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#Padmanandi2ndPrachin
दर्शनं निश्चयः पुस बोधस्तद्बोध इष्यते ।
स्थितिर त्रैवचरितमिति योग: शिवाश्रयः ।।
पद्मप्रभमलधारिदेवने भी यही पद्य नियमसारकी टीका पृ० ४७ पर उद्धत किया है। अतः यह स्पष्ट है कि पञ्चविंशतिकाके कर्ता पचनन्दि जयसेनाचार्य और नियमसारटीकाके कर्ता पद्मप्रभमलघारिदेवके पूर्ववर्ती हैं । जयसेनाचार्यका समय डॉ० ए०एन० उपाध्येके मतानुसार ई. सन् की १२वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध है । अत: यह पद्मनन्दिके समयकी उत्तर सीमा मानी जा सकती है।
पद्मप्रभमलधारीने भी नियमसारटीकाके आरम्भमें अपने गुरु वीरनन्दिको नमस्कार किया है। श्री प्रेमीजीने इस परसे अनुमान लगाया है कि पच पद्मप्रभ
और पद्मनन्दि एक ही गुरुके शिष्य रहे होंगे तथा एक अभिलेखके आधार पर पद्मप्रभ और उनके गुरु वीरनन्दिको वि० सं० १२४२में विद्यमान बतलाया है। पर पद्मप्रभ पूर्व जयसेनाचर्या ने पद्धन्दिकी एकत्वसप्ततीसे पद्य उद्धत किया है और पद्यप्रभने जयसेनकी टीकाओंका अवलोकन किया था। यह उनकी टीकाओं के अध्ययनसे स्पष्ट है। अत: पद्मनन्दि और पद्मप्रभके मध्यमें जयसेनाचार्य हुए हैं, यह निश्चित है।
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाकी प्रस्तावनामें बताया गया है कि पद्मनन्दिपर गुणभद्राचार्यके आत्मानुशासनका प्रभाव है । तुलनाके लिए एक पद्य दिया जाता है, जिसमें आचार्य गुणभद्रने मनुष्यपर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए उसे ही तपका साधन कहा है
दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः ।
मानुष्यमिहेव तपो मुक्तिस्तपसैव तसप: कार्यम् ॥
अर्थात् दुर्लभ, अशुद्ध, अपसुख, अविदित मृति-समय और अल्प परमायु ये पाँच विशेषण मनुष्यपर्यायके लिए दिये गये हैं। इसी अभिप्रायको सूचित
१. पदमनन्दिपञ्चविंशतिका, पोलापुर संस्करण, ४|१४ |
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४०७ ।
३. आत्मानुशासन, शोलापुर संस्करण, पद्म ११२।
करनेवाला 'पञ्चविंशतिका'का निम्नलिखित पद्य है
दुष्प्रापं बहुदुःखराशिरशुचिस्तोकायुरल्पज्ञता
ज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे ।
अस्मिन्नेब तपस्तत: शिवपदं तव साक्षात्सुत्रं
सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि सपः कुर्यान्नरो निर्मलम् ।।
अर्थात् दुष्प्राप, अशुचि, बहुदःखराशि, अल्पज्ञताज्ञात, प्रान्तदिन और स्ताकाथु मनुष्यपर्याय है। अतएव सासरमा मुक्तिकी प्राप्तिके लिए तप करना आवश्यक है और यह तप मनुष्यपर्यायमें ही सम्भव है।
इस पद्य के अतिरिक्त .पदमनन्दिपञ्चविंशतिका के ९|१८, १|४९ , १।७६, १|११८, ३।४४ और ३|५१ क्रमशः आत्मानुशासनके पद्य २३९,२४०, १२५, १५, १३०, ३४ और ७९, पद्योंसे प्रभावित हैं। अतएव 'पञ्चविंशति के रचयिता वि०की १०वीं शतीके पूर्व नहीं हो सकते।
पद्यनन्दि-पंचविंशत्तिपर सोमदेवसूरिके 'यशस्तिलक'को भी प्रभाव पाया जाता है । पद्मनन्दिका श्लोक निम्न प्रकार है
स्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छति ।
समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा लमत्रमात: कृतचित्तचेष्टिता ॥
ठीक इससे मिलता-जुलता यह यशस्तिलक'का भी श्लोक है-- एक पदं बहुपदापि ददासि तुष्टा वर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णभाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोष न पश्यति तदस्तु तवैष दीप: ।।
उक्त दोनों पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है । स्तुति करनेकी एक ही प्रणाली है। इसी प्रकार चतुर्विध दानके फल सूचक पद्य भी समानरूपमें उप लब्ध होते हैं । पद्यनन्दि-पनवंशतिम गृहस्थके पडा वश्यकोका निर्देश "देवपूजा गुरुपास्ती'' (६|७) आदि रूपमें किया गया है । यह श्लोक यशस्तिलक उत्तरार्द्ध पृ० ४१४ में प्राप्त होता है। यशस्तिलकमें पूजाके स्थानपर सेवापाठ प्राप्त होता है। पद्यनन्दि-पञ्चविंशति (२|१०)में मुनिके लिए शाकपिण्डमात्रके दाताको अनन्तपुण्यभाग बतलाया है। यही भाव यस्तिलक (उत्तराई पृ० ४०८)में व्यक्त किया है । इसी प्रकार आत्मसिद्धिके लिए 'भूतानन्वय नात्' पद्म का आशय भी दोनों अन्यों में तुल्य हैं। इससे यह निश्चय होता है कि पद्म
१. पद्मनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, पद्म १२|२१ ।
२. पद्मनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, श्लोक १५॥१३ ।
३, यशस्तिलकचम्यू उत्तरार्य, पृ० ४०१ ।
नन्दिनेअपनी इस कृतिमें यशस्तिलकके उपासकाध्ययनका पर्याप्त उपयोग किया है । यशस्तिलकका समाप्तिकाल शक संवत् ८८१ (ई० ९५९ ) है । अतऐव आचार्य पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन् ९५९ के बाद होना चाहिये । यह निश्चय है कि पद्मनन्दिपर अमृतचन्द्रसूरि और अमितगति इन दोनोंका पूर्ण प्रभाव है। पदमनन्दिने निश्चयपञ्चाशत' प्रकरणमें व्यवहार और शुद्ध नयोंकी उपयोगिताको दिखलाते हुए शुद्धनयके आश्रयसे आत्मतत्त्वके वर्णन करनेकी इच्छा प्रकट की है
व्यवहुतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः ।
स्वार्थं मुमुक्षुरहमिति गले ल्याश्रित विद ॥
पद्मनन्दिने व्यवहारको अबोधजनोंको प्रतिबोधित करनेका साधनमात्र बतलाया है। इसका आधार अमृतचन्द्रसूरि विरचित पुरुषार्थसिद्धथुपायका निम्नलिखित गद्य है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्स्यमूतार्थम् ।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्त्र देशना नास्ति।
अमृतचन्द्रक शब्द और अर्थका प्रभाव उपर्युक्त पद्यपर है। अमृतचन्द्रसूरि का समय वि० सं० ११वीं शती है । अतएव पद्मनन्दिका समय इसके पश्चात् ही होना चाहिये।
पदमनन्दिकी पञ्चविंशतिपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पञ्च उद्धृत किये जाते हैं
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु ।
दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितः ।।
दर्शनशानचारित्रतपःप्रभूति सियति ।
विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वार प्रचक्षते ॥
श्रावकोंको जिनागमके आश्रित होकर अहंदादि पञ्चपरमेष्ठियों, सम्य ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा इन सम्यग्दर्शनादिको धारण करने वाले जीवोंकी भी यथायोग्य विनय करनी चाहिए। उस विनयके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप आदिकी सिद्धि होती है, अतएव इसे मोक्ष का द्वार कहा गया है।
१. पद्मनन्दि-पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, श्लोक ११|८ ।
२. पुरुषार्थसिद्धघु पाय, पद्य६ ।
३. पमनन्दि-पञ्चविंशति ६।२९-३० ।
यही भाव अमितगति -श्रावकचारमें निन्न पद्यों में व्यक्त किया गया है
संघे चतुर्विधे भक्त्या रत्नत्रयविराजिते ।
विधातब्यो यथायोग्यं विनयो नयकोनिदः ॥
सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोजानामि देहिना ।
अपाप्यन्ते बिनीतेन यशांसीव विपश्चिता ||
पद्मनन्दिने अमितगति -श्रावकचारके चतुर्थ परिच्छेदके कई पद्योंका अनुसरण किया है। अमितगतिके 'द्वात्रिशतिका के निम्नलिखित पद्यकाप्रभाव भी पद्मनन्दिपर प्रतीत होता है।
एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः
प्रमादतः संचारता इतस्ततः ।
क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता
स्तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ।'
पद्मनन्दिने लिखा है-हे जिन ! प्रमाद या अभिमानसे जो मैंने मन, वचन एवं शरीर द्वारा प्राणियोंका पीडन स्वयं किया है, दुसरोंसे कराया है अथवा प्राणिपीडन करते हुए जीवको देखकर हर्ष प्रकट किया है, उसके आश्रयसे होनेवाला मेरा पाप मिथ्या हो । यथा
मनोवोङ्ग कृतमङ्गिपीडन प्रमादित कास्तिभत्र यन्मया ।
प्रमादतो दपंत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ।।
अतएव अमितगतिसे उत्तरवर्ती होनेके कारण पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन् की११ वीं शतीहै, यत: अमितगतिने वि० सं० १०७३ में अपना पञ्च संग्रह रचा है।
'पद्मनन्दिपञ्चविंशति' अत्यन्त लोकप्रिय रचना रही है। इसपर किसी अज्ञात विद्वान्की संस्कृत-टीका है । 'एकत्वसप्तति' प्रकरणपर कन्नड़-टीका भी प्राप्त होती है। कन्नड़-टीकाकारका नाम भी पद्मनन्दि है। इनके नामके साथपण्डितदेव, व्रतीएवं मुनि उपाधियाँ पायी जाती हैं। ये शुभचन्द्र राद्धान्तदेवके अग्रशिष्य थे और इनके विद्यागुरु कनकनन्दी पण्डित थे। इन्होंने अमृतचन्द्रकी वचनचन्द्रिकासे आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त किया था और निम्बराज
१, अमितगति-श्रावकाचार १३।४४, ४८ ।
२. भावनाद्वात्रिशतिका, पद्य ५ ।
३. पद्मनन्दि -पञ्चविंशति२१।११ ।
के सम्बोधनार्थ एकत्व-सप्ततिवत्तिकी रचना की थी। निम्बराज शिलाहार वंशीय गण्डरादित्यनरेशाके सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुर में अपने अधिपतिके नामसे "रूपनरायणवर्माद' नामक जैनमन्दिरका निर्माण करवाया था तथा कात्तिक कृष्णा ५ शक संवत् १०५८ ( वि० सं० ११९३ ) में कोल्हापुर और मिरजके आसपास के ग्रामोंकी आयका भी दान दिया था। अत: मूलग्रन्थकार और टीकाकारके नामम साम्य होनेसे तथा दीक्षा और शिक्षा गुरुओं के नाम भी एक होनेसे उनमें अभिन्नत्वकी कल्पना की जा सकती है।
इस रचना में २६ विषय हैं
१. धर्मापदेशामृत , २. दानोपदेशन, ३. अनित्यपञ्चाशत, ४. एकत्वसप्तत्ति, ५. यतिभावनाष्टक, ६. उपासकसंस्कार, ७. देशव्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ९ आलोचना, १०. सदबोधचन्द्रोदय, ११. निश्चयपञ्चाशत, १२. ब्रह्मचर्यरक्षावति, १३. ऋषभस्तोत्र, १४. जिनदर्शनस्तवन, १५. श्रुतदेवतास्तुति, १६. स्वयंभूस्तुति, १७. सुप्रभाताष्टक, १८. शान्तिनाथस्तोत्र, १५. जिनपूजाष्टक, २०. करुणाष्टक, २१. क्रियाकाण्डचूलिका, २२. एकत्वभावनादशक, २३. परमार्थविंशति, २४. शरीराष्टक , २५. स्नानाष्टक, २६. ब्रह्मचर्याष्टक ।
इस अभिकारमें १९८ पद्य है। धर्मोपदेशका अधिकारी सर्वज्ञ और वीतरागी ही हो सकता है । इस जगत्मे असत्य भाषणके दो ही कारण हैं—१. अज्ञानता और २. कषाय । परलोकयात्राके लिए धर्म ही पाथेय है, पाथेयसे यह यात्रा सकुशल सम्पन्न होती है।' धर्मका स्वरूप व्यवहार और निश्चयनय दोनों ही दृष्टियोंसे बतलाया गया है । व्यव्हारकी दृष्टिसे जीवदया, अशरणको शरण देना और सहानुभूति रखना धर्म है। गृहस्थ और मुनिधर्मकी अपेक्षा धर्मके दो भेद, रत्नत्रय -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी अपेक्षा तीन भेद और उत्तम क्षमा, मार्दव आदिकी अपेक्षा दस भेद धर्म के बतलाये हैं । यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभोपयोगके नामसे अभिहित किया गया है। यह जीवको नरक, तिर्यञ्च आदि दुर्गतियोसे छुड़ाकर मनुष्य और देवगतिका सुख प्रदान करता है। निश्चयधर्म जीवको चतुर्गतिक दुःखोंसे छुड़ा कर उसे अजर-अमर बना देता है और जीव शाश्वत-निर्बाध सुखका अनुभव करता है। निश्चय धर्मको शुद्धोपयोगके नामसे पुकारते हैं।
बताया है कि प्राणी सांसारिक सुखको अभीष्ट, विषयोपभोगजनित,क्षणिक और सबाध इन्द्रियतृप्तिको ही अन्तिम सुख मानकर व्यवहार धर्मको उसीका साधन समझते हैं और यथार्थ धर्मसे विमुख रहते हैं। अत: निश्चय-अध्यात्म धर्मका सेवन करना आवश्यक है, इसीसे मोक्षकी प्राप्ति सम्भव है।
गृहस्थ और मुनिधर्ममें अधिक श्रेष्ठ मुनिधर्म है, क्योंकि मोक्षमार्ग-रत्नत्रय के धारक साधू ही होते हैं । साधुकी स्थिति गृहस्थों द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये भोजनके आश्रित होती है, अतएव गृहस्थधर्मकी भी आवश्यकता है। जो धर्म वत्सल गृहस्थ अपने षट् आवश्यकोंका पालन करता हुआ मुनिधर्मको स्थिर रखते हुए मुनियोंको निरन्तर आहारादि दिया करता है उसीका गृहस्थ-जीवन प्रशंसनीय है।
श्रावकधर्म दर्शन, व्रत आदि एकदश प्रतिमाओंका भी वर्णन किया गया है । श्रावकको द्यूतक्रीडा, मांसादिभक्षणरूप सप्तब्यसनका त्याग करना आवश्यक है। आचार्यने धुतादि व्यसनोंका सेवन कर कष्ट उठाने वाले युधिष्ठिर आदिका उदाहरण भी दिया है । हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रहरूप पापोंका त्याग गृहस्थ एकादेश करता है और मुनि सर्वदेश, अतः मुनिका आचरण संकलचरित्र और गृहस्थका आचरण देशचरित्र कहलाता है। सकल चारित्र को धारण करनेवाले मुनिको रत्नत्रय, मूलगुण, उत्तरगुण, पांच आचार और दस धर्मोको धारण करना चाहिए । मुनिके अट्ठाइस मूल गुणोंमें पांच महावत्त, पांच समितियों, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, समता आदि षडावश्यक, केशलुम्च, वस्त्रपरित्याग, स्नानपरित्याग, भूमिरायन, दन्तघर्षणका त्याग, स्थितिभोजन
और एकभक्तकी गणना की गयी है। इन २८ मूलगुणोंमें पद्मनन्दिने अचेल कत्व, लोंच, स्थितिभोजन और समताका ही मुख्यत्तासे वर्णन किया है। दिगम्वरत्वको सिद्धि अनेक प्रमाणों द्वारा की गयी है। ___ साधु जीवन वर्णनके पश्चात् आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठियों का स्वरूप प्रतिपादित किया है। व्यवहाररत्नत्रयका स्वरूप अंकित करने के साथ निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-आत्मानामक निर्मल ज्योतिके निर्णयका नाम सम्यग्दर्शन, तद्विषयक बोधका नाम सम्यग्ज्ञान और उसीमें स्थित
होनेका नाम सम्यक्चारित्र है। ___ यह निश्चयरत्नमय ही कर्मबन्धको नष्ट करने वाला है। उत्तम क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मोका सबन संवरका कारण है।
संसारके समस्त प्राणी दुःखसे भयभीत होकर सुख चाहते हैं और निरन्तर उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। पर सभीको सुखका लाभ हो नहीं पाता ! इसका कारण उनका सुख-दुःखविषयक विवेक है। उन्हें सात्तावेदनीयके उदयसे क्षणिक सुखका आभास होता है, उसे वे यथार्थ सुख मान लेते हैं, जो वस्तुतः स्थायी यथार्थ सुख नहीं है, यत: जिस इष्ट सामग्रीके संयोगमें सुखकी कल्पना करते हैं, वह संयोग ही स्थायी नहीं है । अतः जब अभीष्ट सामग्रीका
वियाग हो जाता है, तो सन्ताप उत्पन्न होता है। वास्तविक मुख आकुलताके
अभावमें है, जो मोक्षमें ही उपलब्ध होता है।
इसके पश्चात् विभिन्न दार्शनिको द्वारा मान्य आत्मस्वरूप मीमांसा की गयी है। बताया है
मो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कत्तु त्वभावं गतो
नको न क्षणिको म विश्वविततो नित्यो चकान्ततः ।
आत्मा कार्यामतश्चिदेकनिलयः कर्मा च भोक्ता स्वयं
संयुक्तः स्थिरता-विनाश-जनन: प्रत्येकमेकक्षणे ॥'
यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है और न नित्य है। किन्तु चैतन्यगुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्ता और भोक्ता भी है। यह आत्मा प्रत्येक समय में उत्पाद, ध्यय और धौव्यरूप है।
तात्पर्य यह है शून्यकान्तबादी माध्यमिक, मुक्ति अवस्थामें बुद्धयादि नव विशेषगुणोच्छेदवादी वैशेषिक, भूतचैतन्यवादी चार्वाक, पुरुषाद्वैतवादी वेदान्ती, सर्वथाक्षणिकवादी सौत्रान्तिक एवं सर्वथानित्यवादी सांख्यके सिद्धांतका निरसन करने के लिए उक्त पद्य कहा गया है। जो व्यक्ति आत्मा, कर्म और संसारको अवस्थाका अनुभव कर धर्माचरण करता है, वह धर्माचरण द्वारा शाश्वनिक सुखकोप्राप्त कर लेता है।
में ५४ पद्य हैं । दानकी आवश्यकता और महत्त्व प्रकट हुए बतलाया है कि श्रावक ग्रहमेंरहता हुआ अपने और अपने आश्रित कुटुम्बके भरण-पोषणके हेतु धनार्जन करता है, इसमें हिंसादिका प्रयोग होनेसे पापका संचयहोता है। इस पापको नष्टकरनेका साधनदान ही है। यह दान श्रावक्के पद आवश्यको में प्रधान है । जिस प्रकार जल वस्त्र में लगे हुए रक्तादि को दूर कर देता है, उसी प्रकार सत्पात्रदान श्रावकके कृषि और वाणिज्य आदि से उत्पन्न पापमलको धोकरउसे .निष्पाप कर देता है। दानके प्रभावसे दाता को भविष्य में कई गुनी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। गृहस्थ के लिए पात्रदान ही कल्याणका साधन है, जो दान नहीं देता, वह धनसे सम्पन्न होने पर भी रंकके समान है । इस प्रकरण में आचार्यने उत्तम, मध्यम, जघन्य, कुपात्र और अपाबके अनुसार दानका फल बतलाया गया है।
१. पद्मनन्दिपञ्चविशति ।।१। १३४ ।
में ५५ पद्य है । शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव आदिको स्वाभाविक अस्थिरता दिखलाकर उनके संयोग और वियोगमें हर्ष और विषाद के परित्यागके लिए प्रेरणा की गयी है । आयुकर्मका अन्त होनेपर प्राणान्त होना अनिवार्य है, कोई किसीकी आयुको एक क्षण भी नहीं बता सकता है, अतः वस्तु स्थितिका विचार कर हर्ष-विषादसे पृथक रहने की चेष्टा करनी चाहिए । कुटुम्बी प्राणी उसी प्रकार सायमें रहते हैं, जिस प्रकार रात्रि होनेपर पक्षी इधर-उधर से आकर एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं, प्रभात होने पर पुनः अनेक दिशाओं में चले जाते हैं। इसी प्रकार प्राणी अनेक योनियोंसे आकर विभिन्न कुलोंमें जन्म ग्रहण करते हैं और पुनः आयुके समाप्त होनेपर अन्य कुलोंमें चले
जाते हैं।
इसमें ८० पद्य हैं। चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार करनेके अनन्तर चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, पर अज्ञानताके कारण अधिकतर प्राणी उसे पहचानते नहीं हैं, अतएव उसे ब्राह्य पदार्थों में ढूंढ़ते हैं। जिस प्रकार अग्नि काष्ठमें अन्यक्तरूपसे न्याप्त है, उसी प्रकार चैतन्य-आत्मा भी अपने भीतर व्याप्त है। राग-द्वेष अनुसार जो किसी भी पदार्थसे सम्बन्ध होता है, बह बन्धका कारण है तथा समस्त बाह्य पदार्थोंमें भिन्न एकमात्र आत्मस्वरूपमं जो अवस्थान होता है, वह मुक्तिका कारण है। बन्ध-मोक्ष, राग-दोष, कर्म-आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो दूत बुद्धि होती है, उससे संसारमें परिभ्रमण होता है और इसके विपरीत अद्धत-- एकत्वबुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है। शुद्ध निश्चय नयके अनुसार एक अखण्डचैतन्य आत्माकी ही प्रतीति होती है, इसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी भेद प्रतिभासित नहीं होता। 'जो शुद्ध चैतन्य है, वहीं निश्चयसे मैं हूँ की प्रतीति होती है।
परमात्मतत्वकी उपासनाका एकमात्र उपाय साम्य है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सभी साम्यके नामान्तर हैं। शुद्ध चतन्यके अतिरिक्त आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं करना ही साम्य है। कर्म और रागादिकको हेय समझकर छोड़ देना और उपयोग स्वरूप परंज्योतिको उपादेय समझकर ग्रहण करना साम्यस्थिति है।
इस प्रकरणमें ९ पद्य हैं। इन पद्योंमें उन मुनियोंकी स्तुति की गयी है, जो पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके विषयभोगो से विरक्त होते हुए नानाप्रकारके तपश्चरण करते हैं तथा सभी प्रकारके उपसगों
को सहन करते हैं।
इस अधिकारमें १२ पद्य हैं । सर्वप्रथम व्रत और दान के प्रथम प्रवर्तक आदिजिनेन्द्र और राजा श्रेयान्सके द्वारा कर्मकी स्थिति दिखला कर उसका स्वरूप बतलाया है। धर्मके मुनि धर्म और श्रावक्रधर्म भेद बतलाकर श्रावकाचारका निरूपण करते हुए गृहस्थके देवपुजा, निर्ग्रन्थ गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षटआवश्यकोंका कथन किया है। सात व्यसनके त्यामपर जोर देते हुए सामायिक प्रतका स्वरूप प्रतिपादित किया है।
में २७ पद्य हैं । यहाँ सम्यकदष्टिको प्रशंस्य बतलाते हुए सम्यग्दर्शनके साथ मनुष्य भबके प्राप्त हो जानेपर तपको ग्रहण करने की प्रेरणा की है। यदि मोह या अशक्तिके कारण दिगम्बरी दीक्षा लेकर तपाचरण कर सम्भब न हो, तो सम्यग्दर्शनके साथ षटआवश्यक, अष्टमूलमुण और द्वादशगुणों को धारण करना चाहिए। रात्रिभोजनत्याग और छने हुए जलका व्यवहार गृहस्थको करना चाहिए । श्रावक आरम्भजन्य पापक्रियाएँ करता है, अतएव उसे आहार, औषध अभय आदि दानकार्यों द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करना चाहिए।
श्रावकके षटआवश्यकमे देवदर्शन और देवपूजन प्रथम कर्तव्य है। देवदर्शनादि के बिना, गृहस्थाश्चमको पत्थरकी नाव समझना चाहिए । इसके लिए चैत्यालय निर्माण अतिशय पुण्यवर्धक है । अतः चैत्यालयके आधारसे ही मुनि और श्रावक दोनोंका धर्म अवस्थित रहता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ मोक्ष ही है। यदि धर्म पुरुषार्थ मोक्षके साधनल्पमें अनुष्ठित होता है तो वह उपादेय है । इसके विपरीप भोगादिककी अभिलाषासे किया मया धर्मपुरुषार्थ पापरूप है । अतः अणुव्रत या महाव्रत दोनोंके पालन करने का उद्देश्य मोक्षप्राप्ति है।
२९ पद्योंमें कर्मक्षय करने वाले सिद्धोंकी स्तुति की गयी है | ज्ञानाबरणादि अष्ट कमोंके नाश करनेसे कौन-कौन गुण उत्पन्न होते हैं, इसका भी कथन आया है।
इस अधिकारमें ३३ पद्य है। जिनेन्द्रके गुणोंका वर्णन करते हुए यह बतलाया है कि मन, बचन और काय तथा कृत, कारित और अनु मोदन, इनको परस्पर गुणित करनेपर जो नौ स्थान प्राप्त होते हैं, उनके द्वारा प्राणीके पाप उत्पन्न होता है । इसके लिए प्रभुके समक्ष आत्मनिन्दा करना आलोचना है । अज्ञानता और प्रमादवश होकर जो पाप उत्पन्न हआ है, उसे निष्कपट भावसे जिनेन्द्र और गुरुके समक्ष प्रकट करना आलोचना है । आलोचना करनेसे आत्मशुद्धि होती है और लगे हुए पापोंसे छुटकारा प्राप्त होता
है अर्थात् अशभ कर्मोको निर्जरा होती है। पापका कारण विकल्प है और संकल्प विकल्प असंख्यात होते हैं, अतः पापास्रव भी नाना प्रकार से होता है। अतएव इन समस्त पापको दुर करनेका उपाय है मन और इन्द्रियांका बाह्य पदार्थों की
ओरसे हटा कर उसका परमात्मस्वरूपके साथ एकीकरण करना। इसके लिए मानक ऊपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है | कारण मनकी अवस्थाभी है कि वह समस्त परिग्रहको छोड़कर वन का आश्रय .ले लेनेपर भी बाह्य पदार्थोकी ओर दौड़ता है। अतएव मनको जीराकर उसे परमात्मा चिन्तन में लगाना श्रेयस्कर है। कलिकालके प्रभावके कारण जो दुष्कर तपश्चरणनहीं कर सकता है, वह सर्वज्ञ वीतरागी प्रभुको केवल भक्ति करने से ही आत्म कल्याणका मार्ग प्राप्त कर लेता है।
५० पद्य हैं। इस अधिकारमें भी चित्स्वरूप परमात्माकी महिमा दिखलाकर यह निर्दिष्ट किया है कि जिसका मन चित्स्वरूप आत्मामें लीन हो जाता है, वह योगी समस्त जीवराशिको आत्मसदृश देखता है । मोहनिद्राक छोड़नेपर ही प्राणी सदबोधको प्राप्त करता है।
में ६२ पद्यहैं। इसमें आत्मतत्त्वका निरूपण किया गया है। समयसारको अनेक गाथाओंका भाव अक्षुण्णरूपमें प्राप्त होला है। समयसारको निम्नलिखित गाथाओंका प्रभाव इस प्रकरणके पद्योपर है । यथा
सुदपरिचिदाणुभया सबस्स वि कामभोगबंधकहा !
एयत्तस्बलभो गरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।
-समयसार, जीवाजीवाधिकार, गाथा ।।
श्रुतपरिचितानुभूतं सर्व सर्वस्य जन्मने सुचिरम् ।
न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ||-प० वि० ११। ६ ।
बनहारोऽभूयत्यो भूयस्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयस्थमस्सिदो स्खलु सम्भाइट्ठी हवइ जोत्रो॥
-समयसार, जीवाजोवाधिकार, गाथा ११
। व्यबहारोऽभूताथों भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः ।
शुद्धनयमाश्रिता में प्राप्नुवन्ति यत्तमः पदं परमम् ।।
पद्मनन्दिपञ्चविशति१ ।९ ।
नय दो प्रकारका है-१. शुद्धनय और २. व्यवहारमय । व्यवहारमय द्वारा अज्ञानी व्यक्तियोंको प्रबोधित किया जाता है। यह नय यथास्थित वस्तुको
विषय न करनेके कारण अभूतार्थ कहलाता है। शुद्ध नय यथावस्थित बस्तुको विषय करने के कारण अभूताथं कहा गया है और यही कर्मक्षयका हेतु है। वस्तु का यथार्थस्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया आता है, वह व्यवहारके आश्चयसे ही। मुख्य और उपचारके आश्रयस किया जाने वाला सब विवरण व्यबहारके ऊपर ही आश्रित है । इस दृष्टिसे व्यबहार उपादेय माना गया है | आगे शुद्धनयके आधारपर रत्नत्रयका स्वरूप बतलाया गया है। समस्त परिग्रहका त्यागी मुनि भी यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है, तो वह स्थावरके तुल्य है । सम्यग्ज्ञान द्वारा ही समस्त वस्तुओंकी यथार्थ प्रतीति होती है, जो जीवात्मा अपनेको निरन्तर कर्म से बद्ध देखता है, वह कमबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्तं देखता है, वह मुक्त हो जाता है। हे समतारूप अमृतके पानसे वृद्धिंगत आनन्दको प्राप्त आत्मन् ! तू बाहातत्वमें मत जा, अन्तस्तत्वमे जा।
जब तक चैतन्यस्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती है, तभी तक बुद्धि आगमके अभ्यासमें प्रवृत्त होती है, पर जैसे ही उक्त चैतन्यस्वरूपका अनुभव प्राप्त होता है, वैसे ही वह बुद्धि आगमकी ओरसे विमुख होकर उस चैतन्यस्वरूप में ही रम जाती है । अतएव जीवकों शाश्वतिक सुखकी प्राप्ति होती है । जिस आत्मज्योतिमें तीनों काल और तीनों लोकोंके मन ही पदार्थ प्रतिभासित होते हैं तथा जिसके प्रकट होनेपर समस्त वचनप्रवृत्ति सहसा नष्ट हो जाती हैं, जो चैतन्यरूप तेज भय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित, उत्कृष्ट, शान्त एवं शुद्ध अनुभवका विषय है, वहीं मैं हूँ। इस प्रकार आत्मानुभूतिका विवेचन विस्तारपूर्वक किया है।
इस अधिकारमें २२ पद्य हैं । आरम्भमें ब्रह्मचर्यका अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि ब्रह्मा का अर्थ बिगुद्ध ज्ञानमय आत्मा है। उस आत्मामें चर्य अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है । यह निश्चयब्रह्मचर्य की परिभाषा है। इस प्रकारका ब्रह्मचर्य इस प्रकारके मुनियोंको प्राप्त होता है जो शरीरसे निर्ममत्व रखते हैं तथा सभी प्रकारसे जितेन्द्रिय होते हैं। ब्रह्मचर्यके विषय में यदि कदाचित् स्वप्नमें भी कोई दोष उत्पन्न होता है तो वे रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं। संयमी मन ही इस प्रकारके ब्रह्मचर्यका आचरण कर सकता है । इस अधिकारमें ब्रह्मचर्य पालनको विधि, ब्रह्मचर्यका महत्व एवं ब्रह्मचर्यमें बिघ्न करनेवाले कारणोंका विवेचन किया है।
इस स्तोत्रमें तीर्थङ्कर ऋषभदेवके इतिवृत्तका निर्देश भी किया है। जब ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर माता मरुदेवी के गर्भ में आनेवाले थे, उसके छ: महीने पूर्वसे ही नाभिरायके घरपर रत्न-वृष्टि आरम्भ हो गयी थी। देवोंने आकर मरुदेवीके चरणोंमें नमस्कार किया ! जब भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ, तो देवोने पाण्डु-शिलापर ले जाकर उनका अभिषेक किया। भोगभूमिका अन्त होकर कर्मभूमिकी रचना आरम्भ होने लगी थी। कल्पवृक्ष धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे थे। अतः प्रजाजन भूख से पीड़ित हो ऋषभ देवके पास गये और उन्होंने कृषि आदि कार्यों के करने की शिक्षा दी। ८४ लाख वर्ष पूर्वकी आयुमेंमे ८३ लाख पूर्व बीत जानेपर के एक दिन सभाभवनमे सुन्दर सिंहासनके ऊपर स्थित्त होकर इन्द्र के द्वारा आयोजित नीलाञ्जना अप्सराके नृत्यको देख रहे थे। इसी बीच नीलाञ्जनाकी आयु क्षीण हो जानेसे वह क्षणभर में अदृश्य हो गयी। इन्द्र के आदेश से उसके स्थान पर दूसरी अप्सरा नृत्य करने लगी, पर ऋषभदेवकी दिव्यदृष्टि से यह बात ओझल न रह सकी और उन्होंने उस नीलाञ्जनाको क्षणनश्वरताको देखकर राजलक्ष्मीकी क्षणनश्वरताको अवगत किया । अतएव उन्होंने समस्त राज्यपरिग्रहका त्याग कर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए एक हजार वर्ष बीत गये और अनुपम समाधि द्वारा चार घातिया कर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । समन शरणमें अष्ट प्रातिहार्योसे सुशोभित तीर्थकर ऋषभदेवने विश्वहितकारी मोक्षमार्गका उपदेश दिया । यह स्तोत्र प्राकृत-भाषामें रचित है।
इस स्तबनमें ३४ गाथाएँ हैं और यह भी प्राकृत भाषामें लिखा गया है। आरम्भमें बताया है कि हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे नेत्र सफल हो गये तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृतसे सींचे गयेके समान शान्त हो गये। हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर दर्शन में बाधा पहुँचाने वाले समस्त मोहरूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गये, जिससे मैंने सम्यग्दर्शन प्रास कर लिया। रागादिविकारोंसे रहित आपके दर्शनसे मेरे समस्त पाप नष्ट हो गये। जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेपर रात्रिका अन्धकार समाप्त हो जाता है उसी प्रकार आपके दर्शनसे पुण्योदय हो गया है और पापान्धकार नष्ट हो चुका है। आचार्य ने जिनदर्शनसे प्राप्त होनेवाले सन्तोष, सुख, वैभव आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । दर्शनके प्रभावसे मोक्षमार्गकी उपलब्धि होती है।
अधिकारमें ३१ पद्य हैं। इन पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है। बताया है, हे सरस्वती ! जो तेरे दोनों चरण-कमल हृदयमें
धारण करता है । उसको समस्त अज्ञानता और कर्ममस्कार नष्ट हो जाते हैं। सरस्वतीका तेज न दिनकी अपेक्षा करता है न रात की, न अभ्यन्तरकी अपेक्षा करता है न बाह्य को, न सन्ताप उत्पन्न करना है और न जड़ता हो । समस्त पदार्थोको प्रकाशित करनेवाला यह तेज अपुर्व है। संसारमें ज्ञानमय दीपक ही सबसे उत्तम है। यह नेत्रवालोको तो वस्तुदर्शन कराता ही है, पर नेत्रहीनों को भी वस्तुप्रतीति कराता है। सरस्वतीके प्रसादसे ही शास्त्रों का अध्ययन होता है और वस्तुतत्वकी प्रतीति । आचार्य ने लिखा है
अपि प्रयाता वशमेकजन्मनि सुधेनुचिन्तार्माणकल्पपादगाः 1
फलान्त हि त्वं पुनरत्र चा परे भबे कथं तरूपमीयगे बुधैः ।।
स्वमेव तीर्थं शुचिबोधबारिमन् ममस्तलोकत्रयशुद्धिकारणम् ।
स्वमेव चानन्दसमुद्रवर्धने मगाङ्कमूर्तिः परमार्थदर्शिनाम् ।
इस प्रकरणमें २४ पदय हैं और इनमें क्रमशः २४ तीर्थकरोंकी स्तुति की गयी है।
इसमें आठ पद्य हैं। प्रभातकालने होनेपर रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है और सूर्यका प्रकाश चारों ओर व्याप्त हो जाता है । उस समय जनसमुदायको निद्रा भंग हो जाती है और नेत्र खुल जाते हैं। ठीक इसी प्रकारसे मोहनीयकर्मवा क्षय हो जानेसे मोहनिमित जड़ला नष्ट हो जाती है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों के निर्मूल नष्ट हो जानेसे अनन्तज्ञान, दर्शन का प्रकाश व्याप्त हो जाता है।
इसमें ९ पद्योंमें तीर्थकर शान्तिनाथकी स्तुति को गयो है । प्रसंगवश अष्टप्रातिहाोंका भी उल्लेख आया है।
इस प्रकरणमें दश श्लोक हैं और जलचन्दनादि आठ द्रव्योंक द्वारा जिन-भगवानकी पूजा किये जानेका वर्णन आया है।
इस प्रकरणमें ८ पद्य हैं और दीनता दिखलाकर जिनेन्द्र देवसे दयाकी याचना करते हुए संसारसे अपने उद्धारकी प्रार्थना की गयी है।
इस प्रकरणमें १८ श्लोक है। आरम्भमें बताया है कि जबतक मोक्षके कारणभूत सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक चारित्र प्राप्त
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति, पद्य १५।१९ ।
२. वहीं , १५।२४ ।
नहीं होते तब तक भगवानको भक्ति प्राप्त होती रहे। इस भक्तिके प्रसादमे ही रत्न-त्रय की प्राप्ति सम्भव है । रत्नत्रय, मूलगुण और उत्तरगुणोंके सम्बन्ध में जो अपराध हुआ है तथा मन,वचन ,काय ,वृत कारित और अनुमोदनासे जो प्राणिपीहन हुआ है। तज्जन्य लालब आपके चरण-कमलयः स्मरणसे मिथ्या हो ।
चिन्तादपरिणामसंततिवशादुन्मार्गगाथागिरः ।
कायात्संवृत्तिजितादनुचितं कजितं यन्मया ।
सन्नाशं व्रजतु प्रभो जिनपते लत्पादपास्मते
रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् शमर्था भवेत् ।।
इस प्रकरणमें ११ पद्य हैं। यह परमज्योति स्वरूपसे प्रसिद्ध और एकस्वरूप अद्वितीय पदको प्राप्त आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि जो इस आत्मतत्वको जानता है वह दूसरों के द्वारा पूजा जाता है, उसका आराध्य फिर अन्य कोई नहीं होता । उस एकत्वका ज्ञान दुर्लभ अवश्य है, पर मुक्तिको वही प्रदान करता है । मुक्तिसुख ही संसारम सर्वश्रेष्ठ है।
इस प्रकरण में २० श्लोक हैं। इसमें भी शुद्ध चैतन्य निबिकल्पक आत्मानस्वको ही सर्वश्रेष्ठ माना है। निश्चयतः यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है। न यह परवस्तुओंका भोवता है और न नर्ता ही। यह तो स्वयं अपने परिणामोंका कर्ती और भोक्ता है। जब अन्तरंगमें रत्नत्रयका प्रकाश व्याप्त हो जाता है। तो संसारके सारे परपदार्थ निःसार प्रतीत होने लगते हैं। आत्मा कर्मफलरूप सुख दुःखसे पृथक है ।
इस प्रकरणमें ८ पद्य हैं । शरीरको स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरताको दिखलाते हुए उसे नाड़ीअणके समान भयानक और कड़वी तुम्बीके समान उपयोगके अयोग्य बतलाया है। साथ ही यह भी कहा है कि एक ओर मनुष्य जहाँ अनेक पोषक तत्वों द्वारा उसका संरक्षण करके उसे स्थिर रखनेका प्रयास करते हैं वहीं दूसरी ओर वृद्धत्व उन्हें क्रमशः जर्जरित करने में उद्यत रहता है और अन्त में वही सफल होता है । इस प्रकार शरीरकी अशुचिता
और अनित्यताका वर्णन आया है।
इसमें ८ पद्य हैं। स्वभावतः अपवित्र, मलमुत्र आदिसे परिपूर्ण यह शरीर स्नान करनेसे कभी पवित्र नहीं हो सकता । इसका यथार्थ स्थान तो विवेक है जो जीवके चिरसंचित मिथ्यात्व आदि रूप अन्तरंग मलको १. पद्मनन्दिपचविक्षति , २१।१२ ।
धो देता है। इसके विपरीत उस जलके स्नानसे तो प्राणिहिसाजनित केबल पापमलका ही संचय होता है। जो शरीर प्रतिदिन स्नान करनेसे भी अपवित्र रहता है तथा अनेक सुगन्धित लेपनोंसे लेपित होने पर भी दुर्गन्धित बना रहता है, उस शरीरकी शुद्धि जलद्वारा नहीं की जा सकती और न कोई ऐसा तीर्थ ही है जिसमें स्नान करनेसे वह पवित्र हो सके।
इस प्रकरणमें ९ पद्य हैं और ब्रह्मचर्यका महत्व प्रति पादित किया गया है। विषयसेवनकी ओर प्रवृत्ति पशुओंकी रहती है, अतः यह पशु कर्म है । जब अपनी स्त्रीके साथ भी विषयसेवन करना निद्य है तब परस्त्री या बेश्याके सम्बन्धमें कहना ही क्या ? वस्तुतः यह विषयोपभोग तीक्ष्ण कुटार है, जिसनो सेवनसे संयमरूप वृक्ष निर्मूल हो जाता है। आचार्य ने बताया है
रतिनिषेधबिधौ यत्ततां भवेच्चपलतां प्रविहाय मनः संदा ।
विषय सौस्यमिदं विषसंनिभं कुशलमस्ति न मुक्त बत्तस्तव' ।।
गुरु | आचार्य श्री वीरनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री पद्मनंदी द्वितीय |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Padmanandi2ndPrachin
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री पद्मनंदीजी द्वितीय (प्राचीन)
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 25 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
दर्शनं निश्चयः पुस बोधस्तद्बोध इष्यते ।
स्थितिर त्रैवचरितमिति योग: शिवाश्रयः ।।
पद्मप्रभमलधारिदेवने भी यही पद्य नियमसारकी टीका पृ० ४७ पर उद्धत किया है। अतः यह स्पष्ट है कि पञ्चविंशतिकाके कर्ता पचनन्दि जयसेनाचार्य और नियमसारटीकाके कर्ता पद्मप्रभमलघारिदेवके पूर्ववर्ती हैं । जयसेनाचार्यका समय डॉ० ए०एन० उपाध्येके मतानुसार ई. सन् की १२वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध है । अत: यह पद्मनन्दिके समयकी उत्तर सीमा मानी जा सकती है।
पद्मप्रभमलधारीने भी नियमसारटीकाके आरम्भमें अपने गुरु वीरनन्दिको नमस्कार किया है। श्री प्रेमीजीने इस परसे अनुमान लगाया है कि पच पद्मप्रभ
और पद्मनन्दि एक ही गुरुके शिष्य रहे होंगे तथा एक अभिलेखके आधार पर पद्मप्रभ और उनके गुरु वीरनन्दिको वि० सं० १२४२में विद्यमान बतलाया है। पर पद्मप्रभ पूर्व जयसेनाचर्या ने पद्धन्दिकी एकत्वसप्ततीसे पद्य उद्धत किया है और पद्यप्रभने जयसेनकी टीकाओंका अवलोकन किया था। यह उनकी टीकाओं के अध्ययनसे स्पष्ट है। अत: पद्मनन्दि और पद्मप्रभके मध्यमें जयसेनाचार्य हुए हैं, यह निश्चित है।
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाकी प्रस्तावनामें बताया गया है कि पद्मनन्दिपर गुणभद्राचार्यके आत्मानुशासनका प्रभाव है । तुलनाके लिए एक पद्य दिया जाता है, जिसमें आचार्य गुणभद्रने मनुष्यपर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए उसे ही तपका साधन कहा है
दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः ।
मानुष्यमिहेव तपो मुक्तिस्तपसैव तसप: कार्यम् ॥
अर्थात् दुर्लभ, अशुद्ध, अपसुख, अविदित मृति-समय और अल्प परमायु ये पाँच विशेषण मनुष्यपर्यायके लिए दिये गये हैं। इसी अभिप्रायको सूचित
१. पदमनन्दिपञ्चविंशतिका, पोलापुर संस्करण, ४|१४ |
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ४०७ ।
३. आत्मानुशासन, शोलापुर संस्करण, पद्म ११२।
करनेवाला 'पञ्चविंशतिका'का निम्नलिखित पद्य है
दुष्प्रापं बहुदुःखराशिरशुचिस्तोकायुरल्पज्ञता
ज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे ।
अस्मिन्नेब तपस्तत: शिवपदं तव साक्षात्सुत्रं
सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि सपः कुर्यान्नरो निर्मलम् ।।
अर्थात् दुष्प्राप, अशुचि, बहुदःखराशि, अल्पज्ञताज्ञात, प्रान्तदिन और स्ताकाथु मनुष्यपर्याय है। अतएव सासरमा मुक्तिकी प्राप्तिके लिए तप करना आवश्यक है और यह तप मनुष्यपर्यायमें ही सम्भव है।
इस पद्य के अतिरिक्त .पदमनन्दिपञ्चविंशतिका के ९|१८, १|४९ , १।७६, १|११८, ३।४४ और ३|५१ क्रमशः आत्मानुशासनके पद्य २३९,२४०, १२५, १५, १३०, ३४ और ७९, पद्योंसे प्रभावित हैं। अतएव 'पञ्चविंशति के रचयिता वि०की १०वीं शतीके पूर्व नहीं हो सकते।
पद्यनन्दि-पंचविंशत्तिपर सोमदेवसूरिके 'यशस्तिलक'को भी प्रभाव पाया जाता है । पद्मनन्दिका श्लोक निम्न प्रकार है
स्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छति ।
समस्तशुक्लापि सुवर्णविग्रहा लमत्रमात: कृतचित्तचेष्टिता ॥
ठीक इससे मिलता-जुलता यह यशस्तिलक'का भी श्लोक है-- एक पदं बहुपदापि ददासि तुष्टा वर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णभाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोष न पश्यति तदस्तु तवैष दीप: ।।
उक्त दोनों पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है । स्तुति करनेकी एक ही प्रणाली है। इसी प्रकार चतुर्विध दानके फल सूचक पद्य भी समानरूपमें उप लब्ध होते हैं । पद्यनन्दि-पनवंशतिम गृहस्थके पडा वश्यकोका निर्देश "देवपूजा गुरुपास्ती'' (६|७) आदि रूपमें किया गया है । यह श्लोक यशस्तिलक उत्तरार्द्ध पृ० ४१४ में प्राप्त होता है। यशस्तिलकमें पूजाके स्थानपर सेवापाठ प्राप्त होता है। पद्यनन्दि-पञ्चविंशति (२|१०)में मुनिके लिए शाकपिण्डमात्रके दाताको अनन्तपुण्यभाग बतलाया है। यही भाव यस्तिलक (उत्तराई पृ० ४०८)में व्यक्त किया है । इसी प्रकार आत्मसिद्धिके लिए 'भूतानन्वय नात्' पद्म का आशय भी दोनों अन्यों में तुल्य हैं। इससे यह निश्चय होता है कि पद्म
१. पद्मनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, पद्म १२|२१ ।
२. पद्मनन्दि पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, श्लोक १५॥१३ ।
३, यशस्तिलकचम्यू उत्तरार्य, पृ० ४०१ ।
नन्दिनेअपनी इस कृतिमें यशस्तिलकके उपासकाध्ययनका पर्याप्त उपयोग किया है । यशस्तिलकका समाप्तिकाल शक संवत् ८८१ (ई० ९५९ ) है । अतऐव आचार्य पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन् ९५९ के बाद होना चाहिये । यह निश्चय है कि पद्मनन्दिपर अमृतचन्द्रसूरि और अमितगति इन दोनोंका पूर्ण प्रभाव है। पदमनन्दिने निश्चयपञ्चाशत' प्रकरणमें व्यवहार और शुद्ध नयोंकी उपयोगिताको दिखलाते हुए शुद्धनयके आश्रयसे आत्मतत्त्वके वर्णन करनेकी इच्छा प्रकट की है
व्यवहुतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः ।
स्वार्थं मुमुक्षुरहमिति गले ल्याश्रित विद ॥
पद्मनन्दिने व्यवहारको अबोधजनोंको प्रतिबोधित करनेका साधनमात्र बतलाया है। इसका आधार अमृतचन्द्रसूरि विरचित पुरुषार्थसिद्धथुपायका निम्नलिखित गद्य है
अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्स्यमूतार्थम् ।
व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्त्र देशना नास्ति।
अमृतचन्द्रक शब्द और अर्थका प्रभाव उपर्युक्त पद्यपर है। अमृतचन्द्रसूरि का समय वि० सं० ११वीं शती है । अतएव पद्मनन्दिका समय इसके पश्चात् ही होना चाहिये।
पदमनन्दिकी पञ्चविंशतिपर अमितगतिके श्रावकाचारका भी प्रभाव है। यहाँ उदाहरणार्थ कुछ पञ्च उद्धृत किये जाते हैं
विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्यः परमेष्ठिषु ।
दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितः ।।
दर्शनशानचारित्रतपःप्रभूति सियति ।
विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वार प्रचक्षते ॥
श्रावकोंको जिनागमके आश्रित होकर अहंदादि पञ्चपरमेष्ठियों, सम्य ग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा इन सम्यग्दर्शनादिको धारण करने वाले जीवोंकी भी यथायोग्य विनय करनी चाहिए। उस विनयके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्याज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप आदिकी सिद्धि होती है, अतएव इसे मोक्ष का द्वार कहा गया है।
१. पद्मनन्दि-पञ्चविंशति, शोलापुर संस्करण, श्लोक ११|८ ।
२. पुरुषार्थसिद्धघु पाय, पद्य६ ।
३. पमनन्दि-पञ्चविंशति ६।२९-३० ।
यही भाव अमितगति -श्रावकचारमें निन्न पद्यों में व्यक्त किया गया है
संघे चतुर्विधे भक्त्या रत्नत्रयविराजिते ।
विधातब्यो यथायोग्यं विनयो नयकोनिदः ॥
सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोजानामि देहिना ।
अपाप्यन्ते बिनीतेन यशांसीव विपश्चिता ||
पद्मनन्दिने अमितगति -श्रावकचारके चतुर्थ परिच्छेदके कई पद्योंका अनुसरण किया है। अमितगतिके 'द्वात्रिशतिका के निम्नलिखित पद्यकाप्रभाव भी पद्मनन्दिपर प्रतीत होता है।
एकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिनः
प्रमादतः संचारता इतस्ततः ।
क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता
स्तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा ।'
पद्मनन्दिने लिखा है-हे जिन ! प्रमाद या अभिमानसे जो मैंने मन, वचन एवं शरीर द्वारा प्राणियोंका पीडन स्वयं किया है, दुसरोंसे कराया है अथवा प्राणिपीडन करते हुए जीवको देखकर हर्ष प्रकट किया है, उसके आश्रयसे होनेवाला मेरा पाप मिथ्या हो । यथा
मनोवोङ्ग कृतमङ्गिपीडन प्रमादित कास्तिभत्र यन्मया ।
प्रमादतो दपंत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम ।।
अतएव अमितगतिसे उत्तरवर्ती होनेके कारण पद्मनन्दि द्वितीयका समय ई० सन् की११ वीं शतीहै, यत: अमितगतिने वि० सं० १०७३ में अपना पञ्च संग्रह रचा है।
'पद्मनन्दिपञ्चविंशति' अत्यन्त लोकप्रिय रचना रही है। इसपर किसी अज्ञात विद्वान्की संस्कृत-टीका है । 'एकत्वसप्तति' प्रकरणपर कन्नड़-टीका भी प्राप्त होती है। कन्नड़-टीकाकारका नाम भी पद्मनन्दि है। इनके नामके साथपण्डितदेव, व्रतीएवं मुनि उपाधियाँ पायी जाती हैं। ये शुभचन्द्र राद्धान्तदेवके अग्रशिष्य थे और इनके विद्यागुरु कनकनन्दी पण्डित थे। इन्होंने अमृतचन्द्रकी वचनचन्द्रिकासे आध्यात्मिक प्रकाश प्राप्त किया था और निम्बराज
१, अमितगति-श्रावकाचार १३।४४, ४८ ।
२. भावनाद्वात्रिशतिका, पद्य ५ ।
३. पद्मनन्दि -पञ्चविंशति२१।११ ।
के सम्बोधनार्थ एकत्व-सप्ततिवत्तिकी रचना की थी। निम्बराज शिलाहार वंशीय गण्डरादित्यनरेशाके सामन्त थे । इन्होंने कोल्हापुर में अपने अधिपतिके नामसे "रूपनरायणवर्माद' नामक जैनमन्दिरका निर्माण करवाया था तथा कात्तिक कृष्णा ५ शक संवत् १०५८ ( वि० सं० ११९३ ) में कोल्हापुर और मिरजके आसपास के ग्रामोंकी आयका भी दान दिया था। अत: मूलग्रन्थकार और टीकाकारके नामम साम्य होनेसे तथा दीक्षा और शिक्षा गुरुओं के नाम भी एक होनेसे उनमें अभिन्नत्वकी कल्पना की जा सकती है।
इस रचना में २६ विषय हैं
१. धर्मापदेशामृत , २. दानोपदेशन, ३. अनित्यपञ्चाशत, ४. एकत्वसप्तत्ति, ५. यतिभावनाष्टक, ६. उपासकसंस्कार, ७. देशव्रतोद्योतन, ८ सिद्धस्तुति, ९ आलोचना, १०. सदबोधचन्द्रोदय, ११. निश्चयपञ्चाशत, १२. ब्रह्मचर्यरक्षावति, १३. ऋषभस्तोत्र, १४. जिनदर्शनस्तवन, १५. श्रुतदेवतास्तुति, १६. स्वयंभूस्तुति, १७. सुप्रभाताष्टक, १८. शान्तिनाथस्तोत्र, १५. जिनपूजाष्टक, २०. करुणाष्टक, २१. क्रियाकाण्डचूलिका, २२. एकत्वभावनादशक, २३. परमार्थविंशति, २४. शरीराष्टक , २५. स्नानाष्टक, २६. ब्रह्मचर्याष्टक ।
इस अभिकारमें १९८ पद्य है। धर्मोपदेशका अधिकारी सर्वज्ञ और वीतरागी ही हो सकता है । इस जगत्मे असत्य भाषणके दो ही कारण हैं—१. अज्ञानता और २. कषाय । परलोकयात्राके लिए धर्म ही पाथेय है, पाथेयसे यह यात्रा सकुशल सम्पन्न होती है।' धर्मका स्वरूप व्यवहार और निश्चयनय दोनों ही दृष्टियोंसे बतलाया गया है । व्यव्हारकी दृष्टिसे जीवदया, अशरणको शरण देना और सहानुभूति रखना धर्म है। गृहस्थ और मुनिधर्मकी अपेक्षा धर्मके दो भेद, रत्नत्रय -सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रकी अपेक्षा तीन भेद और उत्तम क्षमा, मार्दव आदिकी अपेक्षा दस भेद धर्म के बतलाये हैं । यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभोपयोगके नामसे अभिहित किया गया है। यह जीवको नरक, तिर्यञ्च आदि दुर्गतियोसे छुड़ाकर मनुष्य और देवगतिका सुख प्रदान करता है। निश्चयधर्म जीवको चतुर्गतिक दुःखोंसे छुड़ा कर उसे अजर-अमर बना देता है और जीव शाश्वत-निर्बाध सुखका अनुभव करता है। निश्चय धर्मको शुद्धोपयोगके नामसे पुकारते हैं।
बताया है कि प्राणी सांसारिक सुखको अभीष्ट, विषयोपभोगजनित,क्षणिक और सबाध इन्द्रियतृप्तिको ही अन्तिम सुख मानकर व्यवहार धर्मको उसीका साधन समझते हैं और यथार्थ धर्मसे विमुख रहते हैं। अत: निश्चय-अध्यात्म धर्मका सेवन करना आवश्यक है, इसीसे मोक्षकी प्राप्ति सम्भव है।
गृहस्थ और मुनिधर्ममें अधिक श्रेष्ठ मुनिधर्म है, क्योंकि मोक्षमार्ग-रत्नत्रय के धारक साधू ही होते हैं । साधुकी स्थिति गृहस्थों द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये भोजनके आश्रित होती है, अतएव गृहस्थधर्मकी भी आवश्यकता है। जो धर्म वत्सल गृहस्थ अपने षट् आवश्यकोंका पालन करता हुआ मुनिधर्मको स्थिर रखते हुए मुनियोंको निरन्तर आहारादि दिया करता है उसीका गृहस्थ-जीवन प्रशंसनीय है।
श्रावकधर्म दर्शन, व्रत आदि एकदश प्रतिमाओंका भी वर्णन किया गया है । श्रावकको द्यूतक्रीडा, मांसादिभक्षणरूप सप्तब्यसनका त्याग करना आवश्यक है। आचार्यने धुतादि व्यसनोंका सेवन कर कष्ट उठाने वाले युधिष्ठिर आदिका उदाहरण भी दिया है । हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रहरूप पापोंका त्याग गृहस्थ एकादेश करता है और मुनि सर्वदेश, अतः मुनिका आचरण संकलचरित्र और गृहस्थका आचरण देशचरित्र कहलाता है। सकल चारित्र को धारण करनेवाले मुनिको रत्नत्रय, मूलगुण, उत्तरगुण, पांच आचार और दस धर्मोको धारण करना चाहिए । मुनिके अट्ठाइस मूल गुणोंमें पांच महावत्त, पांच समितियों, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, समता आदि षडावश्यक, केशलुम्च, वस्त्रपरित्याग, स्नानपरित्याग, भूमिरायन, दन्तघर्षणका त्याग, स्थितिभोजन
और एकभक्तकी गणना की गयी है। इन २८ मूलगुणोंमें पद्मनन्दिने अचेल कत्व, लोंच, स्थितिभोजन और समताका ही मुख्यत्तासे वर्णन किया है। दिगम्वरत्वको सिद्धि अनेक प्रमाणों द्वारा की गयी है। ___ साधु जीवन वर्णनके पश्चात् आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठियों का स्वरूप प्रतिपादित किया है। व्यवहाररत्नत्रयका स्वरूप अंकित करने के साथ निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-आत्मानामक निर्मल ज्योतिके निर्णयका नाम सम्यग्दर्शन, तद्विषयक बोधका नाम सम्यग्ज्ञान और उसीमें स्थित
होनेका नाम सम्यक्चारित्र है। ___ यह निश्चयरत्नमय ही कर्मबन्धको नष्ट करने वाला है। उत्तम क्षमा, मार्दव आदि दस धर्मोका सबन संवरका कारण है।
संसारके समस्त प्राणी दुःखसे भयभीत होकर सुख चाहते हैं और निरन्तर उसकी प्राप्तिके लिए प्रयत्नशील रहते हैं। पर सभीको सुखका लाभ हो नहीं पाता ! इसका कारण उनका सुख-दुःखविषयक विवेक है। उन्हें सात्तावेदनीयके उदयसे क्षणिक सुखका आभास होता है, उसे वे यथार्थ सुख मान लेते हैं, जो वस्तुतः स्थायी यथार्थ सुख नहीं है, यत: जिस इष्ट सामग्रीके संयोगमें सुखकी कल्पना करते हैं, वह संयोग ही स्थायी नहीं है । अतः जब अभीष्ट सामग्रीका
वियाग हो जाता है, तो सन्ताप उत्पन्न होता है। वास्तविक मुख आकुलताके
अभावमें है, जो मोक्षमें ही उपलब्ध होता है।
इसके पश्चात् विभिन्न दार्शनिको द्वारा मान्य आत्मस्वरूप मीमांसा की गयी है। बताया है
मो शून्यो न जडो न भूतजनितो नो कत्तु त्वभावं गतो
नको न क्षणिको म विश्वविततो नित्यो चकान्ततः ।
आत्मा कार्यामतश्चिदेकनिलयः कर्मा च भोक्ता स्वयं
संयुक्तः स्थिरता-विनाश-जनन: प्रत्येकमेकक्षणे ॥'
यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथ्वी आदि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है और न नित्य है। किन्तु चैतन्यगुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्ता और भोक्ता भी है। यह आत्मा प्रत्येक समय में उत्पाद, ध्यय और धौव्यरूप है।
तात्पर्य यह है शून्यकान्तबादी माध्यमिक, मुक्ति अवस्थामें बुद्धयादि नव विशेषगुणोच्छेदवादी वैशेषिक, भूतचैतन्यवादी चार्वाक, पुरुषाद्वैतवादी वेदान्ती, सर्वथाक्षणिकवादी सौत्रान्तिक एवं सर्वथानित्यवादी सांख्यके सिद्धांतका निरसन करने के लिए उक्त पद्य कहा गया है। जो व्यक्ति आत्मा, कर्म और संसारको अवस्थाका अनुभव कर धर्माचरण करता है, वह धर्माचरण द्वारा शाश्वनिक सुखकोप्राप्त कर लेता है।
में ५४ पद्य हैं । दानकी आवश्यकता और महत्त्व प्रकट हुए बतलाया है कि श्रावक ग्रहमेंरहता हुआ अपने और अपने आश्रित कुटुम्बके भरण-पोषणके हेतु धनार्जन करता है, इसमें हिंसादिका प्रयोग होनेसे पापका संचयहोता है। इस पापको नष्टकरनेका साधनदान ही है। यह दान श्रावक्के पद आवश्यको में प्रधान है । जिस प्रकार जल वस्त्र में लगे हुए रक्तादि को दूर कर देता है, उसी प्रकार सत्पात्रदान श्रावकके कृषि और वाणिज्य आदि से उत्पन्न पापमलको धोकरउसे .निष्पाप कर देता है। दानके प्रभावसे दाता को भविष्य में कई गुनी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। गृहस्थ के लिए पात्रदान ही कल्याणका साधन है, जो दान नहीं देता, वह धनसे सम्पन्न होने पर भी रंकके समान है । इस प्रकरण में आचार्यने उत्तम, मध्यम, जघन्य, कुपात्र और अपाबके अनुसार दानका फल बतलाया गया है।
१. पद्मनन्दिपञ्चविशति ।।१। १३४ ।
में ५५ पद्य है । शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव आदिको स्वाभाविक अस्थिरता दिखलाकर उनके संयोग और वियोगमें हर्ष और विषाद के परित्यागके लिए प्रेरणा की गयी है । आयुकर्मका अन्त होनेपर प्राणान्त होना अनिवार्य है, कोई किसीकी आयुको एक क्षण भी नहीं बता सकता है, अतः वस्तु स्थितिका विचार कर हर्ष-विषादसे पृथक रहने की चेष्टा करनी चाहिए । कुटुम्बी प्राणी उसी प्रकार सायमें रहते हैं, जिस प्रकार रात्रि होनेपर पक्षी इधर-उधर से आकर एक ही वृक्ष पर निवास करते हैं, प्रभात होने पर पुनः अनेक दिशाओं में चले जाते हैं। इसी प्रकार प्राणी अनेक योनियोंसे आकर विभिन्न कुलोंमें जन्म ग्रहण करते हैं और पुनः आयुके समाप्त होनेपर अन्य कुलोंमें चले
जाते हैं।
इसमें ८० पद्य हैं। चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार करनेके अनन्तर चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, पर अज्ञानताके कारण अधिकतर प्राणी उसे पहचानते नहीं हैं, अतएव उसे ब्राह्य पदार्थों में ढूंढ़ते हैं। जिस प्रकार अग्नि काष्ठमें अन्यक्तरूपसे न्याप्त है, उसी प्रकार चैतन्य-आत्मा भी अपने भीतर व्याप्त है। राग-द्वेष अनुसार जो किसी भी पदार्थसे सम्बन्ध होता है, बह बन्धका कारण है तथा समस्त बाह्य पदार्थोंमें भिन्न एकमात्र आत्मस्वरूपमं जो अवस्थान होता है, वह मुक्तिका कारण है। बन्ध-मोक्ष, राग-दोष, कर्म-आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो दूत बुद्धि होती है, उससे संसारमें परिभ्रमण होता है और इसके विपरीत अद्धत-- एकत्वबुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है। शुद्ध निश्चय नयके अनुसार एक अखण्डचैतन्य आत्माकी ही प्रतीति होती है, इसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी भेद प्रतिभासित नहीं होता। 'जो शुद्ध चैतन्य है, वहीं निश्चयसे मैं हूँ की प्रतीति होती है।
परमात्मतत्वकी उपासनाका एकमात्र उपाय साम्य है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, वित्तनिरोध और शुद्धोपयोग ये सभी साम्यके नामान्तर हैं। शुद्ध चतन्यके अतिरिक्त आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं करना ही साम्य है। कर्म और रागादिकको हेय समझकर छोड़ देना और उपयोग स्वरूप परंज्योतिको उपादेय समझकर ग्रहण करना साम्यस्थिति है।
इस प्रकरणमें ९ पद्य हैं। इन पद्योंमें उन मुनियोंकी स्तुति की गयी है, जो पाँचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके विषयभोगो से विरक्त होते हुए नानाप्रकारके तपश्चरण करते हैं तथा सभी प्रकारके उपसगों
को सहन करते हैं।
इस अधिकारमें १२ पद्य हैं । सर्वप्रथम व्रत और दान के प्रथम प्रवर्तक आदिजिनेन्द्र और राजा श्रेयान्सके द्वारा कर्मकी स्थिति दिखला कर उसका स्वरूप बतलाया है। धर्मके मुनि धर्म और श्रावक्रधर्म भेद बतलाकर श्रावकाचारका निरूपण करते हुए गृहस्थके देवपुजा, निर्ग्रन्थ गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षटआवश्यकोंका कथन किया है। सात व्यसनके त्यामपर जोर देते हुए सामायिक प्रतका स्वरूप प्रतिपादित किया है।
में २७ पद्य हैं । यहाँ सम्यकदष्टिको प्रशंस्य बतलाते हुए सम्यग्दर्शनके साथ मनुष्य भबके प्राप्त हो जानेपर तपको ग्रहण करने की प्रेरणा की है। यदि मोह या अशक्तिके कारण दिगम्बरी दीक्षा लेकर तपाचरण कर सम्भब न हो, तो सम्यग्दर्शनके साथ षटआवश्यक, अष्टमूलमुण और द्वादशगुणों को धारण करना चाहिए। रात्रिभोजनत्याग और छने हुए जलका व्यवहार गृहस्थको करना चाहिए । श्रावक आरम्भजन्य पापक्रियाएँ करता है, अतएव उसे आहार, औषध अभय आदि दानकार्यों द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करना चाहिए।
श्रावकके षटआवश्यकमे देवदर्शन और देवपूजन प्रथम कर्तव्य है। देवदर्शनादि के बिना, गृहस्थाश्चमको पत्थरकी नाव समझना चाहिए । इसके लिए चैत्यालय निर्माण अतिशय पुण्यवर्धक है । अतः चैत्यालयके आधारसे ही मुनि और श्रावक दोनोंका धर्म अवस्थित रहता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में सर्वश्रेष्ठ मोक्ष ही है। यदि धर्म पुरुषार्थ मोक्षके साधनल्पमें अनुष्ठित होता है तो वह उपादेय है । इसके विपरीप भोगादिककी अभिलाषासे किया मया धर्मपुरुषार्थ पापरूप है । अतः अणुव्रत या महाव्रत दोनोंके पालन करने का उद्देश्य मोक्षप्राप्ति है।
२९ पद्योंमें कर्मक्षय करने वाले सिद्धोंकी स्तुति की गयी है | ज्ञानाबरणादि अष्ट कमोंके नाश करनेसे कौन-कौन गुण उत्पन्न होते हैं, इसका भी कथन आया है।
इस अधिकारमें ३३ पद्य है। जिनेन्द्रके गुणोंका वर्णन करते हुए यह बतलाया है कि मन, बचन और काय तथा कृत, कारित और अनु मोदन, इनको परस्पर गुणित करनेपर जो नौ स्थान प्राप्त होते हैं, उनके द्वारा प्राणीके पाप उत्पन्न होता है । इसके लिए प्रभुके समक्ष आत्मनिन्दा करना आलोचना है । अज्ञानता और प्रमादवश होकर जो पाप उत्पन्न हआ है, उसे निष्कपट भावसे जिनेन्द्र और गुरुके समक्ष प्रकट करना आलोचना है । आलोचना करनेसे आत्मशुद्धि होती है और लगे हुए पापोंसे छुटकारा प्राप्त होता
है अर्थात् अशभ कर्मोको निर्जरा होती है। पापका कारण विकल्प है और संकल्प विकल्प असंख्यात होते हैं, अतः पापास्रव भी नाना प्रकार से होता है। अतएव इन समस्त पापको दुर करनेका उपाय है मन और इन्द्रियांका बाह्य पदार्थों की
ओरसे हटा कर उसका परमात्मस्वरूपके साथ एकीकरण करना। इसके लिए मानक ऊपर विजय प्राप्त करना आवश्यक है | कारण मनकी अवस्थाभी है कि वह समस्त परिग्रहको छोड़कर वन का आश्रय .ले लेनेपर भी बाह्य पदार्थोकी ओर दौड़ता है। अतएव मनको जीराकर उसे परमात्मा चिन्तन में लगाना श्रेयस्कर है। कलिकालके प्रभावके कारण जो दुष्कर तपश्चरणनहीं कर सकता है, वह सर्वज्ञ वीतरागी प्रभुको केवल भक्ति करने से ही आत्म कल्याणका मार्ग प्राप्त कर लेता है।
५० पद्य हैं। इस अधिकारमें भी चित्स्वरूप परमात्माकी महिमा दिखलाकर यह निर्दिष्ट किया है कि जिसका मन चित्स्वरूप आत्मामें लीन हो जाता है, वह योगी समस्त जीवराशिको आत्मसदृश देखता है । मोहनिद्राक छोड़नेपर ही प्राणी सदबोधको प्राप्त करता है।
में ६२ पद्यहैं। इसमें आत्मतत्त्वका निरूपण किया गया है। समयसारको अनेक गाथाओंका भाव अक्षुण्णरूपमें प्राप्त होला है। समयसारको निम्नलिखित गाथाओंका प्रभाव इस प्रकरणके पद्योपर है । यथा
सुदपरिचिदाणुभया सबस्स वि कामभोगबंधकहा !
एयत्तस्बलभो गरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।
-समयसार, जीवाजीवाधिकार, गाथा ।।
श्रुतपरिचितानुभूतं सर्व सर्वस्य जन्मने सुचिरम् ।
न तु मुक्तयेऽत्र सुलभा शुद्धात्मज्योतिरुपलब्धिः ||-प० वि० ११। ६ ।
बनहारोऽभूयत्यो भूयस्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयस्थमस्सिदो स्खलु सम्भाइट्ठी हवइ जोत्रो॥
-समयसार, जीवाजोवाधिकार, गाथा ११
। व्यबहारोऽभूताथों भूतार्थो देशितस्तु शुद्धनयः ।
शुद्धनयमाश्रिता में प्राप्नुवन्ति यत्तमः पदं परमम् ।।
पद्मनन्दिपञ्चविशति१ ।९ ।
नय दो प्रकारका है-१. शुद्धनय और २. व्यवहारमय । व्यवहारमय द्वारा अज्ञानी व्यक्तियोंको प्रबोधित किया जाता है। यह नय यथास्थित वस्तुको
विषय न करनेके कारण अभूतार्थ कहलाता है। शुद्ध नय यथावस्थित बस्तुको विषय करने के कारण अभूताथं कहा गया है और यही कर्मक्षयका हेतु है। वस्तु का यथार्थस्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया आता है, वह व्यवहारके आश्चयसे ही। मुख्य और उपचारके आश्रयस किया जाने वाला सब विवरण व्यबहारके ऊपर ही आश्रित है । इस दृष्टिसे व्यबहार उपादेय माना गया है | आगे शुद्धनयके आधारपर रत्नत्रयका स्वरूप बतलाया गया है। समस्त परिग्रहका त्यागी मुनि भी यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है, तो वह स्थावरके तुल्य है । सम्यग्ज्ञान द्वारा ही समस्त वस्तुओंकी यथार्थ प्रतीति होती है, जो जीवात्मा अपनेको निरन्तर कर्म से बद्ध देखता है, वह कमबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्तं देखता है, वह मुक्त हो जाता है। हे समतारूप अमृतके पानसे वृद्धिंगत आनन्दको प्राप्त आत्मन् ! तू बाहातत्वमें मत जा, अन्तस्तत्वमे जा।
जब तक चैतन्यस्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती है, तभी तक बुद्धि आगमके अभ्यासमें प्रवृत्त होती है, पर जैसे ही उक्त चैतन्यस्वरूपका अनुभव प्राप्त होता है, वैसे ही वह बुद्धि आगमकी ओरसे विमुख होकर उस चैतन्यस्वरूप में ही रम जाती है । अतएव जीवकों शाश्वतिक सुखकी प्राप्ति होती है । जिस आत्मज्योतिमें तीनों काल और तीनों लोकोंके मन ही पदार्थ प्रतिभासित होते हैं तथा जिसके प्रकट होनेपर समस्त वचनप्रवृत्ति सहसा नष्ट हो जाती हैं, जो चैतन्यरूप तेज भय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित, उत्कृष्ट, शान्त एवं शुद्ध अनुभवका विषय है, वहीं मैं हूँ। इस प्रकार आत्मानुभूतिका विवेचन विस्तारपूर्वक किया है।
इस अधिकारमें २२ पद्य हैं । आरम्भमें ब्रह्मचर्यका अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि ब्रह्मा का अर्थ बिगुद्ध ज्ञानमय आत्मा है। उस आत्मामें चर्य अर्थात् रमण करना ब्रह्मचर्य है । यह निश्चयब्रह्मचर्य की परिभाषा है। इस प्रकारका ब्रह्मचर्य इस प्रकारके मुनियोंको प्राप्त होता है जो शरीरसे निर्ममत्व रखते हैं तथा सभी प्रकारसे जितेन्द्रिय होते हैं। ब्रह्मचर्यके विषय में यदि कदाचित् स्वप्नमें भी कोई दोष उत्पन्न होता है तो वे रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं। संयमी मन ही इस प्रकारके ब्रह्मचर्यका आचरण कर सकता है । इस अधिकारमें ब्रह्मचर्य पालनको विधि, ब्रह्मचर्यका महत्व एवं ब्रह्मचर्यमें बिघ्न करनेवाले कारणोंका विवेचन किया है।
इस स्तोत्रमें तीर्थङ्कर ऋषभदेवके इतिवृत्तका निर्देश भी किया है। जब ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर माता मरुदेवी के गर्भ में आनेवाले थे, उसके छ: महीने पूर्वसे ही नाभिरायके घरपर रत्न-वृष्टि आरम्भ हो गयी थी। देवोंने आकर मरुदेवीके चरणोंमें नमस्कार किया ! जब भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ, तो देवोने पाण्डु-शिलापर ले जाकर उनका अभिषेक किया। भोगभूमिका अन्त होकर कर्मभूमिकी रचना आरम्भ होने लगी थी। कल्पवृक्ष धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे थे। अतः प्रजाजन भूख से पीड़ित हो ऋषभ देवके पास गये और उन्होंने कृषि आदि कार्यों के करने की शिक्षा दी। ८४ लाख वर्ष पूर्वकी आयुमेंमे ८३ लाख पूर्व बीत जानेपर के एक दिन सभाभवनमे सुन्दर सिंहासनके ऊपर स्थित्त होकर इन्द्र के द्वारा आयोजित नीलाञ्जना अप्सराके नृत्यको देख रहे थे। इसी बीच नीलाञ्जनाकी आयु क्षीण हो जानेसे वह क्षणभर में अदृश्य हो गयी। इन्द्र के आदेश से उसके स्थान पर दूसरी अप्सरा नृत्य करने लगी, पर ऋषभदेवकी दिव्यदृष्टि से यह बात ओझल न रह सकी और उन्होंने उस नीलाञ्जनाको क्षणनश्वरताको देखकर राजलक्ष्मीकी क्षणनश्वरताको अवगत किया । अतएव उन्होंने समस्त राज्यपरिग्रहका त्याग कर दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण की। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए एक हजार वर्ष बीत गये और अनुपम समाधि द्वारा चार घातिया कर्मोको नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया । समन शरणमें अष्ट प्रातिहार्योसे सुशोभित तीर्थकर ऋषभदेवने विश्वहितकारी मोक्षमार्गका उपदेश दिया । यह स्तोत्र प्राकृत-भाषामें रचित है।
इस स्तबनमें ३४ गाथाएँ हैं और यह भी प्राकृत भाषामें लिखा गया है। आरम्भमें बताया है कि हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे नेत्र सफल हो गये तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृतसे सींचे गयेके समान शान्त हो गये। हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर दर्शन में बाधा पहुँचाने वाले समस्त मोहरूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गये, जिससे मैंने सम्यग्दर्शन प्रास कर लिया। रागादिविकारोंसे रहित आपके दर्शनसे मेरे समस्त पाप नष्ट हो गये। जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेपर रात्रिका अन्धकार समाप्त हो जाता है उसी प्रकार आपके दर्शनसे पुण्योदय हो गया है और पापान्धकार नष्ट हो चुका है। आचार्य ने जिनदर्शनसे प्राप्त होनेवाले सन्तोष, सुख, वैभव आदिका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । दर्शनके प्रभावसे मोक्षमार्गकी उपलब्धि होती है।
अधिकारमें ३१ पद्य हैं। इन पद्योंमें सरस्वतीकी स्तुति की गयी है। बताया है, हे सरस्वती ! जो तेरे दोनों चरण-कमल हृदयमें
धारण करता है । उसको समस्त अज्ञानता और कर्ममस्कार नष्ट हो जाते हैं। सरस्वतीका तेज न दिनकी अपेक्षा करता है न रात की, न अभ्यन्तरकी अपेक्षा करता है न बाह्य को, न सन्ताप उत्पन्न करना है और न जड़ता हो । समस्त पदार्थोको प्रकाशित करनेवाला यह तेज अपुर्व है। संसारमें ज्ञानमय दीपक ही सबसे उत्तम है। यह नेत्रवालोको तो वस्तुदर्शन कराता ही है, पर नेत्रहीनों को भी वस्तुप्रतीति कराता है। सरस्वतीके प्रसादसे ही शास्त्रों का अध्ययन होता है और वस्तुतत्वकी प्रतीति । आचार्य ने लिखा है
अपि प्रयाता वशमेकजन्मनि सुधेनुचिन्तार्माणकल्पपादगाः 1
फलान्त हि त्वं पुनरत्र चा परे भबे कथं तरूपमीयगे बुधैः ।।
स्वमेव तीर्थं शुचिबोधबारिमन् ममस्तलोकत्रयशुद्धिकारणम् ।
स्वमेव चानन्दसमुद्रवर्धने मगाङ्कमूर्तिः परमार्थदर्शिनाम् ।
इस प्रकरणमें २४ पदय हैं और इनमें क्रमशः २४ तीर्थकरोंकी स्तुति की गयी है।
इसमें आठ पद्य हैं। प्रभातकालने होनेपर रात्रिका अन्धकार नष्ट हो जाता है और सूर्यका प्रकाश चारों ओर व्याप्त हो जाता है । उस समय जनसमुदायको निद्रा भंग हो जाती है और नेत्र खुल जाते हैं। ठीक इसी प्रकारसे मोहनीयकर्मवा क्षय हो जानेसे मोहनिमित जड़ला नष्ट हो जाती है तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्त राय कर्मों के निर्मूल नष्ट हो जानेसे अनन्तज्ञान, दर्शन का प्रकाश व्याप्त हो जाता है।
इसमें ९ पद्योंमें तीर्थकर शान्तिनाथकी स्तुति को गयो है । प्रसंगवश अष्टप्रातिहाोंका भी उल्लेख आया है।
इस प्रकरणमें दश श्लोक हैं और जलचन्दनादि आठ द्रव्योंक द्वारा जिन-भगवानकी पूजा किये जानेका वर्णन आया है।
इस प्रकरणमें ८ पद्य हैं और दीनता दिखलाकर जिनेन्द्र देवसे दयाकी याचना करते हुए संसारसे अपने उद्धारकी प्रार्थना की गयी है।
इस प्रकरणमें १८ श्लोक है। आरम्भमें बताया है कि जबतक मोक्षके कारणभूत सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक चारित्र प्राप्त
१. पद्मनन्दिपञ्चविंशति, पद्य १५।१९ ।
२. वहीं , १५।२४ ।
नहीं होते तब तक भगवानको भक्ति प्राप्त होती रहे। इस भक्तिके प्रसादमे ही रत्न-त्रय की प्राप्ति सम्भव है । रत्नत्रय, मूलगुण और उत्तरगुणोंके सम्बन्ध में जो अपराध हुआ है तथा मन,वचन ,काय ,वृत कारित और अनुमोदनासे जो प्राणिपीहन हुआ है। तज्जन्य लालब आपके चरण-कमलयः स्मरणसे मिथ्या हो ।
चिन्तादपरिणामसंततिवशादुन्मार्गगाथागिरः ।
कायात्संवृत्तिजितादनुचितं कजितं यन्मया ।
सन्नाशं व्रजतु प्रभो जिनपते लत्पादपास्मते
रेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् शमर्था भवेत् ।।
इस प्रकरणमें ११ पद्य हैं। यह परमज्योति स्वरूपसे प्रसिद्ध और एकस्वरूप अद्वितीय पदको प्राप्त आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि जो इस आत्मतत्वको जानता है वह दूसरों के द्वारा पूजा जाता है, उसका आराध्य फिर अन्य कोई नहीं होता । उस एकत्वका ज्ञान दुर्लभ अवश्य है, पर मुक्तिको वही प्रदान करता है । मुक्तिसुख ही संसारम सर्वश्रेष्ठ है।
इस प्रकरण में २० श्लोक हैं। इसमें भी शुद्ध चैतन्य निबिकल्पक आत्मानस्वको ही सर्वश्रेष्ठ माना है। निश्चयतः यह आत्मा ज्ञान, दर्शन, सुखस्वरूप है। न यह परवस्तुओंका भोवता है और न नर्ता ही। यह तो स्वयं अपने परिणामोंका कर्ती और भोक्ता है। जब अन्तरंगमें रत्नत्रयका प्रकाश व्याप्त हो जाता है। तो संसारके सारे परपदार्थ निःसार प्रतीत होने लगते हैं। आत्मा कर्मफलरूप सुख दुःखसे पृथक है ।
इस प्रकरणमें ८ पद्य हैं । शरीरको स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरताको दिखलाते हुए उसे नाड़ीअणके समान भयानक और कड़वी तुम्बीके समान उपयोगके अयोग्य बतलाया है। साथ ही यह भी कहा है कि एक ओर मनुष्य जहाँ अनेक पोषक तत्वों द्वारा उसका संरक्षण करके उसे स्थिर रखनेका प्रयास करते हैं वहीं दूसरी ओर वृद्धत्व उन्हें क्रमशः जर्जरित करने में उद्यत रहता है और अन्त में वही सफल होता है । इस प्रकार शरीरकी अशुचिता
और अनित्यताका वर्णन आया है।
इसमें ८ पद्य हैं। स्वभावतः अपवित्र, मलमुत्र आदिसे परिपूर्ण यह शरीर स्नान करनेसे कभी पवित्र नहीं हो सकता । इसका यथार्थ स्थान तो विवेक है जो जीवके चिरसंचित मिथ्यात्व आदि रूप अन्तरंग मलको १. पद्मनन्दिपचविक्षति , २१।१२ ।
धो देता है। इसके विपरीत उस जलके स्नानसे तो प्राणिहिसाजनित केबल पापमलका ही संचय होता है। जो शरीर प्रतिदिन स्नान करनेसे भी अपवित्र रहता है तथा अनेक सुगन्धित लेपनोंसे लेपित होने पर भी दुर्गन्धित बना रहता है, उस शरीरकी शुद्धि जलद्वारा नहीं की जा सकती और न कोई ऐसा तीर्थ ही है जिसमें स्नान करनेसे वह पवित्र हो सके।
इस प्रकरणमें ९ पद्य हैं और ब्रह्मचर्यका महत्व प्रति पादित किया गया है। विषयसेवनकी ओर प्रवृत्ति पशुओंकी रहती है, अतः यह पशु कर्म है । जब अपनी स्त्रीके साथ भी विषयसेवन करना निद्य है तब परस्त्री या बेश्याके सम्बन्धमें कहना ही क्या ? वस्तुतः यह विषयोपभोग तीक्ष्ण कुटार है, जिसनो सेवनसे संयमरूप वृक्ष निर्मूल हो जाता है। आचार्य ने बताया है
रतिनिषेधबिधौ यत्ततां भवेच्चपलतां प्रविहाय मनः संदा ।
विषय सौस्यमिदं विषसंनिभं कुशलमस्ति न मुक्त बत्तस्तव' ।।
गुरु | आचार्य श्री वीरनंदी जी |
शिष्य | आचार्य श्री पद्मनंदी द्वितीय |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Padmanandiji 2 nd ( Prachin )
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 25-April- 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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