हैशटैग
#PadmaprabhMalgharidev12Century
आचार्य कुन्दकुन्दनः नियमसारकी तात्पर्यवृति नामक टोकाके रचयिता पद्मप्रभ मलधारिदेव हैं। इन्होंने अपनेको सुकविजन पयोगमित्र, 'पञ्चेन्द्रि
१. प्रवचनसार, ९ वीं गाथाकी टीका ।
प्रमावजित और गात्रमात्रपरिग्रह बताया है। मलधारियह विशेषण दिगम्बर
और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय के मुनियों के साथ जुड़ा हुआ मिलता है। पदमनभने अपनी गुरुपरम्परा या गण-गच्छका उल्लेख नहीं किया है। पर इन्होंने अपनी टीका जिन ग्रंथकर्ताओं और ग्रन्थोंका उल्लेख किया है उनकी सहायतासे इनके समयपर विचार किया जा सकता है । इन्होंने अपनी टोकामें समन्तभद्र, पूज्यपाद, योगीन्द्रदेव, विद्यानन्द, गुणभद्र , अमृतचन्द्र , सोमदेव पण्डित, वादिराज, महासेन नामके आचार्यो का तथा समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्ति काय, उपासकाध्ययन, अमृताशीति, मार्गप्रकाश, प्रवचनसारव्याख्या समयसार व्याख्या, पदमनन्दिपञ्चविंशति, तत्वानुशासन , श्रुतबिन्दु नामके ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
मुद्रित नियमसारको तात्पर्यवृत्तिके पृष्ठ ५३-७३ और ९९में "तथाचोक्तम् गुणभद्रस्वामिभिः" कहकर गुणभद्राचार्यके ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं। गुणभद्र स्वामीने अपना उत्तरपुराण शक संवत् ८२० ( ई ८९.८ ) में समाप्त किया था। पृष्ठ ८३ पर सोमदेवके यशस्तिलकका एक पद्य उद्धृत मिलता है और यशस्तिलक की समाप्ति शक संवत् ८८१ ( ई० सन्० ९५९ ) में हुई है। टीकाके पृ० ६० पर, तथा चोक्तं 'वादिराजदेवैः' लिखकर वादिराजका पद्य दिया है । वादिराजने पार्शवनाथचरित्रकी समाधि शक सम्वत् २४० ( ई० सन् १०२५) में की है। अतएव पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय ई० सन् १०२५के पश्चात् होना चाहिए ।
पृष्ठ ६१ में टीकाकारने चन्द्रकीर्ति मुनिके मनकी वन्दना की है और पृ ० १४२ में श्रुतबिन्दु नामक ग्रन्थका एक पद्म उद्धृत किया है | श्रवणबेलगोला की मल्लिषेणप्रशस्तिमें इन्हीं चन्द्रकीर्तिमुनिका स्मरण किया गया है और उन्हें श्रुतविन्दुग्रन्थका कर्ता भी बताया गया है
विश्वं यश्श्रुत-बिन्दुनाथरुरुधेभावं कुशाग्रीयया
बुध्येवाति-महीयसा प्रवचसा बद्ध गणाधीश्वरः ।
शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेदं युगीनान्सुगी
स्तं वाचाच्चंत चन्द्रकीत्ति-गणिनं चन्द्राभ-कीति बुधाः ॥
यह अभिलेख फाल्गुन कृष्णा तृतीया शक संवत् १०५० { ई० सन् ११२८ ) का लिखा हुआ है। इस दिन मल्लिषेण मुनिने आराधनापूर्वक शरीरत्याग किया था। इसमें गौतमगणधरसे लेकर उस समय तकके अनेक आचायों और ग्रंथकर्ताओंकी प्रशस्तियाँ दी गयी हैं। प्रद्यपि इस अभिलेखमें आचार्योंका पूर्वा पर सम्बन्ध और गुरु-परम्पराका स्पष्टतः निर्देश नहीं मिलता है, तो भी अनेक
१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य ३२ ।
नयी सूचनाओंके कारण यह प्रशस्ति अधिक उपादेय है | इसमें श्रुतबिन्दुके कर्ता चन्द्रकीर्तिके बाद कर्मप्रकृति भट्टारक, श्रीपालदेव, उनके शिष्य मतिसागर, प्रशिष्य वादिराजमूरि, हेमसेन, दयापाल, श्रीविजय, कमलभद्र, दयापाल, शान्ति देव, गुणसेन, अजितसेन और उनके शिष्य मल्लिषेणका उल्लेख आया है | चन्द्र कीति मल्लिषेण की मत्युके २५ वर्ष पहले हुए हों, तो इनका समय वि : संवत् ११०८के आस-पास आता है। अतएव पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय भी ई० सन ११०३के पूर्व होना चाहिये। __नियमसारकी तात्पर्यवृत्तिके प्रारम्भमें और पाँचवें अध्यायके अन्तमें वीरनन्दिमुनिकी वन्दना की गयी है। मद्राम प्रान्तके 'पटशिवपुरम ग्राम में एक स्तम्भपर पश्चिमी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वरदेवके समयका शक सम्वत् ११०७ का एक अभिलेख है। जबकि उसके माण्डलिक विभननमल्ल, भोगदेवचोल्ल हेजरा नगरपर राज्य कर रहे थे। उसी में यह लिखा है कि जब यह जैनमन्दिर बनवाया गया था, तब श्री पद्मप्रभमलधारिदेव और उनके गुरु श्रीवीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे। अतएव इन प्रमाणोंके आधारपर पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय ई० सन् की १२ वीं शताब्दी सिद्ध होता है।
श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि पञ्चविंशतिके कर्ता पद्मनन्दि पद्मप्रभ मलधारिदेवसे अभिन्न हैं, क्योंकि दोनोंके गुरु एक हैं। दूसरी बात यह है कि एकत्वसप्तति प्रकरणके अनेक पद्य नियमसार-टीकामें उद्घृत मिलते हैं, पर यह अनुमानमात्र ही है। मलधारि पद्मप्रभदेव पद्मनन्दिपञ्चविंशति के कर्ता पद्मनन्दिसे भिन्न ही प्रतीत होते हैं।
नियमसारटीकाके साथ पार्श्वनाथस्तोत्रकी रचना भी इनके द्वारा की गयी है।
नियमसारकी टीकामें नियमसारके विषयका ही स्पष्टीकरण किया गया है। सिद्धान्तशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान होनेके कारण टीकामें आये हुए विषयोंका विशद स्पष्टीकरण किया है।
इस स्तोत्रका दूसरा नाम लक्ष्मीस्तोत्र भी इसमें ९ पद्य हैं। अन्तिम पद्यमें कविने अपनेको तर्क नाटक, व्याकरण और कान्यके कौशलमें विख्यात कहा है तथा अन्तमें लेखकने अपना नाम भी दिया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथके गुणोंकी चर्चा करते हुए उनके मरुभूति और कमठ भवोंकी ओर भी संकेत किया गया है । स्तोत्रमें पार्श्वनाथकी शरीराकृति, गुण उनकी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीका वर्णन किया गया है। इस स्तोत्रमें अनुप्रास और पदोंकी चारुता
अद्भुत सौन्दर्यका सृजन करती है । यहाँ उदाहरणार्थ एकाध पद्य उद्धृत किया
जाता है
लक्ष्मीमहस्तुल्यसती सती सती प्रवृद्धकालो बिरतो रतो रसो।
जरारुजाजन्महता हताहता पाश्र्व फणं रामगिरी गिरौ गिरौं ।
विवादिताशेषविधिविधिविधिर्वभूव सप्र्यावहरी हरी हरी ।
त्रिज्ञानसज्ञानहरी हरोहरो पाश्चं फणे रामगिरी गिरौ गिरौ ।।
श्रीपद्मप्रभदेनिमितमिदं स्तोत्र जगन्मंगलं ॥
गुरु | आचार्य श्री वीरनंदी जी ( सिद्धांतचक्रवर्ती ) |
शिष्य | आचार्य श्री पद्मप्रभ मलघारीदेव |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#PadmaprabhMalgharidev12Century
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री पद्मप्रभ मालघरिदेव 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 27 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य कुन्दकुन्दनः नियमसारकी तात्पर्यवृति नामक टोकाके रचयिता पद्मप्रभ मलधारिदेव हैं। इन्होंने अपनेको सुकविजन पयोगमित्र, 'पञ्चेन्द्रि
१. प्रवचनसार, ९ वीं गाथाकी टीका ।
प्रमावजित और गात्रमात्रपरिग्रह बताया है। मलधारियह विशेषण दिगम्बर
और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय के मुनियों के साथ जुड़ा हुआ मिलता है। पदमनभने अपनी गुरुपरम्परा या गण-गच्छका उल्लेख नहीं किया है। पर इन्होंने अपनी टीका जिन ग्रंथकर्ताओं और ग्रन्थोंका उल्लेख किया है उनकी सहायतासे इनके समयपर विचार किया जा सकता है । इन्होंने अपनी टोकामें समन्तभद्र, पूज्यपाद, योगीन्द्रदेव, विद्यानन्द, गुणभद्र , अमृतचन्द्र , सोमदेव पण्डित, वादिराज, महासेन नामके आचार्यो का तथा समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्ति काय, उपासकाध्ययन, अमृताशीति, मार्गप्रकाश, प्रवचनसारव्याख्या समयसार व्याख्या, पदमनन्दिपञ्चविंशति, तत्वानुशासन , श्रुतबिन्दु नामके ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
मुद्रित नियमसारको तात्पर्यवृत्तिके पृष्ठ ५३-७३ और ९९में "तथाचोक्तम् गुणभद्रस्वामिभिः" कहकर गुणभद्राचार्यके ग्रन्थोंके उद्धरण दिये हैं। गुणभद्र स्वामीने अपना उत्तरपुराण शक संवत् ८२० ( ई ८९.८ ) में समाप्त किया था। पृष्ठ ८३ पर सोमदेवके यशस्तिलकका एक पद्य उद्धृत मिलता है और यशस्तिलक की समाप्ति शक संवत् ८८१ ( ई० सन्० ९५९ ) में हुई है। टीकाके पृ० ६० पर, तथा चोक्तं 'वादिराजदेवैः' लिखकर वादिराजका पद्य दिया है । वादिराजने पार्शवनाथचरित्रकी समाधि शक सम्वत् २४० ( ई० सन् १०२५) में की है। अतएव पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय ई० सन् १०२५के पश्चात् होना चाहिए ।
पृष्ठ ६१ में टीकाकारने चन्द्रकीर्ति मुनिके मनकी वन्दना की है और पृ ० १४२ में श्रुतबिन्दु नामक ग्रन्थका एक पद्म उद्धृत किया है | श्रवणबेलगोला की मल्लिषेणप्रशस्तिमें इन्हीं चन्द्रकीर्तिमुनिका स्मरण किया गया है और उन्हें श्रुतविन्दुग्रन्थका कर्ता भी बताया गया है
विश्वं यश्श्रुत-बिन्दुनाथरुरुधेभावं कुशाग्रीयया
बुध्येवाति-महीयसा प्रवचसा बद्ध गणाधीश्वरः ।
शिष्यान्प्रत्यनुकम्पया कृशमतीनेदं युगीनान्सुगी
स्तं वाचाच्चंत चन्द्रकीत्ति-गणिनं चन्द्राभ-कीति बुधाः ॥
यह अभिलेख फाल्गुन कृष्णा तृतीया शक संवत् १०५० { ई० सन् ११२८ ) का लिखा हुआ है। इस दिन मल्लिषेण मुनिने आराधनापूर्वक शरीरत्याग किया था। इसमें गौतमगणधरसे लेकर उस समय तकके अनेक आचायों और ग्रंथकर्ताओंकी प्रशस्तियाँ दी गयी हैं। प्रद्यपि इस अभिलेखमें आचार्योंका पूर्वा पर सम्बन्ध और गुरु-परम्पराका स्पष्टतः निर्देश नहीं मिलता है, तो भी अनेक
१. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेखसंख्या ५४, पद्य ३२ ।
नयी सूचनाओंके कारण यह प्रशस्ति अधिक उपादेय है | इसमें श्रुतबिन्दुके कर्ता चन्द्रकीर्तिके बाद कर्मप्रकृति भट्टारक, श्रीपालदेव, उनके शिष्य मतिसागर, प्रशिष्य वादिराजमूरि, हेमसेन, दयापाल, श्रीविजय, कमलभद्र, दयापाल, शान्ति देव, गुणसेन, अजितसेन और उनके शिष्य मल्लिषेणका उल्लेख आया है | चन्द्र कीति मल्लिषेण की मत्युके २५ वर्ष पहले हुए हों, तो इनका समय वि : संवत् ११०८के आस-पास आता है। अतएव पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय भी ई० सन ११०३के पूर्व होना चाहिये। __नियमसारकी तात्पर्यवृत्तिके प्रारम्भमें और पाँचवें अध्यायके अन्तमें वीरनन्दिमुनिकी वन्दना की गयी है। मद्राम प्रान्तके 'पटशिवपुरम ग्राम में एक स्तम्भपर पश्चिमी चालुक्य राजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वरदेवके समयका शक सम्वत् ११०७ का एक अभिलेख है। जबकि उसके माण्डलिक विभननमल्ल, भोगदेवचोल्ल हेजरा नगरपर राज्य कर रहे थे। उसी में यह लिखा है कि जब यह जैनमन्दिर बनवाया गया था, तब श्री पद्मप्रभमलधारिदेव और उनके गुरु श्रीवीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे। अतएव इन प्रमाणोंके आधारपर पद्मप्रभ मलधारिदेवका समय ई० सन् की १२ वीं शताब्दी सिद्ध होता है।
श्री पण्डित नाथूराम प्रेमीका अनुमान है कि पञ्चविंशतिके कर्ता पद्मनन्दि पद्मप्रभ मलधारिदेवसे अभिन्न हैं, क्योंकि दोनोंके गुरु एक हैं। दूसरी बात यह है कि एकत्वसप्तति प्रकरणके अनेक पद्य नियमसार-टीकामें उद्घृत मिलते हैं, पर यह अनुमानमात्र ही है। मलधारि पद्मप्रभदेव पद्मनन्दिपञ्चविंशति के कर्ता पद्मनन्दिसे भिन्न ही प्रतीत होते हैं।
नियमसारटीकाके साथ पार्श्वनाथस्तोत्रकी रचना भी इनके द्वारा की गयी है।
नियमसारकी टीकामें नियमसारके विषयका ही स्पष्टीकरण किया गया है। सिद्धान्तशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान होनेके कारण टीकामें आये हुए विषयोंका विशद स्पष्टीकरण किया है।
इस स्तोत्रका दूसरा नाम लक्ष्मीस्तोत्र भी इसमें ९ पद्य हैं। अन्तिम पद्यमें कविने अपनेको तर्क नाटक, व्याकरण और कान्यके कौशलमें विख्यात कहा है तथा अन्तमें लेखकने अपना नाम भी दिया है। स्तोत्रमें पार्श्वनाथके गुणोंकी चर्चा करते हुए उनके मरुभूति और कमठ भवोंकी ओर भी संकेत किया गया है । स्तोत्रमें पार्श्वनाथकी शरीराकृति, गुण उनकी अन्तरंग और बहिरंग लक्ष्मीका वर्णन किया गया है। इस स्तोत्रमें अनुप्रास और पदोंकी चारुता
अद्भुत सौन्दर्यका सृजन करती है । यहाँ उदाहरणार्थ एकाध पद्य उद्धृत किया
जाता है
लक्ष्मीमहस्तुल्यसती सती सती प्रवृद्धकालो बिरतो रतो रसो।
जरारुजाजन्महता हताहता पाश्र्व फणं रामगिरी गिरौ गिरौं ।
विवादिताशेषविधिविधिविधिर्वभूव सप्र्यावहरी हरी हरी ।
त्रिज्ञानसज्ञानहरी हरोहरो पाश्चं फणे रामगिरी गिरौ गिरौ ।।
श्रीपद्मप्रभदेनिमितमिदं स्तोत्र जगन्मंगलं ॥
गुरु | आचार्य श्री वीरनंदी जी ( सिद्धांतचक्रवर्ती ) |
शिष्य | आचार्य श्री पद्मप्रभ मलघारीदेव |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Padmaprabh Malgharidev 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 27-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#PadmaprabhMalgharidev12Century
15000
#PadmaprabhMalgharidev12Century
PadmaprabhMalgharidev12Century
You cannot copy content of this page