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#Naysen12ThCentury
धर्मामलके रचयिता भाचार्य नयसनका जन्मस्थान धारवाड़ जिलेका मूल मुन्दा नामक तीर्थस्थान है। उत्तरवर्ती कवियोंने उन्हें 'सूचिनिकरपिकमाकन्द' 'सुकविज नमनःसरोजराजहंस', 'वात्सल्यरत्नाकर' आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है । नयोन के गरुका नाम नरेन्द्रसेन था। नरेन्द्रसेन मुनि उच्चकोटिके तपस्वी और द्वादशांग शास्त्रके पारगामी थे। नयसेनने इन्हें सिद्धान्तशास्त्रमें जिनसेनाचार्यके समान व्याकरण और आध्यात्मिक शास्त्रके पाण्डित्यमें पूज्यपाद के समान एवं तर्कशास्त्र में सुप्रसिद्ध दार्शनिक समन्तभद्राचार्य के समान बतलाया हैं । इन्हें 'विद्यचक्रवर्ती' भी कहा है।
नयसेनाचार्य, संस्कृत, तमिल और कन्नड़के धुरन्धर विद्वान थे । इन्होंने धर्मामतके अतिरिक्त कन्नड़का एक ब्याकरण भी रचा है । धर्मामुलके अध्ययन से अवगत होता है कि अन्यरचनाके समय ये मुनि अवस्था में थे । इन्होंने अपनेको 'तकंवागीश' कहा है तथा अपनेको चालुक्यवंशके भुवनैक्रमल्ल (शक संवत् १०६२.-१०७६) द्वारा बन्दनीय कहा है। यह राजा इनकी सेवामें सदा तत्पर रहता था । नयसेनाचार्य अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं ।
धर्मामृतमें सन्थरचनाका समय दिया हुआ है। इससे इनका समय ई० सन्की १२वीं शतीका पूर्वार्ध सिद्ध होता है । धर्मामृतमें बताया है
गिरिशिखिवायुमार्गसंख्ययोः लावगमिन्दीवत्तिषस्तिरे ।
षटकालमुन्नतिय नन्दवत्सरोमुबुत्सवं विबशशिरद,
भाद्रपदमासलमद शुक्लपक्षदल निस्यभप्यहस्तयुतावारदोल।
अर्थात् शक संवत् १०३७ भाद्रपद शुक्लपक्ष में रविवारके दिन हस्त नक्षत्रके रहने पर इस ग्रन्थका निर्माण हुआ। इस शक संवत्में ७८ जोड़ने पर ११२५ ई. सन् आता है । किन्तु नन्दसंवत्सर ई० सन् १९२१में आता है तथा हस्ताक भी भाद्रपद शुक्ल पक्षमें इसी संवत्में पड़ता है । अतः इनका समय ११२१ ई. मानना पड़ता है।
यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि गिरिशब्दका प्रसिद्ध अर्थ सात त्याग कर चार क्यों ग्रहण किया गया है ? जैन परम्परामें गिरिशब्दका अर्थ चार ग्रहण किया गया प्रतीत होता है। यही कारण है कि ग्रन्थकर्ताने भी चारके अर्थ में गिरिशब्दका प्रयोग किया हो।
नयसेनके दो ग्रन्थोंका निर्देश उपलब्ध होता है । धर्मामृत और कन्नड व्याकरण | धर्मामतमें १४ रोचक कथाएं हैं। इन कथाओं द्वारा धर्मतत्वोंका उपदेश दिया गया है । पहली कथा वसुभूति और दयामित्र सठकी है। इस कथा में सम्यक्त्वकी महिमा बतलायी गयी है । वसुभूति ब्राह्मणने घनके लोभसे कृत्रिम जिनदीक्षा ली। उसे मुनिदीक्षामें नाना प्रकारके कष्टोंका अनुभव हुआ। परन्तु प्रलोभनों के कारण आठ दिन तक मुनि बना रहा। इसी बीच घटनाचक्रके बदल जाने से लुटेरों द्वारा वमुभूति घायल हो गया । दयामित्रने उसे आत्मधर्मका उपदेश दिया । फलत: वसुभूतिको सम्यक्दर्शन उत्पन्न हो गया । सांसारिक पदार्थोंसे उसका मोह हट गया और उसे जैनधर्मकी सत्यतापर विश्वास हो गया | मत्यके पश्चात् वसुभूतिने स्वर्गलाभ किया। कथामें सम्यक्दर्शन और श्रावकधर्मका पर्याप्त उपदेश आया है।
दुसरी कथा निशंकित अंगकी महत्ता बताने वाली ललितांमदेवको है । इस कथासे स्पष्ट है कि पापी-से-पापी मनुष्यका भी जैनधर्म द्वारा सुधार हो सकता है ! इस धर्मके सिद्धान्तोंका पालन ऐश्वर्य और विभूतिको ही नहीं देता, अपितु आत्मकल्याणका कारण होता है। अहंन्त भगवानकी भक्ति कल्पवृक्षतुल्य है। जो व्यक्ति बीतरागी प्रभुकी शरणमें पहुंच जाता है, उनके आदर्श द्वारा अपनी आत्माको उन जैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है, वह व्यक्ति निश्चय ही उन जैसा भगवान् बन जाता है। जैनदर्शनमें व्यक्तिको हीन या निःशक्ति नहीं
माना गया है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा है। विकारोंके दूर करनेसे आत्मा परमात्मा बन जाती है | ललितांगदेव बड़ा उपद्रवी और अधर्मात्मा था, पर निकित होकर आत्मधर्मका पालन करनेसे वह महान बन गया।
तीसरी कथा नि:कांक्षित अंगकी महत्ता प्रकट करनेवाली अनन्तमतीकी है। अनन्तमतीके ऊपर कितने संकट आये, विपत्तियोंके पहाड़ गिरे, पर वह अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं हुई। उसने धमकी आराधना किसी फल प्रासिकी आकांक्षासे नहीं की। प्रत्युत घर्म आत्माका स्वरूप है, अतएव धर्ममें स्थित रहना ही मानवता है, ऐसा निश्चय कर वह अपने धर्ममें सदा दृढ़ रही। अनन्तमतीको कथा उसके चरित्रपर पूरा प्रकाश डालती है।
चौथी कथामें निविचिकित्सा अंगका समुचित पालन करनेसे क्या फल प्राप्त होता है तथा सेवाकार्य प्रत्येक व्यक्तिके जीवनको कितना उन्नत बनाता है, इसका वर्णन किया गया है । जो व्यक्ति घृणा, द्वेष, मात्सर्य आदि दुर्भावों का परित्याग कर सेवामार्गमें लग जाते हैं, वे अपना कल्याण अवश्य कर लेते हैं। राजा उद्दायन ऐसा ही धर्मात्मा व्यक्ति था। दान देना, सेवा करना, मानवमात्रकी सहायता करना, राजा उहायनका जीवनवत था। उसकी आत्मा अत्यन्त निर्मल और प्रलोभनोंसे अछूती थी।
पांचवीं कथामें बमबदष्टि अंगकी महत्ता बतलायी गयी है। सच्चा विश्वास कितना फलदायक होता है, यह रेवती रानीकी दवतासे स्पष्ट है। यों तो रेवती रानीको कथा अन्य ग्रन्थों में भी आयी है, पर इस ग्रन्थमें श्रावधमके वर्णनके साय विशेषरूपसे प्रतिपादित की गरी है ।सान और चारित्र सम्यक्त्वके बिना झुठे हैं | बड़े-बड़े शानी भी सम्यक्त्वके अभावमें नरक-निगोदके पात्र बनते हैं। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य बाह्याडम्बरोंको जीवन में सरलतासे स्थान दे देता है। धर्म और आत्माधरणके नामपर आडम्बर एवं गुरुहम जीवनको खोखला बनाकर नष्ट कर देते हैं । इस कथामें मालम्बरों और गरुडमोंको जीवनसे पृथक कर जीवनको सात्विक बनानेपर जोर दिया है। प्रत्येक विचारक व्यक्ति आत्माका शोधन करनेके लिए प्रलोभनोंका त्याग करना चाहता है, पर मोहवश वह वैसा नहीं कर पाता है। मुनि या नावक दोनोंको ही प्रलो भनोंका त्याग करना पड़ता है। अहंकार और ममकार बात्माके शत्र हैं, जो इनके अधीन रहता है, वह निश्चयत: आत्मधर्मसे च्युत है । दीक्षा लेना आसान है, भावुकतामें आकर कोई भी व्यक्ति दीक्षा ले सकता है, पर उसका यथार्थ निर्वाह सब किसीसे नहीं हो सकता है। इस कथामें बमव्यसेनमुनिका जीवन
चित्रित हुवा है।
छठी कथा उपगहन अङ्गकी विशेषता प्रकट करनेवाली है। इस अङ्गका पालन जिनेन्द्रदत्त सेठने किया था। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी गलतियों और अटियोंको न देखकर दूसरों की गलतियों और त्रुटियोंको देखता है। परिणाम यह निकलता है कि हम दूसरोंको गलतियाँ ही देखते रह जाते हैं, अपना सुधार नहीं कर पाते । उपगृहन अंगको कथा बतलाती है कि दूसरोंके दोषोंका आच्छादन कर उन्हें मार्गपर लाया जाये। घृणा हमें पापसे करना चाहिये, पापीसे नहीं।
सातवीं कथा स्थितिकरण अंगके पालन करनेवाले वारिषेणकुमारकी है। इस कथासे स्पष्ट है कि सच्चा मित्र किस प्रकार अपने मित्रका कल्याण कर सकता है। मित्रका कार्य केवल मनोरंजन करना ही नहीं, प्रत्युत मित्रका सुधार करना है । वारिषेणकुमारने अपने मित्र पुष्पडालका कितना उपकार किया । दीक्षासे विचलित होते हुए मित्रको आरमकल्याणमें स्थिर किया। पुष्पडाल १२ वर्षो सक मुनि बने रहने पर भी अपनी भार्याक मोहमें आसक्त रहा । आत्मध्यानके स्थानपर उसके रूपलावषयका ही चिन्तन करता रहता था | कथा बड़ी ही
रोचक है, बीच-बीचमें दिया गया धर्मोपदेश जन्म-जरारूपी मलेरियाको दूर करने के लिए चीनी लपेटी कुनेनकी गोली है।
आठवीं कथा वात्सल्य अंगके धारी विष्णुकुमारको हैं । इस कथामे बताया गया है कि साधर्मी भाईसे वात्सल्यभाव रखना, संकटमें सहायता पहुँचाना और उसके साथ हर तरहका सहयोग रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जो स्वार्थवश अपना ही लाभ सोचते हैं, अन्य व्यक्तियोंके लाभालाभका विचार नहीं करते, वे मानब नहीं दानव हैं। मानवशब्द ही इस बातका घोतक है कि विवेकशील बनकर प्रेमभावसे रहना तथा परोपकारमें सदा प्रवृत्ति करना धर्मद्वेष व्यक्तिको कितना नीचा मिग देता है, यह गजा बलिके आचरणसे स्पष्ट है । सहनशीलता जीवनके विकास के लिए एक आवश्यक और उपयोगी गुण है । जो व्यक्ति छोटी-सी बातको लेकर मष्ट हो जाता है और बदला लेने की भावनाको मनमें बैठा लेता है, वह व्यक्ति नीच प्रकृतिका है। विष्णुकुमारमुनिने बात्सल्यसे प्रेरित होकर मुनिसंघकी रक्षा को ।
नवी कथामें प्रभावना अंगकी महत्ता बसलायी गयी है। इस अंगका पालन बच्नकुमारमुनिने किया है। प्रचलित कयाकी अपेक्षा इसमें अनेक अवान्तर कथाएँ बायोजित की गयी हैं। अवान्तर कथाओंके रहने से कथा रोचक बन गयी है। धर्ममार्गका उद्योतन करनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको सदा तैयार रहना चाहिये। धर्म वह रसायन है, जिसका सेवन कर कोई भी व्यक्ति संसार
सागरसे पार करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। वजकुमार मुनिने धर्मप्रचार के लिए संकट सहकर भी ओहिली देवीके जैन रथको चलाया । अतएव प्रत्येक व्यक्तिको धर्मात्माओंकी सेवा करना, धर्ममार्गका उपदेश देना, दुःखी और दीन प्राणियोंको घर्मका सच्चा स्वरूप समझाकर अच्छे मार्गपर लगाना चाहिये ।
दसवी कथा अहिंसा धर्मकी विशेषता प्रकट करने वाली है। समाज और व्यक्तिको अहिंसाके द्वारा ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। राग, द्वेष और मोहके अधीन होकर ही व्यमित हिंसामें प्रवृत्त होता है। सेठ गुणपालकी कथा विधर्मीको कन्या देनेका विरोध करती है। दशवी कथा द्वारा धनकीर्ति कुमार अल्पहिसाके त्यागसे ही महान बन गया, की सिद्धि की गयी है । ____ ग्यारहवीं कथा सत्याणुव्रत की महत्ता बतलाने के लिए लिखी गयी है। जीवनमें अहिंसा धर्मको उतारने के लिए सत्यका पालन करना परमावश्यक है। निंद्य वचन, कठोर वचन और किसीके दिलको दुखानेवाले बचन असत्य वचनके अन्तर्गत है। असल्य भाषण करनेसे संघनीकी क्या दुर्गति हुई, यह इस कथासे स्पष्ट है । धनद राजाने बौद्धधर्मानुयायी संघश्रीको जैनधर्ममें दीक्षित कर भी लिया। किन्त अपने मान बहकाने में आकर संघश्री असत्य भाषण कर पुन: बौद्ध हो गया । असत्य भाषण के कारण संघश्रीको अन्या बनना पड़ा। जो व्यक्ति जीवनमें सत्यव्रतका पालन करते हैं, उनका आत्मकल्याण होने में विलम्ब नहीं होता।
बारहवीं कथा तो इतनी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है कि पाठक सत्यको प्राप्त करने के लिए उत्सुक हुए बिना नहीं रह सकता है । जीवनसत्य, जो कि कठिन आवरण में छिपा रहता है, इस कथा द्वारा प्रकाशमें आ जाता है । गलत फहमी के कारण स्वार्थवश मनुष्य कितना नीच हो सकता है, धर्मात्माओंपर कितने अत्याचार कर सकता है, यह इस कथामें वणित जिनदत्त सेटके आचरण से स्पष्ट है । धनका मोह मनुष्यको कितना जघन्य कृत्य करनेके लिए प्रेरित करता है, यह भी इस कथा में आया है। अवान्तर कथाएँ भी बड़ी ही रोचक और आत्मशोधक है।
तेरहवीं कथा शीलवतकी महत्ता बतलाने के लिए लिखी गयी है | इस असमें अपूर्व शक्ति है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी आत्मशक्षिका विकास करता है। राग-द्वेषरूप विभावरिणति ब्रह्मचर्यव्रतके पालन करनेसे दूर हो जाती है । इस कथामें प्रभातिकुमार और चन्द्रलेखाका अद्भुत चरित्र चित्रित हुआ है।
चौहदवी कथा में परिग्रहके दोषोंका विवेचन करते हुए अपरिग्रह की विशे पता बतलायो गयो है। तृष्णा और लालसा व्यक्तिको कितना बेचैन रखती है, यह इस कथासे स्पष्ट है। विषयासक्ति को लेकर मरण करनेसे व्यक्ति लियंञ्च आदि योनियों में भ्रमण करता है । इस बाथामें बताया गया है कि राजा अनुपरिचरने मृत्युके समय परिग्रहमें आसक्ति रखनेके कारण सर्प योनिमें जन्म ग्रहण किया। अनन्तवीर्य महाराज द्वारा सम्बोधन प्राप्त होनेपर अपने शत्रसे बदला लेने की भावनाके कारण वह भवनवासी देव हुधा । गश्चात् बहाँसे च्युत होकर इसी गाजाका जीन हस्तिनापुरके राजा जयदत्तके यहाँ गुरुदत्त नामका पुत्र हुआ और समय पाकर समस्त परिग्रहका त्याग कर आत्मकल्याण किया। आचार्य ने परिग्रहको समस्त पापोंका खजाना बताया है | इस एक पापः कारण असंख्यात पाय करने पड़ते हैं।
इस प्रकार इस ग्रन्थमें कथाओंके माध्यमसे धर्मके महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रति पादित किये गये हैं। श्रावकाचारको प्राय: सभी बातें इस ग्रंथमें बतायी गयी हैं । सप्ततत्त्व, षद्रव्य, पंचास्तिकाय, अष्टांग सम्यक्दर्शन, कमसिद्धान्त, सप्त व्यसनत्याग, अष्टमूलगुण, द्वादशउत्तरगुण, सल्लेखना आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है | विषय प्रतिपादन करने की विधि अत्यन्त सरल और सरस है। कथात्मक शैली में धर्मसिद्धान्तोंका निरूपण किया गया है।
गुरु | आचार्य श्री नरेन्द्रसेन |
शिष्य | आचार्य श्री नयसेन |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Naysen12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री नयसेन 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 13-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 13-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
धर्मामलके रचयिता भाचार्य नयसनका जन्मस्थान धारवाड़ जिलेका मूल मुन्दा नामक तीर्थस्थान है। उत्तरवर्ती कवियोंने उन्हें 'सूचिनिकरपिकमाकन्द' 'सुकविज नमनःसरोजराजहंस', 'वात्सल्यरत्नाकर' आदि विशेषणोंसे विभूषित किया है । नयोन के गरुका नाम नरेन्द्रसेन था। नरेन्द्रसेन मुनि उच्चकोटिके तपस्वी और द्वादशांग शास्त्रके पारगामी थे। नयसेनने इन्हें सिद्धान्तशास्त्रमें जिनसेनाचार्यके समान व्याकरण और आध्यात्मिक शास्त्रके पाण्डित्यमें पूज्यपाद के समान एवं तर्कशास्त्र में सुप्रसिद्ध दार्शनिक समन्तभद्राचार्य के समान बतलाया हैं । इन्हें 'विद्यचक्रवर्ती' भी कहा है।
नयसेनाचार्य, संस्कृत, तमिल और कन्नड़के धुरन्धर विद्वान थे । इन्होंने धर्मामतके अतिरिक्त कन्नड़का एक ब्याकरण भी रचा है । धर्मामुलके अध्ययन से अवगत होता है कि अन्यरचनाके समय ये मुनि अवस्था में थे । इन्होंने अपनेको 'तकंवागीश' कहा है तथा अपनेको चालुक्यवंशके भुवनैक्रमल्ल (शक संवत् १०६२.-१०७६) द्वारा बन्दनीय कहा है। यह राजा इनकी सेवामें सदा तत्पर रहता था । नयसेनाचार्य अपने समय के प्रसिद्ध आचार्य रहे हैं ।
धर्मामृतमें सन्थरचनाका समय दिया हुआ है। इससे इनका समय ई० सन्की १२वीं शतीका पूर्वार्ध सिद्ध होता है । धर्मामृतमें बताया है
गिरिशिखिवायुमार्गसंख्ययोः लावगमिन्दीवत्तिषस्तिरे ।
षटकालमुन्नतिय नन्दवत्सरोमुबुत्सवं विबशशिरद,
भाद्रपदमासलमद शुक्लपक्षदल निस्यभप्यहस्तयुतावारदोल।
अर्थात् शक संवत् १०३७ भाद्रपद शुक्लपक्ष में रविवारके दिन हस्त नक्षत्रके रहने पर इस ग्रन्थका निर्माण हुआ। इस शक संवत्में ७८ जोड़ने पर ११२५ ई. सन् आता है । किन्तु नन्दसंवत्सर ई० सन् १९२१में आता है तथा हस्ताक भी भाद्रपद शुक्ल पक्षमें इसी संवत्में पड़ता है । अतः इनका समय ११२१ ई. मानना पड़ता है।
यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि गिरिशब्दका प्रसिद्ध अर्थ सात त्याग कर चार क्यों ग्रहण किया गया है ? जैन परम्परामें गिरिशब्दका अर्थ चार ग्रहण किया गया प्रतीत होता है। यही कारण है कि ग्रन्थकर्ताने भी चारके अर्थ में गिरिशब्दका प्रयोग किया हो।
नयसेनके दो ग्रन्थोंका निर्देश उपलब्ध होता है । धर्मामृत और कन्नड व्याकरण | धर्मामतमें १४ रोचक कथाएं हैं। इन कथाओं द्वारा धर्मतत्वोंका उपदेश दिया गया है । पहली कथा वसुभूति और दयामित्र सठकी है। इस कथा में सम्यक्त्वकी महिमा बतलायी गयी है । वसुभूति ब्राह्मणने घनके लोभसे कृत्रिम जिनदीक्षा ली। उसे मुनिदीक्षामें नाना प्रकारके कष्टोंका अनुभव हुआ। परन्तु प्रलोभनों के कारण आठ दिन तक मुनि बना रहा। इसी बीच घटनाचक्रके बदल जाने से लुटेरों द्वारा वमुभूति घायल हो गया । दयामित्रने उसे आत्मधर्मका उपदेश दिया । फलत: वसुभूतिको सम्यक्दर्शन उत्पन्न हो गया । सांसारिक पदार्थोंसे उसका मोह हट गया और उसे जैनधर्मकी सत्यतापर विश्वास हो गया | मत्यके पश्चात् वसुभूतिने स्वर्गलाभ किया। कथामें सम्यक्दर्शन और श्रावकधर्मका पर्याप्त उपदेश आया है।
दुसरी कथा निशंकित अंगकी महत्ता बताने वाली ललितांमदेवको है । इस कथासे स्पष्ट है कि पापी-से-पापी मनुष्यका भी जैनधर्म द्वारा सुधार हो सकता है ! इस धर्मके सिद्धान्तोंका पालन ऐश्वर्य और विभूतिको ही नहीं देता, अपितु आत्मकल्याणका कारण होता है। अहंन्त भगवानकी भक्ति कल्पवृक्षतुल्य है। जो व्यक्ति बीतरागी प्रभुकी शरणमें पहुंच जाता है, उनके आदर्श द्वारा अपनी आत्माको उन जैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है, वह व्यक्ति निश्चय ही उन जैसा भगवान् बन जाता है। जैनदर्शनमें व्यक्तिको हीन या निःशक्ति नहीं
माना गया है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा है। विकारोंके दूर करनेसे आत्मा परमात्मा बन जाती है | ललितांगदेव बड़ा उपद्रवी और अधर्मात्मा था, पर निकित होकर आत्मधर्मका पालन करनेसे वह महान बन गया।
तीसरी कथा नि:कांक्षित अंगकी महत्ता प्रकट करनेवाली अनन्तमतीकी है। अनन्तमतीके ऊपर कितने संकट आये, विपत्तियोंके पहाड़ गिरे, पर वह अपने कर्तव्यपथसे विचलित नहीं हुई। उसने धमकी आराधना किसी फल प्रासिकी आकांक्षासे नहीं की। प्रत्युत घर्म आत्माका स्वरूप है, अतएव धर्ममें स्थित रहना ही मानवता है, ऐसा निश्चय कर वह अपने धर्ममें सदा दृढ़ रही। अनन्तमतीको कथा उसके चरित्रपर पूरा प्रकाश डालती है।
चौथी कथामें निविचिकित्सा अंगका समुचित पालन करनेसे क्या फल प्राप्त होता है तथा सेवाकार्य प्रत्येक व्यक्तिके जीवनको कितना उन्नत बनाता है, इसका वर्णन किया गया है । जो व्यक्ति घृणा, द्वेष, मात्सर्य आदि दुर्भावों का परित्याग कर सेवामार्गमें लग जाते हैं, वे अपना कल्याण अवश्य कर लेते हैं। राजा उद्दायन ऐसा ही धर्मात्मा व्यक्ति था। दान देना, सेवा करना, मानवमात्रकी सहायता करना, राजा उहायनका जीवनवत था। उसकी आत्मा अत्यन्त निर्मल और प्रलोभनोंसे अछूती थी।
पांचवीं कथामें बमबदष्टि अंगकी महत्ता बतलायी गयी है। सच्चा विश्वास कितना फलदायक होता है, यह रेवती रानीकी दवतासे स्पष्ट है। यों तो रेवती रानीको कथा अन्य ग्रन्थों में भी आयी है, पर इस ग्रन्थमें श्रावधमके वर्णनके साय विशेषरूपसे प्रतिपादित की गरी है ।सान और चारित्र सम्यक्त्वके बिना झुठे हैं | बड़े-बड़े शानी भी सम्यक्त्वके अभावमें नरक-निगोदके पात्र बनते हैं। प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य बाह्याडम्बरोंको जीवन में सरलतासे स्थान दे देता है। धर्म और आत्माधरणके नामपर आडम्बर एवं गुरुहम जीवनको खोखला बनाकर नष्ट कर देते हैं । इस कथामें मालम्बरों और गरुडमोंको जीवनसे पृथक कर जीवनको सात्विक बनानेपर जोर दिया है। प्रत्येक विचारक व्यक्ति आत्माका शोधन करनेके लिए प्रलोभनोंका त्याग करना चाहता है, पर मोहवश वह वैसा नहीं कर पाता है। मुनि या नावक दोनोंको ही प्रलो भनोंका त्याग करना पड़ता है। अहंकार और ममकार बात्माके शत्र हैं, जो इनके अधीन रहता है, वह निश्चयत: आत्मधर्मसे च्युत है । दीक्षा लेना आसान है, भावुकतामें आकर कोई भी व्यक्ति दीक्षा ले सकता है, पर उसका यथार्थ निर्वाह सब किसीसे नहीं हो सकता है। इस कथामें बमव्यसेनमुनिका जीवन
चित्रित हुवा है।
छठी कथा उपगहन अङ्गकी विशेषता प्रकट करनेवाली है। इस अङ्गका पालन जिनेन्द्रदत्त सेठने किया था। प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी गलतियों और अटियोंको न देखकर दूसरों की गलतियों और त्रुटियोंको देखता है। परिणाम यह निकलता है कि हम दूसरोंको गलतियाँ ही देखते रह जाते हैं, अपना सुधार नहीं कर पाते । उपगृहन अंगको कथा बतलाती है कि दूसरोंके दोषोंका आच्छादन कर उन्हें मार्गपर लाया जाये। घृणा हमें पापसे करना चाहिये, पापीसे नहीं।
सातवीं कथा स्थितिकरण अंगके पालन करनेवाले वारिषेणकुमारकी है। इस कथासे स्पष्ट है कि सच्चा मित्र किस प्रकार अपने मित्रका कल्याण कर सकता है। मित्रका कार्य केवल मनोरंजन करना ही नहीं, प्रत्युत मित्रका सुधार करना है । वारिषेणकुमारने अपने मित्र पुष्पडालका कितना उपकार किया । दीक्षासे विचलित होते हुए मित्रको आरमकल्याणमें स्थिर किया। पुष्पडाल १२ वर्षो सक मुनि बने रहने पर भी अपनी भार्याक मोहमें आसक्त रहा । आत्मध्यानके स्थानपर उसके रूपलावषयका ही चिन्तन करता रहता था | कथा बड़ी ही
रोचक है, बीच-बीचमें दिया गया धर्मोपदेश जन्म-जरारूपी मलेरियाको दूर करने के लिए चीनी लपेटी कुनेनकी गोली है।
आठवीं कथा वात्सल्य अंगके धारी विष्णुकुमारको हैं । इस कथामे बताया गया है कि साधर्मी भाईसे वात्सल्यभाव रखना, संकटमें सहायता पहुँचाना और उसके साथ हर तरहका सहयोग रखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जो स्वार्थवश अपना ही लाभ सोचते हैं, अन्य व्यक्तियोंके लाभालाभका विचार नहीं करते, वे मानब नहीं दानव हैं। मानवशब्द ही इस बातका घोतक है कि विवेकशील बनकर प्रेमभावसे रहना तथा परोपकारमें सदा प्रवृत्ति करना धर्मद्वेष व्यक्तिको कितना नीचा मिग देता है, यह गजा बलिके आचरणसे स्पष्ट है । सहनशीलता जीवनके विकास के लिए एक आवश्यक और उपयोगी गुण है । जो व्यक्ति छोटी-सी बातको लेकर मष्ट हो जाता है और बदला लेने की भावनाको मनमें बैठा लेता है, वह व्यक्ति नीच प्रकृतिका है। विष्णुकुमारमुनिने बात्सल्यसे प्रेरित होकर मुनिसंघकी रक्षा को ।
नवी कथामें प्रभावना अंगकी महत्ता बसलायी गयी है। इस अंगका पालन बच्नकुमारमुनिने किया है। प्रचलित कयाकी अपेक्षा इसमें अनेक अवान्तर कथाएँ बायोजित की गयी हैं। अवान्तर कथाओंके रहने से कथा रोचक बन गयी है। धर्ममार्गका उद्योतन करनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको सदा तैयार रहना चाहिये। धर्म वह रसायन है, जिसका सेवन कर कोई भी व्यक्ति संसार
सागरसे पार करनेकी शक्ति प्राप्त कर लेता है। वजकुमार मुनिने धर्मप्रचार के लिए संकट सहकर भी ओहिली देवीके जैन रथको चलाया । अतएव प्रत्येक व्यक्तिको धर्मात्माओंकी सेवा करना, धर्ममार्गका उपदेश देना, दुःखी और दीन प्राणियोंको घर्मका सच्चा स्वरूप समझाकर अच्छे मार्गपर लगाना चाहिये ।
दसवी कथा अहिंसा धर्मकी विशेषता प्रकट करने वाली है। समाज और व्यक्तिको अहिंसाके द्वारा ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। राग, द्वेष और मोहके अधीन होकर ही व्यमित हिंसामें प्रवृत्त होता है। सेठ गुणपालकी कथा विधर्मीको कन्या देनेका विरोध करती है। दशवी कथा द्वारा धनकीर्ति कुमार अल्पहिसाके त्यागसे ही महान बन गया, की सिद्धि की गयी है । ____ ग्यारहवीं कथा सत्याणुव्रत की महत्ता बतलाने के लिए लिखी गयी है। जीवनमें अहिंसा धर्मको उतारने के लिए सत्यका पालन करना परमावश्यक है। निंद्य वचन, कठोर वचन और किसीके दिलको दुखानेवाले बचन असत्य वचनके अन्तर्गत है। असल्य भाषण करनेसे संघनीकी क्या दुर्गति हुई, यह इस कथासे स्पष्ट है । धनद राजाने बौद्धधर्मानुयायी संघश्रीको जैनधर्ममें दीक्षित कर भी लिया। किन्त अपने मान बहकाने में आकर संघश्री असत्य भाषण कर पुन: बौद्ध हो गया । असत्य भाषण के कारण संघश्रीको अन्या बनना पड़ा। जो व्यक्ति जीवनमें सत्यव्रतका पालन करते हैं, उनका आत्मकल्याण होने में विलम्ब नहीं होता।
बारहवीं कथा तो इतनी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है कि पाठक सत्यको प्राप्त करने के लिए उत्सुक हुए बिना नहीं रह सकता है । जीवनसत्य, जो कि कठिन आवरण में छिपा रहता है, इस कथा द्वारा प्रकाशमें आ जाता है । गलत फहमी के कारण स्वार्थवश मनुष्य कितना नीच हो सकता है, धर्मात्माओंपर कितने अत्याचार कर सकता है, यह इस कथामें वणित जिनदत्त सेटके आचरण से स्पष्ट है । धनका मोह मनुष्यको कितना जघन्य कृत्य करनेके लिए प्रेरित करता है, यह भी इस कथा में आया है। अवान्तर कथाएँ भी बड़ी ही रोचक और आत्मशोधक है।
तेरहवीं कथा शीलवतकी महत्ता बतलाने के लिए लिखी गयी है | इस असमें अपूर्व शक्ति है। इसके द्वारा मनुष्य अपनी आत्मशक्षिका विकास करता है। राग-द्वेषरूप विभावरिणति ब्रह्मचर्यव्रतके पालन करनेसे दूर हो जाती है । इस कथामें प्रभातिकुमार और चन्द्रलेखाका अद्भुत चरित्र चित्रित हुआ है।
चौहदवी कथा में परिग्रहके दोषोंका विवेचन करते हुए अपरिग्रह की विशे पता बतलायो गयो है। तृष्णा और लालसा व्यक्तिको कितना बेचैन रखती है, यह इस कथासे स्पष्ट है। विषयासक्ति को लेकर मरण करनेसे व्यक्ति लियंञ्च आदि योनियों में भ्रमण करता है । इस बाथामें बताया गया है कि राजा अनुपरिचरने मृत्युके समय परिग्रहमें आसक्ति रखनेके कारण सर्प योनिमें जन्म ग्रहण किया। अनन्तवीर्य महाराज द्वारा सम्बोधन प्राप्त होनेपर अपने शत्रसे बदला लेने की भावनाके कारण वह भवनवासी देव हुधा । गश्चात् बहाँसे च्युत होकर इसी गाजाका जीन हस्तिनापुरके राजा जयदत्तके यहाँ गुरुदत्त नामका पुत्र हुआ और समय पाकर समस्त परिग्रहका त्याग कर आत्मकल्याण किया। आचार्य ने परिग्रहको समस्त पापोंका खजाना बताया है | इस एक पापः कारण असंख्यात पाय करने पड़ते हैं।
इस प्रकार इस ग्रन्थमें कथाओंके माध्यमसे धर्मके महत्वपूर्ण सिद्धान्त प्रति पादित किये गये हैं। श्रावकाचारको प्राय: सभी बातें इस ग्रंथमें बतायी गयी हैं । सप्ततत्त्व, षद्रव्य, पंचास्तिकाय, अष्टांग सम्यक्दर्शन, कमसिद्धान्त, सप्त व्यसनत्याग, अष्टमूलगुण, द्वादशउत्तरगुण, सल्लेखना आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है | विषय प्रतिपादन करने की विधि अत्यन्त सरल और सरस है। कथात्मक शैली में धर्मसिद्धान्तोंका निरूपण किया गया है।
गुरु | आचार्य श्री नरेन्द्रसेन |
शिष्य | आचार्य श्री नयसेन |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Naysen 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 13-May- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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