हैशटैग
#Ravichandra13ThCentury
आचार्य रविचन्द्र अपनेको मुनीन्द्र कहते हैं । उनका निवासस्थान कर्नाटक प्रान्तके अन्तर्गत 'पनसोज' नामका स्थान है। कर्नाटकके शिलालखोंमें रविचन्द्र का नाम कई स्थानोपर आया है। अभिलेखोंसे इनका समय ई. सन्की दशम शताब्दी सिद्ध होता है। धारवाड़के सन् १९६२ ई० के एक अभिलेखमें रविचन्द्र मुनिका उल्लेष आया है। तृतीय रवीचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभि लेख सं०.३ में आया है। इस अभिलेखके अनुसार सन् १९६०में वे वर्तमान थे। एक अन्य रविचन्द्रका उल्लेख मासोपवासी सैद्धान्तिकके रूपमें प्राप्त होता है। इस अभिलेख में माघमन्दिकी गुरुपरम्परा दी गयी है। बताया है कि नन्दिसंघ बलात्कारगणके वतमान मुमि होयसल राजाओंके गुरु थे। श्रीधर विद्यपद्म मन्दि विद्यवासुपूज्य सैद्धान्तिशुभचन्द्र-भट्टारक-अभयनन्दिभट्टारक-अरुणदि सिद्धान्ति, देवचन्द्र अष्टोपवासि कनक चन्द्र, नयकीति, मासोपवासि रविचन्द्र, हरियनन्दि, श्रुतकोति विद्य, वीरनन्दिसिद्धान्ति, गण्डविमुक्त, नेमिचन्द्रभट्टारक,
१. परमार्थप्रकाश, टी पृ० ७८ |
२. बृहदयरांग्रह, गाथा ५८, पृ० २४० ।
३. Epigraphic Caricatica, XII, Gulbi Taluk, NO 57, Journal of
the Bombay Branch of the R. A. S, X, PP. 171-2, 20+ t, डा०ए० एन. उपाध्ये, आराधनासमुच्चय, योगसारसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, सन्
१९६७, पृ०७।
४. दक्षिणभारतीय एपिग्राफिकाना वार्षिक प्रतिवेदन, सन् १९३४-३५, पृ.अभि
लेखसंख्या ४३२ ।
गणचन्द्र, जिनयन्द्र, वर्धमान, धोबर, यारुम, विद्यानन्दस्वामि, कटको पाध्याय श्रुतकीर्ति, वादिविश्वासघातक मलयालपाण्डबदेव, नेमिचन्द्र मध्याह्न कल्पवृक्ष वासुपूज्य'। इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि माघ वद्रको गुरुपरम्पगमें मासोपवासि रविचन्द्र हुए हैं। इन रविचंद्रका समय ई. सन्को १३ वीं शती सिद्ध होता है। 'आराधनासारसमुच्चय'के रचयिता रविचन्द्र उपयुक्त रविचन्द्र ही हैं या इनसे भिन्न हैं, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है। ग्रन्थान्तमें आचायने अपना परिचय एक ही पद्यमें दिया है
श्रीरविचन्द्रमुनीन्द्रः पनसोगेग्रामवासिभिग्रंन्यः ।
रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्धन्मनोहारी ।।४२।।
इस परिचयसे इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य दक्षिणभारतके निवासी थे और इन्होंने जैन आगमका पाण्डित्य प्राप्त किया था।
आराधनासारमें रविचन्द्रने पूर्वाचार्योंके अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणोंसे इनके समयके सम्बन्ध में अनुमान लगाया जा सकता है। इन्होंने रामसेन द्वारा विरचित तत्त्वानुशासनका निम्नलिखित पद्य आराधनासार समुच्चयमें 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया है
तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु ।
शुभाशुभमलाभावाद्विशुद्धं शुक्लमभ्यदुः ॥२०४।।
अर्थात् अपूर्वकरण आदि स्थानोंमें जो उदासी-अनासक्तिमय तत्त्वज्ञान होता है, वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके मलके नाश होने के कारण शुक्ल ध्यान कहा गया है। श्री पण्डित जुगलकिशोरजी मुस्तारने रामसनका स्थिति काल दशम शतीका मध्य माना है। अतएव रविचन्द्रका समय रामसेनके बाद
आता है।
'आराधनासारसमुच्चय'का उल्लेख शुभचन्द्रने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृतव्याख्यामें किया है। शुभचन्द्रने अपनी यह व्याख्या ई० सन् १५५६में पूर्ण की है। अतएव यह निश्चित है कि रविचन्द्रकी ख्याति उस समय तक व्याप्त
• हो चुकी थी । अतएव उनका समय ई० सन् १५५६ के पूर्व अवश्य है । माधचन्द्र की गुरुपरम्पराके अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आराधनासारसमुच्चय के रचयिता ह.लेबीडके कन्नड़ लेख में वर्णित रविचन्द्र ही हैं। यह अभिलेख ई सन् १२०५ का है । इसी प्रकार १३ वी शत्तोक 'कोलोरे के अभिलेखमें भी मासो
१. जेनशिलालेखसंग्रह, भाग ४ ।
२. तत्वानुशासन, पय ३४२ ।
पवासी रविचन्द्र सिद्धान्तदेवका उल्लेख है। अतएव इनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी का अन्तिम पाद या १३वीं शतीका प्रथम पाद संभव है ।
रविचन्द्रका आराधनासारसमुच्चय संस्कृतपद्यों में लिखा गया उपलब्ध है । इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका वर्णन किया गया है । सम्यकचारित्र आराधनामें अध्रुव, अशरण, एकात्य, अन्यत्व, संसार, लोक, आनष, संघर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ इन द्वादश अनुप्रेक्षाओंका भी वर्णन आया है । तपाराषनाका स्वरूपविश्लेषण करनेके पश्चात् आराध्य, आराधक, आराधनोपाय, आराधनाफलका भी चित्रण किया गया है । इस ग्रन्थमें दो प्राकृत और पांच संस्कृतके सद्धरण भी आये हैं। भाषा प्रांजल है । आचार्यने विषयका प्रतिपादन बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। अनेक पद्योंपर कुन्दकुन्दका प्रभाव दिखलायी पड़ता है। सम्यग्दर्शनका महत्व बतलाते हुए लिखा है
वृक्षाः बापा नाय च पथः हाधिष्ठानम् ।
विज्ञानचरिततपसां तथा हि सम्यक्त्वमाधारः ॥३८॥
दर्शननष्टो नष्टो न तु नष्टो भवति चरणतो नष्टः ।
दर्शनमपरित्यजतां परिपतनं नास्ति संसारे ।।३९।।
त्रैलोक्यस्य च लाभाद्दर्शनलाभो भवेत्तरी श्रेष्ठः ।
लब्धमपि त्रैलोक्यं परिमितकाले यतश्च्यवते ॥४०॥
निर्वाणराज्यलक्ष्म्याः सम्यक्त्वं कठिकामत: प्राहुः ।
सम्यग्दर्शनमेव निमित्तमनन्ताव्यययसुखस्य ॥४१॥
इन पद्योंपर कुन्दकुन्दको निम्नलिखित गाथाओंका स्पष्ट प्रभाव मालम पड़ता है
दसणमूलो धम्मो उवइड्रो जिणवरेहि सिस्साणं ।
तं सोऊण सकपणे सणहीणो ण बंदिब्बो ॥२॥
दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णस्थि णिब्वाणं ।
सियति चरियभद्रा दंसणभट्टा ण सिमति ।। ३ ।।
सम्मत्तरवणभट्टा जाणता बहुविहाई सत्याई ।
आराहणाविरहिया भमति तत्येव तत्व ।। ४ ॥
सम्मत्तविरहियाणं सुद्ध वि उग्गं तवं चरंताणं ।
ण लहंति बोहिलाई अवि बाससहस्सकोडीहि ॥ ५ ॥
१. सम्पादक हॉ० ए. एन. उपाध्ये, बारापनासारसमुन्वय ११३८-४१ ।
२. सणापाहर, गाथा २५ ।
रविचन्द्रने यह समस्त ग्रन्थ आर्याछन्दोंमें लिखा है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री रविचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Ravichandra13ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री रविचन्द्र 13वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 23-May- 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
आचार्य रविचन्द्र अपनेको मुनीन्द्र कहते हैं । उनका निवासस्थान कर्नाटक प्रान्तके अन्तर्गत 'पनसोज' नामका स्थान है। कर्नाटकके शिलालखोंमें रविचन्द्र का नाम कई स्थानोपर आया है। अभिलेखोंसे इनका समय ई. सन्की दशम शताब्दी सिद्ध होता है। धारवाड़के सन् १९६२ ई० के एक अभिलेखमें रविचन्द्र मुनिका उल्लेष आया है। तृतीय रवीचन्द्रका उल्लेख श्रवणबेलगोलाके अभि लेख सं०.३ में आया है। इस अभिलेखके अनुसार सन् १९६०में वे वर्तमान थे। एक अन्य रविचन्द्रका उल्लेख मासोपवासी सैद्धान्तिकके रूपमें प्राप्त होता है। इस अभिलेख में माघमन्दिकी गुरुपरम्परा दी गयी है। बताया है कि नन्दिसंघ बलात्कारगणके वतमान मुमि होयसल राजाओंके गुरु थे। श्रीधर विद्यपद्म मन्दि विद्यवासुपूज्य सैद्धान्तिशुभचन्द्र-भट्टारक-अभयनन्दिभट्टारक-अरुणदि सिद्धान्ति, देवचन्द्र अष्टोपवासि कनक चन्द्र, नयकीति, मासोपवासि रविचन्द्र, हरियनन्दि, श्रुतकोति विद्य, वीरनन्दिसिद्धान्ति, गण्डविमुक्त, नेमिचन्द्रभट्टारक,
१. परमार्थप्रकाश, टी पृ० ७८ |
२. बृहदयरांग्रह, गाथा ५८, पृ० २४० ।
३. Epigraphic Caricatica, XII, Gulbi Taluk, NO 57, Journal of
the Bombay Branch of the R. A. S, X, PP. 171-2, 20+ t, डा०ए० एन. उपाध्ये, आराधनासमुच्चय, योगसारसंग्रह, भारतीय ज्ञानपीठ, सन्
१९६७, पृ०७।
४. दक्षिणभारतीय एपिग्राफिकाना वार्षिक प्रतिवेदन, सन् १९३४-३५, पृ.अभि
लेखसंख्या ४३२ ।
गणचन्द्र, जिनयन्द्र, वर्धमान, धोबर, यारुम, विद्यानन्दस्वामि, कटको पाध्याय श्रुतकीर्ति, वादिविश्वासघातक मलयालपाण्डबदेव, नेमिचन्द्र मध्याह्न कल्पवृक्ष वासुपूज्य'। इस अभिलेखसे स्पष्ट है कि माघ वद्रको गुरुपरम्पगमें मासोपवासि रविचन्द्र हुए हैं। इन रविचंद्रका समय ई. सन्को १३ वीं शती सिद्ध होता है। 'आराधनासारसमुच्चय'के रचयिता रविचन्द्र उपयुक्त रविचन्द्र ही हैं या इनसे भिन्न हैं, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता है। ग्रन्थान्तमें आचायने अपना परिचय एक ही पद्यमें दिया है
श्रीरविचन्द्रमुनीन्द्रः पनसोगेग्रामवासिभिग्रंन्यः ।
रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीणविद्धन्मनोहारी ।।४२।।
इस परिचयसे इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य दक्षिणभारतके निवासी थे और इन्होंने जैन आगमका पाण्डित्य प्राप्त किया था।
आराधनासारमें रविचन्द्रने पूर्वाचार्योंके अनेक उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। इन उद्धरणोंसे इनके समयके सम्बन्ध में अनुमान लगाया जा सकता है। इन्होंने रामसेन द्वारा विरचित तत्त्वानुशासनका निम्नलिखित पद्य आराधनासार समुच्चयमें 'उक्तञ्च' कहकर उद्धृत किया है
तत्त्वज्ञानमुदासीनमपूर्वकरणादिषु ।
शुभाशुभमलाभावाद्विशुद्धं शुक्लमभ्यदुः ॥२०४।।
अर्थात् अपूर्वकरण आदि स्थानोंमें जो उदासी-अनासक्तिमय तत्त्वज्ञान होता है, वह शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके मलके नाश होने के कारण शुक्ल ध्यान कहा गया है। श्री पण्डित जुगलकिशोरजी मुस्तारने रामसनका स्थिति काल दशम शतीका मध्य माना है। अतएव रविचन्द्रका समय रामसेनके बाद
आता है।
'आराधनासारसमुच्चय'का उल्लेख शुभचन्द्रने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृतव्याख्यामें किया है। शुभचन्द्रने अपनी यह व्याख्या ई० सन् १५५६में पूर्ण की है। अतएव यह निश्चित है कि रविचन्द्रकी ख्याति उस समय तक व्याप्त
• हो चुकी थी । अतएव उनका समय ई० सन् १५५६ के पूर्व अवश्य है । माधचन्द्र की गुरुपरम्पराके अवलोकनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आराधनासारसमुच्चय के रचयिता ह.लेबीडके कन्नड़ लेख में वर्णित रविचन्द्र ही हैं। यह अभिलेख ई सन् १२०५ का है । इसी प्रकार १३ वी शत्तोक 'कोलोरे के अभिलेखमें भी मासो
१. जेनशिलालेखसंग्रह, भाग ४ ।
२. तत्वानुशासन, पय ३४२ ।
पवासी रविचन्द्र सिद्धान्तदेवका उल्लेख है। अतएव इनका समय ई० सन्की १२वीं शताब्दी का अन्तिम पाद या १३वीं शतीका प्रथम पाद संभव है ।
रविचन्द्रका आराधनासारसमुच्चय संस्कृतपद्यों में लिखा गया उपलब्ध है । इस ग्रन्थमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और सम्यक्तप इन चारों आराधनाओंका वर्णन किया गया है । सम्यकचारित्र आराधनामें अध्रुव, अशरण, एकात्य, अन्यत्व, संसार, लोक, आनष, संघर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ इन द्वादश अनुप्रेक्षाओंका भी वर्णन आया है । तपाराषनाका स्वरूपविश्लेषण करनेके पश्चात् आराध्य, आराधक, आराधनोपाय, आराधनाफलका भी चित्रण किया गया है । इस ग्रन्थमें दो प्राकृत और पांच संस्कृतके सद्धरण भी आये हैं। भाषा प्रांजल है । आचार्यने विषयका प्रतिपादन बहुत ही सुन्दररूपमें किया है। अनेक पद्योंपर कुन्दकुन्दका प्रभाव दिखलायी पड़ता है। सम्यग्दर्शनका महत्व बतलाते हुए लिखा है
वृक्षाः बापा नाय च पथः हाधिष्ठानम् ।
विज्ञानचरिततपसां तथा हि सम्यक्त्वमाधारः ॥३८॥
दर्शननष्टो नष्टो न तु नष्टो भवति चरणतो नष्टः ।
दर्शनमपरित्यजतां परिपतनं नास्ति संसारे ।।३९।।
त्रैलोक्यस्य च लाभाद्दर्शनलाभो भवेत्तरी श्रेष्ठः ।
लब्धमपि त्रैलोक्यं परिमितकाले यतश्च्यवते ॥४०॥
निर्वाणराज्यलक्ष्म्याः सम्यक्त्वं कठिकामत: प्राहुः ।
सम्यग्दर्शनमेव निमित्तमनन्ताव्यययसुखस्य ॥४१॥
इन पद्योंपर कुन्दकुन्दको निम्नलिखित गाथाओंका स्पष्ट प्रभाव मालम पड़ता है
दसणमूलो धम्मो उवइड्रो जिणवरेहि सिस्साणं ।
तं सोऊण सकपणे सणहीणो ण बंदिब्बो ॥२॥
दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णस्थि णिब्वाणं ।
सियति चरियभद्रा दंसणभट्टा ण सिमति ।। ३ ।।
सम्मत्तरवणभट्टा जाणता बहुविहाई सत्याई ।
आराहणाविरहिया भमति तत्येव तत्व ।। ४ ॥
सम्मत्तविरहियाणं सुद्ध वि उग्गं तवं चरंताणं ।
ण लहंति बोहिलाई अवि बाससहस्सकोडीहि ॥ ५ ॥
१. सम्पादक हॉ० ए. एन. उपाध्ये, बारापनासारसमुन्वय ११३८-४१ ।
२. सणापाहर, गाथा २५ ।
रविचन्द्रने यह समस्त ग्रन्थ आर्याछन्दोंमें लिखा है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री रविचंद्र |
प्रास्ताविक
आचार्य केवल 'स्व'का उत्थान ही नहीं करते हैं, अपितु परम्पराले वाङ्मय और संस्कृतिकी रक्षा भी करते हैं । वे अपने चतुर्दिक फैले विश्वको केवल बाह्य नेत्रोंसे ही नहीं देखते, अपितु अन्तःचक्षुद्वारा उसके सौन्दर्य एवं वास्तविक रूपका अवलोकन करते हैं। जगत्के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिला कर धरोहरके रूपमें प्राप्त बाइ मयकी परम्पराका विकास और प्रसार करते हैं। यही कारण है कि आचार्य अपने दायित्वका निर्वाह करने के लिये अपनी मौलिक प्रतिभाका पूर्णतया उपयोग करते हैं। दायित्व निर्वाहकी भावना इतनी बलवती रहती है, जिससे कभी-कभी परम्पराका पोषण मात्र ही हो पाता है।
यह सत्य है कि वाङ्मय-निर्माणको प्रतिभा किसी भी जाति था समाजकी समान नहीं रहती है । बारम्भमें जो प्रतिभाएं अपना चमत्कार दिखलाती हैं,
Aacharya Shri Ravichandra 13 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 23-May- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Ravichandra13ThCentury
15000
#Ravichandra13ThCentury
Ravichandra13ThCentury
You cannot copy content of this page