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#Parshwadev12ThCentury
आचार्य पार्श्वदेव लौकिक विषयोंके मर्मज्ञ पण्डित हैं। इन्होंने अन्य शास्त्रोंगे जान संगी। समग्रम भी रचना की है । एक प्रशस्ति में इनके सम्बन्धमें बताया गया है-'श्रीमदभयचन्द्र-मुनीन्द्र चरणकमलमधुकरा यितमस्तकमहादेवार्य शिष्यस्वरविमलविद्यापुत्रसम्यक्त्व चुडामणिभरतभाण्डीक - भाषाप्रवीणश्रुतिज्ञानचक्रवर्तीसंगोताकरनामधेयपार्श्वदेवविरचिते सङ्गीतसमय सारे"
संगीतसमयसारकी मद्रित प्रतिमें प्रशस्ति निम्न प्रकार है-"श्रीमद भिनवभरताचार्यसरविमलहेमणाविद्यापुत्रतिज्ञानच(क)वातिसङ्गीताकरना मधेयपारवंदेवविरचिते-संगीतसमयसारे"।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि पार्श्वदेव महादेवार्य के शिष्य और अभयचन्द्रके प्रशिष्य थे | कृष्णमाचार्यने इन्हें श्रीकान्त जातिके आदिदेव एवं गौरीका पुत्र बताया है। इनकी 'श्रुतज्ञानचक्रवर्ती', 'संगीताकर' और 'भाषाप्रवीण' उपाधियाँ थीं । श्रीनारायण मोरेश्वर खरेने पावदेवको दाक्षिणात्य अनु मानित किया है। उन्होंने लिखा है-"स्थायीके नामोंको देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि महाराष्ट्र तथा कर्नाटकमें प्रचलित संगीतकी ओर विशेष ध्यान दिया है। कर्नाटक के नाम बहुत बार देखने में आते हैं, इससे अन्धकार स्वयं कनाटककी बोरके हों; ऐसी बहुत सम्भावना होती है।" ।
पाचदेवने संगीतसमयसारके द्वितीय अधिकरणके प्रथम श्लोकमें भोजराज और सोमेश्वरका उल्लेख किया है। भोजराजका समय ई० सन् १०५३ और सोमेश्वरका ११८३ है। इससे यह ध्वनित होता है कि 'संगीतसमयसार के रचयिता पाश्र्थदेवका समय ई० सन् १९८३ के पश्चात् होना चाहिये । इस
१. जैन सिद्धान्तभास्कर, आरा, भाग १०, किरण १, पृ० १७ ।
अन्यका निर्देश 'रागविबोध'कार श्रीसोमनाथदेवने अपने 'रागविबोब'के तृतीय विवेकमें प्रबन्धके सम्बन्धमें स्पष्ट करते हुए लिखा है-"तथा च पाच देवः" एवं-"चतुभिर्धातुभिः षड्भिषचांगर्यस्मात्प्रबध्यते । तस्मात्प्रबन्धः कधितो गीतलक्षणकोविदः ॥" स्पष्ट है कि रागविबोधकार पाश्वदेव और उनके संगीत समय सारसे सुपरिचित थे। इनका समय शक संवत १५३१ अर्थात ई० सन १६०० के लगभग है। अतएव पार्श्वदेवका समय ई० सन् १९८३ और ई० सन् १६०० के बीच होना चाहिये । संगीतसमयसारपर संगीत रत्नाकरका प्रभाव है और संगीतरत्नाकरका समय ई. सन् १२१०-१२४७ ई० है। इन दोनों ग्रन्थोंके रचयिताओंने एक-दूसरेका उल्लेख नहीं किया है । सम्भवतः एक-दूसरेने इन दोनों ग्रंथोंका अवलोकन न किया हो। दोनों ग्रन्थों का विषय एक है, पर भाषा भिन्न है। संगीत रत्नाकरमें प्रत्येक विषयका विशद वर्णन है जब कि संगीतसमयसारमें ऐसा नहीं है । मार्ग और देशी इन दोनों पद्धतियोंका संगीत रत्नाकरमें वर्णन आया है, पर संगीतसमयसारमें केवल देशी संगीतपर ही विचार किया गया है । देशी संगीतके जितने विषयोंका प्रतिपादन संगीतरत्ना करमें मिलता है, उतनेका हो संगीतसमयसारमें भी । रागोंके नाम और लक्षण भी दोनों ग्रंथों में समान है। विषय-नियोजन और भाषा दोनों ग्रंथकी भिन्न-भिन्न है। अतएव पाश्चदेवका समय १वीं शताब्दीका अन्तिम पाद या १३वीं शताब्दीका प्रथम पाद होना संभव है।
कुछ विद्वान पार्श्वदेवको कदम्बवंशीय शासकोंका समकालीन मानकर पावदेवको उक्त वंशके राजा विजयशिवमगेश वर्माका समकालीन मानते हैं, जिससे इनका समय ई. सन् की ठी-७वीं शताब्दी आता है | पर ग्रंथके अन्त रंग परीक्षणसे यह तिथि सिद्ध नहीं होती। ग्रन्थमें भोज आदि राजाओंका उल्लेख होने एवं संगीतके अन्य ग्रंथोंका प्रभाव रहने के कारण पार्वदेवका समय १२वीं शताब्दीका अन्तिम पाद स्वीकार किया जा सकता है।
पार्वदेवकी 'संगीतसमयसार' नामक एक ही कृति उप लब्ध है, जिसका प्रकाशन बावंकोरसे त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सिरीज द्वारा हुआ है। ग्रंथ नव अधिकरणोंमें समाप्त हुआ है। प्रथम अधिकरणमें नादोत्पत्ति, नादभेद, ध्वनिस्वरूप, उसके भेद, मिश्रध्वनि, शारीरलक्षण, गीतलक्षण और उसके भेद, आलप्ति, वर्ण, अलंकार आदि विषयोंका समावेश है। नादो त्पत्तिके पश्चात् स्वर, श्रुति, मूछना आदिको ब्याख्याएँ दी गयी हैं। स्थायी और दूसरे मिलाकर १३ अलंकार एवं सात गमक दिये गये हैं। मंगलाचरणके पद्यसे ध्वनित होता है कि ऋषभ नामक प्रथम स्वरका नामकरण आदि
तीर्थंकर ऋषभदेवके नामपर हुला है और इसे संगीत स्वरोंमें प्राथमिकता दी गयो है । मुद्रालंकार द्वारा आचार्य ने ऋषभस्वरको उत्पत्तिपर प्रकाश डाला है--
नाभेस्समुदितो वायुः कण्ठशोष समाहतः ।
ऋषभ विनदेद् यस्मात्तस्माद् ऋषभ ईरितः ॥
अर्थात् नाभिसे उठनेवाला वायु कण्ठ तथा शीर्षभागसे समाहत होता है, सच ऋषमस्वरकी उशि होती है। इस प्रकार ऋषभदेवके मंगलाचरणसे संगीत 'ऋषभ' स्वरका बोध कराया है।
स्वर, मीत, वाद्य और ताल इन चारोंकी सिद्धि मादके द्वारा ही सम्भव है। नादकी उत्पत्तिका कथन करते हुए लिखा है कि नाभिमें ब्रह्मस्थान है, जिसे ब्रह्मपन्धि माना जाता है, उस ब्रह्मपन्थिमें, उसके केन्द्र में प्राणको स्थिति है, उस केन्द्रस्थ प्राणसे अग्निको उत्पत्ति होती है । जब अग्नि और मारतका संयोग हो जाता है, तब नाद उत्पन्न होता है । 'नाद'के 'न' और 'द' ये दोनों वर्ण क्रमशःप्राणमारत और प्राणाग्निके घाचक हैं। नादक पांच भेद हैं.-१. अति सूक्ष्म २. सूक्ष्म ३. पुष्ट ४. अपुष्ट और ५. कृत्रिम । माभिमें अतिसूक्ष्म, हृदय प्रदेश में सूक्ष्म, कण्ठमें पुष्ट, शिरोदेशमें अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नादकी स्थिति नादभेदसे भासित होती है। यथा--
नाभौ यद् ब्रह्मणः स्थान ब्रह्मपन्थिश्च यो मसः ।
प्राणस्तन्मध्यवर्ती स्यादग्नेः प्राणात् समुद्भवः ।।४।।
अग्निमारतयोर्योगाद् भवेन्नादस्य सम्भवः ।
नकार: प्राण इत्युक्तो दकारो वह्निरुच्यते ।।५।।
अर्थोऽयं नादशब्दस्य संक्षेपात् परिकीर्तितः ।
स च पंचविधो नादो मतंगमुनिसम्मतः ।।६।।
अतिसूक्ष्मश्च सूक्ष्मश्च पुष्टोऽपुष्टश्च कृत्रिमः ।
अतिसूक्ष्मो भवेनामी हदि सूक्ष्म: प्रकाशते ।।७।।
पुष्टोऽभिव्यज्यते कण्ठे त्वपुष्टः शिरसि स्मृतः ।
कृत्रिमो मुखदेशे तु स्थानमेदेन भासते ||८||
ध्वनि चार प्रकारको बतलायी गयो है-१. कावुलम्साबुल, २. बम्बल, ३. नाराट और ४. मिश्रक | ध्वनिके विचारक्रममें कण्ठसम्बन्धी गुण और अव गुणोंपर भी प्रकाश डाला गया है । कण्ठके १. माधुयं, २. श्रावकरच, ३. स्निधत्व १. घनता और ५. स्थानकत्रयशोभा ये पांच गुण माने हैं तथा खेटि, खेगि और भग्न शब्द ये तीन कण्ठदोष बताये हैं। इन सभीको परिभाषाएं भी निबन
की गयी हैं। आलप्तिके मेदोंका कथन भी किया गया है। सालक, विषम, सालक प्रामाल, साक्षरा, अनक्षरा और अताला आलसियोंके लक्षण निबद्ध किये हैं। इस प्रकार प्रथम अधिकरणमें नाद, ध्वनि और आलप्ति सम्बन्धी विचार किया गया है।
द्वित्तीय अधिकरणमें आराप मंद, स्थायी नामकरणबार उनके स्वर दिये हैं । इस अधिकरणमें कर्नाटक देशमें प्रचलित संगीतपर विशेष प्रकाश डाला है । वादीस्वरकी व्याख्या करते हुए लिखा है
"सप्तस्वराणां मध्येऽपि स्वरे यस्मिन् सुरागता ।
स जीवस्वर इत्युक्त अंशो वादी , कथ्यते ।
संवादी, विवादी और अनुवादीकी व्याख्या भी इसी अधिकरण में की गयी है। रागोंके सम्बन्ध विचार भी इसी प्रकरणमें पाया जाता है । ग्रह, न्यास, अंश, व्याप्ति और रसका कथन भी इसी अधिकरण में है। राग, शगाङ्ग, भाषा, क्रियाङ्ग आदिक विचारके साथ वादी, संवादी बोर विवादी स्वरोंके संयोगी भेद भी बतलाये है । सगोंके षाडव और ओढव रूपोंका वर्णन करने के साथ, भैरव, हिंडोल, मालकंस इत्यादि रागोंका वर्णन भी किया है । तृतीय अधिकरण में तोड़ी, वसन्त, भैरव, श्रीराग, शुद्धबंगाल, मालश्री, धराडी, गोड, धनाश्री, गुण्डकृति, गुर्जरी और देशी इन तेरह रागाङ्ग रागोंका लक्षणसहित निरूपण किया है। वेलावली, अंधाली, आसावरी, मंजरी, ललिता, केशकी, माटा, शुद्ध बरारी और श्रीकण्ठी थे ९ भाषाज राग दिये गये हैं। इस तृतीय अधिकरणमें सब मिलाकर ३३ रागोंके लक्षण लिखे गये हैं। यहाँ उदाहरणार्थ भैरब और श्रीरागके लक्षण दिये जा रहे हैं
भिन्नषड्जसमुद्भूतोमन्यासोधांशभूषितः ।
समस्वरोरिपत्यक्तः प्रार्थने भैरवः स्मृतः ॥
श्रीरागष्टक्करागाङ्गमतारो मन्द्रगस्तथा ।
रिपंचमविहीनोऽयं समशेषस्वराश्रमः ।
षड्जन्यासमहासश्च रसे वोरे प्रयुज्यते ॥
चतुर्थ अधिकरणमें प्रबन्धकी व्याख्या दी है । यह व्याख्या, सोमनाथने भी अपने रागविबोषमें उद्धत की है । चार षातु और छह बजोसे जिसका नियमन होता है, वह प्रबन्ध है । जिस प्रकार आस्थायी, अन्तरा, आभोग और संचारी ये ध्रुपदके प्रबन्धक धातु बताये गये हैं । इसके पश्चात् पाद, बन्ध, स्वरपद,
चित्र, तेन, मिश्र इत्यादि करणोंकी व्याख्या एकादश चोंके अनन्तर उनका उपयोग करनेकी विधि बतलायी गयी है । प्रत्यक्ष गायन किस प्रकार करना चाहिये, इसके सम्बन्धमें भी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं अंकित की गयी हैं ।
पञ्चम अधिकारमें अनवद्यादि चार प्रकारके वाद्योंके भेद बतलाकर तत्सम्बन्धी परिभाषा भी अंकित को गयी है। पाठवायके १२ मेद बतलाये हैं और किन-किन अक्षरोंको किस-किस वाद्यपर किस प्रकार बजाना चाहिये, यह भी बतलाया गया है।
षष्ठ अधिकरणमें नृत्य और अभिनयके सम्बन्धमें प्रकाश डाला गया है। अंग-विक्षेपके विभिन्न प्रकार दिये गये हैं। भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्रमें जिन अभिनयोंका जिक्र किया है, उनका वर्णन भी इस अधिकरणमें है।
सप्तम अधिकरणमें तालका उद्देश्य, लक्षण और उसके नाम दिये गये हैं। अन्तमें संगीतमें तालका महत्त्व प्रतिपादित करनेवाला निम्न पद्य पाया जाता है
तालमुलानि गेयानि ताले सर्व प्रतिष्ठितम् ।
तालहीनानि मेयानि मंत्रहीना यथाहुतिः ।।
अष्टम अधिकरण गांताधिकरण है। इसमें गीत गानेकी विधि, गीतके गुण दोष, नर्तक, वादक आदिको परिभाषाएँ एवं उत्तम, मध्यम और जघन्य गायकके लक्षण बताये गये हैं। प्रबन्धगीत, तालमीत्त एवं आलापगीत आदि भेदोंका
भी कथन किया है।
नवम अधिकरणमें प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदिका वर्णन किया गया है । इस संगीतसमयसारमें ११वी-१२वीं शताब्दीके देशी संगीतका विस्तृत विवेचन किया गया है । अन्धकार मार्गसंगीतके प्रपंचों नहीं पड़ा है। उसने केवल देशी संगीतका ही अंकन किया है । इसमें सन्देह नहीं कि पाश्चदेवने संगीतको मोक्षशास्त्रके समान ही उपादेय बताया है। रागवईक होनेपर भी संगीत वीतरागताकी ओर ले जाता है। इसका प्रधान कारण यह है कि भगवद्भक्तिके लिये तन्मयता उपादेय है और यह संगीतमें प्राप्त होती है । वीणाको झंकार, वेणुको स्वरमाधुरी, मृदंग, मुरज, पणव, दुर्दुर, पुष्कर मंजीर, आदि वाद्योंकी स्वरलहरी आत्मा और प्राणोंमें एकोमाव उत्पन्न करती है और इस एको. भावसे ध्यानको सिद्धि होती है । मन, वचन, काय एकनिष्ठ होकर समाधिका अनुभव करते हैं । इस प्रकार पाश्वदेवने अपने इस ग्रन्थमें संगीतको उपादेयता स्वीकार की है और इसे समाधिप्राप्तिका एक कारण माना है। प्रथम अधि
करणमें रचयिताने गमकों द्वारा मनकी एकाग्रताका निरूपण किया है। लिखा है
स्वधुतिस्थानसंभूतां छायां श्रुत्यन्त राधयाम् ।
स्वरो यद् गमयेद् गोते गमकोऽसौ निरूपितः ।।४।।
स्फुरितः कम्पितो लीस्तिरिपुश्चाइतस्तथा ।
आन्दोलिप्तस्त्रभिन्नच गमकाः सप्त कीसिताः ||४२||
इस प्रकार धर्मशास्त्रके समान ही संगीतशास्त्रका महत्त्व स्वीकार किया है।
गुरु | आचार्य श्री महादेवाय |
शिष्य | आचार्य श्री पार्श्वदेव |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Parshwadev12ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री पार्श्वदेव 12वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 20-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 20-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य पार्श्वदेव लौकिक विषयोंके मर्मज्ञ पण्डित हैं। इन्होंने अन्य शास्त्रोंगे जान संगी। समग्रम भी रचना की है । एक प्रशस्ति में इनके सम्बन्धमें बताया गया है-'श्रीमदभयचन्द्र-मुनीन्द्र चरणकमलमधुकरा यितमस्तकमहादेवार्य शिष्यस्वरविमलविद्यापुत्रसम्यक्त्व चुडामणिभरतभाण्डीक - भाषाप्रवीणश्रुतिज्ञानचक्रवर्तीसंगोताकरनामधेयपार्श्वदेवविरचिते सङ्गीतसमय सारे"
संगीतसमयसारकी मद्रित प्रतिमें प्रशस्ति निम्न प्रकार है-"श्रीमद भिनवभरताचार्यसरविमलहेमणाविद्यापुत्रतिज्ञानच(क)वातिसङ्गीताकरना मधेयपारवंदेवविरचिते-संगीतसमयसारे"।
इस प्रशस्तिसे स्पष्ट है कि पार्श्वदेव महादेवार्य के शिष्य और अभयचन्द्रके प्रशिष्य थे | कृष्णमाचार्यने इन्हें श्रीकान्त जातिके आदिदेव एवं गौरीका पुत्र बताया है। इनकी 'श्रुतज्ञानचक्रवर्ती', 'संगीताकर' और 'भाषाप्रवीण' उपाधियाँ थीं । श्रीनारायण मोरेश्वर खरेने पावदेवको दाक्षिणात्य अनु मानित किया है। उन्होंने लिखा है-"स्थायीके नामोंको देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि महाराष्ट्र तथा कर्नाटकमें प्रचलित संगीतकी ओर विशेष ध्यान दिया है। कर्नाटक के नाम बहुत बार देखने में आते हैं, इससे अन्धकार स्वयं कनाटककी बोरके हों; ऐसी बहुत सम्भावना होती है।" ।
पाचदेवने संगीतसमयसारके द्वितीय अधिकरणके प्रथम श्लोकमें भोजराज और सोमेश्वरका उल्लेख किया है। भोजराजका समय ई० सन् १०५३ और सोमेश्वरका ११८३ है। इससे यह ध्वनित होता है कि 'संगीतसमयसार के रचयिता पाश्र्थदेवका समय ई० सन् १९८३ के पश्चात् होना चाहिये । इस
१. जैन सिद्धान्तभास्कर, आरा, भाग १०, किरण १, पृ० १७ ।
अन्यका निर्देश 'रागविबोध'कार श्रीसोमनाथदेवने अपने 'रागविबोब'के तृतीय विवेकमें प्रबन्धके सम्बन्धमें स्पष्ट करते हुए लिखा है-"तथा च पाच देवः" एवं-"चतुभिर्धातुभिः षड्भिषचांगर्यस्मात्प्रबध्यते । तस्मात्प्रबन्धः कधितो गीतलक्षणकोविदः ॥" स्पष्ट है कि रागविबोधकार पाश्वदेव और उनके संगीत समय सारसे सुपरिचित थे। इनका समय शक संवत १५३१ अर्थात ई० सन १६०० के लगभग है। अतएव पार्श्वदेवका समय ई० सन् १९८३ और ई० सन् १६०० के बीच होना चाहिये । संगीतसमयसारपर संगीत रत्नाकरका प्रभाव है और संगीतरत्नाकरका समय ई. सन् १२१०-१२४७ ई० है। इन दोनों ग्रन्थोंके रचयिताओंने एक-दूसरेका उल्लेख नहीं किया है । सम्भवतः एक-दूसरेने इन दोनों ग्रंथोंका अवलोकन न किया हो। दोनों ग्रन्थों का विषय एक है, पर भाषा भिन्न है। संगीत रत्नाकरमें प्रत्येक विषयका विशद वर्णन है जब कि संगीतसमयसारमें ऐसा नहीं है । मार्ग और देशी इन दोनों पद्धतियोंका संगीत रत्नाकरमें वर्णन आया है, पर संगीतसमयसारमें केवल देशी संगीतपर ही विचार किया गया है । देशी संगीतके जितने विषयोंका प्रतिपादन संगीतरत्ना करमें मिलता है, उतनेका हो संगीतसमयसारमें भी । रागोंके नाम और लक्षण भी दोनों ग्रंथों में समान है। विषय-नियोजन और भाषा दोनों ग्रंथकी भिन्न-भिन्न है। अतएव पाश्चदेवका समय १वीं शताब्दीका अन्तिम पाद या १३वीं शताब्दीका प्रथम पाद होना संभव है।
कुछ विद्वान पार्श्वदेवको कदम्बवंशीय शासकोंका समकालीन मानकर पावदेवको उक्त वंशके राजा विजयशिवमगेश वर्माका समकालीन मानते हैं, जिससे इनका समय ई. सन् की ठी-७वीं शताब्दी आता है | पर ग्रंथके अन्त रंग परीक्षणसे यह तिथि सिद्ध नहीं होती। ग्रन्थमें भोज आदि राजाओंका उल्लेख होने एवं संगीतके अन्य ग्रंथोंका प्रभाव रहने के कारण पार्वदेवका समय १२वीं शताब्दीका अन्तिम पाद स्वीकार किया जा सकता है।
पार्वदेवकी 'संगीतसमयसार' नामक एक ही कृति उप लब्ध है, जिसका प्रकाशन बावंकोरसे त्रिवेन्द्रम् संस्कृत सिरीज द्वारा हुआ है। ग्रंथ नव अधिकरणोंमें समाप्त हुआ है। प्रथम अधिकरणमें नादोत्पत्ति, नादभेद, ध्वनिस्वरूप, उसके भेद, मिश्रध्वनि, शारीरलक्षण, गीतलक्षण और उसके भेद, आलप्ति, वर्ण, अलंकार आदि विषयोंका समावेश है। नादो त्पत्तिके पश्चात् स्वर, श्रुति, मूछना आदिको ब्याख्याएँ दी गयी हैं। स्थायी और दूसरे मिलाकर १३ अलंकार एवं सात गमक दिये गये हैं। मंगलाचरणके पद्यसे ध्वनित होता है कि ऋषभ नामक प्रथम स्वरका नामकरण आदि
तीर्थंकर ऋषभदेवके नामपर हुला है और इसे संगीत स्वरोंमें प्राथमिकता दी गयो है । मुद्रालंकार द्वारा आचार्य ने ऋषभस्वरको उत्पत्तिपर प्रकाश डाला है--
नाभेस्समुदितो वायुः कण्ठशोष समाहतः ।
ऋषभ विनदेद् यस्मात्तस्माद् ऋषभ ईरितः ॥
अर्थात् नाभिसे उठनेवाला वायु कण्ठ तथा शीर्षभागसे समाहत होता है, सच ऋषमस्वरकी उशि होती है। इस प्रकार ऋषभदेवके मंगलाचरणसे संगीत 'ऋषभ' स्वरका बोध कराया है।
स्वर, मीत, वाद्य और ताल इन चारोंकी सिद्धि मादके द्वारा ही सम्भव है। नादकी उत्पत्तिका कथन करते हुए लिखा है कि नाभिमें ब्रह्मस्थान है, जिसे ब्रह्मपन्धि माना जाता है, उस ब्रह्मपन्थिमें, उसके केन्द्र में प्राणको स्थिति है, उस केन्द्रस्थ प्राणसे अग्निको उत्पत्ति होती है । जब अग्नि और मारतका संयोग हो जाता है, तब नाद उत्पन्न होता है । 'नाद'के 'न' और 'द' ये दोनों वर्ण क्रमशःप्राणमारत और प्राणाग्निके घाचक हैं। नादक पांच भेद हैं.-१. अति सूक्ष्म २. सूक्ष्म ३. पुष्ट ४. अपुष्ट और ५. कृत्रिम । माभिमें अतिसूक्ष्म, हृदय प्रदेश में सूक्ष्म, कण्ठमें पुष्ट, शिरोदेशमें अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नादकी स्थिति नादभेदसे भासित होती है। यथा--
नाभौ यद् ब्रह्मणः स्थान ब्रह्मपन्थिश्च यो मसः ।
प्राणस्तन्मध्यवर्ती स्यादग्नेः प्राणात् समुद्भवः ।।४।।
अग्निमारतयोर्योगाद् भवेन्नादस्य सम्भवः ।
नकार: प्राण इत्युक्तो दकारो वह्निरुच्यते ।।५।।
अर्थोऽयं नादशब्दस्य संक्षेपात् परिकीर्तितः ।
स च पंचविधो नादो मतंगमुनिसम्मतः ।।६।।
अतिसूक्ष्मश्च सूक्ष्मश्च पुष्टोऽपुष्टश्च कृत्रिमः ।
अतिसूक्ष्मो भवेनामी हदि सूक्ष्म: प्रकाशते ।।७।।
पुष्टोऽभिव्यज्यते कण्ठे त्वपुष्टः शिरसि स्मृतः ।
कृत्रिमो मुखदेशे तु स्थानमेदेन भासते ||८||
ध्वनि चार प्रकारको बतलायी गयो है-१. कावुलम्साबुल, २. बम्बल, ३. नाराट और ४. मिश्रक | ध्वनिके विचारक्रममें कण्ठसम्बन्धी गुण और अव गुणोंपर भी प्रकाश डाला गया है । कण्ठके १. माधुयं, २. श्रावकरच, ३. स्निधत्व १. घनता और ५. स्थानकत्रयशोभा ये पांच गुण माने हैं तथा खेटि, खेगि और भग्न शब्द ये तीन कण्ठदोष बताये हैं। इन सभीको परिभाषाएं भी निबन
की गयी हैं। आलप्तिके मेदोंका कथन भी किया गया है। सालक, विषम, सालक प्रामाल, साक्षरा, अनक्षरा और अताला आलसियोंके लक्षण निबद्ध किये हैं। इस प्रकार प्रथम अधिकरणमें नाद, ध्वनि और आलप्ति सम्बन्धी विचार किया गया है।
द्वित्तीय अधिकरणमें आराप मंद, स्थायी नामकरणबार उनके स्वर दिये हैं । इस अधिकरणमें कर्नाटक देशमें प्रचलित संगीतपर विशेष प्रकाश डाला है । वादीस्वरकी व्याख्या करते हुए लिखा है
"सप्तस्वराणां मध्येऽपि स्वरे यस्मिन् सुरागता ।
स जीवस्वर इत्युक्त अंशो वादी , कथ्यते ।
संवादी, विवादी और अनुवादीकी व्याख्या भी इसी अधिकरण में की गयी है। रागोंके सम्बन्ध विचार भी इसी प्रकरणमें पाया जाता है । ग्रह, न्यास, अंश, व्याप्ति और रसका कथन भी इसी अधिकरण में है। राग, शगाङ्ग, भाषा, क्रियाङ्ग आदिक विचारके साथ वादी, संवादी बोर विवादी स्वरोंके संयोगी भेद भी बतलाये है । सगोंके षाडव और ओढव रूपोंका वर्णन करने के साथ, भैरव, हिंडोल, मालकंस इत्यादि रागोंका वर्णन भी किया है । तृतीय अधिकरण में तोड़ी, वसन्त, भैरव, श्रीराग, शुद्धबंगाल, मालश्री, धराडी, गोड, धनाश्री, गुण्डकृति, गुर्जरी और देशी इन तेरह रागाङ्ग रागोंका लक्षणसहित निरूपण किया है। वेलावली, अंधाली, आसावरी, मंजरी, ललिता, केशकी, माटा, शुद्ध बरारी और श्रीकण्ठी थे ९ भाषाज राग दिये गये हैं। इस तृतीय अधिकरणमें सब मिलाकर ३३ रागोंके लक्षण लिखे गये हैं। यहाँ उदाहरणार्थ भैरब और श्रीरागके लक्षण दिये जा रहे हैं
भिन्नषड्जसमुद्भूतोमन्यासोधांशभूषितः ।
समस्वरोरिपत्यक्तः प्रार्थने भैरवः स्मृतः ॥
श्रीरागष्टक्करागाङ्गमतारो मन्द्रगस्तथा ।
रिपंचमविहीनोऽयं समशेषस्वराश्रमः ।
षड्जन्यासमहासश्च रसे वोरे प्रयुज्यते ॥
चतुर्थ अधिकरणमें प्रबन्धकी व्याख्या दी है । यह व्याख्या, सोमनाथने भी अपने रागविबोषमें उद्धत की है । चार षातु और छह बजोसे जिसका नियमन होता है, वह प्रबन्ध है । जिस प्रकार आस्थायी, अन्तरा, आभोग और संचारी ये ध्रुपदके प्रबन्धक धातु बताये गये हैं । इसके पश्चात् पाद, बन्ध, स्वरपद,
चित्र, तेन, मिश्र इत्यादि करणोंकी व्याख्या एकादश चोंके अनन्तर उनका उपयोग करनेकी विधि बतलायी गयी है । प्रत्यक्ष गायन किस प्रकार करना चाहिये, इसके सम्बन्धमें भी महत्त्वपूर्ण सूचनाएं अंकित की गयी हैं ।
पञ्चम अधिकारमें अनवद्यादि चार प्रकारके वाद्योंके भेद बतलाकर तत्सम्बन्धी परिभाषा भी अंकित को गयी है। पाठवायके १२ मेद बतलाये हैं और किन-किन अक्षरोंको किस-किस वाद्यपर किस प्रकार बजाना चाहिये, यह भी बतलाया गया है।
षष्ठ अधिकरणमें नृत्य और अभिनयके सम्बन्धमें प्रकाश डाला गया है। अंग-विक्षेपके विभिन्न प्रकार दिये गये हैं। भरतमुनिने अपने नाट्यशास्त्रमें जिन अभिनयोंका जिक्र किया है, उनका वर्णन भी इस अधिकरणमें है।
सप्तम अधिकरणमें तालका उद्देश्य, लक्षण और उसके नाम दिये गये हैं। अन्तमें संगीतमें तालका महत्त्व प्रतिपादित करनेवाला निम्न पद्य पाया जाता है
तालमुलानि गेयानि ताले सर्व प्रतिष्ठितम् ।
तालहीनानि मेयानि मंत्रहीना यथाहुतिः ।।
अष्टम अधिकरण गांताधिकरण है। इसमें गीत गानेकी विधि, गीतके गुण दोष, नर्तक, वादक आदिको परिभाषाएँ एवं उत्तम, मध्यम और जघन्य गायकके लक्षण बताये गये हैं। प्रबन्धगीत, तालमीत्त एवं आलापगीत आदि भेदोंका
भी कथन किया है।
नवम अधिकरणमें प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट आदिका वर्णन किया गया है । इस संगीतसमयसारमें ११वी-१२वीं शताब्दीके देशी संगीतका विस्तृत विवेचन किया गया है । अन्धकार मार्गसंगीतके प्रपंचों नहीं पड़ा है। उसने केवल देशी संगीतका ही अंकन किया है । इसमें सन्देह नहीं कि पाश्चदेवने संगीतको मोक्षशास्त्रके समान ही उपादेय बताया है। रागवईक होनेपर भी संगीत वीतरागताकी ओर ले जाता है। इसका प्रधान कारण यह है कि भगवद्भक्तिके लिये तन्मयता उपादेय है और यह संगीतमें प्राप्त होती है । वीणाको झंकार, वेणुको स्वरमाधुरी, मृदंग, मुरज, पणव, दुर्दुर, पुष्कर मंजीर, आदि वाद्योंकी स्वरलहरी आत्मा और प्राणोंमें एकोमाव उत्पन्न करती है और इस एको. भावसे ध्यानको सिद्धि होती है । मन, वचन, काय एकनिष्ठ होकर समाधिका अनुभव करते हैं । इस प्रकार पाश्वदेवने अपने इस ग्रन्थमें संगीतको उपादेयता स्वीकार की है और इसे समाधिप्राप्तिका एक कारण माना है। प्रथम अधि
करणमें रचयिताने गमकों द्वारा मनकी एकाग्रताका निरूपण किया है। लिखा है
स्वधुतिस्थानसंभूतां छायां श्रुत्यन्त राधयाम् ।
स्वरो यद् गमयेद् गोते गमकोऽसौ निरूपितः ।।४।।
स्फुरितः कम्पितो लीस्तिरिपुश्चाइतस्तथा ।
आन्दोलिप्तस्त्रभिन्नच गमकाः सप्त कीसिताः ||४२||
इस प्रकार धर्मशास्त्रके समान ही संगीतशास्त्रका महत्त्व स्वीकार किया है।
गुरु | आचार्य श्री महादेवाय |
शिष्य | आचार्य श्री पार्श्वदेव |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Parshwadev 12 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 20-May- 2022
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
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