हैशटैग
#NarendrasenPrachin
नरेन्द्रसेन नामके कई आचार्य हुए हैं, पर हमें 'प्रमाणप्रमेयकलिका' के रच यिता नरेन्द्रसेनका व्यक्तित्व और कृतित्व उपस्थित्त करना अभीष्ट है। एक नरेन्द्रसेनका उल्लेख कादिराजने अपने न्यायविनिश्चयकी अन्तिम प्रशस्तिमें किया है । वादिराजने इनकी गणना विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, पूज्यपाद, दयापाल, सन्मतिसागर, कनकसेन, अकलंक और स्वामी समन्तभद्रकी श्रेणी में की है। वादिराजका समय ई० सन् १०२५ है, अतः नरेन्द्रसेन इनके पूर्ववर्ती हैं।
दुसरे नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनकी गुणस्तुति मल्लिषेण सूरिने नागकुमार चरित की अन्तिम प्रशस्तिमें की है।
तस्यानुजश्चारुचरित्रवृत्तिः प्रख्यातकीतिभुवि पुण्यमूर्तिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञाततत्वो जिसकामसूत्रः ।।
मल्लिषेणने इन नरेन्द्रसेनको जिनसेनका अनुज बतलाया है और उन्हें उज्ज्वल चरित्रका धारक, प्रख्यातकीर्ति, पुण्यमूर्ति, वादिविजेता, तत्त्वज्ञ एवं कामविजयोके रूपमें वर्णित किया है। वादिराज और मल्लिषेण दोनों सम कालीन हैं । अतएव दोनोंके द्वारा उरिलखित नरेन्द्रसेन एक ही व्यक्ति हो सकते हैं।
१. अनेकान्त, पृ० १९७ से उद्धत ।
२. प्रशस्तिसंग्रह, वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, पृ०६१ ।
तृतीय नरेन्द्रसेन "सिद्धान्तसारसंग्रह' और 'प्रतिष्ठादीपक के रचयिता हैं। प्रशस्तियों में उनकी उपाधि पण्डिताचार्य प्राप्त होती है। ये नरेन्द्रसेन अपनेको वीरसेनका प्रशिष्य और गुणसेनका शिष्य बतलाते हैं। इनके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है।
चौधे नरेन्द्रसेन काष्ठासंघके लाडबागडगच्छकी पट्टावलीमें उल्लिखित हैं। इन्होंने अल्पविद्याजन्य गर्वसे युक्त आशाधरको सूविरुद्ध प्ररूपणा करने के कारण अपने गच्छसे निकाल दिया था। ये नरेन्द्रसेन पासेनके शिष्य थे । पट्टा बलीमें गुरु-शिष्योंकी लम्बी परम्परा दी गयी है । इसमें त्रिषष्टिपुराणपुरुषचरित कर्ता महेन्द्रसेन, चतुर्दशतीर्थकर परिक्षार्ता अनन् कीरि, रतपस्वी विजेता विजयसेन, लाइबागडगच्छके जन्मदासा चित्रसेन, पासेन और नरेन्द्रसेनके नाम आये हैं। पट्टावलीसे यह भी अवगत होता है कि पग्रसेनशिष्य नरेन्द्रसेन प्रभावशाली विद्वान थे। इनके द्वारा बहिष्कृत किये गये आशाधरको श्रेणि मच्छमें जाकर आश्रय लेना पड़ा था। ५वें नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनका उल्लेख बीतरामस्तोत्रमें उसके कर्ताक रूपमें हुवा है
श्रीजैनसूरि-बिनत-क्रमपद्मसेनं,
हेला-विनिर्दलित मोहनरेन्द्रसेनम् ।
इस स्तोत्रमें पनसेनका भी उल्लेख है। ये दोनों आचार्य स्तोत्रकर्ता द्वारा गुरुरूपसे स्मुत किये गये हैं। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस स्तोत्रका रचयिता कल्याणाकीतिको बतलाया है। स्तोत्रमें पयसेन और नरेन्द्रसेनका उल्लेख होनेसे ये चतुर्थ नरेन्द्रसे भिन्न नहीं हैं। __छठे नरेन्द्रसेन संस्कृत-रत्नत्रयपूजाके कर्ता हैं। इस पूजाके पुष्पिका वाक्यमें लिखा है
"इति श्रीलाद्धबागडीयपण्डित्ताचार्यश्रीमन्नरेन्द्रसेन-विरचिते-रत्नत्रयपूजा विधाने दर्शनपूजा समाप्ता।"
सिद्धान्तसारके कर्ता नरेन्द्रसेनकी उपाधि भी पण्डित्ताचार्य है तथा वे भी लाडयागङगच्छके आचार्य हैं। अत: बहुत सम्भव है कि ये दोनों व्यक्ति
अभिन्न हों।
१. तदन्वये श्रीमतलाटवर्मटप्रभावीपमसेनदेवानां तस्य शिष्यत्रीनरेन्द्रसेनदेवैः किंचिद विद्यागर्वत असूत्रप्ररूपणादाशाधरः स्वगच्छानिःसारितः कदामहप्रस्त' श्रेणिगछ
मशिनियत्। भट्टारक सम्प्रदाय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, लेखांक ३२
२. अनेकान्त वर्ष ८, किरण-६-७, पृ० २३३ ।
३ भट्टारक सम्प्रदाय, पृ०२५३, लेखांक ६३३ ।
७- नरेन्द्रसेन सेनगण पुष्करगच्छकी गुरुपरम्परामें छत्रसेनके पदाधि कारी हुए हैं। इन्होंने शक संवत् १६५२ में कमलेश्वर ( नागपुर ) के एक जिन मन्दिरमें ज्ञानयंत्रकी प्रतिष्ठा करायी थी ।
श्रीमज्जैनमते पुरन्दरनुते श्रीमूलसंधे बरे
श्रीशूरस्थगणे प्रतापसहिते सदभूपवृन्दस्तुते ।
गच्छे पुष्करनामके समभवत् श्रीसोमसेनो गुरु:
तत्पट्टे जिनसेनसन्मतिरभूत धर्मामृतादेशकः ||१||
तज्जोऽभूद्धि समन्तभद्रगुणवत्त शास्त्रार्थपारंगतः
तत्पट्टोदयतर्कशास्त्रकुशलो ध्यानप्रमोदान्चित्तः ।
मद्विद्यामृतवर्षणकजलद: श्रीछत्रसेनो गुरुः
तत्पट्ट हि नरेन्द्रसेनचरणौ संपूजयेऽहं मुदा ॥२॥
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि इसमें छत्रसेनको 'तर्कशास्त्रकुशल' और दादागुरु समन्तभद्रको 'शास्त्रार्थपारंगतः' कहा गया है। अतएव छत्रसेनके शिष्य नरेन्द्र सेम तर्कशास्त्री विद्वान् थे ।
इनके एक शिष्य अर्जुनसुत सोयराने शक संवत् १६५३ में 'कैलास-कुप्पाय' की रचमा की है, जिसमें इन्हें 'वादिविजेता' और सूर्य के समान 'तेजस्वी' कहा गया है।
तस पट्टे सुखकारनाम भट्टारक जानो ।
नरेन्द्रसेन पट्टधार तेजे मार्तण्ड बरखानो।
जीतो बाद पवित्र नगर चम्पापुर माहे।
करियो जिनप्रासाद ध्वजा गगने जइ सोहे ॥२६॥
प्रमाणप्रमेयकलिका इन्हीं छत्रसेनके शिष्य नरेन्द्रसेनकी है।
'यशोधरचरित' और 'नरेन्द्रसेनगुरुपूजा' में अंकित इनकी गुरुपरम्परामें सोमसेन, जिनसेन, समन्तभद्र, छत्रसेन और नरेन्द्रसेनके नाम आते हैं । काष्टा संघ-मन्दिर, अंजनगाँवकी विरुदावलीमें विस्तृत मुरुपरम्परा मिलती है ___ "निखिलतार्किकशिरोमणि-श्रोसोमसेन-माणिक्यसेन-गुणभद्र-अभिनवसोमसेन भट्टारकाणाम् तत्पट्टे निखिलजनरंजनगुणात्मश्चिद्यानिधिश्रीजिनसेनभट्टारका णाम् । तदन्वये श्रीसमन्तभद्र भट्टारकाणाम् तदशे श्रीछत्रसेनभट्टारकाणाम् तत्पट्टे नीमन्नरेन्द्रसेन भट्टारकाणाम् स्वस्ति श्रीमद्भायराजगुरुत्रीमदभनव
१. नरेन्द्रसेन गुरुपूजा, उद्धत म सम्प्रदाय, पृ० २०, लेखांक ६६ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ६१ ।
शान्तिसेनतपोराज्याभ्युदयसमृद्धयर्थम्"। __ इस विरुदावली में सोमसनसे पूर्व गुणभद्र, वीरसेन, श्रुतवीर, माणिक्यसेन, गुणसेन, लक्ष्मीसेम, सौमसेन (प्रथम), माणिक्यसेन (द्वितीय), गुणभद्र (द्वितीय)के नाम आये हैं और उक्त सोमसेनको अभिनव सोमसेन कहा गया है । नरेन्द्रसेन के बाद उनके पट्टपर बैठनेवाले शान्तिसेनका भी निर्देश आया है। अतएव इस विरुदावलिसे भी नरेन्द्रसेनके गुरु छत्रसेन और दादागुरु समन्तभद्र सिद्ध होते हैं। __नरेन्द्रसेनके दो शिष्योंके नाम भी मिलते हैं-१. शान्तिसेन २. अर्जुन सुत्त सोयरा । शान्तिसेन नरेन्द्रसेनके पट्टाधिकारी हुए ! अर्जुनसुत सोयस गृहस्थ थे, इन्होंने कैलाश छपयकी रचना की है।
नरेन्द्रसेनके समय और व्यक्तित्वपर विचार करते हुए डॉ प्रो० दरबारी लाल कोठियाने लिखा है __ 'नरेन्द्रसेनका समय प्रायः सुनिश्चित है। इन्होंने विक्रम संवत् १७८७ में ज्ञानयन्त्रकी प्रतिष्ठा करवायी थी और विक्रम संवत् १५५. में पुष्पदन्तके 'जस हररिल'को प्रतिलिपि स्वयं की थी। अत: इनका समय वि० सं० १७८७ १७९० (ई० सन् १७३०---१७३३ ई०) है।
नरेन्द्रसेनकी प्रमाणप्रमेयकालका न्यायविषयक रचना है। इसमें प्रमाणतस्व परीक्षा और प्रमेयतत्त्वपरीक्षा निबद्ध की गयी हैं। प्रमाण और प्रमेयका विस्तार पूर्वक विचार किया गया है। मङ्गलाचरणके पश्चात् तत्त्व क्या है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है-'यतस्तत्त्वपरिज्ञानाभावान्न सदाश्रिता मीमांसा प्रमाणकोटिकुटी रकमवाट्यते । आधारपरिजाने आधेयपरिज्ञानाभावात् । अथ भवतु नाम नामत: सिद्ध किचित्तत्वम्, यतस्तत्त्वं सामान्येनाभ्युपगम्य पश्चाद्वि चायते, तत्त्वसामान्य केषांचिद्विप्रतिपत्त्यभावात् ।'
इस उत्थानिकाके पश्चात् इस प्रकरण में प्रभाकरके 'ज्ञातव्यापार', सांख्ययो गके 'इन्द्रियवृत्ति', जरनैयार्षिक भट्ट जयन्तके 'सामग्री' अपरनाम कारकसाकल्य और योगोंके 'सन्निकर्ष' प्रमाणलक्षणोंकी परीक्षा कर स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाणका निर्दोष लक्षण सिद्ध किया है। ज्ञानके कारणोंपर विचार करते हुए इन्द्रिय और मनको ज्ञानका अनिवार्य कारण बतलाया है। ज्ञानोत्पत्तिमें कारण
१. भट्टारक परम्परा, सोलापुर, लेखांक ७६ ।
२, प्रमाण-प्रयकलिका, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पु. ५९ !
३. प्रमाणप्रमेयकलिका, पृ. १ ।
माने जानेवाले अर्थ एवं आलोककी सोपपत्तिक समीक्षा की है। प्रमाणका फल और उसका प्रमाणसे कञ्चित् भिन्नभिन्नत्व सिद्ध किया गया है। बौद्धके अविसंवादी ज्ञानको समालोचना कर उसे व्यवसायात्मक स्वीकार किया है। ज्ञानके अस्वसंवेदी स्वसंवेदी मतोंपर भी विचार किया है।
प्रमेयतत्त्वमें सांख्योंते सयान्यका, बोडके विशेषगनमा नैशेसिकाने परस्पर निरपेक्ष सामान्यविशेषोभयका और बेदान्तियोंके परमब्रह्मका विस्तारपूर्वक परीक्षण किया है । बौद्धोंके निर्विकल्पक प्रत्यक्षकी भी आलोचना की है । प्रमेय को सामान्य-विशेषात्मक सिद्ध किया गया है। यह लघुकाय ग्रन्थ प्रमाण और प्रमेष सम्बन्धी विषयोंकी दृष्टिसे विशेष उपादेय है।
गुरु | आचार्य श्री छ्त्रसेन |
शिष्य | आचार्य श्री नरेन्द्रसेन |
शिष्य | आचार्य श्री शान्तिसेन |
शिष्य | आचार्य श्री अर्जुन सुत्त सोयरा |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#NarendrasenPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री नरेंद्रसेन (प्रचीन)
आचार्य श्री छत्रसेन Aacharya Shri Chhatrasen
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 08-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 08-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
नरेन्द्रसेन नामके कई आचार्य हुए हैं, पर हमें 'प्रमाणप्रमेयकलिका' के रच यिता नरेन्द्रसेनका व्यक्तित्व और कृतित्व उपस्थित्त करना अभीष्ट है। एक नरेन्द्रसेनका उल्लेख कादिराजने अपने न्यायविनिश्चयकी अन्तिम प्रशस्तिमें किया है । वादिराजने इनकी गणना विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, पूज्यपाद, दयापाल, सन्मतिसागर, कनकसेन, अकलंक और स्वामी समन्तभद्रकी श्रेणी में की है। वादिराजका समय ई० सन् १०२५ है, अतः नरेन्द्रसेन इनके पूर्ववर्ती हैं।
दुसरे नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनकी गुणस्तुति मल्लिषेण सूरिने नागकुमार चरित की अन्तिम प्रशस्तिमें की है।
तस्यानुजश्चारुचरित्रवृत्तिः प्रख्यातकीतिभुवि पुण्यमूर्तिः ।
नरेन्द्रसेनो जितवादिसेनो विज्ञाततत्वो जिसकामसूत्रः ।।
मल्लिषेणने इन नरेन्द्रसेनको जिनसेनका अनुज बतलाया है और उन्हें उज्ज्वल चरित्रका धारक, प्रख्यातकीर्ति, पुण्यमूर्ति, वादिविजेता, तत्त्वज्ञ एवं कामविजयोके रूपमें वर्णित किया है। वादिराज और मल्लिषेण दोनों सम कालीन हैं । अतएव दोनोंके द्वारा उरिलखित नरेन्द्रसेन एक ही व्यक्ति हो सकते हैं।
१. अनेकान्त, पृ० १९७ से उद्धत ।
२. प्रशस्तिसंग्रह, वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, पृ०६१ ।
तृतीय नरेन्द्रसेन "सिद्धान्तसारसंग्रह' और 'प्रतिष्ठादीपक के रचयिता हैं। प्रशस्तियों में उनकी उपाधि पण्डिताचार्य प्राप्त होती है। ये नरेन्द्रसेन अपनेको वीरसेनका प्रशिष्य और गुणसेनका शिष्य बतलाते हैं। इनके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है।
चौधे नरेन्द्रसेन काष्ठासंघके लाडबागडगच्छकी पट्टावलीमें उल्लिखित हैं। इन्होंने अल्पविद्याजन्य गर्वसे युक्त आशाधरको सूविरुद्ध प्ररूपणा करने के कारण अपने गच्छसे निकाल दिया था। ये नरेन्द्रसेन पासेनके शिष्य थे । पट्टा बलीमें गुरु-शिष्योंकी लम्बी परम्परा दी गयी है । इसमें त्रिषष्टिपुराणपुरुषचरित कर्ता महेन्द्रसेन, चतुर्दशतीर्थकर परिक्षार्ता अनन् कीरि, रतपस्वी विजेता विजयसेन, लाइबागडगच्छके जन्मदासा चित्रसेन, पासेन और नरेन्द्रसेनके नाम आये हैं। पट्टावलीसे यह भी अवगत होता है कि पग्रसेनशिष्य नरेन्द्रसेन प्रभावशाली विद्वान थे। इनके द्वारा बहिष्कृत किये गये आशाधरको श्रेणि मच्छमें जाकर आश्रय लेना पड़ा था। ५वें नरेन्द्रसेन वे हैं, जिनका उल्लेख बीतरामस्तोत्रमें उसके कर्ताक रूपमें हुवा है
श्रीजैनसूरि-बिनत-क्रमपद्मसेनं,
हेला-विनिर्दलित मोहनरेन्द्रसेनम् ।
इस स्तोत्रमें पनसेनका भी उल्लेख है। ये दोनों आचार्य स्तोत्रकर्ता द्वारा गुरुरूपसे स्मुत किये गये हैं। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तारने इस स्तोत्रका रचयिता कल्याणाकीतिको बतलाया है। स्तोत्रमें पयसेन और नरेन्द्रसेनका उल्लेख होनेसे ये चतुर्थ नरेन्द्रसे भिन्न नहीं हैं। __छठे नरेन्द्रसेन संस्कृत-रत्नत्रयपूजाके कर्ता हैं। इस पूजाके पुष्पिका वाक्यमें लिखा है
"इति श्रीलाद्धबागडीयपण्डित्ताचार्यश्रीमन्नरेन्द्रसेन-विरचिते-रत्नत्रयपूजा विधाने दर्शनपूजा समाप्ता।"
सिद्धान्तसारके कर्ता नरेन्द्रसेनकी उपाधि भी पण्डित्ताचार्य है तथा वे भी लाडयागङगच्छके आचार्य हैं। अत: बहुत सम्भव है कि ये दोनों व्यक्ति
अभिन्न हों।
१. तदन्वये श्रीमतलाटवर्मटप्रभावीपमसेनदेवानां तस्य शिष्यत्रीनरेन्द्रसेनदेवैः किंचिद विद्यागर्वत असूत्रप्ररूपणादाशाधरः स्वगच्छानिःसारितः कदामहप्रस्त' श्रेणिगछ
मशिनियत्। भट्टारक सम्प्रदाय, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, लेखांक ३२
२. अनेकान्त वर्ष ८, किरण-६-७, पृ० २३३ ।
३ भट्टारक सम्प्रदाय, पृ०२५३, लेखांक ६३३ ।
७- नरेन्द्रसेन सेनगण पुष्करगच्छकी गुरुपरम्परामें छत्रसेनके पदाधि कारी हुए हैं। इन्होंने शक संवत् १६५२ में कमलेश्वर ( नागपुर ) के एक जिन मन्दिरमें ज्ञानयंत्रकी प्रतिष्ठा करायी थी ।
श्रीमज्जैनमते पुरन्दरनुते श्रीमूलसंधे बरे
श्रीशूरस्थगणे प्रतापसहिते सदभूपवृन्दस्तुते ।
गच्छे पुष्करनामके समभवत् श्रीसोमसेनो गुरु:
तत्पट्टे जिनसेनसन्मतिरभूत धर्मामृतादेशकः ||१||
तज्जोऽभूद्धि समन्तभद्रगुणवत्त शास्त्रार्थपारंगतः
तत्पट्टोदयतर्कशास्त्रकुशलो ध्यानप्रमोदान्चित्तः ।
मद्विद्यामृतवर्षणकजलद: श्रीछत्रसेनो गुरुः
तत्पट्ट हि नरेन्द्रसेनचरणौ संपूजयेऽहं मुदा ॥२॥
इस उद्धरणसे स्पष्ट है कि इसमें छत्रसेनको 'तर्कशास्त्रकुशल' और दादागुरु समन्तभद्रको 'शास्त्रार्थपारंगतः' कहा गया है। अतएव छत्रसेनके शिष्य नरेन्द्र सेम तर्कशास्त्री विद्वान् थे ।
इनके एक शिष्य अर्जुनसुत सोयराने शक संवत् १६५३ में 'कैलास-कुप्पाय' की रचमा की है, जिसमें इन्हें 'वादिविजेता' और सूर्य के समान 'तेजस्वी' कहा गया है।
तस पट्टे सुखकारनाम भट्टारक जानो ।
नरेन्द्रसेन पट्टधार तेजे मार्तण्ड बरखानो।
जीतो बाद पवित्र नगर चम्पापुर माहे।
करियो जिनप्रासाद ध्वजा गगने जइ सोहे ॥२६॥
प्रमाणप्रमेयकलिका इन्हीं छत्रसेनके शिष्य नरेन्द्रसेनकी है।
'यशोधरचरित' और 'नरेन्द्रसेनगुरुपूजा' में अंकित इनकी गुरुपरम्परामें सोमसेन, जिनसेन, समन्तभद्र, छत्रसेन और नरेन्द्रसेनके नाम आते हैं । काष्टा संघ-मन्दिर, अंजनगाँवकी विरुदावलीमें विस्तृत मुरुपरम्परा मिलती है ___ "निखिलतार्किकशिरोमणि-श्रोसोमसेन-माणिक्यसेन-गुणभद्र-अभिनवसोमसेन भट्टारकाणाम् तत्पट्टे निखिलजनरंजनगुणात्मश्चिद्यानिधिश्रीजिनसेनभट्टारका णाम् । तदन्वये श्रीसमन्तभद्र भट्टारकाणाम् तदशे श्रीछत्रसेनभट्टारकाणाम् तत्पट्टे नीमन्नरेन्द्रसेन भट्टारकाणाम् स्वस्ति श्रीमद्भायराजगुरुत्रीमदभनव
१. नरेन्द्रसेन गुरुपूजा, उद्धत म सम्प्रदाय, पृ० २०, लेखांक ६६ ।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सोलापुर, लेखांक ६१ ।
शान्तिसेनतपोराज्याभ्युदयसमृद्धयर्थम्"। __ इस विरुदावली में सोमसनसे पूर्व गुणभद्र, वीरसेन, श्रुतवीर, माणिक्यसेन, गुणसेन, लक्ष्मीसेम, सौमसेन (प्रथम), माणिक्यसेन (द्वितीय), गुणभद्र (द्वितीय)के नाम आये हैं और उक्त सोमसेनको अभिनव सोमसेन कहा गया है । नरेन्द्रसेन के बाद उनके पट्टपर बैठनेवाले शान्तिसेनका भी निर्देश आया है। अतएव इस विरुदावलिसे भी नरेन्द्रसेनके गुरु छत्रसेन और दादागुरु समन्तभद्र सिद्ध होते हैं। __नरेन्द्रसेनके दो शिष्योंके नाम भी मिलते हैं-१. शान्तिसेन २. अर्जुन सुत्त सोयरा । शान्तिसेन नरेन्द्रसेनके पट्टाधिकारी हुए ! अर्जुनसुत सोयस गृहस्थ थे, इन्होंने कैलाश छपयकी रचना की है।
नरेन्द्रसेनके समय और व्यक्तित्वपर विचार करते हुए डॉ प्रो० दरबारी लाल कोठियाने लिखा है __ 'नरेन्द्रसेनका समय प्रायः सुनिश्चित है। इन्होंने विक्रम संवत् १७८७ में ज्ञानयन्त्रकी प्रतिष्ठा करवायी थी और विक्रम संवत् १५५. में पुष्पदन्तके 'जस हररिल'को प्रतिलिपि स्वयं की थी। अत: इनका समय वि० सं० १७८७ १७९० (ई० सन् १७३०---१७३३ ई०) है।
नरेन्द्रसेनकी प्रमाणप्रमेयकालका न्यायविषयक रचना है। इसमें प्रमाणतस्व परीक्षा और प्रमेयतत्त्वपरीक्षा निबद्ध की गयी हैं। प्रमाण और प्रमेयका विस्तार पूर्वक विचार किया गया है। मङ्गलाचरणके पश्चात् तत्त्व क्या है, इस प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है-'यतस्तत्त्वपरिज्ञानाभावान्न सदाश्रिता मीमांसा प्रमाणकोटिकुटी रकमवाट्यते । आधारपरिजाने आधेयपरिज्ञानाभावात् । अथ भवतु नाम नामत: सिद्ध किचित्तत्वम्, यतस्तत्त्वं सामान्येनाभ्युपगम्य पश्चाद्वि चायते, तत्त्वसामान्य केषांचिद्विप्रतिपत्त्यभावात् ।'
इस उत्थानिकाके पश्चात् इस प्रकरण में प्रभाकरके 'ज्ञातव्यापार', सांख्ययो गके 'इन्द्रियवृत्ति', जरनैयार्षिक भट्ट जयन्तके 'सामग्री' अपरनाम कारकसाकल्य और योगोंके 'सन्निकर्ष' प्रमाणलक्षणोंकी परीक्षा कर स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाणका निर्दोष लक्षण सिद्ध किया है। ज्ञानके कारणोंपर विचार करते हुए इन्द्रिय और मनको ज्ञानका अनिवार्य कारण बतलाया है। ज्ञानोत्पत्तिमें कारण
१. भट्टारक परम्परा, सोलापुर, लेखांक ७६ ।
२, प्रमाण-प्रयकलिका, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रस्तावना, पु. ५९ !
३. प्रमाणप्रमेयकलिका, पृ. १ ।
माने जानेवाले अर्थ एवं आलोककी सोपपत्तिक समीक्षा की है। प्रमाणका फल और उसका प्रमाणसे कञ्चित् भिन्नभिन्नत्व सिद्ध किया गया है। बौद्धके अविसंवादी ज्ञानको समालोचना कर उसे व्यवसायात्मक स्वीकार किया है। ज्ञानके अस्वसंवेदी स्वसंवेदी मतोंपर भी विचार किया है।
प्रमेयतत्त्वमें सांख्योंते सयान्यका, बोडके विशेषगनमा नैशेसिकाने परस्पर निरपेक्ष सामान्यविशेषोभयका और बेदान्तियोंके परमब्रह्मका विस्तारपूर्वक परीक्षण किया है । बौद्धोंके निर्विकल्पक प्रत्यक्षकी भी आलोचना की है । प्रमेय को सामान्य-विशेषात्मक सिद्ध किया गया है। यह लघुकाय ग्रन्थ प्रमाण और प्रमेष सम्बन्धी विषयोंकी दृष्टिसे विशेष उपादेय है।
गुरु | आचार्य श्री छ्त्रसेन |
शिष्य | आचार्य श्री नरेन्द्रसेन |
शिष्य | आचार्य श्री शान्तिसेन |
शिष्य | आचार्य श्री अर्जुन सुत्त सोयरा |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Narendrasen (Prachin)
आचार्य श्री छत्रसेन Aacharya Shri Chhatrasen
आचार्य श्री छत्रसेन Aacharya Shri Chhatrasen
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 08-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#NarendrasenPrachin
15000
#NarendrasenPrachin
NarendrasenPrachin
You cannot copy content of this page