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#ShaktayanPalyakirti9ThCentury
ये वैयाकरण शाकटायन बहुत प्राचीन आचार्य हैं, जिनके मतका उल्लेख
१. जिनदत्तचरित्र , माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, विक्रमाब्द १९७३ . पद्य १|८|
।
२. वहीं, पद्१|१७ ।
३. जिनदत्तचरित्र, माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पद् २|१२७|
पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायीमें किया है । ऋग्वेद और शुक्लयजुर्वेदके प्रातिशाख्यों में तथा यास्काचार्यके निरुक्तमें भी इनका निर्देश आया है। ये शाकटायन पाणिनीसे साढ़े छ: सौ वर्ष पूर्व हुए हैं, पर प्रस्तुत शाकटायन उक्त शाकटायनाचार्यसे भिन्न हैं । ये जैन आचार्य हैं और इन्होंने स्वोपज्ञ अमोघवृति सहित शाकटायन-शब्दानुशासनकी रचना की है। अमोघवृत्तिके आरम्भमें शाकटायन नामसे ही इनका निर्देश किया गया है । मंगलाचरणकी व्याख्या करते हुए ग्रन्थ प्रणयनके प्रतिज्ञावाक्यमें बताया है
"एवं कृतमङ्गलरक्षाविधान: परिपूर्णमल्पग्रंथं लघुपायं शब्दानुशासनं शास्त्र मिदं महाश्रमणसंघाधिपतिभगवानाचार्यः शाकटायन: प्रारभते, शब्दार्थज्ञान पूर्वकं च सन्मार्गानुष्ठानम्" ।
इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके रचयिता आचार्य शाकटायन हैं । शाकाटायन की चिन्तामणिटीका के रचयिता यक्षवर्मा ने भी शाकटायनको इस शब्दानुशासनका रचयिता माना है । उन्होंने लिखा है
"स्वस्ति श्रीसकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान् ।
महाश्चमणसंधाधिपतिर्य: शाकटायन: ||
"विघ्नप्रशमनार्थमहदेवतानमस्कारं परममङ्गलमारभ्य भगवानाचार्यः शाकटायनः शब्दानुगारानं शास्वमिदं प्रारभते ।"
शाकटायनका अन्य नाम पाल्यकीर्ति भी मिलता है। वादिराजसरिने अपने पाश्वनाथचरितमें इनका स्मरण पाल्यकालिके नामसे किया है
कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेर्महौजसः ।
श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान् कुरुते जनान् ।।'
अर्थात उस महातेजस्वी पाल्यकीर्ति की शक्तिका क्या वर्णन किया जाय, जिसका श्रीपद श्रवण ही लोगोंको शाब्दिक या वैयाकरण कर देता है। श्री नाथूरामजी प्रेमीका अभिमत है कि "श्रीवीरममृतं ज्योति:" आदिपदसे शाकटायन का प्रारम्भ होता है। इसी कारण वादिराजसूरिने श्रीपदको लक्ष्य करके उक्त
१ शाकटायन-व्याकरण, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, सन् १९७१, पृष्ठ १ |
२. जैन माहित्य और इतिहास, लेखक-नाथूराग प्रेमी, प्रकाशक हेमचन्द्र मोदी, ठि हिन्दी-ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग गिरगांव, बम्बई, प्रथम संस्करण
सन् १९४२, पृ० १५६, १५७ ।
३. श्रीपार्श्वनाथचरित, माणिकचन्द्र ग्रंथमाला , १ | र५ ।
निर्देश किया है। शुभचन्द्रने पार्श्वनाथचरित-पज्जिका लिखा है-"तस्य पाल्यालीत: महौजसः श्रीपदश्रवणं श्रिया उपलक्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणं आकर्णनम् ।" अर्थात् शुभचन्द्र पाल्यकीतिको शाकटायनसूत्रोंका रचयिता मानते हैं।
शाकटायन-प्रक्रियासहके मंगलाचरणमें जिनेश्वरको पाल्यकीर्ति और मुनीन्द्र विशेषण दिये गये हैं, जो श्लिष्ट हैं। एक अर्थक अनुसार जिनेश्वरको और दूसरे अर्थके अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्तिको नमस्कार किया गया है। अभयचन्द्र के इस मंगलाचरणसे शाकटायनसूत्रोंका रचयिता पाल्यकीर्ति सिद्ध होते हैं
मुनीन्द्रमभिवन्द्याह पाल्यकीति जिनेश्वरम् ।
मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रक्रियासंग्रह बने ।।
शाकटायन या पालयकीर्ति यापनीय सम्प्रदायके विद्वान थे । वि० संवतकी १३वीं शताब्दीके मलयगिरि नामक श्वेताम्बराचार्यने नन्दिसूत्रकी टीकामें उन्हें यापनीय-यत्तियोंका अग्रणी लिखा है--
"शाकटायनोऽपि यापनीयत्तिनामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनबृत्तावादी भगवतः स्तुतिमेवमाह-श्रीवीरममृत ज्योति स्वादि सर्ववेधसाम् । अत्र च न्यासकृतव्याख्या --सबंबेधसां सर्वज्ञानां सकलशास्त्रानुगतपरिज्ञानानां आदि प्रभव प्रथममुत्पत्तिकारणमिति ।"
पालयकीर्ति या शाकटायन श्वेताम्बरोंके समान स्त्रीमुक्ति और केवली कवलाहारको भी मानते हैं । यह मान्यता यापनीयसंघकी है ।
अमोघवृत्तिमें "उपसर्वगुप्त व्याख्यातारः" कहकर शाकदायनने सर्वगुप्त आचार्यको सबसे बड़ा व्याख्याता माना है और ये सर्वगुप्त वहीं जान पड़ते हैं, जिनके चरणोंके समीप बैठकर भगवती-आराधनाके कर्ता शिवायने सूत्र और अर्थको अच्छी तरह समझा था। शिवार्य यापनीय सम्प्रदायके आचार्य थे । अतएवं उनके गुरुको श्रेष्ठ व्याख्याता बतलाने वाले शाकटायन भी यापनीय होंगे। श्री प्रेमीजीने किसी आधारसे शाकटायनको 'श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य' लिखा है। चिन्तामणिटीकाके कर्ता यक्षवर्माने उन्हें "सकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान्" माना है। दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार वीर निर्वाण सं० ६८३ वर्षके पश्चात्
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५० ।
२. प्रक्रियासंग्रह मंगलाचरण ।
३. मन्दिसूत्र, पृ० २३ 1
केवलियों या एकदेशश्रुतकेवलियोंका विच्छेद हो गया है। अतएव उनका श्रुतकेवलिदेशीयरूपसे उल्लेख यापनीयसंघका घोतक है । शाकटायमने अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख नहीं किया है और न अपने गुरुका नाम ही दिया है । अमोघवर्षके पिता प्रभूतवर्ष या गोविन्दराज तृतीयका जो दानपत्र कदम्ब ( मैसूर ) में मिला है वह शक संवत् ७३५ का अर्थात् अमोघ बर्षके राजा होनेसे एक वर्ष पहले का है। उसमें अर्ककीर्ति मुनिको मान्यपुर ग्रामके शिलाग्रामजिनेन्द्रभवनके लिए एक गाँव दान करनेका उल्लेख है । अर्ककीर्ति यापनीयनन्दिसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगणके थे । अर्ककीर्तिके गुरुका नाम विजयकीर्ति और प्रगुरुका नाम श्रीकीर्ति था । बहुत सम्भव है कि पाल्यकीर्तिअमोघकीर्ति के शिष्य रहे हों। .
शाकटायनसूत्रपाठमें इन्द्र, सिद्धनन्दि और आर्यवज्र इन तीन पूर्वाचार्योके मसीका निर्देश पाया जाता है। इन तीनो आचार्यांमें इन्द्रका उल्लेख गोम्मट सार जीवकाण्ड संशयी मिथ्यादृष्टिके रूपमें आया है। सिद्धनन्दि भी यापनीयसंघके आचार्य प्रतीत होते हैं। तिलोयपण्णत्तिमें व्रजयशका नाम आता है। अतः सम्भव है कि आर्य व्रज दिगम्बराचार्य हों अथवा श्वेताम्बर कल्पसूत्र स्थविरावलीमें निर्दिष्ट अज्जवइरहों। तपागच्छकी पट्टाबलोके अनुसार इनकी गणना दशपूर्वधारियों में की गयी है। अतएव पाल्यकीर्ति शाकटायन यापनीय सम्प्रदायके आचार्य हैं और इनके गुरुका नाम सम्भवतः : अर्ककीर्ति रहा होगा ।
पाल्यकीर्ति शाकटायनके समय-निर्धारणके सम्बन्धमें विशेष मतभेद नहीं है। वादिराज द्वारा निर्देश होनेके कारण इनका समय ई० सन् १०२५ के पूर्व है।" शाकटायनने लिखा है-ख्यातेदृश्ये ॥४| ३| २०८॥ भूतेऽनद्यतने ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयोक्तुः सख्यदर्शने वर्तमानावासोलप्रत्ययो भवति । लिडपवादः । अरुण देवः पाण्ड्यम् । अदहदमोघवर्षोऽरातीन। ख्यात इति किम ? चकार कटं देवदत्तः । दृश्य इति किम् ? जघान कसं किल वासुदेवः । अनघतन इति किम् ? उदगा दादित्यः ।
अर्थात् जो घटना आँखोंके समक्ष घटित हुई हो अथवा लोकविज्ञात हो उसे प्रकट करनेके लिए धातुसे लङ् प्रत्यय होता है। यथा-अरुणदेवः पाण्ड्यम् देव-नृप तुंगदेव (अमोघवर्षका नामान्तर) ने पाण्ड्य नरेशको रोका तथा अदह दमोघवर्षोऽरातीन–अमोघवर्षने शत्रुओंको जला दिया। इन उदाहरणोंमें अमोघ
१, संस्कृत-काव्य के विकासमें जन कवियों का योगदान, डॉ ० नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय
ज्ञानपीठ, पृ० १७४।
वर्ष द्वारा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेकी घटनाका उल्लेख आया है । शकसंवत् ८३२ (ई० सन् ९१० ) के एक राष्ट्रकूट अभिलेखमें इसी प्रकारकी घटना का निर्देश किया है-भूपालान कण्टकाभान्-वेष्ट्रयित्वा ददाह-अर्थात् इस घटनाका भी वही तात्पर्य है कि सम्राट् अमोघवर्षने अपने से विपरीत हुए राजाओंको घेरा या जला दिया। अभिलेख अमोघवर्षसे पीछे का है। अतएब यहाँ परोक्षार्थके लिट्लकारका प्रयोग किया गया है ।
बाबुराके दानपत्र में, जो शक संवत् ७८९ ( ई० सन् ८६७ ) का लिखा हुआ है, इस घटनाका उल्लेख है। अमोघवर्ष शक संवत् ७३६ ( ई० सन् ८१४ ) में सिंहासनासीन हुआ था और यह दानपत्र शक संवत् ७८९. ! ई० सन् ८६७ ) का है । अतएव पाल्यकीर्ति समय अमोघवर्ष काराज्य काल है । 'अदहदमोघवर्षोऽरातीन्' उदाहरणसे अमोघवृत्तिके रचयिता पाल्यकीर्तिकी समकालीनता स्पष्ट है ।
मि० राईस साहबने चिदानन्द काँका मुनियंशाभ्युदयनामक कन्नड़काव्यसे एक प्रमाण दिया है। यह कवि मैसूरके चिक्कदेव राजाके समयमें ( ई० सन० १६७२-१७०४ ) हुआ है । बताया है.--.
"उस मुनिमें अपने बुद्धिरूप मन्दराचलसे श्रुतरूप समुद्रका मन्धन कर यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम अमृत निकाला । शाकटायनने उत्कृष्ट शब्दानु शासनको बना लेनेके बाद अमोधवृत्तिनामकी टीका, जिसे बड़ी शाकटायन कहते हैं, बनायी , जिसका परिमाण १८००० है । जगत्प्रसिद्धशाकटायन मुनि ने व्याकरणके सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बनाकर एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया। एक बार अबिद्धकरण सिद्धान्तचक्रवर्ती पदमनन्दिने मुनियोंके मध्य पूजित शाकटायनको मन्दरपर्वतके समान 'वीर ' विशेषणसे विभूषित किया ।" ___ गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमानने ई० सन् ११४० में शाकटायनका निर्देश किया है । अतएव शाकटायनका समय उससे पूर्व निश्चित है।
पालयकीर्ति या शाकटायनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध होती हैं
१. अमोघवृत्तिसहित शाकटायनशब्दानुशासन-
२. स्त्रीमुक्ति ।
३. केवलिमुक्ती ।
(१) शाकटायनका शब्दानुशासन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय चार पादों में विभक्त है। प्रथम अध्यायके प्रथम पादमें
१. एपि ग्राफिया एण्डिका, जिल्द १, पृ० ५४ ।
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५९ पर उद्घृत ।
१८१ सूत्र, द्वितीय पादमें २२३ सूत्र, तृतीय पादमें १९५ सूत्र और चतुर्थ पादमें १३२३ सूत्र हैं। द्वितीय अध्यायके प्रथम पादमें २२९, सूत्र, द्वितीय पादमें १७२ सूत्र, तृतीय पादमें ११३ सूत्र और चतुर्थ पादमें २३९ , सूत्र हैं । तृतीय अध्यायके प्रथम पादमें २०१ सूत्र , द्वितीय पादमें २२७ सूत्र , तृतीय पादमें १८९ सूत्र और चतुर्थ पादमें १४६ सूत्र हैं । चतुर्थ अध्यायके प्रथम पादमे २७१ सूत्र, द्वितीयपादमें २६१ सूत्र, तृतीयपादमें २८९ सत्र और चतुर्थ पादमें १८६ सूत्र हैं। इस प्रकार प्रथम अध्यायमे ७२२, द्वितीय अध्याय में ७५३, तृतीय अध्यायमें ७५५ और चतुर्थ अध्यायम १००७ सूत्र है। इन सूत्रोंको कुल संख्या ३,२३७ है । यह शब्दानुशासन अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। रचयिताकी अमोघवृत्तिके अतिरिक्त प्रभाचन्द्रका 'शाकटायन-न्यास', यक्षवर्माकी "चिन्तामणिटीका', अजितसेनाचार्यको 'मणि प्रकाशिकाटीका', अभयचन्द्राचार्यकी प्रक्रियाटीका', भावसेन विद्यकी 'शाकटायनटीका', एवं दयापाल मुनिको 'रूपसिद्धि' टीकाएँ पायी जाती है ।
शाकटायनव्याकरण प्रत्याहारशैली में लिखा गया है । इसके प्रत्याहारसूत्रोंकी यह विशेषता है कि इसमें 'लण्' सूत्रको स्थान नहीं दिया है और 'ल' वर्ण को पूर्व सूत्र में ही रख दिया गया है । इसमें सभी वर्ण के प्रथमादि अक्षरों के क्रम से अलग अलग प्रत्याहार सुत्र दिये गये हैं। केवल वर्गोंके प्रथम वर्णोंके के ग्रहणके लिये दो सूत्र है-'पाणिनीयवर्णसमाम्नाय' की भाँति शाकटायनव्याकरण मे भी हकार दो बार आया है। पाणिनीयब्याकरणमें ४१-४३ या ४४ प्रत्याहारसूत्रोंकी उपलब्धि होती हैं। किन्तु शाकटायन में केवल ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध हैं । इस व्याकरणमें निम्नलिखित प्रत्याहार सूत्र आये हैं
अइउण् ||१|| ऋक् ।।२। एओङ् ॥३|| ऐओच् ।।४।। हयवरलत्र।।५।। त्रमडणनम् ।।६।। जबगइदश ||७|| झभघढ़घष ।।८।। खफछठथट् ॥२॥ चटतव्|१०|| कपय् ||११|| शषस अंअ:, कँ, पर्॥१२ सा हल्।।१३।। __ यहाँ एक विशेषता यह है कि शाकटायनमें प्रत्याहारसूत्रोंका संग्रह पाणिनि जैसा ही नहीं है, प्रत्युत उन्होंने सूत्रोंमें संशोधन और परिवर्द्धन किया है । उदाहरणार्थ शाकटायनमें 'लृ' स्वर को माना ही नहीं गया है। इसका अन्तर्भाव 'ऋ' वर्ण में ही कर लिया गया है। इसी तरह अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय
और उपध्मानीयको गणना व्यजनोंके अन्तर्गत की गयी है । पाणिनिने अनुस्वार विसगं जिह्वामूलीय और उपध्मानीयको विकृत व्यञ्जन कहा है। वास्तवमें अनुस्वार मकार या नकार जन्य होनेके कारण व्यन्जन है । विसर्ग कहीं सकारसे और कहीं रेफसे स्वतः उत्पन्न होता है । अत: यह भी व्यञ्जन है । जिह्वामूलीय और उपध्मानीय दोनों क्रमशः 'क', 'ख,' तथा 'प', 'फ' के पूर्व विसर्ग के ही
विकृत रूप हैं । पाणिनिने इन सभी वर्गोंका अपने प्रत्याहार सूत्रों में जो उनकी वर्णमाला कही जायगी, स्वतन्त्र रूपसे कोई स्थान नहीं दिया । बादके पाणिनीय वैयाकरणोंमेसे कात्यायनने उक्त चारोंको स्वर और व्यञ्जन दोनोंमें ही परि गणित करनेका निर्देश किया है। शाकटायनव्याकरणमें अनुस्वार, विसर्ग आदि के मूल रूपों को ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रत्याहारसूत्रों में सम्मिलितकर उनके व्यञ्जन होने की घोषणा कर दी गयी है।
शाकटायन व्याकरण में सामान्य संज्ञाएँ बहुत अल्प है। इत्संज्ञा और 'स्व' (सवर्ण) संज्ञा करने वाले, बस ये दो ही संज्ञाविधायक सूत्र हैं और इस व्याकरणमें अवशेष दो सूत्र ग्राहक हैं । ग्राहक सूत्रों में प्रथम सूत्र वह है, जो स्वर (व्यन्जन भो) से उसके जातीय दीर्घादि वर्णो का बोध कराता है और दुसरा प्रत्याहारबोधक 'सात्मेतत् ॥ | १ | १|१ सूत्र है । यह सूत्र अपने में तो अस्पष्ट है, पर अमोघवृत्ति में इतना स्पष्ट कर दिया है कि इसके समझने में कठिनाई नहीं होती। इस प्रकार शाकटायनव्याकरणमें संज्ञाविधायक सूत्रोंको बहुत कमी है। संज्ञाप्रकरणमें कुल छह सूत्र हैं, उनमें दो ही सूत्र ऐसे हैं, जिन्हें संज्ञाविधायक माना जा सकता है :
शाकटायनमें "न|| १ | १ | ७०" सूत्रके द्वारा विराम में सन्धि कार्यका निषेध करते हुए अविराममें सन्धिका विधान मानकर इस सूत्र को अधिकारसूत्र बतलाया है । 'अच् ' सन्धि के आरम्भ में सबसे पहले अयादि सन्धि का विधान-“एचोऽच्यय वायाव् ॥१|१|७१" सूत्र द्वारा कर दिया है । पश्चात्-"अस्वे ॥१|१७३" द्वारा यणसन्धिका निरूपण किया है। इस प्रकार पाणिनिकी अपेक्षा शाकटायनमें अयादिसन्धिको प्रमुखता है । शाकटायनके इस क्रमको "हेमशब्दानुशासन' में भी अपनाया गया है। शाकटायनके १।१।८५, १।१८६, १।१।८८, १।१।९७, सूत्र हेमके स्वरसन्धिप्रकरणमें शरा१५, १२१८, शरा१७ और १२१३० ज्यों के-स्यों उपलब्ध हैं। प्रकृतिभावप्रकरणको शाकटायनने निषेधसन्धिप्रकरण कहा है और इसमें स्वरसन्धिके अन्तर्गत द्वित्वसन्धिको भी रखा गया है और इसका अनुशासन ९ सूत्रोंमेंकिया है। शाकटायनब्याकरणमें 'हल् सन्धिका विधान करते हुए झलोंको जश् करनेकी विधि बतलायी है। यह विधि पाणिनिकी अपेक्षा लाघवपूर्ण है।
शब्दसाधुत्वकी प्रक्रिया में शाकटायन पाणिनिके समक्ष होते हुए भी उन्होंने स्वरान्त और व्यजनान्त शब्दोंके साघुल्वमें लाघवप्रक्रियाको स्थान दिया है। शाकटायनमें स्त्रीप्रत्ययान्त शब्दोंका साधुत्व प्रायः छोड़ दिया है। जैसे 'दीर्घ पुच्छी', 'दीर्घपुच्छा', 'कवरपुच्छी', 'मणिपुच्छी', 'विषपुच्छी', 'उलूकपक्षी',
'अश्वकृती', मनसाकृती' आदि प्रयोगोंका शाकटायन में अभाव है। पर शाकटायन के टीकाकारोंने इस कमी को पूरा करनेका प्रयास किया है।
शाकटायमव्याकरणमें कारककी कोई परिभाषा नहीं दी गयी है और न कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकके लक्षण ही बतलाये गये हैं। इस प्रकरणमें केवल अर्थानुसारिणो विमाक्तियो की ही व्यवस्था मिलती है । शकटायन १| ३।१०० सूत्र द्वारा हा, विक, समया, निकपा, उपरि , उपयुपरि, अध्यधि, अबोऽधो, अत्यन्त्य, अन्तरा, अन्तरेण, परितः, अभितः और उभयत: शन्दोंके योगमें अनिभिहित अर्थमें वर्तमानसे अम्, औट और शसका विधान किया है। यहाँ सीधे द्वितीया विभक्ति कथन न कर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययों का निर्देश कर दिया है। इसी प्रकार १| ३|१२७ ,१| ३| १५२ तथा १|३|१७५ आदि सूत्र में भी विभक्तिसम्बन्धी प्रत्ययोंका निरूपण किया है। यह प्रक्रिया देखने में भले ही गौरव प्रतीत हो, पर है वैज्ञानिक । शाकटायनने तुल्यार्थमें तृतीया और पष्टीके विधान के लिये पृथक्-पृथक सूत्र लिखे हैं। समासप्रकरण प्रारम्भ करते ही शाकटायनमें बहुब्रीहि ममासविधायक सूत्रोंका निर्देश है। पश्चात् कुछ तद्धित प्रत्यय आ गये हैं, जिनका रांयोग प्रायः बहुब्रीहि समासमें होता है। जैसे-नत्र , दुस, सु इनसे परे प्रजाशब्दान्त बहुब्रीहि 'अम्' प्रत्यय नत्र , दुस् तथा अल्पशब्दसे नत्र मेधाशब्दान्त बहुब्रीहि से अम् प्रत्यय, जातिशब्दान्त बहुव्रीहिसे छ प्रत्यय एवं धर्मशब्दान्त बहुबौहिसे 'अन्' प्रत्यय होता हैं। इसके पश्चात् बहुब्रीहि समासमें पुंबद्भाव, ह्रस्व आदि अनुशासनों का नियमन है । सुगन्धि, पूतगन्धि , सुरभिगन्धि, घृतगन्धि, पद्मगन्धि आदि सामासिक प्रयोगों के साधुत्वक लिये 'इत्' प्रत्ययका विधान किया है। इस ब्याकरण में बहुब्रीहि समासका अनुशासन समाप्त होनेके बाद ही अव्ययीभावप्रकरण आरम्भ होता है तथा युद्ध बाच्य में ग्रहण और प्रहरण अर्थ में केशाकेशी और दण्डादण्डिको अध्ययीभाव समास माना है। यतः शाकटायनके मतानुसार अध्ययीभावसमासके तीन भेद है-(१) अन्यपदार्थप्रधान, (२) पूर्व पदार्थप्रधान, (३) उत्तरपदार्थप्रधान । अत: "केशाश्च केशाश्च परस्परस्य ग्रहणं यस्मिन् युद्धे" जैसे विग्रहवाक्यसाध्य प्रयोगों में अन्यपदार्थप्रधान अवव्ययीभाव समास होता है। इस प्रकार शाकटायनमें समाससम्बन्धी नियमन विशेष रूप में पाया जाता है।
शाकटायनव्याकरणमें समासके पश्चात् तद्धित प्रकरण आरम्भ होता है। इस प्रकरणका पहला सूत्र है, 'प्राग्जितादण् ।।२।४।४।' प्रत्ययका नियमन शाक टायनने पाणिनिके समान ही किया है और प्रायः वे ही प्रत्यय प्रयुक्त हैं, जिनका पाणिनिने अनुशासन किया है। इतना होने पर भी शाकटायनने पाणिनि कीअपेक्षा लाघवको महत्त्व दिया है और कई नये शब्द दिये गये हैं। तिङन्त प्रकरणमें "क्रियाओं धातुः' सूत्रको धातुसंज्ञक अधिकारसूत्र बतलाया है और पाणिनि की लकारप्रक्रियाके अनुसार कियारूपोंका साधुत्व दिखलाया गया है। कुदन्तप्रकरण पाणिनि के तुल्य होनेपर भी नियमनमें कई विशेषताएँ हैं। इस प्रकार शाकटायन-शब्दानुशासन कई मौलिक मान्यताओंसे सम्पृक्त है ।
इस समुच्य ग्रन्थ में ४६ कारिकाएँ है । शाकटायनने श्वेताम्बर सम्प्रदायानुसार मान्य तर्क द्वारा स्त्रीमुक्तिका समर्थन किया है। प्रभाचन्द्राचार्यने प्रमेय कमल-मार्तण्ड नामक अपने तर्कग्रन्थ इन कारिकाओंको पूर्वपक्षके रूपमें उप स्थितकर स्त्रीमुक्तिका निरसन किया है। यहाँ उदाहरणार्य कुछ कारिकाएँ
प्रस्तुत की जाती हैं
अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवत्, यदविकलहेतुकं स्त्रीषु ।
म विध्यत्ति हि रत्नत्रयसंपद् निवृतहतुः ॥
रत्नत्रयं विरुद्ध स्त्रीत्वेन यथाऽमरादिभावेन ।
इति वाङ्मानं नात्र प्रमाणमाप्तागमोज्यद् वा ।।
इसमें ३७ कारिकाएँ हैं। प्रभाचन्द्रने पुर्वपक्षके रूप में केवली-कवलाहार खण्डन में इसी ग्रन्थकी कारिकाओंको उद्धृत किया है। कारिकाएं तार्किकशैली में लिखी गयी हैं । यहाँ दो-तीन कारिकाएँ उद्घृतकी जाती है
अस्ति च केवलिभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरा भुक्तेः ।
पर्याप्ति-वेद्य-तैजस-दीर्घायुष्कोदयो हेतुः ॥१॥
आहारविषयकाक्षारूपा क्षुद् भवति भगवति बिमोहे ।
कथमन्यरूपताऽस्या न लक्ष्यते येन जायेत ॥ ६ ॥
न क्षुद विमोहपाको यत् प्रतिसंख्यानभावनिवर्तया ।
न भवति विमोहनाक: सर्वोऽपि हि तेन विनिवत्यः ॥ ७ ॥
१. स्त्रीमुक्ति प्रकरण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, शाकटायनव्याकरणके अन्तर्गत.
कारिका २, ३ ।
२. केवलभुक्तिप्रकरण, का. १, ६, ७ । भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, शाकटायन व्याकरणके अन्तर्गत ।
राजशेखरने पाल्यकीर्ति वचनोंको उद्घृतकिया है, जिससे अवगत होता है कि इनका कोई काव्यशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ भी रहा है। बताया है."वस्तुका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, सरसता तो कविकी प्रकृतिके आधारपर है । अर्थात् कविको प्रकृतिसरस है, तो उसे सरस बना देता है और कामको प्रकृति रूक्ष या नीरस हो, तो सरस वस्तु भी नीरस हो जाती है। अनुरक्त व्यक्ति जिस वस्तुको स्तुति करता है, विरक्त व्यक्ति उसकी निन्दा करता है और मध्यस्थ व्यक्ति उस सम्बन्धी उदासीन रहता है। बताया है-"यथा तथा .. वास्तु वस्तुओं रूप, वक्त्रप्रकृतिविशेषतया तु रसवत्ता। तथा च यमर्थ रक्तः स्तौति तं विरक्तो बिनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रोदास्ते इति पाल्यकीर्ति:।"
गुरु | आचार्य श्री अर्ककीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री शाकटायन पाल्यकीर्ती |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#ShaktayanPalyakirti9ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री १०८ शाक्तायन पल्यकीर्ति जी 9वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 07 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 07 April 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
ये वैयाकरण शाकटायन बहुत प्राचीन आचार्य हैं, जिनके मतका उल्लेख
१. जिनदत्तचरित्र , माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, विक्रमाब्द १९७३ . पद्य १|८|
।
२. वहीं, पद्१|१७ ।
३. जिनदत्तचरित्र, माणिकचंद्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, पद् २|१२७|
पाणिनिने अपनी अष्टाध्यायीमें किया है । ऋग्वेद और शुक्लयजुर्वेदके प्रातिशाख्यों में तथा यास्काचार्यके निरुक्तमें भी इनका निर्देश आया है। ये शाकटायन पाणिनीसे साढ़े छ: सौ वर्ष पूर्व हुए हैं, पर प्रस्तुत शाकटायन उक्त शाकटायनाचार्यसे भिन्न हैं । ये जैन आचार्य हैं और इन्होंने स्वोपज्ञ अमोघवृति सहित शाकटायन-शब्दानुशासनकी रचना की है। अमोघवृत्तिके आरम्भमें शाकटायन नामसे ही इनका निर्देश किया गया है । मंगलाचरणकी व्याख्या करते हुए ग्रन्थ प्रणयनके प्रतिज्ञावाक्यमें बताया है
"एवं कृतमङ्गलरक्षाविधान: परिपूर्णमल्पग्रंथं लघुपायं शब्दानुशासनं शास्त्र मिदं महाश्रमणसंघाधिपतिभगवानाचार्यः शाकटायन: प्रारभते, शब्दार्थज्ञान पूर्वकं च सन्मार्गानुष्ठानम्" ।
इससे स्पष्ट है कि इस ग्रन्थके रचयिता आचार्य शाकटायन हैं । शाकाटायन की चिन्तामणिटीका के रचयिता यक्षवर्मा ने भी शाकटायनको इस शब्दानुशासनका रचयिता माना है । उन्होंने लिखा है
"स्वस्ति श्रीसकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान् ।
महाश्चमणसंधाधिपतिर्य: शाकटायन: ||
"विघ्नप्रशमनार्थमहदेवतानमस्कारं परममङ्गलमारभ्य भगवानाचार्यः शाकटायनः शब्दानुगारानं शास्वमिदं प्रारभते ।"
शाकटायनका अन्य नाम पाल्यकीर्ति भी मिलता है। वादिराजसरिने अपने पाश्वनाथचरितमें इनका स्मरण पाल्यकालिके नामसे किया है
कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेर्महौजसः ।
श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान् कुरुते जनान् ।।'
अर्थात उस महातेजस्वी पाल्यकीर्ति की शक्तिका क्या वर्णन किया जाय, जिसका श्रीपद श्रवण ही लोगोंको शाब्दिक या वैयाकरण कर देता है। श्री नाथूरामजी प्रेमीका अभिमत है कि "श्रीवीरममृतं ज्योति:" आदिपदसे शाकटायन का प्रारम्भ होता है। इसी कारण वादिराजसूरिने श्रीपदको लक्ष्य करके उक्त
१ शाकटायन-व्याकरण, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, सन् १९७१, पृष्ठ १ |
२. जैन माहित्य और इतिहास, लेखक-नाथूराग प्रेमी, प्रकाशक हेमचन्द्र मोदी, ठि हिन्दी-ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग गिरगांव, बम्बई, प्रथम संस्करण
सन् १९४२, पृ० १५६, १५७ ।
३. श्रीपार्श्वनाथचरित, माणिकचन्द्र ग्रंथमाला , १ | र५ ।
निर्देश किया है। शुभचन्द्रने पार्श्वनाथचरित-पज्जिका लिखा है-"तस्य पाल्यालीत: महौजसः श्रीपदश्रवणं श्रिया उपलक्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणं आकर्णनम् ।" अर्थात् शुभचन्द्र पाल्यकीतिको शाकटायनसूत्रोंका रचयिता मानते हैं।
शाकटायन-प्रक्रियासहके मंगलाचरणमें जिनेश्वरको पाल्यकीर्ति और मुनीन्द्र विशेषण दिये गये हैं, जो श्लिष्ट हैं। एक अर्थक अनुसार जिनेश्वरको और दूसरे अर्थके अनुसार प्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्तिको नमस्कार किया गया है। अभयचन्द्र के इस मंगलाचरणसे शाकटायनसूत्रोंका रचयिता पाल्यकीर्ति सिद्ध होते हैं
मुनीन्द्रमभिवन्द्याह पाल्यकीति जिनेश्वरम् ।
मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रक्रियासंग्रह बने ।।
शाकटायन या पालयकीर्ति यापनीय सम्प्रदायके विद्वान थे । वि० संवतकी १३वीं शताब्दीके मलयगिरि नामक श्वेताम्बराचार्यने नन्दिसूत्रकी टीकामें उन्हें यापनीय-यत्तियोंका अग्रणी लिखा है--
"शाकटायनोऽपि यापनीयत्तिनामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनबृत्तावादी भगवतः स्तुतिमेवमाह-श्रीवीरममृत ज्योति स्वादि सर्ववेधसाम् । अत्र च न्यासकृतव्याख्या --सबंबेधसां सर्वज्ञानां सकलशास्त्रानुगतपरिज्ञानानां आदि प्रभव प्रथममुत्पत्तिकारणमिति ।"
पालयकीर्ति या शाकटायन श्वेताम्बरोंके समान स्त्रीमुक्ति और केवली कवलाहारको भी मानते हैं । यह मान्यता यापनीयसंघकी है ।
अमोघवृत्तिमें "उपसर्वगुप्त व्याख्यातारः" कहकर शाकदायनने सर्वगुप्त आचार्यको सबसे बड़ा व्याख्याता माना है और ये सर्वगुप्त वहीं जान पड़ते हैं, जिनके चरणोंके समीप बैठकर भगवती-आराधनाके कर्ता शिवायने सूत्र और अर्थको अच्छी तरह समझा था। शिवार्य यापनीय सम्प्रदायके आचार्य थे । अतएवं उनके गुरुको श्रेष्ठ व्याख्याता बतलाने वाले शाकटायन भी यापनीय होंगे। श्री प्रेमीजीने किसी आधारसे शाकटायनको 'श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य' लिखा है। चिन्तामणिटीकाके कर्ता यक्षवर्माने उन्हें "सकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान्" माना है। दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार वीर निर्वाण सं० ६८३ वर्षके पश्चात्
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५० ।
२. प्रक्रियासंग्रह मंगलाचरण ।
३. मन्दिसूत्र, पृ० २३ 1
केवलियों या एकदेशश्रुतकेवलियोंका विच्छेद हो गया है। अतएव उनका श्रुतकेवलिदेशीयरूपसे उल्लेख यापनीयसंघका घोतक है । शाकटायमने अपनी गुरुपरम्पराका उल्लेख नहीं किया है और न अपने गुरुका नाम ही दिया है । अमोघवर्षके पिता प्रभूतवर्ष या गोविन्दराज तृतीयका जो दानपत्र कदम्ब ( मैसूर ) में मिला है वह शक संवत् ७३५ का अर्थात् अमोघ बर्षके राजा होनेसे एक वर्ष पहले का है। उसमें अर्ककीर्ति मुनिको मान्यपुर ग्रामके शिलाग्रामजिनेन्द्रभवनके लिए एक गाँव दान करनेका उल्लेख है । अर्ककीर्ति यापनीयनन्दिसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगणके थे । अर्ककीर्तिके गुरुका नाम विजयकीर्ति और प्रगुरुका नाम श्रीकीर्ति था । बहुत सम्भव है कि पाल्यकीर्तिअमोघकीर्ति के शिष्य रहे हों। .
शाकटायनसूत्रपाठमें इन्द्र, सिद्धनन्दि और आर्यवज्र इन तीन पूर्वाचार्योके मसीका निर्देश पाया जाता है। इन तीनो आचार्यांमें इन्द्रका उल्लेख गोम्मट सार जीवकाण्ड संशयी मिथ्यादृष्टिके रूपमें आया है। सिद्धनन्दि भी यापनीयसंघके आचार्य प्रतीत होते हैं। तिलोयपण्णत्तिमें व्रजयशका नाम आता है। अतः सम्भव है कि आर्य व्रज दिगम्बराचार्य हों अथवा श्वेताम्बर कल्पसूत्र स्थविरावलीमें निर्दिष्ट अज्जवइरहों। तपागच्छकी पट्टाबलोके अनुसार इनकी गणना दशपूर्वधारियों में की गयी है। अतएव पाल्यकीर्ति शाकटायन यापनीय सम्प्रदायके आचार्य हैं और इनके गुरुका नाम सम्भवतः : अर्ककीर्ति रहा होगा ।
पाल्यकीर्ति शाकटायनके समय-निर्धारणके सम्बन्धमें विशेष मतभेद नहीं है। वादिराज द्वारा निर्देश होनेके कारण इनका समय ई० सन् १०२५ के पूर्व है।" शाकटायनने लिखा है-ख्यातेदृश्ये ॥४| ३| २०८॥ भूतेऽनद्यतने ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयोक्तुः सख्यदर्शने वर्तमानावासोलप्रत्ययो भवति । लिडपवादः । अरुण देवः पाण्ड्यम् । अदहदमोघवर्षोऽरातीन। ख्यात इति किम ? चकार कटं देवदत्तः । दृश्य इति किम् ? जघान कसं किल वासुदेवः । अनघतन इति किम् ? उदगा दादित्यः ।
अर्थात् जो घटना आँखोंके समक्ष घटित हुई हो अथवा लोकविज्ञात हो उसे प्रकट करनेके लिए धातुसे लङ् प्रत्यय होता है। यथा-अरुणदेवः पाण्ड्यम् देव-नृप तुंगदेव (अमोघवर्षका नामान्तर) ने पाण्ड्य नरेशको रोका तथा अदह दमोघवर्षोऽरातीन–अमोघवर्षने शत्रुओंको जला दिया। इन उदाहरणोंमें अमोघ
१, संस्कृत-काव्य के विकासमें जन कवियों का योगदान, डॉ ० नेमिचन्द्र शास्त्री, भारतीय
ज्ञानपीठ, पृ० १७४।
वर्ष द्वारा शत्रुओं पर विजय प्राप्त करनेकी घटनाका उल्लेख आया है । शकसंवत् ८३२ (ई० सन् ९१० ) के एक राष्ट्रकूट अभिलेखमें इसी प्रकारकी घटना का निर्देश किया है-भूपालान कण्टकाभान्-वेष्ट्रयित्वा ददाह-अर्थात् इस घटनाका भी वही तात्पर्य है कि सम्राट् अमोघवर्षने अपने से विपरीत हुए राजाओंको घेरा या जला दिया। अभिलेख अमोघवर्षसे पीछे का है। अतएब यहाँ परोक्षार्थके लिट्लकारका प्रयोग किया गया है ।
बाबुराके दानपत्र में, जो शक संवत् ७८९ ( ई० सन् ८६७ ) का लिखा हुआ है, इस घटनाका उल्लेख है। अमोघवर्ष शक संवत् ७३६ ( ई० सन् ८१४ ) में सिंहासनासीन हुआ था और यह दानपत्र शक संवत् ७८९. ! ई० सन् ८६७ ) का है । अतएव पाल्यकीर्ति समय अमोघवर्ष काराज्य काल है । 'अदहदमोघवर्षोऽरातीन्' उदाहरणसे अमोघवृत्तिके रचयिता पाल्यकीर्तिकी समकालीनता स्पष्ट है ।
मि० राईस साहबने चिदानन्द काँका मुनियंशाभ्युदयनामक कन्नड़काव्यसे एक प्रमाण दिया है। यह कवि मैसूरके चिक्कदेव राजाके समयमें ( ई० सन० १६७२-१७०४ ) हुआ है । बताया है.--.
"उस मुनिमें अपने बुद्धिरूप मन्दराचलसे श्रुतरूप समुद्रका मन्धन कर यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम अमृत निकाला । शाकटायनने उत्कृष्ट शब्दानु शासनको बना लेनेके बाद अमोधवृत्तिनामकी टीका, जिसे बड़ी शाकटायन कहते हैं, बनायी , जिसका परिमाण १८००० है । जगत्प्रसिद्धशाकटायन मुनि ने व्याकरणके सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बनाकर एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया। एक बार अबिद्धकरण सिद्धान्तचक्रवर्ती पदमनन्दिने मुनियोंके मध्य पूजित शाकटायनको मन्दरपर्वतके समान 'वीर ' विशेषणसे विभूषित किया ।" ___ गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमानने ई० सन् ११४० में शाकटायनका निर्देश किया है । अतएव शाकटायनका समय उससे पूर्व निश्चित है।
पालयकीर्ति या शाकटायनकी निम्नलिखित रचनाएं उपलब्ध होती हैं
१. अमोघवृत्तिसहित शाकटायनशब्दानुशासन-
२. स्त्रीमुक्ति ।
३. केवलिमुक्ती ।
(१) शाकटायनका शब्दानुशासन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें चार अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय चार पादों में विभक्त है। प्रथम अध्यायके प्रथम पादमें
१. एपि ग्राफिया एण्डिका, जिल्द १, पृ० ५४ ।
२. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १५९ पर उद्घृत ।
१८१ सूत्र, द्वितीय पादमें २२३ सूत्र, तृतीय पादमें १९५ सूत्र और चतुर्थ पादमें १३२३ सूत्र हैं। द्वितीय अध्यायके प्रथम पादमें २२९, सूत्र, द्वितीय पादमें १७२ सूत्र, तृतीय पादमें ११३ सूत्र और चतुर्थ पादमें २३९ , सूत्र हैं । तृतीय अध्यायके प्रथम पादमें २०१ सूत्र , द्वितीय पादमें २२७ सूत्र , तृतीय पादमें १८९ सूत्र और चतुर्थ पादमें १४६ सूत्र हैं । चतुर्थ अध्यायके प्रथम पादमे २७१ सूत्र, द्वितीयपादमें २६१ सूत्र, तृतीयपादमें २८९ सत्र और चतुर्थ पादमें १८६ सूत्र हैं। इस प्रकार प्रथम अध्यायमे ७२२, द्वितीय अध्याय में ७५३, तृतीय अध्यायमें ७५५ और चतुर्थ अध्यायम १००७ सूत्र है। इन सूत्रोंको कुल संख्या ३,२३७ है । यह शब्दानुशासन अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। रचयिताकी अमोघवृत्तिके अतिरिक्त प्रभाचन्द्रका 'शाकटायन-न्यास', यक्षवर्माकी "चिन्तामणिटीका', अजितसेनाचार्यको 'मणि प्रकाशिकाटीका', अभयचन्द्राचार्यकी प्रक्रियाटीका', भावसेन विद्यकी 'शाकटायनटीका', एवं दयापाल मुनिको 'रूपसिद्धि' टीकाएँ पायी जाती है ।
शाकटायनव्याकरण प्रत्याहारशैली में लिखा गया है । इसके प्रत्याहारसूत्रोंकी यह विशेषता है कि इसमें 'लण्' सूत्रको स्थान नहीं दिया है और 'ल' वर्ण को पूर्व सूत्र में ही रख दिया गया है । इसमें सभी वर्ण के प्रथमादि अक्षरों के क्रम से अलग अलग प्रत्याहार सुत्र दिये गये हैं। केवल वर्गोंके प्रथम वर्णोंके के ग्रहणके लिये दो सूत्र है-'पाणिनीयवर्णसमाम्नाय' की भाँति शाकटायनव्याकरण मे भी हकार दो बार आया है। पाणिनीयब्याकरणमें ४१-४३ या ४४ प्रत्याहारसूत्रोंकी उपलब्धि होती हैं। किन्तु शाकटायन में केवल ३८ प्रत्याहार ही उपलब्ध हैं । इस व्याकरणमें निम्नलिखित प्रत्याहार सूत्र आये हैं
अइउण् ||१|| ऋक् ।।२। एओङ् ॥३|| ऐओच् ।।४।। हयवरलत्र।।५।। त्रमडणनम् ।।६।। जबगइदश ||७|| झभघढ़घष ।।८।। खफछठथट् ॥२॥ चटतव्|१०|| कपय् ||११|| शषस अंअ:, कँ, पर्॥१२ सा हल्।।१३।। __ यहाँ एक विशेषता यह है कि शाकटायनमें प्रत्याहारसूत्रोंका संग्रह पाणिनि जैसा ही नहीं है, प्रत्युत उन्होंने सूत्रोंमें संशोधन और परिवर्द्धन किया है । उदाहरणार्थ शाकटायनमें 'लृ' स्वर को माना ही नहीं गया है। इसका अन्तर्भाव 'ऋ' वर्ण में ही कर लिया गया है। इसी तरह अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय
और उपध्मानीयको गणना व्यजनोंके अन्तर्गत की गयी है । पाणिनिने अनुस्वार विसगं जिह्वामूलीय और उपध्मानीयको विकृत व्यञ्जन कहा है। वास्तवमें अनुस्वार मकार या नकार जन्य होनेके कारण व्यन्जन है । विसर्ग कहीं सकारसे और कहीं रेफसे स्वतः उत्पन्न होता है । अत: यह भी व्यञ्जन है । जिह्वामूलीय और उपध्मानीय दोनों क्रमशः 'क', 'ख,' तथा 'प', 'फ' के पूर्व विसर्ग के ही
विकृत रूप हैं । पाणिनिने इन सभी वर्गोंका अपने प्रत्याहार सूत्रों में जो उनकी वर्णमाला कही जायगी, स्वतन्त्र रूपसे कोई स्थान नहीं दिया । बादके पाणिनीय वैयाकरणोंमेसे कात्यायनने उक्त चारोंको स्वर और व्यञ्जन दोनोंमें ही परि गणित करनेका निर्देश किया है। शाकटायनव्याकरणमें अनुस्वार, विसर्ग आदि के मूल रूपों को ध्यान में रखकर ही उन्हें प्रत्याहारसूत्रों में सम्मिलितकर उनके व्यञ्जन होने की घोषणा कर दी गयी है।
शाकटायन व्याकरण में सामान्य संज्ञाएँ बहुत अल्प है। इत्संज्ञा और 'स्व' (सवर्ण) संज्ञा करने वाले, बस ये दो ही संज्ञाविधायक सूत्र हैं और इस व्याकरणमें अवशेष दो सूत्र ग्राहक हैं । ग्राहक सूत्रों में प्रथम सूत्र वह है, जो स्वर (व्यन्जन भो) से उसके जातीय दीर्घादि वर्णो का बोध कराता है और दुसरा प्रत्याहारबोधक 'सात्मेतत् ॥ | १ | १|१ सूत्र है । यह सूत्र अपने में तो अस्पष्ट है, पर अमोघवृत्ति में इतना स्पष्ट कर दिया है कि इसके समझने में कठिनाई नहीं होती। इस प्रकार शाकटायनव्याकरणमें संज्ञाविधायक सूत्रोंको बहुत कमी है। संज्ञाप्रकरणमें कुल छह सूत्र हैं, उनमें दो ही सूत्र ऐसे हैं, जिन्हें संज्ञाविधायक माना जा सकता है :
शाकटायनमें "न|| १ | १ | ७०" सूत्रके द्वारा विराम में सन्धि कार्यका निषेध करते हुए अविराममें सन्धिका विधान मानकर इस सूत्र को अधिकारसूत्र बतलाया है । 'अच् ' सन्धि के आरम्भ में सबसे पहले अयादि सन्धि का विधान-“एचोऽच्यय वायाव् ॥१|१|७१" सूत्र द्वारा कर दिया है । पश्चात्-"अस्वे ॥१|१७३" द्वारा यणसन्धिका निरूपण किया है। इस प्रकार पाणिनिकी अपेक्षा शाकटायनमें अयादिसन्धिको प्रमुखता है । शाकटायनके इस क्रमको "हेमशब्दानुशासन' में भी अपनाया गया है। शाकटायनके १।१।८५, १।१८६, १।१।८८, १।१।९७, सूत्र हेमके स्वरसन्धिप्रकरणमें शरा१५, १२१८, शरा१७ और १२१३० ज्यों के-स्यों उपलब्ध हैं। प्रकृतिभावप्रकरणको शाकटायनने निषेधसन्धिप्रकरण कहा है और इसमें स्वरसन्धिके अन्तर्गत द्वित्वसन्धिको भी रखा गया है और इसका अनुशासन ९ सूत्रोंमेंकिया है। शाकटायनब्याकरणमें 'हल् सन्धिका विधान करते हुए झलोंको जश् करनेकी विधि बतलायी है। यह विधि पाणिनिकी अपेक्षा लाघवपूर्ण है।
शब्दसाधुत्वकी प्रक्रिया में शाकटायन पाणिनिके समक्ष होते हुए भी उन्होंने स्वरान्त और व्यजनान्त शब्दोंके साघुल्वमें लाघवप्रक्रियाको स्थान दिया है। शाकटायनमें स्त्रीप्रत्ययान्त शब्दोंका साधुत्व प्रायः छोड़ दिया है। जैसे 'दीर्घ पुच्छी', 'दीर्घपुच्छा', 'कवरपुच्छी', 'मणिपुच्छी', 'विषपुच्छी', 'उलूकपक्षी',
'अश्वकृती', मनसाकृती' आदि प्रयोगोंका शाकटायन में अभाव है। पर शाकटायन के टीकाकारोंने इस कमी को पूरा करनेका प्रयास किया है।
शाकटायमव्याकरणमें कारककी कोई परिभाषा नहीं दी गयी है और न कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकके लक्षण ही बतलाये गये हैं। इस प्रकरणमें केवल अर्थानुसारिणो विमाक्तियो की ही व्यवस्था मिलती है । शकटायन १| ३।१०० सूत्र द्वारा हा, विक, समया, निकपा, उपरि , उपयुपरि, अध्यधि, अबोऽधो, अत्यन्त्य, अन्तरा, अन्तरेण, परितः, अभितः और उभयत: शन्दोंके योगमें अनिभिहित अर्थमें वर्तमानसे अम्, औट और शसका विधान किया है। यहाँ सीधे द्वितीया विभक्ति कथन न कर द्वितीया विभक्ति के प्रत्ययों का निर्देश कर दिया है। इसी प्रकार १| ३|१२७ ,१| ३| १५२ तथा १|३|१७५ आदि सूत्र में भी विभक्तिसम्बन्धी प्रत्ययोंका निरूपण किया है। यह प्रक्रिया देखने में भले ही गौरव प्रतीत हो, पर है वैज्ञानिक । शाकटायनने तुल्यार्थमें तृतीया और पष्टीके विधान के लिये पृथक्-पृथक सूत्र लिखे हैं। समासप्रकरण प्रारम्भ करते ही शाकटायनमें बहुब्रीहि ममासविधायक सूत्रोंका निर्देश है। पश्चात् कुछ तद्धित प्रत्यय आ गये हैं, जिनका रांयोग प्रायः बहुब्रीहि समासमें होता है। जैसे-नत्र , दुस, सु इनसे परे प्रजाशब्दान्त बहुब्रीहि 'अम्' प्रत्यय नत्र , दुस् तथा अल्पशब्दसे नत्र मेधाशब्दान्त बहुब्रीहि से अम् प्रत्यय, जातिशब्दान्त बहुव्रीहिसे छ प्रत्यय एवं धर्मशब्दान्त बहुबौहिसे 'अन्' प्रत्यय होता हैं। इसके पश्चात् बहुब्रीहि समासमें पुंबद्भाव, ह्रस्व आदि अनुशासनों का नियमन है । सुगन्धि, पूतगन्धि , सुरभिगन्धि, घृतगन्धि, पद्मगन्धि आदि सामासिक प्रयोगों के साधुत्वक लिये 'इत्' प्रत्ययका विधान किया है। इस ब्याकरण में बहुब्रीहि समासका अनुशासन समाप्त होनेके बाद ही अव्ययीभावप्रकरण आरम्भ होता है तथा युद्ध बाच्य में ग्रहण और प्रहरण अर्थ में केशाकेशी और दण्डादण्डिको अध्ययीभाव समास माना है। यतः शाकटायनके मतानुसार अध्ययीभावसमासके तीन भेद है-(१) अन्यपदार्थप्रधान, (२) पूर्व पदार्थप्रधान, (३) उत्तरपदार्थप्रधान । अत: "केशाश्च केशाश्च परस्परस्य ग्रहणं यस्मिन् युद्धे" जैसे विग्रहवाक्यसाध्य प्रयोगों में अन्यपदार्थप्रधान अवव्ययीभाव समास होता है। इस प्रकार शाकटायनमें समाससम्बन्धी नियमन विशेष रूप में पाया जाता है।
शाकटायनव्याकरणमें समासके पश्चात् तद्धित प्रकरण आरम्भ होता है। इस प्रकरणका पहला सूत्र है, 'प्राग्जितादण् ।।२।४।४।' प्रत्ययका नियमन शाक टायनने पाणिनिके समान ही किया है और प्रायः वे ही प्रत्यय प्रयुक्त हैं, जिनका पाणिनिने अनुशासन किया है। इतना होने पर भी शाकटायनने पाणिनि कीअपेक्षा लाघवको महत्त्व दिया है और कई नये शब्द दिये गये हैं। तिङन्त प्रकरणमें "क्रियाओं धातुः' सूत्रको धातुसंज्ञक अधिकारसूत्र बतलाया है और पाणिनि की लकारप्रक्रियाके अनुसार कियारूपोंका साधुत्व दिखलाया गया है। कुदन्तप्रकरण पाणिनि के तुल्य होनेपर भी नियमनमें कई विशेषताएँ हैं। इस प्रकार शाकटायन-शब्दानुशासन कई मौलिक मान्यताओंसे सम्पृक्त है ।
इस समुच्य ग्रन्थ में ४६ कारिकाएँ है । शाकटायनने श्वेताम्बर सम्प्रदायानुसार मान्य तर्क द्वारा स्त्रीमुक्तिका समर्थन किया है। प्रभाचन्द्राचार्यने प्रमेय कमल-मार्तण्ड नामक अपने तर्कग्रन्थ इन कारिकाओंको पूर्वपक्षके रूपमें उप स्थितकर स्त्रीमुक्तिका निरसन किया है। यहाँ उदाहरणार्य कुछ कारिकाएँ
प्रस्तुत की जाती हैं
अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवत्, यदविकलहेतुकं स्त्रीषु ।
म विध्यत्ति हि रत्नत्रयसंपद् निवृतहतुः ॥
रत्नत्रयं विरुद्ध स्त्रीत्वेन यथाऽमरादिभावेन ।
इति वाङ्मानं नात्र प्रमाणमाप्तागमोज्यद् वा ।।
इसमें ३७ कारिकाएँ हैं। प्रभाचन्द्रने पुर्वपक्षके रूप में केवली-कवलाहार खण्डन में इसी ग्रन्थकी कारिकाओंको उद्धृत किया है। कारिकाएं तार्किकशैली में लिखी गयी हैं । यहाँ दो-तीन कारिकाएँ उद्घृतकी जाती है
अस्ति च केवलिभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरा भुक्तेः ।
पर्याप्ति-वेद्य-तैजस-दीर्घायुष्कोदयो हेतुः ॥१॥
आहारविषयकाक्षारूपा क्षुद् भवति भगवति बिमोहे ।
कथमन्यरूपताऽस्या न लक्ष्यते येन जायेत ॥ ६ ॥
न क्षुद विमोहपाको यत् प्रतिसंख्यानभावनिवर्तया ।
न भवति विमोहनाक: सर्वोऽपि हि तेन विनिवत्यः ॥ ७ ॥
१. स्त्रीमुक्ति प्रकरण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, शाकटायनव्याकरणके अन्तर्गत.
कारिका २, ३ ।
२. केवलभुक्तिप्रकरण, का. १, ६, ७ । भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, शाकटायन व्याकरणके अन्तर्गत ।
राजशेखरने पाल्यकीर्ति वचनोंको उद्घृतकिया है, जिससे अवगत होता है कि इनका कोई काव्यशास्त्रसम्बन्धी ग्रन्थ भी रहा है। बताया है."वस्तुका स्वरूप चाहे जैसा भी हो, सरसता तो कविकी प्रकृतिके आधारपर है । अर्थात् कविको प्रकृतिसरस है, तो उसे सरस बना देता है और कामको प्रकृति रूक्ष या नीरस हो, तो सरस वस्तु भी नीरस हो जाती है। अनुरक्त व्यक्ति जिस वस्तुको स्तुति करता है, विरक्त व्यक्ति उसकी निन्दा करता है और मध्यस्थ व्यक्ति उस सम्बन्धी उदासीन रहता है। बताया है-"यथा तथा .. वास्तु वस्तुओं रूप, वक्त्रप्रकृतिविशेषतया तु रसवत्ता। तथा च यमर्थ रक्तः स्तौति तं विरक्तो बिनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रोदास्ते इति पाल्यकीर्ति:।"
गुरु | आचार्य श्री अर्ककीर्ती |
शिष्य | आचार्य श्री शाकटायन पाल्यकीर्ती |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Shaktayan Palyakirti Ji 9 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 07 April 2022
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Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
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Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
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