हैशटैग
#Shridharacharya9ThCentury
श्रीधराचार्य नामके अनेक जैन विद्वान हाा है। श्री प्रेमीजी द्वारा लिखित दिगम्बर जैन ग्रन्यकर्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तवास एक श्रीधराचार्यकी सूचना मिलती है, जो श्रुतावतार-गच और भविष्यदत्तचरित नामक अन्धोंके रचयिता हैं। सुकुमालचरिज के रचयिताके रूपमें श्रीधाराचार्य अपभ्रं शके रचनाकार हैं। इस ग्रन्धकी रचनाका कारण बतलाते हुए लिखा है कि बलद के जैनन्दिरमें, जहाँके शासक गोविन्दचन्द्र थे, पद्मचन्द्र नामक एक मुनि उपदेश दे रहे थे। उपदेशमें उन्होंने सुकुमालस्वामीका उल्लेख किया । श्रोताओंमें पीछे साहूका पुत्र कुमार नामक एक व्यक्ति था, जिसने सुकुमालस्वामीकी कथा के विषय में अधिक जाननेकी इच्छा व्यक्त की, किन्तु मुनिराजने कुमारको श्रीधराचार्यसे अभ्यर्थना करनेको कहा, जो कि उसकी जिज्ञासा शान्त कर सकते थे। अतः कुमारने श्रीधराचार्यको सुकुमालचरित रचने के लिए प्रेरित किया। कुमार साहुको पुरवाड़ कुलका बताया है । आचार्यने अपनी कृति भी
इन्हींको समपित की है । ग्रन्थ समाप्तिकी तिथि भी निम्न प्रकार है
बारहसइयं गयई कयहरिसई । अट्ठोत्तरई महीयले वरिसई ।
कसणपक्खे अगहणे जाया । तिजदिवसे ससिवारि समापए ||
अर्थात् १२०८ वर्ष व्यतीत होनेपर मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया चन्द्रबारको यह ग्रन्थ समाप्त हुआ।
एक अन्य श्रीधरने अनंगपालके मन्त्री नट्टलसाहुकी प्रेरणापर सं० ११८९,में 'पासणाहपरिउ' की रचना की है । ये कवि हैं और इन्होंने चन्द्रप्रभचरित और बर्धमानचरितकी भी रचना की है । कवि हरियाणा देशके निबासी थे और अग्नवाल कुलमें उत्पन्न हुए थे। आपके पित्ताका नाम गोल्ह और माताका नाम बिल्हा देवी था।
सेनसंघमें श्रीधर नामके एक अन्य प्रसिद्ध आचार्य हा हैं। ये काव्यशास्त्रके मर्मज्ञ, नानाशास्त्रोक पारगामी और विश्वलोचनकोषके कर्ता हैं। इनके गुरुका नाम मुनिसेन बताया जाता है।
श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं ४२ और ४३में दो आचार्य आये हैं। एक आचार्य दामनन्दीके शिष्य और दुसरे मलधारिदेवके शिष्य हैं। इस नामके एक आचार्य वैद्यामतके कर्ता भी माने गये हैं। शास्त्रसारसमुच्चयके रचयिता माघमन्दीने अपनी गुरुपरम्परामें श्रीधरदेवका नाम बताया है।
गणितसारके रचयिताका नाम श्रीधराचार्य है। इनके नामके साथ आचार्य शब्द भी जुड़ा हुआ है, अतएव गणित और ज्योतिषमान्य आचार्य श्रीधर उपर्युक्त सभी श्रीधराचार्योसे भिन्न हैं।
नन्दिसंघ बलात्कारगणके आचार्यों में श्रीधराचार्यका नाम यथावत् मिलता है। दशभक्त्यादि महाशास्त्रमें कविवर वर्धमानने नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली निम्न प्रकार दी है
बदमान भट्टारक,पयनन्दि, श्रीधराचार्य', देवचन्द्र, कनकचन्द्र, नयकीत्ति, रविचन्द्रदेव, श्रुतकीत्तिदेव, वीरनन्दि, जिनचन्द्रदेव, भट्टारक वर्धमान, श्रीधर पण्डित, वासुपूज्य, उदयचन्द्र, कुमुदचन्द्र, माघनन्दि, वर्द्धमान, माणिक्यनन्दि, गुणकीति, गुणचन्द्र, अभयमन्दि, सकलचन्द्र, त्रिभुवनचन्द्र, चन्द्रकीत्ति, श्रुत कीत्ति, बर्द्धमान, विधवासुपूज्य, कुमुदचन्द्र और भुवनचन्द्र ।
उपयुक्त गुर्वावली में श्रीधराचार्य और श्रीधर पण्डित ये दो व्यक्ति आये हैं। इनमें श्रीधराचार्य गणितसार, जातकतिलक, कन्नड़ लीलावती,ज्योतिर्ज्ञान
१. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, पृ.१३३ ।
२. सस्थ मोरवम्यपद्मनन्दिविधेशो गुणालपः ।
अभवन्द्रीधराचार्यस्तत्सधर्मा महाप्रभः ।।-दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, जनसि बात
भवन, बारा, पृ.१०१।
विधि आदि ज्योतिष विषयक ग्रन्थोंके रचयिता और श्रीधर पण्डित जयकुमार
चरितके रचयिता हैं।
'कर्णाटकाचित्ररिते'के उद्धरणसे ज्ञात होता है कि वीधराचार्य के 'जातक तिलक' का रचनाकाल ईस्वी सन् १०४५ है। महाबीराचार्य के गणितसारमें---
धनं बनर्णयोर्चा मुले स्वर्ण तयोः कमात् ।
ऋणं स्वरूपातोच! यतस्तस्मान्न तत्पदम् ।
धनात्मक पाचं ऋणात्मक राशियोंका बर्ग धनात्मक होता है और उस वर्ग राशिके बर्गमल क्रमश: धनात्मक और ऋणात्मक होते हैं । यत: बस्तुओंके स्वभाव (प्रकृति) में ऋणात्मक राशि, वर्गराशि नहीं होती, इसलिये उसका कोई वर्गमूल नहीं होता।
उपर्युक्त गणित्तसारसंग्रहका सूत्र श्रीधराचार्य का सूत्र है । अतः स्पष्ट है कि श्रीधराचार्य महावीराचार्यके पूर्ववर्ती हैं। महावीराचार्य ने अपने गणितसार संग्रहमें अमोघवर्षका निम्न प्रकार स्मरण किया है
प्रीणितः प्राणिसस्योघो निरीतिनिरवग्रहः ।
श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहितैषिणा ।
विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्थाद्वादन्यायवादिनः ।
देवस्य नपतङ्गस्य बर्धता तस्य शासनम् ।।
इन पद्योंसे स्पष्ट है कि अमोघवर्ष के शासनकाल में गणितसारसंग्रहकी रचना हुई है। राष्ट्रकूटवंशी इस राजाका समय ईस्वी सन् ८१५-८६५ है। अतएव गणितसारसंग्रहकी रचना नवीं शताब्दी में हुई है । इस प्रकार श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सन् ८५० के पहले आता है। .
धीधराचार्यका उल्लेच्छ भास्कराचार्य, केशव, दिवाकर, देवज्ञ आदिने आदरपूर्वक किया है।
१. गणितसार संग्रह, सोलापूर संस्करण, ११५२ ।
२. वही, १। ३ ।
३. वही, १।८ ।
४. यत् पुनः श्रीचराचार्य: ब्रह्मगुप्ल्यादिभिासवर्माद्दशगुणात्पदं परिधिः स्थूलो प्यङ्गीकृत:
स मुन्नार्थम् । न हि त जानन्तीति-सिद्धान्तशिरोमणि गोलाध्याय, भुवनकोश, श्लोक ५रको टीका।
५.श्रेष्ठ रिष्टहतो दशाश्तम् इहौजः श्रीधरादयोदितम् ।। काटेरचनबलान्तरात् क्व च कृतं तद्युक्तिशून्य त्वसत् ।।-केशवीय पति हो०३२ ।
श्रीधराचार्य द्वारा विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधिमें एक प्रकरण प्रतिष्ठामुह ता है, इस प्रकरणके समस्त पद्य वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठमें' ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। ज्योति नविधि ज्योतिषका स्वतन्त्र ग्रंथ है, अतः प्रतिष्ठापाठके मुहूर्त विषयक लोक इस ग्रन्थमेंसे लेकर प्रतिष्ठापाठमें उद्धृत किये गये होंगे। जैन साहित्य में वनदि नामो सन लाथार्य मिला है...-एकका समय वि०सं०५३६, दुसरेका वि०सं०७०४ और तीसरेका विक्रम संवत् १३९५ है। मेरा अनुमान है कि अन्तिम बसुनन्दि ही प्रतिष्ठापाठक्के रचयिता हैं । अतः यह मानना पड़ेगा कि विक्रम संवत् १३९५में श्रीधराचार्यके प्रतिष्ठामुहर्नश्लोकोंका संकलन बसुनन्दिने किया है।
श्रीधराचार्यके समयनिर्धारणके लिए एक और मबल प्रमाण ज्योतिर्ज्ञान विधिका है। इस ग्रन्थमें मासधुवा साधनकी प्रक्रिया करने में वर्तमान शकाब्दमें से एक स्थानपर. ७२० और प्रकारान्तरसे पुनः इस क्रियाके साधनमें ७२१ घटाये जानेका कथन है। ज्योतिषशास्त्र में यह नियम है कि अहर्गण साधनके लिए प्रत्येक गणक अपने गत शकाब्दके वर्षोंको या वर्तमान शकाब्दके वर्षोंको क्रिया करते समयके शकाब्दके वर्षों से घटाकर अन्य क्रियाका विधान बतलाता है। उदाहरणार्थ ग्रहलाघव आदि कर्णग्रन्थोंको लिया जा सकता है। इन ग्रंथोंके रचयिताओंने अपने समयके गत शकाब्दको घटानेका विधान बताया है । अतएव यह निश्चित है कि श्रीधराचार्य ने भी अपने समयके गत शकाब्द और वर्तमान शकाब्दको घटानेका विधान किया है । जहाँ इन्होंने क्रिया करते समयके शकाब्द मेंसे ७२०को घटानेका विधान बतलाया है, वहाँ गत शफाब्द माना जायेगा
और जहाँ ७२१के घटानेका कथन है, वहाँ वह वर्तमान शक है ।
इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रमाण यह भी है कि प्रकारान्तरसे मालध्रुवा नयनमें ७२१को करणादकाल बतलाया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि शक संवत् ७२१में ज्योतिर्मानविधिकी रचना हुई है। लिखा है
करथिन्यून शकाब्द करणाब्द रयगुणं द्विसंस्थाप्य ।
रागहृतमदोलब्धं गतमांमाश्चोपरि प्रयोज्य पुनः ।।
संस्थाप्याथो राधागुणिते खगुणं तु वर्षदेखादि |१|
संत्याज्ये नीचाप्ते लब्या वारास्तु शेषाः घटिकाः स्युः ।।२।।
१. ज्योति नविधि-आरा पाण्डुलिपि, प० २६ ।
२. वमुनन्दिप्रतिष्ठापाठ, प्रथम परिच्छेद, पच १-६ ।
३. ज्योतिनिविधि, आरा जैनासदान्त भवन की पाण्डुलिपि. पत्र ५ ।
अर्थात्-कथि७२१ करणाब्द शकको वर्तमान शकमेंसे घटाकर १२से गुणा कर गुणनफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये। एक स्थानपर ३२से भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे गतमास ममझना और गतमासोको अन्य स्थान बाली राशिमें जोड़ देना चाहिये । पुन: तीन स्थानों में इस राशिको रखकर एक स्थान में १.२से, दूसरेमें इसे और तीसरेमें २२से मुणा कर क्रमशः एक दूसरेका अन्तर करके रख लेना । जो संख्या हो उसमें ६२का भाग देनेपर लब्ध बार और शेष घटिकाएँ होती हैं।
__यहाँ पर शक संवत् ७२१ ग्रन्थरचनाका समय बताया गया है । महावीरा धार्थने इसीलिये अपने पूर्ववर्ती श्रीधराचार्यके करणसूत्रको उद्धृत किया है। समस्त जैनेतर विद्वानोंने श्रीधराचार्य के सिद्धान्तोंकी समीक्षा भी इसीलिये की है कि वे उनके सम्प्रदायक आचार्य नहीं थे।
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि श्रीधरके 'जातकतिलक'का रचनाकाल ईस्वी सन् १०४९ निर्धारित किया है। इसका समन्वय किस प्रकार सम्मव होगा? यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'जातकतिलक में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है। विद्वानान वयं विषय और भाषाशलीके आधारपर इस ग्रन्थके रचनाकालका अनुमान किया है। यथार्थत: इसन्दा रचनाकाल ई० सन् १०४१ से पहले होना चाहिये।
इन आचार्यकी प्राचीनताका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि इन्होंने गणित सारमें गणितसम्बन्धी जिन सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया है, उनमें कई सिद्धान्त प्राचीन परम्परानुमोदित है। उदाहरणार्थ बुत्तक्षेत्रसम्बन्धी गणितको लिया जा सकता है। वृत्तक्षेत्रकी परिधि निकालनेका नियम--"च्यासवर्गको दससे गुणा कर बर्गमूल परिधि होती है" यह जैन सम्प्रदायका है। वर्तमानमें उपलब्ध सूर्यसिद्धान्तसे पहलेके जैनग्रन्थोंमें यह करणसूम पाया जाता है। जैनेतर माहित्यमें सूर्यसिद्धान्त ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इस सूत्रको स्थान दिया गया है । जैनेत्तर प्रायः सभी ज्योतिविदोंने इस सिद्धान्तकी समीक्षा की है तथा कुछ लोगोंने इसका खण्डन भी। श्रीधराचार्य ने इस जैनमान्यताका अनुसरण किया है तथा प्राचीन जैनगणितके मूलतत्त्वोंका विस्तार भी किया है। अत एव श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सनकी आठवीं शतीका अन्तिम भाग या नवम शतीका पूर्वाधं है।
श्रीधराचार्यकी ज्योतिष और मणित विषयक चार रचनाएँ मानी जाती हैं।
१. गणितसार या त्रिशतिका।
२. ज्योतिर्ज्ञान विधि-करणविषयक ज्योतिष ग्रन्थ ।
३ जातकतिलक-जातक सम्बन्धी फलित ग्रन्थ ( कन्नड़ भाषा)।
४. बीजगणित बीजगणितविषयक गणित ग्रन्थ ।
गणितसार गणितविषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थके अन्तमें निम्नलिखित पद्य प्राप्त होता है।
उत्तरतो हिमनिलयं दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत् ।
प्रागपरोदधिमध्ये नो गणकः श्रीधरादन्यः ।।
इससे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्य की कात्ति कौमुदी उस समय समस्त भारतमें व्याप्त थी । ज्योतिषशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदी ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
"भास्करेणाऽस्याने प्रकारास्तस्करवंदपहृताः । अहो सुप्रसिद्धस्य भास्करा दितोऽपि प्राचीनस्य विदुषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान संशय: । प्राचीना एकशास्त्रमात्रकदिनो नाऽऽसन्, ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्नत्र न संशयः।"
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यके गणितसम्बन्धी अनेक नियमों को भास्कर जैसे धुरन्धर गणकोंने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।
गणितसार या विशतिकाकी नागरी अक्षरोंमें लिखी प्रति श्री पं० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य, काशी द्वारा संस्कृत टीकासहित प्राप्त हुई थी। इस प्रतिके संक्षिप्त टिप्पणोंके आधारपर इतना ही कहा जा सकता है कि यह गणितका अद्भुत ग्रन्थ है।
इसमें अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, धन, धनमूल, भिन्नसमच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमातृजाति, राशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नबराशिक, भाण्ड, प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाजकन्यवहार, एक पत्रोपकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, सक्रिय-विक्रयाणित, श्रेणिव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार एवं छायाव्यवहारके गणित उदाहरणसहित दिये गये है। इस ग्रन्थका जेन एवं जैनेतरोंमें अधिक प्रचार रहा है। गणिततिलककी संस्कृत भूमिकामें कहा गया है
"गीर्वाणगीगुम्फितो मनोरमविविधच्छन्दोनिबद्धः सपादशतपश्चमितो गणिततिलकसंज्ञकोऽय ग्रन्थः श्रीधराचार्यकृतत्रिंशत्याधारेण निर्मित इत्यनुमीयते कतिपयानां पद्यानां साम्यावलोकनेन ।"
१ गणकतरंगिणी, पृ०२४।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीपतिने इनके गणितसारके अनुकरणपर ही अपने गणितग्रन्थकी रचना को है। श्रोसितिलकरिने अगनी तिलकामक कृतिमें गणित्तसारका आधार लेकर गणितविषयक महामाओं निर्देश निया है। इन्होंने अपनी वृत्तिमें श्रीधराचार्य के सिद्धान्तको दुधगानोको तारशिला दिया है। इस अन्धकी जो पाण्डुलिपि प्राप्त है, उसमें ४५ ताड़पत्र हैं, प्रति पत्रमें छ: पक्तियाँ और प्रति पंक्तिमें ८५ अक्षर हैं । पाण्डुलिपिका मंगलाचरण निम्न प्रकार है...
मत्वा जिनं स्वविरचितपाट्या गणित्तस्य सारमुत्य ।
लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति धीराचार्यः ।।
त्रिशतिकाकी जो मुद्रित प्रति पायी जाती है, उसमें जिम के स्थानमा 'शिव' पाठ मिलता है। मंगलाचरण बदलनेकी प्रथा केबल इसी अन्य तक मीमित नहीं है, किन्तु और भी कई लोकोपयोगी ज्योतिः और आयुर्वेदवे ग्रंथों में मिलनी है। ज्योतिष और आयुर्वेद दोनों विषय सर्वसाधारणके लिए उपयोगी रहे हैं, जिससे लिपिकर्ताओं या सम्पादकोंकी कृपासे मंगलाचरणों में परिवर्तन होता रहा
है। मानसागरी में भी यह परिवर्तन देखा जा सकता है।
ज्योतिषशास्त्रका यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें करण, संहिता और महत इन तीनों विषयोंका समावेश किया है। यह ग्रन्थ दस प्रकरणों में विभक्त है
१. संशाधिकार-ज्योतिष विषयक संज्ञाएं वर्णित हैं।
२. तिथ्याधिकार-तिथिमाधन, तिथिशुद्धि आदि ।
३-४. संक्रान्ति-ऋत्वहोरात्रिप्रमाणाधिकार ।
५. ग्रहनिलयाधिकार !
६. ग्रहयुद्धाधिकार।
७. ग्रहणाधिकार ।
८. लग्नाधिकार ।
९. गणिताधिकार । ।
१०. महाधिकार।
इसके प्रारम्भमें साठ संवत्सर, तिथि, नक्षत्र, वार, योग, राशि एवं करणों के नाम तथा राशि, अंश, कला, विकला, घटी, पल आदिका वर्णन किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें मास और नक्षत्र ध्रुवाका विस्तारहित निवेचन किया है। इस प्रकरणके प्रारम्भमें शक संवत् निकालने का सुन्दर करण सूत्र दिया है।
१. गणिततिलक वृत्ति पृ० ४, ९, ११, १७, ३९ ।
नष्टिः षोड़शाणित व्ययगत्तसंवत्सरैश्च सम्मिश्रम ।
नवशून्याब्धिसमेतं शकनृपकालं विजानीयात् ॥
अर्थात्-बीती हुई संवत्सर संख्याको १८से गुणाकर ६० जोड़ देनेपर जो संख्या आने, उममें ४०५. और युक्तकर देनेगर शक संवत् आ जाता है। तृतीय सिथ्याधिकारमें मध्यम रवि, चन्द्र और स्पष्ट रवि, चन्द्रके साधनके पश्चात् अन्तरांशों परसे तिथि साधनकी प्रक्रिया बतलायी गयी है। मास वा परसे भी तिथिका साधन किया है ! चतुर्थ परिच्छेदमें संक्रातिके साधनकी क्रियाका सुन्दर वर्णन है । प्रारम्भका पद्म निम्न प्रकार है---
नोनवगुणकरणाब्दं वर्षोनं सुकलोद्भुतं बारम् ।
न च गुणतद्धृतशेषं घटिका श्रीधरयुक्तं तेन संक्रान्त्या ।। यहाँ श्रीवर शब्दमें श्लाष है; नन्थकनि अपने नामका निर्देश कर दिया है तथा श्रीको धर शब्दसे पृथका कर २०. जोड़नेवाली संस्थाको भी बता दिया है।
इस प्रकरणमें दिन-रातका प्रमाण निकालनेकी विधि निम्न प्रकार बत्त लायी है
मकरादि-कर्कटादि ज्ञात्वा राश्य॑शमुक्तिरिह खगुणा ।
- तत्र नरातप युक्तं नीचहुतं दिवसरात्रिप्रमाणम् ।।
अर्थात्-मकरसे लेकर मिथुन तक अभीष्ट सूर्यके राश्यादि शात करे । इस राश्यादिके अंश बनाकर अंशोंको दो से गुणा करे। गुणनफलमें १६२० जोड़े और योगफलमें ६० का भाग देमेसे घटनात्मक दिनप्रमाण आता है। कर्कसे लेकर धनु तक अभीष्ट सूर्य के राश्यशोंके अंश बनाकर दोसे गुणा करनेपर जो आवे, उसमें १६२० जोड़कर योगफलमें ६०का भाग देनेसे घटयात्मक रात्रि प्रमाण आता है। ____ इस प्रक्रिया द्वारा परम दिनमान ३३ घटी आयेगा । अब विचार यह करना है कि यह दिनमान किस स्थान में सम्भव है, क्योंकि अन्धका जिस स्थानका निवासी होता है, प्रायः उसी स्थानके दिन-मानादिका निरूपण करता है। ज्योतिष गणितके आधारपर कहा जा सकता है कि उक्त दिनमान १९३८ अक्षांगवाले स्थानवा है। विचार करनेपर यह अक्षांश तमिलनाडु प्रान्तके कई जिलोंमें आता है । अत्त: यह सम्भव है कि श्रीधराचार्य के इस ग्रन्थका निर्माण तमिलनाडु के किसी जिलेमें हुआ हो अथवा तमिलनाडु श्रीधराचार्यकी जन्मभूमि रही हो। क्योंकि उत्तरभारतमें परम दिनमान ३६ घटी तक रहता है। अतः श्रीधराचार्यको जन्मभूमि सम्भवतः तमिलनाडुमें रही होगी।
पञ्चम परिच्छेदमें शनि, राहु, मंगल, बुध गुरु और शुक्र-इन ग्रहोंका
स्पष्टीकरण किया गया है। ग्रहों की गतिसाधन नियाका बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है। षष्ठ परिछेदमें ग्रहोंके युद्धका वर्णन किया गया है। प्रारम्भमें ग्रह युद्धकी परिभाषा बतलाते हुए लिखा है
राश्यंशकलाः सर्गः यदा भवेयुः समा दुयोग्रहयोः ।
योगस्तयोस्तदा जायते च तयुद्ध मिति वाच्यम् ।।
अर्थात् जब दो ग्रहोंके राशि-अंश कला समान हों, उस समय उन दोनोंका योग युद्ध-संज्ञक होता है। इस युद्धके प्रधाननः पुरत: दृष्ट युद्ध और एस दृष्ट बुद्ध ये दो भेद बतलाये तथा इनका विस्तारसहित वर्णन भी किया है। इसके पश्चात् सप्तम परिच्छेद ग्रहणाधिकार नामका है। इसमें विक्षेप, लम्बन, नति आदिके सामान्य गणितके साथ ग्रहणको दिशा, ग्रास, स्पर्श और मोक्षकी मध्यम घटिकाओंका आनयन किया है ।
अष्टम प्रकरण लग्न साधनका है। इसमें शंकुच्छाया, पदच्छाया आदि नाना प्रकारोंपरसे लग्न-साधन किया है । ग्रहों के संस्कार भी इस प्रकरण में बताये गये हैं। यह प्रकरण पर्याप्त विस्तृत है। गणितके कुछ कर्णसूत्र भी इसमें आये हैं । इसके अनन्तर लान-सिद्धि प्रकरण में प्रतिष्ठामुहर्त, यमघंटक, कुलिक, प्रहराध पात, कचउत्पात, मृत्यु, काण, सिद्ध, अमत आदि योगोंके लक्षण दिये गये हैं। दशम प्रकरण में नक्षत्रोंके वृक्ष, देवता एवं शुभाशुभत्वका प्रतिपादन किया है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है।
जातक तिलक कन्नड़ भाषामें लिखित जातक सम्बन्धी ग्रन्थ है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री श्रीधराचार्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
#Shridharacharya9ThCentury
Book : Tirthankar Mahavir Aur Unki Acharya Parampara3
आचार्य श्री श्रीधराचार्य 9वीं शताब्दी
संतोष खुले जी ने महाराज जी का विकी पेज बनाया है तारीख 30 एप्रिल 2022
दिगजैनविकी आभारी है
बालिकाई शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
नेमिनाथ जी शास्त्री (बाहुबली-कोल्हापुर )
परियोजना के लिए पुस्तकों को संदर्भित करने के लिए।
लेखक:- पंडित श्री नेमीचंद्र शास्त्री-ज्योतिषाचार्य
आचार्य शांति सागर छानी ग्रंथ माला
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
श्रीधराचार्य नामके अनेक जैन विद्वान हाा है। श्री प्रेमीजी द्वारा लिखित दिगम्बर जैन ग्रन्यकर्ता और उनके ग्रन्थ' नामक पुस्तवास एक श्रीधराचार्यकी सूचना मिलती है, जो श्रुतावतार-गच और भविष्यदत्तचरित नामक अन्धोंके रचयिता हैं। सुकुमालचरिज के रचयिताके रूपमें श्रीधाराचार्य अपभ्रं शके रचनाकार हैं। इस ग्रन्धकी रचनाका कारण बतलाते हुए लिखा है कि बलद के जैनन्दिरमें, जहाँके शासक गोविन्दचन्द्र थे, पद्मचन्द्र नामक एक मुनि उपदेश दे रहे थे। उपदेशमें उन्होंने सुकुमालस्वामीका उल्लेख किया । श्रोताओंमें पीछे साहूका पुत्र कुमार नामक एक व्यक्ति था, जिसने सुकुमालस्वामीकी कथा के विषय में अधिक जाननेकी इच्छा व्यक्त की, किन्तु मुनिराजने कुमारको श्रीधराचार्यसे अभ्यर्थना करनेको कहा, जो कि उसकी जिज्ञासा शान्त कर सकते थे। अतः कुमारने श्रीधराचार्यको सुकुमालचरित रचने के लिए प्रेरित किया। कुमार साहुको पुरवाड़ कुलका बताया है । आचार्यने अपनी कृति भी
इन्हींको समपित की है । ग्रन्थ समाप्तिकी तिथि भी निम्न प्रकार है
बारहसइयं गयई कयहरिसई । अट्ठोत्तरई महीयले वरिसई ।
कसणपक्खे अगहणे जाया । तिजदिवसे ससिवारि समापए ||
अर्थात् १२०८ वर्ष व्यतीत होनेपर मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया चन्द्रबारको यह ग्रन्थ समाप्त हुआ।
एक अन्य श्रीधरने अनंगपालके मन्त्री नट्टलसाहुकी प्रेरणापर सं० ११८९,में 'पासणाहपरिउ' की रचना की है । ये कवि हैं और इन्होंने चन्द्रप्रभचरित और बर्धमानचरितकी भी रचना की है । कवि हरियाणा देशके निबासी थे और अग्नवाल कुलमें उत्पन्न हुए थे। आपके पित्ताका नाम गोल्ह और माताका नाम बिल्हा देवी था।
सेनसंघमें श्रीधर नामके एक अन्य प्रसिद्ध आचार्य हा हैं। ये काव्यशास्त्रके मर्मज्ञ, नानाशास्त्रोक पारगामी और विश्वलोचनकोषके कर्ता हैं। इनके गुरुका नाम मुनिसेन बताया जाता है।
श्रवणबेलगोलाके शिलालेख नं ४२ और ४३में दो आचार्य आये हैं। एक आचार्य दामनन्दीके शिष्य और दुसरे मलधारिदेवके शिष्य हैं। इस नामके एक आचार्य वैद्यामतके कर्ता भी माने गये हैं। शास्त्रसारसमुच्चयके रचयिता माघमन्दीने अपनी गुरुपरम्परामें श्रीधरदेवका नाम बताया है।
गणितसारके रचयिताका नाम श्रीधराचार्य है। इनके नामके साथ आचार्य शब्द भी जुड़ा हुआ है, अतएव गणित और ज्योतिषमान्य आचार्य श्रीधर उपर्युक्त सभी श्रीधराचार्योसे भिन्न हैं।
नन्दिसंघ बलात्कारगणके आचार्यों में श्रीधराचार्यका नाम यथावत् मिलता है। दशभक्त्यादि महाशास्त्रमें कविवर वर्धमानने नन्दिसंघ बलात्कारगणकी गुर्वावली निम्न प्रकार दी है
बदमान भट्टारक,पयनन्दि, श्रीधराचार्य', देवचन्द्र, कनकचन्द्र, नयकीत्ति, रविचन्द्रदेव, श्रुतकीत्तिदेव, वीरनन्दि, जिनचन्द्रदेव, भट्टारक वर्धमान, श्रीधर पण्डित, वासुपूज्य, उदयचन्द्र, कुमुदचन्द्र, माघनन्दि, वर्द्धमान, माणिक्यनन्दि, गुणकीति, गुणचन्द्र, अभयमन्दि, सकलचन्द्र, त्रिभुवनचन्द्र, चन्द्रकीत्ति, श्रुत कीत्ति, बर्द्धमान, विधवासुपूज्य, कुमुदचन्द्र और भुवनचन्द्र ।
उपयुक्त गुर्वावली में श्रीधराचार्य और श्रीधर पण्डित ये दो व्यक्ति आये हैं। इनमें श्रीधराचार्य गणितसार, जातकतिलक, कन्नड़ लीलावती,ज्योतिर्ज्ञान
१. प्रशस्तिसंग्रह, आरा, पृ.१३३ ।
२. सस्थ मोरवम्यपद्मनन्दिविधेशो गुणालपः ।
अभवन्द्रीधराचार्यस्तत्सधर्मा महाप्रभः ।।-दशभक्त्यादिमहाशास्त्र, जनसि बात
भवन, बारा, पृ.१०१।
विधि आदि ज्योतिष विषयक ग्रन्थोंके रचयिता और श्रीधर पण्डित जयकुमार
चरितके रचयिता हैं।
'कर्णाटकाचित्ररिते'के उद्धरणसे ज्ञात होता है कि वीधराचार्य के 'जातक तिलक' का रचनाकाल ईस्वी सन् १०४५ है। महाबीराचार्य के गणितसारमें---
धनं बनर्णयोर्चा मुले स्वर्ण तयोः कमात् ।
ऋणं स्वरूपातोच! यतस्तस्मान्न तत्पदम् ।
धनात्मक पाचं ऋणात्मक राशियोंका बर्ग धनात्मक होता है और उस वर्ग राशिके बर्गमल क्रमश: धनात्मक और ऋणात्मक होते हैं । यत: बस्तुओंके स्वभाव (प्रकृति) में ऋणात्मक राशि, वर्गराशि नहीं होती, इसलिये उसका कोई वर्गमूल नहीं होता।
उपर्युक्त गणित्तसारसंग्रहका सूत्र श्रीधराचार्य का सूत्र है । अतः स्पष्ट है कि श्रीधराचार्य महावीराचार्यके पूर्ववर्ती हैं। महावीराचार्य ने अपने गणितसार संग्रहमें अमोघवर्षका निम्न प्रकार स्मरण किया है
प्रीणितः प्राणिसस्योघो निरीतिनिरवग्रहः ।
श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्टहितैषिणा ।
विध्वस्तैकान्तपक्षस्य स्थाद्वादन्यायवादिनः ।
देवस्य नपतङ्गस्य बर्धता तस्य शासनम् ।।
इन पद्योंसे स्पष्ट है कि अमोघवर्ष के शासनकाल में गणितसारसंग्रहकी रचना हुई है। राष्ट्रकूटवंशी इस राजाका समय ईस्वी सन् ८१५-८६५ है। अतएव गणितसारसंग्रहकी रचना नवीं शताब्दी में हुई है । इस प्रकार श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सन् ८५० के पहले आता है। .
धीधराचार्यका उल्लेच्छ भास्कराचार्य, केशव, दिवाकर, देवज्ञ आदिने आदरपूर्वक किया है।
१. गणितसार संग्रह, सोलापूर संस्करण, ११५२ ।
२. वही, १। ३ ।
३. वही, १।८ ।
४. यत् पुनः श्रीचराचार्य: ब्रह्मगुप्ल्यादिभिासवर्माद्दशगुणात्पदं परिधिः स्थूलो प्यङ्गीकृत:
स मुन्नार्थम् । न हि त जानन्तीति-सिद्धान्तशिरोमणि गोलाध्याय, भुवनकोश, श्लोक ५रको टीका।
५.श्रेष्ठ रिष्टहतो दशाश्तम् इहौजः श्रीधरादयोदितम् ।। काटेरचनबलान्तरात् क्व च कृतं तद्युक्तिशून्य त्वसत् ।।-केशवीय पति हो०३२ ।
श्रीधराचार्य द्वारा विरचित ज्योतिर्ज्ञानविधिमें एक प्रकरण प्रतिष्ठामुह ता है, इस प्रकरणके समस्त पद्य वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठमें' ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं। ज्योति नविधि ज्योतिषका स्वतन्त्र ग्रंथ है, अतः प्रतिष्ठापाठके मुहूर्त विषयक लोक इस ग्रन्थमेंसे लेकर प्रतिष्ठापाठमें उद्धृत किये गये होंगे। जैन साहित्य में वनदि नामो सन लाथार्य मिला है...-एकका समय वि०सं०५३६, दुसरेका वि०सं०७०४ और तीसरेका विक्रम संवत् १३९५ है। मेरा अनुमान है कि अन्तिम बसुनन्दि ही प्रतिष्ठापाठक्के रचयिता हैं । अतः यह मानना पड़ेगा कि विक्रम संवत् १३९५में श्रीधराचार्यके प्रतिष्ठामुहर्नश्लोकोंका संकलन बसुनन्दिने किया है।
श्रीधराचार्यके समयनिर्धारणके लिए एक और मबल प्रमाण ज्योतिर्ज्ञान विधिका है। इस ग्रन्थमें मासधुवा साधनकी प्रक्रिया करने में वर्तमान शकाब्दमें से एक स्थानपर. ७२० और प्रकारान्तरसे पुनः इस क्रियाके साधनमें ७२१ घटाये जानेका कथन है। ज्योतिषशास्त्र में यह नियम है कि अहर्गण साधनके लिए प्रत्येक गणक अपने गत शकाब्दके वर्षोंको या वर्तमान शकाब्दके वर्षोंको क्रिया करते समयके शकाब्दके वर्षों से घटाकर अन्य क्रियाका विधान बतलाता है। उदाहरणार्थ ग्रहलाघव आदि कर्णग्रन्थोंको लिया जा सकता है। इन ग्रंथोंके रचयिताओंने अपने समयके गत शकाब्दको घटानेका विधान बताया है । अतएव यह निश्चित है कि श्रीधराचार्य ने भी अपने समयके गत शकाब्द और वर्तमान शकाब्दको घटानेका विधान किया है । जहाँ इन्होंने क्रिया करते समयके शकाब्द मेंसे ७२०को घटानेका विधान बतलाया है, वहाँ गत शफाब्द माना जायेगा
और जहाँ ७२१के घटानेका कथन है, वहाँ वह वर्तमान शक है ।
इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रमाण यह भी है कि प्रकारान्तरसे मालध्रुवा नयनमें ७२१को करणादकाल बतलाया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि शक संवत् ७२१में ज्योतिर्मानविधिकी रचना हुई है। लिखा है
करथिन्यून शकाब्द करणाब्द रयगुणं द्विसंस्थाप्य ।
रागहृतमदोलब्धं गतमांमाश्चोपरि प्रयोज्य पुनः ।।
संस्थाप्याथो राधागुणिते खगुणं तु वर्षदेखादि |१|
संत्याज्ये नीचाप्ते लब्या वारास्तु शेषाः घटिकाः स्युः ।।२।।
१. ज्योति नविधि-आरा पाण्डुलिपि, प० २६ ।
२. वमुनन्दिप्रतिष्ठापाठ, प्रथम परिच्छेद, पच १-६ ।
३. ज्योतिनिविधि, आरा जैनासदान्त भवन की पाण्डुलिपि. पत्र ५ ।
अर्थात्-कथि७२१ करणाब्द शकको वर्तमान शकमेंसे घटाकर १२से गुणा कर गुणनफलको दो स्थानोंमें रखना चाहिये। एक स्थानपर ३२से भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे गतमास ममझना और गतमासोको अन्य स्थान बाली राशिमें जोड़ देना चाहिये । पुन: तीन स्थानों में इस राशिको रखकर एक स्थान में १.२से, दूसरेमें इसे और तीसरेमें २२से मुणा कर क्रमशः एक दूसरेका अन्तर करके रख लेना । जो संख्या हो उसमें ६२का भाग देनेपर लब्ध बार और शेष घटिकाएँ होती हैं।
__यहाँ पर शक संवत् ७२१ ग्रन्थरचनाका समय बताया गया है । महावीरा धार्थने इसीलिये अपने पूर्ववर्ती श्रीधराचार्यके करणसूत्रको उद्धृत किया है। समस्त जैनेतर विद्वानोंने श्रीधराचार्य के सिद्धान्तोंकी समीक्षा भी इसीलिये की है कि वे उनके सम्प्रदायक आचार्य नहीं थे।
यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि श्रीधरके 'जातकतिलक'का रचनाकाल ईस्वी सन् १०४९ निर्धारित किया है। इसका समन्वय किस प्रकार सम्मव होगा? यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'जातकतिलक में रचनाकालका निर्देश नहीं किया है। विद्वानान वयं विषय और भाषाशलीके आधारपर इस ग्रन्थके रचनाकालका अनुमान किया है। यथार्थत: इसन्दा रचनाकाल ई० सन् १०४१ से पहले होना चाहिये।
इन आचार्यकी प्राचीनताका एक अन्य प्रमाण यह भी है कि इन्होंने गणित सारमें गणितसम्बन्धी जिन सिद्धान्तोंका प्रतिपादन किया है, उनमें कई सिद्धान्त प्राचीन परम्परानुमोदित है। उदाहरणार्थ बुत्तक्षेत्रसम्बन्धी गणितको लिया जा सकता है। वृत्तक्षेत्रकी परिधि निकालनेका नियम--"च्यासवर्गको दससे गुणा कर बर्गमूल परिधि होती है" यह जैन सम्प्रदायका है। वर्तमानमें उपलब्ध सूर्यसिद्धान्तसे पहलेके जैनग्रन्थोंमें यह करणसूम पाया जाता है। जैनेतर माहित्यमें सूर्यसिद्धान्त ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें इस सूत्रको स्थान दिया गया है । जैनेत्तर प्रायः सभी ज्योतिविदोंने इस सिद्धान्तकी समीक्षा की है तथा कुछ लोगोंने इसका खण्डन भी। श्रीधराचार्य ने इस जैनमान्यताका अनुसरण किया है तथा प्राचीन जैनगणितके मूलतत्त्वोंका विस्तार भी किया है। अत एव श्रीधराचार्यका समय ईस्वी सनकी आठवीं शतीका अन्तिम भाग या नवम शतीका पूर्वाधं है।
श्रीधराचार्यकी ज्योतिष और मणित विषयक चार रचनाएँ मानी जाती हैं।
१. गणितसार या त्रिशतिका।
२. ज्योतिर्ज्ञान विधि-करणविषयक ज्योतिष ग्रन्थ ।
३ जातकतिलक-जातक सम्बन्धी फलित ग्रन्थ ( कन्नड़ भाषा)।
४. बीजगणित बीजगणितविषयक गणित ग्रन्थ ।
गणितसार गणितविषयक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थके अन्तमें निम्नलिखित पद्य प्राप्त होता है।
उत्तरतो हिमनिलयं दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत् ।
प्रागपरोदधिमध्ये नो गणकः श्रीधरादन्यः ।।
इससे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्य की कात्ति कौमुदी उस समय समस्त भारतमें व्याप्त थी । ज्योतिषशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदी ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
"भास्करेणाऽस्याने प्रकारास्तस्करवंदपहृताः । अहो सुप्रसिद्धस्य भास्करा दितोऽपि प्राचीनस्य विदुषोऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान संशय: । प्राचीना एकशास्त्रमात्रकदिनो नाऽऽसन्, ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्नत्र न संशयः।"
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीधराचार्यके गणितसम्बन्धी अनेक नियमों को भास्कर जैसे धुरन्धर गणकोंने ज्यों-का-त्यों अपना लिया है।
गणितसार या विशतिकाकी नागरी अक्षरोंमें लिखी प्रति श्री पं० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य, काशी द्वारा संस्कृत टीकासहित प्राप्त हुई थी। इस प्रतिके संक्षिप्त टिप्पणोंके आधारपर इतना ही कहा जा सकता है कि यह गणितका अद्भुत ग्रन्थ है।
इसमें अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, धन, धनमूल, भिन्नसमच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, भागानुबन्ध, भागमातृजाति, राशिक, पंचराशिक, सप्तराशिक, नबराशिक, भाण्ड, प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाजकन्यवहार, एक पत्रोपकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, सक्रिय-विक्रयाणित, श्रेणिव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार एवं छायाव्यवहारके गणित उदाहरणसहित दिये गये है। इस ग्रन्थका जेन एवं जैनेतरोंमें अधिक प्रचार रहा है। गणिततिलककी संस्कृत भूमिकामें कहा गया है
"गीर्वाणगीगुम्फितो मनोरमविविधच्छन्दोनिबद्धः सपादशतपश्चमितो गणिततिलकसंज्ञकोऽय ग्रन्थः श्रीधराचार्यकृतत्रिंशत्याधारेण निर्मित इत्यनुमीयते कतिपयानां पद्यानां साम्यावलोकनेन ।"
१ गणकतरंगिणी, पृ०२४।
इन पंक्तियोंसे स्पष्ट है कि श्रीपतिने इनके गणितसारके अनुकरणपर ही अपने गणितग्रन्थकी रचना को है। श्रोसितिलकरिने अगनी तिलकामक कृतिमें गणित्तसारका आधार लेकर गणितविषयक महामाओं निर्देश निया है। इन्होंने अपनी वृत्तिमें श्रीधराचार्य के सिद्धान्तको दुधगानोको तारशिला दिया है। इस अन्धकी जो पाण्डुलिपि प्राप्त है, उसमें ४५ ताड़पत्र हैं, प्रति पत्रमें छ: पक्तियाँ और प्रति पंक्तिमें ८५ अक्षर हैं । पाण्डुलिपिका मंगलाचरण निम्न प्रकार है...
मत्वा जिनं स्वविरचितपाट्या गणित्तस्य सारमुत्य ।
लोकव्यवहाराय प्रवक्ष्यति धीराचार्यः ।।
त्रिशतिकाकी जो मुद्रित प्रति पायी जाती है, उसमें जिम के स्थानमा 'शिव' पाठ मिलता है। मंगलाचरण बदलनेकी प्रथा केबल इसी अन्य तक मीमित नहीं है, किन्तु और भी कई लोकोपयोगी ज्योतिः और आयुर्वेदवे ग्रंथों में मिलनी है। ज्योतिष और आयुर्वेद दोनों विषय सर्वसाधारणके लिए उपयोगी रहे हैं, जिससे लिपिकर्ताओं या सम्पादकोंकी कृपासे मंगलाचरणों में परिवर्तन होता रहा
है। मानसागरी में भी यह परिवर्तन देखा जा सकता है।
ज्योतिषशास्त्रका यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें करण, संहिता और महत इन तीनों विषयोंका समावेश किया है। यह ग्रन्थ दस प्रकरणों में विभक्त है
१. संशाधिकार-ज्योतिष विषयक संज्ञाएं वर्णित हैं।
२. तिथ्याधिकार-तिथिमाधन, तिथिशुद्धि आदि ।
३-४. संक्रान्ति-ऋत्वहोरात्रिप्रमाणाधिकार ।
५. ग्रहनिलयाधिकार !
६. ग्रहयुद्धाधिकार।
७. ग्रहणाधिकार ।
८. लग्नाधिकार ।
९. गणिताधिकार । ।
१०. महाधिकार।
इसके प्रारम्भमें साठ संवत्सर, तिथि, नक्षत्र, वार, योग, राशि एवं करणों के नाम तथा राशि, अंश, कला, विकला, घटी, पल आदिका वर्णन किया गया है। द्वितीय परिच्छेदमें मास और नक्षत्र ध्रुवाका विस्तारहित निवेचन किया है। इस प्रकरणके प्रारम्भमें शक संवत् निकालने का सुन्दर करण सूत्र दिया है।
१. गणिततिलक वृत्ति पृ० ४, ९, ११, १७, ३९ ।
नष्टिः षोड़शाणित व्ययगत्तसंवत्सरैश्च सम्मिश्रम ।
नवशून्याब्धिसमेतं शकनृपकालं विजानीयात् ॥
अर्थात्-बीती हुई संवत्सर संख्याको १८से गुणाकर ६० जोड़ देनेपर जो संख्या आने, उममें ४०५. और युक्तकर देनेगर शक संवत् आ जाता है। तृतीय सिथ्याधिकारमें मध्यम रवि, चन्द्र और स्पष्ट रवि, चन्द्रके साधनके पश्चात् अन्तरांशों परसे तिथि साधनकी प्रक्रिया बतलायी गयी है। मास वा परसे भी तिथिका साधन किया है ! चतुर्थ परिच्छेदमें संक्रातिके साधनकी क्रियाका सुन्दर वर्णन है । प्रारम्भका पद्म निम्न प्रकार है---
नोनवगुणकरणाब्दं वर्षोनं सुकलोद्भुतं बारम् ।
न च गुणतद्धृतशेषं घटिका श्रीधरयुक्तं तेन संक्रान्त्या ।। यहाँ श्रीवर शब्दमें श्लाष है; नन्थकनि अपने नामका निर्देश कर दिया है तथा श्रीको धर शब्दसे पृथका कर २०. जोड़नेवाली संस्थाको भी बता दिया है।
इस प्रकरणमें दिन-रातका प्रमाण निकालनेकी विधि निम्न प्रकार बत्त लायी है
मकरादि-कर्कटादि ज्ञात्वा राश्य॑शमुक्तिरिह खगुणा ।
- तत्र नरातप युक्तं नीचहुतं दिवसरात्रिप्रमाणम् ।।
अर्थात्-मकरसे लेकर मिथुन तक अभीष्ट सूर्यके राश्यादि शात करे । इस राश्यादिके अंश बनाकर अंशोंको दो से गुणा करे। गुणनफलमें १६२० जोड़े और योगफलमें ६० का भाग देमेसे घटनात्मक दिनप्रमाण आता है। कर्कसे लेकर धनु तक अभीष्ट सूर्य के राश्यशोंके अंश बनाकर दोसे गुणा करनेपर जो आवे, उसमें १६२० जोड़कर योगफलमें ६०का भाग देनेसे घटयात्मक रात्रि प्रमाण आता है। ____ इस प्रक्रिया द्वारा परम दिनमान ३३ घटी आयेगा । अब विचार यह करना है कि यह दिनमान किस स्थान में सम्भव है, क्योंकि अन्धका जिस स्थानका निवासी होता है, प्रायः उसी स्थानके दिन-मानादिका निरूपण करता है। ज्योतिष गणितके आधारपर कहा जा सकता है कि उक्त दिनमान १९३८ अक्षांगवाले स्थानवा है। विचार करनेपर यह अक्षांश तमिलनाडु प्रान्तके कई जिलोंमें आता है । अत्त: यह सम्भव है कि श्रीधराचार्य के इस ग्रन्थका निर्माण तमिलनाडु के किसी जिलेमें हुआ हो अथवा तमिलनाडु श्रीधराचार्यकी जन्मभूमि रही हो। क्योंकि उत्तरभारतमें परम दिनमान ३६ घटी तक रहता है। अतः श्रीधराचार्यको जन्मभूमि सम्भवतः तमिलनाडुमें रही होगी।
पञ्चम परिच्छेदमें शनि, राहु, मंगल, बुध गुरु और शुक्र-इन ग्रहोंका
स्पष्टीकरण किया गया है। ग्रहों की गतिसाधन नियाका बहुत ही सुन्दर वर्णन आया है। षष्ठ परिछेदमें ग्रहोंके युद्धका वर्णन किया गया है। प्रारम्भमें ग्रह युद्धकी परिभाषा बतलाते हुए लिखा है
राश्यंशकलाः सर्गः यदा भवेयुः समा दुयोग्रहयोः ।
योगस्तयोस्तदा जायते च तयुद्ध मिति वाच्यम् ।।
अर्थात् जब दो ग्रहोंके राशि-अंश कला समान हों, उस समय उन दोनोंका योग युद्ध-संज्ञक होता है। इस युद्धके प्रधाननः पुरत: दृष्ट युद्ध और एस दृष्ट बुद्ध ये दो भेद बतलाये तथा इनका विस्तारसहित वर्णन भी किया है। इसके पश्चात् सप्तम परिच्छेद ग्रहणाधिकार नामका है। इसमें विक्षेप, लम्बन, नति आदिके सामान्य गणितके साथ ग्रहणको दिशा, ग्रास, स्पर्श और मोक्षकी मध्यम घटिकाओंका आनयन किया है ।
अष्टम प्रकरण लग्न साधनका है। इसमें शंकुच्छाया, पदच्छाया आदि नाना प्रकारोंपरसे लग्न-साधन किया है । ग्रहों के संस्कार भी इस प्रकरण में बताये गये हैं। यह प्रकरण पर्याप्त विस्तृत है। गणितके कुछ कर्णसूत्र भी इसमें आये हैं । इसके अनन्तर लान-सिद्धि प्रकरण में प्रतिष्ठामुहर्त, यमघंटक, कुलिक, प्रहराध पात, कचउत्पात, मृत्यु, काण, सिद्ध, अमत आदि योगोंके लक्षण दिये गये हैं। दशम प्रकरण में नक्षत्रोंके वृक्ष, देवता एवं शुभाशुभत्वका प्रतिपादन किया है। यह ग्रन्थ अपूर्ण है।
जातक तिलक कन्नड़ भाषामें लिखित जातक सम्बन्धी ग्रन्थ है।
गुरु | |
शिष्य | आचार्य श्री श्रीधराचार्य |
स्वतन्त्र-रचना-प्रतिभा के साथ टीका, भाष्य एवं विवृत्ति लिखनेकी क्षमता भी प्रबुद्धाचायोंमें थी । श्रुतधराचार्य और सारस्वताचार्योंने जो विषय-वस्तु प्रस्तुत की थी उसीको प्रकारान्तरसे उपस्थित करनेका कार्य प्रबुद्धाचार्योने किया है । यह सत्य है कि इन आचार्योंने अपनी मौलिक प्रतिभा द्वारा परम्परासे प्राप्त तथ्योंको नवीन रूपमें भी प्रस्तुत किया है। अतः विषयके प्रस्तुतीकरणकी दृष्टिसे इन वाचायोका अपना महत्त्व है।
प्रबुद्धाचार्यों में कई आचार्य इतने प्रतिभाशाली हैं कि उन्हें सारस्वताचार्योकी श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है। किन्तु विषय-निरूपणको सूक्ष्म क्षमता प्रबुद्धाचार्योंमें वैसी नहीं है, जैसी सारस्वताचार्यों में पायी जाती है। यहाँ इन प्रबुद्धाचार्योंके व्यक्तित्व और कृति तत्वका विवेचन प्रस्तुत है।
Aacharya Shri Shridharacharya 9 Th Century
Santosh Khule Created Wiki Page Maharaj ji On Date 30-April- 2022
Digjainwiki is Thankful to
Balikai Shashtri ( Bahubali - Kholapur)
Neminath Ji Shastri ( Bahubali - Kholapur)
for referring the books to the project.
Author :- Pandit Nemichandra Shashtri - Jyotishacharya
Acharya Shanti Sagar Channi GranthMala
#Shridharacharya9ThCentury
15000
#Shridharacharya9ThCentury
Shridharacharya9ThCentury
You cannot copy content of this page