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#Ratnakirti/Ratnanandi16ThCentury
जैन साहित्यमें रत्नकीति नामके आठ आचार्य उपलब्ध हैं। एक रलकीर्ति अभयनन्दीके शिष्य हैं। इनका समय वि० को १७वीं शती है। ये बलात्कारगण सूरत शाखाके आचार्य थे । तीर्थङ्कर महावीरके निम्नलिखित मूर्तिलेखसे इनका संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है
"सं. १६६२ वर्षे बैसाख वदो २ शुभदिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बला कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री अभयचन्द्रदेवाः तत्प? भ० श्री अभय नन्द तच्छिष्य आचार्यश्रीरलकीति तस्य शिष्याणी बाई वीरमती नित्यं प्रणमति श्रीमहावीरम"। इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गण कुन्दकुन्दाचार्यान्वयमें रत्नकीर्ति हुए हैं। इनके मुरुका नाम अभयनन्दि और दादागुरुका नाम अभयचन्द्र है।
दूसरे रनकीति जिनचन्द्रके शिष्य हैं। बलात्कारगण नागौर शाखाका आरंभ भट्टारक रत्नकोतिसे होता है । ये जिनचन्द्रके शिष्य थे। इनका पट्टा भिषेक वि० सं० १५८५ श्रावण शुक्ला पञ्चमीको हुआ था। तथा आप २१ वर्षों तक पट्टपर आसीन रहे । पट्टावलीमें बताया है---
१. सं. मा, लेखांक, ५२९।।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सेखांक ५२२ ।
"संवत् १५८१ श्रावण सुदि ५ भ० रत्नकोतिजी गृहस्थ वर्ष ९, दीक्षा वर्ष ३१, पट्ट वर्ष २१ मास ८ दिवस १३, अन्तर दिवस ५ सर्व वर्ष ६१ मास ८ दिवस १८ पट्ट दिल्ली।"
तीसरे रत्नकोति भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्य हैं। इनका समय विक्रम संवत् १९५३ के पूर्व है, क्योंकि रत्नकोतिका स्वर्गवास अचलपुरमें वि० सं० १९५३में हो चुका था।
चौथे रस्नकीति धर्मचन्द्रके शिष्य है। भट्टारक सम्प्रदाय ग्नन्ध में धर्मचन्द्रका भट्टारक काल वि० सं० १२७१-१२९६ और भट्टारक रत्नकीतिका वि सं० १२१६-१३१० माना है। रलकोति वि० सं० १२९६ भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी को पट्टारूढ़ हुए थे । ये १४ वर्ष तक पट्टपर आसीन रहे। ये हूँव जातिक थे और अजमेरके निवासी थे । ___ पांचवें रलकीति लक्ष्मीसेनके गुरु हैं। छठे रत्नको ति सुरेन्द्रकीतिक शिष्य हैं । ये वि० सं० १७४५ में पट्टाधीश हुए। इनका गोधा गोत्र था और काला डहराके निवासी थे। सातवें रत्नकीति ज्ञानकोतिके शिष्य हैं। ये बलात्कारगण भानपुर शाखाके आचार्य हैं। इन्होंने वि० सं० १५३५ में नवगाँवमें दीक्षा ग्रहण
की थी। ___ "रत्नकीति हता तेणे सं० १५३५ वर्षे श्रीनोगामे दीक्षा लीधी ह्ती त्यारे रत्नकोतिने भट्टारक पदवी आपदानु स्थापन करी ।''
आठवें रत्नकोति ललितकीतिके शिष्य हैं। ललितकीतिक दो शिष्य थे धर्मकीर्ति और रत्नकौति । धर्मकीति वि० सं० १६४५ से १६८३ तक पट्टपर आसीन रहे हैं। एक यन्त्र अभिलेखमें ललितकीतिके पट्पर मण्डलाचार्य रत्म कीतिके आसीन होनेका संकेत प्राप्त होता है । यन्त्र अभिलेखमें बताया है--- __ "संवत् १६७५ पोह सुदि ३ भौमे श्रीमूलसंधे भ० ललितकीति तत्प मंडलाचार्य श्रीरलकीति सस्पट्टे आचार्य श्रोचन्द्रकीति उपदेशात् साहु रूपा भार्या पता...--||"
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"संवत् १६८१ वरष चैत्र सुदी ५ रवी श्रीमूलसंघे भ० श्रीललितकीति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीरत्नकीति तत्पट्टे आचार्य चंद्रकीर्तिस्तदुपदेशात् गोलापूर्वान्चये खागनाम गोत्रे सेठीभानु भार्या चन्दनसिरी|"
१. वही, लेखांक २७७ ।
२. ऐतिहासिक पत्र, जन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, पृ. ११३ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५३९, ५४० ।
भद्रबाहुचरितमें ग्रन्थरचयिताने जो अपनी प्रशस्ति अंकित की है, उसमें अपने मुरुका नाम ललितकीर्ति बताया है। प्रशस्तिमें लिखा है-प्रतिवादीरूपी गजराजके मदको नष्ट करनेके लिए केसरीकी उपमासे युक्त है, जो शीलपीयूष का जलधि है और जिसने उज्ज्वल कीतिसुन्दरीका आलिंगन किया है, उन्हीं अनन्तकीति आचार्यके विनेय और अपने शिक्षागुरु श्री ललितकीति मुनिराज का ध्यान कर मैंने इस निर्दोष चरितग्रन्थका संकलन किया है ।
वादीमेन्द्रमदप्रमर्दनहरेः शीलामृताम्भोनिधेः
शिष्यं श्रीमदनन्तकीतिगणिनः सत्कोत्तिकान्ताजुषः ।
स्मृत्वा श्रीललितादिकीर्तिमुनिपं शिक्षागुरूं सद्गुणं
चक्र चारुचरित्रमेतदन रलादिनन्दी मुनिः ॥
विचार करनेपर भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्नकीर्ति पूर्वोक्त सभी रत्न कीर्तियोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं, क्योंकि रमनन्दी या रत्नकीर्तिके गुरु ललित कीति थे और उनके दादागुरु अनन्तकीर्ति थे। बलात्कारगण जेरहट शाखामें रत्नकीतिके गुरु ललितकीर्ति तो अवश्य उपलब्ध होते हैं, पर दादागुरु अनन्त कीर्ति न होकर यश-कीर्ति हैं। अतः ग्रन्थको प्रशस्तिके साथ उसका समन्वय घटित नहीं होता है । अतएव अनन्तकोतिक प्रशिष्य और लालतकार्तिक शिष्य रलनन्दी या रत्नकीर्ति कोई भिन्न व्यक्ति हैं।
भद्रबाहुचरितमें उसके रचनाकालका उल्लेख नहीं है, पर ग्रन्थमें लुका मतकी समीक्षा की गयी है । इस समीक्षा-सन्दर्भमें बताया है
मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते ।
दशपञ्चशतेऽब्दानामसीते शृणुताऽपरम् ।।
सुशामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः ।
देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजिनिरे ।
अर्थात् महाराज विक्रमकी मृत्युके पश्चात् १५२७ वर्ष बीत जानेपर गुज रात देशके अपहिल नगरमें कुलम्बीवंशीय एक महामानी लुका नामक व्यक्ति हुआ | इसने लुकामत-इढ़ियामतका प्रादुर्भाव किया । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार वि० सं०१५२७ के पश्चात हुआ है। तभी उसने इस ग्रन्थमें
१. भद्रबाहु चरित्र, प्रकाशक मूलचन्छ किसनदास काहिया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय,
गांधी चौक, सूरत, श्लोक १७५ ।
२. श्रीभद्रबाहुचरित, सर्ग ४, बलोक १५७-५८ ।
लुकामतकी समीक्षा की है। इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्न नन्दीका समय विक्रमको १६वीं शतीका उत्तरार्द्ध है।
रत्ननन्दी या रलकीर्तिकी एक ही रचना उपलब्ध है— भद्रबाहुचरित । इसमें चार परिच्छेद या सर्ग हैं और भद्रबाहुका जीबनवृत्त वर्णित है । प्रथम परिच्छेद में १२५ पश्य हैं और इसमें भद्रबाहुके बाल्यकाल, शिक्षा, पाण्डित्य, वाद-विवाद शक्ति आदिका वर्णन किया गया है। बताया गया है कि गोबर्धनाचार्य विहार करते हुए पुण्ड्रवर्द्धन देशके कोट्टपुर नगरमें पधारे, वहाँ सोम शर्म नामक द्विज के पुत्र भद्रबाहुको एकके ऊपर एक गोली रखकर, इस प्रकार धतुर्दश गोलियाँ चढ़ाते हुए देखा और अपने ज्ञानबलसे उसे भावी श्रुतकेवली जानकर आचार्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने द्विजकुमारसे उसका परिचय पूछा और वे उसके माता-पिताके पास पहुंचे। माता सोमश्री और पिता सर्व मुनिराजको अपने यहाँ आया हुआ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें आसन देकर प्रार्थना को कि प्रभो ! अपने आनेका कारण बतलाइये । गोबर्द्धनाचार्यने उत्तर दिया, भद्र ! यह तुम्हारा पुत्र भद्रबाहु समस्त विद्या में पारंगत होगा; अतएव मैं इसे अपने साथ शिक्षाप्राप्ति के लिए ले जाना चाहता हूँ। आचार्य के वचन सुनकर सोम शम बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उनको अपने पुत्रको सौंप दिया। गोबर्द्धना चार्य भद्रबाहुको अपने साथ ले गये और उसे ब्याकरण, साहित्य, न्याय, सिद्धान्त आदि विषयोंका अध्ययन कराया। भद्रबाहुने गोबर्द्धनाचार्यसे समस्त शास्त्रोंका अध्ययन किया। विद्या समाप्त कर वे गुरुके आदेशसे अपने घर लौट आये। तदनन्तर संसारमें जैनधर्मके उद्योतकी इच्छासे उन्होंने परिभ्रमण किया और राजा पपघरको सभामें अनेक विद्वानोंको पराजित कर जैनधर्मका प्रभाव स्था पित किया । भद्रबाहुके तेजसे प्रभावित होकर राजा पमधर भी जैन हो गया। इस प्रकार भद्रबाहुने अनेक स्थानों में अपनी विद्याका महत्व प्रदर्शित किया | कुछ समयके पश्चात् भद्रबाहुको सांसारिक सुख नीरस प्रतीत होने लगे । अतएव वह अपने माता-पितासे आदेश प्राप्त कर गोवद्धनाचार्यको शरणमें गया और प्राथना कि प्रभो! कर्मोको नाश करनेवाली पवित्र दीक्षा मुझे दीजिये । गोबर्द्धना चार्यने भद्रबाहुको निग्रन्थ-दीक्षा प्रदान की । कुछ दिनोंके पश्चात् गोबर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहुको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया ।
द्वितीय परिच्छेदमें बताया है कि गोबर्द्धनाचार्यने चार प्रकारके आहारके परित्यागपूर्वक चारों प्रकारकी आराधनाओंको ग्रहण किया । कुछ समय पश्चात् समाधिपूर्वक उन्होंने शरीरका त्याग किया । भद्रबाहु अपने संघको लेकर विहार
करते हा उज्जयिनीमें पधारे । इस नगरीमें उस समय चन्द्रगुप्त राजा अपनी चन्द्रश्री महिपोके साथ निवास कर रहा था ! उसने रात्रिके पिछले भागमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल जानने के लिए वह आकुलित था । जब उसे भगवाहुके ससंघ पधारनेका समाचार प्राप्त हुआ तो वह आचार्यके संघका दर्शन करने गया और वहीं पर अपने स्वप्नोंका फल उनसे जाना। स्वप्नोंका फल अवगत करते ही चन्द्रगुप्तको विरक्ति हो गयी और उसने भद्रबाहु गुरुसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
एक दिन आचार्य भद्रबाहु जिनदाम सेठचे घरपर आहार करनेके लिए पधारे। उनके यहाँ एक निर्जन कोष्टमें साठ दिनकी आयुवाला एक बालक पालने में झूल रहा था, वह मुनिराजको देखकर कहने लगा-जाओ, जाओ। बालकके अद्भुत वचन सुनकर मुनिराजने पूछा-वत्स । कितने वर्ष तक? बालकने कहा १२ वर्षपर्यन्त । बालकके इन वचनोंसे मुनिराजने समझा कि मालवदेवामें १२ वर्षपर्यन्त भीषण दुभिक्ष पहेगा। अत: वे अन्तराय समझकर अपने स्थानपर वापस लौट आये। उन्होंने संघके समस्त मुनियों को एकत्र कर कहा कि अब इस देशमें रहना उचित नहीं है, अतएव दक्षिण भारतकी ओर प्रस्थान करना चाहिये वहींपर हमारी चर्या सम्पन्न हो सकेगी। रामल्य, स्थूला चार्य और स्थूलभद्रादि साधुओको छोड़ शेष सभी साधु-संघ दक्षिणको और विहार कर गया।
तृतीय परिच्छेदमें बताया है कि भद्रबाहुस्वामी विहार करते हुए किसी सधन अटवीमें पहुँचे। वहां उन्हें आकाशवाणी सुनायी पड़ी, जिससे उन्होंने समझा कि अब उनकी आयु बहुत कम शेष रह गयी है। अतएव उन्होंने विशाखाचार्यको संघका माचार्य नियत किया और स्वयं वहींपर शेलकन्दरामें संन्यास ग्रहण कर लिया। चन्द्रगुप्त मुनि आचार्य भद्रबाहुकी सेवाके लिए वहीं पर रह गये और शेष संघ विशाखाचार्यको अध्यक्षतामें दक्षिणकी ओर गया।
चन्द्रगुप्त मुनिकी चर्या वहीं पर वन-देवताओं द्वारा सम्पादित होने लगी। ___ चतुर्थ परिच्छेदमें विशाखाचार्यका संघ मालबदेशमैं लौट आता है। और रामल्य, स्थूलभद्रग तथा स्थूलाचार्य शिथिलाचार्य बनकर नये सम्प्रदायका प्रचार करते हैं । इस परिच्छेदमें अफालक सम्प्रदाय, श्वेताम्बरमत,लकामत आदिकी समीक्षा की गयी है ।
इस प्रकार इस काव्यमें पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित भद्रबाहके चरित्तको निबद्ध किया है। रत्ननन्दीने स्वयं स्वीकार किया है कि मैं गुरुओंसे प्राप्त इस भद्रबाहुचरितको लिखता हूँ
शक्तया होनोऽपि वक्ष्येऽहं गुरुभक्तया प्रणोदितः ।
श्रीभद्रबाहुचरित यथा ज्ञातं गुरूक्तित्तः ॥
रत्ननन्दीका यह ग्रन्थ पुराणशैलीमें लिखा गया है, जिससे अध्येताओंका मन सहज रूपमें रम जाता है। चन्द्रगुप्त और भद्रबाहुके इतिहास प्रसिद्ध आल्यानको इस काम में स्थान किया गया है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक ललितकिर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री रात्नकीर्ती या रात्ननंदी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Ratnakirti/Ratnanandi16ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री रत्नकीर्ति/रत्ननंदी 16वीं शताब्दी
आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Lalitkirti
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 11-June- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-June- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
जैन साहित्यमें रत्नकीति नामके आठ आचार्य उपलब्ध हैं। एक रलकीर्ति अभयनन्दीके शिष्य हैं। इनका समय वि० को १७वीं शती है। ये बलात्कारगण सूरत शाखाके आचार्य थे । तीर्थङ्कर महावीरके निम्नलिखित मूर्तिलेखसे इनका संक्षिप्त परिचय प्राप्त होता है
"सं. १६६२ वर्षे बैसाख वदो २ शुभदिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बला कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री अभयचन्द्रदेवाः तत्प? भ० श्री अभय नन्द तच्छिष्य आचार्यश्रीरलकीति तस्य शिष्याणी बाई वीरमती नित्यं प्रणमति श्रीमहावीरम"। इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि मूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कार गण कुन्दकुन्दाचार्यान्वयमें रत्नकीर्ति हुए हैं। इनके मुरुका नाम अभयनन्दि और दादागुरुका नाम अभयचन्द्र है।
दूसरे रनकीति जिनचन्द्रके शिष्य हैं। बलात्कारगण नागौर शाखाका आरंभ भट्टारक रत्नकोतिसे होता है । ये जिनचन्द्रके शिष्य थे। इनका पट्टा भिषेक वि० सं० १५८५ श्रावण शुक्ला पञ्चमीको हुआ था। तथा आप २१ वर्षों तक पट्टपर आसीन रहे । पट्टावलीमें बताया है---
१. सं. मा, लेखांक, ५२९।।
२. भट्टारक सम्प्रदाय, सेखांक ५२२ ।
"संवत् १५८१ श्रावण सुदि ५ भ० रत्नकोतिजी गृहस्थ वर्ष ९, दीक्षा वर्ष ३१, पट्ट वर्ष २१ मास ८ दिवस १३, अन्तर दिवस ५ सर्व वर्ष ६१ मास ८ दिवस १८ पट्ट दिल्ली।"
तीसरे रत्नकोति भट्टारक देवेन्द्रकीतिके शिष्य हैं। इनका समय विक्रम संवत् १९५३ के पूर्व है, क्योंकि रत्नकोतिका स्वर्गवास अचलपुरमें वि० सं० १९५३में हो चुका था।
चौथे रस्नकीति धर्मचन्द्रके शिष्य है। भट्टारक सम्प्रदाय ग्नन्ध में धर्मचन्द्रका भट्टारक काल वि० सं० १२७१-१२९६ और भट्टारक रत्नकीतिका वि सं० १२१६-१३१० माना है। रलकोति वि० सं० १२९६ भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी को पट्टारूढ़ हुए थे । ये १४ वर्ष तक पट्टपर आसीन रहे। ये हूँव जातिक थे और अजमेरके निवासी थे । ___ पांचवें रलकीति लक्ष्मीसेनके गुरु हैं। छठे रत्नको ति सुरेन्द्रकीतिक शिष्य हैं । ये वि० सं० १७४५ में पट्टाधीश हुए। इनका गोधा गोत्र था और काला डहराके निवासी थे। सातवें रत्नकीति ज्ञानकोतिके शिष्य हैं। ये बलात्कारगण भानपुर शाखाके आचार्य हैं। इन्होंने वि० सं० १५३५ में नवगाँवमें दीक्षा ग्रहण
की थी। ___ "रत्नकीति हता तेणे सं० १५३५ वर्षे श्रीनोगामे दीक्षा लीधी ह्ती त्यारे रत्नकोतिने भट्टारक पदवी आपदानु स्थापन करी ।''
आठवें रत्नकोति ललितकीतिके शिष्य हैं। ललितकीतिक दो शिष्य थे धर्मकीर्ति और रत्नकौति । धर्मकीति वि० सं० १६४५ से १६८३ तक पट्टपर आसीन रहे हैं। एक यन्त्र अभिलेखमें ललितकीतिके पट्पर मण्डलाचार्य रत्म कीतिके आसीन होनेका संकेत प्राप्त होता है । यन्त्र अभिलेखमें बताया है--- __ "संवत् १६७५ पोह सुदि ३ भौमे श्रीमूलसंधे भ० ललितकीति तत्प मंडलाचार्य श्रीरलकीति सस्पट्टे आचार्य श्रोचन्द्रकीति उपदेशात् साहु रूपा भार्या पता...--||"
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"संवत् १६८१ वरष चैत्र सुदी ५ रवी श्रीमूलसंघे भ० श्रीललितकीति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीरत्नकीति तत्पट्टे आचार्य चंद्रकीर्तिस्तदुपदेशात् गोलापूर्वान्चये खागनाम गोत्रे सेठीभानु भार्या चन्दनसिरी|"
१. वही, लेखांक २७७ ।
२. ऐतिहासिक पत्र, जन सिद्धान्त भास्कर, भाग १३, पृ. ११३ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ५३९, ५४० ।
भद्रबाहुचरितमें ग्रन्थरचयिताने जो अपनी प्रशस्ति अंकित की है, उसमें अपने मुरुका नाम ललितकीर्ति बताया है। प्रशस्तिमें लिखा है-प्रतिवादीरूपी गजराजके मदको नष्ट करनेके लिए केसरीकी उपमासे युक्त है, जो शीलपीयूष का जलधि है और जिसने उज्ज्वल कीतिसुन्दरीका आलिंगन किया है, उन्हीं अनन्तकीति आचार्यके विनेय और अपने शिक्षागुरु श्री ललितकीति मुनिराज का ध्यान कर मैंने इस निर्दोष चरितग्रन्थका संकलन किया है ।
वादीमेन्द्रमदप्रमर्दनहरेः शीलामृताम्भोनिधेः
शिष्यं श्रीमदनन्तकीतिगणिनः सत्कोत्तिकान्ताजुषः ।
स्मृत्वा श्रीललितादिकीर्तिमुनिपं शिक्षागुरूं सद्गुणं
चक्र चारुचरित्रमेतदन रलादिनन्दी मुनिः ॥
विचार करनेपर भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्नकीर्ति पूर्वोक्त सभी रत्न कीर्तियोंसे भिन्न प्रतीत होते हैं, क्योंकि रमनन्दी या रत्नकीर्तिके गुरु ललित कीति थे और उनके दादागुरु अनन्तकीर्ति थे। बलात्कारगण जेरहट शाखामें रत्नकीतिके गुरु ललितकीर्ति तो अवश्य उपलब्ध होते हैं, पर दादागुरु अनन्त कीर्ति न होकर यश-कीर्ति हैं। अतः ग्रन्थको प्रशस्तिके साथ उसका समन्वय घटित नहीं होता है । अतएव अनन्तकोतिक प्रशिष्य और लालतकार्तिक शिष्य रलनन्दी या रत्नकीर्ति कोई भिन्न व्यक्ति हैं।
भद्रबाहुचरितमें उसके रचनाकालका उल्लेख नहीं है, पर ग्रन्थमें लुका मतकी समीक्षा की गयी है । इस समीक्षा-सन्दर्भमें बताया है
मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते ।
दशपञ्चशतेऽब्दानामसीते शृणुताऽपरम् ।।
सुशामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः ।
देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजिनिरे ।
अर्थात् महाराज विक्रमकी मृत्युके पश्चात् १५२७ वर्ष बीत जानेपर गुज रात देशके अपहिल नगरमें कुलम्बीवंशीय एक महामानी लुका नामक व्यक्ति हुआ | इसने लुकामत-इढ़ियामतका प्रादुर्भाव किया । इस उल्लेखसे यह स्पष्ट है कि ग्रन्थकार वि० सं०१५२७ के पश्चात हुआ है। तभी उसने इस ग्रन्थमें
१. भद्रबाहु चरित्र, प्रकाशक मूलचन्छ किसनदास काहिया, दिगम्बर जैन पुस्तकालय,
गांधी चौक, सूरत, श्लोक १७५ ।
२. श्रीभद्रबाहुचरित, सर्ग ४, बलोक १५७-५८ ।
लुकामतकी समीक्षा की है। इससे स्पष्ट है कि भद्रबाहुचरितके रचयिता रत्न नन्दीका समय विक्रमको १६वीं शतीका उत्तरार्द्ध है।
रत्ननन्दी या रलकीर्तिकी एक ही रचना उपलब्ध है— भद्रबाहुचरित । इसमें चार परिच्छेद या सर्ग हैं और भद्रबाहुका जीबनवृत्त वर्णित है । प्रथम परिच्छेद में १२५ पश्य हैं और इसमें भद्रबाहुके बाल्यकाल, शिक्षा, पाण्डित्य, वाद-विवाद शक्ति आदिका वर्णन किया गया है। बताया गया है कि गोबर्धनाचार्य विहार करते हुए पुण्ड्रवर्द्धन देशके कोट्टपुर नगरमें पधारे, वहाँ सोम शर्म नामक द्विज के पुत्र भद्रबाहुको एकके ऊपर एक गोली रखकर, इस प्रकार धतुर्दश गोलियाँ चढ़ाते हुए देखा और अपने ज्ञानबलसे उसे भावी श्रुतकेवली जानकर आचार्य बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने द्विजकुमारसे उसका परिचय पूछा और वे उसके माता-पिताके पास पहुंचे। माता सोमश्री और पिता सर्व मुनिराजको अपने यहाँ आया हुआ देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें आसन देकर प्रार्थना को कि प्रभो ! अपने आनेका कारण बतलाइये । गोबर्द्धनाचार्यने उत्तर दिया, भद्र ! यह तुम्हारा पुत्र भद्रबाहु समस्त विद्या में पारंगत होगा; अतएव मैं इसे अपने साथ शिक्षाप्राप्ति के लिए ले जाना चाहता हूँ। आचार्य के वचन सुनकर सोम शम बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उनको अपने पुत्रको सौंप दिया। गोबर्द्धना चार्य भद्रबाहुको अपने साथ ले गये और उसे ब्याकरण, साहित्य, न्याय, सिद्धान्त आदि विषयोंका अध्ययन कराया। भद्रबाहुने गोबर्द्धनाचार्यसे समस्त शास्त्रोंका अध्ययन किया। विद्या समाप्त कर वे गुरुके आदेशसे अपने घर लौट आये। तदनन्तर संसारमें जैनधर्मके उद्योतकी इच्छासे उन्होंने परिभ्रमण किया और राजा पपघरको सभामें अनेक विद्वानोंको पराजित कर जैनधर्मका प्रभाव स्था पित किया । भद्रबाहुके तेजसे प्रभावित होकर राजा पमधर भी जैन हो गया। इस प्रकार भद्रबाहुने अनेक स्थानों में अपनी विद्याका महत्व प्रदर्शित किया | कुछ समयके पश्चात् भद्रबाहुको सांसारिक सुख नीरस प्रतीत होने लगे । अतएव वह अपने माता-पितासे आदेश प्राप्त कर गोवद्धनाचार्यको शरणमें गया और प्राथना कि प्रभो! कर्मोको नाश करनेवाली पवित्र दीक्षा मुझे दीजिये । गोबर्द्धना चार्यने भद्रबाहुको निग्रन्थ-दीक्षा प्रदान की । कुछ दिनोंके पश्चात् गोबर्द्धनाचार्य ने भद्रबाहुको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया ।
द्वितीय परिच्छेदमें बताया है कि गोबर्द्धनाचार्यने चार प्रकारके आहारके परित्यागपूर्वक चारों प्रकारकी आराधनाओंको ग्रहण किया । कुछ समय पश्चात् समाधिपूर्वक उन्होंने शरीरका त्याग किया । भद्रबाहु अपने संघको लेकर विहार
करते हा उज्जयिनीमें पधारे । इस नगरीमें उस समय चन्द्रगुप्त राजा अपनी चन्द्रश्री महिपोके साथ निवास कर रहा था ! उसने रात्रिके पिछले भागमें १६ स्वप्न देखे और इन स्वप्नोंका फल जानने के लिए वह आकुलित था । जब उसे भगवाहुके ससंघ पधारनेका समाचार प्राप्त हुआ तो वह आचार्यके संघका दर्शन करने गया और वहीं पर अपने स्वप्नोंका फल उनसे जाना। स्वप्नोंका फल अवगत करते ही चन्द्रगुप्तको विरक्ति हो गयी और उसने भद्रबाहु गुरुसे जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
एक दिन आचार्य भद्रबाहु जिनदाम सेठचे घरपर आहार करनेके लिए पधारे। उनके यहाँ एक निर्जन कोष्टमें साठ दिनकी आयुवाला एक बालक पालने में झूल रहा था, वह मुनिराजको देखकर कहने लगा-जाओ, जाओ। बालकके अद्भुत वचन सुनकर मुनिराजने पूछा-वत्स । कितने वर्ष तक? बालकने कहा १२ वर्षपर्यन्त । बालकके इन वचनोंसे मुनिराजने समझा कि मालवदेवामें १२ वर्षपर्यन्त भीषण दुभिक्ष पहेगा। अत: वे अन्तराय समझकर अपने स्थानपर वापस लौट आये। उन्होंने संघके समस्त मुनियों को एकत्र कर कहा कि अब इस देशमें रहना उचित नहीं है, अतएव दक्षिण भारतकी ओर प्रस्थान करना चाहिये वहींपर हमारी चर्या सम्पन्न हो सकेगी। रामल्य, स्थूला चार्य और स्थूलभद्रादि साधुओको छोड़ शेष सभी साधु-संघ दक्षिणको और विहार कर गया।
तृतीय परिच्छेदमें बताया है कि भद्रबाहुस्वामी विहार करते हुए किसी सधन अटवीमें पहुँचे। वहां उन्हें आकाशवाणी सुनायी पड़ी, जिससे उन्होंने समझा कि अब उनकी आयु बहुत कम शेष रह गयी है। अतएव उन्होंने विशाखाचार्यको संघका माचार्य नियत किया और स्वयं वहींपर शेलकन्दरामें संन्यास ग्रहण कर लिया। चन्द्रगुप्त मुनि आचार्य भद्रबाहुकी सेवाके लिए वहीं पर रह गये और शेष संघ विशाखाचार्यको अध्यक्षतामें दक्षिणकी ओर गया।
चन्द्रगुप्त मुनिकी चर्या वहीं पर वन-देवताओं द्वारा सम्पादित होने लगी। ___ चतुर्थ परिच्छेदमें विशाखाचार्यका संघ मालबदेशमैं लौट आता है। और रामल्य, स्थूलभद्रग तथा स्थूलाचार्य शिथिलाचार्य बनकर नये सम्प्रदायका प्रचार करते हैं । इस परिच्छेदमें अफालक सम्प्रदाय, श्वेताम्बरमत,लकामत आदिकी समीक्षा की गयी है ।
इस प्रकार इस काव्यमें पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित भद्रबाहके चरित्तको निबद्ध किया है। रत्ननन्दीने स्वयं स्वीकार किया है कि मैं गुरुओंसे प्राप्त इस भद्रबाहुचरितको लिखता हूँ
शक्तया होनोऽपि वक्ष्येऽहं गुरुभक्तया प्रणोदितः ।
श्रीभद्रबाहुचरित यथा ज्ञातं गुरूक्तित्तः ॥
रत्ननन्दीका यह ग्रन्थ पुराणशैलीमें लिखा गया है, जिससे अध्येताओंका मन सहज रूपमें रम जाता है। चन्द्रगुप्त और भद्रबाहुके इतिहास प्रसिद्ध आल्यानको इस काम में स्थान किया गया है।
गुरु | आचार्य श्री भट्टारक ललितकिर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री रात्नकीर्ती या रात्ननंदी |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Ratnakirti / Ratnanandi 16th Century
आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Lalitkirti
आचार्य श्री भट्टारक ललितकीर्ति Aacharya Shri Bhattarak Lalitkirti
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 11-June- 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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