सुहाइ सुरुग्गम विडसड़ गुणह जाइ ।
अहवा जगि जो जसु ठियउ चित्ति गुण-रहित वि सम्मल देइ तित्ति ।
मयलंछण-किरणहिं तिमिरु पढ्छु जोण्हाणल परिपुणा दिछु ।
कोडतह मिहण, सुक्षु जाउ रोमंचित तणु उच्छलिल राउ ।
पिसि भीसण अलि-उल-सम-सदोस तम-रहिए ससक किय सत्तोस ।
बहु-दोष वि अहया महिल होइ परिगरिय सुपुरिसे सोह देइ ।
धत्ता-गहु सयलु विकिउ अकलंकिउ थिउ सकलंकित चंद-तणु ।
णिय-कब्जही विउस वि भुल्लाह गरवर किं पुणु इयर-जणु'।
इसी समय संसारको सुख पहुंचाता हुआ लया अन्धकारपटलका नाश करता हुआ चन्द्रमा नभमें उदित हुआ। आनन्दकी उत्पत्ति करनेवाला तथा परमार्थभावको धारण करनेवाला वह चन्द्र नभमें अमुसकुम्भके समान अवतरित हुआ । चन्द्रो दयके समय कुमुदसमह विकसित हुआ तथा सरोवरों में विकसित कमल मुकु लित हुए। सौम्यचन्द्र भी नलिनीको नहीं सुहाता । वह सूर्योदयपर ही प्रफु ल्लित होती है और गुणोंका उत्कर्ण प्राप्त करती है। अथवा इस संसारमें जो जिसके चित्तमें बसा हुआ है, वह गपाहोन होते हुए भी उसकी तृप्ति करसा है। चन्द्रमाकी किरणोंसे अन्धकारका नाश हुआ तथा गगन ज्योत्स्नाजलसे परि पूर्ण दिखलायी दिया । क्रीड़ामें आसक्त युगलोंको सुख प्राप्त हुआ, उनके शरीरमें रोमांच हुआ और अनुराग उमड़ पड़ा । भ्रमरसमूहके समान काली एवं भीषण रात्रिको चन्द्रमाने तमरहित और शोभायुक्त बनाया अथवा अत्य धिक दोषपूर्ण व्यक्ति भी सत्पुरुषकी संगतिमें शोभित होता है । चन्द्रमाने समस्त आकाशको कलंकरहित किया किन्तु स्वयं चन्द्रमाका शरीर कलंक युक्त
१. पासणाहबरिज--१०।११ ।
रहा । जब विद्वान् तथा उत्तम पुरुष भी अपना कार्य भूल जाते हैं, तब फिर अन्य लोगोंकी क्या बात ?
इस प्रकार आचार्य पाकीतिने धर्म, दर्शन और काव्यको त्रिवेणो इस ग्रन्थ में एक साथ प्रवाहित की है।
गुरु | आचार्य श्री जिनसेन |
शिष्य | आचार्य श्री मुनि पद्मकिर्ती |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Muni Padmakirti ( Prachin )
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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